Thursday, August 6, 2009

शिक्षक नशेड़ी, गंजेड़ी हैं तो क्या पत्रकार संत हैं?




नवनियोजित शिक्षकों के आन्दोलन की खबरें बिहार के अखबारों में ‘प्रभात खबर’ ने सबसे शानदार तरीके से छापीं लेकिन ‘सुशासनी।’ डांट से अब ये ‘उल्टी गंगा बहाने’ लगे हैं। अनुराग कश्यप, दर्शक (लेखक हैं तो बुर्के में क्यों हैं?) और सुरेन्द्र किशोर इन शिक्षकों को अयोग्य साबित करने पर तुले हैं। शायद कोई ‘सरकारी फरमान’ मिला हो या कि ‘राजकीय पत्रकार’ नियुक्त होने के लिए ये लोग भी ‘दक्षता परीक्षा’ से गुजर रहें हैं। अनुराग कश्यप जी शिक्षकों को गुटखा-पान खाने वाला बता कर अयोग्य घोषित करना चाहते हैं। अगर योग्यता-अयोग्यता का यह भी एक पैमाना है तो न चाहते हुए भी कहना पड़ रहा है कि मद्यपान का प्रतिशत पूरी दुनिया में और खासकर बिहार में, किसी भी अन्य पेशे के लोगों से ज्यादा पत्रकारों में है। यहां तो ‘पियक्कड़’ होना एक अच्छा पत्रकार होने की पूर्व शर्त की तरह है। आप पत्रकार हैं तो मालूम ही होगा कि अधिक सिगरेट पीने वालों में एक नाम कार्ल मार्क्स भी है। मोतीलाल नेहरु ‘विदेशी दारू’ पीते थे। वाजपेयी जी के बारे में तो कभी आपने भी लिखा ही होगा। हिन्दी कविता के ‘सूर्य’ निराला हमेशा सोडा-वाटर के साथ पीते थे। नहीं तो नीट। पानी मिलाना उन्हें बिल्कुल गवारा न था। अलबत्ता कम आय वाले पत्रकार ‘ठर्रा’ से ही काम चलाते हैं। अनुराग जी सोचें कि क्या शराब पीने वाले पत्रकार अयोग्य हैं या कि सिर्फ अयोग्य पत्रकार ही पीते हैं? मेरे लिए तो अब भी यह योग्यता-अयोग्यता का पैमाना नहीं हो सकता।





पहले सुरेन्द्र किशोर और फिर अनुराग कश्यप लिखते हैं कि नवनियोजित शिक्षकों को आवेदन तक लिखने का ज्ञान नहीं है। उनके अनुसार ऐसे शिक्षक ‘स्टॉमेक में हेडक’ होने की बात लिख डालते हैं। अनुराग जी, पाठकों से छिपा नहीं है कि आप जैसे पत्रकार दफ़्तर में डेस्क पर बैठे-बैठे बगैर किसी शिक्षक से मिले पूरी की पूरी ‘स्टोरी’ गढ़ लेते हैं और अंत में लिख देते हैं ‘इस लेख में उल्लेख किए गए नाम बदल दिए गए हैं।’ मैं यह नहीं कहता कि शिक्षकों में कुछ अयोग्य लोग शामिल नहीं हैं। लेकिन क्या आप कोई ऐसा पेशा बता सकते हैं, जिसमें कुछ अयोग्य लोग न हों? कुछ साल पहले बिहार में व्याख्याताओं की नियुक्ति हुई थी। तत्कालीन गवर्नर को लगा कि इसमें बड़े पैमाने पर धांधली हो रही है तो उन्होंने नियुक्ति प्रक्रिया पर रोक लगा दी। यही ‘सुशासनी मोदी’ थे जो गलत को सही करने के लिए नया गवर्नर लाए। उक्त नये गवर्नर ने अपने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद (तीन दिनों के अंदर) ‘अयोग्य व्याख्याताओं’ की नियुक्ति की। मामला विजिलेंस में गया और उस पर रिपोर्ट भी कई सालों से मुख्यमंत्री के टेबुल पर पड़ी है। यह रिपोर्ट व्याख्याताओं की ‘अदृश्य योग्यता’ के बारे में अनगिनत सबूतों से भरी पड़ी है। सरकार और उनके चाटुकारों को उनकी भी ‘योग्यता’ पर कुछ बोलना चाहिए। मुख्यमंत्री चुप हैं कि बोलेंगे तो उनकी भी ‘परीक्षा’ हो जाएगी।


इसलिए अनुराग जी, परीक्षा से सिर्फ नवनियोजित शिक्षक ही नहीं डर रहे, हमारे मुख्यमंत्री तक डरते हैं। हम शिक्षक अगर ‘स्टॉमेक में हेडक’ होने की बात लिखते हैं तो सचमुच चिंता का विषय है। इस पर सामूहिक विमर्श की जरूरत है। क्या आप नहीं मानते कि देश अथवा सभ्य समाज का नागरिक अखबारों और पत्रिकाओं के सहारे भाषा समृद्ध करता है और यह भी कि आजकल हिन्दी अखबारों की भाषा कितनी अशुद्ध हो गई है। यह कहते अच्छा नहीं लगता कि ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ लेना बंद करके बीच में कुछ दिनों के लिए मैंने ‘सहारा इंडिया’ अखबार लेना शुरु किया। एक माह के अंदर ही उसे बंद करना पड़ा क्योंकि बेटे ने ‘विद्रोह’ कर दिया। कहा - ‘पापा इसका एक वाक्य भी शुद्ध नहीं होता।’ परिवार की आंतरिक शांति को ध्यान में रखते हुए मैंने ‘सहारा इंडिया’ लेना बंद कर दिया। तभी ‘प्रभात खबर’ के संपादक अजय कुमार के यहां ‘उनका’ अखबार देखा। मुझे पसंद आया और कहूं कि पिछले दो माह से हिन्दी अखबार के नाम पर मैं ‘प्रभात खबर’ ही लेता हूं। लेकिन इसकी भाषा पर भी ध्यान देने की जरूरत है।


पत्रकारिता स्कूल के ‘द्रोणाचार्य’ सुरेन्द्र किशोर अगर ‘महत्त्वपूर्ण स्मरणीय बात’ लिखते हैं तो क्या भाषा भ्रष्ट नहीं होती? उन्हें खूब मालूम है कि महत्त्वपूर्ण बातें स्मरणीय होती हैं या फिर स्मरणीय बातें महत्त्वपूर्ण होती ही हैं। जून माह में आपके अखबार के एक अंक में किसी पत्रकार ने लिखा ‘ब्रिटिशवासी’ वह भी खबर के शीर्षक में, मोटे (बोल्ड)अक्षरों में। आए दिन आप छापते रहते हैं ‘पांच फीट चौड़ी सड़क।’ आप जानते हैं कि हिन्दी में फुट का ही प्रयोग चलता है फीट का नहीं। इसलिए महाशय, शिक्षक अपनी भाषा की दुर्दशा के लिए अकेले जिम्मेवार नहीं हैं। दूसरों की गलती दिखा कर आप बेदाग नहीं बच सकते।


कुछ समय पहले ‘बिहार राज्य अभिलेखागार’ में पुस्तक लोकार्पण समारोह था। शहर के ‘तोप’ बुद्धिजीवी वहां पधारे थे। ‘इतिहासवेत्ता’ हेमंत भी थे। मुख्यमंत्री को अशोक अंशुमान एवं श्रीकांत द्वारा ‘संपादित दस्तावेज’ का लोकार्पण करना था। तीन-तीन बैनर लगे थे, लेकिन किसी पर भी ‘मुख्यमंत्री’ शब्द सही तरीके से नहीं लिखा गया था। जाहिर है, इस कार्यक्रम के पीछे किसी नवनियोजित शिक्षक का हाथ नहीं था।


इसीलिए कहता हूं कि अनुराग जी, गिरावट आई है, लेकिन केवल नियोजित शिक्षक ही उसकी चपेट में नहीं हैं। हिन्दी अखबार का संपादकीय तक गिरावट की चपेट में है।