Saturday, March 14, 2009

भारतीय संस्कृति और दिनकर की आर्य दृष्टि


"आर्यत्व" अगर कुछ है...


बीसवीं शती पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत में भी प्रति-औपनिवेशिक चेतना अथवा प्रत्याख्यान रचने और विकसित करने की सदी रही है। इस सदी में भारत दो तरह के महायुद्ध में शामिल था। एक का स्वरूप सांस्कृतिक था तो दूसरे का राजनीतिक। दोनों एक दूसरे को पुष्ट करते अथवा जल प्रदान करते थे। सांस्कृतिक चेतना के उन्मेष-काल में भारतीयता की खोज जोर-शोर से शुरू हो चुकी थी। पूर्वी और पाश्चात्य दोनों ही ओर के विद्वान इस गंभीर कर्म को अंजाम देने में लगे थे। इस क्रम में भारत की जो तस्वीर बन रही थी वह काफी कुछ मिश्रित किस्म की थी। विदेशी लेखकों में ऐसे कई थे जिनके दिमाग में यह राष्ट्र अजीब-सी चीजों का मिश्रण था- सपेरों, नटों और रहस्यवादियों का देश। इनकी राय में भारत की सामान्य जनता घोर आध्यात्मिक जीव थी जो पेड़ की पत्तियां चबा कर और हवा पीकर गुजारा करती थी। विद्वानों का एक दूसरा वर्ग भी था जो इसकी प्रति-छवि रचने में रत था। विदेशी विद्वानों के साथ कई देशी विद्वान भी इस कर्म में लीन थे। नेहरू, निराला, दिनकर सभी भारत की खोज की रोमांचक यात्रा पर निकल चुके थे। लेखकों में नेहरू और दिनकर ने भारत को समग्रता में देखने की कोशिश की परंतु कहना होगा कि भारत को सबसे अधिक समग्रता में और स्पष्टता के साथ अकेले नेहरू ही देख सके।


दिनकर ने भारतीय इतिहास और संस्कृति को चार अध्यायों में बाँटकर देखा है जो भारतीय संस्कृति के चार अध्याय हैं। उन्हीं के शब्दों में लगभग दो वर्षो के अध्ययन के पश्चात् मेरे सामने यह सत्य उद्भासित हो उठा कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियाँ हुई है और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रांतियों या इतिहास है। पहली क्रांति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियो से संपर्क हुआ। आर्यो ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की वही आर्यो अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आर्यो के दिए हुए हैं और उसका दूसरा आधा आर्येतर जातियों का अंशदान है। दिनकर का "आर्यत्व" (अगर ऐसा कुछ होता हो) इतना ही कहने से संतुष्ट न हुआ। इसलिए आगे वे और बढ़-चढ़कर लिखते हैं, असल में, भारतीय जनता की रचना आर्यो के आगमन के बाद ही पूरी हो गई और जिसे हम आर्य या हिन्दू सभ्यता कहते हैं, उसकी नींव भी तभी बाँध दी गयी। आर्यो ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का समन्वय किया, उसी से हमारे हिन्दू समाज और हिन्दू संस्कृति का निर्माण हुआ।


दिनकर का भारतीय समाज-संस्कृति विषयक मूल्यांकन कई कारणों से गड़बड़ हुआ जान पड़ता है। अब्बल तो भारतीय संस्कृति का सत्य उद्भासित होने के लिए दो वर्षो का अध्ययन पर्याप्त नहीं माना जा सकता। मतलब यह कि अपने अत्यंत गंभीर कर्म के लिए दिनकर ने यथोचित ‘होमवर्क’ नहीं किया। दूसरे, जब वे हमारे हिन्दू समाज और हिन्दू संस्कृति कहते हैं तो आर्यो अथवा हिन्दूओं के साथ उनका एकात्मक संबंा जाहिर होता है। यही कारण है कि हिन्दू सभ्यता और विशेशकर आर्यो पर बात करते हुए वे एक संस्कृति चिंतक कम, उसके पैरोकार ज्यादा हो जाते हैं। यह दूहराना अनावश्यक सा प्रतीत होगा कि इतिहास वस्तुनिष्ठता और उससे भी ज्यादा निर्ममता की माँग करता है। सदास्था के लिए शायद यहाँ कोई जगह नहीं होती। अपने आरंभिक दिनों में दिनकर इतिहास के विधिवत छात्र रहे थे इसलिए उन्हें इतिहास की क्रूरता का अंदाजा तो होगा ही। अलबŸाा उससे सीख नहीं ली। हीगेल का कोई अप्रत्यक्ष प्रभाव रहा हो।


शुद्धता की चिंता और काले होते आर्य...


प्रस्थान बिन्दु यह है कि भारत में आर्यो का आगमन कई दृष्टियो से एक पिछड़ा हुआ कदम था। वे भारत में अर्थ-विचरणशील पशुचारियों के रूप में आये थे। उनका निर्वाह मुख्यतः पशु-उत्पादनां से होता था और कुछ समय तक पशुपालन ही उनका मुख्य व्यवसाय रहा। अतएव पशुओं के लिए चारागाह की खोज में वे भ्रमणशील होते। एक जगह टिककर जीने की आर्यो ने न तो अबतक कला सीखी थी और न ही उसने इसकी कभी जरूरत महसूस की थी। कृषि-कर्म के अभाव ने एक जगह जमने की उनकी बाध्यता ही समाप्त कर रखी थी, बल्कि शहरें, दुर्गो और स्थायी बनी बस्तियों को वे नष्ट कर रहे थे। आर्य संस्कृति की बात करते हुए हमें ध्यान में रखना चाहिए कि संस्कृति का शहर से कोई रिश्ता बनता है अथवा नहीं। भारतीय इतिहास में हुए शोधों-गवेषणाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक जमाने के आर्यो की कोई समरूप संस्कृति विकसित न हो सकी थी। पुरातत्व विज्ञान की भाषा में कहें तो उनके अपने कोई विशिष्ट प्रकार के वर्तन, औजार अथवा हथियार न थे। ऐसा कुछ भी न था जिसे आर्यो के साथ जोड़ा जा सके। भारत की भूमि पर आने के बाद आर्यो को जो कुछ भी हाथ लगता गया, उसे अपना बनाते गये।


सबसे दुखद और हास्यास्पद बात तो यह है कि उनकी अपने कहलाने वाली औरतें की आबादी में बहुत थोड़ी ही थीं। वैदिक देवताओं में कई ऐसे हैं जिन्हें आजीवन अविवाहित रहने का अभिशाप झेलना पड़ा है। आर्य देवता भी अधिकतर पुरुष हीं हैं, पर कुछ देवियाँ पहले के युगों से और पहले के लोगों से ली गई जान पड़ती है। यह बात भी मतलब से खाली नहीं है कि आर्यो के जीवन में झगड़े का अवसर मुख्य रूप से गायों एवं स्त्रियों की चोरी के कारण पैदा होता है। रामायण में सीता-हरण और महाभारत में भीष्म द्वारा तीन-तीन औरतों को उठा ले जाने की बात वैदिककालीन परिस्थितियों की स्मृति रही होगी। हमारे प्राचीन महाकाव्यों के ‘वीर’ स्त्रियों को उठाये अथवा चुराये बगैर ‘नायक’ घोषित नहीं हो सकते थे। जो ‘स्वंयवर’ की प्रथा के बहाने स्त्रियों की आजादी की बात करते हैं वे बताएँ कि एक स्त्री को प्राप्त करने के लिए हजारों की भीड़ में जो आपसी कठिन प्रतिदृंदिता होती थी वह किस बात की तरफ इशारा करती है। वर्णश्रम नियमों की सख्ती के बावजूद अनुलोम विवाह की सुविधा छोड़ रखी गई थी। रक्त की शुद्वता की तमाम चिंता एवं दावों के बावजूद गोरे आर्य काले होते जा रहे थे। आर्यो का यह भारतीयकरण अथवा अनार्यीकरण दिनकर को आर्य संस्कृति का फैलाव नजर आता है।


कहना होगा कि यह अकेले दिनकर की परेशानी नही है। दरअसल, भारत एवं यूरोप दोनो ही जगहों पर आर्यों को केन्द्र मे रखकर इतिहास लेखक का काम होता रहा है। इसमें यह भावकी काम करता रहा है कि हम आर्य जाति की संतान हैं। इसका स्वाभाविक नतीजा यह हुआ कि आर्यो से ताल्लुक रखनेवाली प्रत्येंक चीज को महिमा मजिल करने का रिवाज चल पड़ा। उदाहरण के तौर पर स्वयं आर्य शब्द को लिया जा सकता है। इस शब्द का सबसे पुराना अर्थ धुमन्तू अथवा पशुचारी या कि खानाबदोश रहा होगा। आर्य शब्द की व्यूत्यपित विद्वान तर धातु से बताते हैं और गमनार्थक/गत्यर्थक प्रयोग करते है। आर्य जब खेती करना सीख गये होगे तो पुरानी व्यत्पति से काम चलाना मुश्किल हो रहा होगा अतएव अट् धातु से इसे व्युप्तन्न बताया जाने लगा। अट् धातु का मतलब खेती करने से लिया गया। तब भी आर्य शब्द में "श्रेष्ठ" का भाव नही आया था। यह निश्चित रूप से आर्यो के विकासक्रम में अगले चरण का कमाल रहा होगा। इस चरण में आकर आर्य श्रेष्ठता बोध से भर गया। निश्चित रूप से यह वह काल रहा होगा जब सामाजिक स्तरीकरण तीखा और वर्ग-विभेद की जड़े गहरी हो रही होगी। इन तथाकथित श्रेष्ठ जनों की भाषा भी संस्कृत कहलायी "प्राकृत" अथवा "अपभ्रंश" नही। समाज में जब श्रेष्ठ और "हीन" लोगों का बँटवारा हो गया तो भाषा की दुनिया में भी एक लकीर खींच दी गई। संस्कृत को श्रेष्ठ भाषा का दर्जा दिया गया और प्राकृत को हीन भाषा का। यहाँ इस बात का रखने और विस्तार में जनों की शायद जरूरत नही है कि दोनों ही श्रेणी के लोगों के लिए सख्त हिदायत भी दी गई कि वे भासक अपनी ही भाषा का प्रयोग करें।


आर्य संस्कृति और दिनकर का अवैज्ञानिक बोध...


मजे की बात है कि आर्य केवल भारत में नही श्रेष्ठ घोषित हुए, बल्कि दुनिया के अधिकतर देशों में जिन्हें प्रथम दर्जे का नागरिक बनाया गया क्योंकि उन देशों में उनकी संतानों मौजूद थी। आर्यो के एक बडे़ उद्वारक मैक्स मूलर हुए। वे जर्मनी के रहनेवाले थे। वहाँ प्राचीन आर्य चिह्नों की पूजा होती रही है। हिटलर उसी का दम भरता था। इरान को तो सीधे-सीधे आर्य शब्द से जोड़ ही दिया गया है। बताया जाता है कि इरान की उत्पति "आर्यानामा" अर्थात आर्यों का देश से हुई है। क्या यह महज संयोग है कि मनुष्यों में आर्य श्रेष्ठ हुए और भाषाओं में आर्यमय भाषा-परिवार! यह एक स्थापित तथ्य है कि भारत के चारों भाषा परिवारों में सबसे ज्यादा काम आर्य भाषा-परिवार पर हुआ है।


आर्य संस्कृत बोलते थे कह सकते है कि संस्कृत बोलने वाले लोग आर्य (श्रेष्ठ) कहे जाते थे। इसलिए अकारण नही है कि आर्यों के साथ-साथ उसके द्वारा बोली जानेवाली भाषा संस्कृत के मामले में भी विद्धानों के बीच मुग्द्यता की स्थिति बनी रही है। इस भाषा की समृ़ित के गीत गाते विद्धान कभी नही थकते। खासकर वेदों की भाषा का वर्णन वे इस अंदाज में करते हैं मानो उसने विकास सारी मंजिले पार कर ली हों। दुनिया की किसी भी भाषा के क्रमिक विकास के चरणों एवं चिह्नों को स्पष्टता के साथ देखा-दिखाया जा सकता है। दुनिया की अन्य सभी भाषाओं की तरह संस्कृत का विकास बोल-चाल की भाषा से हुआ हैं इसके पर्याप्त संकेत वेदों की भाषा में देखने को मिलेगें। अगर आप गौर करें तो तो पायेंगे कि संस्कृत भाषा का विकास सामान्य से विशेष अर्थ की ओर, अनिश्चिता और व्यापक अर्थ से निश्चित और सीमित अर्थ की ओर हुआ हैं। उदाहरण के बतौर मृग शब्द को लिया जा सकता है जिसका मूल अर्थ पशु था जो मलमालम में आज भी सुरक्षित है, लेकिन संस्कृत में सामान्य अर्थ से विशेष अर्थ की ओर भाषा की प्रगति को कारण इसका अर्थ एक विशेष पशु हो गया।


वास्तव में मृग का मूल अर्थ का जिसे ढूँढा जाता था इसलिए उनकी संज्ञा मृग पड़ गई थी। मृगया में शिकार संबंधी अर्थ और मृगेन्द्र, मृगराज (पशुओं का राजा, सिंह) शाखा मृग में पशुमात्र का अर्थ अब भी सुरक्षित है। इस बात की संभावना है कि बर्बरता, वीरता या साहस के शिथिल हो जाने के कारण मनुष्यों ने भयंकर पशुओं की अपेक्षा हरिणों का शिकार करना आरंभ कर दिया हो। शिकार में अब केवल हरिण को ही ढूँढने के कारण मृग संज्ञा उनके लिए रूढ़ हो गई। यहाँ हमारा जोर इस बात पर है कि वैदिक संस्कृति अथवा आर्यों का संस्कृति की जो भौतिक एवं भाषिक संपदा है वह अपने विकास के शैशवकाल में हैं, निर्माण के क्रम में है। कहना होगा कि आर्य जिन-जिन चीजों के और जैसे-जैसे संपर्क में आ रहे है, उसकी अलग से पहचान कर रहे हैं और सबकों एक नया शब्द और नया अर्थ दे रहे है। एक समय था जब लगभग शताधिक चीजों के लिए महज एक शब्द ‘गो’ से काम चलाया जाता था। हैंरत अंग्रेज बात तो यह कि संस्कृति के पुरोधा अर्थात स्वयं मनुष्य के लिए भी कभी-कभी मृगशब्द ही से काम चलाया जा रहा है।


सार यह है कि भारत में आर्यो के आगमन से क्रांतिकारी परिवर्तन इस वजह से संभव न हुआ कि वे अपने साथ एक अंत्यत विकसित भाषा एवं भौतिक संस्कृति साथ लाए थे। ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि तुलना में आर्य लोग ईसा पूर्व की तीसरी सहस्त्राब्दी की उन महान नगरी में संस्कृति से श्रेष्ठ नही थे जिनपर उन्होने हमला किया और जिन्हें प्रायः नष्ट कर डाला। वस्तृतः जिस बात के लिए के लिए इन लोगों को विश्व इतिहास कि में इतना महत्व मिला है, वह थी इनकी बेजोड़ गतिशील, जो इन्हें मवेशियों के चल खाद्य-भंडार के रूप में, युद्ध में अश्व-रथ के रूप में और भारी माल ढोने के लिए बैलगाड़ी के रूप में प्राप्त हुई थी। इनकी मुख्य उपलब्धि यह थी कि इन्होंने ईसा पूर्व तीसरी सहस्त्राब्दी की महान नदी घाटी सभ्यताओं से दूर बसी हुई, अवरूद्ध तथा प्रायः पतनोन्मुख कृषक बिरादरियों के बीच के अवरोधों को बड़ी निर्ममता से नष्ट कर डाला।


साधारणतः आर्य और आर्य-पूर्व लोगों के मेल-जोल से नई आर्य भाषा के साथ, नई बिरादरियाँ बनीं। आर्यो में नया सीखने की अदम्य लालसा की जो उनके बड़ी काम आई। आरंभिक आर्यो में आर्य-पूर्व लोगों की भौतिक एवं भाषिक संस्कृति को अपनाने में न तो कोई हिचक है न झिझक। भाषा में इसके प्रमाण है आर्यो द्वारा दूसरी भारतीय भाषाओं से लिए गए शब्द। लेकिन आर्य संस्कृति के बारे में दिनकर की जो अवधारणा है उसके मूल में यह अवैज्ञानिक बोध है कि आर्य एक उन्नत एवं समृद्ध संस्कृति व भाषा के साथ आए और भारत की अन्य भाषाओं-संस्कृतियों को अधीन कर गये। अंग्रेजी उपनिवेशवाद से लड़ते हुए दिनकर लगता है जाने-अनजाने आर्य अथवा हिन्दुत्व का उपनिवेशवाद रचने की सीमा तक चले गये थे। आज विमर्श के इस नये दौर में ऐसी तमाम चीजों पर एक वस्तुनिष्ठ दृष्टि रखनी होगी तभी हम इतिहास की क्रूरता से किसी राष्ट्र अथवा जाति को बचा सकेंगे।

Monday, March 2, 2009

मुझे मेरे समानधर्मा की तलाश है...



बीसवीं शती पूरी दुनिया के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शती रही है। शायद इसलिए कि इसने मानव-जीवन में कुछ महान कही जा सकने वाली तब्दीलियां पैदा की। लोगों ने भविष्य की घोषणा को इतिहास बनते देखा है। मार्क्स ने समाजवाद का जो सपना (इसमे और भी लोग शामिल थे) देखा था, वह बहुत-कुछ पूरा भी हुआ और टूटा भी। हमारा आधुनिक मन इस पूरी परिघटना से जुड़ा रहा है। इधर सौ-डेढ़ सौ साल के साहित्य पर अगर नजर डाला जाए तो लगता है कि कहीं न कहीं से यह उसके असर मे है।
इस दौर के सृजन का अधिकांश समाजवाद को स्थापित करने और विघटन के दर्द को कम करने की चिंता से ग्रस्त है। सोवियत-संघ के विघटन ने हमारे सपनों पर पानी फेरने का काम किया है। मैं इस विघटन को एक अकेली घटना के बतौर नहीं मानता, बल्कि यह तो एक प्रतीक है जिसकी भाषा में आए युगांतकारी परिवर्तनो को चिह्नित कर व्यक्त किया जा सकता है। यही वह ऐतिहासिक क्षण है जब मार्क्सवादियों और गैर मार्क्सवादियों- दोनों ही ने अपने सुर बदले हैं। विचारधारा का अंत, कविता का अंत और अंततः इतिहास का अंत जैसे नारे इसी अंत (समाजवाद का) की भूमि पर उगे/पनपे हैं।
इन सबकी चर्चा साहित्य के संदर्भ में विशेष महत्त्व रखती है क्योंकि समाजवाद की ही तरह साहित्य भी बेहतर मनुष्य पैदा करने की चिंता से गहरे जुड़ा है। हम कह सकते हैं कि बीसवीं शती ने साहित्य के समक्ष नया यह कहें कि बेहतर मनुष्य रचने की अपनी चुनौती छोड़ रखी है। यों यह साहित्य की, सृजन की शाश्वत चिंता है।
समाजवाद का विघटन और आक्रमण वैश्वीकरण आपस में गहरे जुड़े हैं। एक की पराजय दूसरे का जयघोष है। वैश्वीकरण की इस अंधी दौड़ में आवारा पूंजी की बाढ़ आ गई है। राज्य की लोक-कल्याणकारी भूमिका गौण हो चुकी है। एनजीओ फल-फूल रहे हैं। सरकार राज्य की सबसे बड़ी एनजीओ के रूप में तब्दील हो चुकी है जिसके जिम्मे ‘मॉनिटरिंग’ का ‘पुनीत दायित्व’ सौंप दिया गया है। बाजार की दिनानुदिन बढ़ती पैठ और आक्रमण उपयोगितावाद ने मानव की गरिमा को अपना ग्रास बनाया है। मूल्य बाजार की दुनिया में गुजरे जमाने की बेकार चीज होकर रह गए हैं। ‘लिखो-फेंको’, यूज एंड थ्रो और हायर एंड फायर हमारे जमाने के मूलमंत्र हैं। इसमें मानवीय गरिमा और संवेदना के लिए स्पेस बहुत कम रह गया है। लगभग नही के बराबर। सहानुभूति और संवेदना गुजरे जमाने के बकवास है, अव्यावहारिक व्यक्ति की सनक हैं। किसी प्राकृतिक आपदा में आपके परिजन की अगर मौत हो गई हो तो हम पत्रकार पूछेंगे- अब आपको कैसा लग रहा है? कवि उस पर कविता (मरसिया) लिखने की सोचेगा, कथाकार-उपन्यासकार बड़ा-सा नैरेटिव तैयार करेगा। फिल्मवालों की तो पूछिए मत। अगर कोई लेखक-साहित्यकार है और मरनासन्न है तो पहले से लेख तैयार रखेगे।
हम बाजार का बेपर्दा करने चले थे, उलटे उसी ने हमें नंगा कर दिया। हम गदगद है कि चलो बाजार मे सब नंगे है। हाल यह है कि किसी को चोर कहिए तो गुस्सा नहीं होगा, नाराजगी नहीं प्रकट करेगा, स्थितप्रज्ञ बना रहेगा। कुछ साल पहले स्थानीय पब्लिक स्कूल में मालिक को मैंने बात-बात में कह डाला कि आप चोर है। वह तनिक बिदका नहीं, अहिंसा की मूर्ति बना रहा। कहने लगा कि यह मत देखिए कि मै सबसे छोटा चोर हूं कि नहीं। मैं सुन कर सन्न रह गया था।
इतिहास दर्शन के एक बडे विद्वान ई ए कार ने लिखा है कि प्रत्येक रचना के पीछे से रचनाकार की ध्वनि आती है, मसलन लेखक का व्यक्तित्व उभरता है। आज वह व्यक्तित्व सिरे से गायब है। निराला ने नोटिस ली थी- चलते हैं लोग ज्यों मुह फेर कर (स्मरण के आधार पर)। गनीमत है की उन दिनों आदमी का एक चेहरा था, वरना आज तो हम लोगो को दूसरी चीजों से पहचानते हैं। हम रटते रहे कि कविता भाषा मे आदमी होने की तमीज है लेकिन कवि को आदमी न बना सके। बचाव की मुद्रा में हम कह सकते है कि बाजार ने हमे कैरियरिस्ट बना दिया। इसमें हमारा आपका क्या दोष है। बाजार के आगे किसी की चलती है भला। हम पूरा का पूरा छद्म जीते है और कभी ग्लानि नहीं होती।
चूंकि हम महान कवि हैं, इसलिए हमारी कविता में संवेदना की अजस्र धारा होगी; लेकिन हमारा कोई मित्र (समानधर्मा) अगर बीमार हो गया या किसी संकट में फंस गया तो झट उसे व्यक्तिगत या निजी मामला बता कर छुट्टी पा लेगें। हमारे शहर पटना में ही एक कवि हैं जिनसे बातचीत के लिए मैं गया तो बोले मेरे नाम संपादक की चिट्ठी लाए हैं क्या? कुछ दिनों बाद दिल्ली से एक महिला पत्रकार पटना आई। उसने उक्त कवि को बातचीत के लिए फोन लगाया तो जवाब के बदले प्रश्न था- कहिए, गाड़ी कहां भेज दूं। नाम मैं नहीं लूंगा आप मुझ पर सहज ही (स्वभावतः) अविश्वास करेंगे। कहेंगे महाकवि को बदनाम करता हूं। साहित्य अकादमी वाले भी गुस्सा होंगे कि बिला वजह मै उनके दामन पर कीचड़ उछाल रहा हूं। यों हमें नहीं मालूम कि आज के साहित्य में लोकनिंदा कोई विधा है या नहीं।
रचना और रचनाकार के अलग-थलग पड़ जाने से रचना अपना असर खोती जा रही है। रचनाकार की प्रतिबद्धता, रचना के प्रति लगाव में कमी आई है। उनसे आदमी की बाबत बात कीजिए तो काव्यशास्त्र का गंभीर सिद्धांत आपके समक्ष पटक देगें कि रचना और रचानाकार दो अलग-अलग चीज है। दोनो को एक साथ मिला कर गड्ड-मड्ड नहीं कर सकते। रचनाकार का अपनी रचना के साथ जितना जुड़ाव हो उतना ही विलगाव भी हो; तभी कोई बड़ा रचनाकार बन सकता है।
भला हो ऐसे दर्शन का हमे तो पहले बड़ा आदमी चाहिए; बड़ा रचनाकार बाद में। दोनों साथ मिल जाए तो अति सुदंर। प्रेमचंद, निराला को पढ़ता हूं तो रचनाओं में उनकी मनुष्यता मूर्तिमान हो उठती है। मुक्तिबोध को पढ़ता हूं तो लगता है जैसे बगल मे खड़े होकर पूछ रहे हैं- पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है। आज हमारी ‘पॉलिटिक्स’ क्या है ? आज हमारी पॉलिटिक्स बहुत संकीर्ण हो गई है। आप लाख प्रगतिशील हों, अगर कार्डहोल्डर नही हैं तो प्रगतिशील आंदोलन के ‘इतिहास-पुरूष’ नहीं हो सकते।
ऐसे भयानक सृजन-विरोधी माहौल में कुछ रचनाकार अपवाद के बतौर हैं जिनको पढ़ते-सुनते लगता है जैसे अपनी ही अनभिव्यक्त अभिव्यक्ति हो। वैसे समानधर्मा होने-मिलने का संकट कोई आधुनिक या उत्तर-आधुनिक संकट नहीं है। संभवतः कालिदास को भी अपने समानधर्मा की खोज थी। व्यक्तिगत तौर पर मै अपने ही लिखे शब्दो से घिरा महसूस करता हूं। अगर कभी उनसे आंख बचा कर निकलने की कोशिश करता हूं तो वे डराते हैं। मेरी अपनी ही रचना मेरे लिए चुनौती छोड़ जाती है-
आ सको अगर
तो आओ मेरी कविता में
नंगे पांव चल कर
पारकर तप्त रेतीले मैदान
कि हों फोड़े, पड़े छाले, रिसे बूंद खून की
तो दिखे साफ तुम्हारा
अपना ही चेहरा।

आप कहेंगे- यह तो प्रलाप या ‘एकालाप’ है। मैं कहूंगा- चुप्पी से फिर भी बेहतर है। मुझे मेरे समानधर्मा की तलाश है...।
(जनसत्ता में 1 मार्च को प्रकाशित)