tag:blogger.com,1999:blog-13533877449943072652024-03-06T02:52:54.175+05:30मत-मतांतरबात अगर यहीं खत्म हो जाती तो बात और थी...राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.comBlogger81125tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-86396147281485347522018-05-23T08:50:00.001+05:302018-05-23T08:50:23.554+05:30बिहार में शिक्षा की दुरवस्था के बहाने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_5pbx userContent _3ds9 _3576" data-ft="{"tn":"K"}" style="text-align: justify;">
शिक्षा की बिगड़ती स्थिति पर चर्चा सामाजिक पतन के संदर्भ में ही हो सकती
है। तीस-चालीस साल पहले हम शिक्षा को अगर बेहतर स्थिति में पाते हैं तो
उसके कारण भी हैं। वह दौर नेशनलाइजेशन और सरकारी संस्थानों के प्रति
श्रद्धा और कमिटमेंट का है। मूल्यों के प्रति कमिटमेंट है। इस दौर में
सरकार और जनता के समन्वित प्रयास से संस्थान खुले। सिर्फ स्कूल नहीं। हर
गांव का अपना एक सार्वजनिक पुस्तकालय था। आज वे सारे सार्वजनिक पुस्तकालय
निजी हो गए हैं। पटने की सिन्हा लाइब्रेरी की हालत क्या हुई? किताबों के
पन्ने ब्लेड से काटे हुए हैं। ब्रिटिश लाइब्रेरी बन्द हो गई। बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद गया तो पता चला कि पुस्तकालय की किताबें घरों की
अलमारियों की शोभा बढ़ा रही हैं। एक वाक्य में कहें कि सामाजिक संस्थानों के
प्रति जो हमारा भाव था, आज नहीं है। आज सरकार से लेकर समाज और व्यक्ति तक
में निजी संस्थानों के प्रति आकर्षण बढ़ा है। हम अपने परिवार के किसी सदस्य
का इलाज सरकारी अस्पताल में कराने का साहस नहीं रखते। गाँव-घर ही नहीं
परिवार के सदस्य भी मान बैठते हैं कि कंजूसी कर गया। सरकारी और गैर सरकारी
स्कूलों को हमने 'प्रतिष्ठा' का प्रतीक बना दिया है। जिनके पास थोड़ी भी
'प्रतिष्ठा' है, उनके बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते। सरकारी स्कूल में
पढनेवाले बच्चे पहले मजदूर हैं, विद्यार्थी बाद में। उनके लिए पढ़ाई पार्ट
टाइम जॉब है। सरकारी स्कूलों की जो प्रतिष्ठा घटी है उसके लिए सरकार की
नीतियां भी जिम्मेवार हैं। सरकार ने कॉलेजों से इंटर की पढ़ाई खत्म कर दी
बगैर किसी वैकल्पिक व्यवस्था के। यह सरकार की सोची-समझी चाल थी। पहले दसवीं
तक की शिक्षा को निजी हाथों में दिया। फिर बारहवीं तक को। और अब निजी
विश्वविद्यालय को खुला न्यौता है। इस खेल को समझना होगा। सरकारी स्कूलों
में अगर शिक्षक नहीं हैं तो इसके कारण हैं। कारण निजी विद्यालयों को
प्रोत्साहित करना है। प्रोत्साहन से आगे बढ़कर सरकार निजी विद्यालय को अब
सरकार 25 प्रतिशत सीट के लिए पैसे देती है। सरकारी स्कूल के शिक्षकों के
लिए सरकार के पास पैसे नहीं है। गरीब बच्चों के नाम पर निजी विद्यालयों को
धन देने के लिए संसाधन की कमी नहीं होती। सरकारी स्कूल के शिक्षक जब
सम्मानजनक वेतन की मांग करते हैं तो सारे पत्रकार अर्थशास्त्री हो जाते
हैं। आज तक किसी अर्थशास्त्री पत्रकार ने लिखा कि निजी स्कूलों को इस तरह
पैसा बांटना गलत है। रही बात शिक्षकों की तो वे अभाव और असंतोष के
बीच खड़े हैं। एक तो शिक्षकों को वेतन बहुत कम मिलता है। वह भी पांच-छह माह
से पहले मयस्सर नहीं होता। नतीजतन उसे जीवित रहने के लिए दूसरे धंधे करने
पड़ते हैं। किसी को आइसक्रीम बेचना पड़ता है तो किसी को पीएच डी लिखने का
धंधा। जो लोग शिक्षा को लेकर चिंतित हैं उन्हें इस बात की भी चिंता करनी
होगी कि शिक्षक को आइसक्रीम न बेचना पड़े। समाज ने शिक्षक को अयोग्य
कहते-कहते मर्यादाहीन बना दिया है। शुरू में (2007) जब मैं स्कूल गया था तो
अभिभावक मजाक करते थे। अभिभावक की बात बच्चों तक पहुंच गई। बच्चे ने कहा
था, आप इतना पढ़े तो पांच हजार की नौकरी मिली तो आपके पढ़ाये विद्यार्थी को
कितने की मिलेगी? जाहिर है, आज शिक्षक समाज का सबसे उपेक्षित तबका है। समाज
का भला करना है अगर तो शिक्षक ही क्यों हर पढ़े-लिखे आदमी को हीरो बनाना
सीखना होगा। पढ़े-लिखे लोगों को उपेक्षित करके शिक्षा व्यवस्था को बेहतर
बनाने की बात बेमानी है।<br />
अखबारी हैं ये आंकड़े<br />
<br />
बिहार के
मुख्यमंत्री ने कहा कि 'राज्य में प्राथमिक विद्यालय तक पढ़ाई करने के बाद
काफी कम लड़कियां मध्य विद्यालय तक पहुँच पाती थीं। इसके लिए हमने मध्य
विद्यालय में कपड़े दिये, नौवीं कक्षा में साइकिल दी। यह इसलिए किया कि
लड़कियां कम से कम मैट्रिक तक पढ़ें। इसके पूर्व पूर्णिया, कटिहार, पटना में
साइकिल से लड़कियां पढ़ने स्कूल नहीं जाती थीं। उस समय 1.70 लाख लड़कियां
मैट्रिक तक पढ़ती थीं। साइकिल योजना की शुरुआत करने के बाद यह आंकड़ा 8.15
लाख तक पहुँच गया है।' (प्रभात खबर, पटना, 11/12/2016, पृष्ठ 1)<br />
<br />
संभव है, यह आंकड़ा सही हो। लेकिन यह 'अखबारी' है। सच है कि मिड डे मील,
साइकिल और पोशाक की योजनाओं ने बच्चों को विद्यालय की ओर आकर्षित किया है।
बल्कि यह कहना ज्यादा यथातथ्य होगा कि बच्चों के अभिभावक विद्यालय की ओर
खिंचे हैं। कारण है इन इन योजनाओं के माध्यम से बँटनेवाली राशि। विद्यालय
में अगर लड़कियों का नामांकन बढ़ा है तो उसकी वजह भी राशि ही है। पिछले सालों
में देखा गया कि एक एक बच्चे का चार चार विद्यालयों में नामांकन होता था।
बच्चे चारों विद्यालयों से योजना की राशि उठाते थे। तब नामांकन की
प्रक्रिया सरल थी और 8वीं कक्षा की टी सी आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थी।
कहने की जरूरत नहीं कि गलत नामांकन के इस खेल में अभिभावक के साथ शिक्षक
और प्रधानाध्यापक तक संलिप्त थे। कई स्कूलों की हुई जाँच से इस तथ्य की
संपुष्टि हो चुकी है। इतना ही नहीं, कई पदाधिकारी तक इसमें शामिल पाये गए
हैं। छात्रवृत्ति घोटाले का स्मरण ही यह बताने के लिए काफी होगा कि स्कूलों
में केवल नकली छात्र/छात्रा ही नहीं बढ़े अपितु नकली विद्यालय भी उठ खड़े
हुए। इन सब कारणों से विद्यालय आनेवाले छात्रों की संख्या बढ़ी हो तो क्या
आश्चर्य! ऐसे में सुशासनी मुख्यमंत्री द्वारा अपनी पीठ थपथपाना निरर्थक है।<br /><br />
नामांकन के इस खेल ने लड़कियों को अगर आंकड़ों ने मान बढ़ाया तो इसका कारण
आर्थिक व्यापार है। कोई भी 'निवेशकर्ता' लड़कों का नामांकन कराना नहीं
चाहता। लड़के के नामांकन से किसी को घाटे का सामना करना पड़ सकता है। गणित है
कि नौवीं कक्षा के छात्र को 2500 रुपये साइकिल के तथा 1800 रुपये
छात्रवृत्ति के मिलेंगे। वहीँ नौवीं की छात्रा को 2500 रुपये साइकिल के,
1800 रुपये छात्रवृत्ति के, 1000 रुपये पोशाक के और 150 रुपये नैपकिन के
मिलेंगे।<br />
<br />
पूर्व मंत्री की बेटी के यौन शोषण मामले में जाँच के दौरान
पीड़िता द्वारा पटना के नोट्रेडेम पब्लिक स्कूल, मुजफ्फरपुर के पारा माउंट
एकेडेमी सहित सहरसा जिले के सिमरी बख्तियारपुर अंतर्गत सोनपुरा कन्या मध्य
विद्यालय में पढ़ाई की बात सामने आई है। (प्रभात खबर, पटना, 22/4/2017)
बिहार की स्कूली दुनिया के लिए यह कोई चौंकानेवाली खबर नहीं बल्कि एक कटु
यथार्थ है। बिहार सरकार सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे छात्रों/छात्राओं की
संख्या में जो वृद्धि दिखा रही है उसकी सच्चाई यही है कि एक बच्चे का नाम
चार-चार सरकारी विद्यालयों में है। इसकी एकमात्र वजह छात्रों/छात्राओं को
साईकिल, पोशाक, नैपकिन व छात्रवृत्ति की राशि है। सरकार यह पैसा सरकारी
विद्यालयों में पढ़ाई को प्रोत्साहन के नाम पर दे रही है, जबकि व्यवहार में
ठीक इसका उल्टा हो रहा है। छात्र और अभिभावक का यह धंधा हो चुका है कि वे
चार स्कूलों में नाम लिखाते हैं और एक मोटी रकम सरकार से ऐंठते हैं। सरकारी
पैसे से वे पब्लिक स्कूलों और प्राइवेट कोचिंग की फीस भरते हैं। आपको
सुनकर थोड़ी हैरानी होगी कि अभिभावक अब सरकारी विद्यालय बच्चे की पढ़ाई से
सम्बंधित जानकारी के लिए नहीं बल्कि यह पूछने आते हैं कि किस बोर्ड का
सर्टिफिकेट वे काम में लाएं। इसलिए बिहार सरकार को अगर सरकारी स्कूलों में
शैक्षणिक माहौल लौटाना है तो पैसे की लूट बंद करनी होगी।<br />
<br />
<br />
आज लगभग हर पिता का सूत्रवाक्य है 'बेटा वही जो किसी तरह से पैसे कमा ले'.
पैसे न कमानेवाला बेटा अपने ही घर में प्रताड़ित है. और यह भी सत्य है कि
गलत हुए बगैर पैसा नहीं होता तथा पैसा हो जाने पर गलत हुए बगैर नहीं रहा जा
सकता. यह नियम है, अपवाद की चर्चा न करें तो बेहतर. एक अकेला शिक्षक
और शिक्षा का दोष नहीं. हर घर का मूल्य बदलना होगा. ऐसे में एक शिक्षक से
उम्मीद की जाती है कि वह बच्चे का व्यक्तित्व गढ़े और इस तरह समाज का
निर्माण करे. इसके लिए जरूरी है कि बच्चों के साथ-साथ समाज उसे हीरो/मॉडल
समझे. आज की तारीख में शिक्षक समाज का सबसे नकारा जीव मान लिया गया है.
सरकार ने उसकी दुर्गति कुछ इस तरह कर रखी है कि समाज में शिक्षक का नामकरण
'पेटपोसवा मास्टर' है. विडंबना यह है कि वह बेचारा अपने नाम के अनुरूप पेट
भी कहाँ पोस पा रहा है ? छात्र सीधे शब्दों में शिक्षक से कहता है कि 'सर,
इतना पढ़ने पर आपको छह से बारह ('एकमुश्त' वेतन-वृद्धि के बाद) हजार की
नौकरी मिली. आपके पढ़ाये को कितने की नौकरी मिलेगी ?' इसे शब्दजाल न समझें.
यह चेतावनी है कि अगर समाज को बदलना है, तो शिक्षक को समाज और बच्चे का
हीरो/मॉडल बनाना होगा. इसमें जितना विलम्ब होगा, समाज उतना पीछे जायेगा.
प्रेमचंद ने कभी लिखा था कि विद्या पढ़ने से नहीं, गुरु के आशीर्वाद से आती
है. बिहार के नियोजित शिक्षक अपनी ही पीड़ा में कुछ इस कदर कराह रहे हैं कि
वे आशीर्वाद क्या खाक देंगे !<br />
सरकार किताब नहीं कूड़ा तैयार कराती है<br />
<br />
बिहार सरकार 'गुणवत्तापूर्ण शिक्षा' की बात करती है. शिक्षा की बदहाली
जानने के लिए तरह -तरह के गैर सरकारी संगठनों से सर्वे कराती है और सरकारी
पैसा पानी की तरह बहाती है.लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता. ठोस नतीजा
निकलता है ठोस काम करने से. बिहार सरकार के श्रम मंत्री दुलालचंद्र
गोस्वामी तक ने स्वीकार किया है कि 'सरकारी स्कूलों की अपेक्षा निजी
स्कूलों में पढ़ाई बेहतर होती है।' (प्रभात खबर, पटना, 10 अगस्त 2014, पृष्ठ
8) अगर स्थिति ऐसी है तो इसके कई कारण हैं।<br />
<br />
सरकारी पुस्तकों का हाल
देखकर लगता है कि जिन्हें एक वाक्य लिखने नहीं आता उनसे पाठ्य-पुस्तकें
लिखवाई जाती हैं. नतीजा आपके सामने है. राज्य के कुल बीस विद्वानों ने
मिलकर दसवीं कक्षा (सामाजिक विज्ञान) की पुस्तक 'इतिहास की दुनिया' तैयार
की है. कहना अनावश्यक है कि 'प्रस्तुत पाठ्यपुस्तक की पांडुलिपि तैयार करने
के पूर्व राज्य शिक्षा शोध व प्रशिक्षण परिषद, पटना द्वारा विभागीय
पदाधिकारियों, विषय विशेषज्ञों, भाषा विशेषज्ञों और प्रारंभिक स्तर के
शिक्षकों की कार्यशाला आयोजित की गई। काफी गहन चर्चा के बाद पुस्तक की
पांडुलिपि का निर्माण किया गया। हालांकि <b>हसन वारिस</b> (तत्कालीन निदेशक
प्रभारी) 'गहन चर्चा' की बात को खुद ही खारिज कर कहते हैं : 'अल्प समय में
निर्मित पुस्तक के लिये समालोचनाओं व सुझावों का परिषद स्वागत करेगी।'
'अल्प समय' में 'गहन चर्चा' के बाद जो पुस्तक तैयार हो सकती है, उसका कुछ
नमूना आप देख सकते हैं। <br />
<br />
उसका 'आमुख' पढ़ रहा था. महज एक शुद्ध
वाक्य देख पाने के लिए मैं तरस गया. किस साहस के साथ अपने बच्चों को कहूँ
कि इस कूड़े से बचो. बच्चे तो किताब को प्रमाण मानते हैं. और विद्वानों
द्वारा लिखित-परिवर्धित इस किताब को कूड़ा कौन कह रहा है ? एक नियोजित
शिक्षक जिसपर न छात्र को भरोसा है, न सरकार को, न समाज को! कुछ नमूना आप भी
देखें-(1) 'पाठ्य-पुस्तक के सभी अध्याय रोचकपूर्ण है।' (2) 'पाठ्य-पुस्तक
में दिए गए विषय वस्तु विद्यार्थियों के दैनिक अनुभव पर आधारित हो, ऐसा
प्रयास किया गया है।' (3) 'कहीं-कहीं ऐसे संदर्भित प्रश्न हैं, जिसे बच्चे
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करते हुए सत्य के निकट जाने हेतु कौतुहलता व
जिज्ञासा रहेगी।' (4) 'पुस्तक की अधिकांश क्रियाकलाप बिना किसी सामग्री या
कम लागत की सामग्री के साथ करवाई जा सकती है।' (5) 'पाठ्यक्रम के उद्देश्य
और प्रकरण यथा भोजन, पदार्थ, सजीवों का संसार, गतिमान वस्तुएं, लोग एवं
उनके विचार, वस्तुएं कैसे कार्य करती हैं, प्राकृतिक परिघटनाएं तथा
प्राकृतिक संसाधन की मुख्य अवधारणाओं में दिये गये विषय-वस्तु पाठ्यपुस्तक
के अध्यायों में परिलक्षित एवं समाविष्ट किया गया है।'<br />
<br />
कहना होगा कि
उक्त पुस्तक के दो पृष्ठ के 'आमुख' में शायद ही कोई ऐसा वाक्य हो जिसमें
भाषिक और व्याकरणिक अशुद्धि 'समाविष्ट' न हो और वह 'परिलक्षित' न हो।
शर्मनाक बात तो यह है कि 'आमुख' के लेखक को यह भी पता नहीं है कि पुस्तक
'सामाजिक विज्ञान' की है, अथवा 'विज्ञान' की। वे लिखते हैं, 'आशा है
विज्ञान की यह पाठ्यपुस्तक बच्चों के लिए लाभदायक, आनंददायी और रुचिकर
सिद्ध होगी।' सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में 'विज्ञान के रहस्यों को खोलने
करने का प्रयास' होगा तो पुस्तक रुचिकर होगी ही!<br />
<br />
बिहार राज्य शोध
एवं प्रशिक्षण परिषद् , बिहार द्वारा विकसित व बिहार स्टेट टेक्स्टबुक
पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड से प्रकाशित 6ठी कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक
'किसलय' (भाग-1) देखने को मिली। इस पुस्तक में पृष्ठ संख्या 3 पर एक
विज्ञापन है जिसमें 'आनेवाली' (आने वाली) 'ध्यानपूर्वक' (ध्यान पूर्वक),
'मानवरहित' (मानव रहित), 'लापरवाहीपूर्वक' (लापरवाही पूर्वक), 'अन्तर्गत'
आदि शब्द लिखने में लापरवाही बरती गई है। 'याद रहे आपकी जिन्दगी अमूल्य है'
को 'याद रहे, आपकी जिन्दगी अमूल्य है।' यद्यपि यह एक पूर्ण वाक्य है,
पुस्तक में पूर्ण विराम का प्रयोग नहीं किया गया है। पृष्ठ 4 पर
'असली चित्र' शीर्षक से एक कहानी संकलित है, जिसका पात्र 'तेनालीराम' है।
दरअसल इसका सही नाम तेनालीरामन है। पृष्ठ 12 पर प्रश्न संख्या 2 में लिखा
है, "ऊँची डाली, काली चिड़िया'। इन वाक्यों में ऊँची डाली की तथा काली
चिड़िया की विशेषता बताता है।" अव्वल तो 'ऊँची डाली, काली चिड़िया' वाक्य
नहीं है, इसलिए यहां पूर्ण विराम का अनावश्यक और निरर्थक प्रयोग है। दूसरे,
ऊँची डाली की तथा काली चिड़िया की विशेषता 'बताती' है, न कि बताता है। पृष्ठ 98 पर <b>केदारनाथ अग्रवाल</b> की कविता 'वसंती हवा' है। दरअसल यह अपने मूल
रूप में 'बसंती हवा' है। कविता में आगे लिखा है, 'हरे खेत, पोखर,/झुलती
चली मैं/झुमती चली मैं।' मूल में यह 'झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं' है।
इस तरह की 'अगंभीरता' से कविता में अर्थ का अनर्थ हुआ है। फिर आगे लिखा है,
"उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू', उतरकर भागी मैं"। कहने की जरूरत नहीं
कि मूल कविता में 'उतरकर "भगी" मैं' है न कि 'भागी'। भागी से कविता की लय
भी बाधित होती है। और आगे, 'खड़ी देख अलसी, लिए शीश कलसी, मुझे खूब
सूझी-हिलाया-पिलाया, गिरी पर न कलसी'। ध्यान रहे कि मूल कविता में
हिलाया-पिलाया' की बजाय 'हिलाया-झुलाया' लिखा है।<br />
<br />
बीस विद्वानों की
देखरेख में बच्चों के लिए तैयार की गई इस पाठ्यपुस्तक में इस कदर की
अगंभीरता और लापरवाही अक्षम्य है। खासकर जब <b>डॉक्टर एस. ए. मुईन</b>
(विभागाध्यक्ष, एस सी ई आर टी, पटना) और <b>डॉक्टर ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी</b> जैसे
'आत्ममुग्ध' शिक्षाविद भी इसमें शामिल हों।<br />
<br />
‘बिहार स्टेट
टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड’ द्वारा कक्षा ग्यारह के लिए
इतिहास की पाठ्यपुस्तक ‘विश्व इतिहास के कुछ विषय’ (प्रथम संस्करण : 2007,
पुनर्मुद्रण : 2008) तैयार करवाई गई है. ‘पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति’ के
सदस्यों के ‘नाम-पदनाम’ छापने में पूरा एक पृष्ठ जाया हुआ है. <b>नीलाद्रि
भट्टाचार्य</b> उक्त समिति के मुख्य सलाहकार हैं. ‘विश्व इतिहास का अध्ययन’
शीर्षक से दो पृष्ठ की उनकी भूमिका भी है. उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखें :
(1) ‘‘नए इतिहासकार को अब कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिन्हें पहले अनदेखा
कर दिया गया था. वे इन प्रमाणों की व्याख्या करती हैं, नए अंतर्संबंध कायम
करती है और इस तरह से एक नयी किताब लिख डालती हैं.’’ (2) ‘‘अक्सर किन्हीं
विशेष घटनाओं का इतिहास पश्चिम की विजयी यात्रा की बड़ी कहानी का ही हिस्सा
था.’’ (3) ‘‘इस यात्रा में विश्व इतिहास के कुछ विषय आपकी मदद करेगी’’. (4)
‘‘सबसे पहले यह पुस्तक विकास और प्रगति की महान कहानियों के पीछे छुपे
ज्यादा ‘अँधेरे’ इतिहासों से आपका परिचय कराएगी’’.</div>
</div>
राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-64286625166377817292018-05-22T09:22:00.000+05:302018-05-22T09:27:03.473+05:30भारतीय संस्कृति और 'स्वच्छता अभियान'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_5pbx userContent _3ds9 _3576" data-ft="{"tn":"K"}">
<br />
<div style="text-align: justify;">
देश अभी 'स्वच्छता अभियान' के दौर से गुजर रहा है। लगभग सभी सरकारी और गैर
सरकारी संगठन 'स्वच्छ भारत' बनाने के अभियान में जुटे हैं। शौचालय-निर्माण
से लेकर स्वच्छता पर सेमिनार तक इस अभियान के हिस्सा हैं। <i>डाउन टू अर्थ</i>
पत्रिका, जो पिछले कई वर्षों से प्रकाशित हो रही है, स्वच्छता की समस्या से
अटूट रिश्ता रखती है। आज पटना में उक्त पत्रिका की ओर से एक कार्यक्रम
आयोजित था जिसमें थोड़े क्षणों के लिए मुझे भी शरीक होने का अवसर प्राप्त
हुआ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्वच्छता अभियान में 'खुले में शौच' को विशेष 'फोकस' किया जा
रहा है। माना जा रहा है खुले में शौच करना 'असभ्यता' और अस्वास्थ्यकर है।
बताया जा रहा है कि हम जो खुले में शौच करते हैं वह हमारे वातावरण को तो
दूषित करता ही है, साथ ही साथ और अंततः पेय जल में मिल जाता है। गोष्ठी में
एक वक्ता ने कहा कि सूअर भी अपना मल नहीं खाता लेकिन खुले में शौच के
परिणामस्वरूप हम मनुष्य पेय जल के रूप में मलपान करने को विवश हैं। मैं
खुले में शौच करने की वकालत का साहस तो नहीं कर सकता लेकिन हमारा ग्रामीण
जीवनानुभव इस तरह के तर्क को मानने से इनकार अवश्य ही करेगा। जिन्होंने
गांव देखा है उनको मालूम है कि मल सूअर का पसंदीदा पारंपरिक आहार है। वे मल
को अविलंब खा डालते हैं। अगर सूअर न भी हो तो ऐसे-ऐसे कीड़े होते हैं जो दो
दिन में मल को मिट्टी बना डालते हैं। इसलिए पेयजल के रूप में मलपान करने
की बात वही कर सकता है जिसने गांव सिर्फ किताबों में देखा, पढ़ा है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हमारी भारतीय संस्कृति में मल इतना 'त्याज्य' और 'घृणित' कभी नहीं रहा है
जितना इसे आज साबित करने की कोशिशें हो रही हैं। कहीं यह 'घृणा की राजनीति'
का अनिवार्य फल तो नहीं? मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि 'सुखल गुह
ब्राह्मण के लिट्टी', अर्थात सूखा हुआ मल तो ब्राह्मण की तरह दोषमुक्त है!
भारतीय संस्कृति में अपना मल-मूत्र खाने की प्राचीन परंपरा रही है। पेशाब
को शिवाम्बु भी कहा जाता रहा है और अघोरी जैसे पंथों के लोग तो आज भी
मल-मूत्रपान को सिद्धि का अनिवार्य सोपान मानते हैं। और तो और मैंने अपने
बचपन में मल को रामबाण औषधि की तरह व्यवहृत होते देखा है। एक समय की बात है
जब मेरे पड़ोस की एक महिला ने आत्महत्या के निमित्त जहर खा लिया था। कई तरह
के घरेलू उपचार किये गये लेकिन सब निष्फल गया। अंत में किसी की बुद्धि
खुली और उसने मल घोलकर पिलाने की बात की। सलाह मान ली गई और मल पीते ही
अगले क्षण मरीज ने सारा जहर बाहर उँड़ेल दिया। गनीमत कहिए कि उसकी अंतड़ियां
अंदर ही रहीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बौद्ध ग्रंथ की एक कहानी में वर्णित है कि सक्क रोगी
बुद्ध के शौचालय को स्वयं अकेले साफ करने पर जोर देता है और कहा गया है कि
<b>बुद्ध</b> के मलमूत्र को अपने सिर पर उठाकर ले जाने में उसने बड़े आनंद का अनुभव
किया। (<b>देवराज चानना</b>, <i>प्राचीन भारत में दासता</i>, पृष्ठ 196) <b>बुद्ध</b> के शौचालय
का वर्णन प्रस्तुत है : 'उस शौचालय का दरवाजा था। वह सुगंधों से भरा हुआ
था और पुष्प मालाओं से सजा हुआ था। उसमें और कोई नहीं जा सकता था और वह
सेतिय की तरह दिखाई देता था। (<i>समंतपासादिका</i>, पृष्ठ 745; <b>चानना</b>,
पूर्वोद्धृत, 199, पाद टिप्पणी संख्या 71)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>धर्मानंद कोसंबी</b> ने इस
तरह की एक रोचक कहानी का हवाला दिया है-'काशी में तेलंग स्वामी नामक एक
प्रसिद्ध संन्यासी थे। वे नंगे रहते थे। काशी में उनके समान नंगे घूमने
वाले दूसरे भी बहुत-से परमहंस थे। उस समय वहाँ गॉडविन नामक बड़ा लोकप्रिय
कलक्टर था (जिसे काशी के लोग गोविंद साहब कहते थे)। हिन्दू लोगों के
रीति-रिवाजों की जानकारी उसने सहानुभूतिपूर्वक प्राप्त कर ली और ये नंगे
बाबा लंगोटी लगाकर घूमा करें इसके लिए निम्नलिखित युक्ति निकाली। रास्ते
में घूमने वाला नंगा बाबा जब भी पुलिस वालों को मिलता तो वे उसे साहब के
पास ले जाते। तब साहब उससे पूछता, "क्या तुम परमहंस हो?" जब वह "हाँ" कहता
तो साहब उसे अपना अन्न खाने को कहता। भला नंगा बाबा साहब का अन्न कैसे
खाता? तब गोविंद साहब कहता, "शास्त्र में कहा गया है कि परमहंस तो किसी
प्रकार का भेद-भाव नहीं मानता और तुम्हारे मन में तो भेद-भाव मौजूद है। अतः
तुम्हें नंगा नहीं घूमना चाहिए।" इस प्रकार बहुत-से नागा बाबाओं को उसने
लंगोटी पहनने को बाध्य किया। एक बार ऐसा ही प्रसंग तेलंग स्वामी पर आ गया।
जब यह बात फैल गई कि स्वामी जी को लेकर पुलिस वाले कलक्टर साहब के बंगले पर
गये हैं तो उनके शिष्य एवं चाहने वाले बड़े-बड़े पंडित तथा अन्य प्रभावशाली
व्यक्ति साहब के बंगले पर गये। साहब ने सबको बिठा लिया और तेलंग स्वामी से
पूछा, "क्या आप परमहंस हैं?" स्वामी जी ने जब "हाँ" कहा तो साहब ने दूसरा
प्रश्न पूछा, "क्या आप यहाँ का अन्न खाएंगे?"इस पर स्वामी जी ने पूछा,
"क्या आप मेरा अन्न खाएंगे?" साहब ने जवाब दिया, "यद्यपि मैं परमहंस नहीं
हूँ, फिर भी किसी का भी अन्न मैं खा लेता हूँ।" स्वामी जी ने वहीं अपने हाथ
पर मलत्याग किया और हाथ आगे बढ़ाकर वे गोविंद साहब से बोले, "लीजिये, यह है
मेरा अन्न। आप इसे खाकर दिखाइये!" साहब को बड़ी घृणा हुई और वह गुस्से से
बोला, क्या यह आदमी के खाने योग्य अन्न है?" तब स्वामी जी ने वह विष्ठा खा
डाली और हाथ झाड़-पोंछकर साफ कर लिया। यह देखकर साहब ने स्वामी को छोड़ दिया
और फिर कभी उनकी बात भी नहीं पूछी।' (<b>धर्मानंद कोसंबी</b>, <i>भगवान बुद्ध : जीवन
और दर्शन</i>, लोकभारती प्रकाशन, 1987, पृष्ठ 75-76)। जब <b>धर्मानंद कोसंबी</b> 1902
ईस्वी में काशी में थे तो वहां के पंडितों ने यह कहानी उन्हें बड़े "आदर" से
सुनाई थी और उससे पहले उसी "आदर-बुद्धि" के साथ <i>काशी-यात्रा</i> नामक पुस्तक
में यह प्रकाशित भी हुई थी। (<b>धर्मानंद कोसंबी</b>, <i>पूर्वोद्धृत</i>)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कहने
की जरुरत नहीं कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा में शौच का संबंध
स्वच्छता से कम, शुचिता अर्थात पवित्रता से ज्यादा है। संस्कृत के 'शौचम्'
का अर्थ 'मलत्याग के कारण दूषित व्यक्तित्व का शुद्धिकरण' है। (<b>वामन शिवराम
आप्टे</b>, <i>संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश</i>, पृष्ठ 1111) शायद इसीलिए हमारे यहां
स्वच्छता का शुचिता से अलग शायद ही कभी अस्तित्व रहा हो। भारतीय ग्रामीण
जनमानस में सदियों से चली आ रही बात कि 'खाना और पैखाना एक साथ नहीं रहना
चाहिए', कमोबेश आज भी अमल में है। अर्थात जिस मकान में रसोईघर हो वहां
शौचालय की बात सोची भी नहीं जा सकती। यह अवधारणा खुले में शौच का एक प्रमुख
कारण रही है। इसीलिए कुछ सालों पहले तक गांव-देहात के लोग शहर में
बसनेवाले लोगों को विधर्मी मानते रहे थे कि उनके घरों में रसोईघर और शौचालय
साथ-साथ होता है। एक समय था जब ग्रामीण हिन्दू घरों में औरत को स्नान करने
के उपरांत ही रसोईघर में प्रवेश की अनुमति होती थी। हाल-हाल तक यह बात
कल्पना से परे थी कि कोई स्त्री रसोईघर में चप्पल पहनकर चली जाए। आज भी
ग्रामीण परिवेश और मानसिकता की अधिकतर औरतें शौचालय से लौटने के बाद स्नान
करना धर्म मानती हैं। कुछ औरतें 'फ्रेंच बाथ' से काम चलाती हैं तो कुछ
औरतें अपनी देह पर पानी की बूंदें छिड़ककर 'पवित्र' होती रही हैं। कुछ घरों
में अब भी आपको वैसी स्त्रियां मिल जाएंगी जिनके पास शौच जाने के लिए अलग
वस्त्र होते हैं, ठीक जैसे अस्पतालों में मरीज से मिलने जाने के पहले
वस्त्र बदलने होते हैं। यह है भारतीय समाज की परंपरा और आधुनिकता। दोनों
में वस्त्र बदलने की क्रिया समान है लेकिन उसके पीछे की चेतना में फर्क है।
एक में प्रेरक शक्ति शुचिता है तो दूसरे में स्वच्छता। दुर्भाग्यपूर्ण बात
है कि 21वीं शताब्दी में भी एक आम भारतीय की स्वच्छता की अवधारणा शुचिता
से खाद-पानी लेती है।</div>
</div>
<div class="_1rzm rfloat">
<span id="u_0_15"><br /></span></div>
</div>
राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-62640169325895795502018-05-20T10:34:00.000+05:302018-05-20T10:34:02.122+05:30शौच और सूअर की कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_5pbx userContent _3ds9 _3576" data-ft="{"tn":"K"}">
<div style="text-align: justify;">
भारत के दूसरे गांवों की तरह मेरे गांव में भी खुले में शौच के लिए जाने
का दस्तूर था। शौच के लिए मेरे गांव में पुरुषों के बीच जो शब्द प्रचलित था
वह 'दिसा-मैदान' अथवा 'डोल-डाल' था। कुछ लोग इसे 'फारिग' होना भी बोलते।
प्रायः इन शब्दों से खुलापन और गति की ध्वनि निकलती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गांव में
लोग सुबह-सुबह शौच जाते। कुछ लोगों को शाम को भी शौच की दरकार होती।
अमल/नशा करनेवाले लोगों के बीच सुबह-शाम दो बार शौच जाने का रिवाज था। शाम
में कुछ लोग भांग खाते और शौच के लिए जाते। मेरे गांव में एक कहावत भी
प्रचलित थी-'भांग के गोला पेट में/लोटा लेकर खेत में।' लेकिन गांजा
पीनेवाले इससे भिन्न नियम का पालन करते। वे पहले शौच जाते फिर चिलम में
मुंह लगाते। गांजा पहले पीने से मल सूख जाता है। पैखाना को मल कहा जाता।
हमारे गांव के भुकु बाबा हमेशा इसी नियम का पालन करते। पहले डोलडाल तब
चिलम।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्रियों की नागरिकता दोयम
दर्जे की है; इसलिए तमाम तरह की बंदिशें हैं। सबसे बड़ी बंदिश तो यही है कि
औरत, औरत की तरह दिखे नहीं। उसका खाना, नहाना, हगना आदि सब 'गोपनीय' कर्म
हैं। उसके अधिकतर रोग 'गुप्त रोग' हैं। एक औरत खा सकती है, नहा सकती है और
हग भी सकती है, लेकिन यह सब करती हुई 'दिखना' अनैतिक कर्म है। लोक में एक
प्रचलित कहावत है-'औरत के नेहनई (स्नान) और खनई (भोजन) कोई देखे कोई न
देखे।' विशेष रूप से मर्द न देखे। 'हगनई' तो शायद ही कोई देखे! इसीलिए गांव
की स्त्रियां 'हगनई' को 'पर्दा जाना' कहती हैं लेकिन गांव के मनचले मर्द
'पर्दा' कहां मानते हैं! मुर्दहिया की किसुनी भौजी अपने पति को चिट्ठी में
लिखती है : 'संभगिया क रहरिया में गंउवा क मेहरिया सब मैदान जाली, त ऊ
(बन्सुवा) चोरबत्ती बारै ला।' (अनिता भारती, मुर्दहिया के स्त्री पात्र,
मंतव्य 8 में उद्धृत)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'ढोड़ायचरितमानस' की महतो-पत्नी लोटा लेकर
मैदान जा रही रमिया से सवाल करती है-''अरी ओ रमिया! कहाँ चली?' मुँह भरी
हँसी लेकर रमिया जवाब देती है-'मैदान'। <br /> कहती है क्या छोकरो! मैदान जा रही है लोटा लेकर?' <br />
'क्यों, उससे क्या होता है?' 'फिर पूछती क्यों है? तू क्या मर्द है जो
लोटा लेकर मैदान जायेगी?" (ढोड़ायचरितमानस, पृष्ठ 128) 'भांग के गोला पेट
में, लोटा लेकर खेत में' कहावत का उत्तरांश अर्थात 'लोटा लेकर खेत में'
जानेवाली बात महिलाओं पर लागू नहीं होती है। लोटा हाथ में लेने से मर्द समझ
जाते हैं कि 'वह' दिसा-मैदान के लिए जा रही है। 'ढोड़ायचरितमानस' की रमिया
लोटा लेकर 'मैदान' जाती है। उस गांव के लिए यह एक नई प्रथा की शुरुआत थी।
यह बात मर्द क्या गांव की स्त्रियों को भी नहीं पचती है। उन औरतों की
टिप्पणी है, 'कहती हूँ, क्या लाज-शर्म उतारकर रख दिया है? लोटा लेकर मैदान
जा रही हो, मर्द लोग देखेंगे? लोटा हाथ में लिए झोटाहा देखते ही तो मर्द
लोग समझ जायेंगे कि तू कहाँ जा रही है? यह सीधी बात भी क्या लोटे में घोलकर
पिला देना होगा तारापुर की राजकन्या को? यह सब किरिस्तानी चाल-चलन हमारे
मुहल्ले में चलाने आई है? यह क्या नट्टिन लोगों का गांव है?'
(ढोड़ायचरितमानस, पृष्ठ 128) </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं जब बहुत छोटा था तो शौच के लिए घर
के आगे की परती जमीन में जाया करता। गांव के अंदर की परती जमीन को 'खंढ़ी'
कहा जाता। खंढ़ी अथवा कोली (दो मकान के बीच की गली कोली कहलाती) शौच के लिए
उपयुक्त जगह मानी जाती। जो बच्चे अधिक शौच करते उनकी माता अथवा दादी उन्हें
चिढ़ातीं-'गोड़-हाथ सिरकी/पेट नदकोला/कने जा ह$ ... बाबू?/ हगे जा ही कोला।'
मैं शौच के लिए जिस खंढ़ी का इस्तेमाल करता वहां दरअसल एक कच्चा कुआं था।
उस कुआं में अब पानी नहीं था। इसलिए अब उसमें घर का कूड़ा फेंका जाता। साथ
ही, उसके मुंह को ढंककर इस लायक बना दिया गया था कि शौच के लिए बच्चे बैठ
सकें। घर के छोटे बच्चे उसी का प्रयोग करते। हमारे समय में चापाकल/हाथकल का
प्रयोग शुरू हो चुका था इसलिए बेकार और अप्रासंगिक हो गये कुओं की इससे
ज्यादा उपयोगिता नहीं रह गई थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
थोड़ा बड़ा हुआ तो स्कूल में दाखिला
हुआ। वहां भी शौचालय की व्यवस्था नहीं थी। स्कूल के बगल में एक सार्वजनिक
पोखर था जहां बच्चे शौच करते। किसी लड़के को अगर शौच जाना होता तो अपने
शिक्षक से 'पोखर' जाने की अनुमति प्राप्त करता। यह पोखर हमारा सार्वजनिक
शौचालय होता। लड़कियों के लिए 'पोखर' की सुविधा नहीं थी। मुझे भी स्कूल अवधि
में असमय शौच जाने की आदत नहीं थी। इसलिए तीन साल के स्कूली जीवन में मैं
एक-दो बार ही 'पोखर' का लाभ ले सके। यहां बच्चे सार्वजनिक रूप से शौच करते।
लगता जैसे एक स्कूल यहां भी चल रहा हो। अंग्रेज जमाने में तो कभी-कभी इस
तरह सामूहिक शौच का आनंद लेना जीवन से हाथ धोना था। 1942 की क्रांति के समय
आरा के पास जमीरा में पाखाना फिर रहे कुछ लोगों को गोली मार दी गई थी।
(मन्मथनाथ गुप्त, भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, आत्माराम एंड संस,
2009, पृष्ठ 374)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गांव में भी अब पोखर ही मेरा शौचालय होता। मेरे
दरवाजे के ठीक नीचे एक बड़ा और गहरा पोखर था। यहां शौच करना निर्विघ्न नहीं
होता। अगल-बगल के भुक्खड़ कुत्ते हमारे मल पर अपनी दावेदारी ठोकते और हमें
दिक करते। कुत्तों की तुलना में कुतिया में मल खाने के लिए उतावलापन कुछ
ज्यादा ही होता। कुत्ते किसी न किसी के पालतू होते। कुतिया लावारिस होती।
अखाद्य ही उनका खाद्य होता। इसलिए मलत्याग करते बच्चे उनके निशाने पर होते।
इसलिए मलत्याग के समय हमें चौकन्ना रहना होता और उन कुतियों को ढेला
मार-मारकर भगाना होता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जब थोड़ा और बड़े हुए तो दूर के और बड़े पोखर
में जाने लगे। हम सुबह-सुबह शौच के लिए जाते तो पाते कि वहां पहले ही से
पालतू सुअर स्वतंत्र विचरण कर रहे हैं। मेरे गांव में मुसहर जाति के लोगों
का एक बड़ा टोला था। आज भी है। वे बड़े पैमाने पर सुअर पाला करते। आदमी का मल
उसका प्रिय भोजन होता। लोक में एक कहावत प्रसिद्ध है, 'गाँड़ में गुह न सौ
सुअर के न्यौता'। इससे पता चलता है कि मनुष्य का मल सुअर का प्रिय पारंपरिक
आहार रहा है। हम मलत्याग कर रहे होते और वे आ धमकते। एक-दो सूअर का सामना
करना मुश्किल नहीं होता किंतु जब उनका संख्या बल अधिक होता तो आक्रामक हो
उठते। सूअर अपनी जिद और आक्रामकता के लिए मशहूर हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सामान्यतया वे
हमारे उठने का इंतजार करते। लेकिन कभी-कभी उठने में देर कर देते तो उनके
सब्र का बांध टूट जाता और पीछे से धक्का दे देते। कई बार हम वहीं लुढ़क
जाते। हमारे गांव के एक बुजुर्ग के साथ कभी ठीक ऐसी ही घटना घटी थी। इससे
मुक्ति के लिए उन्होंने एक तरकीब निकाली। जब तक वे शौच कर रहे होते, अपने
चारों ओर लाठी घुमाया करते। तभी हमलोग बचपन में गुनगुनाया करते, लाठी में
गुण बहुत है/सदा राखिए संग/झपटी कुत्ता को मारे.....। आप कुत्ता की जगह
सुअर पढ़ सकते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जब हम बड़े हुए और पटना रहने लगे तो यदा-कदा घर
जाते और घर में बने कच्चे शौचालय का इस्तेमाल करते। अधिकांश समय घर के बाहर
व्यतीत करनेवाले किसान परिवार में घर के अंदर शौच करनेवाले को तनिक हिकारत
की दृष्टि से देखा जाता। घर के बड़े-बूढ़ों की व्यंगोक्ति का मैं निशाना
बनता। वे कहते, 'पटना जाकर यह लड़का इतना अहदी (आलसी) हो गया है कि
दिसा-मैदान के लिए भी घर से बाहर नहीं निकलता। पता नहीं इसके जीवन का बाकी
रोजगार कैसे चलेगा?' अब हम राह चलते पैखाने का समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी
करने लगे थे। मसलन कौन-सा पैखाना खाते-पीते घर के लोगों का है और कौन
गरीबों का। इस संदर्भ में मां एक कहानी कहती थी जिसका सार था, 'बाकी के गुह
कचर-मचर, राजा के गुह गुहसंकरी।' कौन स्वस्थ आदमी का पैखाना है और कौन
अस्वस्थ आदमी का-यह भी हम नोट करते। बचपन में हमलोग एक कहानी सुनते थे।
मेरे गांव के लखनलाल के अगुआ आये थे। शादी-व्याह के निमित्त जो लोग आते हैं
उनको अगुआ कहा जाता है। पहले जब अगुआ आता था तो उसमें एकाध प्रश्नादि
पूछनेवाला भी होता। उसने लड़के से सवाल किया कि 'दिशा कितने तरह की होती
है?' लड़का पढ़ा-लिखा नहीं था। तनिक मंदबुद्धि भी था। कहा, 'दिसा का कोई
हिसाब नहीं है। जैसा खाना, वैसा पैखाना। रोटी-भात खाने पर कठिल (कड़ा)
पैखाना होगा। खेसारी की दाल खाने पर पतला और खेसारी-चना के साग खाने पर
काला।' अगुआ को इतने गहन ज्ञान वाला लड़का नहीं चाहिए था। उठकर जो गये सो
फिर लौटकर नहीं आये।</div>
<br /></div>
<div class="_2zfm _5yhh">
<span id="u_0_12"></span></div>
<span class="_1mto"></span></div>
राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-31329534996523870302018-04-27T16:22:00.001+05:302018-04-27T16:22:25.935+05:30भाषा पर असंबद्ध फेसबुकी टिप्पणियाँ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: justify;">
<b>1. फेसबुक-विवाद के बहाने</b></div>
<div style="text-align: justify;">
इन दिनों फेसबुक पर शब्द और शब्दार्थ को लेकर काफी बहस चल रही है। लोग
शब्दों के सामान्य प्रयोग की स्थिति में भी उनके विशिष्ट अथवा लाक्षणिक
अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। मैं कोई भाषा-मर्मज्ञ तो नहीं हूँ कि फतवे जारी कर
सकूँ और न ही चेले-चपाटी हैं कि वे मेरे फरमान को लेकर उड़ चलें। किंतु भाषा
के अप्रतिम जानकारों की ही तरह मेरे जीवन में भी भाषा का दखल रहा है। इस
सरोकार के आधार पर ही मैं भाषा (शब्द और शब्दार्थ) के बारे में कुछ मोटी
बातें कह सकने की स्थिति में हूँ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भाषाविज्ञान की मोटी बात है कि
अर्थ शब्द के नहीं, पद के होते हैं। शब्द वाक्य में प्रयुक्त होकर पद बनते
हैं। अर्थात वाक्य में प्रयुक्त होने की स्थिति में ही शब्द अर्थ ग्रहण कर
अपने को अभिव्यक्त करते हैं। सम्प्रेषण की इस पूरी प्रक्रिया में वक्ता और
श्रोता दोनों ही की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वक्ता और श्रोता की नीयत ही
शब्दार्थ तय करती है। एक ही साथ भाषा दो काम करती है। अर्थात भाषा अगर कुछ
व्यक्त करती है तो ठीक उसी समय कुछ अव्यक्त भी छोड़ जाती है। कहने की जरूरत
नहीं कि व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही सोद्देश्य हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हम अपनी
सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक स्थिति के हिसाब से शब्द का अर्थ ग्रहण करते
हैं। याद है कि जब मैं 9वीं कक्षा में था तो मेरे एक ग्रामीण ने मुझे
'हिन्दू' कहकर गाली देने की कोशिश की थी। कौन नहीं जानता कि मौलवी एक
सम्मानसूचक शब्द है। किंतु हिन्दू परिवारों में मौलवी शब्द का प्रयोग उपहास
के अर्थ भी प्रयुक्त होता है। जब किसी का मजाक उड़ाना हो अथवा अपमानित करना
हो तो हम सहज ही कह बैठते हैं कि 'ज्यादा मौलवी मत बनिए'। मेरा ग्रामीण
पढ़ा-लिखा नागरिक था और संभव है कि अगल-बगल कोई मुसलमान रहा हो जो अब मुझे
याद नहीं। वह अगर मुझे मौलवी कहता तो निस्संदेह अपने सेकुलर चरित्र को
बट्टा लगाता। मैं हिन्दू था और वह खुद भी हिन्दू था, इसलिए मेरे लिए हिन्दू
शब्द का प्रयोग सेकुलर राजनीति के लिहाज से सेफ था। मैं हिन्दू था, बावजूद
इसके, उसके द्वारा हिन्दू कहा जाना मुझे खला था। लगा जैसे किसी ने गाली दी
हो। आज मैं कहीं अधिक सचेत रूप से इसे गाली मानता हूं। मौलवी की जगह आप
पंडित या कवि जैसे शब्द को भी रख सकते हैं। मेरे बड़े भाई साहब को मौलिक
रचनाकारों अर्थात कवि-कहानीकारों से थोड़ी दूरी थी। दूरी इस धारणा की वजह से
थी कि इनका काम कम पढ़कर या बगैर पढ़े भी चल जाता है। इसलिए मैं जब शहर की
कवि-गोष्ठियों से लौटकर आता तो वे तंज कसते। कहते, 'कवि जी आ गये कविता
करके' और मेरे पास झेंपने के अलावा कोई चारा न होता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इण्टर के
जमाने अर्थात 84-85 की बात है। मैं पटना-गया लाइन की रेलगाड़ी में सफर कर
रहा था। एक भलेमानुस को सीट की दरकार थी। उन्होंने आग्रह किया, 'जनाब, थोड़ी
जगह देंगे क्या?' इतना सुनना था कि उसका पारा सातवें आसमान पर। बोला,
'क्या मैं मुसलमान हूँ कि जनाब कहोगे?' मारपीट तक की नौबत आ गई। किसी तरह
समझा-बुझाकर मामला शांत कराया गया। 85 की बात है। मैं पटना ट्रेनिंग कॉलेज
के हॉस्टल में रहा करता था। एक शाम मैं अपने एक मुसलमान मित्र के साथ
हॉस्टल लौट रहा था। कमरे का अंदरूनी हिस्सा दूर ही से नजर आता था। अंदर एक
महिला बैठी थी। मित्र ने पूछा-'कौन छोकरी बैठी है?' मैं इस शब्द का आदती
नहीं था। जाहिर है, मेरे कान लाल हो उठे। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>2. विदेशी विद्वान और संस्कृत</b></div>
<div style="text-align: justify;">
आज हम जिस संस्कृत भाषा और साहित्य की प्राचीनता पर गर्व करते हैं, उसकी
खोज विदेशियों ने ही की- चाहे वे इंग्लैण्ड के हों या जर्मनी के। <i>दि
सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट</i> श्रृंखला की किताबों को सम्पादित करने का काम
जर्मनी के <b>मैक्स मूलर</b> ही ने तो किया। विदेशी के नाम पर अगर हम उनका चश्मा
पहनने से इनकार कर दें तो अंधता के अभिशाप से हमें कौन बचा सकता है?
तुलनात्मक भाषाशास्त्र (कंपैरेटिव फिलोलॉजी) पर काम करते हुए विदेशी
विद्वानों ने ही साबित किया कि संस्कृत दुनिया की प्राचीनतम भाषाओँ में से
एक है। विदेशी के नाम पर अगर उनके इस योगदान को स्वीकार करने से बचें तो
हमारे पास गर्व करने लायक बचेगा क्या? संस्कृत भाषा और साहित्य की दुनिया
में काम करनेवाले <b>कोलब्रुक, ग्रिफिथ, मार्शल, स्मिथ, डिलन, मैक्स मूलर,
मौरिस विन्तर्निज</b> तथा <b>आर पिशेल</b> जैसे सैंकड़ों यूरोपीय विद्वानों को अगर
भिन्न भौगोलिक सीमा के नाम पर छोड़ दें, स्वदेशी विद्वान हम लाएंगे कहाँ से?
कोई हो तब तो? कुछ भारतीय विद्वान हुए भी हैं, तो वे इन्ही विदेशी
विद्वानों के काम को आगे बढ़ाते रहे हैं। ये भारतीय विद्वान अपने पूर्ववर्ती
विदेशी विद्वान के काम के आगे सिर झुकाकर ही आगे बढ़ते हैं। लेकिन जिन्हें
संस्कृत और संस्कृति के नाम पर केवल वोट की राजनीति करनी है उन्हें इन
विद्वानों के सम्मुख नतशिर होने की क्या जरुरत?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
संस्कृत ही क्यों
प्राकृत भाषा और साहित्य पर किसने काम किया? <b>आर पिशेल</b> ने जो <i>प्राकृत
भाषाओँ का व्याकरण</i> लिखा, उसकी तुलना में किस भारतीय भाषा वैज्ञानिक का नाम
हम ले सकते हैं? </div>
<div style="text-align: justify;">
संकट है कि अभी तक बाजार में विदेशी चश्मा ही
उपलब्ध है। अगर विदेशी न पहनने की अविवेकी जिद हम पाले बैठे हों तो हमें
अँधा होने से कोई नहीं बचा सकता। एक सप्ताह पूर्व मैं आंख के डॉक्टर <b>सुभाष
प्रसाद</b> के यहाँ गया था। डॉक्टर ने मोतियाबिंद के मरीज से पूछा, 'कौन सा
लेंस लगा दूँ-देशी या विदेशी?' मरीज का जवाब था, 'विदेशी, डॉक्टर साहब।
मुझे अपनी आंखों की ज्यादा चिंता है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b> 3. परंपरा नहीं परंपराएं कहिए</b></div>
<div style="text-align: justify;">
इतिहास और साहित्य के विद्यार्थी इस बात से वाकिफ हैं कि किसी ने परंपरा
का मूल्यांकन किया तो किसी ने दूसरी ही परंपरा की खोज कर डाली। और हम विवाद
में उलझे-फंसे रहे कि यह परंपरा कि वह परंपरा। इन बहसों से जो बात छनकर आ
रही थी कि अतीत में कोई एक परंपरा नहीं होती बल्कि परंपराएं होती हैं, उसको
हमलोगों ने यथोचित ग्रहण नहीं किया। यह हमारी सांस्कृतिक अनुदारता है।
<b>फ़िराक गोरखपुरी </b>अक्सर कहा करते थे कि <b>पाणिनि </b>के समय में संस्कृत के
नब्बे तरह के रूप लोक में प्रचलित थे। इसीलिए, आपको जानकर बात थोड़ी अटपटी
लग सकती है कि <b>फ़िराक</b> इस संस्कृत को 'संस्कृत' न कह 'संस्कृतियां' कहते थे।
<b>पाणिनि </b>ने इन नब्बे रूपों के बीच से संस्कृत का एक मानक रूप गढ़ा और कहा कि
यही संस्कृत है। उनके चेलों समेत कई और परवर्ती विद्वानों ने मान लिया कि
जो <b>पाणिनि</b> कहे वही मान्य है। इस तरह से <b>पाणिनि</b> के नाम पर संस्कृत भाषा के
साथ ज्यादती हुई उससे हम सभी परिचित हैं। इसके दुष्परिणामों से और भी
ज्यादा परिचित हैं। एक समय पाणिनीय होना प्रमाण माना जाता था और अपाणिनीय
गलत का पर्याय। मेरी जानकारी में <b>पाणिनि</b> के नाम का जो आतंक है उसका जोड़
दुनिया के शायद ही किसी भाषा और साहित्य में हो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आज जरुरत इस बात की
है कि हम सांस्कृतिक उदारता का परिचय देते हुए संस्कृति की जगह
संस्कृतियां और परंपरा की जगह परंपराएं मानकर बहस करें और भिन्न परंपरा और
संस्कृति के लिए स्पेस छोड़ते हुए जो समय की मांग है उस अनुरूप उससे ग्रहण
करें। इस कार्य में परंपरा, संस्कृति और इतिहास का विवेक हमारी मदद करेगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>4. वर्चस्व की भाषा/भाषा में वर्चस्व</b></div>
<div style="text-align: justify;">
शब्द महज अभिव्यक्ति के माध्यम नहीं हैं। वे अपने में इतिहास छिपाये रहते
हैं। एक भाषविद के लिए वे पुरातत्व के समान हैं। इनकी खुदाई से हम हजारों
वर्षों का इतिहास किसी क्रमभंग के बगैर जान सकते हैं। आइए देखें कि संस्कृत
के ये शब्द क्या हाल बयान करते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
संस्कृत 'अबल' का अर्थ दुर्बल,
बलहीन तथा अरक्षित है। इसी से बना अबला (नास्ति बलम् यस्या) शब्द है जो
स्त्री, औरत को 'अपेक्षाकृत बलहीन होने के कारण' कहा गया। 'नूनं हि ते
कविवरा विपरीतबोधा ये नित्यमाहुर-बला इति कामिनीनाम्,
याभिर्विलोलतरतारक-दृष्टिपातै: शक्रादयो$पि विजितास्त्वबला: कथंता:
(<i>भर्तृहरिशतकत्रयम्</i>, 1/11; आप्टे, <i>संस्कृत हिंदी शब्दकोश</i>, पृष्ठ 81) स्त्री
को असूर्यम्पश्या भी कहा गया। असूर्यम्पश्य का मतलब है सूर्य को भी न
देखनेवाला (सूर्यमपि न पश्यति)। (आप्टे, पृष्ठ 151) प्राचीन काल की अंतःपुर
की नारियों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सूर्य देखना भी दुर्लभ था
'असूर्यमपश्या राजद्वारा:'। (वही, पृष्ठ 151 में उद्धृत) असूर्यम्पश्या का
अर्थ हुआ पतिव्रता स्त्री अर्थात सती। सूर्य देखने मात्र से स्त्री का
सतीत्व नष्ट हो सकता था। संभव है, सूर्य और कुंती की कहानी का असर हो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
संभवतः ऐसा माना जाता था कि कुल की मर्यादा का भार स्त्रियों के ऊपर है,
इसलिए स्त्रियों के लिए बने कई शब्द कुल से निर्मित हैं। 'आदरणीय तथा उच्च
वंश की स्त्री' 'कुल अँगना' कहलाती है, और उच्च कुल में उत्पन्न लड़की
'कुलकन्या'। उच्चकुलोद्भव सती साध्वी स्त्री कुलनारी है जबकि कुलटा और
व्यभिचारिणी स्त्री जो अपने कुल को कलंक लगावे, कुलपांसुका है।
उच्चकुलोद्भूत सती स्त्री कुलपालि:, कुलपालिका तथा कुलपाली है। सती साध्वी
पत्नी कुलभार्या और अच्छे कुल की सदाचारिणी स्त्री कुलयोषित्, कुलवधू। उच्च
कुल की स्त्री कुलस्त्री तथा व्यभिचारिणी स्त्री कुलटा। (आप्टे, वही,
पृष्ठ 331-332)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
संस्कृत साहित्य में ग्राम्य को अश्लील कहा गया है।
अश्लील अर्थ की अभिव्यक्ति करनेवाले कई शब्द इसी ग्राम्य से बने हैं।
स्त्रीसंभोग अथवा मैथुन को 'ग्राम्यधर्म' कहा गया है, और वेश्या तथा रंडी
को 'ग्राम्यवल्लभा'। (आप्टे, वही, पृष्ठ 399)<br /> </div>
<div style="text-align: justify;">
आश्चर्य की बात है कि
स्त्री की दुरवस्था के बावजूद माता का स्थान सम्मान का है। मां को अम्बा भी
कहा जाता है। अम्बा का अर्थ है भद्र महिला या भद्र माता। स्नेह अथवा
आदरपूर्ण संबोधन में भी इसका प्रयोग होता है। वैदिक संबोधन अंबे है, बाद की
संस्कृत में अम्ब। 'किमम्बाभि: प्रेषित:, अम्बानां कार्यं निर्वर्तय'
(<i>शकुंतला</i>, 2) कृतांजलिस्तत्र यदम्ब सत्यात् (<i>रघुवंश</i>, 14/16; आप्टे, पृष्ठ
101) स्त्री की इस दुरवस्था के कई कारण हैं। एक कारण शिक्षा से उनकी
दूरी भी है। स्त्री के लिए अमंत्रक शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है,
जिसका अर्थ है, 'जो वेदपाठ से अनभिज्ञ हो' या 'जिसे वेद पढ़ने का अधिकार न
हो', जैसे शूद्र या स्त्री। (आप्टे, पृष्ठ 97)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b> 5. भाषा की सत्ता /सत्ता की भाषा</b></div>
<div style="text-align: justify;">
कहा जाता है कि भाषा के दो प्रयोजन हैं। पहला अभिव्यक्त करना और दूसरा
छिपाना। लेकिन इस दूसरे प्रयोजन में किसी भी भाषा को शायद ही सफलता मिली
हो। प्रसंग यह है कि पाचीन भारत में सामान्यतया एक पति-पत्नी की प्रथा थी।
बहुपति प्रथा के उदाहरण हमें इतिहास से नहीं प्राप्त होते हैं। लेकिन एक से
अधिक पत्नियां रखने का रिवाज रहा होगा। वैसी स्त्रियों के लिए संस्कृत में
हमें कई शब्द उपलब्ध होते हैं जिनके पति ने पत्नी के रहते दूसरा विवाह कर
लिया। उदाहरण के तौर पर आप नीचे लिखे शब्दों को देख सकते हैं: अधिविन्ना
(स्त्रीलिंग) = पति परित्यक्ता स्त्री, वह स्त्री जिसके रहते हुए पति दूसरा
विवाह कर ले। अधिवेत्तृ (पुंलिंग) = एक स्त्री के रहते हुए दूसरा विवाह
करनेवाला। अधिवेद: (पुं.), अधिवेदनम् (नपुं.) = एक स्त्री के रहते अतिरिक्त
स्त्री से विवाह करना। (आप्टे, <i>संस्कृत-हिंदी शब्दकोश</i>, पृष्ठ 36) अध्यूढा
(स्त्री.) = वह स्त्री जिसके पति ने उसके रहते हुए दूसरा विवाह कर लिया हो।
(आप्टे, पृष्ठ 38) इन उदाहरणों को देखकर किसी के भी दिमाग में एक सहज और
स्वाभाविक सवाल उठ सकता है कि शादी पुरुष कर रहा है तो शब्द स्त्री के लिए
क्यों बन रहे हैं? कायदे से शब्द तो पुरुष के लिए बनने चाहिए थे? यहाँ भाषा
का सर्जक अपना अभिप्राय प्रकट करने से संभवतः बच रहा है। भाषा की यही
मर्यादा है कि पढ़नेवालों से ज्यादा समय तक अपने प्रयोजन छिपाकर नहीं रख
सकती!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कहने की जरुरत नहीं कि संस्कृत भाषा पर पुरुष वर्चस्व की छाया
रही है। इसे शब्द-निर्माण-प्रक्रिया के सहारे बेहतर समझा जा सकता है।
संस्कृत 'स्वैर' शब्द का अर्थ है मनमाना आचरण करनेवाला, स्वच्छंद,
स्वेच्छाचारी, अनियंत्रित तथा निरंकुश। 'बद्धमिव स्वैरगतिर्जनमिह सुखसंगि
नमवैमि' (<i>शकुंतला</i>, 5/11), 'अव्याहतै: स्वैरगतै: स तस्या:' (<i>रघुवंश</i>, 2/5)।
स्वतंत्र, असंकोच और विश्वस्त के अर्थ में, जैसाकि' स्वैरालाप'
(<i>मुद्राराक्षस</i>, 4/83)। किंतु जैसे ही स्त्री का सन्दर्भ आता है, उसका अर्थ
नकारात्मक हो उठता है। इसलिए 'स्वैरिणी' का अर्थ असती, कुलटा, व्यभिचारिणी
हो जाता है (<i>याज्ञवल्क्य स्मृति</i>, 1/67)। इसी तरह किसी पुरुष का मन अगर उसके
वश में न हो तो वह 'अनियतआत्मन' है, जबकि इसी दोष से ग्रस्त स्त्री
'अनियतपुंस्का' अर्थात व्यभिचारिणी हो जाती है। (आप्टे, <i>संस्कृत हिंदी
शब्दकोश</i>, पृष्ठ 44) कई बार तो एक ही शब्द के अर्थ स्त्री और पुरुष के लिए
भिन्न हो जाते हैं। जैसे, अनुदार शब्द का अर्थ है 'उपयुक्त और योग्य पत्नी
वाला'। (आप्टे, पृष्ठ 48) क्या ही मजेदार है कि 'जो अपनी पत्नी के अनुकूल
चलनेवाला हो' वह भी 'अनुदार' और 'जिसकी पत्नी पति के अनुकूल चलने वाली हो
वह भी 'अनुदार'। (वही)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भाषा में एक से बढ़कर एक मनोरंजक चीज भरी पड़ी
है। संस्कृत 'अनुधावनम्' का सामान्य अर्थ है पीछे जाना या भागना, पीछा
करना, पीछे दौड़ना, अनुसरण करना आदि। इस शब्द का अन्य अर्थ 'किसी स्त्री को
पाने का असफल प्रयत्न करना' भी है। (आप्टे, <i>संस्कृत हिंदी शब्दकोश</i>, पृष्ठ
48) क्या यह मान लिया जाए कि किसी ज़माने में 'पीछे भागने' की क्रिया का
सम्बन्ध स्त्री जाति से जुड़ा रहा होगा?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>6. मातृभाषा के बहाने</b></div>
<div style="text-align: justify;">
सबसे पहले मैं फेसबुक का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मातृभाषा दिवस की
याद दिलायी। फिर फेसबुक पर मातृभाषा को लेकर तरह-तरह के सवाल और तमाम तरह
की उलझनें। सवाल कि मातृभाषा आखिर किसे कहें? फिर तरह-तरह के उत्तर। कोई
कहता माँ से सीखी भाषा तो कोई कहता जिस भाषा में माँ बात करती है। मैं अब तक
मानता रहा था कि मेरी मातृभाषा मगही है। यह मेरा सौभाग्य अथवा संयोग है कि
अपनी मातृभाषा को लेकर न पहले कोई भ्रम था न कल को होनेवाला है। लेकिन
मेरे जैसा सौभाग्य कितने लोगों को प्राप्त है? खुद मेरे बेटे को भी नहीं।
मेरी माँ का जन्म मगही के इलाके में हुआ था, शादी भी उसी इलाके में हुई।
इसलिए वे अपनी मातृभाषा निर्विघ्न बोलती रहीं। और आज हम भाई-बहन
निर्द्वन्द्व हो कह सकते हैं कि हमारी मातृभाषा मगही है। लेकिन इसी
निर्द्वन्द्व भाव से मेरा बेटा अपनी मातृभाषा मगही बताने का 'गर्व' हासिल
नहीं कर सकता। उसकी माँ भागलपुर की अंगिका भाषी रही है। उन्होंने अपनी माँ
से मातृभाषा के रूप में अंगिका हासिल की थी जबकि उन्हें अपने बेटे से मगही
में बात करनी पड़ी। अर्थात पति की मातृभाषा में। मातृभाषा की इस ट्रेजडी को
क्या कहेंगे आप? बोली जा रही है पिता की भाषा और नाम है मातृभाषा!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आज जब मैं मातृभाषा पर सोचने लगा तो मुझे <b>नामवर सिंह</b> याद आये। साल 87 के
आसपास का समय होगा जब वे प्रगतिशील लेखक संघ पटना की ओर से आयोजित एक
कार्यक्रम में बोलने आये थे। विषय <b>जयशंकर प्रसाद</b> से सम्बंधित कुछ था। उक्त
गोष्ठी में <b>नामवर सिंह</b> ने एक अत्यंत मार्मिक बात कही थी। प्रसंग वर्ण और
जाति की शुद्धता का था। <b>नामवर जी</b> ने कहा कि इतिहासकार और समाजशास्त्री वर्ण
और जाति की जितनी बात कर लें, चाहे जितनी थीसिस लिख डालें, सच्चाई केवल
हमारी माताएं जानती हैं। आज मातृभाषा के प्रसंग में मुझे <b>नामवर सिंह</b> की वही
बात दुहराने की विवशता है कि हम मर्द लोग निज मातृभाषा को लेकर जो फतवे दे
डालें, मातृभाषा की ट्रेजडी सिर्फ और सिर्फ माताएं ही बखान सकती हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>7. शिवबिहारी राय की हिंदी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
जिन लोगों का हिंदी से ठीक ठाक परिचय नहीं होता वे शुद्ध हिंदी बोलने के
चक्कर में केवल स्त्रीलिंग बोलते हैं। ऐसे ही बोलक्कड़ों को देखकर लोगों ने
हिंदी को 'जनानी विषय' कहा होगा। ऐसे ही एक बोलक्कड़ बी डी पब्लिक स्कूल के
मालिक/डायरेक्टर <b>शिवबिहारी राय </b>थे। मैं कभी वहां इतिहास पढ़ाया करता था। एक
दिन मैं अपनी कक्षा में जैसे ही दाखिल हुआ कि बच्चों ने एकस्वर से पूछना
शुरू किया कि सर, बताइये कि विद्यालय स्त्रीलिंग है अथवा पुल्लिंग? मैं
बताने ही वाला था कि ध्यान आया कि अरे यहाँ से तो अभी <b>राय जी</b> निकले हैं!
अतः मैंने बच्चों को बहलाने की कोशिश की। कहा, मैं हिंदी का शिक्षक नहीं
हूँ। यह सवाल हिंदी शिक्षक से करना। मैंने अपने ज्ञान की सीमा बताई। लेकिन
वे कहाँ मानने वाले। छात्र तो पहली ही मुलाकात में शिक्षक की स्कैनिंग कर
लेते है। अंततः मुझे बताना ही पड़ा कि विद्यालय पुल्लिंग है। छात्रों ने
कहा, सर, डायरेक्टर सर तो बोले कि विद्यालय सोमवार को खुलेगी।' मैंने कहा,
'डायरेक्टर ऐसा कह सकते हैं। शिक्षकों को स्त्रीलिंग बोलने की आजादी नहीं
है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>8. शुद्ध हिंदी की चिंता</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b> प्रभात रंजन जी</b> की टिप्पणियाँ
<i>प्रभात खबर</i>, पटना में छपती रही हैं और मैं उन्हें पढ़ता रहा हूँ। 1 दिसंबर
को उनकी टिप्पणी 'अशुद्ध हिंदी की शिक्षा' छपी है। <br /> </div>
<div style="text-align: justify;">
उन्होंने शुरुआत
बेटी की 'अशुद्ध हिंदी' और शिक्षक की शिकायत से की है। मेरे लिए यह ख़ुशी की
बात है कि शिक्षक अब भी शिकायत की हैसियत रखते हैं।<br /> </div>
<div style="text-align: justify;">
'शुद्ध हिंदी' एक
व्यापक पद है। <b>प्रभात जी</b> की 'शुद्ध हिंदी' से लगता है, वे 'वर्तनी की
शुद्धता' की बात कर रहे हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी शिक्षक हैं।
उनके छात्र महानगर के और महाविद्यालय स्तर के हैं। मैं गाँव के हाई स्कूल
का शिक्षक हूँ। मेरे बच्चे 'शुद्ध हिंदी' का मतलब 'संस्कृतनिष्ठ हिंदी'
समझते हैं। वे अक्सर पूछते हैं, 'सर, स्टेशन, सिगरेट, प्लेटफॉर्म आदि को
हिंदी में क्या कहते हैं?' मैं उन्हें बताता हूँ कि अब ये हिंदी के शब्द
हैं, लेकिन वे मेरे उत्तर से असंतुष्ट रहते हैं।<br /> </div>
<div style="text-align: justify;">
दूसरी तरफ, कुछ लोगों
को 'शुद्ध हिंदी' एक अतिरिक्त मांग लगती है। अतः वे शुद्ध हिंदी के आग्रही
को 'शुद्धतावादी' कहते है। यह 'शुद्धतावाद' शीघ्र ही 'ब्राह्मणवाद' में
तब्दील होकर भाषा से इतर एक नये विमर्श की शुरुआत करता है।<br /> </div>
<div style="text-align: justify;">
मैं कभी
हिंदी का विद्यार्थी नहीं रहा। मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा और हिंदी मेरी
पढ़ाई-लिखाई का माध्यम रही। इसलिए हिंदी-भाषा-व्याकरण की बारीकियों में कभी
गया नहीं। मेरी कभी इतनी औकात भी नहीं हुई। इसका एक फायदा यह हुआ कि भाषा
को मैंने बोध के स्तर पर ग्रहण किया। एक 'कुजात' की तरह, हिंदी
के विद्यार्थी की तरह नहीं। मुझे लगता है कि हिंदी का विद्यार्थी व्याकरण
पहले जान लेता है, भाषा उसके बाद जानना शुरू करता है। इस प्रक्रिया में
भाषा उससे बिदक जाती है। वह भाषा बोध विकसित नहीं कर पाता। इस सन्दर्भ में
एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। 97-98 में मैं पटने के 'स्वरूप विद्या निकेतन'
विद्यालय में हिंदी पढ़ाया करता था। वहाँ हिंदी व्याकरण के एक शिक्षक थे
जिनका नाम <b>सत्येंद्र कुमार पाठक</b> था। पढ़ाने के दौरान मेरे मुंह से निकले एक
वाक्य को उन्होंने आपत्तिजनक पाया। वाक्य था: 'नेहरु भारत के प्रथम
प्रधानमंत्री हैं।' उनका कहना था कि यह वाक्य गलत है। 'हैं' की जगह 'थे'
व्याकरणसम्मत है। उनके साथ जो मेरी बहस हुई तो लगा कि ये महाशय न व्याकरण
पढ़ सके न भाषा की तमीज़ हासिल कर सके।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं <b>प्रभात जी</b> की इस बात से सहमत
नहीं हूँ कि हम हिंदी की तुलना में विदेशी भाषा ज्यादा सही बोलते-लिखते है।
मैंने अंग्रेजी के शिक्षकों को अक्सर ही 'एक लेडीज' बोलते सुना है। कई
लोगों को टोकना पड़ा कि भाई जब एक है तो लेडी कहिए न! मुझे छात्रों की
अशुद्ध हिंदी की तुलना में हिंदी लेखकों की हिंदी ज्यादा चिंतित करती है।
जब 'महारथी' लिखा जाता था तो बच्चों को समझाना आसान था कि महारथी वे हैं
जिनके पास एक से अधिक रथ हैं। किन्तु अब के लेखकों को 'महारती' लिखने में
'महारत' हासिल है! इसी तरह पहले 'कठघरा' समझाना आसान था कि भइया यह काठ का
बना घर है। अब बताइए कि छोटे बच्चों को मैं 'कटघरा' कैसे बताऊँ? हिंदी में
ऐसे कई शब्द हैं जो हमारी बेवकूफियों की वजह से पैदा हुए हैं और जिनका कोई
तर्कशास्त्र नहीं है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हमारी भाषा अगर अशुद्ध है तो इसका कारण है कि
हमलोग भाषा के प्रति सचेत नहीं हैं। <b>प्रभात रंजन जी</b> सचेत होते तो एक ही
वाक्य में 'इसलिए' और 'क्योंकि' का प्रयोग शायद ही करते!</div>
<div style="text-align: justify;">
<b> </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>9. खराब हिंदी का मर्म</b></div>
<div style="text-align: justify;">
किसी शाम मैं एक पब्लिक स्कूल के मालिक के साथ बैठा था। वहाँ एक छात्र के
अभिभावक पधारे। उन्होंने अपने बच्चे से संबधित एक शिकायत की, 'सर, आजकल
इसकी हिंदी कमजोर हो चली है।' स्कूल डायरेक्टर ने कहा, 'महाराज, यह तो ख़ुशी
की बात है। जाइए और मिठाई लेकर आइए। अभिभावक भारी मन से मिठाई खरीद लाया।
डाइरेक्टर ने उपस्थित लोगों के बीच मिठाई बांटी। कहा, 'हिंदी कमजोर होने का
मतलब है कि उसकी अंग्रेजी मजबूत हो रही है।' अभिभावक फूले न समा रहा था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<b> </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>10. युद्ध या कि जुद्ध</b> </div>
<div style="text-align: justify;">
किसी दिन एक बाप को सूझी कि वह बेटे की भाषिक क्षमता की जाँच कर ले। इस
ख्याल से पिता ने श्रुतिलेख लिखाने की ठानी। बेटे का दुर्भाग्य कहिये कि
पिता का उच्चारण गड़बड़ था। पिता युद्ध का उच्चारण जुद्ध करता और बेटे से आशा
करता कि वह युद्ध लिखे। लगभग आध घंटे तक पुत्र-पिता की आशा पर पानी फेरता
रहा। अंत में पिता ने पुत्र की जमकर पिटाई कर दी। यह कोई मजाक अथवा चुटकुला
नहीं, एक सचमुच के बच्चे के साथ घटी त्रासदी है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<b> </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>11. भाषा और समाज</b></div>
<div style="text-align: justify;">
एक वर्ग-विभाजित समाज में भाषाओं की भी सामाजिक हैसियत होती है। भारत में अंग्रेजी सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ की भाषा है। भाषा हमें एक पहचान देती है। शासक वर्ग हमेशा आम जन की भाषा से भिन्न भाषा
का प्रयोग करता है। यह भाषा-नीति उसे विशिष्टता और सुरक्षा प्रदान करता
है। उनके बुद्धिजीवी भी उसी भाषा में बात करते हैं। बुद्धिजीवी अगर आम जन
की भाषा बोलने लगें तो उनकी विशिष्टता बहुत हद तक स्वतः समाप्त मानी
जायेगी। इसकी जड़ें औपनिवेशिक दासता से उत्पन्न मानसिकता में भी है। कई
राजनीतिक पार्टियां भी, जो आम जन की मुक्ति की बात करती रही हैं, भाषा के
सवाल पर अंग्रेजी से चिपकी हैं। कारण शायद यह हो कि उनका नेतृत्व भी उच्च
मध्य वर्ग के हाथों में है। आंदोलनों और पार्टियों के नेता जब
किसानों-मजदूरों के बीच जाएंगे तभी शायद यह सवाल हल हो। अकादमिक जगत में भी
हमें वैसे बुद्धिजीवियों की फौज के आगमन का इंतजार है जो कह सके कि मेरे
दादा हलवाहे थे। देश के स्तर पर एक तरह के स्कूल और पाठ्यक्रम की गारण्टी
भी इस समस्या को हल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सरकार ही क्यों वामपंथी पार्टियां तक सारा कम अंग्रेजी में करती हैं। यह
सब सुविधा और सहूलियत के नाम पर चलाया जाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि एक
वर्ग-विभाजित समाज में भाषा भी अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक हैसियत के आधार पर
वर्गीकृत है। हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी एलीट है तो भोजपुरी -मगही के
मुकाबले हिंदी। किसी मगही-भाषी के समक्ष आप अगर खड़ी बोली हिंदी बोलते हैं
तो झट कह देगा-'जादे अँगरेजी मत झाड़$'।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सच तो यह है कि भाषाओँ में
आपस में विरोध नहीं होता। हमारा यह मानना कि हिंदी के विकास से बोलियां
कमजोर अथवा नष्टप्राय हो रही हैं, वैज्ञानिक या तर्कसम्मत नहीं है.किसी भी
भाषा का 'स्वतंत्र विकास' किसी भी दूसरी भाषा के नैसर्गिक विकास में बाधक
नहीं है। यहाँ तक कि अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओँ से हिंदी समृद्ध हुई
है। मुझे लगता है, हम भाषा पर बात करते विचार को अलग छोड़ देते हैं।
अंग्रेजी ने विचार के स्तर पर हिंदी एवं अन्य भाषाओँ को जो योगदान दिया है
उसे भुलाया नहीं जा सकता। सारी गडबड़ी भाषा के 'प्रायोजित विकास' की है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>12. जननी नहीं है संस्कृत</b></div>
<div style="text-align: justify;">
संस्कृत को हिंदी की 'जननी' कहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता। नानी,
दादी-चाहे जो कह लें आप, चलेगा। जननी वही जो सीधे तौर पर जन्म दे। हिंदी
सीधे-सीधे संस्कृत की कोख से नहीं निकली है। संस्कृत से ज्यादा श्रेय तो
अपभ्रंश और तत्कालीन दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को दिया जा सकता है जो सीधे
तौर पर हिंदी से जुड़ी हैं। खड़ी बोली हिंदी बोलियों का परिष्कृत रूप है।
संस्कृत को जननी कह देने से दूसरी तमाम भाषाओं के योगदान को नकार देने की
ध्वनि निकलती है। इससे भाषा-विकास का इतिहास भी गड्डमड्ड होगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>13. समझौता है भाषा</b></div>
<div style="text-align: justify;">
भाषा में ऐसे कई प्रयोग मान्य हैं. अत्युत्तम ही को लें. उत्तम की अति है
यहाँ. परंपरा में 'अति' की सर्वत्र वर्जना भी है. पन्त ने 'सत्य' शब्द का
हमेशा स्त्रीलिंग में प्रयोग किया है क्योंकि उन्हें यही पसंद था. इस तर्क से कि फूलने की क्रिया पहले होती है फलने की बाद में, <b>निराला</b>
'फूलना-फलना' लिखते रहे लेकिन हिंदी के लोग आज तक 'फल-फूल' रहे हैं. भाषा
विज्ञान-सम्मत नहीं होती.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>14. मानक हिंदी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ लोग 'मानक हिंदी'
की दुश्चिंता से दुबले हुए जा रहे हैं. उन्हें कौन समझाए कि पहले हम एक
'मानक समाज' तो गढ़ लें ! एक तरफ हम सामाजिक बहुलता की बात करके गर्व महसूस
करें और भाषा के मामले में उस विविधता को नष्ट करने की सोचें. समाज में जब
कई वर्ग, जाति और संप्रदाय के लोग होंगे तो भाषा का एक मानक रूप कैसे हो
सकेगा ? भाषा को देखने का हमारा तरीका लोकतान्त्रिक होना चाहिए. वह अगर
साहित्य की भाषा है तो अभिव्यक्ति का एक औजार भी. किसी की भाषा को भ्रष्ट
कहकर उसकी अभिव्यक्ति के औजार को कुंद किया जाता है. एक तरह की हीन भावना
पैदा की जाती है. हम भूलते हैं कि मानक भाषा हमेशा एक आदर्श है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>15. धर्म और भाषा</b></div>
<div style="text-align: justify;">
धर्म और धर्म-प्रचारकों ने
सिर्फ उन्माद ही नहीं फैलाया, दुनिया की कई भाषाओं का 'पहला व्याकरण' लिखने
का गौरव भी हासिल किया। (डैविड क्रिस्टल, <i>लिंग्विस्टिक्स</i>, पेंगुइन,
रिप्रिंट : 1980, पृष्ठ 45) अगर प्राचीन भारत का इतिहास देखें तो आधी से
अधिक आबादी, अर्थात स्त्री और शूद्र को शिक्षा से दूर रखा गया। कहा गया कि
इन्हें वेदपाठ आदि करने का कोई अधिकार नहीं है, ये शब्दों को बिगाड़कर कहते
हैं। भाषा के बारे में एक आम धारणा थी कि इसे जनसाधारण भ्रष्ट करते हैं
जबकि अभिजन इसे बिगड़ने से बचाते हैं। (वही, पृष्ठ 53) कहने की जरूरत नहीं
कि तब हम लेखनकला से परिचित नहीं थे, साहित्य केवल मौखिक परंपरा में जीवित
रह सकता था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक साहित्य/ज्ञान अपने अपरिवर्तित रूप
में जाये, इसके लिए भाषा में शुद्धता, उच्चारण आदि पर एक हद तक 'अनावश्यक
जोर' की आवश्यकता थी। ज्ञान की मौलिकता की रक्षा का दायित्व ब्राह्मणों के
पास था। उसने लोगों में डर पैदा किया कि मंत्रों के गलत उच्चारण के
कुप्रभाव से यजमान को अनिष्ट भोगना पड़ सकता है। (वही, पृष्ठ 44) इस डर का
भी एक सीमा तक ही प्रभाव रहा होगा क्योंकि <b>पाणिनि</b> कई तरह के उच्चारण की बात
करता है। उच्चारण की इतनी गड़बड़ी थी कि कई शब्दों के स्रोत, अर्थ और
निर्माण/विकास प्रक्रिया उन्हें भी अज्ञात थे। इस समस्या को दूर करने के
उद्देश्य से उन्होंने एक 'व्याकरण' तैयार किया। इस व्याकरण से इधर-उधर होने
का मतलब 'अपाणिनिय' अर्थात गलत होना था। </div>
<div style="text-align: justify;">
आधुनिक भारत की बात करें
तो मलाबार क्षेत्र में सत्रहवीं सदी के अंतिम चरण से लेकर अठारहवीं सदी के
चौथे दशक तक क्रियाशील रहनेवाले जेस्विट पादरी <b>फादर हैंक्सलेडेन</b> ने संस्कृत
का एक व्याकरण लिखा जो किसी भी यूरोपीय भाषा में संस्कृत पर लिखा गया पहला
व्याकरण है। (द्विजेन्द्र नारायण झा, <i>प्राचीन भारत : सामाजिक, आर्थिक और
सांस्कृतिक विकास की पड़ताल</i>, ग्रंथ शिल्पी, प्रथम संस्करण : 2000, पृष्ठ 13)
1767 में सबसे पहले <b>फादर कुर्डो</b> ने संस्कृत और यूरोपीय भाषाओं के बीच के
घनिष्ठ संबंध को पहचाना। (वही)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>16. भाषा बहता नीर</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>ऋग्वेद</i> (5/76/2) में संस्कृत शब्द धर्म (बरतन) के लिए प्रयुक्त हुआ है। (<i>धर्मशास्त्र का इतिहास</i>, प्रथम भाग, पृष्ठ 176) वैदिक साहित्य में 'अनुलोम' एवं 'प्रतिलोम' शब्द विवाह के अर्थ में नहीं
प्रयुक्त हुए हैं। <i>बृहदारण्यकोपनिषद </i>(2/1/15) एवं <i>कौषीतकि ब्राह्मनोपनिषद</i>
(4/18) में ऐसा आया है कि यदि एक ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान के लिए किसी
क्षत्रिय के पास जाय तो वह 'प्रतिलोम' गति कही जायगी। संभवतः इसी अर्थ को
कालांतर में विवाह के लिए भी प्रयुक्त कर दिया गया। (पी वी काणे,
<i>धर्मशास्त्र का इतिहास</i>, प्रथम भाग, पृष्ठ 118)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>आपस्तम्बगृह्यसूत्र</i>
(5/12-13), <i>हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र</i> (1/9/1), <i>याज्ञवल्क्य</i> (1/51),
<i>पारस्करगृह्यसूत्र</i> (2/6-7) ने स्नान शब्द को दोनों अर्थात छात्र-जीवन के
उपरांत स्नान तथा गुरु-गृह से लौटने की क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त किया
है। (<i>धर्मशास्त्र का इतिहास</i>, प्रथम भाग, पृष्ठ 179) ज्ञान-जल से नहाये हुए
को स्नातक कहा गया। सम्भवतः बाद में जब ज्ञान की नदी सूख चली तो पानी से
नहाने को ही स्नान कहा जाने लगा। 'उपेक्षितव्या:' का मूल/पुराना
अर्थ है 'समीप जाकर देखना चाहिए'। बाद में इसका अर्थ तिरस्कार हो गया।
<i>निरुक्त</i> में यह पुराने अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'आंखों के अत्यंत निकट
रहने से अनादर होता ही है', इस प्रकार यह अर्थ आया। (सत्यव्रत, <i>सेमैंटिक्स
इन संस्कृत</i>, पूना ओरिएंटलिस्ट, जनवरी, 1959)</div>
<div class="_5ybo _1q_o _2zfm _5yhh">
<div class="_fk3">
<div class="_fk4">
<div class="_fk6" id="u_0_16" style="text-align: justify;">
<div role="presentation">
<div class="__ji">
<div class="_fk8">
<span></span><span class="_2dc6"><a href="https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1640964412603841&id=162110537155910#"><div style="display: inline-flex;">
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</a></span></div>
</div>
</div>
</div>
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<span id="u_0_15"><span><br /></span></span></div>
</div>
</div>
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</div>
राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-9419786648122065872018-04-24T10:52:00.001+05:302018-04-24T10:52:12.623+05:30इतिहास के बारे में कुछ असहमत टिप्पणियां<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
1. अफवाह और इतिहास</div>
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<br /></div>
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हमारे महापुरुष जितना इतिहास की किताबों में हैं, अफवाहों में उससे तनिक
कम नहीं हैं। सबसे ज्यादा अफवाह <b>गांधी</b> <b>बाबा</b> को लेकर है। मेरी मां बताया
करती थीं कि <b>गांधी</b> को उनकी इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी सरकार भी जेल में बंद
नहीं रख सकती थी। <b>गांधी</b> में 'चमत्कारी' शक्ति थी और वे इस शक्ति की बदौलत
जब चाहते थे, जेल का फाटक खुल जाता था और वे बाहर निकल जाते थे। <b>गांधी</b> जब
चंपारण आए तो चमत्कारी शक्तियां भी उनके साथ आयीं। बेतिया के आसपास के
इलाकों में पेड़-पौधों से लेकर छप्पर के कद्दू तक पर <b>गांधी</b> की आकृति उभरने
लगी। इस सब की जड़ में लोगों का यह विश्वास था कि <b>गांधी</b> कोई साधारण आदमी
नहीं बल्कि 'अवतारी पुरुष' हैं। <b>गांधी</b> को आदमी से अवतारी पुरुष बनाने में
इन अफवाहों की खासी भूमिका रही है।</div>
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<b>नेहरु</b> भी इन अफवाहों से
अप्रभावित नहीं हैं। जब मैं छोटा था तो अक्सर लोगों के मुख से सुनता था कि
<b>नेहरु</b> के कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे। तब मेरा बालसुलभ ज्ञान इसका काट नहीं
जानता था बल्कि एक स्थापित तथ्य की तरह इसे मानकर चलता था। नतीजतन मेरी
किशोरावस्था <b>नेहरु</b> की आलोचना, बल्कि कहिए कि लानत-मलामत के साथ जवान हुई।
कॉलेज में जब <b>नेहरु</b> के बारे में पढ़ा तो सही जानकारी मिली। <b>नेहरु</b> को स्वयं
इस अफवाह की जड़ काटनी पड़ी। इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अफवाह की
जड़ कितनी गहरी पैस चुकी थी। हालांकि आज भी इसकी हरियाली कुछ कम नहीं हुई
है।</div>
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<br /></div>
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सन 2000 के आसपास की बात है जब मैं <i>एकलव्य एड्यूकेशनल
कॉम्प्लेक्स</i> (पब्लिक स्कूल जो इसी माह बंद हुआ) में पढ़ाया करता था। <b>पंकज
कुमार</b> वहां अंग्रेजी विषय के शिक्षक हुआ करते थे। उनसे हमारी कई चीजों पर
बात होती। हम भारतीयों की एक विचित्र गड़बड़ी है कि बात चाहे किसी भी विषय पर
शुरू हुई हो, समाप्ति <b>गांधी-नेहरु</b> से ही होगी। मैं अक्सर <b>नेहरु</b> के पक्ष
में बोलता और वे विपक्ष में बल्कि कई बार तो स्थिति भयानक हो जाती जब वे
<b>नेहरु</b> के कई स्त्रियों के साथ यौन संबंध स्थापित करते हुए चरित्रहनन तक
शुरू कर देते। मेरी असहमति से वे गुस्से में आ जाते और कहते, 'मैं तो नेहरु
की धज्जी उड़ा दूंगा।' वे इस पूरी बातचीत में <b>क्लेमा कैथरीन</b> का <i>एडविना और
नेहरु</i> उपन्यास को प्रमाण के बतौर प्रस्तुत करते। तब तक वह किताब अपठित थी।
डरते-डरते मैंने वह किताब उनसे पढ़ने को ली। पढ़ा तो पाया कि <b>एडविना</b> और <b>नेहरु</b>
जैसा प्रेम तो उस किताब के लगभग सारे पात्र कर रहे हैं, चाहे वे <b>गांधी,
जिन्ना, सरोजिनी नायडू</b> हों या और कोई।</div>
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<br /></div>
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<b>नेहरु</b> से जुड़ी एक और घटना
है। इसे मैं अपने गांव में बचपन में सुना करता था। देश-विभाजन के दिनों की
बात है। भड़क उठे दंगों को रोकने के लिए <b>नेहरु</b> दौरा कर रहे। उन्हें हमारे
गांव के निकटतम रेलवे स्टेशन नादौल भी आना था। हमारे गांव से कई लोग <b>नेहरु</b>
को देखने गये थे। कुछ लोग <b>नेहरु</b> की नीतियों से खिन्न भी थे। उन्हीं में से
<b>कमता सिंह</b> नामक एक व्यक्ति, जो तनिक जादू-टोना भी किया करते थे, गांव से ही
एक ढेला लेकर गये थे। ग्रामवासियों से उन्होंने कह रखा था कि इसी ढेले से
वे दूर से ही <b>नेहरु</b> पर प्रहार करेंगे किंतु ऐन मौके पर उस जादूगर का ढेला
हाथ से छूटकर नीचे गिर गया और <b>नेहरु</b> को मारने की मुराद पूरी न हो सकी। जैसा
कि किस्सा है, 'नेहरु ने उन महाशय का हाथ बांध दिया था।'</div>
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<br /></div>
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2. इतिहास और तात्कालिकता </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<b>जवाहरलाल नेहरु</b> ने <i>पिता के पत्र पुत्री के नाम</i> लिखे एक पत्र में अपनी
दसवर्षीया पुत्री को <b>जॉन ऑफ आर्क</b> के हवाले से बताया है कि असामान्य
परिस्थिति में अत्यंत सामान्य बात भी असाधारण महत्व की हो जाती है। इसे
हम अपने गांवों में प्रचलित एक छोटी बात से समझ सकते हैं। बिहार के गांवों
में कार्तिक मास में भूरा (उजला गोल कद्दू) दान करने तथा उसकी बलि देने की
धार्मिक प्रथा रही है। 1910 के आसपास उत्तर प्रदेश में वार्षिक काली पूजा
के अवसर पर सफेद कुम्हड़ा या पेठा की बलि दी जाती थी। यों तो इसका कोई खास
अर्थ नहीं था, किंतु लोगों ने इसका अर्थ यह लगाया कि सफेद कुम्हड़ा माने
सफेद चमड़ी वाला अंग्रेज।</div>
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<br /></div>
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कुछ दिनों पहले तक राजधानी की सड़कों के
किनारे खुले में यत्र-तत्र मूत्रत्याग कर लेने को लोग महज अशिष्टता मान
संतोष कर लेते थे। एस पी, डी एम की कोठी के सामने भी ऐसा करने में शायद ही
कोई खतरा मानते थे। आज स्वच्छता अभियान के जमाने में ऐसा कहना-करना जोखिम
भरा हो सकता है। किंतु आधुनिक भारत के हमारे किसी इतिहासकार मित्र को
स्वतंत्रता संग्राम के जमाने की फाइल में कोई भारतीय एस पी, डी एम की कोठी
के आगे मूत्रत्याग करता मिल जाए तो उसे स्वतंत्रता सेनानी से कम मानने के
लिए शायद ही तैयार होंगे! दरभंगा में 1940 में एक तांगेवाला गिरफ्तार हो
गया था। उसने घोड़े को चाबुक मारते हुए केवल इतना कहा था, 'चल रे बेटा हिटलर
जैसा'। बस, वह इसी बात पर गिरफ्तार हो गया। (भोगेन्द्र झा, <i>क्रांतियोग</i>,
मातृभाषा प्रकाशन, 2002, पृष्ठ 29) 1942 की क्रांति के समय आरा के पास
जमीरा में पाखाना फिर रहे कुछ लोगों को गोली मार दी गई थी। (मन्मथनाथ
गुप्त, <i>भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास</i>, आत्माराम एंड संस, 2009,
पृष्ठ 374) कहने की जरूरत नहीं कि आधुनिक भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में
वे शहीद हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसी तरह, अंग्रेजी राज में हमें जो बहुत सारी
राजनीतिक डकैतियों के उदाहरण प्राप्त होते हैं उनमें से अधिकतर तो डकैती थी
ही नहीं। बंगाल के प्रसिद्ध शिवपुर डकैती के आरोपी <b>अमर बाबू</b> (अमरेंद्रनाथ
चटर्जी) ने जैसाकि <b>सीताराम सेक्सरिया</b> को बताया था, 'क्रांतिकारी ने जमींदार
से सहायता मांगी तो उस ने कहा, सहायता देना तो दिक्कत की बात है मैं
तुम्हें अपना खजाना बता देता हूँ तुम लोग डाका डालकर उसे ले जाओ इस से
अच्छी सहायता मिल जायेगी।' (सीताराम सेक्सरिया, <i>एक कार्यकर्ता की डायरी</i>,
भाग 1, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण : 1972, पृष्ठ 83) इस प्रकार,
राजभक्त दिखने वाले लोगों में से कई गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की सहायता
करते थे।</div>
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<br /></div>
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3. इतिहास में संयोग की भूमिका</div>
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<br /></div>
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ऐसा तो बिल्कुल ही
नहीं है कि 'संयोग की दुहाई केवल कर्महीन नर देते हैं'। बचपन में पढ़ी 'झाँसी की
रानी' कविता इस प्रसंग में याद आ रही है। कविता-पंक्ति थी, 'घोड़ा अड़ा नया
घोड़ा था, इतने में आ गये सवार।' घोड़ा नया न होता तो शायद अड़ता नहीं। फिर
सवार आने से पहले <b>लक्ष्मीबाई</b> वहां से कूच कर गई होती और इस तरह मारे जाने
से बच सकती थी। इतिहास इस तरह के असंख्य उदाहरणों से भरा पड़ा है। इस तरह
कोई व्यक्ति इतिहास में संयोग की भूमिका को नकार नहीं सकता। वे अवश्य
नकारने की भूल करेंगे जो संयोग बोलने पर भाग्य सुन-समझ बैठते हैं।</div>
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<br /></div>
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4.अतीत का गौरव</div>
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<br /></div>
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सिर्फ इतना कहना कि 'अपने भूत के प्रति गौरव और अनुराग हमारे लिए बड़ी
ख़तरनाक चीज़ है', काफी नहीं है। हमारा आरंभिक राष्ट्रवाद इसी 'गौरव' और
'अनुराग' पर खड़ा मिलता है। जब हमारा वर्तमान नैराश्यपूर्ण हो तो अतीत का
अनुराग और गौरव हमें अवसादग्रस्त होने से बचा सकता है। हाँ, अतीत का गौरव
और अनुराग अगर हमारे बेहतर वर्तमान और भविष्य के सपने से न जुड़ा हो तो
खतरनाक है।</div>
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<br /></div>
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5. इतिहास में स्त्री</div>
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<br /></div>
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हम वर्षों से पढ़ते-सुनते आ
रहे हैं कि अब तक का सारा इतिहास पुरुषों का पुरुषों द्वारा लिखा गया
इतिहास है, अर्थात पुरुष अपराधी और जज दोनों की भूमिका निभाता रहा है और
मनोनुकूल फैसले लेता रहा है। इतिहास के इन फैसलों को बदलने के लिए जरूरी है
कि प्रतिपक्ष को भी सुना जाये। इतिहास की इस पहल से उन नये साक्ष्यों की
खोज शुरू हुई है जिन्हें पुरुष प्रभावित कर पाने में लगभग असमर्थ रहे हैं।
स्त्री-गीत इतिहास के ऐसे ही साक्ष्य हैं जिनके बारे में लगभग
विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वे मूलतया स्त्रियों द्वारा रचित एवं
संरक्षित हैं। इसलिए स्त्रियों का कोई भी वास्तविक और प्रामाणिक इतिहास
स्त्री-गीतों से गुजरे बगैर नहीं लिखा जा सकता।</div>
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<br /></div>
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<i>अभिलेख-बिहार</i> (अंक
6) में <b>शारदा शरण</b> का एक लेख प्रकाशित है जिसका शीर्षक है, 'स्वतंत्रता
संग्राम के दौरान की वीर गाथाएं : बक्सर जिला के सन्दर्भ में'। कहने की जरूरत
नहीं कि इस लेख में आजादी के दौरान बिहार में प्रचलित गीतों का अध्ययन
प्रस्तुत किया गया है। इन गीतों में लगभग सभी स्थलों पर पुरुषों को संबोधित
किया गया है। 'मर्द हो मर्दानगी के साथ, मरना सीख लो', 'चल भइया',
'शाहाबाद के वीर सपूतों' तथा 'अब चले झुण्ड मर्दानों का' आदि संबोधनों का
प्रयोग करते हुए पुरुषों का आह्वान किया गया है। एक भी गीत में आश्चर्यजनक
रूप से स्त्रियों का आह्वान नहीं है। एक गीत में चर्चा है भी तो आंदोलन के
बाधा के रूप में। एक गीत में कहा गया है, 'हम मातृभूमि के सैनिक हैं/अब
प्राणों का है मोह कहाँ/केसरिया बाना पहन लिया/नारी बच्चों का छोह कहाँ।'
इन गीतों के आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में बिहार
की स्त्रियों की अपेक्षित भागीदारी नहीं थी? अथवा यह कि स्त्रियों के अपने
गीतकार नहीं थे? अगर नहीं थे तो क्यों?</div>
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<br /></div>
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6. इतिहास और रामकथा</div>
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<br /></div>
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रामकथा की एक समृद्ध परंपरा है भारतीय भाषा साहित्य में। <b>फादर कामिल
बुल्के</b> ने रामकथा पर एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण और मूल्यवान शोधकार्य किया
है। संस्कृत और प्राकृत दोनों ही में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ रामकथा
मिलती है। <b>तुलसीदास</b> ने इस सम्पूर्ण रामकथा साहित्य का गहन अध्ययन किया था
लेकिन उन्होंने अपनी रामकथा का आधार <b>वाल्मीकि</b> की <i>रामायण</i> को बनाया।
<b>वाल्मीकि</b> की <i>रामायण</i> के पहले भी रामकथा की एक सुदीर्घ मौखिक परंपरा थी।
कुशीलव नामक जाति के लोग इस रामकथा का लोक में और राजा के दरबार में वाचन
किया करते थे। इसी मौखिक परंपरा को आधार बनाकर <b>वाल्मीकि </b>ने <i>रामायण </i>की रचना
की। राम कोई ऐतिहासिक पात्र न होकर काल्पनिक कथा के पात्र हैं। <b>वाल्मीकि,
बिमलसूरि, कबीर</b> तथा <b>तुलसीदास</b>-सबके अपने अपने और बहुत कुछ मिलते जुलते राम
हैं, लेकिन हैं सब के सब काल्पनिक ही । <b>तुलसी</b> के राम बहुत हद तक <b>वाल्मीकि</b> के राम हैं,
तो दोनों एक ऐतिहासिक काल में कैसे संभव हैं? कवि से हम इतिहास की मांग ही
क्यों करें? साहित्य को साहित्य की तरह पढ़ें। हाँ, हम इतिहास का विवेक
जरूर इस्तेमाल करें। इतिहास के सन्दर्भ में मुझे <b>लाला हरदयाल</b> की कही बात
हमेशा याद रहती है कि वह हजाम के उस्तरे की तरह है। अगर हजाम सही हुआ तो
दाढ़ी बनने के बाद आप सुन्दर लगेंगे, अन्यथा उस्तरा आपको घायल कर सकता है।
इतिहास एक सही हजाम की मांग करता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
प्राचीन भारतीय इतिहास के
स्रोत के रूप में साहित्यिक साक्ष्यों के अध्ययन की समीक्षा दिलचस्प हो
सकती है. इतिहासकार अपने व्यक्तिगत आग्रहों/पूर्वाग्रहों के कारण साहित्यिक
साक्ष्यों के साथ मनमानी करते रहे हैं. इस खेल में <b>आर.एस.शर्मा </b>जैसे
प्रख्यात इतिहासकार तक शामिल हैं. एक उदारण देखें-'राम के वन चले जाने पर
वाल्मीकि ने अयोध्या का जो वर्णन किया है उससे उजड़े नगर का स्पष्ट संकेत
मिलता है. वहां व्यस्त जीवन का कोलाहल नहीं पाया जाता. इसके अलावा गालियों
में गाडियां और रथ नहीं चलते, यज्ञ नहीं होते और ग्राहकों को आकर्षित करने
के लिए पण्य-वस्तुएं फूलों और मालाओं से नहीं सजाई जातीं. दुकानें सौदागरों
से खाली हैं: सौदागर अपने व्यापार के अंत से चिंतित हैं.' (आर.एस. शर्मा,
<i>भारत के प्राचीन नगरों का पतन</i>, राजकमल प्रकाशन, 1995, पृष्ठ 152) <b>शर्मा जी</b>
इससे निष्कर्ष निकालते हैं कि देखिये शहरों का पतन हो रहा है. अब उनको कोई
कैसे कहे कि यह वर्णन राम के वन-गमन के बाद हाट-समाज में पसरे दुःख का भी
तो हो सकता है ! <i>रामायण</i> की कथा का ऐसे सीधे-सीधे इतिहास के तथ्य के रूप में
स्वीकार कर लेना क्या उचित है ?</div>
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<br /></div>
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7. इतिहास के तथ्य और इतिहास बोध</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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कभी फेसबुक पर <b>कृष्ण कुमार मण्डल जी</b> से 'इतिहास के तथ्य' बनाम 'इतिहास
बोध' विषय पर बातचीत हुई, जिसमें कुछ बिंदु पर वे सहमत और कुछ बिंदु पर
अंत तक असहमत रहे। असहमति का कारण यह भी हो सकता है कि अपनी बातें मैंने
सूत्र रूप में रखी थीं। मेरी टिप्पणी थी कि 'हम इतिहास को इतिहास के तथ्य
से जोड़कर देखते हैं, इतिहास बोध से नहीं।' मित्र को लगा कि मैं इतिहास के
तथ्य की उपेक्षा कर रहा हूँ और महज इतिहास बोध के आधार पर इतिहास लेखन की
वकालत कर रहा हूँ । <b>मण्डल जी</b> ने यह कहते हुए कि 'मैं तथ्य से बाहर जाने का
साहस नहीं कर सकता हूँ', इतिहास बोध की उपेक्षा करते रहे क्योंकि वे मानते
हैं कि 'इतिहास बोध मिथकों का भी हो सकता है'।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>मण्डल जी</b> जाने अनजाने
तथ्य को पवित्र और अंतिम मान लेने की भूल करते हैं। इतिहास हमें बताता है
कि तथ्य न तो पवित्र होते हैं और न अंतिम। <b>ई. एच. कार</b> ने इस संदर्भ में एक
बड़ी रोचक बात कही थी जिसकी तरफ हमारे इतिहासकार बहुत कम ध्यान देते आये
हैं। <b>कार</b> ने तथ्य निर्माण की प्रक्रिया की बात कही थी। हिंदी कविता के
क्षेत्र में <b>मुक्तिबोध </b>ने कविता की रचना प्रक्रिया का सवाल उठाया था । जिस
तरह कविता की रचना प्रक्रिया को समझे बगैर कविता का मर्म नहीं समझा जा सकता
है उसी तरह इतिहास में तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को समझे बगैर इतिहास के
तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो सकती। कविता को समझने में कवि को भी
समझना होता है । उसका परिवेश, उसकी शब्दावली एवं अन्य कवियों का प्रभाव तक
देखना होता है। अब तो लिंग, जाति, धर्म आदि तमाम बातें देखी जाती हैं। इसी
के आधार पर हम तय कर पाते हैं कि सहानुभूति का साहित्य है अथवा स्वानुभूति
का। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बगैर हम अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं। ठीक इसी
तरह एक विवेकवान इतिहासकार के लिये तथ्य संदेह से परे न हो सकते हैं न होने
चाहिए। एक इतिहासकार का दायित्व न केवल तथ्य के आलोक में वैज्ञानिक और
प्रामाणिक इतिहास लिखना है बल्कि स्वयं तथ्य की वैज्ञानिकता एवं
प्रामाणिकता की जाँच करना भी है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इतिहास के तथ्य महज तथ्य नहीं
होते, कई दफा वे अपने आप में मुकम्मल इतिहास होते हैं। <b>इंदिरा</b> जब 9-10 साल
की बच्ची थी तभी <b>जवाहर लाल नेहरु</b> ने पत्रों के माध्यम से उसे समझाया था,
बताया था कि कैसे नदी किनारे बिखरे गोल लाल-काले पत्थर पहाड़ का अभिन्न
हिस्सा हैं अथवा स्वयं पहाड़ हैं। पहाड़ के टूटने, नदी के जलप्रवाह तथा
अपरदन के अन्य अनेक कारणों को जाने समझे बगैर नदी किनारे मिले गोल पत्थर को
पूरी तरह से समझने का दावा नहीं किया जा सकता। वैसे ये पत्थर अपनी विकासयात्रा की पूरी कहानी अपने साथ लिए चलते हैं, लेकिन जिसे इस कहानी में रुचि
नहीं है या जिसमें अव्यक्त को पकड़ने की क्षमता नहीं है, नदी किनारे पड़े उस
निठल्ले और बेजान पत्थर को उसके समूचे इतिहास से काटकर देखेगा। ठीक उसी
तरह इतिहास दृष्टि से हीन व्यक्ति इतिहास के तथ्य को समग्रता में समझने का
दावा नहीं कर सकता। ये तथ्य कई बार सूत्र रूप में होते हैं। उसकी व्याख्या
उसके अतीत में होती है। उस व्याख्या को समझना ही दरअसल तथ्य को सही सन्दर्भ
में समझने की शर्त है। साल दो साल से अधिक समय नहीं गुजरा है जब एक अखबार
में चौंकानेवाला तथ्य देखने को मिला था। खबर थी कि अधिकतर भारतीय पत्नियां
पति द्वारा की गई पिटाई को बुरा नहीं मानतीं। यह एक तथ्य है, ग्रामीण भारतीय
समाज का सच है। भारतीय पत्नियों की कंडीशनिंग और पितृसत्ता के मकड़जाल को
समझे बगैर इस तथ्य की शल्य चिकित्सा नहीं हो सकती । एक दृष्टि सम्पन्न
इतिहासकार ऐसे तथ्यों का न सिर्फ वैज्ञानिक विश्लेषण करेगा बल्कि तथ्य के
इर्द-गिर्द फैली व्याख्या को भी ध्यान में रखेगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इतिहास बोध और
इतिहास के तथ्य के संदर्भ में <b>मदन कश्यप</b> की कविता की याद आ रही है जिसमें
वे कहते हैं कि स्त्रियों ने चूल्हे की आग को राख की परतों में जिन्दा रखा
है। चूल्हे में आग अथवा राख का होना अगर इतिहास का तथ्य है तो आग को बचाए
रखने की जद्दोजहद सम्पूर्ण स्त्री जाति का इतिहास है, साथ ही आग और राख का
इतिहास भी। इसलिए एक जेनुइन इतिहासकार निश्चय ही इतिहास के तथ्य को महज एक
तथ्य मानने की भूल कदापि न करेगा ।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जो इतिहासकार ज्ञात तथ्यों को
एकत्र कर अंतिम विश्लेषण में जुट जाते हैं वे दरअसल एक ऐतिहासिक भूल करते
हैं। कई दफा हम जिसे तथ्य समझ रहे होते हैं दरअसल वह तथ्य होता ही नहीं
है, तथ्य उससे परे होता है. जिसे हम वास्तविक तथ्य समझते हैं वह तो तथ्य का
आभास भर होता है। वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने
में आठ मिनट का समय लगता है, अर्थात सूर्य को हम आठ मिनट विलम्ब से देखते
हैं। सूर्यास्त के साथ भी यही सच्चाई है। सूर्य से चली अंतिम किरणों को हम
आठ मिनट बाद ही देख पाते हैं जबकि हम पृथ्वीवासियों के लिए आठ मिनट पहले ही
सूर्य 'विदा' बोल चुका होता है। ठीक उसी तरह काल गणना में या तो भूत हो
सकता है अथवा भविष्य, वर्तमान महज एक विभाजक रेखा है। या तो आप भूतकाल में
होते हैं या तो भविष्य में। वर्तमान में होना दरअसल नहीं होना है लेकिन
हम हैं कि वर्तमान को मुट्ठी में कस लेना चाहते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इतिहासकारों
द्वारा हमें बार-बार लगभग चेतावनी की भाषा में बताया जाता रहा है कि इतिहास
में अगर-मगर अथवा संयोग की कोई भूमिका नहीं होती है। मसलन, इतिहास में ऐसे
प्रश्नों के लिए कि 'अमुक घटना नहीं होती तो इतिहास का स्वरूप क्या होता'
अथवा 'गाँधी नहीं होते तो देश आजाद होता अथवा देश विभाजन होता या नहीं',
जैसे प्रश्न इतिहास के विद्यार्थी के लिये बेमानी हैं। आप कह ले सकते हैं
कि इस तरह इतिहास खुद 'ऐतिहासिक नियतिवाद' का शिकार है। किंतु तथ्य निर्माण
की प्रक्रिया के अनुभव इतिहास में संयोग की भूमिका से इनकार नहीं करते।
तथ्य का बनना न बनना महज संयोग भी हो सकता है। इस संदर्भ में बचपन में पढ़ी
कविता, जिसका संबंध रानी <b>लक्ष्मीबाई</b> की जीवन घटनाओं से है, अत्यंत मूल्यवान
अर्थ दे सकती है। कविता की पंक्ति है, 'घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ
गए सवार'। इसके बाद जो हुआ वह हमारे आपके लिए इतिहास का तथ्य है। इस प्रसंग
में <b>आलोकधन्वा </b>की कविता 'भागी हुई लड़कियां' भी कुछ बात जोड़ती है। कवि हमें
सावधान करता है कि सिर्फ एक लड़की के भागने की बात स्वीकार मत कर लेना
क्योंकि और भी लड़कियां हैं जो अपनी डायरी, अपने रतजगे और अपने सपने में
भागी हैं। उनकी आबादी कई गुना ज्यादा है लेकिन जो अख़बार के किसी कोने में
दर्ज नहीं है। ये लड़कियां भी इतिहास के समय को उतना ही ज्यादा प्रभावित
करती हैं जितना एक 'सचमुच की भागी हुई लड़की', लेकिन एक इतिहासकार तो वही
पढ़ेगा जो दीमक लगे दस्तावेज में दर्ज है ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तथ्य निर्माण की
प्रक्रिया सरल, सहज व एकरेखीय नहीं होती। परंपरा, लोक रीति, आचार- विचार व
नैतिक मूल्य- ये सभी तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को गहरे प्रभावित करते हैं।
अक्सर अख़बारों में खबर छपा करती है कि आज दो सौ यात्री बिना टिकट यात्रा
करते पकड़े गए। निस्संदेह इसमें कुछ वैसे यात्री भी होते हैं जो टिकट
जाँचकर्ता को पैसे दे दिलाकर 'खबर का हिस्सा' बनने से बच जाते हैं। क्या
कभी अख़बार में यह खबर छपी कि कुछ बिना टिकट यात्रा करते यात्री महज इसलिए
बच गये कि जांचकर्ता ने उससे घूस की रकम खायी थी। ऐसी घटनाएं रोज ही घटती
हैं पर दर्ज होने से हमेशा रह जाती हैं। कुछ साल हुए जब मुझे एक अप्रिय खबर
हाथ लगी थी। घटना थी कि मेरा कभी का छात्र रह चुका बच्चा किसी की बाइक
लेकर गायब हो गया। यह खबर पहले पुलिस तक गई और फिर इंजीनियर दादाजी के पास।
दादाजी अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित नागरिक थे। अपनी 'प्रतिष्ठा की रक्षा'
में वे थाने पहुंचे और थानेदार देवता की पूजा कर मामले को रफा दफा किया-
कराया। लोगबाग चर्चा कर रहे थे कि 'देखिए एक प्रतिष्ठित दादा का पोता
कैसा भारी चोर निकल गया!' दूसरी ओर, वे इस बात पर राहत व्यक्त कर रहे थे कि
ये तो थानेदार 'बेचारा भला आदमी' निकला जिसने ले-लिवाकर दादा के चेहरे
पर 'कालिख पुतने' से बचाया। यह कैसा सामाजिक मूल्य है कि लड़कपन में जिसने
गाड़ी उठा ली वह भारी चोर हो गया और जिसने घूसखोरी जैसा घोषित अपराध किया वह
'बेचारा भला आदमी' बना। क्या आप अब भी इस बात से सहमत नहीं होंगे कि
इतिहास के तथ्य न तो 'पवित्र' होते हैं और न तो हो सकते हैं। कभी कभी तो
दूरदर्शन के चैनलों पर घटना की लाइव प्रस्तुति दिखाई जाती है। कई बार
प्रस्तुति के क्रम में दुर्घटना तक घट जाती है। दूसरे दिन अख़बार में निकलता
है कि गहरे तालाब में डूबकर बच्चे की मौत हो गयी। सवाल है कि बच्चा डूबा
या कि डूबने दिया गया या कहें कि डूबा दिया गया। खबर तो यह होनी चाहिए थी,
लेकिन ऐसी खबर आपने देखी-पढ़ी है क्या?</div>
<div style="text-align: justify;">
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8. संदेह से परे नहीं हैं तथ्य</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>राम बख्श जी</b>, आपकी टिप्पणी पहली नजर में किसी को निर्दोष लग सकती है,
लेकिन ऐसी है नहीं। आपकी कुछ बातों को मैं यहाँ फिर से रखने की अनुमति
चाहूँगा। आप ऊपर की पंक्ति में लिखते हैं कि 'तथ्य को झुठलाया नहीं जा
सकता। वे वस्तुगत होते हैं।' किन्तु नीचे की पंक्ति में आपकी धारणा बदल
जाती है और आप यह कहे बिना नहीं रह पाते कि 'आज प्रत्येक तथ्य संदिग्ध है'।
कहने की जरूरत नहीं कि आप संदेह का कारण भी जानते हैं। आप इस बात से अवगत
हैं कि समय में परिवर्तन के साथ सिर्फ इतिहास ही नहीं बदल रहा बल्कि इतिहास
के तथ्य भी बदल रहे हैं। हाँ, इस तथ्य में परिवर्तन के कारणों को आप नहीं
समझ पा रहे क्योंकि आप मानकर चल रहे हैं कि तथ्य तो यथार्थ और वस्तुगत हैं
जबकि इतिहास कहानी। नहीं, इतिहास के तथ्य भी उतने पवित्र और निर्दोष नहीं
होते जितना आप मानते हैं। दूसरी बात यह कि जिस 'गुण' के कारण इतिहास आपके
लिए कहानी है वही उसकी ताकत है। अगर ऐसा नहीं होता तो बहुत पहले 'अंतिम
इतिहास' लिख दिया गया होता और हम 'इतिहास के अंत' या 'अंतिम इतिहास' की
घोषणा पर छाती नहीं कूट रहे होते!</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
9. इतिहास और परंपरा</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक इतिहासकार के लिए
स्थानीय संस्कृति और परिवेश का ज्ञान आवश्यक है। कई साल पहले एक इतिहासकार
<b>वीर कुंवर सिंह</b> पर शोध के सिलसिले में भारत आये थे। उन्होंने एक फाइल में
burhi शब्द देखा जिस पर <b>कुंवर साहब</b> ने कभी एक लाख रुपये खर्च किये थे। उक्त
इतिहासकार ने लिखा क़ि <b>वीर कुंवर सिंह</b> की एक बूढी हो चली रखैल थी जिस पर
उन्होंने रुपये खर्च किये थे। एक जमींदार के बारे में ऐसा निष्कर्ष निकालना
तनिक सुविधाजनक भी था। कुछ दिनों बाद उसी फाइल को एक बिहारी इतिहासकार ने
देखा और burhi को बरही पढ़ा। लिखा क़ि <b>कुंवर सिंह</b> ने पोते की बरही पर लाख
रुपये खर्च किये थे। यद्यपि यह किस्सा है, लेकिन है सारगर्भित।</div>
<div class="_5ybo _1q_o _2zfm _5yhh">
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<span></span><span class="_2dc6"><a href="https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1641646742535608&id=162110537155910#"><div style="display: inline-flex;">
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राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-10835366205824879962018-04-19T09:37:00.002+05:302018-04-19T09:37:33.226+05:30लोक चेतना में गांधी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="_5pbx userContent _22jv _3576" data-ft="{"tn":"K"}">
<br />
<div style="text-align: justify;">
हमारे महापुरुष जितना इतिहास की किताबों में हैं, अफवाहों में उससे तनिक
कम नहीं हैं। यह जानना दिलचस्प है कि 'मैला आँचल' उपन्यास ऐसी ही एक अफवाह
के साथ शुरू होता है- 'यद्यपि 1942 के जन-आंदोलन के समय इस गांव में न तो
फौजियों का कोई उत्पात हुआ था और न आंदोलन की लहर ही गांव तक पहुंच पाई थी,
किंतु जिले भर की घटनाओं की खबर अफवाहों के रूप में यहां तक जरूर पहुंची
थी।' (फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, पुनर्मुद्रण : 1996,
पृष्ठ 9) और अफवाह थी कि 'मोगलाही टीशन पर गोरा सिपाही एक मोदी की बेटी को
उठाकर ले गए। इसी को लेकर सिख और गोरे सिपाहियों में लड़ाई हो गई, गोली चल
गई। ढोलबाजा में पूरे गांव को घेरकर आग लगा दी गई, एक बच्चा भी बचकर नहीं
निकल सका। मुसहरू के ससुर ने अपनी आंखों से देखा था-ठीक आग में भूनी गई
मछलियों की तरह लोगों की लाशें महीनों पड़ी रहीं, कौआ भी नहीं खा सकता था;
मलेटरी का पहरा था। मुसहरू के ससुर का भतीजा फारबिस साहब का खानसामा है; वह
झूठ बोलेगा?' (मैला आँचल, पृष्ठ 9) इन अफवाहों का अगर आप समाजशास्त्रीय
अध्ययन करें, तो पता चलेगा कि इसके स्रोत निम्नवर्गीय, निम्नजातीय, निरक्षर
लोग हैं। (डा. अवनिंद्र कुमार झा, 'लिटरेचर एंड रियलिटी : गाँधीयन मुवमेंट
एंड मार्जिनल कम्युनिटीज इन नॉर्थ बिहार', अभिलेख बिहार, अंक-6, बिहार
राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2015, पृष्ठ 286; हसन इमाम, 'महात्मा
गांधी इन पॉपुलर परसेप्शन : डिबेटिंग गांधी इन द ट्वेंटी फर्स्ट
सेन्चुरी', अभिलेख-बिहार, अंक 6, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना,
2015, पृष्ठ 186)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नेहरु ने इसका कुछ हाल बयान किया है, 'मुझे पता
लगा कि मेरे पिताजी और मेरे बारे में एक बहुत प्रचलित दंतकथा यह है कि हम
हर हफ्ते अपने कपड़े पैरिस की किसी लॉन्ड्री में धुलने को भेजते थे। हमने कई
बार इसका खण्डन किया है, फिर भी यह बात प्रचलित है ही। इससे ज्यादा अजीब
बाहियात बात की कल्पना भी मैं नहीं कर सकता।' (जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी,
सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295) 'इसी तरह से एक दूसरी दंतकथा, जोकि
इन्कार करने पर भी प्रचलित है यह है कि मैं प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ स्कूल
में पढ़ता था। सच बात तो यह है कि न तो स्कूल में ही उनके साथ पढ़ा हूँ और न
मुझे उनसे मिलने या बात करने का ही मौका हुआ है।' (जवाहरलाल नेहरु, मेरी
कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295-96) नौजवान स्त्री-पुरुषों का
तो, एक प्रकार से, मैं नायक बन गया था। और उनकी निगाह में मेरे आसपास कुछ
वीरता की आभा दिखाई पड़ती थी, मेरे बारे में गाने तैयार हो गये थे और
ऐसी-ऐसी अनहोनी कहानियाँ गढ़ ली गई थीं, जिन्हें सुनकर हंसी आती थी।
(जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 294)</div>
<div style="text-align: justify;">
कहने की जरूरत नहीं कि इस लोक चेतना में सबसे ज्यादा किस्से गांधी बाबा को
लेकर हैं। मजेदार है कि गांधी, नेहरु की तरह इन किस्सों का कभी खण्डन नहीं
करते। शाहिद अमीन ने गांधी की चमत्कारी शक्तियों से संबंधित कुछ रोचक
बातों का उल्लेख करते हुए कहा है कि ये चमत्कारी शक्तियाँ ही गांधी को
महात्मा बनाती हैं। (शाहिद अमीन, 'गांधी ऐज महात्मा : गोरखपुर डिस्ट्रिक्ट,
ईस्टर्न यू पी, 1921-22', रंजीत गुहा (संपादक), सबाल्टर्न स्टडीज lll,
राइटिंग ऑन साउथ एशियन हिस्ट्री एंड सोसायटी, ओ यू पी, दिल्ली, 1984, पृष्ठ
1-61) इसी परंपरा में हसन इमाम ने अपने आलेख को आगे बढ़ाया है। (हसन इमाम,
'फ्रॉम महात्मा टू गॉड : अंडरस्टैंडिंग गांधी इन कल्चरल परस्पेक्टिव्स ऑफ द
इंडियन नेशनल मुवमेंट', प्रोसीडिंग्स ऑफ द फर्स्ट एनुअल इंटरनेशनल
कॉन्फ्रेंस ऑन कंटेम्पोररी कल्चरल स्टडीज, ग्लोबल सायंस एंड टेक्नोलॉजी
फोरम, सिंगापुर, दिसंबर 9-10, 2013, पृष्ठ 11-17) कहने की जरूरत नहीं कि
इमाम साहब ने अपने काम को और आगे बढ़ाया है। (हसन इमाम, महात्मा गांधी इन
पॉपुलर परसेप्शन : डिबेटिंग गांधी इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी, अभिलेख
बिहार, अंक-6, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2015, पृष्ठ
184-198) मेरी मां बताया करती थीं कि गांधी को उनकी इच्छा के विरुद्ध
अंग्रेजी सरकार भी जेल में बंद नहीं रख सकती थी, कि गांधी में 'चमत्कारी'
शक्ति थी और वे इस शक्ति की बदौलत जब चाहते थे जेल का फाटक खुल जाता था और
वे बाहर निकल जाते थे। इसी आशय का एक हरियाणवी लोकगीत है-'एक जलेबी तेल
में।/गांधी भेज्या जेल में।।/जेल का फाटक गिया टूट।/गांधी आया फोरन छूट।।' (<a data-ft="{"tn":"-U"}" data-lynx-mode="asynclazy" href="https://l.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fkavitakosh.org%2F&h=ATNQCydxF9sCjrKmqkMMPLEOysQl35qfKMXcgTRPIlVdMLCoZ4pjpZ96pHy6J-4Uk-syelzHawRcTwliFzQNfdryAJbW4Q1P0V2-20lUI6MGcTfk_yK0IDJnxcOQkejOSTc2zb4" rel="nofollow" target="_blank">kavitakosh.org</a>)
'ढोडायचरितमानस' भी इस धारणा का उल्लेख करता है, "सहसा खबर आती है कि
गान्ही बाबा जिरानिया आ रहे हैं 'साभा' करने। उन्हें थोड़े ही कोई जेल में
भर्ती कर रख सकता है! एक ही मन्तर से वे ताला और दीवाल तोड़कर बाहर चले आते
हैं।" (सतीनाथ भादुड़ी, ढोडायचरित मानस, पृष्ठ 85) 'मैला आँचल' उपन्यास में
मठ के महंथ सेवादास को 'सतगुरु साहेब' सपने में दर्शन देते हैं और गांधीजी
की पैरवी करते हैं। कहते हैं, 'तुम्हारे गाँव में परमारथ का कारज हो रहा है
और तुमको मालूम नहीं? गाँधी तो मेरा ही भगत है। गाँधी इस गाँव में
इसपिताल खोलकर परमारथ का कारज कर रहा है। तुम सारे गाँव को एक भंडारा दे
दो।' (फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, आठवाँ संस्करण :
1992, पृष्ठ 24)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आमजन के बीच गांधीजी की छवि करुणा के अवतार की थी।
वे 'इतने बड़े संत हैं कि आँगन के कोने का सरसों का पौधा अगर झाड़ू से दब
जाय, तो उनका दिल रो उठता है।' (ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 228) 'मैला आँचल' की
लक्ष्मी कोठारिन बालदेव जी को समझाती है, 'महतमा जी के पंथ को मत छोड़िए,
बालदेव जी! महतमा जी अवतारी पुरुख हैं। ...जिस नैन से महतमा जी का दरसन
किया है उसमें पाप को मत पैसने दीजिए। जिस कान से महतमा जी के उपदेस को
सरबन किया है, उसमें माया की मीठी बोली को मत जाने दीजिए। महतमा जी सतगुरु
के भगत हैं।' (मैला आँचल, पृष्ठ 207) और बालदेव जी गांधी के भक्त हैं। इतने
बड़े कि उन पर 'कभी-कभी महतमा जी का भर (देवी-देवता का सवार होना) होता है।
चुन्नी गोसाईं को तो रोज भोर को होता है।' (मैला आँचल, पृष्ठ 209) गांधीजी
की मृत्यु पर कमली की मां कहती है, 'वे तो नर-रूप धारन कर आए थे...लीला
दिखाकर चले गए।' (मैला आँचल, पृष्ठ 288) 'ढोडायचरितमानस' का बाबू लाल सबको
समझा रहा है, 'गान्ही बाबा बड़ा गुणी आदमी हैं। ...गान्ही बाबा मांस-मछली,
नशा-भाँग से परहेज रखते हैं। शादी-ब्याह नहीं किया है, नंगे रहते हैं।'
(सतीनाथ भादुड़ी, ढोडायचरितमानस (अनुवाद : मधुकर गंगाधर), लोकभारती प्रकाशन,
1981, पृष्ठ 45) ये क्या! 'रबिया पागल की तरह चिल्लाता दौड़ा आ रहा
है-कोंहड़े के ऊपर गान्ही बाबा! ...कोंहड़े के छिलके पर गान्ही बाबा की मूरत
अंकित हो गई है।' (ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 46) और अब तो 'रेबन गुनी कोंहड़े को
प्रणाम करता है। फिर चिल्लाकर कह उठता है-"लोहा मान लिया, लोहा मान लिया
मैंने गान्ही बाबा का।" (पृष्ठ 48) 'कलियुग के रघुनाथ हैं महात्माजी।'
(ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 227)</div>
<div style="text-align: justify;">
महात्मा गांधी जनता के बीच इतने
लोकप्रिय थे कि किसी भी काम का श्रीगणेश लोग इनकी 'जयकार' से करते थे। मैला
आँचल में लक्ष्मी के संबोधन के बाद जब बालदेव का भाषण 'पियारे भाइयो!' से
शुरू होनेवाला हुआ तो यादव टोली के नौजवानों ने 'गंधी महतमा की जै' से
जयजयकार किया। (पृष्ठ 29) पुनः जब सिंह जी और तहसीलदार साहब का मिलन हुआ तो
'गन्ही महतमा की जै' ही बोला गया। (पृष्ठ 32) बालदेव तो कई बार सपने ही
में 'गन्ही महतमा की जै' बोल जाया करते थे। (मैला आँचल, पृष्ठ 36) मेरीगंज
के खम्हार खुलने की घोषणा भी 'गन्ही महतमा की जै' से होती है। (मैला आँचल,
पृष्ठ 75) और इस जनता को गांधी के बारे में कोई जानकारी नहीं है-'कहाँ रहते
हैं महात्माजी!...पक्की जहां खत्म हुई है, उससे भी काफी दूर, मुंगेर
तारापुर, अयोध्या जी से भी दूर।' (ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 228)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लोक
चेतना में गांधी के इतने रूप हैं कि जनता हिंसक-अहिंसक हर काम में उन्हें
घसीट लेती है। मैला आँचल में हमला करने निकली गुअरटोली की 'यादव सेना'
'महाबीरजी की जै' के साथ 'गन्ही महतमा की जै' के भी नारे लगाती है। (मैला
आँचल, पृष्ठ 20) मेरीगंज से पुरैनिया जुलूस में जा रहे लोगों को पता है कि
'जिसके हाथ में गन्ही महतमा का झंडा रहता है, उससे गाटबाबू, चिकिहरबाबू,
टिकस नहीं माँगता है।' (मैला आँचल, पृष्ठ 86-87) 1921 में फैजाबाद जिले में
कुछ किसानों ने एक ताल्लुकेदार का माल असबाब लूट लिया। इन गरीब किसानों से
कहा गया था कि महात्मा गांधी चाहते हैं कि वे लूट लें; और उन्होंने
'महात्मा गांधी की जय!' का नारा लगाते हुए इस आदेश का पालन किया। (जवाहरलाल
नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 97)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्पष्ट है
कि 1917 में गांधी जब चंपारण आए तो 'चमत्कारी शक्तियां' भी उनके साथ आयीं।
चंपारण पहुंचने पर लोगों ने गांधी का 'नया मालिक' के रूप में स्वागत किया।
राजकुमार शुक्ल ने प्रचारित किया कि वे 'ईश्वर का अवतार' हैं तथा गोरे
अंग्रेजों से भारतमाता की मुक्ति के लिए भेजे गये हैं। ये किसान मानकर चल
रहे थे कि किसी 'भगवान' ही को 'बड़का बड़का वकील लोग' का समर्थन प्राप्त हो
सकता है जिनके पास अबतक अपना दुखड़ा रोने के लिए भी उन्हें फीस की मोटी रकम
देनी पड़ रही थी। (बी बी मिश्र, सेलेक्ट डॉक्युमेंट्स ऑन महात्मा गाँधीज
मुवमेंट इन चंपारण, 1917-1919, गवर्नमेंट ऑफ बिहार, पटना, 1963; विंध्याचल
प्रसाद गुप्त, नील के धब्बे, बेतिया, 1986, 118; पापिया घोष, पीजेन्ट्स,
प्लांटर्स एंड गांधी : चंपारण इन 1917, पीजेंट स्ट्रगल्स इन बिहार,
1831-1992, जानकी प्रकाशन, पटना, 1994, पृष्ठ 98-108।) डी जी तेंदुलकर
बिहार के गांव की एक मजेदार कहानी का जिक्र करते हैं। एक बुढ़िया गांधीजी के
समीप आई और बोली-'महाराज, मेरी उम्र 104 वर्ष की है और आंखों की नजर
धुंधली हो चुकी है। मैंने बहुत सारे तीर्थस्थानों का भ्रमण किया है। मेरे
खुद के घर में दो मंदिर स्थापित हैं। मेरे जानते राम और कृष्ण-दो ही अवतार
थे। मैंने सुना है कि अब गांधी भी एक अवतार हैं। जबतक मैं उन्हें देख नहीं
लेती हूं, मेरे प्राण अंटके रहेंगे।' (हसन इमाम, 'महात्मा गांधी इन पॉपुलर
परसेप्शन : डिबेटिंग गांधी इन द ट्वेंटीफर्स्ट सेंचुरी', अभिलेख बिहार,
अंक-6, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2015, पृष्ठ 188 में
उद्धृत) चंपारण पहुंचकर गांधी ने खुद स्वीकार किया कि ' शायद ईश्वर ने मुझे
निमित्त बनाया।' (अरविंद मोहन, चंपारण डायरी, प्रभात खबर, पटना, 9.4.2017,
पृष्ठ 17) बेतिया के आसपास के इलाकों में पेड़-पौधों से लेकर छप्पर के
कोंहड़ा-कद्दू तक पर गांधी की आकृति उभरने लगी। (देखें, सतीनाथ भादुड़ी,
ढोडायचरितमानस) इस सब की जड़ में लोगों का यह विश्वास था कि गांधी कोई
साधारण आदमी नहीं बल्कि 'अवतारी पुरुष' हैं। गांधी को आदमी से अवतारी पुरुष
बनाने में लोक चेतना की खासी भूमिका रही है- 'गांधी कहै, गांधी कहै, मन
चित्त लाइको।/गंगा सरजू चाहे कूपा पर नहाइ के।/लिहले अवतार एही देशवा में
आइ के।' (डॉक्टर राजेश्वरी शांडिल्य, 'भोजपुरी लोकगीतों में गांधी-दर्शन', <a data-ft="{"tn":"-U"}" data-lynx-mode="asynclazy" href="https://l.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fwww.hindi.mkgandhi.org%2F&h=ATP8rdSCj968Ye7QkoL7YLoXiVZrL1CAqQG33ggRKXXUyfATvjREr6b8HmwaLrDsgcoDoQVBpuZN_H7N8in-8RYVQI0ORkPCE5YQA2qzZ6AJk6C6l_JPX2bl3Wu_4A7IefVU_Bs" rel="nofollow" target="_blank">www.hindi.mkgandhi.org</a>)
महात्मा गांधी को अवतार मानकर उनकी तुलना राम और कृष्ण से की गई है। राम
के साथ वानर सेना और लक्ष्मण थे। श्रीकृष्ण के ग्वाल-बाल तथा बलराम थे।
गांधी के साथ जनता है और जवाहर हैं। रावण और कंसरूपी अन्यायी राज्य को
हटाने ही गांधी आए हैं-'अवतार महात्मा गांधी कै,/भारत के भार उतारै
काँ,/सिरी राम मारे रावण काँ,/गांधी जी जग माँ परगट भये,/अन्यायी राज्य
हटावै काँ,/अवतार महात्मा गांधी कै,/भारत कै भार उतारै काँ' (विद्याभूषण
सिंह, अवधी लोकगीत विरासत, पृष्ठ 331) ब्रज के एक लोकगीत में भी गांधी को
अवतार बताया गया है-'अवतार महात्मा गांधी हैं भारत को भार उतारन को/सिरीराम
ने रावण मारा था, कान्हा ने कंस पछाड़ा था/अब गांधी ने अवतार लिया इन
अंगरेजन के मारन को/सिरी राम के हाथ में धनुष बाण, कान्हा के हाथ सुदर्शन
था/गांधी के हाथ में चरखा है, भारतवासिन के तारन को।' (विश्वामित्र
उपाध्याय, लोकगीतों में क्रांतिकारी चेतना, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली,
1999, पृष्ठ 26) नामक सत्याग्रह के दिनों में इस गीत के बोल में थोड़ा
परिवर्तन हुआ-'वे चक्र सुदर्शन धारी थे,/तुम चरखाधारी कहलाते हो।/वे
माखनचोर कहलाते थे,/तुम नमकचोर कहलाते हो।' (देवेंद्र स्वरूप, गांधीजी
हिन्द स्वराज से नेहरु तक, 'अपनी बात')</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारत गांवों में बसता
है-'भारतमाता ग्रामवासिनी'। और गांव की जनता ग्रामगीतों में। इन ग्रामगीतों
को रवींद्रनाथ टैगोर ने 'जनता के अर्ध चेतन मन की स्वच्छंद रचना' कहा है।
(मॉडर्न रिव्यु, सितंबर 1934) गांधीजी के लिए भी ये लोकगीत 'जनता की भाषा
हैं, उनके साहित्य हैं।' (मो. क. गांधी, श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की
पुस्तक 'गुजरात ऐण्ड इट्स लिटरेचर' (1935) की प्रस्तावना से) इसलिए 'भाषा
की दरिद्रता जनता की दरिद्रता की प्रतीक है।' (वही) इससे आगे वे लोकगीत को
समूची संस्कृति के पहरेदार मानते थे। (मो. क. गांधी, 28 जनवरी, 1948,
देवेंद्र सत्यार्थी से बात करते हुए; देखें आमुख, 'धरती गाती है', प्रवीण
प्रकाशन, दिल्ली, 1994,</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1936 के फैजपुर कांग्रेस में देवेंद्र
सत्यार्थी की भेंट गांधीजी से हुई। सत्यार्थी जी ने उन्हें एक पंजाबी
लोकगीत सुनाया-'रब्ब मोया, देवता भज्ज गए/राज फिरंगिया दा।' अर्थात भगवान
मर गया और देवता भाग गए। गांधीजी को यह गीत काफी पसंद आया था। उन्होंने
कहा, 'मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण एक पलड़े में और अकेला यह गीत भारी है,
क्योंकि इसमें जनता बोल उठी है।' (विष्णु प्रभाकर, 'लोक-साहित्य के
यायावर', धरती गाती है, परिशिष्ट:तीन, पृष्ठ 209) गांधीजी लोकगीत की
ताकत जानते थे। इसीलिए उन्होंने हिंदुस्तान में लोकगीत के सबसे बड़े
अध्येता देवेंद्र सत्यार्थी की पुस्तक 'धरती गाती है' की भूमिका लिखनी
स्वीकार की थी। गांधीजी ने लेखक से तनिक विनोद करते हुए कहा था, 'भूमिका
लिखने की बात तो ऐसे ही है जैसे कोई मीठे दूध में एक मुट्ठी चीनी डालने को
कहे। इससे हमेशा स्वाद बिगड़ने का डर रहता है।' (देवेंद्र सत्यार्थी,
'आमुख', धरती गाती है) स्वाद बिगड़ने का पहला कारण खुद लोकगीत की अपनी ताकत
थी। दूसरे कारण के बारे में गांधीजी ने बताया है, 'गुरुदेव को भी तुम्हारा
लोकगीत संबंधी कार्य प्रिय था। आज वे होते तो मैं तुमसे कहता उन्हीं के पास
जाओ। पर अब यह जिम्मेदारी मुझपर आ पड़ी है। सचमुच मेरे हाथ में यह पतवार
ठीक नहीं चलेगी, ठीक सजेगी भी नहीं।' (28 जनवरी 1948 को गांधी लेखक से बात
करते हुए। देखें, 'आमुख' धरती गाती है) पांडुलिपि बहुत दिनों तक उनके पास
पड़ी रही। 29 जनवरी 1948 के दिन संध्या-प्रार्थना के बाद जब बापू अपनी
कुटिया की ओर लौट रहे थे तब सत्यार्थी जी उनके पास पहुंचे। कुछ क्षण चुपचाप
साथ-साथ चलते रहे। फिर सत्यार्थी जी ने थोड़ा पास आकर उन्हें याद दिलाया कि
'अभी तक वे उनकी पुस्तक की भूमिका नहीं लिख सके हैं। और सुना है कि अब वे
वर्धा जा रहे हैं।' गांधीजी ने अपनी टिपिकल शैली में उत्तर दिया, 'मुझे तो
पता नहीं कौन सा गांधी वर्धा जा रहा है और जा भी रहा है तो वहां मर थोड़े ही
जाएगा। यहीं लौटकर आएगा। प्यारे लाल से कह देना में लिखवा दूंगा।' (विष्णु
प्रभाकर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 214) लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अगले दिन गांधी
की हत्या हो गई और उन्हें अपनी प्रिय पुस्तक की भूमिका लिखे बगैर शहीद होना
पड़ा। आप कह सकते हैं कि यह गांधी की नहीं, अपितु भारत की लोक चेतना की
शहादत थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारतीय राजनीति में गांधी का आगमन क्षितिज पर पौ फटने
जैसा था। आशा की नई किरण से नहाया यह पंजाबी लोकगीत कहता है-'हमारे आँगन
में सूर्य उदय हुआ है, सूर्य उदय हुआ है।/सूर्य देखने के लिए आओ, हे गांधी,
आओ हे गांधी!/तुम भी तो एक सूर्य हो, एक सूर्य हो।/सूर्य देखने के लिए आओ,
हे गांधी, आओ, हे गांधी!' (साडे बेहड़े सूरज चढ़िया, सूरज चढ़िया/सूरज वेखण
आओ गांधी, आओ गांधी/तूं वी ते इक्क सूरज एँ, इक्क सूरज एँ/सूरज वेखण आओ
गांधी, आओ गांधी।' (बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 360-361) इस गीत में गांधी की
सूर्य से तुलना करने की शैली काफी प्रभावोत्पादक है। एक विद्वान का तो
कहना है कि 'इस गीत की उठान तो एकदम वैदिक ऋचाओं का स्मरण करा रही है।'
जॉर्जिया प्रान्त के 'दो सूर्य' शीर्षक एक रूसी गीत में लेनिन के लिए भी
सूर्य की उपमा दी गई है-'सूर्य, आओ, प्रकट हो,/हम बहुत आँसू बहा चुके/दुख
को हल्का करो/लेनिन तुम्हारे ही समान था/अपनी ज्योति उसे भेंट करो/मैं
बताये देता हूँ/तुम लेनिन की बराबरी नहीं कर सकते/दिन का अवसान होते ही
तुम्हारी आभा क्षीण हो जाती है/पर लेनिन के प्रकाश का लोप नहीं होता।'
(बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 363)</div>
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लोकगीत आजादी की लड़ाई से विरक्त
नहीं रहा है, और आजादी की इस लड़ाई के हीरो गांधी हैं। गांधी अंग्रेजी
शिक्षा लेकर आए थे लेकिन उनकी भारतीयता जनता की नजरों में असंदिग्ध थी।
संथाल लोकगीत में गांधी मुक्तिदाता के रूप में याद किये जाते हैं-'है माँ,
पश्चिम दिशा से गांधी बाबा आये हैं।/उनके हाथ में कानून की पोथी है।/उनके
माथे पर खद्दर की टोपी है।/उनके कंधे पर मोटा गमछा है।/हे बंधुगण, सुनो।/वे
हम लोगों को बचाने के लिए आये हैं।' ('चेतान दिसम् खुन गांधी बाबाये दराए
कान/तीरे तापे नायोगो कानुन पुथी/बहक् रेताए खद्दर टोपरी/तारिन रेताए नाया
गो मोटा गमछा/माहो दिसम् रेन मानवाँ वंचाव/तबोन लगतिए है अकाना।', बेला
फूले आधी रात, पृष्ठ 355) अंग्रेजी साम्राज्यवाद से भारतीय जन की मुक्ति
गांधी से ही संभव थी। जनता ने उनके नेतृत्व में अटूट विश्वास व्यक्त
किया-'इस बड़ी धरती के ऊपर,/अंग्रेजों ने गहरे गर्त्त की जो सृष्टि रच रखी
है,/उसमें हम गिर गये हैं।/हे (गांधी) बाबा, आप इस गहरे गर्त से हमारा
उद्धार कीजिए।' (नुमिन मारांग धरती रे गाडा/इंगराज को बेनाब आकात्/गाडा रे
दो बाबाञ ञराकना/ गाडा खोन दो बाबा राकाप कङ में/मनिवा होड़ बाबाञ बाञचाब
कोआ।', बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 355)</div>
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नारी
एक गीत में अपने प्रियतम से कहती है-'मैं भी तेरे साथ चलूंगी, गांधी के
जलसे में/यू खरा रुपइया चाँदी का/यू राज महात्मा गांधी का/खद्दर की पहनी
तेहल, सुनहले गहने!' (विष्णु प्रभाकर, 'लोक- साहित्य के यायावर', धरती गाती
है, परिशिष्ट:तीन, पृष्ठ 209) एक अवधी बिरहा में लोक-कवि ने यह साबित करने
का यत्न किया है कि गाँधीजी ने जीन जैसा मोटा कपड़ा अथवा खद्दर पहनने की
बुद्धि अँग्रेजों ही से सीखी थी-'अक्किल अँग्रेजन से लीन/कपड़ा पहरो मोटिया
जीन/नहीं तो हो जै हो बेदीन।' (बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 359) कांग्रेस में
चरखा की ट्रेनिंग देनेवाली औरतें गाती हैं, 'चरखा हमार भतार-पूत, चरखा
हमार नाती; चरखा के बदौलत मोरा दुआर झूले हाथी।' (मैला आँचल, पृष्ठ 118)
आजादी की लड़ाई के दिनों में बापू के नाम पर यह गीत भी मशहूर था, 'जो पहने
सो काते,/जो काते सो पहने।' (मैला आँचल, पृष्ठ 118) गांवों में होली के
अवसर पर 'बटगमनी' फगुआ (रास्ते में गाया जानेवाला) के बोल कुछ इस तरह के
होते थे-'आई रे होरिया आई फिर से!/आई रे/गावत गाँधी राग मनोहर/चरखा चलाबे
बाबू राजेंदर/गूँजल भारत अमहाई रे! होरिया आई फिर से!/वीर जमाहिर शान
हमारो,/बल्लभ है अभिमान हमारो,/जयप्रकाश जैसो भाई रे!/होरिया आई फिर से!'
(मैला आँचल, पृष्ठ 126) सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के द्वारा होली के
अवसर पर कांग्रेस, खद्दर और सुराज से संबंधित जोगीरा तनिक व्यंग्य के साथ
गाया जाता था-'बरसा में गड्ढे जब जाते हैं भर/बेंग हजारों उसमें करते हैं
टर्र/वैसे ही राज आज कांग्रेस का है/लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़ ...जोगी
जी सर...र र...!/जोगी जी, ताल न टूटे/जोगी जी, तीन-ताल पर ढोलक बाजे/जोगी
जी, ताक धिना धिन!/चर्खा कातो, खद्धड़ पहनो, रहे हाथ में झोली/दिन दहाड़े करो
डकैती बोल सुराजी बोली.../जोगी जी सर ...र र....।' (मैला आँचल, पृष्ठ 125)</div>
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गांधी का प्रभाव युवकों पर कितना पड़ा था, यह सर्वविदित है। लोकगीतों का
'दुलहा' भी तिरंगा हाथ में लिए चल रहा है-'बन्ना हमारो गांधी के बस माँ,
तिरंगा हाथ में उठा रहा है।' कुलवधू का स्वप्न है कि मेरा प्रिय गांधी के
रामराज्य-स्वप्न को पूरा करेगा। भोजन, वस्त्र का उपभोग मिल-बांटकर
करेगा-'गांधी तेरो सुराज सपनवाँ हरि मोरा पूरा करिहैं ना।' लोक में गांधी
के सुराज का कोई एक रूप नहीं था। अगर झारखंड के आदिवासियों की बात करें तो,
आजादी का संघर्ष उनकी स्मृति में परंपरा अनुरूप मानकी-पाहन व्यवस्था की
पुनःस्थापना के लिए था। गांधी इसी को लाने जयपाल सिंह के साथ गांधीजी
जर्मनी गए थे। किंतु नाथूराम नहीं चाहता था कि पुनः मानकी-पाहन राज हो,
इसलिए उसने गांधी को गोली मार दी। (रणेन्द्र/अजय कुमार तिर्की, 'झारखंडी
संस्कृति : लोक का आलोक', झारखंड एन्साइक्लोपीडिया, खंड-4, वाणी प्रकाशन,
प्रथम संस्करण : 2008, पृष्ठ 159-60) जनता इस सुराज का मतलब गांधी-राज भी
समझती थी। एक गोंड गीत में-'बादल गरजता है।/मालगुजार गरजता है।/फिरंगी के
राज का सिपाही भी गरजता है, हे राम!/हो हो हो...गांधी का राज होनेवाला है।'
(अद्दल गरजे बद्दल गरजे/गरजे माल गुजारा हो/फिरंगी राज के हो गरजे सिपाइरा
रामा/गांधी क राज होनेवाला हाय रे।', बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 356) सुराज
के जन्म पर जगह-जगह सोहर भी गाया गया-'जनमा सुराज सपूत त आज सुभ घरिया
माँ।/सखिया! जगर मगर भै बिहान, त दुनिया अनन्द भै।/आजु सुफल भई कोखिया, त
भारतमाता मगन भई,/घर-घर बाजी बधइया उठन लागे सोहर।/लहर लहर लहराइ, त फहरै
तिरंगवा,/गांधी जी पूरिन चौक त मुँ से असीसैं।/आजु जवाहिर लाल, कलस भई
थापिन,/सुभ घरी मिला बा सुराज इ जुग जुग जीयै।/बाढ़ै बँसवा कि नाईं त दुबि
असि फइलई,/सखिया! देसवा बनै खुसहाल त सब सुख पावइँ।' (विद्याभूषण सिंह, अवध
लोकगीत विरासत, पृष्ठ 333) 'मैला आँचल' का बालदेव सुराजी कीर्तन गाता है।
लहसन का बेटा सुनरा भी बालदेव का सिखाया कीर्तन 'धन-धन गांधी जी महराज, ऐसा
चरखा चलानेवाले' खूब डूबकर गाता है। (मैला आँचल, पृष्ठ 25) चंपारण
सत्याग्रह के समय यह गीत भी खासा लोकप्रिय रहा-"चरखा का टूटे न तार,/चरखा
चालू रहे।/गांधी बाबा चलले दुल्हा बनके,/दुलहीन बने सरकार चरखा चालू रहे।"
(रमेश चंद्र झा, स्वाधीनता समर में सुगौली, पृष्ठ 21; बिनोद कुमार वर्मा,
जानकी प्रकाशन, पटना, 1992, पृष्ठ 43।) सुराज और चरखा का संबंध अटूट है-'जब
तक फल सुराज नहीं पावें, गाँधी जी चरखा चलावें, मोहन हो? गाँधी जी चरखा
चलावें।' (मैला आँचल, पृष्ठ 218) आजादी के बाद का सुराजी कीर्तन देखें,
'कथि जे चढ़िये आयेल/भारथ माता/कथि जे चढ़ल सुराज/चलु सखी देखन को!/कथि जे
चढ़िये आयेल/बीर जमाहिर/कथि पर गंधी महराज। चलु सखी.../हाथी चढ़ल आवे
भारथमाता/डोली में बैठल सुराज! चलु सखी देखन को/घोड़ा चढ़िये आये बीर
जमाहिर/पैदल गंधी महराज। चलु सखी देखन को।' (मैला आँचल, पृष्ठ 224)</div>
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गांधी की जय-जयकार लोकगीतों में गूंज उठी थी-'एक छोटी चवन्नी चाँदी की, जय
बोल महात्मा गांधी की।' (विद्याभूषण सिंह, अवधी लोकगीत विरासत, पृष्ठ 330)
बिहार में बाईजी (नाचवालियाँ) के गीत भी महात्मा गांधी, खादी और चर्खा से
अप्रभावित नहीं रह सके-'खादी के चुनरिया रँग दे छापेदार रे रँगरेजवा/बहुत
दिनन से लागल बा मन हमार रे रँगरेजवा!/...कहीं पे छापो गंधी महतमा/चर्खा
मस्त चलाते हैं,/कहीं पे छापो वीर जमाहिर/जेल के भीतर जाते हैं।/अँचरा पे
छापो झंडा तेरंगा/बाँका लहरदार रे रँगरेजवा!' (मैला आँचल, पृष्ठ 228)
कभी-कभी जनता की पस्ती और गांधी की अशक्तता भी इन गीतों में व्यक्त
होती-'का करें गांधी जी अकेले, तिलक परलोक बसे,/कवन सरोजनी के आस अबहिं
परदेस रही।' (मैला आँचल, पृष्ठ 129)</div>
<div style="text-align: justify;">
आजादी के बाद गांधी की छवि बदलती है। आप देखें :<br /> 'ब्योधा जाल पसारा रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।<br /> झूठ सुराज के फंद रचावल, लंबी-लंबी बतिया के चारा।<br /> मुंह में गाँधीजी के नाम विराजे, बगल में रखलवा दुधारा।<br /> रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।<br /> अरे मोटिया धोती, टोपी पहिन के फिरतवा रँगल सियारा।<br /> जनता के लोहू पीके डकारे, ऐसन सुराज हमारा।।<br /> रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।<br /> महँगी में रोवे जनता, किसनवाँ, मौज करे जमींदारा।<br /> गांधीजी को बेचत चोर बजार में, लीडर, सेठ, साहुकारा।<br />
रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।' (रेणु रचनावली, भाग 4, पृष्ठ 39; डॉ. रामदेव
प्रसाद, 'रेणु की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना', परिषद-पत्रिका (बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद), वर्ष 47, अंक 1-4, पृष्ठ 81)</div>
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राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-19039583245307727692014-11-10T20:02:00.000+05:302014-11-10T20:08:54.789+05:30पलासी की नहीं, बक्सर की लड़ाई से आया अंगरेजी राज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पलासी की लड़ाई एवं बक्सर की लड़ाई-अंगे्रज कंपनी और आधुनिक भारत के इतिहास की ये दो राजनीतिक लड़ाइयां काफी निर्णायक रहीं। पलासी युद्ध की तुलना में बक्सर युद्ध के परिणाम कहीं ज्यादा असरदार थे। सच कहें तो पलासी में अंग्रेजों को अपना रण-कौशल दिखाने का मौका भी नहीं मिला। यह बक्सर की लड़ाई ही थी जिसने अंग्रेजी तरीके से प्रशिक्षित सैनिकों की श्रेष्ठता को साबित होने का पहला अवसर प्रदान किया। बक्सर की लड़ाई में भारतीय सैनिक मानसिक रूप से भी पराजित हुए थे और अंग्रेजों की सैन्य-श्रेष्ठता को हकीकत में देखा था।<br />
पलासी युद्ध के बाद अंग्रेज बंगाल में एक कठपुतली नवाब को बनाने में कामयाब हुए थे लेकिन शीघ्र ही उन्हें मीर कासिम की चुनौती का सामना भी करना पड़ा था। किंतु बक्सर युद्ध ने अवध के नवाब एवं मुगल बादशाह को भी अंग्रेजों की शरण में जाने को विवश कर दिया। 1757 की पलासी की लड़ाई से कंपनी का बंगाल में शासन सुनिश्चित हुआ तो 1764 की बक्सर की लड़ाई से अंग्रेजी शासन अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर सका। दिल्ली के कमजोर बादशाह शाह आलम ने सन् 1764 ई. में अंग्रेजों को बक्सर की लड़ाई के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर दीवानी का अधिकार प्रदान किया। इंगलिश ईस्ट इंडिया कंपनी एवं नजमुद्दौला के बीच 20 फरवरी 1765 को हुए एकरारनामे एवं शाह आलम द्वितीय का अगस्त 1765 के दीवानी अधिकार ने अंग्रेजों को बंगाल सुबे का वास्तविक मालिक बना डाला। बर्क ने लिखा है कि ‘भारतीय राजनीति में अंग्रेजों का यह पहला वैधानिक प्रवेश था’। इस तरह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी शासन का इतिहास बिहार से प्रारंभ हुआ।<br />
बक्सर युद्ध के बाद बिहार का शासन मीर जाफर का भाई मिर्जा मुहम्मद काजिम खान राजा रामनारायण के भाई धीरज नारायण की मदद से चला रहा था। किंतु माहौल अव्यवस्थापूर्ण था। अंदर-अंदर शासन की कई धाराएं काम कर रही थीं। पटना में अंग्रेजी फैक्ट्री का प्रधान विलियम बिलियर्स, जो एलीज का उत्तराधिकारी था, स्थिति का गांभीर्य एवं चतुराई के साथ मुकाबला करने में अक्षम साबित हो रहा था जबकि नये राजनीतिक परिवर्तन के बाद उसकी स्थिति पहले की तुलना में काफी बेहतर हो चली थी। एक तरफ शासन की कमजोरियां और दुश्वारियां थीं तो दूसरी तरफ कंपनी के देशी-विदेशी कर्मचारियों का अनियंत्रित लोभ राजनीतिक अस्थिरता को हवा दे रहा था। लार्ड क्लाइब ने तत्कालीन स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘बंगाल में लूट, भ्रष्टाचार, भ्रम आदि की जो स्थिति बनी हुई है, ऐसी स्थिति के बारे में मैंने पहले कभी नहीं सुना।’<br />
सितंबर 1765 में, पटने में अपने पड़ाव के दौरान क्लाइब ने बिहार के शासन में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया। उसने मीर मुहम्मद काजिम को हटाकर महज पेशनयाफ्ता बना दिया एवं उसके स्थान पर धीरज नारायण को बिठा दिया। राजा सिताब राय को दीवान नियुक्त किया गया। 1766 के आरंभ में धीरज नारायण, सिताब राय एवं सैमुअल मिड्लटन की एक समिति गठित कर दी गई। पटना फैक्ट्री के प्रधान बिलियर्स को हटाकर मिड्लटन को नियुक्त किया गया। उसने अपने अधिकारों का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल करते हुए स्थिति को नियंत्रण में लाने की भरसक कोशिश की। <br />
यह पहला अवसर था जब बिहार में राजस्व एवं अन्य बकाया राशि की वसूली के लिए अंग्रेजी सैन्य बल का प्रयोग होने लगा। बेतिया के जमींदार राजा जुगल किशोर को 24 जुलाई 1765 को गवर्नर ने लिखा, ‘मीर कासिम के जमाने में आप शाही खजाने में जमींदारी से प्राप्त आय से छः-सात लाख रुपये जमा करते थे। मुझे सूचना मिली है कि इन दिनों आप केवल कुछ लकड़ी भेजकर ही काम चला रहे हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि अगर आपने अविलंब सारे बकायों की अदायगी नहीं कर दी तो आपसे निपटने के लिए शीघ्र ही अंग्रेजी सेना कूच करेगी।’ राॅबर्ट बार्कर को इस काम को अंजाम देने के लिए 1766 के आरंभ में पटना से बेतिया भेजा गया। कहना न होगा कि राॅबर्ट बार्कर को बेतिया के किले को ध्वस्त करते हुए किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। सुरक्षा के कारणों से जुगल किशोर चुपचाप बेतिया छोड़ बुन्देलखण्ड जा चुके थे। कंपनी सरकार ने जुगल किशोर की अनुपस्थिति में ही बेतिया राज का जिम्मा शिवहर के कृष्ण सिंह व मधुबन के अवधूत सिंह को सौंप दिया। यह प्रबंध संतोषजनक न होने से एवं एडवर्ड गोल्डिंग के सुझाव के बाद 1771 में पुनः जुगल किशोर सिंह को जमींदारी लौटा दी गई। लेकिन अंततः जुगल किशोर पर राजस्व अदायगी में बरती गई अनियमितता का हवाला देते हुए उनकी जमींदारी सीधे कंपनी के अधीन कर ली गई। ‘कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स’ ने ‘कौंसिल’ (कलकत्ता) को 4 मार्च 1767 को लिखा कि ‘बेतिया व्यापार में निवेश के लिए हर संभव आवश्यक साधन मुहैया कराने में मददगार साबित हो सकेगा।’ बार्कर ने भी लिखा कि बेतिया व्यापार के क्षेत्र में कंपनी के लिए असीम संभावनाओं का द्वार खोलनेवाला साबित हो सकता है। इन्हीं प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ‘कौंसिल’ ने ड्रोज नामक कंपनी के एक मुलाजिम को बेतिया में उत्पादित प्रत्येक चीज की जानकारी एकत्र करने की सख्त हिदायत दी।<br />
हथवा राज के जमींदार फतेह सिंह ने कंपनी सरकार को मानने से इनकार कर दिया। वह 1767 में राजस्व की वसूली करने आई कंपनी की सेना के साथ उलझ गया। कंपनी ने हथवा राज को एक साल के लिए अपने अधीन कर लिया और समय-सीमा समाप्त होने पर फतेह सिंह के चचेरे भाई बसंत साही को सौंप दिया।<br />
बिहार में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता से उत्पन्न स्थिति को 1769-70 के भीषण अकाल ने और भी भयावह बना दिया। 1770 के जनवरी में अलेक्जेंडर ने लिखा कि ‘चालीस से साठ लोग प्रतिदिन अन्नाभाव में मौत के शिकार हो रहे हैं।’ अप्रैल माह में स्थिति की भयावता और बढ़ चली। उसने लिखा, ‘जिन्हें प्रत्यक्षदर्शी होने का मौका नहीं मिला है, उनके लिए यह विश्वास कर पाना सहज नहीं होगा।’ केवल पटना में एक दिन में 150 से ज्यादा लोग मरे थे। 9 मई 1770 को बंगाल से ‘कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स’ को भेजे गये पत्र में कहा गया कि ‘लोगों की मौत सारे वर्णन/आंकड़े पार कर चुकी है। पूर्णिया के पर्यवेक्षक डूकारेल ने 28 अप्रैल 1770 को सूचित किया कि ‘वहां से प्रतिदिन 30-40 लोग मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। सच कहिए तो शहर जंगल में तब्दील होकर जंगली जानवरों की शरणस्थली बन चुका है।’ इस आपदा को प्रशासन के नुमाइंदों के लोभ-लालच ने और भयावह बना दिया था। कहना न होगा कि सिताब राय पर भ्रष्टाचार, सरकारी खजाने की लूट एवं अकाल के दौरान बंदइंतजामी के संगीन आरोप लगाये जा चुके थे।<br />
द्वैध शासन से उत्पन्न बुराइयों को दूर करने एवं तत्कालीन व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन के ख्याल से ‘कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स’ ने हेस्टिंग्स को गवर्नर नियुक्त किया। सिताब राय के निधन के बाद उनके सुपुत्र कल्याण सिंह को हेस्टिंग्स के द्वारा सितंबर 1773 में पचास हजार रुपये के सालाना वेतन पर दीवान नियुक्त किया गया। साथ ही, खेयाली राम व साधु राम को कल्याण सिंह के मातहत नाइब दीवान नियुक्त किया गया। लेकिन तब भी बक्सर की लड़ाई से उत्पन्न ‘अस्थिरता’ को दूर नहीं किया जा सका।<br />
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राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-44422520868630867302012-07-30T21:41:00.002+05:302012-07-30T21:41:53.126+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हिंदी प्रदेश में न तो <strong>फुले</strong>, <strong>अंबेदकर, पेरियार</strong> जैसे दलित चिंतक हुए न <strong>राजाराम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर</strong> एवं <strong>दयानंद सरस्वती</strong> जैसे समाज सुधारक। इनकी भूमिका निबाही <strong>भारतेन्दु, निराला</strong> और <strong>प्रेमचंद</strong>
जैसे लेखकों ने। लेकिन इतिहास की विडंबना कहिए कि ये लेखक अपने समय में
यथास्थितिवादियों से प्रताड़ित हुए तो आज ‘दलितवादी’ और ‘नारीवादी’
विमर्शकारों से। कुछ विरोधी तो इतने आक्रामक हैं कि किताबें तक जला रहे
हैं। फिलहाल इनकी बात छोड़ें, क्योंकि इनका उद्देश्य विरासत और परंपरा का
मूल्यांकन नहीं है। उनकी भाषा विमर्श की नहीं, फासीवाद की है।<br />
<br />
कुछ
दूसरे इसलिए नाराज हैं कि ‘अंबेदकर और गांधी के राजनीतिक विवाद में
प्रेमचंद गांधी के साथ थे। वे अंबेदकर के कहीं भी प्रशंसक नहीं हैं। वे
दलित समस्या को गांधी की ही दृष्टि से देखते हैं। और जब डा. अंबेदकर और
गांधी के बीच पूना-समझौता होता है, तो वे गांधी के साथ खड़े होते हैं,
अंबेदकर के साथ नहीं।’ (कंवल भारती, ‘प्रेमचंद और आज की दलित चेतना’, <em>साक्ष्य</em>, मार्च 2007, पृष्ठ 194-202)<br />
<br />
दलित लेखिका <strong>डा. कुसुम मेघवाल</strong> की बात मानें तो, ‘प्रेमचंद अछूत समस्या को आर्थिक शोषण से संबद्ध करके देखते हैं।’ <strong>कंवल भारती</strong>
की यात्रा इससे आगे की है। वे लिखते हैं, ‘प्रेमचंद अछूतों की समस्या को
आर्थिक मानकर जाति के सामाजिक यथार्थ की उपेक्षा करते हैं, जो भारतीय समाज
की मूल समस्या है।’ <strong>प्रेमचंद</strong> ने उसी भारतीय समाज के दैनिक जीवन में देखा था कि बात जब अर्थ की आती है तब जाति दबे पांव भागती होती है। सूदखोरी पर विचार करते <strong>प्रेमचंद</strong>
लिखते हैं, ‘हमारी समझ में नहीं आता। हम किस मुंह से दावा कर सकते हैं कि
हम पवित्र और अमुक अपवित्र है। किसी ब्राह्मण महाजन के पास उसी का भाई
ब्राह्मण आसामी कर्ज मांगने जाता है, ब्राह्मण महाजन एक पाई भी नहीं देता,
उस पर उसका विश्वास नहीं है। वह जानता है, इसे रुपये देकर वसूल करना
मुश्किल हो जाएगा। उसी ब्राह्मण महाजन के पास एक अछूत आसामी जाता है और
बिना किसी लिखा-पढ़ी के रुपये ले आता है। ब्राह्मण को उस पर विश्वास है। वह
जानता है, वह बेईमानी नहीं करेगा।’ <strong>कंवल भारती</strong>, <strong>प्रेमचंद</strong> की इस दृष्टि को भी ‘गांधी की दृष्टि’ कहेंगे!<br />
<br />
<strong>कंवल भारती</strong> हमें <strong>गांधी</strong> और <strong>अंबेदकर</strong>
का भेद बताते हैं। ‘डा. अंबेदकर वर्णव्यवस्था के समूल नाश पर जोर देते थे,
जबकि गांधीजी केवल छुआछूत-निवारण के पक्ष में थे।’ यह सही है कि <strong>अम्बेदकर</strong>
ने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति
व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था। इस क्रम में उन्होंने कुछ अत्यंत ‘मौलिक’
बातें भी ढूंढ़ निकालीं। उनका मानना है कि ‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण
के आधारभूत सिद्धांत से मूल रूप में भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर
विरोधी है। पहला सिद्धांत गुण पर आधारित है। यह सारी गड़बड़ी जाति व्यवस्था
की है वर्ण व्यवस्था की नहीं।’ शायद इसीलिए <strong>अम्बेदकर</strong>
‘आदर्श वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करने की बात करते हैं। ‘उसके उद्येश्य से
वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति व्यवस्था को समाप्त करना
होगा।’ (अम्बेदकर वाङ्मय, खंड 1, पृष्ठ 81)। यहां इस बात का भी उल्लेख करते
चलें कि ‘वर्णव्यवस्था का समूल विनाश’ करनेवाले <strong>अंबेदकर</strong> अपनी पुस्तक ‘शूद्र कौन थे’ में शूद्र को क्षत्रिय साबित करते नहीं थकते। <strong>प्रेमचंद</strong> अगर इस <strong>अंबेदकर</strong> के साथ खड़े नहीं हैं तो चौंकानेवाली बात नहीं है।<br />
<br />
और इन सब के पीछे आधारभूत तर्क यह है कि <strong>प्रेमचंद</strong> का लेखन स्वानुभूति का नहीं, अपितु सहानुभूति का है, अतः उनका लेखन दलितों के बारे में ‘प्रामाणिक’ लेखन नहीं हो सकता। और <strong>प्रेमचंद</strong>
की कहानियों, उपन्यासों से ढूंढ़-ढूंढ़कर उदाहरण के बतौर पेश किये जा रहे
हैं। हालांकि स्वानुभूति का तर्क भी एक मिथ ही गढ़ता है। भोगा हुआ यथार्थ के
नाम पर हम कई बार यथार्थ ही बदल डालते हैं, विकृत कर पेश करते हैं। संभव
है कि इसकी कोई राजनीति हो। यह भी संभव है कि कोई राजनीति न हो। बिल्कुल
हाल के एक सर्वेक्षण से यह बात उभरकर आई है कि ‘पत्नियां अपने पति द्वारा
पीटे जाने को तनिक बुरा नहीं मानती हैं।’ क्या नारीवादी विमर्शकार इस
यथार्थ को स्वीकारेंगे ? अगर यह उन पत्नियों का ‘स्वानुभूति’ या ‘भोगा हुआ
यथार्थ’ है तो भी मेरी सदिच्छा है कि वह ‘प्रामाणिक’ न हो!<br />
<br />
<strong>रत्नकुमार सांभरिया</strong>
कहते हैं कि ‘इसकी (स्वानुभूति की) लैंगिक सीमाएं भी होती हैं। एक ही जाति
के स्त्री-पुरुष की स्वानुभूतियां समान नहीं होती हैं। दलित स्त्री के
प्रसव के समय की लेबर रूम की स्वानुभूति दलित पुरुष की स्वानुभूति कतई नहीं
हो सकती। उस महिला की वह स्वानुभूति किसी भी धर्म, जाति या वर्ग की उस
महिला की स्वानुभूति के अनुरूप होगी, जो लेबर रूम से गुजरती है।’ (‘मैं
दलित साहित्य का विरोधी हूं’, हंस, अगस्त 2004) <br />
<br />
किंतु <strong>राजेंद्र यादव </strong>कहेंगे,
...‘एक दलित जब बोलता है, तब उसका पूरा समाज बोल रहा होता है। ...उसकी
पीड़ा, उसके जीवन की व्यथा-कथा उसके पूरे समाज की पीड़ा और व्यथा-कथा हुआ
करती है।’ <strong>स्वामी अछूतानंद</strong> ने 1920 के आसपास लिखा था,
‘तुम अपनी खातिर स्वतंत्रता को, समझ रहे हो अवश्य लाजिम; मगर करोड़ो ही आदि
हिंदू गुलामी में क्योंकर जड़े रहेंगे।’ 1914 के आसपास <strong>हीरा डोम</strong> की ‘सरस्वती’ में एक कविता छपी थी। <strong>हीरा डोम</strong> की स्वानुभूति है-‘हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,/बेधरम हो के कैसे मुंहवा देखइबि।’ और एक स्वानुभूति <strong>अंबेदकर</strong> की है जो ‘धर्मांतरण की धमकी’ दे रही है! <strong>प्रेमचंद</strong> से विमर्शकार नाराज हो सकते हैं क्योंकि संभव है, वे <strong>हीरा डोम</strong> और <strong>अंबेदकर</strong> की 'स्वानुभूति' के बीच फर्क में ‘वर्गीय भूमिका’ की तलाश करें।</div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-64479273015105522712012-05-21T20:52:00.000+05:302012-05-21T20:52:00.597+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<i>मनोविज्ञान एवं मानसिक स्वास्थ्य की पत्रिका 'मनोवेद' के लिए कुमार मुकुल ने मेरे सामने कुछ सवाल रखे थे. उन्हीं सवालों पर आधारित यह लिखित बातचीत है--- </i><br />
<i><b>क्या आप ईश्वर को मानते हैं ? धर्म को लेकर आपका नजरिया क्या है?</b></i><br />
<br />
जब से मैंने होश संभाला है, धर्म और ईश्वर के प्रति घृणा और हिकारत का ही भाव रहा है। अपने मामले में अनास्था शब्द को अनुपयुक्त मानता हूं मैं। हालांकि तब इसके लिए मेरे पास कोई तर्क नहीं था। इसकी कोई जरूरत भी नहीं थी शायद। मेरी पैदाइशी गड़बड़ी रही हो या फिर कुछ ऐसा जो मेरे लिए आजतक अज्ञात और अपरिभाषित है। सात-आठ साल का होऊंगा जब अपने गांव के मन्दिर के प्रांगण में स्थापित महादेव को बड़े भाई (अमरेन्द्र कुमार) व उनके एक ग्रामीण दोस्त (बिपिन कुमार) के साथ मिलकर पहले तो जमकर पिटाई की, फिर पानी से भरे आहर में फेंक दिया। उन्हीं दिनों की एक दूसरी घटना भी है जिसे मैं यहां याद करना चाहता हूं। <b>विजय ठाकुर</b> नामक विज्ञान के एक शिक्षक थे जिनके पास मैं अपने छोटे चचेरे भाई (कृष्णकांत) के साथ पढ़ने जाता। वहां से लौटते समय मेरे मित्र पूजा करने के ख्याल से कुछ फूल भी साथ ले लेते। फूल तो मैं भी लाता लेकिन घर पहुंचने से पहले एक खूंटे पर उसे रखता और पेशाब कर डालता। यह क्रम जारी रहा जबतक भाई की शिकायत पर मास्टर साहब ने मेरी खासी मरम्मत नहीं कर दी। आज धर्म और ईश्वर मेरे लिए जनता के शोषण का प्रभावी जरिया हैं। न कम न ज्यादा। इनका अस्तित्व हममें वैज्ञानिक चेतना का अभाव होना सिद्ध करता है। विज्ञान की पढ़ाई करना और वैज्ञानिक चेतना से लैस होना-दो अलग-अलग चीज है। <br />
<br />
<i><b>किस व्यक्ति, घटना, पुस्तक, विचार, परिस्थिति आदि ने आपके युवा मानस को निर्मित करने में अपनी क्या भूमिका अदा की, इस बाबत बतलाएं। अपने मानस की निर्माण-प्रक्रिया के बारे में बतलाएं।</b></i><br />
मनुष्यता मैंने मां से सीखी। मेरे घर कोई भी आता-साघु, भिखारी आदि तो मां कुछ-न-कुछ उन्हें अवश्य देती। साधुओं को देख कभी-कभार हम भाई लोग बिदक जाते तो मां समझाती कि भांट-फकीर के मुह लगना अच्छी बात नहीं है। धर्म और ईश्वर में मेरी मां की भरपूर आस्था थी लेकिन धार्मिक कट्टरता या मूर्खता तनिक नहीं थी। ऐसा प्रायः होता कि हमलोग घर में अंडा, मुर्गी आदि लाते तो चुपके से मां उसी चूल्हे पर बना लेने को कहती जिसपर बाकी लोगों का निरामिष खाना बन चुका होता। उनका सामान्य-सा तर्क होता कि आग तो खुद एक पवित्र चीज है। आग में तपकर अशुद्ध चीज भी शुद्ध हो जाती है। अलबत्ता मुर्गा-अंडा बन जाने के बाद चूल्हे को मिट्टी से अवश्य लीपती। सादगी, त्याग और ईमानदारी जैसे ‘दुर्लभ’ और ‘खतरनाक’ गुण मां और चाचा (दिवंगत शिवनारायण शर्मा) से संयुक्त रूप से सीखने को मिले। कभी-कभी मां की भूमिका अगर कमतर लगी तो इसके कारण हैं। यह भी हो सकता है कि मां की दुनिया सीमित थी इसलिए चचाजान थोड़े फायदे में जा रहे हैं। चाचा, जिन्होंने हम सब को पढ़ाया, मेरे आदर्श बने। सरकारी नौकरी में होने के बावजूद परिवार की वजह से वे हमेशा अभाव में रहे। खादी की एक धोती, एक कुरता और एक चप्पल (जाड़े में जूता)। इससे ज्यादा मैंने नहीं देखा। लेकिन बड़े-बड़ों के सामने सीधा तनकर खड़े होने का माद्दा था। यह दृढ़ता शायद उन्हीं से मैंने हासिल की है। <br />
<br />
व्यक्तित्व-निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को भी निर्णयकारी मानता हूं। आरंभिक स्कूली जीवन के ग्रामीण शिक्षक <b>जगदीश शर्मा</b> मेरे लिए आदर्श रहे। उर्दू मिश्रित उनकी हिंदी मुझमें भाषा के प्रति झुकाव पैदा कर गई। हाईस्कूल के हिन्दी शिक्षक <b>श्री रामविनय शर्मा</b>, जो आज भी मेरे लिए आदर्श हैं, की भी बराबर की भूमिका रही। सन् 84 से बड़े भाई <b>अखिलेश कुमार</b> के साथ सैदपुर पी. जी. हॉस्टल (3, कमरा 11 एस) में रहने लगा। इतिहास की आलेचनात्मक दृष्टि उन्हीं से हासिल की। आज भी जब एकांत में होता हूं वे मुझे बड़े भाई से अधिक वैचारिक गुरु के रूप में ही याद आते हैं। और इन सबके साथ <b>निराला</b> मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। अंदर कहीं कुछ भरने में <b>निराला</b> के व्यक्तित्व का भी असर कबूल करता हूं।<br />
<br />
बचपन के मेरे विद्रोही तेवर को हवा मिली पुस्तकों से। यों बचपन तो किताबों के बगैर ही गुजरा लेकिन आठवीं कक्षा तक आते-आते मैं मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित हो चुका था, परिचित कितना था नहीं जानता। उन दिनों <i>कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र</i>, <i>साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की चरम अवस्था</i>, <i>कम्युनिस्ट समाज में नैतिकता</i> आदि कुछ किताबें मैंने मनोयोग से पढ़ीं। इसने मेरे व्यक्तित्व को एक आकार प्रदान करना प्रारंभ किया। इनके अलावे जिन किताबों ने मेरी मदद कीं उनमें <b>गोर्की</b> की <i>मां</i>, <i>मेरा बचपन</i> और <i>जीवन की राहों पर</i> उल्लेखनीय हैं। <b>हावर्ड फास्ट</b> का हिन्दी में अनूदित <i>आदि विद्रोही</i>, <b>अज्ञेय</b> की <i>शेखर: एक जीवनी</i> (प्रथम खण्ड)। <b>रजनी पाम दत्त</b> की किताब <i>इंडिया टुडे</i> (संक्षिप्त संस्करण जिसे पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने ‘भारत: वर्तमान और भावी’ शीर्षक से प्रकाशित किया है) मैंने कई दफा पढी। कहिए कि यह किताब इंटर के दिनों में मेरे लिए ‘मनोहर पोथी’ थी। इस किताब का मुझ पर काफी असर हुआ। आज भी अपने को कभी-कभी उसकी पकड़ के अंदर महसूस करता हूं। और इन सबसे आगे तक साथ गये <b>डा. रामविलास शर्मा</b>। <i>शेखर: एक जीवनी</i> की बात कि ‘विद्रोही बनते नहीं, पैदा होते हैं’, पढ़ता तो लगता जैसे यह मेरे लिए ही लिखी गई हो। शेखर का स्कूल से भागना और घर आये पिता के कई दोस्तों को ‘नामहीन जंतु’ से संबोधित करना मुझे काफी आह्लादित करता। कहूं कि एकाधिक बार घर से भागने की कोशिश मैं भी कर चुका हूं लेकिन अपने इस निर्णय पर उस दिन की शाम तक ही टिका रह सका। कक्षा नौ में अपने एक ग्रामीण सहपाठी (सतीश कुमार) को किताबें दे दी कि मेरे घर पहुंचा देना और मां को कहना कि वह गरीबों की सेवा करने गया है।<br />
<br />
<i><b>प्रेम... यह शब्द किस तरह से आपके जीवन में आया या नहीं आया... इसे आपने किस तरह से लिया... इसने आपके मानस को कितना और कैसे प्रभावित किया... यह बदलाव सकारात्मक था या नकारात्मक ... प्रेम के वरक्स सेक्स ने आपके युवा मन को किस तरह प्रभावित किया... क्या दोनो पूरक रहे या और कुछ</b></i><b>....</b><br />
प्रेम शायद हर के जीवन में आता है। मेरे जीवन में भी आया। प्रेम में होना अलौकिक (इसके वजन का शब्द न होने की वजह से इसका इस्तेमाल किया है) सुख का साथ होना है। केवल तभी मनुष्य अपनी पूरी मानवीयता के साथ होता है। इस प्रेम ने मेरे जैसे नीरस गद्यकार को भी कवि बना दिया। जब मैंने प्रेम करना शुरू किया था, पहली कविता लिखी थी- सपने से जागकर। तब नींद कम आती थी और सपने अधिक। जब तक जागता होता, बेचैन होता। कविता आने के साथ ही मेरे अंदर एक विचार ने जन्म लिया, कि कविताएं गहन प्रेम और सपनों के बीच ही संभव हो सकती हैं। <br />
<br />
मैं प्रेम और सेक्स को अलग-अलग नहीं देख पाता। मुझे तो हमेशा ही लगा कि सेक्स, प्रेम का मुखौटा लगाकर आता है। मुखौटा के हटते ही वह अश्लील लगने लगता है। सभ्य समाज या साहित्य को वह अश्लीलता पसंद नहीं। सबकी एक मर्यादा है। मर्यादा का यह आवरण इतना झीना और पारदर्शी है कि एक की ‘हद’ से दूसरे की ‘बेहद’ को जाना जा सकता है। <br />
<br />
इसे संयोग कहें या परिस्थिति कि मेरे जीवन में सबसे पहले <b>मार्क्स</b> आये। स्वदेशी होने के बावजूद <b>गांधी</b> और <b>नेहरु</b> से परिचय बाद में हुआ। परिचय भी ऐसा कि कट्टर आलोचक रहा दोनों का। मेरा पूरा स्कूली जीवन <b>गांधी</b> और <b>नेहरु</b> को गालियां बकने में बीता। इसे मैं मार्क्सवादी होने का फर्ज समझता रहा। कोई अगर <b>गांधी-नेहरु</b> का प्रशंसक मिल जाता तो लानत भेजता उनपर। लेकिन जैसे-जैसे मेरा अध्ययन विस्तृत होता गया, आलोचना की उग्रता कमती रही। <b>नेहरु</b> को पढ़ने के बाद उनका प्रशंसक होने से मैं अपने को नहीं रोक पाया। <b>नेहरु</b> को पहली बार और सीधे तौर पर ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ से जाना। फिर मैंने ‘हिंदुस्तान की कहानी’ पढ़ी। अपनी इतिहास-दृष्टि विकसित करने व <b>नेहरु</b> की इतिहास-दृष्टि को समझने के लिए यह पुस्तक अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। इस किताब को मैंने कई दफा पढ़ा बल्कि कहिए कि बार-बार पढ़ा। मेरी कोशिश होती है कि चार-छह माह के भीतर एक बार अवश्य ही पढ़ लूं। मेरा मानना है कि इस छोटी काया वाली पुस्तक को बी.ए. स्तर तक के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य कर दिया जाये, अगर कुछ भी हम अनिवार्यतया पढ़ाते हों।<br />
<br />
पता नहीं मैं इसे नेहरु-प्रेम कहूं या और कुछ कि कई दफा दूसरों के बारे में पढ़ते हुए <b>नेहरु</b> का कद बड़ा होने लगता है। मार्क्सवादी <b>मोहित सेन</b> की आत्मकथा पढ़ते हुए भी ऐसा ही महसूस किया अपने अंदर। ऐसा क्यों के जवाब में कोई उत्तर नहीं आता। <b>गांधी</b> मुझे एक लेखक के रूप में प्रभावित नहीं करते। कभी-कभी तो वे बेहद अतार्किक और बच्चों की-सी बातें करते लगते हैं। कुछ साल पहले जब मेरा बेटा दसवीं में था तो <i>हिंद स्वराज</i> के बारे में पूछा था। मैंने यही कहा था कि उनकी बहुत सारी बातें बकवास हैं। विचारों की उनके यहां कोई सीधी लाइन नहीं है। वे एक अत्यंत ही व्यावहारिक राजनीतिज्ञ हैं, दार्शनिक अथवा विचारक नहीं। इसलिए उनकी बातों में मुझे कोई तार्किक संगति नहीं दिखती। अपनी पिछली कही बातों का खंडन वे जितनी आसानी से कर जाते हैं कि कभी-कभी कोफ्त होती है। अलबत्ता निजी जीवन में जो उनके आचरण के नियम हैं वे मुझे बेमिसाल लगे हैं। मैं अपने लिए दृष्टि <b>मार्क्स</b> से लेता हूं और जीने का तरीका <b>गांधी</b> से। इन दोनों के मिश्रण में ही शायद भारत का भविष्य बसता है। <br />
<br />
<b>पटेल</b> और <b>सुभाष</b> से सीधे कोई प्रभाव मैं नहीं स्वीकारता। अवचेतन में किसी तरह का हो तो उसकी बात अलग है। यही बात <b>भगत सिंह</b> और <b>विवेकानंद</b> के लिए भी कह सकता हूं। हां, स्त्री जाति को समझना मैंने <b>सीमोन द वोउआर</b> से ही सीखा।<br />
<br />
<i><b>मनोविज्ञान का मतलब आपके लिये क्या है... आप फ्रायड को जानते हैं ए उनके बाद के किसी मनोवैज्ञानिक को आप जानते हैं</b></i><br />
मेरे लिए मनोविज्ञान का मतलब है मनुष्य को जानने-समझने का विज्ञान। यह मनुष्य के व्यवहार का विज्ञान है। और मनुष्य का व्यवहार उसके परिवेश पर निर्भर होता है। हमें बहुत सारी चीजें अदृश्य रूप में विरासत में प्राप्त होती हैं। बहुलांश हम अपने सामाजिक जीवन में सृजित करते हैं। इसलिए मेरे लिए एक सच्चा मनोवैज्ञानिक केवल और केवल वही हो सकता है जो समाजशास्त्री भी है। मनोवैज्ञानिकों में <b>फ्रायड</b> को ही थोड़ा-बहुत पढ़ा है।<br />
<br />
<i><b>आपकी प्रिय फिल्में कौन सी हैं और क्यों</b></i><br />
फिल्मों में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं रही है। हॉल जाकर मैंने अबतक चार ही फिल्म देखी है-‘अर्धसत्य’ अपने बड़े भाई (अखिलेश कुमार) के साथ, ‘प्रतिघात’ साले (मृणाल केसरी) के साथ, ‘खलनायक’ मित्र अशोक कुमार के साथ। एक का अभी स्मरण नहीं। सबसे अच्छी फिल्म मैंने दूरदर्शन पर देखी-‘एक दिन अचानक’। इस फिल्म में संवाद कम ही हैं, परिस्थितियों के चित्रण मात्र से जान आ जाती है। कहिए कि संवाद के बीच कहने के बाद जो कुछ अनकहा रह जाता है और उस अनकहे को व्यक्त करने हेतु जो परिस्थिति निर्मित की जाती है-उसी का मैं कायल हूं। अद्भुत कलात्मक। मैं उस फिल्म को बार-बार देखना चाहता हूं। <br />
<br />
<i><b>आप राजनीति को लेकर किस तरह सोचते हैं</b></i><br />
किसी (फिलहाल नाम भूल रहा हूं) ने कहा है कि आधुनिक काल के पहले धर्म राजनीति था जबकि आधुनिक काल का धर्म राजनीति है। मनुष्य न केवल एक सामाजिक प्राणी है बल्कि वह एक राजनीतिक प्राणी भी है। मेरी राजनीति मेरा लेखन है। </div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1Patna, Bihar, India25.61046 85.14166725.61046 85.141667 25.61046 85.141667tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-19528937892839260462012-01-23T17:58:00.000+05:302012-01-23T17:58:54.764+05:30बिहार का सृजन : मिथ क्या सत्य क्या<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="mbl notesBlogText clearfix">
<div>
आधुनिक भारत की ही भांति
बिहार के इतिहास पर भी अगर गौर करें तो कहना पड़ेगा कि आधुनिकता और
राष्ट्रवाद की प्रगति के साथ-साथ समाज में व्याप्त नकारात्मक शक्तियों में
भी वृद्धि होती रही। भारत में राष्ट्रवाद, सम्प्रदायवाद तथा जातिवाद का
जन्म साथ-साथ हुआ। तात्पर्य यह कि हमारा राष्ट्रवाद अपनी प्रकृति में
नकारात्मक था। साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में जैसे ही प्रगति हुई वैसे ही
उनकी प्रतिगामी शक्तियों में भी इजाफा हुआ। सन् १८८५ में अखिल भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने सांप्रदायिक विद्वेष एवं जातीय संगठनों
के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। कहना होगा कि इन अंतर्विरोधों के पीछे एक तो
राष्ट्रवादियों द्वारा इस्तेमाल किये गये प्रतीकों तथा सांस्कृतिक चेतना
की भूमिका हो सकती है, तो दूसरी ओर साम्राज्यवाद ने राष्ट्रवादी चेतना को
शिकस्त देने के लिए उन प्रतीकों तथा चेतना का दुरूपयोग किया। साम्प्रदायिक
विचारधारा की प्रगति ने हिन्दुस्तान के दो टुकड़े किये वहीं
‘क्षेत्रीयतावाद’ तथा ‘भाषावाद’ ने बंगाल से बिहार को तथा पुनः बिहार से
उड़ीसा को पृथक किया।<br />
<br />
उन्नीसवीं शती बिहार में ‘नवजागरण’ की
शती है। इस शती के अंतिम दशकों में बिहार के पत्रकारिता-जगत में कई मासिक
एवं साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं का उदय हुआ। किंतु यह कहना मुश्किल है कि
नवजागरण पहले शुरू हुआ या पत्रकारिता पहले शुरू हुई। बिहार का नवजागरण एक
जटिल परिघटना है। इसने इतिहास के भिन्न कालखंड में भिन्न रूपों में अपने को
अभिव्यक्त किया है। यह एक स्थापित ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद
जहां अंग्रेजी साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ था वहीं बिहार में
नवजागरण ब्रिटिश-बंगाली आधिपत्य/वर्चस्व के विरोधस्वरूप पैदा हुआ। दूसरी
तरफ, विभिन्न जातियों के आपसी झगडों एवं संगठनों के रूप में भी इसने अपने
को अभिव्यक्त करने की कोशिश की।<br />
<br />
ध्यान देने की बात है कि
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के आरंभिक बिहारी नेता यथा महेश नारायण,
सच्चिदानन्द सिन्हा एवं अन्य सभी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के
नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति ‘सचेत’ उदासीन भाव रखते हुए
बंगाल से बिहार को अलग करने के आंदोलन से गहरे जुड़े थे। बिहार के नवजागरण
का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि सन् १९१२ से पहले प्रतिक्रियावादी जमींदार
वर्ग कांग्रेस अर्थात् राष्ट्रीय आंदोलन के साथ है और बंगाल से बिहार के
पृथक्करण के विरोध में है जबकि प्रगतिशील मध्यवर्ग पृथक्करण के तो पक्ष में
है लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उदासीन है। बल्कि कई बार यह प्रगतिशील
तबका अपनी ‘राजभक्ति’ भी प्रदर्शित करता है।<br />
<br />
हसन इमाम ने
कहा कि महेश नारायण ‘बिहारी जनमत के जनक’ हैं तो सिन्हा ने उन्हें ‘बिहारी
नवजागरण का जनक’ कहा। कहना न होगा कि यह नवजागरण बिहार के पृथक्करण की शक्ल
में था। महेश नारायण के बड़े भाई गोविंद नारायण कलकत्ता विश्वविद्यालय में
एम. ए. की डिग्री पानेवाले पहले बिहारी थे। उनके ही नेतृत्व में बिहार में
सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा का आंदोलन आरंभ किया गया था और यह उन्हीं की प्रेरणा
का फल था कि हिंदी का प्रवेश उस समय स्कूलों और कचहरियों में हो सका।
गोविंद नारायण को नौकरी पाने के लिए विकट संघर्ष करना पड़ा था। महेश नारायण
अपने भाई के कड़वे अनुभवों से बहुत प्रभावित थे। वे भूल नहीं पाये कि भाई को
बिहारी होने की वजह से कितना भेदभाव झेलना पड़ा था।<br />
<br />
बंगाल से
बिहार के पृथक्करण में महेश नारायण, डा. सच्चिादानंद सिन्हा, नंदकिशोर
लाल, परमेश्वर लाल, राम बहादुर कृष्ण सहाय, भगवती सहाय तथा आरा के हरवंश
सहाय समेत लगभग तमाम लोग, जिनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है, जाति
से कायस्थ थे और अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में उनकी जाति अग्रणी थी। सुमित
सरकार ने बंगालियों के प्रभुत्त्व को चुनौती देते बिहार की कायस्थ जाति के
लोगों के द्वारा पृथक बिहार हेतु आंदोलन का नेतृत्त्व करने की बात पर
प्रकाश डाला है। यह अकारण नहीं था कि १९०७ में महेश नारायण के निधन के बाद
डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने बंगालियों के प्रभुत्त्व को तोड़नेवाले नेतृत्त्व
की अगुआई की और अंततः इस जाति ने बंगाली प्रभुत्त्व को समाप्त कर अपनी
प्रभुता कायम कर ली। इस वर्ग की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा ने एक बार पुनः बिहार
से उड़ीसा को अलग करने का ‘साहसिक’ कार्य किया। डा. अखिलेश कुमार ने
अन्यत्र डा. सच्चिदानंद सिन्हा की उस भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास
किया गया है जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि वे उड़ीसा के पृथक्करण के भी
प्रमुख हिमायती थे।<br />
<br />
आधुनिक शिक्षा प्राप्त बिहारी युवकों
में अशराफ मुसलमानों के बाद कायस्थ सबसे आगे थे। इस जाति के युवकों को
बेरोजगारी का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ता था। सरकारी दफ्तरों और शिक्षण
संस्थानों में नौकरियां पाने में और स्कूलों-कॉलेजों में दाखिला लेने में
उन्हें बंगाली युवकों से कड़ी प्रतियोगिता करनी पड़ती थी। बंगाली युवकों को
कई निश्चित सुविधाजनक स्थितियां हासिल थीं। कानून और चिकित्सा के पेशों में
बंगाली इस तरह जड़ जमाए हुए थे कि उनमें घुसना किसी बिहारी युवक के लिए
अत्यंत कठिन था। शिक्षित बिहारी युवकों ने महसूस किया था कि अपना अलग
प्रांत नहीं होगा तो उनका कोई भविष्य नहीं है। इन युवकों में अधिकतर कायस्थ
थे। अतएव वे अलग बिहार प्रांत बनाने के आंदोलन में स्वाभाविक रूप से
कायस्थ जाति के लोग ही आगे आए।<br />
<br />
जाहिर है, रोजगार एवं अवसर की
तलाश की इस मध्यवर्गीय लड़ाई को सच्चिदानंद सिन्हा ने एक व्यापक आधार
प्रदान करने हेतु ‘बिहारी पहचान’ एवं ‘बिहारी नवजागरण’ की बात ‘गढ़ी’।
उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘सिर्फ खुद बिहारियों को छोड़कर बाकी
लोगों में बिहार का नाम भी लगभग अनजान था।’ आगे उन्होंने लिखा, ‘पिछली सदी
के ९० के दशक के प्रारंभ में मैं जब एक छात्र के रूप में लंदन में था, तब
मुझे जबरन इस ओर ध्यान दिलाया गया। तभी मैंने यह दर्दनाक और शर्मनाक खोज की
कि आम बर्तानवी के लिए तो बिहार एक अनजान जगह है ही, और यहां तक कि
अवकाशप्राप्त आंग्ल-भारतीयों के बहुमत के लिए भी बिहार अनजाना ही है।
...मेरे लिए आज के बिहारियों को यह बताना बड़ा कठिन है कि उस वक्त मुझे और
कुछ दूसरे उतने ही संवेदनशील बिहारी मित्रों को कितनी शर्मिंदगी और हीनता
महसूस हुई जब हमें महसूस हुआ कि हम ऐसे लोग हैं जिनकी अपनी कोई अलग पहचान
नहीं है, कोई प्रांत नहीं है जिसको वे अपना होने का दावा करें, दरअसल उनकी
कोई स्थानीय वासभूमि नहीं है जिसका कोई नाम हो। यह पीड़ादायक भावना उस वक्त
और टीस बन गई जब सन् १८९३ में स्वदेश लौटने पर बिहार में प्रवेश करते-करते
पहले ही रेलवे स्टेशन पर एक लंबे-तगड़े बिहारी सिपाही के बैज पर ‘बंगाल
पुलिस’ अंकित देखा। घर लौटने की खुशियां गायब हो गईं और मन खट्टा हो गया।
...पर सहसा ख्याल आया कि बिहार को एक अलग और सम्मानजनक इकाई का दर्जा
दिलाने के लिए, जिसकी देश के अन्य महत्वपूर्ण प्रांतों की तरह अपनी एक अलग
पहचान हो, मैं सब कुछ करने का संकल्प लूं जो करना मेरे बूते में है। एक
शब्द में कहूं तो यही मेरे जीवन का मिशन बन गया और इसको हासिल करना मेरे
सार्वजनिक क्रियाकलापों की प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत।’<br />
<br />
प्रारंभिक
दौर में शिक्षा के क्षेत्र में अशराफ मुसलमान, कायस्थों की तुलना में
बढ़-चढ़कर थे। इस संदर्भ में १८ जून १८८८ के अंक में ‘अनीश’ नामक अखबार में
प्रकाशित एक घटना का उल्लेख प्रासंगिक है। पत्र के अनुसार पटना के आयुक्त
के दफ्तर में मुसलमान तथा बंगालियों ने एक संयुक्त मोर्चा कायम कर रखा था।
उनका कहना था कि इस दफ्तर में सिर्फ एक बंगाली और एक मुसलमान किरानी है तथा
अन्य लाला हैं, जो दूसरी जाति के लोगों की बहाली ही नहीं होने देते। बिहार
के सरकारी/गैर सरकारी पदों पर बंगालियों की नियुक्ति की प्राथमिकता से
मुसलमानों के पढ़े-लिखे तबके को काफी मुश्किलें आयी थीं। शायद इसीलिए इस
आंदोलन में उनकी पहल कायस्थों से पहले हुई। हालांकि यह पहल बिहारी अखबारों
को संरक्षण प्रदान करने की बात से हुई। १८ मई, १८७४ को ‘नादिर उल अखबार’
नामक उर्दू अखबार ने सरकार की उस नीति का, जो बिहारी अखबारों के विरुद्ध
विभेद करती थी, विरोध किया। अखबार ने लिखा कि जहां दूसरे प्रांतों के
अखबारों की कुछ प्रतियां उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सरकार खरीदती है,
वहीं बिहार से प्रकाशित होनेवाले अखबारों की उपेक्षा होती है। उसने मांग की
कि बिहार से प्रकाशित अखबारों की प्रतियां भी खरीदें, जिससे इनके प्रकाशन
को भी प्रोत्साहन मिल सके।<br />
<br />
७ फरवरी १८७६ को पुनः एक दूसरे
उर्दू अखबार ‘मुर्ग-ए-सुलेमान’ ने ‘बिहार बिहारियों के लिए’ का नारा दिया
और यह मांग रखी गई कि बिहार में बंगालियों की बजाय बिहारियों की बहाली हो,
खासकर शिक्षा विभाग में, क्योंकि विद्यार्थियों को यूरोपीयन समेत
गैर-बंगालियों की अपेक्षा बंगालियों की अंग्रेजी समझने में ज्यादा दिक्कतें
होती हैं। उसने यह भी कहा कि सरकार को बिहारियों के विरुद्ध किसी दूसरे के
प्रति अनुग्रह का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। उसका स्पष्ट रूप से कहना था
कि अगर किसी पद के लिए बिहारी योग्य हों तो वह पद उन्हें ही मिलना चाहिए।
कदाचित् कोई योग्य बिहारी नहीं मिल सके तो किसी दूसरे भारतीय की नियुक्ति
होनी चाहिए। यह बात रेखांकित करने योग्य है कि इस पत्र का यह नारा कि
‘बिहार बिहारियों के लिए है’ आगे चलकर पृथक बिहार प्रांत आंदोलन की रीढ़
साबित हुआ।<br />
<br />
यह आंदोलन विशुद्ध रूप से आधुनिक शिक्षा प्राप्त
मध्यम वर्ग का था जिन्हें नौकरियों में बंगालियों के साथ कड़ी प्रतियोगिता
करनी पड़ती थी। इस बँटवारे से कृषि अर्थव्यवस्था से जुड़े किसानों, मजदूरों
और यहाँ तक कि जमींदारों का भी कोई खास सरोकार न था क्योंकि पृथक होने से
जमींदारों, भूधृतिधारको एंव धनी किसानों की आर्थिक समृद्धि में जायदाद के
बँटवारे और बिखराव के कारण उनकी हैसियत में स्वाभाविक तौर पर ह्रास पैदा
होता है, अतः वे मूलतः किसी प्रकार के बँटवारे के पक्षधर नहीं हो सकते। इन
तथ्यों की पुष्टि इस बात से भी होती है कि कालांतर में जब उड़िया लोगों की
माँगों के अनुरूप ब्रिटिश सरकार ने मद्रास, बंगाल, केन्द्रीय प्रान्त तथा
बिहार के इलाकों को काटकर पृथक उड़ीसा प्रांत बनाने का निश्चय किया तो अपनी
जागीरें बचाने के उद्देश्य से बिहार को छोड़ शेष प्रांतों ने इसका विरोध
किया। ऐसे भी, बँटवारे का जो मनोविज्ञान है, उसके अनुसार कृषि-कर्मों से
जुडे़ लोग इसके पक्ष में नहीं होते हैं क्योंकि इससे उनकी जमीन का रकबा कम
होता जाता है और कृषि कर्म हेतु आदमियों की भी कमी होती जाती है। प्रसंगवश,
एक अलग प्रांत के रूप में बिहार के सृजन से दरभंगा महाराज भी खुश नहीं थे।
१९ दिसंबर, १९११ के अंक में ‘द नायक’ ने लिखा है, Maharajah of Darbhanga
did not take the separation of Bihar from Bengal in good sense, for he
was the Raja of Mithila, the Mithila’s connection with Bengal was very
intimate and the disruption of this connection could not be pleasing to
the Maharajah.<br />
<br />
प्रो. ए. आर. देसाई ने ‘सोशल बैकग्राउन्ड ऑफ
इंडियन नेशनलिज्म’ में कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था हेतु संयुक्त परिवार की
अपरिहार्यता को स्थापित किया है।<br />
<br />
१९१२ तक बिहारी मध्यवर्ग
ने सुनियोजित तरीके से अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यक्रम से
अपने को न केवल अलग रखा बल्कि अंग्रेजी राज के प्रति अपनी ‘भक्ति’ भी
प्रदर्शित की। ११ अगस्त, १९०८ को लेफ्टिनेंट गवर्नर के बांकीपुर आगमन के
अवसर पर ६००० लोगों के हस्ताक्षर वाला मेनिफेस्टो का समर्पण किया गया,
जिसमें बंगाल विभाजन से उत्पन्न अव्यवस्था के दौर में बिहारवासियों की
‘शांति’ एवं ‘न्यायपूर्ण शासन’ में विश्वास की अभिव्यक्ति थी। पुनः जब
फ्रेजर इंगलैंड लौटने लगे तो उनके कार्यकाल को बढ़ाने के लिए बिहार के
हिन्दू-मुसलमानों ने एक हस्ताक्षर अभियान शुरु किया। १४ अगस्त १९०८ को
‘बिहार लैण्ड होल्डर्स ऐसोसिएशन’, ‘बिहार प्रांतीय संघ’, ‘बिहार प्रांतीय
मुस्लिम लीग’ आदि की तरफ से एक संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल को यह
आवेदन दिया, जिसमें यह स्पष्ट कर दिया गया कि उपर्युक्त अभिवेदन ‘नम्र’ तथा
‘वफादार’ होने के साथ-साथ धर्म, जाति, वर्ग तथा समुदाय निरपेक्ष है।<br />
<br />
अंग्रेजी
सरकार को भी समझ में आ रही थी कि यदि बिहार को स्वतंत्र प्रांत का रूप
नहीं दिया गया तो क्षोभ की लहर विद्रोह तथा राष्ट्रीय आंदोलन की चिंगारी
में परिणत हो जायगी। यदि ऐसा नहीं किया गया तो विद्रोही बंगाल के साथ
रहते-रहते बिहार में भी राष्ट्रीय आंदोलन की लहर तेज हो जायगी। अतः इन
खतरों तथा बिहारी मध्य वर्ग की ‘राजभक्ति’ को ध्यान में रखकर ब्रिटिश सरकार
ने बिहार को पृथक प्रांत बनाने का निर्णय लिया। अतः अगस्त,१९११ में सरकार
ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को लिखा कि ‘बिहार के लोग अत्यंत ही बलिष्ठ तथा
‘‘राजभक्त’’ हैं तथा वे बंगाल से पृथक होना चाहते हैं। बंगाल के विभाजन के
समय बिहार के लोगों ने बिहार को पृथक करने के लिए ‘‘जान बूझकर’’ आंदोलन
नहीं शुरु किया था, क्योंकि वे सरकार के विरोध में बंगालियों का साथ नहीं
देना चाहते थे। हाल के वर्षों में बिहार में बड़ा जागरण हुआ है तथा उनको
विश्वास हो गया है कि जबतक बिहार को बंगाल से पृथक नहीं कर दिया जाता तब तक
उनका विकास नहीं होगा। अतः बंगाल से बिहार को पृथक कर अब उनकी ‘चिरलंबित
मांग’ तथा ‘अच्छे ध्येय’ को पूर्ण करने का अवसर आ गया है।’ इस पत्र का
इंगलैंड में अच्छा प्रभाव हुआ तथा इसकी स्वीकृति मिल गई। १२ दिसंबर, १९११
के दिल्ली दरबार से सरकार ने यह घोषणा की कि बिहार, उड़ीसा तथा छोटानागपुर
को बंगाल से पृथक किया जाता है। २२ मार्च १९१२ को इसकी अधिसूचना भी निकाल
दी गई और १ अप्रैल १९१२ से भारत के मानचित्र पर बिहार नामक एक पृथक प्रांत
अस्तित्व में आ गया।<br />
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<span class="UIActionLinks UIActionLinks_bottom" data-ft="{"type":"20"}"><button class="like_link stat_elem as_link" data-ft="{"type":22}" name="like" title="Like this item" type="submit"><span class="default_message"></span></button></span></div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-49162611321265014392011-12-08T12:03:00.005+05:302011-12-08T12:12:22.942+05:30औपनिवेशिक बिहार में शिक्षा : पाठशाला में दंड के कुछ संदर्भ‘पाठशाला में दंड के मुख्य रूप तीन होते: मोगली, घोड़न और खजूर की छड़ी। हाथ-पैर रस्सी से बांध, उसमें गर्दन फंसाकर ओधरा दिया-यह मोगली कसना था। आम की टहनियों में लाल चीटियों के बने खोतों को लाकर नंगे बदन पर झाड़ देना घोड़न लगाना था और खजूर की छड़ी तो खजूर की छड़ी ही होती है। ये तीनों सजायें स्वतंत्र होतीं, अलग-अलग दी जातीं, पर अक्सर दो मिलाकर एक ही साथ दी जाती: मोगली और घोड़न: मोगली और छड़ी। हम दोनों का प्रबंध पहले से तैयार रखते। गुरुजी के कहने पर नहीं अपने ‘उत्साह’ से। छड़ी मैं पहले से ही बना-सोनाकर रखता और लंबी-लंबी छड़ियां ताकि गुरुजी को अपनी जगह से उठने का कष्ट नहीं करना पड़े। ...गुरुजी यदि किसी हमारे विद्यार्थी साथी पर रंज हुए तो मैंने छड़ी हाजिर की। गुरुजी के मुह से निकलना था: ‘झाड़ दो इसके बदन पर घोड़न के खोते’ और मैं कह उठता ‘गुरुजी रखले हतीं।’’ (किशोरी प्रसन्न सिंह, राह की खोज में, अन्वेषा प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, फरवरी 2002, पृष्ठ 52) <br /><br />...‘और उसके बाद जो होता वह हमारी उम्र के बहुत लोगों को मालूम होगा जिनकी पढ़ाई बचपन में किसी देहात के गुरुजी के यहां हुई है। विद्यार्थी छटपटा रहे हैं ‘बाबू हो जान गेल, गुरुजी अब न’। पर यहां कौन मानता है घोड़न झाड़े चले जा रहे हैं।’ (वही)<br /><br />...‘गुरुजी क्यों इन साधनों का इस्तेमाल करते हैं और मैं क्यों ऐसा करता, यह उस समय थोड़े कभी पूछा था, सोचा, विचारा। लगभग 15-16 वर्षों बाद एक बार गुरुजी से पूछा: वह ऐसा क्यों करते थे। पता चला, अररा गांव जहां गुरुजी का घर था, (तीन-चार मील ही पड़ता है) वहां के श्यामनन्दन सहाय जमींदार हैं, बहुत बड़े जमींदार, पढ़े-लिखे भी बहुत और आधुनिक दुनिया के जमींदार। इनकी ‘कचहरी’ में ये सारी चीजें बड़े पैमाने पर व्यवहार की जाती थीं। गुरुजी ने देखा था ये साधन, कितने कारगर होते थे, तगड़े किसान भी आसानी से मान लेते थे और दुरुस्त हो जाते थे। वहीं से गुरुजी ने यह दवा सीखी थी।’ (वही)<br /><br />...‘यह तो हुई गुरुजी की बात। मैं क्यों घोड़न और छड़ी तैयार रखता ? इसका पता और भी देर से लगा। संस्कार का बहुत बड़ा असर होता है। पर यह संस्कार ऐसा नहीं होता जो जनमने के पहले से ही होता हो। यदि कुछ ऐसा होता भी होगा तो वह हम नहीं जानते। जिस संस्कार को हमने देखा है उसको कह सकता हूं।’ (वही, पृष्ठ 53)<br /><br />...‘एक बार गुरुजी से हमारी भी हुई, पर वह मोगली, घोड़न और छड़ी-तीनों में कोई नहीं, एक अलग चीज हुई खेदा-खेदी। गुरुजी ने कहा-तुम दोनों (हम और चन्द्रदेव) चतुर्भुज को बुला लाओ। हम दोनों चले। चतुर्भुज का घर वहां से चार सौ गज से अधिक ही होगा। यह सबेरे की ही बात थी। बाहर आ रहा था। नून नदी छिछली नदी है। बाढ़ आयी तो कई घंटों में ही सारा इलाका जलमग्न हो जाता है। चतुर्भुज के दरवाजे पर अभी-अभी छिप-छाप पहुचा था, हमदोनों कई दूसरों के साथ, जिसमें चतुर्भुज भी था, चेंगा और गरचुन्नी पकड़ने में लग गये। मछली पकड़ने के सूर में जब भूख-प्यास ही भूल गया तो गुरुजी की आज्ञा का क्या पूछना। दोपहर को किसी से गुरुजी को पता चला कि हमलोग मछली मार रहे हैं।' (वही) <br /><br />'गुरुजी और नायब गुरुजी, दोनों अपना-अपना सोंटा लिये दीख पड़े। हमलोगों ने समझ लिया कि आत्मसमर्पण का क्या अर्थ होगा। बस उत्तर की ओर भागे। पानी आ गया था, डगर (गांव की सड़क) एक जगह नीची पड़ती थी, वहां पानी भर कमर हो गया था। हमलोगों के तो गर्दन से भी अधिक था। उसे पार करने में गुरुजी और नायब गुरुजी की धोती भी भींग गयी, इसलिए चाहे जहां कहीं भी हो पकड़ने का ही निश्चय किया। बाहा (नून नदी का छाड़ना) के किनारे-किनारे हमलोग भागे जा रहे थे और गुरुजी रगेदे जा रहे थे। चन्द्रदेव तैरने में हमसे सेसर था। वह बाहा में कूद गया और उस पार। गुरुजी कुछ देर धमसाये कि क्या किया जाये, अब किसका पीछा किया जाय। इस अनिश्चितता में उनकी चाल कुछ धीमी हो गयी और हमारी उनकी दूरी लम्बी हो गयी। इतने में ही मैं भी उस पार चला गया। मकई के खेते-खेते घर पर जाकर किल्ली ठोक ली, और तबतक नहीं निकला, जबतक घर की औरतों ने किरिया खा-खाकर यह विश्वास नहीं दिलाया कि वे हमें गुरुजी से बचायेंगी। और उनलोगों ने ईमानदारी के साथ अपना किरिया निभाया। उस दिन हम दोनों अपने बल पर चम्पत हो गये। हमलोगों ने अपने साथियों से कहा: ‘गुरुजी के हरा देली।’ (वही, पृष्ठ 54)<br /><br />‘मेंरे हेडमास्टर हरेक विद्यार्थी के चाल-चलन पर हमेशा कड़ी निगाह रखते थे। खराब चाल-चलन के कारण कभी-कभी करीब-करीब हर हफ्ते दो-चार बार बेंतबाजी होती थी। हेडमास्टर खुद बेंत मारते थे। बेंतों की कोई गिनती नहीं हो सकती थी। देह पर नीली साटें उखड़ आती थी। सयाने लड़कों की तो दुर्गति हो जाती थी। बदचलन लड़कों के लिए हेडमास्टर यमराज से कम न थे। उनकी कड़ाई और पढ़ाई सारे शहर में मशहूर थी। बहुत अच्छा पढ़ाते और बड़ी बेदर्दी से मारते-पीटते थे। उनका नाम श्री विश्वनाथ गुप्त था। वे बंगाली थे। हिन्दी में प्रसिद्ध लेखक पंडित ईश्वरी प्रसाद शर्मा के बड़े भाई पंडित गुरुदेव प्रसाद शर्मा भी मेरे ही स्कूल में मास्टर थे। वे भी बदमाशों के काल कहे जाते थे। उनसे भी लड़के थर्राते थे। बेंतबाजी में वे भी बड़ी सख्ती करते थे। हेडमास्टर की तरह हीं वे भी एक आदर्श शिक्षक माने जाते थे। इन दोनों के पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि विद्यार्थी इनके भक्त बने रहते थे। ये दोनों ही बहुत सुन्दर अक्षर लिखते थे। खराब अक्षर लिखने वाले लड़के इनसे जरूर दंड पाते थे।’ (शिवपूजन सहाय, संस्मरण)<br /><br />...'शारीरिक दंड की कठोरता से आतंक छाया रहता था। मास्टरों से गुस्ताखी करने की हिम्मत लड़कों में नहीं थी। किन्तु पढ़ाकू लड़कों को प्यार और पुरस्कार भी मिलता था। सुशील और परिश्रमी लड़कों की पहुंच हेडमास्टर तक बेधड़क होती थी। बड़े-बड़े बिगड़ैल भी स्कूल में भीगी बिल्ली बने रहते थे।’ (वही)<br /><br />...'गुरु में चेलों की श्रद्धा हृदय से थी, केवल डर से नहीं। कारण, आदर्श चरित्र शिक्षकों की संख्या ही अधिक थी।’ (वही)<br /><br />‘शिक्षा के बारे में एक छोटा सा वाकया कह देता हूं क्योंकि आमतौर से लोग समझते हैं पहले शिक्षक अच्छे थे, शिक्षा अच्छी थी, मेरा यह अनुभव नहीं है। किसी भी क्षेत्र में मेरे जीवनकाल में समाज आज से अच्छा नहीं था। इससे बदतर था। आबादी बढ़ गई है, बड़े पैमाने पर। जब मैं दूसरे दर्जे में था, 6 आने में एक पुस्तक होती थी ‘आमोद-पाठ’ और उस समय 6 आने बहुत कठिन था, रुपए मन धान बिकता था। मेरी मां एक रुपए में डेढ़ सेर घी बेचकर पढ़ने के लिए पैसा देती थी। आप अंदाज कर लीजिए। मेरे पिता और चाचा में पारिवारिक बंटवारा हुआ था, 6 आने की किताब नहीं खरीदी जा सकी। मेरे शिक्षक मेरे ही गांव के थे, वो कुछ किताबें लाए थे बोले-6-6 आने में ले लो। क्लास में सुना कि फर्स्ट कर गया, शिक्षक अड़ गये कि आगे क्लास में नहीं जाने देंगे, क्योंकि किताब नहीं खरीदी है। मेरे चाचा गए, पंचायती हुई और सभी पंचों ने फैसला किया कि मुझको नहीं जाना चाहिए अगले क्लास में, हमलोग बेवकूफ हैं क्या? हमने 6-6 आने पैसे खर्च किए और वह बिना पैसे दिए फर्स्ट कर गया। पैसे की दिक्कत तो सब दिन रही ही लेकिन एक जिद में आ गया कि बिना किताब के ही पढ़ूंगा, जो होगा सो होगा। दूसरे लड़के मदद लेने आते थे, इसी बहाने उनकी किताब से पढ़कर काम चलाता था।’ (भोगेन्द्र झा, क्रांति-योग, मातृभाषा प्रकाशन, दरभंगा, 2002, पृष्ठ 15).राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-45742941875584987972011-11-15T06:20:00.002+05:302011-11-15T06:29:37.614+05:30औपनिवेशिक बिहार में शिक्षक : एक बानगी<div class="mbl notesBlogText clearfix"><div><p>‘बेचारे प्राइमरी स्कूल के शिक्षक, जो रात-दिन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर रटाते रहते हैं और उन्हें पढ़ने योग्य बनाते हैं। लेकिन उन्हें केवल दस रुपया मासिक मिलते हैं। कितने गुरुओं को मैंने तीन-तीन रुपए में जिंदगी खत्म करते देखा है।...बेचारे उन गुरुओं और किसानों की एक ही हालत है। ये दोनों राष्ट्र के निर्माता ठहरे, पर इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। फिर क्यों नहीं देश रसातल में जाए ? ...लेकिन समझ में नहीं आता कि गुरुजी के साथ ऐसी बेरहमी क्यों की जाती है, जो शिक्षा की जड़ हैं और जिन पर राष्ट्र की उन्नति बहुत कुछ निर्भर करती है ?' (देखें, <em>त्रिवेणी संघ का बिगुल</em> , और देखें, <strong>पी. के. चैधरी</strong> व <strong>श्रीकांत</strong>, <em>बिहार में सामाजिक परिवर्तन के दस्तावेज</em>, विद्या विहार, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण: 2010, पृष्ठ 173).</p><p> </p><p>गुरुजी की मुख्य आमदनी चटियों के महीने से थी, लेकिन इसकी गारंटी भी क्या थी ? ‘कभी-कभी किसी लड़के का बाप आकर कहने लगता था-गुरुजी, इस साल पैदा बहुत नरम है। भदई और अगहनी ने कमर तोड़ दी। चैती का भरोसा है। खेत कमाते-कमाते तो पीठ की रीढ़ धनुही हो गई, मगर करम गवाही नहीं देता तो क्या करूँ ? और कोई धंधा भी तो नहीं है! आप तो घर के आदमी हैं, हालत देखते ही हैं। आपसे क्या परदा है ? आप तो सब रत्ती-रत्ती जानते हैं। मगर चैत में सब बाकी बेबाक कर दूँगा। दाम-दाम जोड़कर ले लीजिएगा। भगवान की दया से क्या हरदम सूखा ही पड़ेगा ? अपने ऊपर चाहे लाख बीते, मगर मैं किसी का खदुक रहना नहीं चाहता। किसी का मेरे यहाँ कौड़ी का एक दाँत भी बाकी नहीं है। पेट काटकर तो मालिक की कौड़ी देता हूँ। आपकी दया से यह लड़का अगर कुछ पढ़ जायगा, तो मेरा दुख छूट जायगा। आपका नाम लेता रहूँगा। आपकी एक निसानी रह जायगी। मेरे यहाँ आपका नकद डेढ़ रुपया और साढ़े बारह सेर सीधा बाकी है। कहीं पुरजे पर टाँक लीजिए।’ (<em>देहाती दुनिया से</em>, शिवपूजन रचनावली, खण्ड 1, पृष्ठ 134-35)। अक्सर यह कागज पर टंका ही रह जाता।</p><p> </p><p>गुरुजी की आमदनी ‘शनिचरा’ से भी होती। ‘प्रत्येक शनिवार को अक्षत और तिल से लड़के गणेश जी की पूजा करते, उन पर पैसे चढ़ाते। यह पैसा गुरुजी का होता।’ (<strong>किशोरी प्रसन्न सिंह</strong>, <em>राह की खोज में</em>, अन्वेषा प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, फरवरी 2002, पृष्ठ 50) लेकिन यह सौभाग्य अक्सर सोया ही रहता, क्योंकि ‘बहुत-से लड़के ऐसे थे, जो कभी चावल लाते थे तो गुड़ और पैसा नहीं, कभी पैसा तो चावल और गुड़ नहीं, कभी गुड़ तो चावल और पैसा नहीं। उनके यहां गुरुजी का दरमाहा और सीधा भी बाकी पड़ा रहता था।' (देहाती दुनिया से, शिवपूजन रचनावली, खण्ड 1, पृष्ठ 134-35). ये और बात है कि संपन्न घरों के कुछ बच्चे कभी फेल नहीं करते, ‘बल्कि किसी-किसी दिन एक पैसे के बदले गणेश जी पर दो पैसे चढ़ाते। गुरुजी हमारी (किशोरी प्रसन्न सिंह) या चन्द्रदेव (किशोरी जी के सहपाठी-मित्र) की भक्ति से बहुत प्रसन्न होते। गुरुजी हमलोगों का अधिक ख्याल रखते, इन्हीं कारणों से क्योंकि हमलोग सुसंपन्न घर के थे।’ (राह की खोज में, पृष्ठ 51)</p><p> </p><p>अब पेट-पूजा का ही एकमात्र आसरा होता-‘गुरुजी भांज लगाकर पारी-पारी से अपने विद्यार्थियों के घर खाते थे, जो परिवार में बनता था, वही उनको भी मिलता था। बहुत परिवार ऐसे भी थे जहां वह नहीं खाते क्योंकि ऐसे परिवार खिला ही नहीं सकते। हमारे घर में गुरुजी के लिए अच्छा भोजन भी बनता और पारी भी जल्दी-जल्दी पड़ती।’ (<strong>किशोरी प्रसन्न सिंह</strong>, राह की खोज में, अन्वेषा प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, फरवरी 2002, पृष्ठ 50).</p><p> </p><p>‘मैं गुरुजी की शिकायत नहीं कर रहा हूं। बचपन में जो देखा और भोगा है, उसे ही लिख रहा हूं।’ (वही, पृष्ठ 51) जिन्हें <strong>किशोरी जी</strong> की इस ‘शिकायत’ पर विश्वास नहीं है वे जनकवि <strong>नागार्जुन</strong> की कविता ‘प्रेत का बयान’ देखें-</p><p> </p><p> </p><p>‘ओ रे प्रेत-’’</p><p>कड़क कर बोले नरक के मालिक यमराज</p><p>-‘‘सच सच बतला!’’</p><p>कैसे मरा तू ?</p><p>भूख से, अकाल से ?</p><p>बुखार कालाजार से ?</p><p>पेचिस बदहजमी, प्लेग महामारी से ?</p><p>कैसे मरा तू, सच सच बतला!’’</p><p> </p><p>खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़</p><p>काँपा कुछ हाड़ो का मानवीय ढाँचा</p><p>नचाकर लम्बी चमचों-सा पंचगुरा हाथ</p><p>रूखी-पतली किट-किट आवाज में</p><p>प्रेत ने जबाव दिया-</p><p>‘‘महाराज !</p><p>सच सच कहूँगा</p><p>झूठ नहीं बोलूँगा</p><p>नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के....</p><p>पूर्णिया जिला है, सूबा बिहार के सीवान पर</p><p>थाना धमदाहा, बस्ती रूपउली</p><p>जाति का कायथ</p><p>उमर है लगभग पचपन साल की </p><p>पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था</p><p>तनखा थी तीस, सो भी नहीं मिली</p><p>मुश्किल से काटे हैं</p><p>एक नहीं, दो नहीं, नौ नौ महीने !</p><p>घरनी थी, माँ थी, बच्चे थे चार</p><p>आ चुके हैं वे भी दया सागर करुणा के अवतार</p><p>आपकी ही छाया में !</p><p>मैं ही था बाकी</p><p>क्योंकि करमी की पत्तियाँ अभी कुछ शेष थीं</p><p>हमारे अपने पुस्तैनी पोखर में</p><p>मनोबल शेष था, सूखे शरीर में....’’</p><p>‘‘अरे वाह-’’</p><p>भभाकर हँस पड़ा नरक का राजा </p><p>दमक उठीं झालरें कम्पमान सिर के मुकुट थी</p><p>फर्श पर ठोककर सुनहला लौह दण्ड</p><p>अविश्वास की हँसी हँसा दंडपाणि महाकाल </p><p>‘‘-बड़े अच्छे मास्टर हो:</p><p>आये हो मुझको भी पढ़ाने !!</p><p>मैं भी तो बच्चा हूँ ....</p><p>वाह भाई वाह !</p><p>तो तुम भूख से नहीं मरे ?’’</p><p>हद से ज्यादा डालकर जोर</p><p>होकर कठोर</p><p>प्रेत फिर बोला</p><p>‘‘अचरज की बात है</p><p>यकीन नहीं आता है मेरी बात पर आपको ?</p><p>कीजिए न कीजिए आप चाहे विश्वास </p><p>साक्षी है धरती, साक्षी है आकाश</p><p>और और और भले व्याधियाँ हों भारत में ..किन्तु..’’</p><p>उठाकर दोनों बाँह</p><p>किट किट करने लगा जोरों से प्रेत</p><p>-‘‘किंतु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका</p><p>ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको</p><p>सावधान महाराज</p><p>नाम नहीं लीजिएगा</p><p>हमारे सामने फिर कभी भूख का ’’</p><p>निकल गया भाफ आवेग का </p><p>शांत स्तिमित स्वर में प्रेत फिर बोला-</p><p>‘‘ जहाँ तक मेरी अपनी बात है </p><p>तनिक भी पीर नहीं</p><p>दुख नहीं, दुविधा नहीं</p><p>सरलता पूर्वक निकले थे प्राण</p><p>सह नहीं सकी आंत जब पेचिश का हमला ....</p><p>सुनकर दहाड़</p><p>स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के</p><p>भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षित प्रेत की</p><p>रह गये निरुत्तर </p><p>महामहिम नरकेश्वर ! ! </p></div></div><span class="UIActionLinks UIActionLinks_bottom" ft="{"type":"20"}"><button class="like_link stat_elem as_link" title="Like this item" type="submit" name="like" ft="{"type":22}"><span class="default_message"></span></button></span>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-19037532625758146292011-06-09T18:50:00.004+05:302011-06-09T19:15:39.136+05:30भ्रष्टाचार पर राजनीति<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhH_uUAAnQi8is7xkZSWNG_Ct9LQS-CcA4UEvxTZtnE28RzLaNMEiNXxlVgf84W7bfQBeX4tWlzFDP7pBFJwfgyYgwZ7lU7CXlAOmq9yIEZkYyoRZNQD5YUySlgwKWJf-7m2DY4N0oQ5FT5/s1600/171275_148593781860489_100001296050119_250727_2979031_o.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><span class="Apple-style-span" ><img style="text-align: justify;display: block; margin-top: 0px; margin-right: auto; margin-bottom: 10px; margin-left: auto; cursor: pointer; width: 400px; height: 300px; " src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhH_uUAAnQi8is7xkZSWNG_Ct9LQS-CcA4UEvxTZtnE28RzLaNMEiNXxlVgf84W7bfQBeX4tWlzFDP7pBFJwfgyYgwZ7lU7CXlAOmq9yIEZkYyoRZNQD5YUySlgwKWJf-7m2DY4N0oQ5FT5/s400/171275_148593781860489_100001296050119_250727_2979031_o.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5616213333065234162" /></span></a><p style="margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" >४ जून २०११ को दिल्ली के रामलीला मैदान में योग-गुरु रामदेव जी तथा उनके सहयोगियों के द्वारा आहुत सत्याग्रह का प्रत्यक्षदर्शी होने का सौभाग्य या दुर्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ. रामदेव जी का संकल्प कि ‘देश से भ्रष्टाचार को समाप्त कर देना है’, ‘इसमें उनकी जान भी चली जाये तो उन्हें कोई गम नहीं’-मुझे रामदेव जी के इस अबोध या नासमझ कथन से खेद होता है. यह इसलिए कि रामदेव जी की इस उक्ति में अर्थव्यवस्था की सही जानकारी का अभाव झलकता है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ‘उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति विशेष का स्वामित्व होता है’, ‘कम से कम लोगों के हाथों में अधिक से अधिक धन इकठ्ठा होता है’ तथा रुपया भगवान से भी बड़ा हो जाता है. बेकारी, भूखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि सभी इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोध हैं. जबतक यह अर्थव्यवस्था अस्तित्व में होगी तबतक उपर्युक्त सारे लक्षण मौजूद रहेंगे. खुद रामदेव चिकित्साशास्त्र पर अपनी टिप्पणियों में यह कहते पाए जाते हैं कि महज लक्षणों का निदान रोग का उपचार नहीं है बल्कि अनावश्यक दवाओं के असर से और कई दूसरे रोग भी हो जाते हैं. रामदेव जी, काश आप भ्रष्टाचार के मूल में पूंजीवाद जैसे रोग को ‘डायग्नोज’ कर पाते तो शायद स्वयं तथा अपने अनुयायियों को भी भ्रम से बचा पाते. भ्रष्टाचार तो उस पौधे की पत्तियां है और पत्तियों को नष्ट करने से पौधे समाप्त नहीं होते. दूसरी ओर, आपके सारे क्रियाकलाप पूंजीवादी संस्कृति के पक्ष में हैं क्योंकि धन और धर्म का गंठजोड ही योग है जिसे लेकर आप जनता को गुमराह कर रहे हैं. पता नहीं आप अर्थव्यवस्था की सही समझ के अभाव में ऐसा कर रहे हैं या कि इसका कोई राजनितिक निहितार्थ है क्योंकि ‘रातों रात आपने भगवा वस्त्र बदलकर सलवार-सूट और दुपट्टा पहन लिया’-जाने क्या मज़बूरी थी ? एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, प्रूधों ने ‘व्यक्तिगत संपत्ति’ को चोरी कहा था. अतः उस लिहाज से पैसे की संस्कृति ‘करप्शन’ है. ये दोनों ही परिघटनाएं मानव जीवन के विकास के क्रम में जुडी हैं और इनमें उत्तरोत्तर प्रगति होती रही है. मुझे याद है- जब मैं कॉलेज का विद्यार्थी हुआ करता था तो पटने में आयकर चौराहे के पास एक बड़ा-सा होर्डिंग लगा था जिसपर करप्शन के सम्बन्ध में अंग्रेजी में एक सूत्र लिखा था जिसका हिंदी तर्जुमा है कि ‘भ्रष्टाचार कोई नई चीज नहीं है और यह सार्वभौम है’. मेरे तार्किक मन ने इसे इस रूप में लिया कि सार्वभौम और सर्वव्यापी तो सिर्फ भगवान हैं-तो फिर उस वक्त से यह जोड़ लिया कि ‘भगवान और भ्रष्टाचार सार्वभौम और सर्वव्यापी हैं’. उसी दरम्यान मुझे प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्री कौटिल्य का यह सूत्र भी मिला कि ‘यदि किसी की जिह्वा पर मधु की दो बूंद रख दी जाएँ तो यह संभव नहीं कि वह व्यक्ति उसके रस का आनंद न लेगा.’ इन तथ्यों से मेरा अभिप्राय भ्रष्टाचार का पक्षपोषण करना नहीं है बल्कि उस ओर इशारा करना है कि यह तो पूंजीवादी संस्कृति का मात्र ‘बाई प्रोडक्ट’ है. असल हथौड़ा तो उस संस्कृति के ऊपर पड़ना चाहिए जिसका कि अबतक किसी ने प्रयास नहीं किया है बल्कि इस नाम पर सरकार गिराने, सत्ता पलट करने तथा सत्ता हथियाने का काम अवश्य हुआ है.</span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" ><br /></span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" >इस सन्दर्भ में भारत के राजनीतिक इतिहास (स्वातंत्र्योत्तर) पर थोड़ी चर्चा अपरिहार्य है. सन १९७४-७५ में जयप्रकाश नारायण ने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का आह्वान कर देश के मध्यवर्ग के बीच नई आशाओं का संचार किया तथा मुख्य रूप से छात्रों को अगुवा बनाकर केन्द्र में स्थापित कॉंग्रेस शासन का विरोध किया था. परिणाम के रूप में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ. उलटे, उस वक्त जनता के बीच जो घोर हताशा, निराशा और आक्रोश पल रहा था, जिसकी परिणति व्यवस्था परिवर्तन में हो सकता था, किन्तु जयप्रकाश नारायण ने उस पलते-बढ़ते आक्रोश की हवा निकाल दी और भारत में कुछ भी न बदला. चेहरे अवश्य बदले, किन्तु गरीबी, भूखमरी, बेकारी एवं भ्रष्टाचार पूर्व की भांति फलता-फूलता रहा. </span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" ><br /></span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" >नब्बे के दशक में विश्वनाथ सिंह ने पुनः भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर कांग्रेसी एकाधिकार का विरोध किया. मध्यवर्ग के लोग उसके पीछे गोलबंद हुए क्योंकि यह वर्ग अति महत्वाकांक्षी तथा स्वप्नदर्शी वर्ग है. यह वर्ग कतई व्यवस्था परिवर्तन का पक्षधर नहीं है बल्कि उसी व्यवस्था में कामचलाऊ परिवर्तन कर उसे बनाये रखने का पक्षधर है. मार्क्स के शब्दों में यह वर्ग प्रतिक्रांतिकारी की भूमिका में होता है. भ्रष्टाचार का विरोध इस वर्ग में एक नई आशा का संचार करता है, इसलिए नहीं कि वह भ्रष्टाचार विरोधी है बल्कि भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को अपदस्थ करके वह अपने लिए जगह की मांग रखता है. अतः इनका विरोध इसलिए होता है कि ‘यदि उन्हें भी मौका मिला तो लूट के रख देंगे.’ विश्वनाथ सिंह को मध्यवर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ. सत्ता में परिवर्तन हुआ. असंतुष्ट एवं विक्षुब्धों को सत्ता सुख प्राप्त हुआ किन्तु आम जनता ठगी गई. उनकी तक़दीर न बदली. अतः पूंजीवाद के संकट जब-जब गहरे होते हैं और इस कारण से उपजे आक्रोश के बवंडर को ऐसे चालाक लोग एक खास ‘ट्विस्ट’ देकर जनता को गुमराह करते हैं और क्रांति की संभावनाओं को लंबे समय तक टाल देते हैं. अतः इस लिहाज से जयप्रकाश नारायण तथा विश्वनाथ सिंह-दोनों ही को जनता की अदालत में खड़ा कर मुकदमा चलना चाहिए. उसी श्रृंखला में यदि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी प्रलाप पर विचार करें तो यह कहना गलत न होगा कि ये भी जनता की पीठ में छुरा भोंकने का काम कर रहे हैं. अतः बाबाजी, आपसे अनुरोध है कि जनता के बीच जो अकुलाहट है उसे बढ़ने दें, उसके आक्रोश को पक जाने दें, उसकी एकजुटता को कामयाब होने दें-तभी सही वक्त पर कोई क्रांतिकारी कदम कामयाब हो सकता है. पत्तियां नोचने से पेड़ समाप्त नहीं होता, बुखार की दवा से पीलिया रोग ठीक नहीं हो सकता. ये तो रोग के लक्षण मात्र हैं, हमें रोग पर आक्रमण करना होगा. बाबा रामदेव, आप समझें. क्या आपको प्रधानमंत्री बना दिया जाये तो आप महंगाई रोक देंगे, बेकारी भगा देंगे, गरीबी मिटा देंगे, भ्रष्टाचार एवं अनाचार का अंत कर देंगे ? प्रधानमंत्री अपने वक्तव्य में बिल्कुल ईमानदार हैं यदि वे मानते हैं कि ‘उनके पास कोई जादुई छड़ी’ नहीं है. आपको यदि ऐसी छड़ी उपलब्ध हो तो आप जनता के सामने इसी वायदे के साथ खड़े हों न कि सत्याग्रह और अनशन रूपी अस्त्र के इस्तेमाल से अनावश्यक हिंसा एवं भ्रम का माहौल पैदा करके.</span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" ><br /></span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" >डॉक्टर अखिलेश कुमार </span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" >सेवासदन, श्रीनगर, ए. जी. कॉलोनी, पटना-२५.</span></span></p><p style="text-align: justify;margin-top: 0px; margin-right: 0px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; "><span class="Apple-style-span" style="line-height: 16px; "><span class="Apple-style-span" >मोबाईल-९२३४४२२४१३ </span></span></p><div style="text-align: justify;font-size: 11px; line-height: 16px; "><br /></div><p></p><p></p>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-29591752074971485082011-05-16T15:58:00.015+05:302011-06-05T17:10:30.346+05:30कबीर को पढ़ते हुए--अर्थात कबीर का स्त्री पाठ<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3QQCEFqTJzuAvVmUHg4WRYBovgtz-NAGct94kzVRQFFt9pwFBiY5veKPbcgqq1NECh1i-Z2r683Uc0pDBLRuqKV4GCOga19Nrmew00EYgaDbKqF68rBpM6lGD59H0OWlw1mZfbs_KnTL6/s1600/img1100625061_1_1.jpg"><img style="display: block; margin: 0px auto 10px; text-align: left; cursor: pointer; width: 185px; height: 185px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3QQCEFqTJzuAvVmUHg4WRYBovgtz-NAGct94kzVRQFFt9pwFBiY5veKPbcgqq1NECh1i-Z2r683Uc0pDBLRuqKV4GCOga19Nrmew00EYgaDbKqF68rBpM6lGD59H0OWlw1mZfbs_KnTL6/s400/img1100625061_1_1.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5608456505243953618" border="0" /></a><br /><p style="text-align: justify;">भक्तिकाल के सर्वाधिक 'क्रांतिकारी' समझे जानेवाले कवि <span style="font-weight: bold;">कबीरदास</span> ने ज्यादा काम नारी–जाति को गलियाने का ही किया. सतवंती या पतिव्रता की उन्होंने जरूर प्रशंसा की, किन्तु ‘नारी नदी अथाह जल, बूड़ि मुआ संसार’, ‘नागिन के तो दोय फन, नारी के फन बीस’, ‘नारी की झाईं परत अंधा होत भुजंग’, ‘नारी बड़ा विकार’ आदि कहकर उन्होंने नारी–जाति की घनघोर निंदा की है और ‘चली कुलबोरनी गंगा नहाय’-जैसी व्यंगोक्ति से उसका उपहास किया है. (<span style="font-weight: bold;">श्री</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">भगवान</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सिंह</span>, <span style="font-style: italic;">पद्मावत</span><span style="font-style: italic;"> : </span><span style="font-style: italic;">नारी</span><span style="font-style: italic;">-</span><span style="font-style: italic;">श्रेष्ठता</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">का</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">प्रथम</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">काव्य</span>, <span style="font-weight: bold;">कसौटी</span>, अंक-८, पृष्ठ १२९). इस तरह औरतों के प्रति <span style="font-weight: bold;">कबीरदास</span> ने कितना विषवमन किया है–ध्यान, समाधि, उपासना आदि के लिए स्त्री को व्यवधान बताकर उन्होंने उसकी आध्यात्मिक और बौद्धिक शक्ति की घनघोर अवमानना की है (वही, पृष्ठ १३७). ‘ज्ञातव्य है कि <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> ने विस्तार से स्त्री-विरोधी विचार ही नहीं प्रकट किये हैं, भले भक्त होने के कारण, सती-प्रथा को भी गौरवान्वित किया है, भले प्रतीक रूप में उसका इस्तेमाल करते हुए’ (<span style="font-weight: bold;">नंदकिशोर</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">नवल</span>, <span style="font-style: italic;">कबीर</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">की</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">वाणी</span><span style="font-style: italic;"> : </span><span style="font-style: italic;">एक</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">निजी</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">पाठ</span>, <span style="font-weight: bold;">कसौटी</span>-४, पृष्ठ ६). </p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold;">कबीर</span> के यहाँ गुस्सा एक स्थायी भाव की तरह है. कबीर का यह गुस्सा गंगा–स्नान को जाती स्त्रियों के प्रति देखने लायक है-</p><p style="text-align: justify;">‘चली कुलबोरनी गंगा न्हाय।</p><p style="text-align: justify;">सतुवा कराइन बहुरी भुंजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।</p><p style="text-align: justify;">गठरी बांधिन मोटरी बांधिन, खसम के मूंडे दिहिन धराय।</p><p style="text-align: justify;">विछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।</p><p style="text-align: justify;">गंगा न्हाइन जमुना न्हाइन, नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।</p><p style="text-align: justify;">पांच पच्चीस के धक्का खाइन, घरहूं की पूंजी आइ गंवाय।’</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold;">कबीर</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">साहब</span> यह नहीं देख सके कि कम से कम गंगा-स्नान आदि के बहाने औरतों को घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने का मौका मिलता था. इसे समझा <span style="font-weight: bold;">जायसी</span> ने. तभी उनकी पद्मावती और उसकी सखियाँ मानसरोबर–स्नान को अपने लिए स्वतंत्र क्रीडाओं का एक अवसर मानती हैं. मानसरोवर स्नान के बहाने ही तो पद्मवती को सात खंड के धवल गृह या अन्तःपुर के एकांत से बाहर निकलने का अवसर मिलता है. वस्तुतः <span style="font-weight: bold;">जायसी</span> ने यहाँ लोकजीवन का बड़ा ही सच्चा चित्र प्रस्तुत किया है. गांवों में जवान लड़कियां पर्व–त्यौहार के अवसर पर झुण्ड में आस-पास के तालाब या नदी आदि में स्नान करने जाती हैं–गाती हुई, चहलकदमी करती हुई और उन्मुक्तता की सांसें लेती हुई. ऐसे अवसरों का महत्त्व उनके लिए स्वतंत्रता दिवस जैसा ही होता है. <span style="font-weight: bold;">जायसी</span> ने ऐसे स्नानों के महत्त्व को पहचाना, किन्तु ‘बुद्धिवादी’ <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> को यहाँ भी पाखंड या कर्मकांड ही नजर आया. (देखें, <span style="font-weight: bold;">श्री</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">भगवान</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सिंह</span>, <span style="font-style: italic;">पूर्वोधृत</span> , पृष्ठ १२९-३०).</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">स्त्री जाति के प्रति <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> के इस गुस्से को उनकी भक्ति की अवधारणा में ढूंढा जा सकता है. उनकी भक्ति की जो अवधारणा है, वह मध्यकालीन पितृसत्तात्मक मूल्यों से प्रभावित लगती है. संभवतः इसीलिए प्रकृति ‘स्त्री’ मानी जाती है और परमात्मा ‘पुरुष’. <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> के अनुसार स्त्री प्रकृति में आसक्त जीवात्मा स्त्रीलिंग तथा पुरुष परमात्मा में तल्लीन जीवात्मा पुल्लिंग से संबोधित होने के योग्य है, यथा–</p><p style="text-align: justify;">‘समधी के संग नाहीं आई, सहज भई घरबारी.</p><p style="text-align: justify;">कहैं कबीर सुनो हो संतो, पुर्ख जनम भौ नारी’ ..<br /></p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">जबतक सुरत प्रकृति में स्थित थी या प्रकृति–मंडल में रहकर उसके द्वारा भक्ति की जा रही थी या जबतक वह पूर्णरूपेण प्रकृति मंडल का त्याग नहीं कर सकी थी, तबतक उसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग हुआ और जब ‘लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल’ की स्थिति हुई, प्रभु में समाकर प्रभु से एकाकार हो गई, तब वह पुरुषत्व प्राप्त कर ली और उसके लिए ‘ताते रहेउ अकेला’ पुल्लिंग शब्द का प्रयोग हुआ. माया में आबद्ध स्त्री है–चाहे वह स्त्री शरीर में हो या पुरुष शरीर में. जब पुरुष परमात्मा को प्राप्त कर लिया जाता है, तब वह पुरुष कहे जाने योग्य है, चाहे वह स्त्री शरीर में ही क्यों न हो। ( देखें, <span style="font-weight: bold;">साध्वी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">ज्ञानानंद</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जी</span>, <span style="font-style: italic;">अध्यात्म</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">का</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">आश्चर्य</span><span style="font-style: italic;">, </span><span style="font-style: italic;">श्री</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">कबीर</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">ज्ञान</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">प्रकाशन</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">केन्द्र</span><span style="font-style: italic;">, </span><span style="font-style: italic;">गिरिडीह</span><span style="font-style: italic;">, </span><span style="font-style: italic;">प्रथम</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">संस्करण</span><span style="font-style: italic;">, </span><span style="font-style: italic;">२०००</span><span style="font-style: italic;">, </span><span style="font-style: italic;">पृष्ठ</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">१७</span><span style="font-style: italic;">-</span><span style="font-style: italic;">१८</span>). </p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">स्त्री भक्ति-मार्ग में एक स्थायी बाधा (महाविकार) भी है. स्वयं <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> की आत्मस्वीकारोक्ति देखें-</p><p style="text-align: justify;">‘नारी तो हमहुं करी, तब ना किया विचार,</p><p style="text-align: justify;">जब जानी तब परिहरी, नारी महाविकर’. (देखें, <span style="font-weight: bold;">रामधारी</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सिंह</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">दिनकर</span>, <span style="font-style: italic;">संस्कृति</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">के</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">चार</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">अध्याय</span> , लोकभारती प्रकाशन, नवीन संस्करण २००६, पृष्ठ ४९४).</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold;">कबीर</span> की अनेक ऐसी कविताएँ हैं जिनको लोक–परलोक, वैवाहिक प्रेम और विवाह सम्बन्धी कुरीतियों (यथा बाल-विवाह, बेमेल विवाह आदि) से सम्बंधित करके व्याख्यायित किया जाता रहा है, जबकि असलियत में उन पदों में कुछ और ही बात है. हमारा पितृपक्ष हमें लगातार भरमाकर इस तथ्य से दूर ले जाता रहा है. प्रसिद्ध पद ‘दुलहिनि मोरी गावहु मंगलाचर’ को ‘मंगलाचार’ शब्द पर जोर देकर सीधे–सीधे विवाह-उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया, लेकिन विवाह में ‘सरोवर के किनारे वेदी’ बनाने का विधान तो है नहीं. और यह भी कि राजस्थान में सती के गीतों को ‘मंगलाचार’ कहते हैं.</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">‘सरोवर’ पर जोर देते ही अर्थ-विधान ‘दुल्हन’ को ‘सती’ के लिए लाई गई स्त्री में बदल देता है. तत्कालीन दौर के घुमक्कड़ <span style="font-weight: bold;">इब्नबतूता</span> ने अपने यात्रा- वृत्तांत में लिखा है, ‘तीन कोस चलने के बाद हम एक ऐसी जगह पहुंचे जहां जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था. वहां चार गुम्बद (मंदिर) बने हुए थे और चारों में एक देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित थी. इन चारों के मध्य एक एक ऐसा सरोवर था जहां वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी. इस कुंड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकाई गई. पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकड़ियों के गट्ठे बांधे हुए थे और दस पुरुष अपने हाथ में बड़े –बड़े कुंदे लिए खड़े थे. नगाड़े, नौबत और शहनाई बजानेवाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे ...इतना कहकर वह प्रणाम कर तुरंत उसमें कूद पड़ी. बस नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी. उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी (देखें, <span style="font-style: italic;">इब्नबतूता</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">की</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">भारतयात्रा</span> , सती वृत्तांत, पृष्ठ २४-२५). </p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">सती होने की घटनाओं का मध्यकाल में आँखों देखा हाल जानना है तो <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> की कविता सुनाती है: </p><p style="text-align: justify;"> ‘सती जलन कूं नीकसी, पिउ का सुमिर सनेह. </p><p style="text-align: justify;">सबद सुनत जिउ नीकल्या भूली गई सब देह.’ </p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">घर से सती होने को निकली वह पति के प्रेम की तथाकथित प्रतिज्ञा में भूली हुई थी. ढोल नगाडों की आवाज और सती के जयघोषों की भयावह आवाज से ही दम निकल रहा है. अब देह की सुध भला कैसे आ सकती है. जिउ निकालना कोई साधारण क्रिया नहीं है. पीड़ा का गंभीर संकेन्द्रण यहाँ है. पूरे काव्य व्यापार का बलाघात इसी एक बिंदु पर है. (<span style="font-weight: bold;">अनुराधा</span>, <span style="font-style: italic;">सती प्रथा, भक्ति काव्य और हिंदी मानसिकता</span> , हंस, फरवरी २००८, पृष्ठ<span>४०</span>)। <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> की कविता पर सती प्रकरण को लेकर बात करना इसलिए भी जरूरी है कि अबतक का सोच विचार का पितृपक्षीय दायरा मध्ययुगीन साहित्य में अधिक से अधिक श्रृंगार और मात्र कुछ धार्मिक आडम्बरों के विरोध भर को ही देख पता है. ‘धर्म के वाह्याडम्बर और शास्त्रीय जकडबंदी के प्रति संवेदनशील मन का विद्रोह ही भक्ति है.’ (देखें, <span style="font-weight: bold;">मुजीब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">रिज्बी</span>, <span style="font-style: italic;">मध्यकालीन</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">धर्मसाधना</span> , इन्द्रप्रस्थ भारती, कबीर विशेषांक, पेज१०). उनके लिए भक्ति की शक्ति प्रेम की बराबरी और सघनता तक सिमटी है. वे यह नहीं देख पाते कि आधी आबादी कहाँ गई. <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> की कविता सती प्रसंगों को सामने लाकर यह दिखाती है कि देखो, आधी आबादी जल रही है या जलाई जा रही है: </p><p style="text-align: justify;">‘विरह जलाई हौं जलूं, जलती जलहर जाऊं </p><p style="text-align: justify;">मो देख्या जलहर जले, संतो कहां बुझाऊं...’ (<span style="font-weight: bold;">अनुराधा</span>, पृष्ठ ४१)</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">लेकिन <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> की कविता को सती विरोध की कविता नहीं माना जा सकता. वे भी अन्य कवियों की तरह अनेक बार सती का महिमामंडन पूरे मनोयोग से करते हैं. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यदि सती की व्यथा का कोई अनुभव करता-कराता है तो भक्तिकाल में वे अकेले कवि हैं. यदि इन कविताओं का कालक्रम निर्धारित होता तो सती के प्रति उनके विचार के विकास को रेखांकित किया जा सकता था. बहुत संभव है कि किसी काल में उनके लिए सती एक आदर्श रही हो और किसी अन्य समय में सती- घटनाओं को आँखों से देखने के बाद वे अपने इस आदर्श पर कायम न रह पाए हों. (<span style="font-weight: bold;">अनुराधा</span>, पृष्ठ ४१)</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">मालवा में पान के बीड़े से शुरू होता है सती का मृत्यु-उत्सव. मालवा का एक लोकगीत है, ‘बावड लो नी बीड़ो पान को’. पान का बीड़ा लेने के बाद ‘स्त्री’ के लिए सती का प्रश्न प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है. विवाह के साथ घूँघट धारण करनेवाली स्त्री का घूँघट सती का बीड़ा लेते ही हट जाता है (सिर उघड़ जाता है). <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> जब कहते हैं, ‘तोको पीव मिलेंगे घूँघट के पट खोल रे...कहैं कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे’ तो सती प्रकरण उनके ध्यान में है. एक पद है ‘मैं अपने साहब संग चली, हाथ में नरियल मुख में बीड़ा, मोतियन मांग भरी. लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी, तापै चढ़ि के भली’. यह सती होने के लिए ले जाई जाती स्त्री का चित्र है. (<span style="font-weight: bold;">अनुराधा</span>, ४२ ).</p>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-20970445412000315222011-04-12T07:37:00.005+05:302011-06-21T09:43:05.916+05:30जनगणना की शुरुआत, नौकरी की बरसात<div style="text-align: left;"><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggxwvO_ovJZ_8u05t8Sx7NWGDISCIUZuclYin-FUqQapzIm5V4Ffz0qFm5gM4U4B5duZ_e7Ke1VbNB00CnbQBlxOecfkPvcq_2ZvFWxiQniyidceTDoFG86vFrTBIjFN23RFO3Oc7vuzYT/s1600/census-2011-mascot.jpg"><img style="display: block; margin: 0px auto 10px; text-align: center; cursor: pointer; width: 126px; height: 322px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEggxwvO_ovJZ_8u05t8Sx7NWGDISCIUZuclYin-FUqQapzIm5V4Ffz0qFm5gM4U4B5duZ_e7Ke1VbNB00CnbQBlxOecfkPvcq_2ZvFWxiQniyidceTDoFG86vFrTBIjFN23RFO3Oc7vuzYT/s400/census-2011-mascot.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5594514200556784674" border="0" /></a><br /></div><p style="text-align: justify;">वर्ष २०११ की जनगणना के आरंभिक आंकड़ों से मिले-जुले निष्कर्ष निकले जा रहे हैं. साक्षरता में वृद्धि,जनसँख्या की वृद्धि दर में कमी आदि के बहाने कहा जा रहा है कि २१ वीं सदी का भारत अपने भविष्य के बारे में सचेत हो रहा है. लेकिन जिस जनगणना रिपोर्ट के आधार पर ऐसे निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं उसे ही अगर कागजी आंकड़ेबाजी का पुलिंदा कहें तो गलत न होगा। जनगणना प्रभारी और चार्ज अधिकारियों की रिपोर्ट में कार्य पूरा हो चुका है, जबकि असंख्य नागरिक ऐसे हैं, जो जनगणना से अब भी वंचित हैं। जिन तथ्यों पर स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर रचनात्मक कार्य होने हैं, वोटरकार्ड की तरह सरकारी अमलों ने उन्हीं आंकड़ों को ड्रामा बना दिया है। जनगणना के दूसरे चरण में गंभीरता और सक्रियता बरतने की हिदायतों के बावजूद अफसरानों ने बेहद हल्कापन दिखाया।</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">जाहिर है कि हर दस वर्ष पूरे होने पर देश में भारत सरकार द्वारा जनगणना कराई जाती है ताकि देश के विभिन्न राज्यों में रहनेवाले नागरिकों की संख्या के आंकड़े मिले सके। इसके आधार पर भविष्य में आवासीय, खाद्यान्य और मूलभूत सुविधाओं की विकास योजनाओं का खाका तैयार किया जाता है, जिसमें जनगणना की संख्या के आधार पर गरीब योजनाओं में गरीबों को लाभ मिलने की बात होती है. लेकिन जनगणना कर्मियों द्वारा जिस प्रकार से जनगणना को कागजों में निपटाया गया है, ऐसे में भविष्य की योजनाओं में देशवासियों को योजनाओं का वो लाभ नहीं मिल सकेगा, जिसके वे हकदार हैं।</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">कहना न होगा कि गणना उन्हीं लोगों की करनी थी जो ९ से २८ फरवरी के बीच जनगणना स्थल पर पाये गये हों. लेकिन ऐसा शायद ही हो सका. उन तमाम लोगों की गणना कर ली गई जो उक्त अवधि के बीच वहां नहीं रहे. इसके साथ ही एक-एक आदमी की गणना टिन या उससे अधिक जगहों पर हुई. जैसे अगर कोई व्यक्ति या परिवार जो भागलपुर के किसी गांव का निवासी है और कुछ दिनों/सालों तक पटना में रहने के बाद दिल्ली आदि महानगरों में रहने लगा तो उसकी गिनती इन तीनों ही जगहों पर हुई. गांव में भी उसकी गणना हुई फिर पटना और दिल्ली में भी. ऐसे लोगों की आबादी बहुत अधिक है जो एक से अधिक जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे.</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">दूसरे, जनगणना के दूसरे चरण के अंतिम दिन अर्थात 28 फरवरी 2011 को सभी बेघरों को भी गणना होनी थी. देश के तमाम प्रगणकों को 28 फरवरी की अर्धरात्रि में अपने गणना ब्लाक में घूम घूमकर बेघर लोगों की गणना करनी थी। इसके अंतर्गत भिखारियों, घुम्मकड़ों, फेरीवालों, सामान बेचने वाले तथा सड़कों के किनारे, रेल पटरियों व प्लेट फार्मो, बस अड्डों, पार्को, पुलों व पूजा स्थलों के बाहर खूलें में सोने वाले व्यक्तियों की गणना की जानी थी. रात्रि को बेघर परिवारों की गणना के लिए विशेष प्रबंध भी किये जाने थे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका. जनगणना कर्मियों की लापरवाही से इनमें से अधिकांश की गणना नहीं हो सकी। अधिकतर जनगणना कर्मचारी रात्रि में घूमकर बेघरों की गणना करने की बजाय घरों पर सोते रहे।</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">अव्वल तो यह कि २८ फरवरी की अर्धरात्रि की बेघर परिवार के लोगों की गणना शहरी क्षेत्र के लिए नहीं तो कम से कम ग्रामीण क्षेत्र के लिए एकदम ही अव्यावहारिक थी. हिंदुस्तान और खासकर बिहार के कई गांव आज भी ऐसे हैं जो दिन में दुर्गम्य हैं. उन गावों में रात में पहुंचकर लोगों की गणना करना कल्पना मात्र है. प्रगणक अगर उसी गांव के होते तो इस बारे में कुछ आशा भी बंधती लेकिन ऐसा नहीं था. प्रगणक दूसरे गांव के और गणना दूसरे गांव की करनी थी उसमें भी अर्धरात्रि को. बिहार जैसे अनेक प्रान्तों में जहां के अधिकतर क्षेत्र अति संवेदनशील हों और प्रशासन तक जाने में भय खाता हो, प्रगणक से यह उम्मीद करना कि मध्यरात्रि को पहुंचकर वे गणना करेंगे, भारी भूल थी या फिर ऐसे नतीजों को वे पहले ही से नियति मानकर इत्मीनान थे. शायद इसीलिए अर्धरात्रि की गणना के लिए कोई प्रबंध नहीं किया जा सका था. नतीजतन बेघर परिवारों की गणना नहीं हो सकी. अगर कही-कहीं ये आंकड़े आए भी तो नकली. इसे घर में बैठे-बिठाये ही भर लिया गया. </p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">५ मार्च तक पुनरीक्षण का कार्य करना था. इस बीच प्रगणक को अपने गणना ब्लौक जाकर जन्म और मृत्यु की अद्यतन जानकारी हासिल करनी थी तथा नवजात शिशु का नाम दर्ज करना था और मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति का नाम सूची से काटना था. इस तरह प्रगणक एवं पर्यवेक्षक को जनगणना की अंतिम रिपोर्ट ५ मार्च के बाद प्रस्तुत करनी थी लेकिन अपने को तनाव-मुक्त रखने के लिए चार्ज अधिकारियों ने २८ के तुरंत बाद ही जमा करा लिया. इस तरह ५ मार्च तक जो पुनरीक्षण का कार्य होना था वह नहीं हो सका. तात्पर्य यह कि अंतिम रिपोर्ट जो ५ मार्च तक की जानकारी के आधार पर तैयार करनी थी उसे २८ को ही भर लिया गया. ऐसे में जनगणना रिपोर्ट कितनी विश्वसनीय हो सकी है, सहज ही सोचा जा सकता है. </p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">सूचनादाता से २९ सवालों की जानकारी हासिल करनी थी लेकिन कई जगहों पर ऐसा भी हुआ कि प्रगणक अपने गणना ब्लौक न जाकर घर में ही बैठे-बिठाये सारे खाने भर डाले. उम्र आदि में अंतर का भी ध्यान नहीं रखा गया. नतीजतन एक गांव के सारे लोग या तो २२ साल के दिखाए गये या ३२ साल के. इसका नतीजा यह हुआ कि वृद्ध या बच्चों के सही आंकड़े नहीं आ सके.</p><p style="text-align: justify;"> </p><p style="text-align: justify;">इसका एक हास्यास्पद पहलू यह भी रहा कि जिन कर्मियों को जनगणना कार्य के लिए नियोजित किया गया था उनमें से बहुत कम ही लोग ऐसे थे जो कार्य की महत्ता एवं गंभीरता को समझते हुए अंजाम दे सके. अधिकतर लोगों ने अपना काम दूसरे लोगों से कराया. लोग बाग के बीच यह मजाक काफी लोकप्रिय रहा कि ‘जनगणना की शुरुआत क्या हुई, नौकरी की बरसात हुई,’ बिहार में आंगनवाडी सेविकाओं/महिलाओं को इस ‘महत्वपूर्ण’ कार्य में व्यापक तौर से लगाया गया. अधिकतर सेविकाएं जो अपना हस्ताक्षर तक करना नहीं जानती, ने जनगणना फॉर्म कैसे भरा होगा आसानी से समझा जा सकता है. कुछ के पति-बेटे तो कुछ के ‘सहयोगी’ की भूमिका महत्वपूर्ण रही. कई सेविकाएं ऐसी भी हैं जिन्होंने अपना हस्ताक्षर तक नहीं किया. यह काम भी उसके पति-बेटे या सहयोगी करते रहे.</p><p style="text-align: justify;"> </p><div style="text-align: justify;"><span>इसलिए</span> <span>ये</span> <span>आंकड़े</span> <span>विश्वसनीय</span> <span>नहीं</span> <span>हैं</span>. <span>इनके</span> <span>आधार</span> <span>पर</span> <span>कोई</span> <span>नीति</span> <span>निर्धारित</span> <span>करना</span> <span>हमारी</span> <span>ऐतिहासिक</span> <span>भूल</span> <span>हो</span> <span>सकती</span> <span>है</span>. <span>वैसे</span> <span>हमारी</span> <span>सरकार</span> <span>के</span> <span>पास</span> <span>ऐसी</span> <span>भूलों</span> <span>का</span> <span>भी</span> <span>एक</span> <span>इतिहास</span> <span>है</span>.</div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-35927283339239535942011-02-06T19:22:00.004+05:302011-02-06T19:29:53.000+05:30नया पाठ्यक्रम , पुरानी मानसिकता<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4kGERHmeWHJxV9y8x91hX7c58li3SVjNk2sfOxwLkkXHJmQcboaH_H9jMFFXHVNKJCoHKvwpJeEdGc3do0ZD6yJkUinyYgS-laLgx2Dmapuu3I8gjynW_s65ziE5vNszSF8e77cj-VzXo/s1600/NCERT-Cover-copy.jpg"><img style="float: left; margin: 0pt 10px 10px 0pt; cursor: pointer; width: 246px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4kGERHmeWHJxV9y8x91hX7c58li3SVjNk2sfOxwLkkXHJmQcboaH_H9jMFFXHVNKJCoHKvwpJeEdGc3do0ZD6yJkUinyYgS-laLgx2Dmapuu3I8gjynW_s65ziE5vNszSF8e77cj-VzXo/s320/NCERT-Cover-copy.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5570574573495248402" border="0" /></a><br /><br /><div style="text-align: justify;">कहना न होगा कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रुपरेखा (२००५) इस बात की प्रस्थापना करती है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए. यह प्रस्थापना किताबी ज्ञान की उस पारंपरिक विरासत के विपरीत है जिसके प्रभाववश हमारी शिक्षा-व्यवस्था आज तक स्कूल और घर के बीच ‘मर्यादा’ का अंतराल में विश्वास करती रही है. इस नई पाठ्यचर्या पर आधारित पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुसतकें उपरोक्त बुनियादी विचार पर अमल करने का प्रयास हैं. इस प्रयास में हर विषय को एक मजबूत दीवार से घेर देने और जानकारी को रटा देने की प्रवृत्ति का विरोध शामिल है. ऐसे प्रयास राष्ट्रीय शिक्षा नीति (१९८६) में वर्णित बाल-केंद्रित शिक्षा-व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में ऐतिहासिक महत्त्व के साबित होंगे.<br /><br />पुराने पाठ्यक्रम के बच्चे इतिहास विषय के प्रति अरुचि प्रदर्शित करते कहा करते थे-‘इतिहास-भूगोल है बेवफा, सुबह पढ़ो शाम को सफा’. तब इतिहास पढ़ने-पढ़ाने का मतलब तिथि और घटनाओं का रट्टा मारना होता. थोड़ी भी चूक होने पर शिक्षक या अभिभावक की कोफ़्त का शिकार होना पड़ता और मार खानी होती. अब इतिहास की धारणा बदली है. हालाँकि नेहरु काफी पहले ही अपनी दस-वर्षीया बेटी इंदु (तब इंदिरा नहीं बनी थी) को लिखे पत्रों में स्पष्ट कर चुके थे कि इतिहास का मतलब चंद तारीखों से नहीं, बल्कि समाज में परिवर्तन लानेवाली ताकतों से है. साथ यह भी कि इन्हीं ताकतों की वजह से ‘विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में’ एक सामान्य आदमी भी नायक हो जाता है. वर्ग ८ के इतिहास के पाठ्यक्रम के माध्यम से बच्चों में इन्हीं विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों की समझ पैदा करने की कोशिश है. बच्चों में किसी भी घटना के बारे में ‘क्यों’ और ‘कैसे’ जैसे महत्वपूर्ण सवाल करने की समझ और जिज्ञासा पैदा करने का यत्न है. ‘क्यों’ और ‘कैसे’ जैसे सवाल पहली नजर में अति सामान्य प्रतीत हो सकते हैं लेकिन गंभीरता से विचार करने पर पता चलता है कि यह दरअसल इतिहास का ‘कार्य-कारणवाद’ है. मजे की बात है कि यह सब वर्ग ८ के बच्चों को बगैर किसी दार्शनिक सूत्र का सहारा लिए कथा एवं संवाद शैली के माध्यम से खेल-खेल में बताया जा रहा है. <br /><br />इतिहास एक वैश्विक परिघटना है. भारत के अतीत की कहानी दुनिया के लंबे इतिहास से जुड़ी हुई है. इस बात को समझे बगैर भारत के इतिहास (अतीत) में आये परिवर्तनों को समझना आसान नहीं रह जाता. यह बात तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब आज वैश्वीकरण के इस दौर में तमाम अर्थव्यवस्थाएं और समाज दिनोंदिन गहरे तौर पर एक-दूसरे से जुड़ते जा रहे हैं. इतिहास को हमेशा भौगोलिक सीमाओं में बंद करके नहीं देखा जा सकता. उदहारण के तौर पर, हम भारत में मुग़ल साम्राज्य के पतन को ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन (विशेषकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी) और दोनों ताकतों के बीच के अंतर्विरोध को जाने बगैर नहीं समझ सकते. ठीक इसी तरह फ़्रांस की राज्यक्रांति को अमेरिकी स्वतंत्रता संघर्ष के बगैर नहीं समझा जा सकता. और इन तमाम यूरोपीय घटनाक्रमों को को जाने-समझे बगैर भारत में राष्ट्रवाद के उद्भव एवं विकास को जानने-समझने का दावा कितना भ्रामक और निराधार हो सकता है-आसानी से समझा जा सकता है. इसलिए फ्रांसीसी इतिहासकार फर्नांड ब्रौदेल के शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि ‘विश्व के बिना राष्ट्र की बात नहीं हो सकती’. अलग से कहने की जरूरत शायद शेष नहीं कि कक्षा ९ और १० की इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों का मुख्य जोर यही समझाने पर है.<br /><br />ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि आज से पहले के पाठ्यक्रमों में विश्व इतिहास का अध्ययन अनुपस्थित/उपेक्षित रहा है. बल्कि यह कहना शायद ज्यादा उचित होगा कि नये पाठ्यक्रम में विश्व इतिहास की ‘प्रस्तुति’ एक बदले हुए अंदाज में हुई है. अब तक आधुनिक विश्व का इतिहास अक्सर पश्चिमी दुनिया के इतिहास पर ‘आश्रित’ रहा है. मानो सारे परिवर्तन और सारी तरक्की सिर्फ़ पश्चिम के देशों में ही होती रही हो, बाकी देशों के इतिहास एक समय के बाद ठहरकर रह गये हों. गतिहीन और जड़ हो गये हों. इस इतिहास में पश्चिम के लोग उद्यमशील, रचनात्मक, वैज्ञानिक मेधायुक्त, मेहनती, कुशल और बदलाव के लिए तत्पर दिखाई पड़ते हैं. दूसरी तरफ पूर्वी समाज-या अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के लोगों को परम्परानिष्ठ, आलसी, अंधविश्वासी, और बदलावों से कन्नी काटनेवाला दिखाया जाता है. उपरोक्त प्रथम कोटि का इतिहास उपनिवेशवाद के दौर में प्रस्तुत किया गया था, अपने निहित स्वार्थ के तहत. भारत समेत एशियाई देशों की ऐसी अपरिवर्तनीय छवि प्रस्तुत किये बगैर यूरोप अपनी ‘नस्ली श्रेष्ठता’ घोषित नहीं कर सकता था. इसी श्रेष्ठता-बोध से यूरोप की गोरी जातियों को एशियाई देशों के लोगों को सभ्य बनाने का ‘नैतिक भार’ मिला था. नये पाठ्यक्रम ने जो विश्व इतिहास की प्रस्तुति की है उससे यूरोप की श्रेष्ठता का मिथ्या आवरण हट चुका है. अब बच्चे समझ सकते हैं कि भारत का इतिहास मात्र राजे-रजवाड़े, नटों-सपेरों का ही नहीं रहा है, बल्कि वैज्ञानिक प्रगति का भी उसमें अहम हिस्सा है.<br /><br />हालाँकि कहा जा सकता है कि पाठ्यक्रम के निर्माण में कुछ अति उत्साह का भी प्रदर्शन हो गया है जिसे वर्तमान शैक्षणिक परिवेश में व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता. विहित हो कि वर्ग ९-१० के छात्रों के पाठ्यक्रम में साहित्य, क्रिकेट, पोशाक आदि विषयों का इतिहास भी शामिल किया गया है. पाठ्यक्रम निर्माता शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इसे लागू करनेवाले शिक्षक स्वयं पठन-पाठन’ के ‘मल्टी डिसिप्लिनरी एप्रोच’ के कितने कायल हैं. कहना न होगा कि इन शिक्षकों की शिक्षा-दीक्षा की जो परिपाटी रही है, उसमें हर विषय का अपना एक जबरदस्त घेरा है. सभी विषय अपनी-अपनी दीवारों से घिरे हैं. कुछ दिनों पहले तक या कहें कि पुराने पाठ्यक्रम के लिहाज से इतिहास विषय को पढ़ाते हुए अपेक्षा होती थी कि शिक्षक अथवा छात्र साहित्य आदि की चर्चा न करे. ऐसा करना विषय की मर्यादा का उल्लंघन अथवा कहें कि साफ विषयान्तर माना जाता था. कहना जरूरी नहीं कि यह शिक्षक एवं छात्र दोनों ही की विषयगत कमजोरी समझी जाती थी.<br /><br />अब जबकि नये पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाना है, उस शिक्षक से जो ‘विषय की शुचिता’ का कायल और पैरोकार रहा है, उम्मीद की जाती है कि वे क्रिकेट से लेकर फिल्म तक को अपने अध्ययन का विषय बनायें. ये वही शिक्षक हैं जो ‘खेलोगे-कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब’ जैसी ‘सूक्तियों’ का ‘मन्त्र-जाप’ करते रहे हैं. क्रिकेट और फिल्म की बात करने मात्र से छात्रों को ‘भ्रष्ट’ का खि़ताब देनेवाले शिक्षक इन चीजों की पढ़ाई करवाना किसी बड़े ‘अनर्थ’ से कम है क्या? तात्पर्य यह कि सरकार को पहले शिक्षण-प्रशिक्षण के जरिये शिक्षकों में नये पाठ्यक्रम के अनुकूल मानसिकता पैदा करने की चेष्टा करनी चाहिए थी. लेकिन दुर्भाग्यवश भारत की शिक्षा-व्यवस्था औपनिवेशिक काल से ही ‘अभिनव प्रयोग’ की शाला रही है. इतिहास के पाठ्यक्रम में पोशाक (ड्रेस) के इतिहास को शामिल करनेवाले इतिहासकारों ने यह सोचने की जहमत ही नहीं उठायी कि अपने मुल्क में इसपर अद्यतन शोध की क्या स्थिति है. जिस तरह संविधान निर्माताओं ने विश्व के तमाम दूसरे सविधनों की अच्छी बातों का ‘अजायबघर’ रच डाला. यह ध्यान ही न रहा कि भारतीय जनमानस उसके लिए सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से तैयार है भी या नहीं. यह नया पाठ्यक्रम भी कुछ मामलों में उसी की स्मृति ताजा कराता है. <br /></div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-50627420898038478422011-01-11T08:15:00.005+05:302011-01-11T08:25:49.965+05:30विवेकानन्द और भारतीय नवजागरण<div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold;">स्वामी विवेकानन्द</span> उन्नीसवीं शती के महान विभूतियों में से एक थे। इनका नाम इनके गुणों के कारण इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर रहेगा। सच्चे अर्थों में <span style="font-weight: bold;">स्वामी जी</span> संपूर्ण एवं अखंड राष्ट्रीयता के समर्थक थे। वे राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति थे। सत्य तो यह है कि उनका उदय आध्यात्मिक भूख के साथ हुआ, लेकिन इन्होंने जल्द ही अपने आपको राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ लिया। प्रायः ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो मुख्यधारा से जुड़ पाते हैं। <span style="font-weight: bold;">स्वामी जी</span> ने अपनी मर्यादा का पालन बखूबी किया।<br /><br /><span style="font-weight: bold;">स्वामी विवेकानन्द</span> हिन्दू धर्म के समर्थक थे। हिन्दू धर्म अपनी रूढ़ियों के कारण पतन की ओर अग्रसर था। इस धर्म के क्रमशः ह्रास का कारण कट्टर वेदवाद का प्रचार था। उन्नीसवीं शती में ईसाई धर्म के व्यापक प्रचार एवं प्रसार के कारण हिन्दू धर्म बिखरता सा प्रतीत होने लगा। ऐसे में <span style="font-weight: bold;">स्वामी जी </span>ने धर्म समाज में व्याप्त रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का विरोध करना ज्यादा जायज समझा। यही वजह थी कि <span style="font-weight: bold;">स्वामी जी</span> केवल वेद ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म की सभी श्रेष्ठ परंपराओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। इसी दौर में इन्होंने इस बात की स्थापना की कि वेदांत केवल हिन्दुओं का धर्म नहीं है अपितु यह सभी मनुष्यों का धर्म है। इस प्रकार <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द</span> ने हिन्दू धर्म को जाति तथा साम्प्रदायिक भावना से अलग करने की कोशिश की। <span style="font-weight: bold;">स्वामी जी</span> ने अपनी धार्मिक भावना का इजहार करते हुए कहा था-‘‘हमारे धर्म को रसोईघर में चले जाने का खतरा है। हमलोग न तो वेदांती हैं न पुरानी और न तांत्रिक ही, हमलोग महज छुआछूतवादी हैं। मेरा ईश्वर भोजन बनाने के बर्तन में है और मेरा धर्म है मुझे मत छुओ मैं पवित्र हूं। अगर अगली शताब्दी तक यही होता रहा तो हममें से प्रत्येक पागलखाने में होगा।’’ इस प्रकार <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द </span>ने हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों तथा संकीर्णताओं का विरोध करके इसे ज्यादा से ज्यादा उदार बनाने की कोशिश की। <span style="font-weight: bold;">स्वामी</span> ने स्वच्छ तथा आडंबर रहित जीवन को सच्चा सुख माना है। <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द</span> मानवतावादी थे।<br /><br /><span style="font-weight: bold;">स्वामी जी</span> न सिर्फ धार्मिक बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी महान थे। भारत में राजनीतिक चेतना को जगाने का काम भी इन्होंने काफी दिलचस्पी तथा लगन के साथ किया। उन्होंने देशवासियों को जगाने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया। इनका यह मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर सेल्फ कांफिडेंस जैसी भावना का विकास होना जरूरी है। इसी क्रम में इन्होंने कहा, ‘‘अगर दुनिया में पाप है तो वह दुर्बलता है। हर तरह की दुर्बलता से बचो। दुर्बलता पाप है, दुर्बलता मृत्यु है। जो भी चीज तुम्हें शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक रूप में दुर्बल बनाती है उसे जहर की तरह तिरस्कृत करो। उसमें कोई जीवन नहीं है। वह सत्य नहीं हो सकती।’’<br /><br /><span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द</span> ने अतीत के मोह का भी काफी जमकर विरोध किया। इस प्रकार <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द</span> भारतीय राजनीति में पहला व्यक्तित्व था जिसने अतीत की महिमा के दिवास्वप्न को भ्रम कहा और देशवासियों को इससे अलग रखा। देश के नवयुवकों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए इन्होंने कहा था, ’’हे परमेश्वर! वह समय कब आयगा जब हमारे देश के लोग निरंतर अतीत में जीने की प्रवृत्ति से मुक्त होंगे।’’ इस प्रकार खासकर युवा वर्ग को इन्होंने अलग रखने को कहा।<br /><br />गौर फरमाने की चीज है कि एक तरफ <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द </span>ने अतीत के मोह का विरोध किया, तो दूसरी तरफ इन्होंने पश्चिमी संस्कृति की अंधाधुंध नकल पर भी आपत्ति व्यक्त की। <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द </span>ने सीधे तौर पर अंग्रेजी राज का विरोध किया। देश की गुलामी उनके जीवन का सबसे बड़ा कष्ट थी। यूरोपीय संस्कृति की तुलना में भारत की मूल संस्कृति की आत्मा को ज्यादा श्रेष्ठ बताया। ध्यान देने की बात है कि <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द</span> ने हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ साबित करके भारत में राष्ट्रीयता जगाने की कोशिश की है। <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द</span> पहले व्यक्ति थे जिनमें हमें इस प्रकार की देशभक्ति देखने को मिलती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में ऐलान किया, ‘‘भारत में ....मेरा प्राण है भारत के देवता मेरा भरण-पोषण करते हैं। भारत मेरे बचपन का हिंडोला मेरे यौवन का आनंदलोक और मेरे बुढ़ापे का बैकुण्ठ है।’’ <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द </span>ने भारत के प्रति अपनी असीम भक्ति दिखाते हुए कहा था कि ‘तुम्हारी भक्ति और मुक्ति की परवाह किसे है और कौन इसकी परवाह करता है कि तुम्हारे धर्मग्रंथ क्या कहते हैं। मैं बड़ी खुशी से एक हजार बार नरक जाने को तैयार हूं अगर उसमें देशवासियों को ऊंचा उठा सकूं।’<br /><br /><span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द </span>सच्चे अर्थों में संत थे। इन्होंने भारत की मूल संस्कृति तथा परंपरा को हमेशा जीवित रखने की कोशिश की। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आध्यात्मिक सूत्रों से दैनिक जीवन की समस्याओं को हल करने की कोशिश की। इस प्रकार यह कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि <span style="font-weight: bold;">विवेकानन्द</span> को दैनिक जीवन के अध्यात्म में विशेष आस्था थी। <br /><span style="font-weight: bold;">प्रकाशन</span>: <span style="font-style: italic;">आर्यावर्त</span> , पटना , 10 जनवरी, 1988।<br /></div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-14898426380166344752010-12-14T10:39:00.006+05:302011-02-01T09:00:58.112+05:30बुद्ध का स्त्री विमर्श<div class="mbl notesBlogText clearfix"><div><p style="text-align: justify;"><strong>बुद्ध</strong> ने नर्तकी <strong>अंबपाली</strong> का आतिथ्य स्वीकार किया. कुछ लोग इस तथ्य के आधार पर साबित करना चाहते हैं कि <strong>बुद्ध</strong> तत्कालीन पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरुद्ध स्त्रियों के पक्षधर थे. बात ऐसी नहीं है. <strong>अंबपाली</strong> का स्वीकार उसी पितृसत्तात्मक मूल्यों के अधीन वेश्यावृत्ति को मान्यता प्रदान करना था. कहना न होगा कि <strong>बुद्ध</strong> ने जब संघ स्थापित किया तो शुरू में उन्होंने दासों की तरह महिलाओं को उसमें आने नहीं दिया, उन्हें संघ में आने से बार-बार मना किया, उन्हें उसमें जगह नहीं लेने दी. जहां एक ओर <strong>बुद्ध</strong> और अन्य दूसरे लोग स्त्रियों का संघ में आने और जीवन का दूसरा रास्ता अपनाने का विरोध कर रहे थे, वहीं <strong>आनंद</strong>, जो <strong>बुद्ध</strong> के चचेरे भाई थे, जैसे लोग भी थे जो स्त्रियों के संघ में आने दिए जाने का समर्थन और उसके लिए तर्क कर रहे थे. कहना होगा कि<strong> बुद्ध</strong> को रास्ता दिखाया <strong>आनंद</strong> ने. संघ में स्त्रियों के आने के लिए जिसने बार-बार प्रश्न उठाया वह <strong>आनंद</strong> की मां थीं, <strong>प्रजापति गौतमी</strong>. जहां-जहां <strong>बुद्ध</strong> जाते थे, वहां-वहां वे <strong>बुद्ध</strong> के पीछे-पीछे जाती थीं. <strong>आनंद</strong> ने <strong>बुद्ध</strong> से पूछा कि ‘अगर औरतें कोशिश करें तो क्या वे निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं?’ जवाब में <strong>बुद्ध</strong> ने कहा-‘हां’, इस पर <strong>आनंद</strong> ने कहा कि ‘तब फिर आप उन्हें संघ में क्यों नहीं आने देते?’ क्योंकि निर्वाण प्राप्त करने के लिए संघ में आना जरूरी था।<br /></p><p style="text-align: justify;">सच तो यह है कि <strong>आनंद</strong> उस संपूर्ण प्रकरण में स्त्रियों का एकमात्र सुभेच्छु था जो इस सिद्धांत में विश्वास रखता था कि स्त्री और पुरुष समान रूप से निर्वाण के हकदार हो सकते हैं. <strong>बुद्ध</strong> की मृत्यु के बाद अनेक अवसरों पर इस बात के लिए <strong>आनंद</strong> की निन्दा की गई थी. प्रथमतः, <strong>महाप्रजापति गौतमी</strong> के मामले में संघ में प्रवेश के सवाल पर और द्वितीयतः रोती हुई माता के <strong>बुद्ध</strong> के अंतिम दर्शन के अवसर पर (<em>चुल्लवग</em> , पृष्ठ 411). संपूर्ण बौद्ध साहित्य में <strong>आनंद</strong> के अलावे किसी दूसरे व्यक्ति का उल्लेख तक नहीं मिलता जो स्त्रियों का पक्षधर हो. यह <strong>आनंद</strong> के व्यक्तित्त्व का मानवीय पहलू हो सकता है, लेकिन इस तरह का कोई उल्लेख शायद ही मिलता है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि <strong>बुद्ध</strong> या बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार था. यहां <em>अंगुत्तरनिकाय</em> (खंड-२, पृष्ठ ७६) का वह प्रसंग उल्लेखनीय है जब <strong>आनंद</strong> स्त्रियों के दरबार में नहीं बैठने एवं शील-चर्चा के क्रम में उपस्थित नहीं रहने के प्रश्न पर <strong>बुद्ध</strong> से चर्चा करता है।</p><p style="text-align: justify;">उस समय और उनके कायदे के अनुसार, इस प्रश्नोत्तर के क्रम में <strong>बुद्ध</strong> ने अंततः उन्हें संघ में आने दिया, लेकिन कायदे ऐसे बनाए कि संघ में भिक्षुणियों को भिक्षुओं के नीचे दबे रहना था। संघ को भिक्षु एवं भिक्षुणि इन दो संघों में बांटकर भिक्षु संघ को ऊपर का दर्जा दिया गया और भिक्षुणि संघ को उसके नीचे का। उन्होंने भिक्षुणियों के लिए दस शर्तें, नियम या कायदे बताए जिनके पालन के पश्चात ही औरतें संघ में आ सकती थीं। उनमें से एक बहुत ही चोट पहुंचानेवाला कायदा था कि चाहे जितनी भी वरिष्ठ भिक्षुणि हो उसके सामने चाहे जितना भी कनिष्ठ भिक्षु आ जाए, उसे उसको सलामी देनी पड़ेगी। भिक्षुणियों पर और भी कई सख्त प्रतिबंध थे। इसके साथ ही समान गलती के लिए भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों को अधिक सख्त दंड का भागी बनना पड़ता था। ऐसा आप कह ले सकते हैं कि यह औरत और मर्द के बीच स्थापित उच्च एवं निम्न के भेद को कायम रखने के लिए किया गया। इसका सीधा सा अर्थ था- औरतों को संघ के अंदर भी पुरुषों के दबाव में रखना।</p><p style="text-align: justify;">स्त्रियों के प्रति <strong>बुद्ध</strong> के विचार को बौद्ध साहित्य में वर्णित गाथाओं के माध्यम से भी समझा जा सकता है। एक गाथा (कोलिय जातक,१३०) इस प्रकार शुरू होती है- ‘वह एक श्रद्धालु उपासक ब्राह्मण की ब्राह्मणी थी; बहुत दुश्चरित्र, पापिन। रात को दुराचार करती थी. ... ब्राह्मण घर आता तो (रोग का) बहाना बनाकर लेट जाती। उसके बाहर जाने पर ‘‘जारों’’ के साथ गुजारती। वह ब्राह्मण <strong>बुद्धदेव</strong> का भक्त था-‘‘उपासक’’. (गृहस्थ बौद्ध को उपासक कहा जाता है)। वह ब्राह्मण तक्षशिला का स्नातक था और वाराणसी का प्रसिद्ध आचार्य भी था। सौ राजधानियों के क्षत्रिय राजकुमार उनके पास पढ़ा करते थे (देखें, <strong>मोहनलाल महतो वियोगी</strong>, <em>जातककालीन भारतीय संस्कृति</em> , पृष्ठ १४८).</p><p style="text-align: justify;">एक दूसरे ब्राह्मण की स्त्री भी घोर दुश्चरित्रा थी। ब्राह्मण भी अपनी पत्नी के अनाचार को जानता था। जब ब्राह्मण व्यापार के लिए जाने लगा तो अपने दो पालित पुत्रों को सचेत करता गया- ‘यदि माता ब्राह्मणी अनाचार करें, तो रोकना।’ पालित पुत्रों ने जवाब दिया- ‘रोक सकेंगे तो रोकेंगे, नहीं तो चुप रहेंगे।’ <em>जातक कथा</em> में यह वाक्य है- ‘उसके जाने के दिन से ब्राह्मणी ने अनाचार करना आरंभ किया। घर में प्रवेश करनेवालों और निकलनेवालों की गिनती नहीं रही। ब्राह्मण का वह घर क्या था, पूरा वेश्यालय! उसके धर्मपुत्र भी उदासीन रहकर सब कुछ देखते रहे’ (<em>राधजातक</em> , १४५).</p><p style="text-align: justify;"><em>राधजातक</em> (१७९) के अनुसार, ‘एक ब्राह्मण ने दो तोते पाले। ब्राह्मणी व्यभिचारिणी थी। ब्राह्मण तोतों को निगाह रखने का आदेश देकर व्यापार के उद्येश्य से कहीं चला गया। मौका मिलते ही ब्राह्मणी ने खुलकर अनाचार करना शुरू कर दिया।’</p><p style="text-align: justify;">पुनश्च, ‘किसी ब्राह्मण की पत्नी दुश्चरित्रा थी। एक नट को उसने घर में बुला लिया। ब्राह्मण घर से बाहर गया हुआ था। ब्राह्मणी ने नट को भात-दाल पकाकर खिलाया। वह जैसे ही खाने बैठा कि ब्राह्मण आ गया। नट को ब्राह्मणी ने छिपा दिया। ब्राह्मण ने भोजन मांगा तो नट की जूठी थाली में थोड़ा-सा भात डालकर ब्राह्मण के आगे घर दिया। ब्राह्मण खाने लगा। एक नट भिखमंगा, जो दरवाजे पर बैठा सब कुछ देख रहा था, ने ब्राह्मण से सारी कथा कह दी’ (<em>उच्छिट्ठभत्त जातक</em> , २१२).</p><p style="text-align: justify;">एक गाथा ऐसी है जिसमें बतलाया गया है कि एक ब्राह्मणी युवती ने अपने तुरंत के ब्याहे महापराक्रमी पति का खून डकैत सरदार के हाथ में तलवार पकड़ाकर करा दिया। उन्चास तीरों से उन्चास डकैतों को उस पराक्रमी ने ब्राह्मण ने मार गिराया। पचासवां व्यक्ति था डाकू-सरदार। अब ब्राह्मण के पास तीर न था। उसने डाकू सरदार को पटक दिया और अपनी स्त्री से तलवार मांगी। स्त्री उस डाकू-सरदार पर पहले ही मुग्ध हो चुकी थी। उसने तलवार डाकू-सरदार को पकड़ा दी और उस डाकू ने ब्राह्मण पर वार कर दिया। डाकू-सरदार के पूछने पर ब्राह्मणी ने कहा, ‘मैंने तुम पर आसक्त हो अपने कुल-स्वामी को मरवा दिया।’ वह डकैत भी ब्राह्मण ही था; क्योंकि उस ब्राह्मणी ने उसे ‘बाह्मण’ कह पुकारा था-‘सब्बं भण्डं समादाय पारं तिण्णोसि ब्राह्मण।’ (<em>चुल्लधनुग्गह जातक</em> , ३७४).</p><p style="text-align: justify;">एक ब्राह्मणी ऐसी थी जिसने अपने पति को भीख मांगकर धन जमा करने के लिए बाहर भेज दिया और खुद अनाचार में लिप्त हो गई। धन कमाकर ब्राह्मण जब लौटा, तब ब्राह्मणी ने उस धन को अपने उपपति को दे दिया (<em>सत्तुभस्त जातक</em> , ४०२).</p><p style="text-align: justify;"><em>जातकों</em> में उल्लिखित तथ्य एवं निष्कर्ष से भी स्त्रियों की सामाजिक हैसियत एवं उसके प्रति <strong>बुद्ध</strong> के विचार पर प्रकाश पड़ता है. <strong>बुद्ध</strong>, <strong>बोधिसत्व</strong> के रूप में एक बार भी मादा योनि में जन्म नहीं लेते हैं. पशु या मनुष्य दोनों ही कोटि के जीवों में वे नर रूप ही धारण करते हैं. <strong>बुद्ध</strong> सदैव स्त्रियों को घृणित, दुर्गंधयुक्त एवं व्यभिचारी बताते पाये जाते हैं. ( <strong>डॉक्टर अशोक कुमार</strong>, <em>बौद्ध परंपरा में स्त्रियों का स्थान</em> , पोस्ट डॉक्टोरल थीसिस,आई .सी एच .आर .हेतु शोधरत). <strong>बुद्ध</strong> की स्पष्ट घोषणा है कि वह देश रहने योग्य नहीं है जहां स्त्री शासक है (<em>कंडिन जातक</em> ) . स्त्रियां आम तौर पर असंगत और पापिणी प्रकृति की होती हैं (<em>असात्मंत्र जातक</em> ). स्त्रियों की प्रकृति एवं चरित्र संदिग्ध है (अंडभूत जातक). <strong>बोधिसत्व</strong> लोक-प्रसिद्ध आचार्य के रूप में अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं कि आमतौर पर स्त्रियां व्यभिचारिणी होती हैं. अतएव बुद्धिमान पुरुष के लिए यही उचित है कि उसकी प्रकृति को समझें, घृणा न करें। स्त्रियां उस धर्म-स्थल की नदी के समान होती हैं जहां साधु और चांडाल दोनों स्नान करते हैं (<em>अनभिरत् जातक</em> )।</p><p style="text-align: justify;"><em>जातकों</em> के अलावे भी बौद्ध साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं जो स्त्रियों के प्रति <strong>बुद्ध</strong> एवं बौद्ध धर्म के नजरिये को स्पष्ट करने में सहायक हो सकते हैं। कहना होगा कि सर्वत्र स्त्रियों को काला नाग, दुर्गंध, व्यभिचारिणी और पुरुषों को फांसनेवाली कहा गया है (<em>अंगुत्तरनिकाय</em> , खंड-1, पृष्ठ २६३). स्त्रियों को रहस्यमयी कहा गया है. स्त्रियां अपने दुर्गुणों एवं दुराचारी प्रवृत्ति के कारण सामाजिक कर्मों में हिस्सेदार नहीं हो सकती थीं। महत्त्वपूर्ण है कि स्त्रियों के संबंध में ये विचार किसी एक स्त्री को ध्यान में रखकर नहीं व्यक्त किये गये थे, बल्कि स्त्रियों की प्रकृति पर विचार करते हुए सामने आये हैं।</p><p style="text-align: justify;">इस तरह, हम पाते हैं कि बौद्ध साहित्य में स्त्रियों के इर्द-गिर्द जिस तरह की घेराबंदी कर दी गई थी, उससे पूर्ववर्ती एवं परवर्ती ब्राह्मण साहित्य की मान्यताओं का अनायास स्मरण हो आता है, जहां स्त्रियां अपने पति और पुत्र की निगरानी में ही सुरक्षित रह सकती थीं। बौद्ध साहित्य भी इस बोध से परे नहीं है (<em>अंगुत्तरनिकाय</em> , खंड-२, पृष्ठ ७६). स्त्रियों की मूल भूमिका पति की विश्वासी सेविका की थी (वही, खंड-३, पृष्ठ २४४,३६१-६७). स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्त्व एवं स्वतंत्र दायित्त्व के अस्तित्त्व की कल्पना का घोर अभाव उसे घर और पितृसत्तात्मक मूल्यों से ही बंधे रहने को प्रेरित करता था। स्वयं <strong>बुद्ध</strong> की नजरों में भी यह कल्पना से परे था कि कोई स्त्री तथागत या चक्रवर्ती भी हो सकती है (<em>अंगुत्तरनिकाय</em> , खंड-१, पृष्ठ २९). </p><p style="text-align: justify;">अतएव विचारणीय प्रश्न है कि सामाजिक-धार्मिक जीवन में हिस्सेदारी से स्त्रियों को अलग/वंचित रखकर किस प्रकार बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार हो सकता था ?</p><a rel="async-post" href="http://www.facebook.com/notes/drraju-ranjan-prasad/buddha-ka-stri-vimarsa/138104356243903#"><br /></a></div></div><form class="commentable_item autoexpand_mode" method="post" action="/ajax/ufi/modify.php"><br /><br /></form>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-16088615242171737832010-12-13T08:14:00.005+05:302011-02-14T22:27:57.411+05:30सवाल वेदों की भाषा का है<p style="text-align: justify;">मैं पिछले कई सालों से एक सवाल से अपने को बेहद घिरा महसूस कर रहा हूँ। सवाल वेदों की भाषा से सम्बंधित है। कहना होगा कि इस दौरान मैंने कुछ देशी–विदेशी विद्वानों को भी पढ़ा। मेरी सूची में <span style="font-weight: bold;">ए. बी. कीथ, मैक्स मूलर, मौरिस विन्तर्निज</span> और <span style="font-weight: bold;">रामविलास शर्मा</span> प्रमुख रूप से शामिल रहे हैं. इनलोगों ने मेरी मदद नहीं की बल्कि समस्या को और जटिल ही बनाया. बल्कि मैं यह कह सकता हूँ कि इन विद्वानों के अध्ययन से अपने सवाल को लेकर मेरा जो एक विश्वास था वह कमजोर ही हुआ है. सब ने एक मत से वेदों की भाषा का बखान किया है-कभी-कभी तो वे मुग्ध भी लगते हैं.<br /></p><p style="text-align: justify;">दूसरी तरफ मैं पता हूँ कि वैदिक समाज की भाषा एक वैसे दौर में है जहां अनेक चीजों के लिए एक शब्द प्रयोग में लाया जा रहा है। उदहारण के तौर पर ‘मृग’ शब्द को लिया जा सकता है जिसका मूल अर्थ पशु था जो मलयालम में आज भी सुरक्षित है, लेकिन सामान्य अर्थ से विशेष अर्थ की ओर भाषा की प्रगति के कारण इसका अर्थ एक विशेष पशु हो गया। वास्तव में मृग का मूल अर्थ था–जिसे ढूंढा जाये (मृग्यते इति मृगः). मृगया में शिकार सम्बन्धी अर्थ और मृगेन्द्र, मृगराज (पशुओं का राजा सिंह), शाखामृग (बन्दर),मृगहस्तिन (हाथी) में पशुमात्र का अर्थ अब भी सुरक्षित है. मुझे यह देखकर लगभग आश्चर्य होता है कि संस्कृति के पुरोधा, अर्थात स्वयं मनुष्य के लिए भी कभी–कभी मृग शब्द से ही काम चलाया जा रहा है. ‘गो’ शब्द का भी कुछ ऐसा ही हाल मिलता है. मैंने इस शब्द की गिनती तो कभी की नहीं लेकिन बीस से भी ज्यादा चीजों के लिए प्रयुक्त होते स्पष्ट तौर से देखा है. <br /></p><p style="text-align: justify;">इस तरह के जो साक्ष्य हमें प्राप्त हैं वे बताते हैं कि आरंभिक संस्कृत की शब्द-सम्पदा निर्माण के क्रम में है. उनके समक्ष विवशता है कि एक शब्द का व्यवहार अनेक भौतिक वस्तुओं के लिए करें. बावजूद इसके विद्वान वेदों की भाषा पर मुग्ध हैं. मेरा सवाल यही है कि ये दोनों ही स्थितियां एक साथ संभव हैं क्या ? या कि कोई तीसरी ही स्थिति है ?</p>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-34135891671593920082010-11-20T07:09:00.004+05:302010-11-20T07:20:37.063+05:30आखिर किसे कहोगे क्रूरता ?<div style="text-align: justify;"><span>जब</span> भी मुझसे कोई क्रूरता की शिनाख्त करने को कहता है तो मैं अपने को बेहद उलझा हुआ महसूस करता हूं। विचार थिर होने का नाम ही नहीं लेते। समझ में नहीं आता कि किसे क्रूरता की श्रेणी में रखूं और किसे बख्श दूं। दिमाग में ऐसा गड्डमड्ड होता है कि आखिर को मैं फिर से सवाल पर लौट आता हूं कि आखिर किसे कहोगे क्रूरता ? लेकिन इस दौरान जो कुछ चित्र बनते हैं, दृश्य उपस्थित होते हैं, वे अर्थकर लगते हैं।<br /><br />बचपन की वो धुंधली यादें हैं जिनमें मेरे दरवाजे पर कोई अपरिचित पहुंचता तो दादाजी पहले और अंतिम सवाल की तरह पूछते ‘आपका आश्रय (मूल में यह शब्द वर्णाश्रम या फिर आश्रम रहा होगा) कौन-सा है ?’ यद्यपि उन दिनों यह बात कुछ बुरी नहीं लगती थी क्योंकि मुझे सवाल ही समझ में न आते थे। लेकिन इतना अवश्य समझता था कि अलग-अलग लोगों को अलग-अलग स्थानों पर बैठाते एवं उनके साथ पेश आने के उनके तरीके भी अलग-अलग होते थे। कुछ खास लोग ही होते जिनकी पहुंच खाट या चौंकी तक हो पाती वरना अधिकतर तो मिट्टी ही की फर्श पर बैठकर अपने को धन्य समझते। प्राचीन इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते जब मैंने प्राचीन समाज-व्यवस्था में इसी तरह की बंदिशें शूद्रों और महिलाओं के संदर्भ में देखीं और उसे अमानवीय पाया तो अपने दादाजी के ‘सदाचार’ का अर्थ समझ में आया। बहुत ही सरल, सहज और अल्पज्ञात दादाजी अक्सर कहते ‘हिंदू बढ़े नेम से मुसलमान बढ़े कुनेम से।’ इसका भी ध्वन्यार्थ अब ही जाकर समझ में आया है।<br /><br />फिर मैंने पिता को देखा। अत्यंत छोटे किसान। एक बड़े संयुक्त परिवार में अपने हिस्से की उतनी ही जमीन जितनी पिता खेत में काम करनेवाले एक हलवाहे को देते थे। मैंने अक्सर पाया कि मजदूर अगर काम से लौटकर अपनी मजदूरी की मांग करता तो पिता खुदरा पैसे (रेजगारी) न होने की बात कह मजदूर को अगले दिन के लिए टाल देने की भरसक कोशिश करते। मुझे अपने पिता की यह बात बहुत बुरी लगती। इधर कई सालों तक लगातार मैंने पब्लिक स्कूलों में पढ़ाया और कई तरह के अनुभवों से अपने को समृद्ध होता पाया। पटने के पब्लिक स्कूलों में मालिक हमेशा शिक्षकों को वेतन देने में टाल-मटोल करते हैं। शायद कोई मौद्रिक लाभ होता है इससे। और तो और यह भी परंपरा है कि शिक्षकों को चेक के द्वारा मालिक से वेतन-भुगतान होता है और एक नियत राशि अपने पास रखकर शेष राशि शिक्षक पुनः मालिक को लौटा देता है। पब्लिक स्कूलों की बात रहने दें। सरकारी शिक्षकों एवं अन्य सरकारी कर्मचारियों की बात करें। क्या उनके हिस्से के पैसे रोककर नहीं रखे जाते ? आज कितने लोगों को यह बात क्रूरता या क्रूरता-सी लगती या लग सकती है ?<br /><br />इधर हाल तक एक गीत की कुछ पंक्तियां मुझे सुनायी पड़ती रही हैं। मैं कभी गाने का कोई शौकीन नहीं रहा इसलिए उसका गद्यार्थ ही आपको कह सकता हूं। भावार्थ है कि मुझसे प्रेम न करो कोई बात नहीं लेकिन किसी और को चाहने पर मुश्किल होगी। मैं गीत के इस टुकड़े पर बार-बार रूकता रहा हूं और सोचता हूं कि क्या यह वही या कुछ-कुछ उसी के जैसा है जिसे आप क्रूरता कहते हैं ? हाल ही की बात है कि मैं एक महिला मरीज को लेकर आंख के डाक्टर के पास गया हुआ था। उस मरीज को निकट-दृष्टि-दोष था। डाक्टर ने आंखों की जांच के उपरांत बताया कि यह बीमारी दूर की चीजों को न देखने के अभ्यास की वजह से पैदा हुई है। पहली दफा में तो मैं इस बात का मतलब ही नहीं समझ पाया। कई दिनों के निरंतर प्रयास के बाद जाकर इसका मर्म समझ में आया। क्या आपको लगता है कि पुरुष प्रधान समाज की यह भी कोई क्रूरता है जहां एक औरत को महज देखने तक का भी अधिकार नहीं है। क्या <span style="font-weight: bold;">गांधारी</span> की आंखों की पट्टी सिर्फ <span style="font-weight: bold;">गांधारी</span> के लिए थी या प्रतीक रूप में संपूर्ण महिला वर्ग के ऊपर लगी बंदिश को प्रतिबिंबित करती है ? एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में कुल नेत्रहीनों तथा मोतियाबिंद के शिकार लोगों में से दो तिहाई महिलाएं हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ रोग विशेषज्ञ <span style="font-weight: bold;">डा. लीवी एस मूर्ति</span> ने कहा कि विश्व भर में नेत्र रोगों तथा नेत्रहीनता के शिकार लोगों में से महिलाओं की संख्या सर्वाधिक होने का एक प्रमुख कारण यह है कि महिलाओं और लड़कियों के उपचार में भेदभाव बरता जाता है जिसे बंद किया जाना चाहिए। आनेवाले समय में लड़कियां अगर आंखों की रोशनी के बगैर पैदा हों तो क्या आश्चर्य!<br /><br />बल्कि हमने तो प्रबंध कर रखा है कि लड़कियां पैदा ही न हों। एक समय था कि लड़की के पैदा होते ही उसे मार डालने के उपक्रम पर विचार होने लगता था। आज हम ‘मध्ययुगीन बर्बरता’ कहते हुए उसकी भर्त्सना करते हैं। भला क्यों नहीं! आधुनिक/उत्तर आधुनिक समय में हमारी क्रूरता भी आधुनिक/उत्तर आधुनिक होनी चाहिए! नये जमाने के नये औजार। आज हम उसकी हत्या जन्म लेने से पहले करते हैं। बिल्कुल थोड़ी-सी सावधानी जीवन भर आसानी वाली शैली में। इसलिए भी कि जन्म लेने के बाद हत्या करने पर न चाहने पर भी थोड़ी-बहुत चिल्ल-पों हो ही जाया करती है। आपको याद ही होगा कि रूपकुंवर सती-कांड के दौरान और बाद में भी इस ‘भद्रजनीय’ समाज ने कितना गला फाड़ा था। इसलिए ज्यादा बखेड़ा खड़ा करने की परेशानी से बचने के लिए ही लोगों ने कन्या-भ्रूण-हत्या जैसी चीज की ईजाद की। इस खोज ने मीडियाकर्मियों को भी चपत लगाई है। बेचारे सतीकांड का लाइव टेलीकास्ट दिखाने से वंचित रह जायेंगे। <br /><br />इस क्रूरता को आधुनिक कहने का एक बाजिव तर्क यह भी है कि आधुनिकता का पाठ पढ़े लोगों के बीच यह पद्धति कुछ ज्यादा ही प्रचलित है। आंकड़े बताते हैं कि कन्या-भ्रूण-हत्या की दर गांवों से ज्यादा नगरों की एवं नगरों से ज्यादा महानगरों की है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ वाले देश की संसद जिस नगरी में लगती है, इसकी दर सबसे ज्यादा है। इससे भी ज्यादा पुष्ट प्रमाण यह है कि दिल्ली के उन इलाकों में कन्या-भ्रूण-हत्या ज्यादा है जहां के लोग ज्यादा शिक्षित/आधुनिक हैं। जिनकी शिक्षा जितनी अधिक व आधुनिक है वे उतने ही अधिक इस तरकीब का प्रयोग करते हैं। कुछ दिनों पहले जब मैंने एक दिल्लीवासी से कहा कि दिल्ली के विश्वविद्यालयों तक में यौन-शोषण/यौन-उत्पीड़न होता है तो कहने लगे ‘दरअसल बिहार में यह सब ज्यादा होता है लेकिन दबा-दबा रहता है। दिल्ली में चूंकि राजनीतिक चेतना ज्यादा है इसलिए प्रकट हो जाता है।’ उस देश में जहां पालतू जानवरों तक को जोड़ा में रखने का विधान है; यानी अगर आप केवल नर या केवल मादा पालते हैं तो कानून की नजर में आप अपराधी हैं। संवेदना की ऐसी पराकाष्ठा! और दूसरी तरफ कन्या-भ्रूण-हत्या। इसे क्या कहेंगे आप ?<br /><br />कुछ साल पहले तक मेरे एक मित्र हुआ करते थे। नाम था <span style="font-weight: bold;">शैलेन्द्र कुमार</span>। <span style="font-weight: bold;">कुमार साहब</span> ने एक दिन आंख के डाक्टर के पास साथ चलने को कहा। मैं गया भी। डाक्टर ने उन्हें चश्मे का प्रयोग करने की सलाह दी। चश्मा बनवाया गया। अब उसे पहनने की बारी थी इसलिए पिता को पहले ही से तैयार करना जरूरी था। उन्होंने पिता को चश्मा दिखाया। पिता ने चश्मा अपने कब्जे में कर लिया और रोजाना एक किलो पालक साग खरीदकर लाने का आदेश दे डाला। मेरे मित्र बेचारे चश्मा नहीं पहन पाये। बाद में उनकी आंखों का क्या हुआ मुझे नहीं मालूम क्योंकि फिर हम अलग रहने लगे। मैंने पब्लिक स्कूल में भी एक मुस्लिम छात्र को पिता के भय से चश्मा न पहनने की बात देखी थी। खुद मैं जब पहली बार ऐनक के साथ घर गया और अंधेरे में पड़ी बाल्टी से टकरा गया तो एक आदमी ने टिप्पणी की थी ‘रातो में चश्मा पहने के कउन सौख है।’ यह सुनकर जो मुझे गुस्सा आया था उसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। पत्नी को चश्मा पहनवाने में भी मुझे मशक्कत करनी पड़ी। गांव में जरूरतमंद लड़कियां केवल इस डर से चश्मा नहीं लगातीं कि शादी तय होने में यह बात परेशानी पैदा कर सकती है। ऐसे में उन लड़कियों की आंखों का क्या होता होगा शायद आप भी समझते होंगे। गांव में मेरे पड़ोस में एक लड़की है जिसकी चश्मा न लगाने की वजह से आंख ही बैठ गई। हमें अपने बचपन की वो बात याद है जब चश्मा पहनने वाले किसी भी आदमी को ‘चश्मा-चश्मल्लू’ कह चिढ़ाते। उन दिनों बच्चों का यह एक प्रिय खेल की तरह होता। क्या इसे भी आप क्रूरता ही कहेंगे ? <br /><br />मैंने <span style="font-weight: bold;">श्रीकांत वर्मा </span>की पत्नी का कभी किसी पत्रिका में संस्मरण पढ़ा था। उसमें <span style="font-weight: bold;">श्रीकांत वर्मा </span>की बीमारी (अंतिम दिनों की) और मृत्यु का हाल छपा था। कवि <span style="font-weight: bold;">श्रीकांत वर्मा </span>बीमार थे और सरकारी खर्चे से शायद इंगलैंड में इलाज चल रहा था। बीमारी कुछ ऐसी थी कि डाक्टर ने बचने की किसी भी संभावना से इनकार कर रखा था। साथ ही उन्हें असह्य पीड़ा भी थी। पत्नी को भी उनकी पीड़ा असह्य लगी और डाक्टर एवं दवा की सहायता से कवि को उस पीड़ा से हमेशा के लिए मुक्त कर दिया गया। इस बात को पढ़ते हुए मुझे एक मानसिक आघात-सा लगा था लेकिन जल्द ही संभल गया। पत्नी द्वारा लिया गया निर्णय मुझे बौद्धिक एवं साहसपूर्ण लगा था। भारतीय कानून एवं मानस के लिहाज से यह एक जघन्य अपराध था। यहां आज भी इच्छा-मृत्यु का अधिकार नागरिकों को प्राप्त नहीं है। इसकी बात तो दूर ही रखें। गरीबी, भुखमरी, कुपोशण आदि तक को आप किसी व्याधि का नाम जीवित रहते नहीं दे सकते। शायद उसके लिए आपको पहले मृत्यु-प्रमाण-पत्र हासिल करना होगा। <span style="font-weight: bold;">नागार्जुन</span> की कविता <span style="font-style: italic;">‘प्रेत का बयान ’</span> का शायद यही निहितार्थ है। आप भूख से मरें किंतु भुखमरी का नाम न लें। अगर ऐसा करते हैं तो आप दंडनीय अपराध करते हैं। इसके लिए भारतीय दंड संहिता का विधान है। आपके बच्चे अगर विकलांग पैदा होनेवाले हैं, और आप पालने में असमर्थ हैं तो सामूहिक आत्महत्या करें। दूसरा कोई विकल्प नहीं। भारतीय कानून आपको ‘क्रूर’ होने का अधिकार प्रदान नहीं कर सकता !<br /><br />कुछ साल हुए जब कुंभकोणम में सैकड़ों स्कूली बच्चे जलकर बुरी तरह से मरे थे। बच्चों के बीच खासे ‘लोकप्रिय’ तत्कालीन वैज्ञानिक राष्ट्रपति <span style="font-weight: bold;">अब्दुल कलाम आजाद</span> की उन्हीं दिनों अंग्रेजी अखबार ( संभवतः ‘दि हिन्दू’ ) में एक कविता आई थी जिसमें ईश्वर से प्रार्थना थी कि उन बच्चों के अभिभावकों को वे दुख बर्दाश्त करने की ताकत दें। इस कविता को पढ़कर मेरा सिर भन्ना गया था कि एक राष्ट्रपति, जिसे मालूम है कि दुख के कारण क्या हैं और जिन्हें वह चाहे तो पल भर में दूर कर सकता है, वह हिंदी कवियों (अपवाद यहां भी हैं ) की तरह कविता लिखने बैठा है ! मुझे नहीं मालूम कि आप क्या सोचते हैं। इस क्रूरता की शिनाख्त आपने की अथवा नहीं?<br /><br />सन् 1997 के <span style="font-weight: bold;">इंडिया टुडे</span> की साहित्य वार्षिकी में <span style="font-weight: bold;">अशोक वाजपेयी</span> का प्रकाशित संस्मरण ‘तुम भी, मैं भी आदमी’ पढ़कर मन कड़वाहट से भर गया था। <span style="font-weight: bold;">वाजपेयी जी</span>, <span style="font-weight: bold;">मुक्तिबोध</span> के साथ रेल-यात्रा पर हैं। उन्होंने लिखा है, ‘बीच में जब मानिकपुर स्टेशन आया तो जाड़े की रात और ठंडी हो चुकी थी। वहां जंक्शन होने के कारण गाड़ी काफी देर ठहरी। हमलोग इलाहाबाद से रात के खाने का कोई इंतजाम कर के नहीं चले थे। <span style="font-weight: bold;">मुक्तिबोध</span> ने कहा, ‘‘पार्टनर, आपने स्टेशन पर मिलने वाली पूरी-सब्जी कभी खाई है। बड़ी स्वादिष्ट होती है, चलिए लाते हैं।’’ हम दो दोनों में आलू की सब्जी और पूरियां ले आए। आलू की सब्जी रसेदार थी और उसमें रसाधिक्य इतना था कि तलहट में कहीं कुछ आलू होने का संदेह जरूर होता था पर वह वहां भी था नहीं। पूरियां किसी कदर ठंडी, चीमड़ और खासी सख्त थीं, मैंने देखा <span style="font-weight: bold;">मुक्तिबोध</span> बहुत स्वाद लेकर उन्हें रसे में भिगोकर खा रहे थे। मुझसे इतनी सख्त पूरियां चबाई ही नहीं जा रही थीं। पर उस बारे में कुछ कहना बल्कि उन्हें पसंद न कर पाना <span style="font-weight: bold;">मुक्तिबोध</span> के आगे मुझे कुछ अश्लील-सा लगा। मैंने थोड़ा-बहुत खाकर उनकी नजर बचाकर बाकी चलती ट्रेन की खिड़की के बाहर फेंक दी। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने यह लक्ष्य किया कि मेरे हाथ खाली हैं तो बोले कि ‘‘आप जल्दी खा गए-स्वादिष्ट इतनी है कि क्या कहा जाए।’’ तब यह पढ़कर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा था। आज की बात आप जाने।<br /><br /><span style="font-weight: bold;">महादेवी वर्मा</span> ने देश के प्रथम राष्ट्रपति <span style="font-weight: bold;">डा. राजेन्द्र प्रसाद</span> के घर का हाल लिखा है। उनके घर का रिवाज था कि कोई अतिथि घर आते तो उनकी पत्नी पैर छूकर प्रणाम करतीं। उनकी इस अतिरिक्त की शिष्टता से रीढ़ की हड्डी ने सीधा रहने से इनकार कर दिया था। संभव है कि यह भी आपको सदाचार का एक अति सामान्य और शिष्ट नियम लगे लेकिन मुझे ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से क्रूरता की गंध आती है। मजेदार बात यह है कि इन बातों का हमें इस कदर आदती बना दिया जाता है कि इसमें कोई बुराई नजर ही नहीं आती। स्वयं भोक्ता को भी नहीं। आपको यह जानकर कितनी तसल्ली होगी कि बिल्कुल हाल के एक सर्वेक्षण से यह बात उभर कर आई है कि पत्नियां अपने पति द्वारा पीटे जाने को तनिक बुरा नहीं मानती हैं। मैं तो कहूंगा कि यह क्रूरता की पराकाष्ठा है इस खतरे को भांपते हुए कि आप मुझे मनोरोग का ‘केस’ न समझ लें। अगर नहीं, तो आखिर किसे कहोगे क्रूरता? <br /><br /><span style="font-weight: bold;">प्रकाशन:</span> <span style="font-style: italic;">मनोवेद डाइजेस्ट</span> , अक्तूबर-दिसंबर, <span>२००९</span>. <br /></div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-14047212887387948462010-11-17T19:49:00.007+05:302010-11-17T20:31:37.815+05:30शोध के बहाने कुछ ‘मौलिक‘ बातें<div style="text-align: justify;"><!--[if gte mso 9]><xml> <o:officedocumentsettings> <o:relyonvml/> <o:allowpng/> </o:OfficeDocumentSettings> </xml><![endif]--><!--[if gte mso 9]><xml> <w:worddocument> <w:view>Normal</w:View> <w:zoom>0</w:Zoom> <w:trackmoves/> <w:trackformatting/> <w:punctuationkerning/> <w:validateagainstschemas/> <w:saveifxmlinvalid>false</w:SaveIfXMLInvalid> <w:ignoremixedcontent>false</w:IgnoreMixedContent> <w:alwaysshowplaceholdertext>false</w:AlwaysShowPlaceholderText> <w:donotpromoteqf/> <w:lidthemeother>EN-US</w:LidThemeOther> <w:lidthemeasian>X-NONE</w:LidThemeAsian> <w:lidthemecomplexscript>HI</w:LidThemeComplexScript> <w:compatibility> <w:breakwrappedtables/> <w:snaptogridincell/> <w:wraptextwithpunct/> <w:useasianbreakrules/> <w:dontgrowautofit/> <w:splitpgbreakandparamark/> <w:dontvertaligncellwithsp/> <w:dontbreakconstrainedforcedtables/> <w:dontvertalignintxbx/> <w:word11kerningpairs/> <w:cachedcolbalance/> </w:Compatibility> <m:mathpr> <m:mathfont val="Cambria Math"> <m:brkbin val="before"> <m:brkbinsub 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आपके दृष्टिकोण का पता चलता है. यह क्रम ही है जो आपके विचारों को एक शक्ल और अभिव्यक्ति देता है. कई बार महज इस क्रम को बदल देने से, तथ्यों में हेरा –फेरी किये बिना, दूसरे ही अर्थ उद्भाषित होने लगते हैं. इस क्रम से तथ्यों/कारणों में एक तारतम्यता बनती है. यह तारतम्यता महत्वपूर्ण है. इसे एक उदहारण के द्वारा हम शायद और आसानी से समझ सकते हैं. मान लीजिए, किसी घटना के आप पांच कारण बता रहे हैं. इन पांचों का आपने क्रम का ध्यान दिए बगैर महज उल्लेख कर दिया है. एक दूसरा शोधार्थी उन्हीं पांच कारणों को एक नए क्रम में सजा सकता है जिससे वह यह भी दिखा सकता हो कि कौन एक मूल कारण अन्य कारणों को जन्म दे रहा है. क्योंकि मूल कारण एक ही होता है, बाकी उसी कारण का परिणाम होते हैं. कारणों के इस क्रम को दिखाना ही एक शोधार्थी की अपनी विशिष्टता और मौलिकता है. ध्यान रहे कि यह मौलिक शोधार्थी भी उन्हीं पांच कारणों को कट–पेस्ट कर रहा है. इससे ज्यादा मौलिकता का अक्सर मुझे इतिहास, साहित्य के बड़े नामवर शोधार्थियों में भी अभाव दिखता है. इतिहास में मैं <span style="font-weight: bold;">कोसंबी, रोमिला थापर </span>के बाद <span style="font-weight: bold;">रामशरण शर्मा </span>को एक बड़े शोधार्थी-इतिहासकार के रूप में देखता था. उनकी किताब-<span style="font-style: italic;">‘मटेरिअल कल्चर एंड सोशल फोर्मेशंस’</span> को बड़े चाव, विश्वास और आदर के साथ पढ़ता था. सोचता था कि प्राचीन भारतीय इतिहास का इससे बढ़िया मार्क्सवादी लेखन फ़िलहाल संभव नहीं. मैं आपको बताऊँ कि <span style="font-weight: bold;">मोरिस विन्तेर्नित्ज़ </span>की किताब <span style="font-style: italic;">‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर ' </span>पढ़ने के बाद <span style="font-weight: bold;">शर्मा जी </span>की किताब के बारे में मेरी धारणा बदल गई. मजेदार है कि <span style="font-weight: bold;">विन्तेर्नित्ज़</span> को पढ़ते हुए हमेशा ही लगा कि मैं <span style="font-weight: bold;">प्रोफ़ेसर आर. एस. शर्मा </span>को पढ़ रहा हूँ. इतने आधुनिक/समकालीन हैं <span style="font-weight: bold;">विन्तेर्नित्ज़</span>. इसी बात को दूसरे शब्दों में कहें कि दोनों लेखकों में फासला बहुत ही कम का है.</span> </p><p style="text-align: justify;" class="MsoNormal"><span style="line-height: 115%;font-family:Mangal;font-size:100%;" lang="HI" ><span>इस</span> <span>कट</span>–<span>पेस्ट</span> <span>वाले</span> <span>लेखन</span> <span>से</span> <span>बाहर</span> <span>की</span> <span>दुनिया</span> <span>में</span> <span>भी</span> <span>हमारी</span> <span>मौलिकता</span> <span>की</span> <span>मांग</span> <span>एकदम</span> ‘<span>मौलिक</span>’ <span>नहीं</span> <span>हो</span> <span>सकती</span>. <span>इसका</span> <span>जरूरत</span> <span>से</span> <span>ज्यादा</span> <span>आग्रह</span> <span>निरंतरता</span> <span>का</span> <span>नकार</span> <span>हो</span> <span>शायद</span>. <span style="font-weight: bold;">डार्विन</span> <span>का</span> <span>महान</span> <span>विकासवादी</span> <span>सिद्धांत</span> <span>को</span> <span>भी</span> <span>इसी</span> <span>निरंतरता</span> <span>में</span> <span>देखा</span> <span>जाना</span> <span>चाहिए</span>. <span>यह</span> <span>खोज</span> <span>एक</span> <span>अकेले</span> <span style="font-weight: bold;">डार्विन</span> <span>की</span> <span>उपलब्धि</span> <span>नहीं</span> <span>है</span>, <span>बल्कि</span> <span>उन्हीं</span> <span>के</span> <span>परिवार</span> <span>के</span> <span>कई</span> <span>लोग</span> <span>इस</span> <span>विषय</span> <span>पर</span> <span>काम</span> <span>करते</span> <span>हुए</span> <span>इनसे</span> <span>पहले</span> <span>अपना</span> <span>योगदान</span> <span>दे</span> <span>चुके</span> <span>थे</span>. <span style="font-weight: bold;">मार्क्स</span>, <span>जो</span> <span>बीसवीं</span> <span>शताब्दी</span> <span>के</span> <span>सबसे</span> <span>बड़े</span> <span>और</span> <span>सबसे</span> <span>क्रांतिकारी</span> <span>विचारक</span> <span>हुए</span>, <span>वे</span> <span>भी</span> <span>अपने</span> <span>को</span> <span>एकदम</span> <span>मौलिक</span> <span>नहीं</span> <span>मानते</span>. <span>उन्होंने</span> <span>भी</span> <span>केवल</span> <span>इतना</span> <span>ही</span> <span>किया</span> <span>कि</span> <span>अबतक</span> <span>जो</span> <span>चीजें</span> <span>सिर</span> <span>के</span> <span>बल</span> <span>खड़ी</span> <span>थीं</span> <span>उसे</span> <span>पैर</span> <span>के</span> <span>बल</span> <span>खड़ा</span> <span>किया</span>. <span>परंपरा</span> <span>और</span> <span>परिवर्तन</span> <span>के</span> <span>बीच</span> <span>इतना</span> <span>ही</span> <span>मौलिक</span> <span>हुआ</span> <span>जा</span> <span>सकता</span> <span>है</span>. <span>इससे</span> <span>ज्यादा</span> <span>मौलिकता</span> <span>की</span> <span>मांग</span> <span>विशुद्ध</span> <span>कल्पना</span> <span>होगी</span> <span>जिसका</span> <span>कोई</span> <span>वैज्ञानिक</span> <span>आधार</span> <span>नहीं</span> <span>होगा</span>. <span>इससे</span> <span>ज्यादा</span> <span>मौलिक</span> <span>वही</span> <span>हो</span> <span>सकता</span> <span>है</span> <span>जिसे</span> <span>अपने</span> <span>जीवनकाल</span> <span>में</span> <span>कुछ</span> <span>लिखना</span> <span>न</span> <span>हो</span>. <span>इससे</span> <span>ज्यादा</span> <span>मौलिकता</span> <span>तो</span> <span>शायद</span> <span>स्वयं</span> <span>प्रकृति</span> <span>में</span> <span>भी</span> <span>संभव</span> <span>नहीं</span> <span>है</span>. <span>यहाँ</span> <span>भी</span> <span>एक</span> <span>क्रम</span> <span>है</span>. <span>हम</span> <span>बंदरों</span> <span>के</span> <span>बगैर</span> <span>मनुष्य</span> <span>की</span> <span>कल्पना</span> <span>नहीं</span> <span>कर</span> <span>सकते</span>. <span>हम</span> <span>इतने</span> <span>ही</span> <span>मौलिक</span> <span>हैं</span> <span>कि</span> <span>आज</span> <span>भी</span> <span>किसी</span> <span>को</span> <span>बचकानी</span> <span>हरकत</span> <span>करते</span> <span>देख</span> <span>झट</span> <span>उसकी</span> <span>तुलना</span> <span>बन्दर</span> <span>से</span> <span>कर</span> <span>देते</span> <span>हैं</span>. <span>हमारी</span> <span>कई</span> <span>हरकतें</span> <span>आज</span> <span>भी</span> <span>हमें</span> ‘<span>बन्दर</span>’ <span>होने</span> <span>का</span> <span>अहसास</span> <span>करा</span> <span>जाती</span> <span>हैं</span>. <span style="font-weight: bold;">रजनीश</span> (<span>उन्हें</span> <span>भगवान</span> <span>माननेवाले</span> <span>मुझसे</span> <span>नाराज</span> <span>होने</span> <span>का</span> <span>सुख</span> <span>उठा</span> <span>सकते</span> <span>हैं</span>) <span>होते</span> <span>तो</span> <span>कहते</span>, <span style="font-weight: bold;">हमसे कहीं ज्यादा मौलिक तो बन्दर थे जिसने आदमी पैदा किया और आदमी है कि अपनी कार्बन कॉपी देकर ही मौलिक होने– करने का ढोंग रच रहा है.</span> <span>यह</span> ‘<span>ढोंग</span>’ <span>ही</span> <span>मौलिक</span> <span>हो</span> <span>शायद</span> ! <span style=""> </span><span style=""> </span><span style=""> </span><span style=""> </span><span style=""> </span><span style=""> </span><span style=""> </span><span style=""> </span><span style=""> </span></span></p>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-65480178113505911032010-11-14T08:30:00.007+05:302010-11-14T09:25:50.977+05:30नेहरु और भारतीय भाषा-साहित्य<div style="text-align: justify;"><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1v4YyQzphC2HHPgaUNlkTWoKqc-ReNzMNYyHVqs2AS8QO9nr9ynnUaxkNjOeyC86xBAwgbx6VRfx2bWXx3IAPaRdifvcDsqO6d_urEznZPyO3TeIxKHfd69AGiD0jVV41OyVyVDLc0W_j/s1600/The%252Bsmoker.jpg"><img style="float: left; margin: 0pt 10px 10px 0pt; cursor: pointer; width: 320px; height: 298px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1v4YyQzphC2HHPgaUNlkTWoKqc-ReNzMNYyHVqs2AS8QO9nr9ynnUaxkNjOeyC86xBAwgbx6VRfx2bWXx3IAPaRdifvcDsqO6d_urEznZPyO3TeIxKHfd69AGiD0jVV41OyVyVDLc0W_j/s320/The%252Bsmoker.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5539245019564693842" border="0" /></a><br /><span>किसी</span> <span>को</span> <span>यह</span> <span>बताने</span> <span>की</span> <span>जरूरत</span> <span>नहीं</span> <span>कि</span> <span>स्वतंत्र</span> <span>भारत</span> <span>के</span> <span>प्रथम</span> <span>प्रधानमंत्री</span> <span style="font-weight: bold;">पंडित जवाहरलाल नेहरु</span> <span>जितने</span> <span>बड़े</span> <span>राजनेता</span> <span>थे</span>, <span>उतने</span> <span>ही</span> <span>बड़े</span> <span>रचनाकार</span> <span>भी।</span> <span>एक</span> <span>ओर</span> <span>उन्होंने</span> <span>जहां</span> <span>अपने</span> <span>राजनीतिक</span> <span>चिंतन</span> <span>से</span> <span>समाज</span> <span>को</span> <span>सुंदर</span> <span>बनाने</span> <span>का</span> <span>प्रयास</span> <span>किया</span>, <span>वहीं</span> <span>दूसरी</span> <span>ओर</span> <span style="font-style: italic;">मेरी कहानी, हिन्दुस्तान की कहानी</span> <span>तथा</span> <span style="font-style: italic;">विश्व इतिहास की झलक </span><span>जैसी</span> <span>महत्त्वपूर्ण</span> <span>कृतियों</span> <span>से</span> <span>अपनी</span> <span>रचनात्मक</span> <span>प्रतिभा</span> <span>की</span> <span>भी</span> <span>धाक</span> <span>जमायी।</span><br /><br /><span style="font-style: italic;">हिन्दुस्तान की कहानी</span> <span>विश्व</span> <span>साहित्य</span> <span>की</span> <span>अत्यंत</span> <span>ही</span> <span>प्रसिद्ध</span> <span>और</span> <span>लोकप्रिय</span> <span>पुस्तकों</span> <span>में</span> <span>से</span> <span>एक</span> <span>है।</span> <span>यह</span> <span>किताब</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span style="font-weight: bold;">जी</span> <span>ने</span> <span>अहमदनगर</span> <span>किले</span> <span>के</span> <span>जेलखानों</span> <span>में</span> <span>अप्रैल</span> <span>से</span> <span>सितंबर</span> 1944 <span>के</span> <span>पांच</span> <span>महीनों</span> <span>में</span> <span>लिखी</span> <span>थी।</span> <span>जेल</span> <span>की</span> <span>तंग</span> <span>दीवारों</span> <span>के</span> <span>बीच</span> <span>कैद</span> <span>होने</span> <span>पर</span> <span>भी</span> <span style="font-weight: bold;">पंडित जी </span><span>इस</span> <span>पुस्तक</span> <span>में</span> ‘<span>भारत</span> <span>की</span> <span>खोज</span>’ <span>की</span> <span>अनंत</span> <span>और</span> <span>दुर्धर्ष</span> <span>यात्रा</span> <span>पर</span> <span>निकल</span> <span>पड़ते</span> <span>हैं।</span> <span>इतिहास</span> <span>के</span> <span>विविध</span> <span>दौरों</span> <span>से</span> <span>परिचय</span> <span>कराते</span> <span>हुए</span> <span>वह</span> <span>इसे</span> <span>आधुनिक</span> <span>काल</span> <span>और</span> <span>उसकी</span> <span>बहुमुखी</span> <span>समस्याओं</span> <span>तक</span> <span>ले</span> <span>जाते</span> <span>हैं</span> <span>और</span> <span>फिर</span> <span>भविष्य</span> <span>की</span> <span>झांकी</span> <span>दिखाकर</span> <span>हमें</span> <span>खुद</span> <span>सोचने</span>-<span>समझने</span> <span>को</span> <span>प्रेरित</span> <span>करते</span> <span>हैं।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु जी</span> <span>की</span> <span>दूसरी</span> <span>महत्त्वपूर्ण</span> <span>पुस्तक</span> <span style="font-style: italic;">मेरी कहानी</span> (<span>सस्ता</span> <span>साहित्य</span> <span>मंडल</span> <span>ने</span> <span>हिंदी</span> <span>में</span> <span>आत्मकथा</span> <span>इसी</span> <span>नाम</span> <span>से</span> <span>प्रकाशित</span> <span>की</span> <span>है</span>) <span>भी</span> <span>जून</span> 1934 <span>से</span> <span>फरवरी</span> 1934 <span>के</span> <span>बीच</span> <span>जेल</span> <span>ही</span> <span>में</span> <span>लिखी</span> <span>गई</span> <span>और</span> <span style="font-style: italic;">विश्व इतिहास की झलक</span> <span>जेल</span> <span>से</span> <span>लिखे</span> <span>पत्रों</span> <span>का</span> <span>एक</span> <span>शानदार</span> <span>संकलन</span> <span>है।</span> <span>जेल</span> <span>ही</span> <span>से</span> <span>लिखे</span> <span>पत्रों</span> <span>का</span> <span>एक</span> <span>छोटा</span> <span>किंतु</span> <span>अतुलनीय</span> <span>महत्त्व</span> <span>का</span> <span>संकलन</span> <span style="font-style: italic;">पिता के पत्र पुत्री के नाम</span> (<span>इसका</span> <span>अनुवाद</span> <span style="font-weight: bold;">प्रेमचंद</span> <span>ने</span> <span>किया</span> <span>है</span> ) <span>भी</span> <span>है।</span> <span>इस</span> <span>संकलन</span> <span>के</span> <span>पत्र</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु, इंदिरा</span> <span>को</span> <span>तब</span> <span>लिखे</span> <span>थे</span> <span>जब</span> <span>वह</span> <span>मात्र</span> <span>नौ</span>-<span>दस</span> <span>वर्ष</span> <span>की</span> <span>बालिका</span> <span>थी।</span> <span>इन</span> <span>पत्रों</span> <span>के</span> <span>माध्यम</span> <span>से</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>जो</span> <span>विषय</span>/<span>प्रश्न</span> <span>उठाते</span> <span>हैं</span> <span>वे</span> <span>बड़े</span> <span>ही</span> <span>गंभीर</span> <span>हैं।</span> <span>अपनी</span> <span>इतिहास</span>-<span>दृष्टि</span> <span>विकसित</span> <span>करने</span> <span>व</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>इतिहास</span>-<span>दृष्टि</span> <span>को</span> <span>समझने</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>यह</span> <span>पुस्तक</span> <span>अवश्य</span> <span>पढ़ी</span> <span>जानी</span> <span>चाहिए।</span> <span>यूरोपीय</span> <span>इतिहास</span>-<span>दर्शन</span> <span>के</span> <span>क्षेत्र</span> <span>में</span> <span>जिस</span> <span>तरह</span> <span>एच।</span> <span>जी।</span> <span style="font-weight: bold;">वेल्स, कालिंगवुड </span><span>और</span> <span style="font-weight: bold;">क्रोसे</span> <span>हैं</span>, <span>भारत</span> <span>में</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>का</span> <span>भी</span> <span>वही</span> <span>स्थान</span> <span>रहेगा।</span><br /><br /><span>इन</span> <span>तथ्यों</span> <span>से</span> <span>दो</span> <span>बात</span> <span>खुलकर</span> <span>सामने</span> <span>आती</span> <span>हैं</span>-<span>पहली</span> <span>यह</span> <span>कि</span> <span>एक</span> <span>राजनेता</span> <span>के</span> <span>अंदर</span> <span>बहुत</span> <span>बड़ा</span> <span>और</span> <span>एक</span> <span>अत्यंत</span> <span>ही</span> <span>सौम्य</span> <span>लेखक</span> <span>छिपा</span> <span>था</span>, <span>जो</span> <span>अवकाश</span> <span>पाते</span> <span>ही</span> <span>अभिव्यक्ति</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>बेचैन</span> <span>हो</span> <span>उठता</span> <span>था</span>, <span>और</span> <span>दूसरी</span>, <span>कि</span> <span>अपने</span> <span>राजनैतिक</span> <span>जीवन</span> <span>में</span> <span>वे</span> <span>इतने</span> <span>अधिक</span> <span>सक्रिय</span> <span>थे</span> <span>कि</span> <span>लेखक</span> <span>बेचारा</span> <span>टुकुर</span>-<span>टुकुर</span> <span>मुंह</span> <span>ताकता</span> <span>रह</span> <span>जाता</span> <span>था।</span> <span>कहना</span> <span>होगा</span> <span>कि</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>लगभग</span> <span>तमाम</span> <span>रचनाएं</span> <span>जेल</span> <span>के</span> <span>कठिन</span> <span>जीवन</span> <span>के</span> <span>बीच</span> <span>की</span> <span>हैं</span>, <span>लेकिन</span> <span>मजे</span> <span>की</span> <span>बात</span> <span>तो</span> <span>यह</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>जेल</span> <span>के</span> <span>वातावरण</span> <span>की</span> <span>उदासी</span> <span>उनकी</span> <span>रचनाओं</span> <span>को</span> <span>छू</span> <span>तक</span> <span>नहीं</span> <span>सकी।</span> <span>अलबत्ता</span> <span>उन्हें</span> <span>जेल</span> <span>की</span> <span>तंग</span> <span>दीवारों</span> <span>और</span> <span>कठोर</span> <span>अनुशासन</span> <span>वाले</span> <span>माहौल</span> <span>में</span> <span>भी</span> <span>पहाड़</span> <span>और</span> <span>चांद</span> <span>की</span> <span>याद</span> <span>बराबर</span> <span>सताती</span> <span>है।</span> <span>यह</span> <span>बात</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>का</span> <span>एक</span> <span>असाधारण</span> <span>लेखक</span> <span>होना</span> <span>साबित</span> <span>करती</span> <span>है।</span> <span>फिर</span> <span>उनकी</span> <span>रचना</span> <span>की</span> <span>भाषा</span> <span>भी</span> <span>अत्यंत</span> <span>काव्यमयी</span> <span>है।</span> <span>उनका</span> <span>गद्य</span> <span>कविता</span>-<span>सा</span> <span>आनंद</span> <span>लेते</span> <span>हुए</span> <span>पढ़ा</span> <span>जा</span> <span>सकता</span> <span>है।</span> <span>ऐसी</span> <span>रचनाशीलता</span> <span>और</span> <span>लयात्मकता</span> <span>विश्व</span>-<span>गद्य</span>-<span>साहित्य</span> <span>में</span> <span>भी</span> <span>दुर्लभ</span> <span>ही</span> <span>है।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>का</span> <span>साहित्यिक</span> <span>अंतर्मन</span> <span>आजीवन</span> <span>बड़ी</span> <span>बेचैनी</span> <span>से</span> <span>अंधेरे</span> <span>के</span> <span>खिलाफ</span> <span>रोशनी</span> <span>की</span> <span>तलाश</span> <span>करता</span> <span>है।</span> <span>फलतः</span> <span>स्वतंत्र</span> <span>भारत</span> <span>में</span>, 1954 <span>ई</span>. <span>में</span> <span>संगीत</span> <span>नाटक</span> <span>अकादमी</span>, <span>साहित्य</span> <span>अकादमी</span> <span>और</span> <span>ललित</span> <span>कला</span> <span>अकादमी</span> <span>के</span> <span>रूप</span> <span>में</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>तीन</span> <span>मानस</span>-<span>पुत्रियों</span> <span>का</span> <span>जन्म</span> <span>हुआ।</span> <span>इन</span> <span>अकादमियों</span> <span>की</span> <span>स्थापना</span> <span>के</span> <span>पीछे</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>के</span> <span>दो</span> <span>विचार</span> (<span>सदिच्छा</span>) <span>महत्त्वपूर्ण</span> <span>ढंग</span> <span>से</span> <span>काम</span> <span>कर</span> <span>रहे</span> <span>थे।</span> <span>प्रथम</span> <span>कोटि</span> <span>के</span> <span>विचार</span> <span>स्वयं</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>के</span> <span>शब्दों</span> <span>में</span>, ‘<span>भारतीय</span> <span>साहित्य</span> <span>के</span> <span>विकास</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>कार्य</span> <span>करनेवाली</span> <span>एक</span> <span>राष्ट्रीय</span> <span>संस्था</span> <span>जिसका</span> <span>उद्येश्य</span> <span>होगा</span> <span>ऊँचे</span> <span>साहित्यिक</span> <span>मूल्य</span> <span>कायम</span> <span>करना</span>, <span>सभी</span> <span>भारतीय</span> <span>भाषाओं</span> <span>में</span> <span>जो</span> <span>साहित्यिक</span> <span>कार्य</span> <span>हो</span> <span>रहे</span> <span>हैं</span>, <span>उन्हें</span> <span>आगे</span> <span>बढ़ाना</span> <span>और</span> <span>उसमें</span> <span>मेल</span> <span>पैदा</span> <span>करना</span> <span>और</span> <span>इस</span> <span>प्रकार</span> <span>से</span> <span>देश</span> <span>की</span> <span>एकता</span> <span>को</span> <span>सुदृढ़</span> <span>करना।</span>’ <span>दूसरा</span> <span>विचार</span> <span>मानवीय</span> <span>मूल्यों</span> <span>से</span> <span>ज्यादा</span> <span>प्रेरित</span> <span>लगता</span> <span>है।</span> <span>उन्हें</span> <span>भारतीय</span> <span>लेखक</span> <span>की</span> <span>आर्थिक</span> <span>विपन्नता</span> <span>और</span> <span>उससे</span> <span>उत्पन्न</span> <span>मानसिक</span> <span>दासता</span> <span>की</span> <span>पूरी</span> <span>कल्पना</span> <span>थी।</span> <span>इसी</span> <span>कारण</span> <span>से</span> <span>उन्होंने</span> <span>संसद</span> <span>में</span> <span>कई</span> <span>लेखकों</span> <span>को</span> <span>नामित</span> <span>भी</span> <span>किया</span> <span>था।</span> <span>कांग्रेस</span> <span>पार्टी</span> <span>का</span> <span>सदस्य</span> <span>न</span> <span>होते</span> <span>हुए</span> <span>भी</span> <span>कई</span> <span>दार्शनिकों</span>, <span>बौद्धिकों</span> <span>और</span> <span>अर्थशास्त्रियों</span> <span>को</span> <span>अपने</span> <span>मंत्रिमंडल</span> <span>और</span> <span>राष्ट्र</span>-<span>रचना</span> <span>के</span> <span>दूसरे</span> <span>प्रमुख</span> <span>कार्यों</span> <span>में</span> <span>स्थान</span> <span>दिया।</span><br /><br /><span>इतना</span> <span>ही</span> <span>नहीं</span>, <span style="font-weight: bold;">जवाहरलाल नेहरु </span><span>अपने</span> <span>निजी</span> <span>फंड</span> <span>से</span> <span>आर्थिक</span> <span>दृष्टि</span> <span>से</span> <span>कमजोर</span> <span>या</span> <span>बीमार</span> <span>और</span> <span>साधनहीन</span> <span>कलाकारों</span>-<span>साहित्यकारों</span> <span>को</span> <span>नियमित</span> <span>मासिक</span> <span>सहायता</span>-<span>राशि</span> <span>भेजते</span> <span>थे।</span> <span style="font-weight: bold;">डा. प्रभाकर माचवे</span> <span>ने</span> <span>ऐसे</span> <span>लेखकों</span> <span>की</span> <span>एक</span> <span>विस्तृत</span> <span>सूची</span> <span>बनायी</span> <span>है</span>, <span>जिनमें</span> <span style="font-weight: bold;">काजी नजरूल इसलाम</span> <span>और</span> <span style="font-weight: bold;">एम. एन. राय </span><span>तक</span> <span>शामिल</span> <span>हैं।</span><br /><br /><span>कला</span> <span>अकादमियों</span> <span>की</span> <span>स्थापना</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>लेखकीय</span> <span>प्रतिबद्धता</span> <span>को</span> <span>भी</span> <span>प्रमाणित</span> <span>करती</span> <span>है।</span> <span>जिस</span> <span>समय</span> <span>भारत</span> <span>में</span> <span>नया</span> <span>संविधान</span> <span>लागू</span> <span>होकर</span> <span>सन्</span> 1952 <span>में</span> <span>सार्वजनिक</span> <span>चुनाव</span> <span>होनेवाला</span> <span>था</span> <span>उन्हीं</span> <span>दिनों</span> <span>कांगेस</span> <span>की</span> <span>ओर</span> <span>से</span> <span>तैयार</span> <span>किये</span> <span>गये</span> <span>घोषणा</span>-<span>पत्र</span> <span>के</span> <span>प्रारूप</span> <span>में</span> <span>साहित्य</span>, <span>कला</span>, <span>संगीत</span> <span>तथा</span> <span>नाटक</span> <span>आदि</span> <span>सभी</span> <span>ललित</span> <span>विषयों</span> <span>का</span> <span>उन्नयन</span> <span>एवं</span> <span>विकास</span> <span>करने</span> <span>की</span> <span>चर्चा</span> <span>अत्यंत</span> <span>महत्त्वपूर्ण</span> <span>शब्दावली</span> <span>में</span> <span>की</span> <span>थी।</span> <span>चुनाव</span>-<span>घोषणा</span>-<span>पत्र</span> <span>का</span> <span>यह</span> <span>प्रारूप</span> <span>गहन</span> <span>विचार</span>-<span>विमर्श</span> <span>के</span> <span>बाद</span> <span>स्वीकृत</span> <span>हुआ</span> <span>और</span> <span>कांग्रेस</span> <span>इसी</span> <span>आधार</span> <span>पर</span> <span>चुनाव</span> <span>भी</span> <span>लड़ी।</span> <span>आज</span> <span>का</span> <span>कोई</span> <span>प्रधानमंत्री</span> <span>या</span> <span>राजनीतिक</span> <span>दल</span> <span>ऐसे</span> <span>सवाल</span> <span>को</span> <span>आधार</span> <span>बनाकर</span> <span>चुनाव</span> <span>के</span> <span>मैदान</span> <span>में</span> <span>आयेगा</span>, <span>सोचा</span> <span>तक</span> <span>नहीं</span> <span>जा</span> <span>सकता।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>जैसा</span> <span>कोई</span> <span>सच्चा</span> <span>और</span> <span>प्रतिबद्ध</span> <span>लेखक</span> <span>ही</span> <span>ऐसा</span> <span>कर</span> <span>सकने</span> <span>की</span> <span>हिम्मत</span> <span>प्रदर्शित</span> <span>कर</span> <span>सकता</span> <span>है।</span><br /><br /><span>जिस</span> <span>समय</span> <span>अकादमी</span> <span>की</span> <span>ओर</span> <span>से</span> <span>दस</span> <span>भारतीय</span> <span>भाषाओं</span> <span>की</span> <span>चुनी</span> <span>हुई</span> <span>दस</span>-<span>दस</span> <span>कविताओं</span> <span>का</span> <span>देवनागरी</span> <span>लिप्यांतर</span> <span>और</span> <span>उनका</span> <span>हिंदी</span> <span>अनुवाद</span> <span style="font-style: italic;">भारतीय कविता 1953</span> <span>नाम</span> <span>से</span> <span>प्रकाशित</span> <span>किया</span> <span>जा</span> <span>रहा</span> <span>था</span>, <span style="font-weight: bold;">नेहरु जी</span> <span>उसकी</span> <span>भूमिका</span> <span>तैयार</span> <span>करने</span> <span>में</span> <span>जी</span>-<span>जान</span> <span>से</span> <span>लगे</span> <span>हुए</span> <span>थे।</span> <span style="font-weight: bold;">अज्ञेय</span> <span>की</span> <span style="font-style: italic;">प्रिजन डेज एंड अदर पोएम्स</span>, <span style="font-weight: bold;">बच्चन</span> <span>की</span> <span style="font-style: italic;">हाउस ऑफ वाईन </span><span>तथा</span> <span style="font-weight: bold;">दिनकर</span> <span>की</span> <span>चर्चित</span> <span>एवं</span> <span>बृहदाकार</span> <span>पुस्तक</span> <span style="font-style: italic;">संस्कृति के चार अध्याय </span><span>की</span> <span>भूमिका</span> <span>भी</span> <span>उन्हीं</span> <span>दिनों</span>, <span>और</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>ही</span> <span>ने</span> <span>तैयार</span> <span>की</span> <span>थी।</span> <span>इतना</span> <span>ही</span> <span>नहीं</span>, <span style="font-style: italic;">बांगला साहित्य का इतिहास</span> <span>भी</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>द्वारा</span> <span>ही</span> <span>लिखित</span> <span>विचारोत्तेजक</span> <span>भूमिका</span> <span>के</span> <span>साथ</span> <span>प्रकाशित</span> <span>हुई</span> <span>थी।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>के</span> <span>बाद</span> <span>किसी</span> <span>भारतीय</span> <span>प्रधानमंत्री</span> <span>ने</span> <span>इतनी</span> <span>पुस्तकों</span> <span>की</span> <span>भूमिका</span> <span>लिखी</span> <span>हो</span>, <span>मुझे</span> <span>नहीं</span> <span>मालूम।</span> <span>साहित्य</span> <span>अकादमी</span> <span>का</span> <span>लक्ष्य</span> <span>सभी</span> <span>भारतीय</span> <span>भाषाओं</span> <span>को</span> <span>विकसित</span> <span>करना</span> <span>और</span> <span>उनमें</span> <span>पारस्परिक</span> <span>सहयोग</span> <span>की</span> <span>भावना</span> <span>को</span> <span>प्रोत्साहित</span> <span>करना</span> <span>था।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>बहुत</span> <span>ही</span> <span>स्पष्ट</span> <span>राय</span> <span>थी</span> <span>कि</span> <span>हम</span> <span>जितना</span> <span>ही</span> <span>अधिक</span> <span>दूसरी</span> <span>भाषाओं</span> <span>को</span> <span>जानेंगे</span> <span>और</span> <span>समझेंगे</span>, <span>उतना</span> <span>ही</span> <span>अधिक</span> <span>अपनी</span> <span>भाषा</span> <span>का</span> <span>भी</span> <span>मर्म</span> <span>समझ</span> <span>सकेंगे।</span> <span>आज</span> <span>हमें</span> <span>मालूम</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>किसी</span> <span>भी</span> <span>भाषा</span> <span>का</span> <span>विकास</span> <span>दूसरी</span> <span>किसी</span> <span>भी</span> <span>भाषा</span> <span>के</span> <span>सहयोग</span> <span>से</span> <span>ही</span> <span>संभव</span> <span>है।</span> <span>एक</span> <span>भाषा</span> <span>के</span> <span>बढ़ने</span> <span>से</span> <span>दूसरी</span> <span>को</span> <span>भी</span> <span>फायदा</span> <span>पहुंचेगा।</span> <span>उनका</span> <span>आपसी</span> <span>संबंध</span> <span>मुकाबले</span> <span>का</span> <span>नहीं</span> <span>बल्कि</span> <span>सहयोग</span> <span>का</span> <span>होना</span> <span>चाहिए।</span> <span>दूसरे</span> <span>की</span> <span>तरक्की</span> <span>से</span> <span>खुश</span> <span>होना</span> <span>चाहिए</span>, <span>क्योंकि</span> <span>उसका</span> <span>नतीजा</span> <span>अन्ततः</span> <span>अपनी</span> <span>तरक्की</span> <span>होगा।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>ने</span> <span>हमें</span> <span>विस्तृत</span> <span>हवाला</span> <span>देकर</span> <span>बताया</span> <span>कि</span> <span>यूरोप</span> <span>में</span> <span>जब</span> <span>नये</span> <span>साहित्य</span> (<span>अंग्रेजी</span>, <span>फ्रेंच</span>, <span>जर्मन</span>, <span>इटालियन</span>) <span>बढ़े</span>, <span>तब</span> <span>साथ</span>-<span>साथ</span> <span>बढ़े</span>, <span>एक</span>-<span>दूसरे</span> <span>को</span> <span>दबाकर</span> <span>या</span> <span>मुकाबला</span> <span>करके</span> <span>नहीं।</span> <span>वे</span> <span>जोर</span> <span>देकर</span> <span>कहते</span> <span>थे</span> <span>कि</span> <span>भारत</span> <span>का</span> <span>जो</span> <span>भी</span> <span>व्यक्ति</span> <span>शिक्षित</span> <span>है</span> <span>या</span> <span>होने</span> <span>का</span> <span>दावा</span> <span>करता</span> <span>है</span>, <span>उसे</span> <span>अपनी</span> <span>भाषा</span> <span>के</span> <span>अलावा</span> <span>दूसरी</span> <span>भाषाओं</span> <span>का</span> <span>भी</span> <span>कुछ</span> <span>ज्ञान</span> <span>होना</span> <span>चाहिए।</span> <span>विभिन्न</span> <span>भाषाओं</span> <span>में</span> <span>लिखे</span> <span>गये</span> <span>श्रेष्ठ</span> <span>और</span> <span>सुप्रसिद्ध</span> <span>रचनाओं</span> <span>का</span> <span>ज्ञान</span> <span>तो</span> <span>होना</span> <span>ही</span> <span>चाहिए।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>भाषा</span>-<span>विकास</span> <span>की</span> <span>समझ</span> <span>बिल्कुल</span> <span>स्पष्ट</span> <span>थी।</span> <span>इसीलिए</span> <span>वे</span> <span>हिंदी</span> <span>के</span> <span>विकास</span> <span>को</span> <span>लेकर</span> <span>चिंतित</span> <span>तो</span> <span>होते</span> <span>थे</span>, <span>किंतु</span> <span>किसी</span> <span>दूसरी</span> <span>किसी</span> <span>भाषा</span> <span>की</span> <span>शर्त</span> <span>पर</span> <span>नहीं।</span> <span>यहां</span> <span>तक</span> <span>कि</span> <span>क्षेत्रीय</span> <span>अथवा</span> <span>प्रांतीय</span> <span>भाषाओं</span> <span>तक</span> <span>के</span> <span>स्वतंत्र</span> <span>अस्तित्त्व</span> <span>को</span> <span>वे</span> <span>राजी</span>-<span>खुशी</span> <span>स्वीकार</span> <span>करते</span> <span>थे।</span> <span>उनका</span> <span>यह</span> <span>मानना</span> <span>कितना</span> <span>वैज्ञानिक</span> <span>और</span> <span>व्यावहारिक</span> <span>था</span> <span>कि</span> <span>हर</span> <span>प्रांत</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>वहां</span> <span>की</span> <span>बोली</span> <span>जानेवाली</span> <span>भाषा</span> <span>ही</span> <span>प्रथम</span> <span>प्राथमिकता</span> <span>है।</span> <span>हिंदी</span> <span>या</span> <span>हिंदुस्तानी</span> <span>राष्ट्रभाषा</span> <span>अवश्य</span> <span>है</span> <span>और</span> <span>होनी</span> <span>भी</span> <span>चाहिए</span>, <span>लेकिन</span> <span>वह</span> <span>प्रांतीय</span> <span>भाषा</span> <span>के</span> <span>पीछे</span> <span>ही</span> <span>आ</span> <span>सकती</span> <span>है।</span> <span>जहां</span> <span>तक</span> <span>बच्चों</span> <span>की</span> <span>शिक्षा</span> <span>का</span> <span>सवाल</span> <span>है</span>, <span>वे</span> <span>ठीक</span>-<span>ठीक</span> <span style="font-weight: bold;">गांधीजी </span><span>की</span> <span>तरह</span>, <span>मातृभाषा</span> <span>में</span> <span>ही</span> <span>दिये</span> <span>जाने</span> <span>के</span> <span>पक्षधर</span> <span>थे।</span> <span>दूसरे</span> <span>प्रांतों</span> <span>में</span> <span>निवास</span> <span>करनेवाले</span> <span>बच्चों</span> <span>को</span> <span>भी</span> <span>वे</span> <span>उनकी</span> <span>मातृभाषा</span> <span>ही</span> <span>में</span> <span>शिक्षा</span> <span>प्रदान</span> <span>किये</span> <span>जाने</span> <span>के</span> <span>हिमायती</span> <span>थे।</span> <span>मसलन</span>, <span>अगर</span> <span>कलकत्ते</span> <span>में</span> <span>तमिल</span> <span>बोलनेवाले</span> <span>काफी</span> <span>लोग</span> <span>रहते</span> <span>हैं</span> <span>तो</span> <span>उनको</span> <span>यह</span> <span>अधिकार</span> <span>होना</span> <span>चाहिए</span> <span>कि</span> <span>स्कूलों</span> <span>में</span> <span>तमिल</span> <span>द्वारा</span> <span>ही</span> <span>पढ़ाई</span> <span>हो।</span><br /><br /><span>संसद</span> <span>में</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>जी</span> <span>द्वारा</span> <span>भाषण</span> <span>किये</span> <span>जाने</span> <span>की</span> <span>परिपाटी</span> <span>यह</span> <span>थी</span> <span>कि</span> <span>वे</span> <span>जिस</span> <span>विषय</span> <span>पर</span> <span>बोलनेवाले</span> <span>होते</span>, <span>उस</span> <span>विषय</span> <span>पर</span> <span>अंतिम</span> <span>वक्ता</span> <span>जिस</span> <span>भाषा</span> <span>में</span> <span>बोलता</span>, <span>उसी</span> <span>भाषा</span> <span>में</span> <span>वे</span> <span>जवाब</span> <span>देते।</span> <span>कहना</span> <span>न</span> <span>होगा</span> <span>कि</span> <span>पूर्व</span> <span>प्रधानमंत्री</span> <span style="font-weight: bold;">श्री अटल बिहारी वाजपेयी </span><span>ने</span> <span>विदेश</span> <span>नीति</span> <span>पर</span> <span>कभी</span> <span>संसद</span> <span>में</span> <span>चर्चा</span> <span>की</span> <span>थी</span>, <span>तो</span> <span>उनके</span> <span>तर्कों</span> <span>का</span> <span>जवाब</span> <span>एवं</span> <span>खंडन</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु जी</span> <span>ने</span> <span>हिंदी</span> <span>ही</span> <span>में</span> <span>प्रस्तुत</span> <span>किया</span> <span>था।</span> <span>राज्यसभा</span> <span>में</span> <span>संभवतः</span> <span>हिंदू</span> <span>कोड</span> <span>बिल</span> <span>पर</span> <span style="font-weight: bold;">तारकेश्वर पांडे</span> <span>के</span> <span>तर्कों</span> <span>का</span> <span>जवाब</span> <span>देने</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>भी</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>ने</span> <span>हिंदी</span> <span>भाषा</span> <span>को</span> <span>ही</span> <span>हथियार</span>/<span>माध्यम</span> <span>बनाया</span> <span>था।</span> <span>हिंदी</span> <span>के</span> <span>उत्थान</span> <span>की</span> <span>बात</span> <span>करनेवाली</span> <span>राजनीतिक</span> <span>पार्टियों</span> (<span>इसमें</span> <span>भारत</span> <span>की</span> <span>वामपंथी</span> <span>पार्टियां</span> <span>तक</span> <span>शामिल</span> <span>हैं</span>) <span>की</span> <span>भाषा</span>-<span>नीति</span> <span>की</span> <span>वर्तमान</span> <span>दशा</span> <span>से</span> <span>तुलना</span> <span>करने</span> <span>पर</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>भूमिका</span> <span>एवं</span> <span>उनका</span> <span>हिंदी</span>-<span>प्रेम</span> <span>ज्यादा</span> <span>आसानी</span> <span>से</span> <span>समझ</span> <span>में</span> <span>आ</span> <span>सकता</span> <span>है।</span><br /><br /><span>भारतीय</span> <span>राष्ट्रवाद</span> <span>के</span> <span>दौर</span> <span>में</span> <span>एक</span> <span>समय</span> <span>आया</span> <span>जब</span> <span>हिंदी</span> <span>एवं</span> <span>उर्दू</span> <span>शब्दों</span> <span>के</span> <span>प्रयोग</span> <span>में</span> <span>फर्क</span> <span>महसूस</span> <span>किया</span> <span>जाने</span> <span>लगा।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>दृष्टि</span> <span>में</span> <span>यह</span> <span>फर्क</span> <span>उस</span> <span>राष्ट्रीय</span> <span>जागृति</span> <span>का</span> <span>प्रतिबिंब</span> <span>था</span> <span>जो</span> <span>हिंदुओं</span> <span>एवं</span> <span>मुसलमानों</span> <span>में</span> <span>पैदा</span> <span>हो</span> <span>रही</span> <span>थी।</span> <span>हिंदुओं</span> <span>ने</span> <span>परिष्कृत</span>/<span>संस्कृतनिष्ठ</span> <span>हिंदी</span> <span>और</span> <span>देवनागरी</span> <span>लिपि</span> <span>पर</span> <span>जोर</span> <span>दिया</span> <span>और</span> <span>मुसलमानों</span> <span>ने</span> <span>उर्दू</span> <span>के</span> <span>बहाने</span> <span>अरबी</span>-<span>फारसी</span> <span>पर।</span> <span>आरंभ</span> <span>में</span> <span>हिंदुओं</span> <span>की</span> <span>राष्ट्रीयता</span> <span>का</span> <span>स्वरूप</span> <span>हिंदू</span> <span>राष्ट्रीयता</span> <span>ही</span> <span>था।</span> <span>इसलिए</span> <span>प्रारंभिक</span> <span>काल</span> <span>में</span> <span>ऐसा</span> <span>कुछ</span> <span>घटना</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>के</span> <span>लिए</span> ‘<span>परिस्थितिजन्य</span>’ <span>था।</span> <span>कुछ</span> <span>दिनों</span> <span>बाद</span> <span>मुसलमानों</span> <span>में</span> <span>भी</span> <span>धीरे</span>-<span>धीरे</span> <span>जागृति</span> <span>पैदा</span> <span>हुई।</span> <span>उनकी</span> <span>भी</span> <span>आरंभिक</span> <span>राष्ट्रीयता</span> <span>का</span> <span>स्वरूप</span> <span>मुस्लिम</span> <span>राष्ट्रीयता</span> <span>ही</span> <span>रहा।</span> <span>दुर्भाग्यवश</span>, <span>हिंदी</span> <span>हिंदुओं</span> <span>की</span> <span>एवं</span> <span>उर्दू</span> <span>मुसलमानों</span> <span>की</span> <span>भाषा</span> <span>के</span> <span>रूप</span> <span>में</span> <span>प्रचारित</span>-<span>प्रसारित</span> <span>हुई।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>हिंदी</span>-<span>उर्दू</span> <span>का</span> <span>यह</span> <span>भेद</span> <span>भाषागत</span> <span>न</span> <span>होकर</span> <span>महज</span> <span>राजनीतिक</span> <span>है।</span> <span>उनके</span> <span>लिए</span> <span>दोनों</span> <span>का</span> <span>आधार</span> <span>एक</span> <span>है</span>, <span>व्याकरण</span> <span>भी</span> <span>एक</span> <span>है।</span> <span>वास्तव</span> <span>में</span> <span>दोनों</span> <span>का</span> <span>उद्गम</span> <span>भी</span> <span>एक</span> <span>ही</span> <span>है।</span> <span>उर्दू</span> <span>की</span> <span>लिपि</span> <span>को</span> <span>छोड़कर</span> <span>यदि</span> <span>हम</span> <span>केवल</span> <span>भाषा</span> <span>के</span> <span>लिहाज</span> <span>से</span> <span>विचार</span> <span>करें</span> <span>तो</span> <span>मालूम</span> <span>होगा</span> <span>कि</span> <span>उर्दू</span> <span>हिंदुस्तान</span> <span>के</span> <span>बाहर</span> <span>कहीं</span> <span>भी</span> <span>बोली</span> <span>नहीं</span> <span>जाती</span> <span>है।</span> <span>हां</span>, <span>उत्तरी</span> <span>भारत</span> <span>के</span> <span>बहुत</span>-<span>से</span> <span>हिंदुओं</span> <span>के</span> <span>घरों</span> <span>में</span> <span>वह</span> <span>अवश्य</span> <span>बोली</span> <span>जाती</span> <span>है।</span><br /><br /><span>हिंदी</span>-<span>उर्दू</span> <span>के</span> <span>आपसी</span> <span>सहयोग</span> <span>को</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>जी</span> <span>विकास</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>आवश्यक</span> <span>समझते</span> <span>थे।</span> <span>हिंदी</span> <span>या</span> <span>उर्दू</span> <span>में</span> <span>किसी</span> <span>भी</span> <span>एक</span> <span>की</span> <span>शब्द</span>-<span>संपदा</span> <span>को</span> <span>नष्ट</span> <span>करके</span> <span>कभी</span> <span>भी</span> <span>हम</span> <span>अपनी</span> <span>भाषा</span> <span>को</span> <span>समृद्ध</span> <span>नहीं</span> <span>कर</span> <span>पायेंगे।</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>के</span> <span>लिए</span>, ‘<span>यदि</span> <span>हिंदी</span> <span>का</span> <span>विकास</span> <span>होता</span> <span>है</span> <span>तो</span> <span>उर्दू</span> <span>का</span> <span>भी</span> <span>होता</span> <span>है</span> <span>और</span> <span>यदि</span> <span>उर्दू</span> <span>का</span> <span>होता</span> <span>है</span> <span>तो</span> <span>निस्संदेह</span> <span>हिंदी</span> <span>का</span> <span>भी।</span>’ <span>वे</span> <span>तो</span> <span>यहां</span> <span>तक</span> <span>चाहते</span> <span>थे</span> <span>कि</span> <span>हिंदी</span> <span>और</span> <span>उर्दू</span> <span>अपने</span> <span>में</span> <span>विदेशी</span> <span>भाषाओं</span> <span>तक</span> <span>के</span> <span>शब्दों</span> <span>एवं</span> <span>विचारों</span> <span>को</span> <span>शामिल</span> <span>कर</span> <span>ले</span> <span>और</span> <span>उन्हें</span> <span>अपना</span> <span>बना</span> <span>ले।</span> <span>ऐसे</span> <span>शब्दों</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>जो</span> <span>आमतौर</span> <span>पर</span> <span>अंग्रेजी</span>, <span>फ्रेंच</span> <span>और</span> <span>अन्य</span> <span>विदेशी</span> <span>भाषाओं</span> <span>में</span> <span>बोले</span> <span>जाने</span> <span>लगे</span> <span>हैं</span>, <span>संस्कृत</span> <span>या</span> <span>फारसी</span> <span>के</span> <span>शब्द</span> <span>गढ़ना</span> <span>ठीक</span> <span>नहीं</span> <span>है।</span> <span>लेकिन</span> <span>आज</span> <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>की</span> <span>सदिच्छाओं</span> <span>एवं</span> <span>स्वयं</span> <span>भाषा</span> <span>की</span> <span>प्रकृति</span> <span>के</span> <span>ठीक</span> <span>विपरीत</span> <span>हो</span> <span>रहा</span> <span>है।</span> <span>हम</span> <span>विदेशी</span> <span>शब्दों</span> <span>को</span> <span>तो</span> <span>धड़ल्ले</span> <span>से</span> <span>अपनाते</span> <span>चले</span> <span>जा</span> <span>रहे</span> <span>हैं</span>, <span>लेकिन</span> <span>हिंदी</span> <span>और</span> <span>उर्दू</span> <span>दोनों</span> <span>ही</span> <span>भाषाओं</span> <span>के</span> <span>बोलनेवाले</span> <span>लोग</span> <span>एक</span>-<span>दूसरे</span> <span>के</span> <span>शब्दों</span> <span>से</span> <span>परहेज</span> <span>बरत</span> <span>रहे</span> <span>हैं।</span> <span>आकाशवाणी</span> <span>एवं</span> <span>दूरदर्शन</span> <span>तक</span> <span>से</span> <span>प्रसारित</span> <span>होनेवाले</span> <span>समाचार</span>-<span>बुलेटिनों</span> <span>में</span> <span>इसका</span> <span>प्रभाव</span> <span>लक्षित</span> <span>होता</span> <span>है।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> <span>अक्सर</span> <span>यात्रा</span> <span>रेलगाड़ी</span> <span>में</span> <span>ही</span> <span>करते।</span> <span>यात्रा</span> <span>के</span> <span>दौरान</span> <span>जरूरी</span> <span>सामानों</span> <span>में</span> <span>किताबों</span> <span>से</span> <span>भरा</span> <span>एक</span> <span>भारी</span>-<span>भरकम</span> <span>बक्सा</span> <span>अवश्य</span> <span>होता।</span> <span>रेलगाड़ी</span> <span>की</span> <span>यात्रा</span> <span>के</span> <span>पीछे</span> <span>मूल</span> <span>भावना</span> <span>यह</span> <span>थी</span> <span>कि</span> <span>हिंदुस्तान</span> <span>में</span> <span>एक</span> <span>छोर</span> <span>से</span> <span>दूसरे</span> <span>छोर</span> <span>तक</span> <span>जाने</span> <span>में</span> <span>चार</span>-<span>पांच</span> <span>दिनों</span> <span>का</span> <span>जो</span> <span>एकांत</span> <span>और</span> <span>अवकाश</span> <span>मिलेगा</span>, <span>उसमें</span> <span>कम</span>-<span>से</span>-<span>कम</span> <span>किताबों</span> <span>को</span> <span>उलट</span>-<span>पलट</span> <span>सकेंगे।</span> <span>आज</span> <span>के</span> <span>लेखकों</span> (<span>इसमें</span> <span>जनवादी</span> <span>संगठनों</span> <span>के</span> ‘<span>नामवर</span>’ <span>लेखक</span> <span>तक</span> <span>शामिल</span> <span>हैं</span>) <span>को</span>, <span>जो</span> <span>किसी</span> <span>जलसे</span> <span>में</span> <span>जाने</span> <span>से</span> <span>पहले</span> <span>हवाई</span> <span>जहाज</span> <span>का</span> <span>टिकट</span> <span>और</span> <span>एक</span> <span>बड़ी</span> <span>राशि</span> <span>का</span> <span>चेक</span> <span>अपने</span> <span>नाम</span> <span>करवा</span> <span>लेते</span> <span>हैं</span>, <span>सबक</span> <span>लेनी</span> <span>चाहिए।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">प्रकाशन</span>:<span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">प्रभात</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">खबर</span>, <span>दिल्ली</span>, <span>रविवार</span>, 12 <span>सितंबर</span>, 2004; <span>पुनर्प्रकाशन</span>: <span style="font-style: italic;">अमर</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">उजाला</span><span style="font-style: italic;"> </span><span style="font-style: italic;">कॉम्पैक्ट</span>, <span>इलाहाबाद</span>, <span>शनिवार</span>, 14 <span>नवंबर</span> 2009<span>।</span></div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-48968935008001211512010-11-12T18:13:00.006+05:302010-11-12T18:29:36.257+05:30विज्ञान और हिंदुत्व -एक पाठक के नोट से<div style="text-align: justify;"><span>भारत</span> में इस बात पर व्यापक तौर पर विश्वास किया जाता रहा है कि धर्म और विज्ञान के बीच, जो संघर्ष यूरोप में मध्यकाल के बाद आरंभ हुआ, वह हमारे देश में नहीं हुआ। सच तो यह है कि हमारे यहां यह बात मानी जाती है कि हमारी वैज्ञानिक खोजें, हमारे रहस्यद्रष्टाओं ने अपनी रहस्यसाधना से की थीं। आज भी कुछ लोग इस विचार को बड़े आत्मविश्वास के साथ प्रतिपादित करते हैं। जैसे ही कोई नया वैज्ञानिक अनुसंधान सामने आता है, वैसे ही वेदांत के अनुयायी यह प्रमाणित करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं कि यह खोज तो हमारे सर्वज्ञ ऋषि ने हजारों वर्ष पहले ही कर ली थी। वैदिक विद्या के एक पुरोधा ने यह प्रमाणित किया था कि <span style="font-weight: bold;">आइंस्टीन</span> का सापेक्षता का सिद्धांत उपनिषदों ने बहुत पहले ही खोज लिया था। ‘कुछ तो यह भी दावा करते हैं कि भौतिकी के आज के शोध (उदाहरणार्थ, आइंस्टाइन का ‘आपेक्षिकता का सिद्धांत’) हजारों साल पहले योगसाधना से यहां के ऋषि-मुनियों ने लगाये थे।’ (देखें, <span style="font-weight: bold;">एस. जी. सरदेसाई</span>, <span style="font-style: italic;">भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष</span>, पी. पी. एच, नई दिल्ली, अनुवादक: <span style="font-weight: bold;">गुणाकर मुले</span>, हिन्दी प्रथम संस्करण, अगस्त 1979, पृष्ठ 98)।<br /><br />बल्कि सच्चाई यह है कि हमारे देश में यांत्रिकी और भौतिकी की प्रगति नहीं के बराबर हुई। ऐसा संभवतः श्रम के प्रति घृणा की वजह से हुआ। आस्तीन चढ़ाकर, हाथ काले करके, पसीना बहाये बिना जिस विज्ञान की रत्ती भर भी प्रगति नहीं हो सकती, वह है यांत्रिकी और भौतिकी। और जिन विज्ञानों की प्रगति के लिए सबसे कम शारीरिक श्रम करने पढ़ते हैं वह हैं गणित और ज्योतिष। निरीक्षण और तात्विक चिंतन-ये दो गुण यदि भरपूर हों तो गणित और ज्योतिष की प्रगति हो सकती है। और इस बात में संदेह नहीं कि ये गुण ‘हमारे’ ब्राह्मणों में भरपूर थे (दरअसल, तात्विक विचारशक्ति के गुण से हम इतने अभिभूत थे कि ऐन्द्रिय निरीक्षण से सामने दिखनेवाले जग को साफ मिथ्या ‘सिद्ध’ करने के लिए <span style="font-weight: bold;">शंकराचार्य</span> ने जितने तर्क प्रस्तुत किये, उतने संसार के किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं खोजे)। यहां यह कहा जा सकता है कि चिकित्सा, वैद्यक और रसायन की प्रगति के लिए भी आस्तीन चढ़ाकर प्रयोग करने होते हैं। यांत्रिकी के प्रयोगों से भी अधिक हाथ गंदे करने होते हैं। यह एक सच्चाई है।<br /><br />चिकित्सा और आरंभिक अवस्था के रसायन की कितनी भी जीवन के लिए कितनी भी जरूरत क्यों न हो, तो भी हमारे शुचिर्भूत ब्राह्मणों (धर्मरक्षकों) के लिए ये चीजें अशौच ही थीं क्योंकि दस्त लगे आदमी का उपचार करने का अर्थ है (चिकित्सक चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो) भंगी का भी काम करना। शव-विच्छेदन भी हीन जाति का काम; और चमड़ा कमाने की रासायनिक प्रक्रिया का अध्ययन करने का अर्थ है चमार का काम। <span style="font-weight: bold;">चरक</span> और <span style="font-weight: bold;">सुश्रुत</span> को वेदान्तवादी ब्राह्मणों का रोष सहना पड़ा तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है। (देखें <span style="font-weight: bold;">एस. जी. सरदेसाई</span>, <span style="font-style: italic;">भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष</span>, पी. पी. एच., नई दिल्ली, हिन्दी: प्रथम संस्करण: अगस्त 1979, पृष्ठ 109-10)। <br /><br />विज्ञान की खोजों की आदिभूमि भारत को मानने की अविवेकी प्रवृत्ति को अंग्रेजी राज के दिनों में और अधिक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अठारहवीं शती में ब्रह्म समाज के अनुयायियों तथा जनता के अन्य प्रगतिशील वर्गों ने पश्चिमी सभ्यता की सभी अच्छाइयों को आत्मसात् करके पाश्चात्य संस्कृति को चुनौती दी तो अधिक कट्टर लोगों ने हिन्दू समाज में पाई जाने वाली हर चीज का औचित्य सिद्ध किया, और यह बताने का प्रयत्न किया कि पश्चिम की सभी खोजें और आविष्कार भारत के प्राचीन ऋषियों को ज्ञात थे। (देखें, <span style="font-weight: bold;">शिशिर कुमार बोस</span>, <span style="font-style: italic;">नेताजी संपूर्ण वाड्.मय</span> , खंड-1, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, जनवरी 1982, पृष्ठ 15)। <span style="font-weight: bold;">दयानंद सरस्वती</span> भी मानते थे कि <span style="font-weight: bold;">ऋग्वेद</span> में सब कुछ है, यहां तक कि तार विद्या, नौविमान विद्या जैसी आधुनिक टेक्नोलॉजी तो है ही, <span style="font-weight: bold;">न्यूटन</span> का आकर्षण, अनुकर्षण जैसा भौतिकी का सिद्धांत भी। (देखें, <span style="font-weight: bold;">नामवर सिंह</span>, ‘इतिहास की शव-साधना<span style="font-style: italic;">’</span>, <span style="font-style: italic;">आलोचना</span> , अप्रैल-जून 2001, पृष्ठ 243)। ‘ऋग्वेद भाष्य’ में <span style="font-weight: bold;">दयानंद सरस्वती</span> ने ‘अश्विन’ का अर्थ किया है भाप-चालित जहाज-जो पानी, जमीन और आसमान, सबमें समान रूप से चलता है। <span style="font-weight: bold;">स्वामी जी </span>के अनुसार ‘अश्विन’ कोई देवता नहीं है। (वही) इस भाव की अभिव्यक्ति <span style="font-weight: bold;">सूर्यकांत त्रिपाठी निराला </span>की कविता में भी देखी जा सकती है;<br />‘योग्य जन जीता है।<br />पश्चिम की उक्ति नहीं-<br />गीता है, गीता है-<br />स्मरण करो बार-बार-<br />जागो फिर एक बार !’<br />(देखें, ‘जागो फिर एक बार’: 2, <span style="font-style: italic;">राग-विराग</span> , <span style="font-weight: bold;">रामविलास शर्मा</span> , संपादक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1942, पृष्ठ-59; और देखें, <span style="font-weight: bold;">मीरा नंदा</span> , ‘पोस्ट मॉडर्निज्म, हिन्दू नेशनलिज्म एंड वेदिक सायंस’, <span style="font-style: italic;">फ्रंटलाइन</span> , 15 जनवरी, 2004, पृष्ठ-78)। ठीक इसी प्रसंग में <span style="font-weight: bold;">जयंत विष्णु नार्लीकर</span> लिखते हैं, ‘मैंने एक ऐसे आधुनिक ग्रंथ को देखा है जिसमें लेखक ने वैदिक ऋचाओं का विवेचन करके यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि <span style="font-weight: bold;">दीर्घतमा</span> ऋषि सूर्य की आंतरिक रचना से परिचित थे। आधुनिक खगोल शास्त्र हमें यह बतलाता है कि सूर्य के केन्द्र-प्रदेश में अत्यधिक तापमान तथा दबाव के फलस्वरूप परमाणु प्रक्रियाएं होती हैं जिनमें हाइड्रोजन का हीलियम में रूपांतर होता है। इन प्रक्रियाओं के कारण ऊर्जा उत्पन्न होती है जो सूर्य प्रकाश के रूप में सूर्य से बाहर निकलती है। उपर्युक्त ग्रंथ में लेखक ने वैदिक ऋचाओं का भावार्थ सपष्ट करते हुए यह सिद्ध किया है कि सूर्यान्तर्गत परमाणु प्रक्रियाओं का अस्तित्व वेदकालीन ऋषियों को मालूम था। इसके लिए लेखक को ऋचाओं के अक्षरों, शब्दों को सांकेतिक मानकर उनके अर्थों को सपष्ट करने के लिए एक कुंजी का प्रयोग करना पड़ा है।’ (देखें, ‘भारतीय संस्कृति में विज्ञान की परंपरा’, <span style="font-style: italic;">समयांतर</span> , हिन्दी मासिक पत्रिका, संपादक: <span style="font-weight: bold;">पंकज बिष्ट</span>, फरवरी, 2004, पृष्ठ 43)।<br /><br />कहना होगा कि पुराणों की कथाओं का बयान तथा इनमें विज्ञान ढ़ूंढ़ने की मानसिकता से विकट स्थिति बन रही है। वर्ष 2002 में एक सरकारी अनुसंधान संस्थान ने बाकायदा पुराण-विज्ञान विशेषांक निकाला था। इसमें प्राचीन ग्रंथों की पौराणिक कथाओं को आधार बनाते हुए उनमें जबर्दस्ती विज्ञान खोजने की कोशिश की गई थी। <span style="font-style: italic;">रामायण </span>और <span style="font-style: italic;">महाभारत</span> के उद्धरण उसमें बढ़-चढ़कर थे। उसमें सृष्टि की रचना से लेकर समुद्र-मंथन तक सब कुछ समाहित था। (<span style="font-weight: bold;">कृष्ण कुमार मिश्र</span> , ‘वैज्ञानिक चेतना और हमारा समाज’, <span style="font-weight: bold;">समयांतर</span>, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 76)। <br /><br />इस पूरे प्रसंग को समझने के लिए <span style="font-weight: bold;">अलबरूनी</span> का उद्धरण प्रस्तुत करना वाकई दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण होगा। भारतीय वैज्ञानिकों के बारे में वे लिखते हैं, ‘वे बहुत भ्रामक स्थिति में हैं, किसी भी तर्क व्यवस्था को नहीं मानते और अंततः तथ्यों के साथ भीड़ के मूर्खतापूर्ण वक्तव्यों को मिलाते हैं। मैं अनेक गणितीय और ज्योतिषीय ज्ञान की तुलना मोतियों और खट्टे खजूरों के मिश्रण या मोतियों के साथ गोबर या अत्यंत मूल्यवान स्फटिक के साथ सामान्य पत्थर की बटिया के साथ मिश्रण से कर सकता हूं। उनकी नजर में ये दोनों चीजें समान हैं, इस वजह से वे स्वयं को कठोर वैज्ञानिक पद्धतियों से जोड़ नहीं पाते।’ यहां यह उल्लेखनीय है कि <span style="font-weight: bold;">अलबरूनी</span> ने जिन परिस्थितियों का वर्णन किया है वे ईसा की पांचवीं या छठी शताब्दी के बाद धीरे-धीरे पैदा हुई थीं, उस समय तक हिन्दू समाज जड़ीभूत स्थिति में आ गया था। (देखें, <span style="font-weight: bold;">एस. जी. सरदेसाई</span>, <span style="font-style: italic;">प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि</span> , पी. पी. एच. जयपुर, अगस्त 1988, पृष्ठ 102, पाद टिप्पणी संख्या-1)। <br /></div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-52244239403706419462010-11-11T11:57:00.003+05:302010-11-11T12:05:03.622+05:30चुनाव से लौटकर<div style="text-align: justify;"><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyA1qE2UQSSwsYTyMaBvJyhLYzdxoutbohqQv1Pr2SDvmS0ja6xv4duwm2r9W6h1c7w2mFCQoJ-mf2-zBDieKs739j8NEamGF1K0zlqyrqHBR8UtMXFZ7qZQLG8lyQEzIfs8EoIZ-6EfXt/s1600/bihar-election-2010.jpg"><img style="float: left; margin: 0pt 10px 10px 0pt; cursor: pointer; width: 320px; height: 256px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyA1qE2UQSSwsYTyMaBvJyhLYzdxoutbohqQv1Pr2SDvmS0ja6xv4duwm2r9W6h1c7w2mFCQoJ-mf2-zBDieKs739j8NEamGF1K0zlqyrqHBR8UtMXFZ7qZQLG8lyQEzIfs8EoIZ-6EfXt/s320/bihar-election-2010.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5538176594137523410" border="0" /></a><br /></div><div style="text-align: justify;" class="mbl notesBlogText clearfix"><p>बिहार विधान सभा के लिए होनेवाले चुनाव (९.११.२०१०) में मुझे भी ड्यूटी पर तैनात किया गया. मेरा निर्वाचन- क्षेत्र १८८, फुलवारी था. यह पटना से महज १२ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है. मैं मन ही मन खुश हुआ कि चलिए पटना से बहुत दूर नहीं है-एक तरह से शहर में बने रहने का संतोष. खुशी का एक कारण यह भी था कि मेरा मतदान केन्द्र एक प्राथमिक विद्यालय को बनाया गया था. उम्मीद थी कि सोने आदि में किसी तरह की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ेगा. लेकिन रास्ते में ही मेरी खुशी हवा हो गयी. रास्ता इतना बीहड़ कि टेम्पू की सवारी छोड़ पैदल चलने की इच्छा हुई. हालाँकि सरकारी निर्देश (मार्ग – प्रदर्शिका) के अनुसार मार्ग को पक्की सड़क होना चाहिए था. लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही थी. रास्ते भर मुझे भारतेंदु की बैलगाड़ी की यात्रा याद आई. हिलत डुलत तन डोलत. किसी तरह हमलोग बचते–बचाते अपने मतदान-केन्द्र प्राथमिक विद्यालय मौलाना बुद्धुचक पहुंचे. वहां विद्यालय की तरफ से दो लोग मौजूद थे. उन्होंने कमरे का ताला खोल दिया. विद्यालय के नाम पर दो कमरे थे. एक कमरे में चावल की तीन बोरियां रखी थीं, एक टेबल और पांच प्लास्टिक की पुरानी कुर्सियां. हाँ, एक कुर्सी काठ की भी थी. एक कोने में बच्चों का टूटा झूला रखा था. बताया गया कि इसी पर हमलोग एवीएम मशीन रख लेंगे कि पिछले मतदान के दौरान ऐसा ही किया गया था. तत्पश्चात हमलोगों ने बगल का दूसरा कमरा देखा. यह मूलतः रसोइघर था जिसमें एक चापाकल भी गडा था. चापाकल कुछ ऐसा कि हैंडल को नीचे की ओर दबाते तो पुनः ऊपर उठाने के लिए दूसरे आदमी की सहायता लेनी होती. एक अकेले आदमी के लिए असंभव था कि वह पानी निकाल ले. प्रबंधक महोदय ने बताया कि ऐसा नया वाशर की वजह से हो रहा है. एक दिन पहले ही बदला गया है. खैर हमलोगों ने भी मान लिया कि चलिए न से हाँ भला. मजा तो तब आया जब सुबह ऐन शौच के वक्त चापाकल खराब हो गया. पानी का संकट स्थायी भाव बनकर मुखमंडल पर चिपक गया. मैंने अपने मित्रों से मजाक किया कि चलिए अच्छा है हमलोग पश्चिमी तरीके से शौच करने का आनंद लें. याद आया कि कभी महाकवि निराला को भी ऐसे ही संकट–काल में शौच के पश्चिमी चलन का लाभ लेना पड़ा था. लेकिन मन ने पश्चिम की इस देन को अपनाने से इंकार कर दिया और हमलोग पानी की तलाश में निकल पड़े. अंततः एक चापाकल दिखा. पानी निकालकर देख लिया तो संतोष हुआ. लगा तबतक शौच की इच्छा भी परम संतोषी हो चुकी है. विद्यालय का हाल देखकर कहना पड़ रहा है कि लालू प्रसाद यादव ने ‘चरवाहा विद्यालय’ का सपना देखा था, नीतीश कुमार ने विद्यालयों को ‘चरागाह’ में तब्दील कर रखा है. </p><p></p></div>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1353387744994307265.post-70017267127768895722010-10-27T06:05:00.005+05:302010-10-27T06:37:49.886+05:30अम्बेदकर की इतिहास दृष्टि<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikeZ9I1rXarrFQF7RqiMTWsDUTSSKiKkBqgjlB9QfYFAy7ov8ex0olzEos2HmlTH889XYW-Oi4wrD980xUBoOrS8XxK_ZGs32qn_-VKIlrQSQxZRKOV1ZOmwVm1gRMqBIi-EGjuEGxR9eA/s1600/b-r-ambedkar.jpg"><img style="float: left; margin: 0pt 10px 10px 0pt; cursor: pointer; width: 240px; height: 175px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikeZ9I1rXarrFQF7RqiMTWsDUTSSKiKkBqgjlB9QfYFAy7ov8ex0olzEos2HmlTH889XYW-Oi4wrD980xUBoOrS8XxK_ZGs32qn_-VKIlrQSQxZRKOV1ZOmwVm1gRMqBIi-EGjuEGxR9eA/s320/b-r-ambedkar.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5532526065048025842" border="0" /></a><br /><div style="text-align: justify;">जो पीढ़ी इतिहास में हस्तक्षेप नहीं करती, इतिहास निश्चय ही उसका अनादर कर बैठता है। इसलिए इतिहास को प्रभावित करनेवाले <span style="font-weight: bold;">गांधी</span>, <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> और <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> -सभी इतिहास की नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते हुए इसकी धारा को मोड़ने की कोशिश करते हैं। वे इतिहास की उन धारणाओं, स्थापनाओं से भी टकराते हैं जो समाज को गति प्रदान करती हैं। ‘इतिहास में व्यक्ति की भूमिका’ सदैव विवाद के केन्द्र में रही है। खासकर <span style="font-weight: bold;">मार्क्स</span> द्वारा इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या पेश किये जाने के बाद यह विवाद और भी गहराता नजर आया है। इस सवाल ने <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> को भी खासा परेशान किया था। वे लिखते हैं, ‘क्या इतिहास महापुरुषों का जीवन-चरित्र होता है ? यह प्रश्न प्रासंगिक भी है और महत्त्वपूर्ण भी। क्योंकि यदि महापुरुष इतिहास के निर्माता नहीं तो कोई कारण नहीं कि हम सिनेमा के सितारों से अधिक ध्यान उनकी ओर दें।’ (<span style="font-style: italic;">अम्बेदकर वांग्मय </span>, खंड,1, पृष्ठ 225)। आगे <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> इस संबंध में अब तक दिए गए विचारों का एक वर्गीकरण तैयार करते हैं-‘कुछ लोग ऐसे हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि एक व्यक्ति कितना भी महान हो, समय ही उसका सृजनहार है, समय ही उसको बनाता है समय ही सब कुछ करता है। वह कुछ नहीं करता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहते हैं, जिन लोगों का यह विचार व मत है, मेरे विचार से वे इतिहास की गलत व्याख्या करते हैं।’<br /></div><div style="text-align: justify;" class="post-body entry-content"><br /><span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> ने इतिहास के सिद्धांतकारों का जो वर्गीकरण किया है उसके अनुसार अगर मानें तो ‘ऐतिहासिक परिवर्तनों के संबंध में तीन अलग-अलग मत रहे हैं। हमारे पास इतिहास के <span style="font-weight: bold;">ऑगेस्टेनियन सिद्धांत</span> हैं जिसके अनुसार इतिहास केवल एक दैवी योजना की अभिव्यंजना है। इसके अंतर्गत मानव जाति को युद्ध तथा पीड़ा झेलते हुए उस समय तक निरंतर बने रहना है जब तक वह दैवी योजना कयामत के दिन पूरी न हो सके। <span style="font-weight: bold;">बर्कले</span> का मत है कि इतिहास की रचना भूगोल तथा भौतिकी ने की है। <span style="font-weight: bold;">कार्ल मार्क्स</span> ने तीसरा मत प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार इतिहास आर्थिक शक्तियों का प्रतिफल है। इन तीनों में से कोई भी यह स्वीकार नहीं करता कि इतिहास महापुरुषों की जीवनी होता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। आगे वे और स्पष्ट करते हैं ‘जहां तक <span style="font-weight: bold;">बर्कले</span> और <span style="font-weight: bold;">मार्क्स</span> का संबंध है, यद्यपि उनके कथन में सत्यता है, परंतु उनके मत पूर्ण सत्य को निरूपित नहीं करते। उनका यह मत बिल्कुल गलत है कि इतिहास के निर्माण में व्यक्ति से इतर शक्तियां ही सब कुछ होती हैं और व्यक्ति का उसे बनाने में कोई हाथ नहीं होता है।’ (वही)। <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> अपना फैसला सुनाते कहते हैं, ‘व्यक्ति से इतर शक्तियां एक निर्धारी कारक होती हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु यह बात भी स्वीकारी जानी चाहिए कि व्यक्ति से इतर शक्तियों का प्रभाव व्यक्ति पर निर्भर करता है।’ (वही)।<br /><br />इतिहास के निर्माण में व्यक्ति की भूमिका को रेखांकित करने के क्रम में <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span>, <span style="font-weight: bold;">कार्लाइल</span> की पंक्ति उद्धृत करना नहीं भूलते। ‘जरूरी नहीं कि कोई युग नष्ट-भ्रष्ट हो ही, यदि वह पर्याप्त महान एवं विद्धान व्यक्ति को प्राप्त कर ले। यदि समय की सही मांग को पहचानने वाले ज्ञान चक्षु हों, उसे सही मार्ग दिखाने का साहस एवं शौर्य हो तो किसी भी युग का उद्धार हो सकता है।’ (वही, पृष्ठ 255) <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> के अनुसार, यह उनलोगों के लिए एक बिल्कुल निर्णायक उत्तर प्रतीत होता है, जो इतिहास को बनाने में मनुष्य को कोई स्थान देने से इनकार करते हैं। मनुष्य इतिहास के निर्माण का एक साधन है और पर्यावरण संबंधी शक्तियों के, चाहे दैवी हों या सामाजिक, भले ही सर्वप्रथम हों, पर वे अंतिम चीज नहीं हैं। (वही, पृष्ठ 256)। कोई अल्पज्ञात ही कहेगा कि <span style="font-weight: bold;">मार्क्स</span> परिवर्तनकारी शक्तियों में व्यक्ति की भूमिका स्वीकार नहीं करते। अलबत्ता ‘दैवी शक्तियों’ पर तो स्वयं इतिहास का भी कोई वश नहीं होता!<br /><br />इतिहास की अपनी अवधारणा में <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span>, <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> के उलट <span style="font-weight: bold;">मार्क्स</span> के ज्यादा करीब हैं और <span style="font-weight: bold;">कार्लाइल</span> व <span style="font-weight: bold;">हीगेल</span> से कोसों दूर। सन् 1928 में <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> ने इतिहास को परिभाषित करते हुए लिखा, ‘इतिहास युद्धों एवं योद्धाओं की कहानी नहीं है। यह हमें कुछ चुनिंदा लोगों के ही बारे में नहीं बताता बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि किसी भी देश में आमजन की स्थिति क्या है। सच्चा इतिहास आमजन का इतिहास होता है जिनके श्रम से किसी देश की महान सभ्यता की नींव पड़ती है। (वी.सी.पी.चौधरी, <span style="font-style: italic;">सेक्यूलरिज्म वर्सस कम्युनलिज्म</span> , पृष्ठ 112)। <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> के लिए महापुरुषों के जन्म की घटना भी कोई चमत्कार नहीं है। वे बहुत साफ समझते हैं कि असाधारण समय में अत्यंत साधारण मनुष्य भी कैसे असाधारण हो जाते हैं। <span style="font-weight: bold;">नेहरु</span> ने <span style="font-weight: bold;">इंदिरा</span> को पत्रों के माध्यम से यह बात तब समझाई थी जब वह महज दस साल की बच्ची थी।<br /><br /><span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> ने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति व्यवस्था। जाति व्यवस्था को समझने के लिए उन्हें वर्ण व्यवस्था से भी टकराना पड़ा। फलतः कुछ अत्यंत ‘मौलिक’ बातें ढूंढ़ निकाली। उनका मानना है कि ‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धांत से मूल रूप में भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर विरोधी है। पहला सिद्धांत गुण पर आधारित है। यह सारी गड़बड़ी जाति व्यवस्था की है वर्ण व्यवस्था की नहीं।’ शायद इसीलिए <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> ‘आदर्श वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करने की बात करते हैं। ‘उसके उद्येश्य से वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा।’( <span style="font-style: italic;">अम्बेदकर वांग्मय</span> , खंड,1, पृष्ठ 81)। <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> के इस पेंच को थोड़ा ढीला करने के लिए हम यहां महज इतना भर जोड़ देना आवश्यक समझते हैं कि ‘चूंकि वर्ण व्यवस्था में, कल्पित श्रम विभाजन में आरंभ से ही उसके वंशानुगत रूप पर जोर दिया गया, इसलिए वर्ण से जाति का भी बोध हो सकता था और इन दोनों शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के स्थान पर भी हो सकता था। बंगाल से प्राप्त दसवीं सदी के एक ताम्रपत्र लेख में उल्लिखित बृहच्छत्रिवण्ण (एक ऐसा गांव जिसमें छत्तीस वर्ण के लोग रहते हैं) नामक गांव से पता चलता है कि आम व्यवहार में इन दोनों शब्दों का प्रयोग बिना किसी भेदभाव के किया जाता था।’ (<span style="font-weight: bold;">पुष्पा नियोगी</span>, <span style="font-style: italic;">ब्राह्मणिक सेट्लमेंट्स इन डिफरेंट सब डिवीजन्स ऑफ बंगाल</span> , पृष्ठ 55)। वर्ण और जाति व्यवस्था में सम्मिलित लोगों की दृष्टि में इन दोनों शब्दों के समानार्थी होने से संकेत मिलता है कि वर्ण और जाति दो भिन्न प्रणालियां नहीं बल्कि एक ही प्रणाली थे। और यह तो सर्वविदित ही है कि स्वयं हिन्दू आज भी, जाति प्रथा के वर्ण से लेकर, समाजशास्त्रियों की भाषा में बात करें तो ‘उपजाति’ तक के सभी स्तरों के लिए जाति शब्द का ही प्रयोग करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वेदोत्तर काल के बौद्ध तथा ब्राह्मण साहित्य में बार-बार उल्लिखित जाति शब्द का मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं निकालना चाहिए कि वर्ण व्यवस्था में समाये मूल्यों और व्यवहारों से भिन्न प्रकार के मूल्यों और व्यवहारों पर आधारित कोई जाति व्यवस्था ई. सन् के आरंभ से कुछ सदी पूर्व काम कर रही थी।<br /><br /><span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> यह भी कहते हैं कि ‘गुण के आधार पर चातुर्वर्ण्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अनर्थकारी नामों से रखना -जिनसे जन्म के आधार पर सामाजिक विभाजन का संकेत मिलता है, समाज के लिए फंदे की तरह है।’ ( <span style="font-style: italic;">अम्बेदकर वांग्मय</span> , खंड,1, पृष्ठ 81)। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी फंदे को अपनाकर बौद्ध धर्म क्रांतिकारी हो जाता है, अथवा यों कहें कि वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते हुए भी बौद्ध धर्म की क्रांतिकारी भूमिका कायम रहती है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और अब किसी से छिपा भी नहीं है कि एक गंभीर बहस (आत्मचिन्तन) के बाद <span style="font-weight: bold;">गौतम बुद्ध</span> ने क्षत्रिय वर्ण में जन्म लिया। यह और बात है कि यह बहस कहीं बाहर समाज में नहीं बल्कि <span style="font-weight: bold;">बुद्ध</span> के अंतर्मन में चली। जातक कथाओं के अध्ययन से साफ पता चलता है कि बुद्ध ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुल में ही जन्म लेना श्रेयस्कर मानते थे। ब्राह्मण-क्षत्रिय कुल के अनुसार क्षत्रिय कुल लोकमान्य है, इसलिए श्रेष्ठ है। क्षत्रियत्त्व की श्रेष्ठता से <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> भी खासे प्रभावित लगते हैं। कहना न होगा कि अपनी पुस्तक में <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> शूद्र को क्षत्रिय साबित करने में काफी श्रम और समय लगाते हैं। इस तथ्य से कि <span style="font-weight: bold;">बुद्ध</span> ने वर्णक्रम को स्वीकार किया है, <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> इस बात से अनजान नहीं हो सकते।<br /><br />लेकिन कहना पड़ेगा कि <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> को इतिहास का अज्ञान (अ-ज्ञान) है। वे कहते हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि चातुर्वर्ण्य के समर्थकों ने यह नहीं सोचा कि उनकी इस वर्ण व्यवस्था में स्त्रियों का क्या होगा ? क्या उन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चार वर्णों में विभाजित किया जाएगा या उन्हें अपने पतियों का दर्जा प्राप्त कर लेने दिया जाएगा ? यदि स्त्री का दर्जा शादी के बाद बदल जाएगा तो चातुर्वर्ण्य का क्या होगा अर्थात क्या किसी व्यक्ति का दर्जा उसके गुण पर आधारित होना चाहिए। इस स्थिति में चातुर्वर्ण्य के समर्थकों को स्वीकार करना होगा कि उनकी वर्ण व्यवस्था स्त्रियों पर लागू नहीं होती।’ (वही, पृष्ठ 83)। <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> को यह कैसे मालूम नहीं हो सकता कि संपूर्ण हिन्दू शास्त्र (<span style="font-style: italic;">मनुस्मृति</span> विशेष रूप से) में स्त्रियों की गिनती शूद्रों के साथ होती रही है। क्या यह भी किसी को बताने की जरूरत है कि शूद्र की अयोग्ताएं एक स्त्री की भी अयोग्यताएं हैं। शूद्र और स्त्री भारतीय संस्कृति में वेदपाठ एवं अन्य धार्मिक अधिकारों के मामले में समान रूप से उपेक्षित और वंचित रहे हैं। क्या कोई बता सकता है कि जनेऊ पहनने का अधिकार शूद्र एवं स्त्री में किसे प्राप्त है। संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र क्या समान रूप से ‘हीन’ (अपभ्रंश) भाषा का प्रयोग करते नहीं पाये जाते ? इतिहास के ये तथ्य <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> के लिए किसी ‘काम’ के साबित नहीं होते। उन्हें तो <span style="font-weight: bold;">कबीर</span> की फटकार भी सुनाई नहीं देती-‘‘मोटी जनेऊ ब्राह्मण पेठो, ब्राह्मणी को नहीं पहनाई। जनम जनम को भई वो सूदा, उने परस्यो तने खाई।।’’ कारण शायद यह रहा हो कि स्वयं <span style="font-weight: bold;">बुद्ध</span> ने ही स्त्रियों का घोर विरोध कर डाला था। <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> में <span style="font-weight: bold;">बुद्ध</span> के खिलाफ जाने की हिम्मत न थी। विरासत का तिरस्कार! बौद्ध धर्म-दर्शन शायद <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> के लिए ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसा था।<br /><br />अम्बेदकर का मानस पूर्वग्रह से ग्रस्त है, इसलिए कई चीजों से जान-बूझकर बचने की कोशिश करता है, पीछा छुड़ाने की शैली में। इसलिए अवैज्ञानिक नतीजे निकाल लेता है। वे कहते हैं, ‘भारतीय इतिहास में केवल एक ऐसा काल है, जिसे स्वतंत्रता, महानता और गौरवपूर्ण युग कहा जाता है। वह युग है मौर्य साम्राज्य। सभी युगों में देश में पराभव और अन्धकार छाया रहा है। लेकिन मौर्य काल में चातुर्वर्ण्य को जड़ मूल से समाप्त कर दिया गया था। मौर्य युग के शूद्र जिनकी संख्या काफी थी, अपने असली रूप में सामने आए और देश के शासक बन गए। इतिहास में पराभव और अंधकार का युग वह था जब चातुर्वर्ण्य देश के अधिकांश भाग में अभिशाप बनकर फैल गया।’ (वही, पृष्ठ 86)। कहना होगा कि मौर्य काल से संबंधित जितने भी देशी-विदेशी विद्वान हैं, <span style="font-weight: bold;">चाणक्य</span> से लेकर <span style="font-weight: bold;">मेगास्थनीज</span> तक-किसी ने भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के लोप की बात न कही है। मौर्य काल का वैभव और उसकी महानता, देशी शूद्रों और कलिंग-युद्ध में लाखों की संख्या में बंदी बनाये गये दासों से पैदा हुई, जिन्हें कृषि-दासों में परिणत कर बड़े-बड़े राजकीय फार्मों में लगाया गया। अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि मौर्यों के पास सबसे बड़ी सेना, सबसे बड़ी नौकरशाही और साथ ही सबसे बड़ी गुप्तचर व्यवस्था थी। शायद यही कारण है कि प्राचीन भारत के इस ‘महान’ युग में किसानों से टैक्स की अधिकतम दर वसूल की जाती थी। किसान शोषण से तंग आकर गांव तक छोड़ देने को मजबूर थे। तक्षशिला के किसानों ने <span style="font-weight: bold;">बिंदुसार</span> एवं <span style="font-weight: bold;">अशोक</span>- दोनों ही महान मौर्य शासकों के काल में विद्रोह किया था। <span style="font-weight: bold;">चाणक्य</span> राजकोष भरने के लिए सही-गलत कई आश्चर्यजनक तरीके बताता है। वह <span style="font-style: italic;">अर्थशास्त्र</span> में लिखता है कि जरूरत पड़ने पर राजा देवताओं की मूर्त्तियां बनवाकर बाजार में बेचे, जनता की धार्मिक भावना का दोहन करे, अंधविश्वास पैदा करे। फिर भी <span style="font-weight: bold;">अम्बेदकर</span> के लिए मौर्य काल महान काल है क्योंकि उनकी दृष्टि व्यक्ति से बनती है, समय और समाज की भौतिक सामाजिक परिस्थितियों से नहीं। और फिर शायद इसलिए भी कि इस युग में चातुर्वर्ण्य समाप्त हो गया था, कि शूद्र अपने ‘असली’ (बतौर शासक) रूप में सामने आए थे। </div> <span class="post-author vcard"> </span>राजू रंजन प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/06383761662659426684noreply@blogger.com1