Tuesday, August 31, 2010

साहित्य और उसका चरित्र



हमारे युग की कला क्या है ? न्याय की घोषणा, समाज का विश्लेषण,परिणामतः आलोचना। विचार तत्व अब कला तत्व में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि वह उसमें आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्याप्त भावना से निःसृत होती है, यदि वह पीड़ित हृदय से निकली कराह या चरम उल्लसित हृदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल या किसी सवाल का जवाब नहीं, तो वह निर्जीव है।’ साहित्यकार बेलिंस्की ने ऊपर की ये पंक्तियां साहित्य के चरित्र को स्पष्ट करते हुए लिखी थीं।

‘कला की साधना कला के लिए’ एक छायावादी नारा है जो अब काफी पुराना पड़ गया है। इसे याद करना मरे घोड़े को चाबुक से मारकर पुनर्जीवित करना होगा। अब तो साहित्य का संबंध कला की अपेक्षा जीवन से ज्यादा हो गया है। अक्सरहा यह कहा जाने लगा है कि ‘कला जीवन के लिए’ है। सचमुच पवित्र साहित्य वही है जो मनुष्य को उसके बेहतर जीवन के लिए मार्गदर्शन करे तथा परिस्थितियों का निर्माण करे।

साहित्यकारों के बीच इसके चरित्र को लेकर काफी गरमागरम बहसें हुई हैं। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने इसे तोड़-मरोड़कर परिभाषित करने की कोशिश की है। लेकिन असलियत तो यह है कि साहित्य बगैर चरित्र के जीवित ही नहीं रह सकता है। बर्तोल्त ब्रेख्त ने, साहित्य का वर्ग चरित्र होता है, को पुष्ट करते हुए लिखा था, ‘लेखन द्वारा लड़ो। दिखा दो कि तुम लड़ रहे हो। जानदार यथार्थवाद। यथार्थ तुम्हारे पक्ष में है, तुम भी यथार्थ का पक्ष लो। जिंदगी को बोलने दो। उसे बिगाड़ो मत।’ सचमुच सच्चा साहित्य वही है जिसमें जिंदगी की पुकार हो। जिंदगी की रक्षा के लिए लिखा गया साहित्य ही असली साहित्य है।

साहित्य सत्य है। सत्य सदा सत्य होता है। सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर आप ले सकते हैं-गैलिलियो ने कहा था कि पृथ्वी घूमती है। इस सत्य को धार्मिक नेताओं ने न सिर्फ गलत कहा था बल्कि उस पर प्रचंड प्रहार भी किया था। लेकिन आज इसे सत्य के रूप में देखा जाता है। सत्य प्रचंड होता है। इसकी तेज-तर्रार ज्याति हमेशा चमकती रहती है। यह छिपाये छिप नहीं सकती। अतः जिस चीज का अस्तित्व है, उसे स्वीकारना ही पड़ेगा। छिपाने और अस्वीकारने का प्रयास असाधारण दक्षता के बावजूद निरर्थक सिद्ध होगा।

वर्ग-चरित्र वाले साहित्य पर अक्सर प्रचार होने का आरोप लगाया जाता है। कुछ साहित्यकारों ने लुशून पर भी प्रचार का आरोप लगाया था। अपने ऊपर लगाये गये आरोप को खंडित करते हुए उन्होंने लिखा था कि अमरिकन लेखक सिंक्लेयर ने साहित्य को प्रचार मात्र माना है। यह सत्य है। साहित्य लेखक के विचारों की अभिव्यक्ति है। वह चाहे तो अपना सम्पूर्ण जीवन उसमें लिपिबद्ध देख सकता है। जब साहित्य लेखक की अभिव्यक्ति है तब ज्योंहि वह व्यक्ति द्वारा सृजित होकर बाहर आता है, तभी सारा का सारा साहित्य प्रचार हो जाता है। साहित्य को लेखक के जीवन की घटनाओं से अलग नहीं किया जा सकता। और अगर बात ऐसी है कि साहित्य प्रचार है तो क्या सारा का सारा प्रचार साहित्य है ?

आजकल साहित्य में एक नयी लेखन प्रणाली अपनाने की बात की जा रही है। इस बात की चर्चा जोरों पर है कि साहित्य को सेकुलर तथा निष्पक्ष होना चाहिए। यह दो शब्द सेकुलर और निष्पक्ष हमारे सामने प्रश्नचिह्न लाकर खड़ा कर देते हैं। आज यह अलग विवाद का रूप धारण कर लिया है। क्या सचमुच वर्गमुक्त लेखन संभव है ? दरअसल यह भी एक पूंजीवादी ‘मिथ’ है जिसका पतिक्रियावादी ताकत काफी इस्तेमाल कर रहे हैं। संक्षेप में, वर्गमुक्त लेखन संभव नहीं हो सकता। इस संदर्भ में लेनिन ने कहा था-‘कोई भी व्यक्ति वर्गों का सम्बन्ध समझ लेने के बाद एक या दूसरे वर्ग का पक्ष लिए बिना, उस वर्ग की सफलता पर आह्लादित हुए और उसकी विफलता पर निराश हुए बिना नहीं रह सकता।’ साहित्य में किसी खास वर्ग का पक्ष लेना जरूरी हो जाता है। सच को सच कहने की ताकत साहित्य में होनी चाहिए। वही साहित्य पवित्र है जो मनुष्य को बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। साहित्य के चरित्र के बारे में रामविलास शर्मा ने कहा था कि असली साहित्य वही है जो लोगों को लड़ना सिखाए। वैसा साहित्य जो लोगों को व्यवस्था से लड़ने के लिए प्रेरित नहीं करता हो साहित्य नहीं कहला सकता। डा. शर्मा के शब्दों में साहित्य का काम बेचैनी पैदा करना है सुलाना नहीं। साहित्य को किसी खास वर्ग का पक्षधर होना चाहिए। उसे सर्वहारा का पक्ष लेना चाहिए। यह हमेशा से शोषितों और पीड़ितों का वर्ग रहा है। साहित्य समाज का लिखा जाता है और जब समाज ही वर्गों में विभक्त हो तो साहित्य में वर्ग-भेद क्यों नहीं होगा। निश्चित रूप से साहित्य किसी खास वर्ग का पक्ष लेगा। विशेष वर्ग में अपनी विशेष रुचि दिखाएगा। साहित्य का अपना चरित्र होता है। तब तो महत्वपूर्ण बात यह है कि वह चरित्र किस वर्ग का है। साहित्य की पक्षधरता की बात को स्वीकारते हुए लुशून ने लिखा था-‘मैं उनलोगों की मौन आत्मा की तस्वीर पेश करना चाहता हूं जो हजारों वर्षों से चट्टानों के बीच घास के रूप में अंकुरित है।’                                                                                                      

प्रकाशन: आत्मकथा,  27 सितंबर 1987।

Thursday, August 26, 2010

बहन ही भाई को राखी क्यूं बांधे?

स्वतंत्रता दिवस की ही भांति रक्षा-बंधन के अवसर पर भी मैंने ‘ऑरकुट ’ एवं ‘फेसबुक’ के अपने साथियों को शुभकामनाएं दी। हालांकि रक्षा-बंधन के अवसर पर मंगल-कामना करते हुए मेरे मन में एक संकोच बना हुआ था। मुझे डर था कि कहीं गैर-मार्क्सवादी या मार्क्सवाद विरोध न करार दिया जाऊं। इस डर की वजह यह है कि मैंने अपने मार्क्सवादी( ?) मित्र मनोज कुमार झा से सुन रखा था कि वे इसे स्त्री विरोधी मानते हैं। वे अपनी बहनों से राखी नहीं बंधवाते थे, क्योंकि राखी का पर्व उनके लिए स्त्री को कमजोर, अबला मानने अथवा साबित करने का पर्व था। मनोज ने अपने बेटे-बेटियों को भी इस ‘कुप्रथा’ से दूर रखने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। फेसबुक पर कई दूसरे मित्रों  ने भी इसी से मिलते-जुलते आशय वाले विचार व्यक्त किये। तस्लीमा नसरीन ने तो सवाल ही खड़ा  कर दिया कि ‘बहन ही भाई को राखी क्यूं बांधे, भाई बहन को क्यों नहीं?’ कुछेक इसके समर्थन में भी प्रस्तुत हो गये।
 
अव्वल तो यह कि बहन द्वारा भाई को राखी बांधा जाना हमारी परंपरा का हिस्सा है। इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। दूसरे कि केवल बहन ही भाई को राखी बांधती है, ऐसा कहना अपने अनुभव-जगत को छोटा करना है। तस्लीमा नसरीन जैसे रचनाकार से, जिनकी बातें एक बड़े पाठक-वर्ग के लिए ‘अंतिम सत्य’ की तरह होती हैं, इस तरह के अगंभीर वक्तव्य की आशा नहीं की जा सकती।
 
जहांतक मैंने अपने बचपन में देखा है, रक्षा-बंधन के दिन हमलोग सुबह-सुबह स्नान करते और अपने कुल-पुरोहित (ब्राह्मण) के आने का इंतजार करते। वे आते और हम तमाम लोगों की कलाई पर राखी बांधते। हां, इतना अवश्य ख्याल रखते कि पुरुषों की दाईं कलाई पर राखी बांधते और स्त्रियों की बाईं। लेकिन बांधते सबको। यह ब्राह्मण (पुराहित वर्ग) का बंधन होता। तदुपरांत, घर में बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती। जिसे बांधा जाता वह बंधन में होता। यह बात तो कल्पना से भी परे की है कि एक ब्राह्मण राखी बंधकर खुद बंध जाता! बहनों के बारे में भी यही ख्याल है। पता नहीं यह अविवेकी व्याख्या कहां से निकल पड़ी कि बहनें अबला हैं, इसलिए अपने रक्षार्थ राखी बांधती हैं।
 
मैंने यह भी पाया कि लोग पंडितजी से अतिरिक्त राखी लेते और अपनी-अपनी लाठी को भी बांधते। इस तरह से ‘दंड’ को बांधकर ‘अति-उत्पात’ से बचने की कोशिश होती। हम बच्चे लोग पूरे साल उस राखी को अपनी किताबों के बीच पन्नों छिपाये-सहेजे रखते। मैंने इतिहास की किताबों में पढ़ रखा है कि सन् 1905 ई. में जब बंग-भंग हुआ था तो स्वदेशी आंदोलन के पैरोकरों ने एक-दूसरे की कलाई पर राखी बांधकर राजनीतिक एकता का परिचय दिया था। यहां भी स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं था। भेद तो ‘नारीवादी विमर्श’ के दर्शन में है। यह भेद खत्म हो जाये तो नारीवादी विमर्श का आधार ही क्या ? इसलिए तसलीमा जी, आपके इस कथन का कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं है। संभव है, कोई ‘राजनीतिक’ मकसद निकल आये!

Tuesday, August 24, 2010

हिन्दू धर्म की सहिष्णुता औरतों और शूद्रों से पूछिए!

मेरे एक पुराने पोस्ट  धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध --3 पर निशाचर जी ने कुछ सवाल खड़े किये थे। उनका हवाला देते हुए मिहिरभोज ने भी कुछ बातें कहीं। दोनों की बातों को देखते हुए अपने पक्ष में कुछ बातें रखना मेरे लिए आवश्यक-सा हो गया है।  
 

मैं कहूं कि निशाचर जी ने जो सवाल खड़े किये हैं वे उनके पूर्वाग्रह से निर्धारित-नियंत्रित हैं। मेरे लेख में कहीं भी राष्ट्रवाद की अवधारणा या राष्ट्र की आवश्यकता का निषेध नहीं है। ये और बात है कि भारतीय राष्ट्रवाद का जो तत्कालीन स्वरूप था उससे सांप्रदायिकता को बल मिला है। एक राष्ट्र की भौगोलिक सीमा की अनिवार्यता से फिलहाल मुझे इनकार नहीं है। निशाचर जी को भला यह कैसे नहीं मालूम कि ये गैर-मार्क्सवादी लोग हैं जो राष्ट्र की अवधारणा को अप्रासंगिक बता रहे हैं। आप कहने से क्यों परहेज कर रहे कि यह जमात नव-साम्राज्यवादियों की है। विश्वग्राम, उदारीकरण आदि सब राष्ट्र-राज्य की कब्र ही से तो निकले हैं।
 
मेरी जानकारी दुरुस्त करते निशाचर फरमाते है कि ‘वेद धर्म और जाति को उस रूप में परिभाषित नहीं करता जिस रूप में आज हम उसे जानते हैं।’ मुझे इस बात से बेहद खुशी मिली कि चलिए निशाचर भाई में थोड़ा ही सही, इतिहास-बोध बाकी है। लेकिन क्या मैंने ऐसा कहा है ? निशाचर जी की समस्या है कि वे राष्ट्र को धर्म के साथ मिलाकर देख रहे हैं। हिन्दू राष्ट्रवाद के चश्मे से ऐसा ही दिखता है। आपकी जानकारी के लिए निवेदन है कि राष्ट्र के उदय से बहुत पहले धर्म का ‘आविष्कार’ किया जा चुका था। राष्ट्र का आधार अगर धर्म होता, जैसा निशाचर जी स्थापित करते हैं, तो दुनिया में जितने धर्म हैं, राष्ट्रों की संख्या भी उतनी ही होती। न एक ज्यादा न एक कम। क्यों ?
 
जहां तक हिन्दू धर्म की सहिष्णुता की बात है तो वह औरतों और शूद्रों से पूछिए। (लगता है, आप इन दो में नहीं आते।) इन दोनों का विश्वास न हो तो सर्वमान्य तुलसी बाबा से ही पूछ लें। बेचारे को कहना ही पड़ा-धूत कहौ अवधूत कहौ।
 
आपलोग तो तमाम की कुण्डली पास रखते हैं। मैं हिन्दू हूं-यह किस खुफिया एजेंसी से आपको पता चला ? क्या इससे किसी पूर्वाग्रह का पता नहीं चलता?
 
पुनश्च: खैर कहिए कि मैं आपके ‘रेंज’ से बाहर हूं वरना कुछ एक-आध पत्थर मारने के मूड में तो आप भी हैं मिहिरभोज जी। आप तो हिन्दू (?) होकर भी सहिष्णुता का परिचय नहीं दे पा रहे! 

Monday, August 23, 2010

साम्प्रदायिक इतिहास लेखन: एक बहस

इतिहास लेखन शुरू से ही एक अत्यंत ही विवादस्पद मुद्दा रहा है। प्राचीन भारत में भी इतिहास लेखन के अनेक सफल प्रयास हुए हैं और उसी समय से इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि इतिहास लेखन को वैज्ञानिक आधार दिया जाय तथा इसे किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत पूर्वाग्रह से वंचित रखा जाय। ‘राजतरंगिनी’ में इस बात का हवाला है कि ‘‘योग्य और सराहनीय इतिहासकार वही है जिसका अतीतकालीन घटनाओं का वर्णन न्यायाधीश के समान आवेश,पूर्वाग्रह व पक्षपात से मुक्त है।’’

अंग्रेजी राज की स्थापना के समय से भारतीय इतिहास लेखन का कार्य मुख्य रूप से अंग्रेज इतिहासकारों ने किया। उसने संपूर्ण भारतीय इतिहास को तीन कालखंडों में विभाजित किया जबकि किसी देश के इतिहास को कालखंडों में बांटा नहीं जा सकता। ध्यान देने की बात है कि अंग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को जाति, नस्ल एवं धर्म के आधार पर विभाजित किया। प्राचीन भारत को ‘हिन्दू सभ्यता’ तथा मध्यकाल को ‘मुस्लिम सभ्यता’ के रूप में देखा। महत्वपूर्ण ये है कि अंग्रेजी राज को उसने ‘क्रिश्चियन सभ्यता’ की संज्ञा नहीं दी।

भारतीय इतिहास में यह सवाल भी अत्यंत विचारणीय है कि जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति को इतिहासकार ‘हिन्दू संस्कृति’ कहते हैं, वह कहां तक उचित है ? सच्चाई तो यह है कि ‘हमारे पुराने साहित्य में ‘‘हिंदू’’ शब्द तो कहीं आता ही नहीं।’ रोमिला थापर का मानना है कि ‘हिन्दू जैसा टर्म इस्लाम के आगमन के पहले के ग्रंथों में भारत के संदर्भ में कहीं नहीं मिलता है। एक खास मजहब के माने में ‘‘हिन्दू’’ शब्द का इस्तेमाल बहुत बाद का है।’

अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा भारतीय इतिहास को नस्ल एवं संप्रदाय के रंग में रंगकर प्रस्तुत करने की बात तो समझ में भी आती है, और इसलिए वह क्षम्य भी है। लेकिन आजादी मिलने के बाद भी कुछ पालतू भारतीय इतिहासकारों ने अपने दिवंगत पिता की परंपरा का पालन बखूबी किया। ऐसे संप्रदायवादी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को उसी ‘फ्रेम’ में लिखने की प्रवृत्ति पर जोर दिया।

आर. सी. मजुमदार जैसे बुजुर्ग इतिहासकार ने यह साबित करना चाहा है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे। वे ‘प्राचीन भारत’ में लिखते हैं कि ‘आर्य परिवार के घरों एवं आज के आधुनिक घरों में विशेष कोई अंतर नहीं है। वे भी आज ही की तरह व्यवस्थित जीवन बिता रहे थे।’ सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि आर्यों के पास एक ‘मिशन’ था, इसलिए ‘उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का अपेक्षाकृत ज्यादा विकास हुआ।’ बात स्पष्ट है कि आर्यों का कोई मिशन था या नहीं, मैं नहीं कह सकता किंतु मजुमदार साहब का एक ‘मिशन’ अवश्य है कि वे आर्यों को भारतीय मूल का घोषित करें।

भारत का इतिहास लिखनेवाले आधुनिक इतिहासकारों का लेखन भी उनके अपने निजी पूर्वाग्रह के कारण विकृति का शिकार हो गया है। अधिकतर इतिहासकारों ने अशोक को महान हिन्दू शासक तथा अत्यंत ही उदार बतलाया है।

इन इतिहासकारों के बयान से ऐसा लगता है मानो अशोक के राज्य में गरीब एवं अमीर का कोई भेदभाव नहीं था। सारी जनता खुशहाल थी जबकि अनेक ऐतिहासिक स्रोत हमें इस बात का प्रमाण देते हैं कि अशोक के राज्य में किसानों के अनेक विद्रोह हुए थे। डा. रामशरण शर्मा ने ‘प्राचीन भारत’ में लिखा है कि ‘किसानों को करों के भारी बोझ का सामना करना पड़ रहा था। विशेष अवसरों पर करों में और अतिरिक्त बढ़ोत्तरी कर दी जाती थी। फलतः किसानों के बीच असंतोष उग्र रूप धारण कर चुका था।’ आगे वे लिखते हैं कि ‘अशोक ने इस बीच अपने घोड़े पर 256 रातें बितायीं जिसका उद्येश्य शायद ग्रामीण इलाकों में प्रशासनिक असफलता तथा किसानों के असंतोष का जायजा लेना था।’

उदारता के मामले में भी अशोक को अद्वितीय घोषित किया है जबकि ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर कहा जा सकता है कि वह निरंकुश प्रवृत्ति का शिकार था। अशोक का संदेश था कि ‘सारे मनुष्य मेरे बच्चे हैं।’ इसके आधार पर रोमिला थापर ने ‘अशोक एंड दि डिक्लाइन ऑफ दि मौर्याज’ में लिखा है कि ‘अशोक के इस कथन से यह साबित होता है कि उसे ‘‘पैतृक निरंकुशतावाद’’ में आस्था थी।’ मौलिक धारणा यह है कि अशोक यह मानने के लिए राजी नहीं था कि वह राजा जनता की मर्जी पर है, अपितु वह ‘दैवी सिद्धांत’ में अपनी आस्था दिखाता था। सवाल है कि जो राजा ‘दैवी सिद्धांत’ में विश्वास करता हो वह भला लोक कल्याणकारी कैसे हो सकता है ?

‘भारत का इतिहास’ में इन्होंने लिखा है कि ‘अशोक ने समारोहों एवं समझौतों पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यह संभव है कि इस प्रतिबंध के पीछे कोई राजनीतिक प्रयोजन रहा हो, क्योंकि इस प्रकार के जन-समावेश में विरोध का सूत्रपात हो सकता था।’ उदार हृदय का एक प्रमाण यह भी है कि ‘हल्के अपराध के लिए भी अशोक भारी अर्थदंड देता था’, और ‘यद्यपि अशोक अहिंसा का समर्थक था, पर उसके द्वारा भी मृत्युदंड दिया जाता था।’

औरंगजेब मुसलमान था, इसलिए इतिहासकार उसे हिन्दू विरोधी मानने में तनिक देरी न करते लेकिन ठीक जब उनके सामने अशोक का मसला आता है तो वे मौन धारण कर लेते हैं। हरबंश मुखिया ने ‘कम्युनलिज्म एंड दि राइटिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में इस बात की ओर संकेत दिया है कि ‘अशोक का उल्लेख करते हुए हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि उसका अधिकांश जीवन बुद्धिज्म के प्रचार एवं प्रसार में बीता। उसने अपने बाल-बच्चों को विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा, फिर भी उसे हम एक महान हिन्दू शासक के रूप में देखते हैं।’ औरंगजेब ने तो इस्लाम के प्रचार के लिए ऐसा कोई कदम नहीं उठाया।

अधिकतर इतिहासकार महमूद गजनी को इस्लाम के प्रचारक के रूप में देखते हैं,किंतु यह अतिशयोक्तिपूर्ण माना जायेगा। नेहरु ने ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में लिखा है कि ‘वह मजहबी आदमी होने के बनिस्बत लड़ाका कहीं ज्यादा था, और बहुत से और विजेताओं की तरह उसने अपनी फतहों में मजहब के नाम से फायदा उठाया।’ इसके बाद नेहरु जी लिखते हैं कि ‘उसने हिन्दुस्तान में एक फौज भरती की और उसे एक अपने मशहूर सिपहसालार की मातहत, जिसका नाम तिलक था, और जो एक हिन्दुस्तानी और हिन्दू था, कर दिया। इस फौज का इस्तेमाल उसने खुद अपने मजहबवालों के खिलाफ मध्य एशिया में किया।’

औरंगजेब का उल्लेख इतिहासकारों ने हिन्दू विरोधी तथा मंदिरों के विध्वंसक के रूप में किया है। इनलोगों की धारणा है कि हिन्दू विरोधी होने के कारण इसने मंदिरों का व्यापक पैमाने पर नाश किया। सिर्फ मंदिरों को तोड़ना कतई साबित नहीं करता है कि उसकी नीति हिन्दू विरोधी थी। मंदिरों को तोड़ने के पीछे औरंगजेब का आर्थिक दृष्टिकोण था। जर्जर अर्थव्यवस्था को राहत देने के लिए मंदिरों को लूटना एवं तोड़ना उसकी लाचारी थी।

औरंगजेब मुसलमान था इसलिए उसने मंदिरों को तोड़ा, इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। सच तो यह है कि ‘उसने अनेक हिन्दू दातव्य संस्थान स्थापित किये थे। अगर मंदिरों को तोड़ना एवं लूटना ही हिन्दू विरोधी होने का प्रमाण है तो हिन्दू राजा हर्ष को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए। उसने भी मंदिरों को तोड़ा एवं लूटा। रोमिला थापर ने ‘कम्युनलिज्म एंड द राइटिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में स्पष्ट उल्लेख किया है कि ‘हर्ष ने खासतौर पर एक ऐसे पदाधिकारी को बहाल ही कर रखा था जिसका काम मंदिरों को तोड़ना एवं लूटना था।’ किन्तु इसे हम नजरअंदाज कर देते हैं क्योंकि वह हिन्दू शासक था, और औरंगजेब हिन्दू विरोधी क्योंकि वह मुसलमान था।                                                                 

प्रकाशन: जनशक्ति,  26 जून 1989।

Thursday, August 19, 2010

हिन्दुस्तानी तहजीब के अंग हैं मुसलमान

हिन्दी त्रैमासिक ‘आलोचना’ के अंक 91 में देवी प्रसाद मिश्र की ‘मुसलमान’ शीर्षक से एक कविता आयी थी। इस पर काफी बहस भी चली। कविता में कवि की मूल प्रवृत्ति ये स्थापित करने की थी कि हिन्दुस्तान में सदैव से ही मुसलमानों की एक अलग पहचान व संस्कृति अस्तित्व में रही है। जारी बहस के दौरान कथाकार श्री चन्द्रमोहन प्रधान ने मेरी प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करते हुए भारतीय मुसलमान में अलगाववाद की प्रवृत्ति को स्वीकारा था। चर्चित हिन्दी आलोचक श्री नन्दकिशोर नवल जी ने जोर देकर कहा कि ‘भारत में आज भी मुसलमान एक ‘मुसलमान’ के रूप में जाना जाता है-यह इतिहास का सच है।’(बातचीत के क्रम में)

भारत में मुसलमान के आगमन का इतिहास 712 ई. से प्रारंभ होता है जब अरबवालों ने सिंध पहुंचकर अपना अधिकार जमाया था। उसके करीब तीन सौ साल तक हिन्दुस्तान पर और कोई हमला या धावा न हुआ। लगभग 1000ई. के आसपास महमूद गजनवी का आक्रमण शुरू हुआ। उसका इरादा हिन्दुस्तान को कहीं से भी अपना घर बनाने का नहीं था। इसलिए वह बार-बार मंदिरों को लूटता और सोना-चांदी से सजकर पुनः वापिस लौट जाता था। 1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के एक सौ साठ से ज्यादा सालों तक कोई दूसरा हमला न हुआ।

हिन्दुस्तान में मुसलमानों के बसने की प्रक्रिया बारहवीं शताब्दी के अंत से शुरू होती है। नेहरु जी ने ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में लिखा है कि ‘हिन्दुस्तान उनका घर बन गया और दिल्ली उनकी राजधानी रही-दूरदराज गजनी नहीं... हिन्दुस्तानी बनने की प्रक्रिया तेजी से चली और उनमें से बहुतों ने इस मुल्क की औरतों से ब्याह कर लिये।’ कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने एक हिन्दू औरत के साथ ब्याह किया और इसी तरह उसके बेटे ने भी।

हिन्दुस्तानी बनने का यह सिलसिला मुगलकाल में और तेजी से चला। अकबर ने हिन्दू कन्या के साथ विवाह किया। राजपूतों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये। हिन्दू सामंतों एवं नरेशों को बड़े-बड़े सम्माननीय पदों पर बिठाया गया। अकबर ने एक मुसलमान की हैसियत से हिन्दुस्तान पर शासन नहीं किया, बल्कि इतिहासकार बिपन चंद्र ने तो यहां तक लिखा है कि ‘अकबर, जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल में राज्य मूलतः एक धर्मनिरपेक्ष राज्य था। (आधुनिक भारत, 108)। हालांकि यह एक तरह के अतिवाद से ग्रस्त है।

वैसे लोग जो मुसलमानों को इस्लाम के प्रचारक तथा हिन्दू विरोधी के रूप में देखते हैं, वे इनके धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की ओर ध्यान ही नहीं देते। अक्सर इस बात का हवाला दिया जाता रहा है कि मुसलमान शासकों ने हिन्दू मंदिरों को इसलिए तोड़ा कि वे इस्लाम धर्म के माननेवाले लोग थे। लेकिन इतिहासकारों की महत्वपूर्ण खोजों के आधार पर इसे गलत साबित कर दिया गया है। ऐसे भी संदर्भ उभरकर सामने आये हैं जब मुसलमान शासकों ने मंदिरों का निर्माण कराया हो तथा हिन्दू दातव्य संस्थान स्थापित कराया हो।

‘हिन्दू धार्मिक संस्थाओं की स्थापना में मुस्लिम राज्य की हिस्सेदारी के बारे में सबसे पुराना प्रमाण तुगलक काल से है। ...(मध्य प्रदेश) में 1228 ई. का एक शिलालेख मिलता है, जिसमें मुहम्मद-बिन-तुगलक के आदेश पर एक गांव-मठ के निर्माण की घोषणा है। आलेख के अनुसार यह इमारत ख्वाजा जलालुद्दीन ने पूरी करायी थी और अपने नौकर धनाऊ को उसका प्रबंधक नियुक्त किया था।’ (इक्तदार आलम खान के लेख से उद्धृत)।

आगे चर्चा करते हुए खान साहब ने लिखा है कि एक समकालीन जैन ग्रंथ को आधार बनाकर ऐसा कहा जा सकता है कि मुहम्मद-बिन-तुगलक शत्रुंजय मंदिर गया था और उसने जैन संघ के एक प्रमुख के लिए उपयुक्त कुछ धार्मिक संस्कार भी किये थे।

जो लोग आज हिन्दू एवं मुसलमान को दो भिन्न ‘जात’ एवं ‘संस्कृति’ के रूप में देखने के आदी हैं वे भी यह मानेंगे कि ये दोनों शुरू से ही दो भिन्न कौम हैं। इतिहास का दुर्भाग्य यह रहा है कि तुर्क, मंगोल तथा पठान यानी लगभग सारे आक्रमणकारी को मुसलमान मान लिया गया है। ‘बाहर से जो मुसलमान आये, वे किसी एक जाति के न थे, उन सबकी भाषा एक न थी। उनका सांस्कृतिक स्वर भी एक-सा न था। उनमें शरीफ, बदमाश, लुटेरे, व्यापारी, विद्वान, जाहिल हर किस्म के लोग थे। इसलिए यह धारणा कि मुसलमान एक जाति के थे, उनकी एक भाषा और संस्कृति थी, गलत है।’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 285)

कहना न होगा कि मध्यकाल में जितने भी विदेशी हमलावर आये उनको निःसंकोच भाव से मुसलमान मान लिया गया। नेहरु जी ने हिन्दुस्तान की कहानी’ में लिखा है कि ‘‘चंगेज खान मुसलमान नहीं था, जैसाकि कुछ लोग इसलिए ख्याल करते हैं कि उसका नाम अब इस्लाम से मिल-जुल गया है। कहा जाता है कि वह शामाई मजहब का माननेवाला था,...लेकिन नाम से लाजिमी तौर पर उस लफ्ज की तरफ ध्यान जाता है जो अरबवालों ने बौद्धों के लिए दे रखा था, यानी शामानी, जो संस्कृत ‘श्रमण’ से निकला है।’’

हिन्दुस्तान की कहानी है कि यहां जितने तरह के लोग आये (अंग्रेजों को छोड़कर) वे यहीं के होकर रह गये। आज मुसलमानों के बीच सामाजिक या सांस्कृतिक रूप से वैसा कुछ भी नहीं बचा है जिसके आधार पर उनके अलग एवं स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया जाय। कुछ दिन पहले तक ये शोर था कि हिन्दू अपने शव को जलाते हैं जबकि मुसलमानों में जमीन के अंदर गाड़ने का रिवाज है। कालक्रम से यह भेद भी जाता रहा। हड़प्पा की खुदाई के बाद वैसे साक्ष्य प्रस्तुत हुए हैं जिनकी बदौलत यह धारणा बनती है कि प्राचीन काल में अपने बीच शवों को गाड़ने की प्रथा जोरों से प्रचलित थी। फिर भी भेद को बरकरार रखने की कोशिश होती है। अतएव ये कहना अनुचित न होगा कि ‘‘हिन्दुओं एवं मुसलमानों के अलगाव के हम इतने आदी हो गये हैं कि जहां एका था और आज भी बना हुआ है, उसे हम देख नहीं पाते। हिन्दू जाति अलग है, मुस्लिम जाति अलग है, यह सिद्धांत अनेक प्रगतिशील विचारकों तक में घर कर गया है और अगर निकल भी गया है तो कुछ निशान छोड़ गया है।’’ (भाषा और समाज, पृष्ठ 305)

अपने यहां मुसलमानों की अलग कोई संस्कृति पनप नहीं सकी इसका सबसे ठोस कारण था कि वे जिन देशों से यहां आये वहां  ‘नेशन’ के निर्माण की प्रक्रिया शुरू न हुई थी, राष्ट्रीयता की भावना का विकास न हो सका था। उन्हें अपने मुल्क की सरहद से प्यार न हुआ था, न तो वे कभी भी अपना घर छोड़कर हिन्दुस्तान में बसने न आते। वे हिन्दुस्तान में बसने आये थे, ईसाई धर्मावलंबियों की तरह इस्लाम का प्रचार करने नहीं। आप सबसे यह बात छिपी न है कि जाति निर्माण की प्रक्रिया सामंतवाद के पतन एवं पूंजीवाद के अभ्युदय के साथ शुरू होती है। और आप जानते हैं कि मुसलमानों का आगमन हिन्दुस्तान में भिन्न-भिन्न कबीलों के रूप में हुआ। इसलिए हिन्दुस्तानी तहजीब के लिए ये मुश्किल नहीं था कि उनलोगों को अपने अंदर पचा ले जाये। शक, कुषाण, हूण, सिथियन तमाम आक्रामक यहां आकर इसकी मिट्टी में रच-पच गये। फिर मुसलमानों के स्वतंत्र विकास की कौन सी परिस्थितियां हिन्दुस्तान ने छोड़ रखी थीं ? ये तो कुछ खास पाजी टाईप हिन्दू सम्प्रदायवादी लोग हैं जो मुसलमानों के अलग कौम की बात सोचते हैं। उनका पूरा नहीं आधा सहयोग स्वीकारते हैं। फलतः उन्हें आधा इलाहाबाद देने की घोषणा होती है।

सन् 47 के देश विभाजन के पीछे इसी दो भिन्न कौम की नीति काम कर रही थी। इससे हमारे देश को, हमारे हिन्दू धर्म की सहिष्णुता के दर्शन को इतना जबर्दस्त धक्का लगा कि उसकी क्षतिपूर्ति की बात भी हम नहीं सोच सकते। अंग्रेजी राज की स्थापना के पहले हिन्दुस्तान में दो भिन्न कौम की भावना नहीं थी। अंग्रेजों की हुकूमत ने देश को चलाने के लिए, हिन्दुस्तान की आबादी को तोड़ने के लिए ‘हिन्दू’ एवं ‘मुस्लिम’ राष्ट्र का मुहावरा तैयार किया। अंग्रेजों को जहां भी शासन के लिए जनता को बांटने की जरूरत हुई उन्होंने धर्म, जाति और राष्ट्र के नाम पर लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया। भारत में ‘हिन्दू’-‘मुसलमान’ को दो भिन्न कौम में बांटने का उद्येश्य ‘फूट डालो और राज करो’ की तर्ज पर शासन चलाना था। आयरलैंड में भी अंग्रेजों ने ऐसा ही किया था। यह उन दिनों साम्राज्यवादी साजिश का एक हिस्सा था। इसलिए अगर आज भी कोई ‘हिन्दू’ एवं ‘मुस्लिम’ राष्ट्र तथा संस्कृति की वकालत करेगा, जाने तथा अनजाने में उसी साम्राज्यवादी साजिश का शिकार बनेगा।                                                            

प्रकाशन: जनशक्ति, 9 दिसम्बर, 1991।

Saturday, August 14, 2010

फिर वही कविता-चंद्रमोहन प्रधान का पत्र


‘नभाटा’(15 नवंबर) में श्री देवी प्रसाद मिश्र की ‘आलोचना’ पत्रिका में छपी कविता मुसलमान पर श्री राजूरंजन प्रसाद की प्रतिक्रिया देखी। श्री प्रसाद ने अपनी तथाकथित प्रगतिशीलता के पूर्वाग्रह में इतिहास व परंपरा संबंधी अपने अज्ञान का ही अधिक प्रदर्शन किया है।

मैं मुसलमान विरोधी बिल्कुल नहीं, मेरी मान्यता है, उन भारतीय मुसलमानों का घर भी यहीं है और वे सभी पाक-परस्त भी नहीं, तथापि इतिहास के तथ्यों के साथकिसी भी धार्मिक-राजनीतिक-सामाजिक आग्रहों को फेंटकर दृष्टि को बहकने देना नहीं चाहिए। भले ही इससे कितनी भी सामयिक हो अपने निजी वादों/आग्रहों के लिए इतिहास को प्रदूषित करना भयंकर भूल है।

श्री प्रसाद ने कविता के प्रारंभ में ही बड़े झूठ की बात लिखते कहा है कि ‘कवि ने लिखा, ‘उन्होंने अपने घोड़े सिंधु में उतारे और पुकारते रहे हिंदू! हिंदू!! हिंदू!!! बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया और इसपर टिप्पणी देते वह कहते हैं कवि को शायद मालूम नहीं कि सिर्फ सिंधु प्रदेश को उन्होंने हिंदू कहा, किसी जाति या समुदाय को उन्होंने हिंदू संबोधित नहीं किया था।’

सच तो यह है कि सिंधु प्रदेश को बाहरी, मुसलमान आक्रांताओं ने ‘हिंद’ कहा,उच्चारण दोष से वे उकार छोड़ गये और चूंकि पहले-पहल सिंधु प्रदेश में वे उतरे, अतः उन्होंने ‘भारत पहुंच कर उस देश को ही सिंधु अथवा ‘हिंदू’ कह दिया और उस समय उन आका्रंताओं के सिवा भारत में मुसलमान नहीं थे, वे यहां के सभी निवासियों को सहज ही में हिंदू कहने लगे (द्रष्टव्य है, तब अरब से मुहम्मद बिन कासिम 600 की अश्वारोही सेना के साथ भारत के सिंधु प्रदेश में उतरा था), उन्होंने अपने घोड़े सिंधु प्रदेश में उतारे या सिंधु नदी में तथ्य ये ही है।

सबसे बड़ी बात श्री प्रसाद भूलते हैं कि कविता आज के मुसलमान के बदले उन बाहर से आए, आक्रांता, नवोदित धर्म के जोशीले बंदों व जुझारू सैनिक मुसलमानों पर है जो भारत को जय करने, वहां अपना धर्म फैलाने बढ़े थे। वे अरब व मध्य एशिया की कठोर भूमि, ऋतु के अभ्यस्त कठिन जीवन के आदी व दुर्धर्ष योद्धा थे, उन्हें भारत से न प्रेम था न वे यहां रसने-बसने आए थे न मैत्री भावना से। उनके विपरीत, भारत के हिंदू जो जो बाद में मुसलमान बने, उनकी संस्कृति व स्वभाव में भारतीयता अधिक है, भले ही धार्मिक कारणों से वे खुद को अरब-ईरान व उन पुराने आक्रांताओं के साथ जोड़ें। कवि ने तो चित्रण किया है यहां उन पुराने आक्रामकों का जिनकी क्रूरता व विजयों से इतिहास भरा है तब भारत में केंद्रीय सत्ता नहीं थी, लोग बंटे थे, दुर्बल थे। सुखद मौसम, परंपरा व संस्कारों के कारण साहित्य/कला/र्दान/विद्या में अग्रणी थे पर बौद्ध सम्राटों के कारण उनकी युद्धक परंपरा का ह्रास हो चला था। वे आक्रमण के लिए अच्छे निशाने थे। धार्मिक जेहादियों से वे हारे, मुसलमान भी बने।

अतः श्री प्रसाद जब इन आक्रांताओं के वर्णन (उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें और म्यानों में सभ्यताओं के नक्शे होते थे) की कविता पंक्तियों के तत्काल बाद कहते हैं कि वे हिन्दुस्तानी तहजीब के अंग बन चुके थे। आपस में लोग इतने घुल-मिल गये थे कि पता नहीं लगता था कि वे हिंदू हैं या मुसलमान तो निःसंदेह वे कई पीढ़ियों बाद वाले मुसलमानों के बारे में कह रहे हैं जो पहले हिंदू ही थे। मुस्लिम शासन युगों में सभी नागरिकों का रहन -सहन शासकों के अनुकरण में मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित था। तब धर्म निजी चीज बन गई थी, क्योंकि राजधर्म घोषित रूप से इस्लामी था। किंतु, जहां तक कवि की उन आक्रांताओं के बारे में पंक्तियां हैं, वे सही हैं, इतिहास सम्मत भी हैं।

श्री प्रसाद ने खुसरो-गालिब-कबीर की उपज की बात को लेकर भी कवि के इतिहास ज्ञान की खिल्ली उड़ाते कहा है उनका (कवि का) मानना है कि वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला खुसरो न होता वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता/वे न होते/तो भारतीय प्रायद्वीप के दुख को कहनेवाला गालिब न होता...प्रसाद जी पूछते हैं, ‘मुसलमानों के आने से ही कबीर गालिब पैदा हुए यह इतिहास की कौन सी व्याख्या है? असलियत तो यह है कि ये सारे लोग सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की उपज थे। मार्क्सवादी अंदाज में कहा जाए तो ‘हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट’ की नियति थे।’

संभव है, प्रसाद जी बड़े इतिहासज्ञ हों, किंतु इतिहासज्ञ को अपने खुले चश्मे से और मार्क्सवादी नहीं, अपने चश्मे से देखना चाहिए, जिसके साथ नृतत्वशास्त्र और सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों के अध्ययन का भी योग रहना चाहिए। इस कविता में श्री मिश्र का यह आशय नहीं था कि मुसलमान के न आने से इन कवियों जैसी रचनाएं ही न हुई होतीं, बेशक ‘हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट’ दूसरे परिस्थितिजन्य खुसरो, कबीर गालिब पैदा करता पर मिश्र जी का आशय है कि उन्होंने जो हिन्दू-मुस्लिम भाषा संस्कृति के मिश्रण से तथाकथित गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रादुर्भाव में अमूल्य योग दिया उसके लिए इनका महत्व रहेगा, मुस्लिम न आए होते तो खुसरो-गालिब की जगह लेनेवाले कवि अवश्य हुए होते, (जैसाकि प्रसाद जी का हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट बताता है) और उन्होंने समकालीन परिस्थितिजन्य विपर्यासों का वर्णन भी अपने ढंग से किया होता, लेकिन अन्य भाषा-संस्कारों के साथ खुसरो गालिब की शैली, ईरानी-भारतीय संस्कृतियों का अपने-आप में मोहक स्वरूप तो देखने को न मिलता।

विरोधाभासों, दो संस्कृतियों के टकराव के विपर्ययों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि खुसरो धार्मिक दृष्टि से हिंदू को तिरस्कृत, नीचा मानते थे, कट्टर मुस्लिम और साम्प्रदायिक थे पर वे ही खुसरो खुद को हिंद की तूती कहते हैं। टकसाली हिंदी व ब्रजभाषा में लिखते हैं, ‘काहे को बियाहीं विदेस, ऐ लखिया बाबुल मोरे’, जैसे गीत लिखते हैं, ‘भाखा’ को ‘हिंदवी’ (हिंदी) नाम देते हैं और आज तक हिंद के हिंदुओं के प्रिय पात्र, प्रशंसा पात्र कवि रहे हैं। गालिब अपने ईरानी पुरखों को नहीं भूलते, जिंदगी दिल्ली के कूचा कासिमजान में बीता दी, जिगरी दोस्त थे बंशीधर, फारसी छोड़ हिंदी-फारसी की खिचड़ी- अर्थात उर्दू अपना गये। सौदा ऐसे महाकवि मशहूर व्यक्तित्व का कथन था, सिजदा न करूं हिंद की नापाक जमीं पर और हिंदुओं ने उन्हें हिंदुस्तानी ही माना, जिंदगी भर यहीं की नापाक जमीं पर रहे पले-बढ़े यहीं के अन्न-पानी से जिए बने रहे कट्टर मुसलमान दोस्त-पड़ोसी रहे हिंदू।

प्रसाद जी कहते हैं, कि ‘कवि की कल्पना है कि ये (मुसलमान) रहते हैं भारत में और दोस्त-रिश्तेदार पाकिस्तान में तलाशते हैं।’ यह सही बात है जो आप के गरीब पड़ोसी मुसलमान हैं उन्हें पाकिस्तान में कौन पूछता है कौन वहां उन्हें जाने का खर्च देता है पर जो समर्थ है भरसक अपने संबंध वहीं बनाना पसंद करते हैं। शादी-ब्याह ही नहीं मुसलमान को अपने तीर्थों, धर्म, संस्कारों के लिए भी अरब से पाक तक की भूमि की कोशिश खींचती है, यह कटु सत्य है, वह भले ही पुरखों की भारत भूमि से प्यार करता हो, पैगम्बर की भूमि उसे कैसे नहीं खींचेगी? उसकी राष्ट्रीयता हिंदू वाली नहीं रह सकती है। इस मामले में उसे दोषी नहीं कह सकते और भारत यदि इस बीच किसी चमत्कार से मुसलमान हो जाए तो क्या उन्हें अच्छा न लगेगा?

पंडित नेहरुप्रेमचंद के कथन उनके समकालीन भारतीय मुसलमानों के लिए है जो भारतीय संस्कृति की उपज है, धर्म मात्र से मुस्लिम है किंतु 800 वर्ष पूर्व के मुस्लिम आक्रांताओं में भारतीयता कितनी मात्रा में थी, प्रसाद जी ही जानें।

मुगलकाल में अकबर आदि के हिंदू स्त्रियों से विवाह की बात पंडित नेहरु कहते हैं जिसका उद्धरण प्रसाद देते हैं। यह सच है शासकों ने उदारता व मैत्री भाव से ऐसे विवाह कर अपनी स्थिति मजबूत की, संबंध बढ़ाए। पर कितनों ने अपनी बेटियों की शादी हिंदुओं के साथ की। इसे प्रसाद जी इतिहास ग्रंथ उलटकर बताएं। इस तरह की लंबी चौड़ी आदर्श बातें हमेशा सुनने को मिलती हैं, भावात्मक यथार्थ से इनका संबंध रहता तो आज हिंदू-मुस्लिम समस्या ही न होती।

किंतु है, क्योंकि मुसलमान सही अर्थों में हिंदू से घुलता-मिलता नहीं। वह मात्र मिलता है पर अपनी समानांतर पहचान बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकता है। अपनी मित्रता वह कदापि नहीं भूलता। शक हूण किरात आदि कितनी ही आक्रामक जातियां भारत में आईं। यहीं की होकर रह गईं, घुल-मिल गईं पर 800 वर्षों से मुसलमान समांतर है, समांतर रहकर भी मजे में भारतीय हुआ जा सकता है, पर बहस तो इसी मुद्दे पर है कि यह कितना हो पा रहा है।

बाबर से लेकर बहादुरशाह जफर तक मुसलमान सरदारों के नाम के साथ अक्सर उनके पुरखों की मूल भूमि ईरान, मध्य एशिया आदि की याद रखने के लिए शीराजी, तब्रेजी, इस्कहानी, समरकंदी, गोरी, गजनवी आदि लगते रहे। आज जो मौलाना बुखारी हैं, वे बुखारा शरीफ को कैसे भूलेंगे, लेकिन बुखारा के ही निवासी मशहूर खोजा नसीरुद्दीन वाली धर्मनिरपेक्षता उनमें थोड़े है। निःसंदेह, आर्य भी बाहर से आए पर इसके 4 हजार वर्ष बीते। उसके भी पूर्व वे ईरान में सदियों से बस चुके थे। मुस्लिम धर्म को अभी प्रतीक्षा करनी चाहिए। उसे भारत में अभी कुल 800 वर्ष हुए हैं और देशों जातियों के इतिहास में यह कोई बहुत बड़ी अवधि तो नहीं है।                                                                                    

प्रकाशन: नवभारत टाइम्स, पटना, 21 नवंबर 1990।

Friday, August 13, 2010

कवि का चेहरा

देवी प्रसाद मिश्र
आलोचना के अंक 91 में युवा कवि देवीप्रसाद मिश्र की ‘मुसलमान’ नामक कविता छपी है जिसकी कुछ खास स्थापनाओं पर आपत्ति करके शानी ने नवभारत टाइम्स में उसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया। असद जैदी ने भी विरोधपूर्ण बात कही है। कुछ ने इसे ‘साम्प्रदायिक’ कविता की संज्ञा दी है। किन अर्थों में लिया जाए, यह कविता पर पूरी बहस के बाद ही तय होगा। फिलहाल इतना तय है कि यह न तो इतिहास की सच्चाइयों को उद्घाटित करती है और न ही साम्प्रदायिकता के विरोध में मोर्चाबंदी कर पाती है।

कविता में जो द्वंद्व उभरकर आया है वह व्यक्ति का-खुद कवि का अंतर्विरोध है। कवि को न तो इतिहास की कोई स्पष्ट समझ है न तो समाज को देखने का सही नजरिया है। इसलिए इतिहास में वर्णित मिथकों का जिक्र करके प्रगतिशीलता का मुखौटा लगाने की कोशिश में वह असफल हो जाता है। बजाए इसकी, प्रगतिशीलता के आइने में उनका रोबीला साम्प्रदायिक चेहरा बेपर्द हो आता है। कवि इतिहास के मिथकों में फंसकर खुद नये मिथक गढ़ने शुरु कर देता है। कविता की पंक्ति एक बड़े झूठ को स्थापित करने की कोशिश से प्रारंभ होती है। कवि ने लिखा है-‘उन्होंने अपने घोड़े सिंधु में उतारे/और पुकारते रहे हिंदू! हिंदू!! हिंदू!!!/बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया।’ कवि को शायद यह मालूम नहीं कि सिर्फ सिंधु प्रदेश को मुसलमानों ने हिंदू कहा। किसी बड़ी जाति या समुदाय को उन्होंने हिंदू से संबोधित नहीं किया था।

हिंदुस्तान में जब मुसलमानों का आगमन (आक्रमण नहीं क्योंकि इसी अंदाज में आर्य भी आए थे) हुआ तो यहां के निवासियों के साथ बेशक उनकी झड़पें हुईं जिनमें लोगों को अपनी जानें भी गंवानी पड़ीं। हत्या उनका कहीं से भी लक्ष्य नहीं था। असलियत तो यह है कि ‘वे मृत्यु के लिए नहीं लड़ते थे।’ वे निर्माण के लिए बेचैन थे। पीछे की पंक्ति को अगर इसके साथ मिलाकर देखा जाए तो थोड़ी रोशनी मिल सकती है। ‘उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें/और म्यानों में सभ्यता के/नक्शे होते थे।’ सवाल उसके निर्माण की चाहत से है। इस सवाल के उठते ही कवि उनके आगे ‘वे मुसलमान थे’ का पर्दा टांग देता है और अंधेरे में सब कुछ रफा-दफा हो जाता है। कवि ने उन्हें निर्माण की प्रक्रिया से अलग काटकर मुसलमान बने रहने के सार्वकालिक सत्य के साथ जोड़ दिया। यह कवि की जाग्रत चेतना है जो कभी अनजाने में नहीं हो रहा।

भारत में आगमन के बाद मुसलमान हिन्दुस्तानी तहजीब के एक अंग बन चुके थे। आपस में लोग इतने घुल-मिल गए थे कि प्रायः उन्हें पता ही नहीं लगता था कि वे मुसलमान थे या नहीं थे। अजीब बात है, जिसने भारत पर आक्रमण करके मंदिरों को लूटा, सोना-चांदी अपने देश उठा के ले गए, जो इतिहास के पूरे कालखंड में एक मुसलमान की तरह रहे वे अपने वंश एवं अतीत को भूल क्यों गए ? उनके अलग एवं स्वतंत्र अस्तित्त्व को किसने खतरा पहुंचाया ? भारत पर आक्रमण उन्होंने मुसलमान की हैसियत से किया था। कुछ दिनों बाद उनकी वह पहचान लोप होती नजर आई (कवि को)। किसी का इतिहास खत्म न हो जाए इसलिए कवि उसके अतीत की ओर ध्यान देता है, उसे गौरवान्वित करता है। फिर कवि को अपनी ईमानदारी एवं साफगोई का गुमान भी है। उनका ऐलान है-‘यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है/तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए।’ इसलिए वे हिंदू-मुसलमान यानी जनमानस की भावना के विरुद्ध यह घोषणा करते हैं कि ‘वे मुसलमान थे।’

कवि को इतिहास का कितना पुख्ता ज्ञान है वह कवि की खास चिंता से आपको मालूम हो जाएगा। उनका मानना है कि ‘वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला खुसरो न होता/वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता/वे न होते /तो भारतीय प्रायद्वीप के दुख को कहनेवाला गालिब न होता।’ यह तो ठीक उसी तरह की बात हुई जैसे अंग्रेज न होते तो हम आजाद न होते। इस देश में मुसलमान क्यों आए ? कवि का जवाब है क्योंकि वे आ सकते थे। क्या यह नियम कबीर या गालिब के होने के साथ लागू नहीं होता ? मुसलमानों के आगमन से ही कबीर, गालिब पैदा हुए यह इतिहास की कौन-सी व्याख्या है ? असलियत तो ये है कि ये सारे लोग सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की उपज थे। मार्क्सवादी अंदाज में कहा जाए तो ‘हिस्टॉरिकल डेवलपमेंट’ की नियति थे।

कवि के पास एक घटिया दर्जे की सोच है कि मुसलमानों में मुसलमान होने की वजह से डर है। कवि की अजीब कल्पना है कि मुसलमान रहते हिंदुस्तान में हैं और भाई-बंदे तथा रिश्तेदार पाकिस्तान में खोजते हैं। कविश्री की नजरों में में वे डरते कम अकड़ते ज्यादा हैं। यह कवि का साम्प्रदायिक दुराग्रह है। ध्यान रहे कि कवि ने बार-बार अपनी तरफ से पाठक को स्मरण कराने की यह कोशिश की है कि ‘वे मुसलमान थे।’ इसके प्रति एक जबर्दस्त आग्रह है उनमें। दूसरी ओर कवि ने यह भी स्वीकारा है कि ‘वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे/वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे।’ ऐसे में कवि से हमारी अर्ज हो सकती है, ‘वे मुसलमान थे’-इसके बाद भी वे किसी सभ्यता के अनिवार्य अंग बने हुए थे ? क्या वह मुसलमानी सभ्यता थी ? अगर यही सच है तो इस सभ्यता का नियम नहीं नियंता थे। और अगर वे हिंदुस्तानी तहजीब के अंग थे तो क्या बेशक मुसलमान भी थे ?

पंडित जवाहरलाल नेहरु ने ‘हिंदुस्तान की खोज’ में लिखा है कि हिंदुस्तानी तहजीब के निर्माण में मुसलमानों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। मुगलकाल में अकबर ने राजपूतों के साथ विवाह-संबंध स्थापित करके यह साबित कर दिया था कि वे अब मुसलमान नहीं हैं। वे हिंदुस्तानी हैं। प्रेमचंद अपने जमाने में हिंदुओं एवं मुसलमानों की संस्कृति में कोई स्पष्ट विरोधाभास खोजने में असमर्थ रहे, बल्कि उन्होंने ‘साझी संस्कृति’ की बात की। उन्होंने लिखा कि दोनों की समस्या एक-सी है। दोनों ही अशिक्षा, भुखमरी और गरीबी से एक तरह से पीड़ित थे। दोनों की संस्कृति भूख की संस्कृति है।

कविता के अंत में कवि का जयनाद है कि ‘वे मुसलमान हैं।’ यानी हिंदुस्तान की भूमि पर अब भी वे विदेशी ही बने हैं। जिसने हिंदुस्तानी तहजीब के निर्माण में पूरा सहयोग दिया हो वो विदेशी कैसे हो सकता है ? विदेशी होने के लिए बाहर से आगमन ही काफी है तो आर्य को भी, जो मूल निवासी होने का दावा करते हैं, इसी कोटि में रखा जाना चाहिए। कवि ने यह घोषित करके कि ‘वे मुसलमान हैं’, जनवादी एवं प्रजातांत्रिक ताकतों पर करारी चोट की है। सारा इतिहास क्षण भर में लुप्त हो जाता है।

कहना न होगा कि जहां लोग राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण की ओर अग्रसर होने की बात करते हैं वहीं देवीप्रसाद मिश्र जैसे तथाकथित प्रगतिशील कवियों के साम्प्रदायिक मंसूबे से सारे किए पर पानी फिर जाने जैसा होता है। यह गजब का विरोधाभास है।
प्रकाशन: नवभारत टाइम्स, (पत्रों का कॉलम गांधी मैदान में) पटना, 16 नवंबर 1990। 

Tuesday, August 10, 2010

यह लेख तो रचनाकार विरोधी है

विभूति नारायण राय
वर्तमान में हिंदी साहित्य के गलियारे में विभूति नारायण राय को लेकर जो बहस चल रही है, उससे लगता है कि साहित्य जगत में हुए अवमूल्यन से लोग परेशान और चिंतित हैं। यह चिंता होनी चाहिए। मूल्य के बगैर न तो साहित्य का सृजन संभव है, न उसका संरक्षण। मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि इस भाषिक/शाब्दिक लड़ाई में मैं श्री राय के विरोधियों के साथ हूं। लेकिन मेरे दिमाग में कुछ ऐसी बातें भी हैं जो हमें इस तात्कालिक द्वंद्व-युद्ध के मैदान से परे जाकर झांकने की ओर विवश करती हैं। और इस वर्तमान घटना को भी मैं उसी संदर्भ में देखने की कोशिश करता हूं।
 
नंदकिशोर नवल ने एक बार बातचीत के क्रम में यूं ही कहा था कि जैसे ही आप लिखने के लिए कलम अपने हाथ में उठाते हैं कि असंख्य अदृश्य दुश्मन भी जन्म ले लेते हैं। मतलब कि लेखन एक जोखिम भरा काम है। लेखन से आप दुश्मन सिरजते हैं, लेकिन मौजूदा समय का अधिकांश लेखन मैं पाता हूं कि ‘गुडविल’ पैदा करने के लिए ही किया जा रहा है। और जमाने का दस्तूर है कि यथार्थ लिखकर आप ‘गुडविल’ पैदा नहीं कर सकते। हद तो यह है कि समीक्षक का नाम भी रचनाकार ही तय करता है। लोग यथार्थ न तो लिखना चाहते हैं न बोलना-सुनना। इस तरह की अभिव्यक्ति के अपने खतरे हैं। इसलिए अव्वल तो लेखकों का बहुजन समाज इस पथ का चुनाव ही नहीं करता, कुछ थोड़े से लोग जो ‘मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट’ (मित्र डा. अशोक कुमार से उधार लिया गया शब्द) के शिकार हैं, इस कर्म को अपने हाथ में लेते हैं। लेकिन साहित्य की मुख्यधारा से काट दिये गये ऐसे लोगों पर विशेष नजर रखी जाती है। पूरा ध्यान रखा जाता है कि उनका लिखा कहीं छपने न पाये। इसके लिए संपादकों को अत्यंत गोपनीय पत्र तक लिखे जाते हैं। कभी-कभी तो संपादक/उप संपादक स्वयं ही खारिज कर देता है। कुछ दिनों पहले की बात है, मेरे शहर के एक प्रतिष्ठित अखबार के उप संपादक ने ‘सृजन-समय’ पर लिखने को कहा। मैंने जब अपना लेख उन्हें थमाया और वे पढ़ने लगे तो मैं इतमीनान हो गया कि अब इसका प्रकाशन असंभव है। ठीक ऐसा ही हुआ। उक्त महोदय ने कहा कि ‘यह लेख तो रचनाकार विरोधी हो गया है।’ मैंने आखिर पूछ ही डाला कि ‘यथार्थ विरोधी तो नहीं न है ?’ बोले, ‘है तो सच्चाई ही लेकिन...।’ आप समझ सकते हैं कि वह लेख वहां नहीं छपा। नामवर जी अरसे से कहते आ रहे हैं कि यह दौर आत्मालोचना का दौर है। हम सब इस मंत्र का जाप करते हैं, लेकिन अपने को ब्रैकेट में बंद रखकर। जब तक यह ब्रैकेट नहीं हटेगा, विभूति नारायण राय जैसे लोग लेखन की दुनिया में पैदा होते रहेंगे।
 
मैं हमेशा से ही इस बात का कायल रहा हूं कि लोग जो लिखें, वही दिखें। लेखन और जीवन के दर्शन में जो अंतर आता है, वह अवसरवाद को खुलकर खेलने की गुंजाइश छोड़ता है। बल्कि आप कह ले सकते हैं कि लेखन और जीवन को जो अलगाकर देख रहा है, या देखे जाने की वकालत करता है, वह दरअसल चालाकियों से भरे शब्दों में अवसरवाद को प्रकारांतर से स्थापित करता है। कहते तनिक भी अच्छा नहीं लग रहा कि अधिसंख्य लेखक एनजीओ के चाकर हो चुके हैं। कुछ जो इस लाभ से वंचित रह गये वे अपने झोले में इनकम टैक्स/सेल्स टैक्स कमिश्नर लिये चल रहे हैं। तो कुछ पुलिस कमिश्नर को। किसी भी तथाकथित सम्मानित लेखक के झोले में निराला की ‘गर्वीली गरीबी’ नहीं है। कहानी-कविता में बाजार /बाजारवाद का विरोध करनेवाले (वैसे कुछ को ‘फाव’ भी पसंद है) वास्तविक जीवन में सटोरिये हो चुके हैं। गांधीजी अंग्रेजों से इसलिए भी लड़ सके कि उन्होंने अपने चारों ओर अभावों की एक दुनिया खड़ी कर ली थी। ऐसा नहीं है कि संपन्नता और सुविधा से कोई स्थायी विरोध है मेरा। शर्त केवल यही हो कि मूल्यों को त्याग कर उसका पग न गहा जाये। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे, राय जैसे लोग प्रकट होते रहेंगे। 
 
सिरे से कहा जा रहा है कि श्री राय ‘पुरुष मानसिकता’ से ग्रस्त सामंती चरित्र है। क्या श्री राय का यह चरित्र कोई आज का नया गढ़ा हुआ चरित्र है ? क्या वे अपनी महफिल में इस चरित्र के अकेले नुमाइंदे हैं  ? अगर नहीं तो मेरे भाई विश्वविद्यालय में वे अकेले नहीं हैं। कोई किसी का चुनाव ऐसे ही नहीं करता। कई तरह के आवश्यक परीक्षणों के बाद ही बड़े लोगों की शागिर्दी नसीब होती है। श्री राय के साथ जनवाद और मार्क्सवाद के नाम पर मर-मिटनेवाले लोग भी तो हैं! उन जनवादी रचनाकारों की आज से पहले क्या राय थी। क्या आज भी वे कोई सकारात्मक पहल ले पा रहे हैं ? फिर विरोध में जो लोग खड़े हैं क्या उन लोगों ने इस मानसिकता की दुर्बलताओं से मुक्ति पा ली है ? कभी-कभी तो मैं यह सोचने पर विवश हो जाता हूं कि लेखक जो कहता-लिखता है, उसका अपने ही जीवन में अगर पालन करने लगे तो हमारी अधिकतर समस्याएं खत्म हो जा सकती हैं। दुर्भाग्यवश ऐसा अगर आज तक संभव न हो सका तो महज इसलिए कि हम दूसरों को संबोधित करते हुए लिखते-बोलते हैं। कोई नामवर जी से पूछे कि आत्मालोचना का वह दौर हिंदी लेखकों में कब शुरू होगा या कि मंगलाचरण ही इसका स्थायी भाव है ? कोई यह न समझे कि मैं श्री राय की हरकतों से शर्मिंदा या आहत नहीं हूं। मैं सर्वथा विरोध में हूं, लेकिन अपनी इन बातों के साथ। 

Monday, August 9, 2010

स्मृतियों के बगैर

मेरे एक स्वनामधन्य मित्र की टिप्पणी है कि मैं अब बूढ़ा हो चला हूं कि मेरी लगभग सभी रचनाओं में कोई न कोई स्मृति अवश्य रहती है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मित्र ने मेरी निंदा की है या तारीफ। वैसे वृद्ध कहे जाने पर मुझे अतिरिक्त खुशी का अहसास होता है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में उनकी एक गरिमापूर्ण स्थिति है। हमारे यहां वृद्ध का मतलब अनुभवी और ज्ञानी व्यक्ति से है। जब कोई बच्चा अनुभव की बात करता है तो हम सहज ही असहज बात कह उठते है, ‘देखो, वह तो वृद्धों की तरह बातें करने लगा है।’ ज्ञान की बात कह दें कि भारत में जब कोई अंग्रेज नया-नया आता था तो अपनी उम्र वास्तविक से ज्यादा बताता था क्योंकि उन लोगों ने जान-सुन रखा था कि भारत के लोग बुजुर्गों को ही महत्व देते हैं। नौकरी में भी पहले उन्हीं को तरक्की दी जाती है, या महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया जाता है जिनकी उम्र बाकियों से ज्यादा होती है। इसलिए मेरे मित्र, कि बुढ़ापे को ज्ञान और अनुभव से जोड़कर देखा जाता रहा है। जो ज्ञानी न हो वह मर भी जाये तो हमारी संस्कृति उसे बूढ़ा मानने के लिए तैयार नहीं है। मरनासन्न बूढ़ों को भी हमने ‘एडल्ट एड्यूकेशन’ की कक्षा में स्लेट और नाक साथ-साथ पोंछते देखा है। महिलाओं को ‘मूर्खता’ का पर्याय इसलिए भी माना-समझा जाता है कि वे अपनी उम्र वास्तविक से अक्सर कम बताती हैं। कुछ दिनों पहले पहले प्रभात खबर, पटना में एक समाचार छपा था, जिसमें लालू यादव ने अपनी पत्नी की उम्र अपनी उम्र से ज्यादा बतायी थी (हालांकि इसका संदर्भ दूसरा था)। इस समाचार को पढ़कर एक बुजुर्ग (जीवक्ष बाबू) ने टिप्पणी की-‘आज लालू की खैर नहीं है।’ इसलिए मित्र, आप अपनी बात और अपने इरादे पर गौर करें। दोनों में तालमेल तो है न ?

अगर यह अपने को जवान साबित करने की ‘चिरयौवनी शगल’ नहीं है, और उसके निहितार्थ निम्नलिखित है तो बोले बगैर नहीं रहा जा सकता। संभव है कि स्मृतियों के बहाने आप मुझे सिर्फ बूढ़ा ही नहीं कह रहे हों बल्कि एक ही झपट्टे में मेरी जवानी, मेरा बचपन-सब कुछ मेट देना चाहते हों। बहरहाल, मैंने तो यही जाना है कि जब बचपन आपकी स्मृतियों में आ जाये तो समझें कि आप युवा हो चले हैं, और बुढ़ापे में जवानी भी स्मृति का हिस्सा हो जाती है। मुझे अपने दादाजी का बुढ़ापा याद आता है। वे किसी को विश्वास दिलाने के लिए मां या बाप की कसम नहीं, बल्कि अपनी ‘जवानी’ (जो अब नहीं थी) की कसम खाते थे-यानी बात-बात में ‘जवानी कसम’। हालांकि इन स्मृतियों का उनके लिए क्या महत्व जिन्होंने सिर्फ बुढ़ापा ही झेला हो, बचपन और जवानी के किस्से सिर्फ किताबों में पढ़े हों। वैसे भी जीवन को समझने में शास्त्रोपार्जित ज्ञान हमारी बहुत मदद नहीं करते।

मित्र, जब कोई स्मृतियों को छोड़ने की सलाह देता है तो मेरे कान खड़े हो जाते हैं। साजिश की बू आने लगती है। हमारी और हमारे पूर्वजों की स्मृतियों को, जिनमें हममें से अनेक की कहीं न कहीं पहचान छिपी होती है, कुलीन और अभिजात वर्ग कुटिलतापूर्वक नष्ट कर डालने की कोशिश करता है। कुछ वर्ष पहले भारत की भगवाधारी सरकार ने इतिहास के पुनर्लेखन की बात की थी और एन. सी. ई. आर. टी. की पुस्तकों से कुछ चुनिंदा अंशों को निकालना शुरू किया था। इन अंशों को निकालते हुए यह तर्क गढ़ा गया कि इन पुस्तकों में कुछ ऐसी स्मृतियां हैं जिनसे विद्यार्थियों में असहिष्णुता की भावना का संचार होता है। देश की एकता व अखंडता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए इतिहास का पुनर्लेखन कर सहिष्णुता से लैस करने की कोशिश की की गई थी। ‘कुलीनता की हिंसा’ हमेशा ही सहिष्णुता के बाने में होती है। लेकिन स्मृतियों को नष्ट करना आसान नहीं होता। स्मृतियां हमारे पैरों की विवाइयों में होती हैं, मां के सपनों में होती हैं। यह विधवाओं की सूनी मांग में और अनाथ बच्चों की बूझी आंखों में होती हैं। इतिहासकार और सरकार तो क्या बड़ा से बड़ा कवि और नाटककार भी इन स्मृतियों के खास-खास कोने ही झांक पाते हैं। इतिहास, या कहिए कि लोक स्मृति के सामने विवश हो प्रेमचंद ने कहा था, ‘इतिहास की अदावतें मिटती हैं, लेकिन मुश्किल से।’

Monday, August 2, 2010

नमक का दारोगा और अलोपीदीन की संतानें

प्रेम कुमार मणि

नमक का दारोगा सुप्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद की एक कहानी है, जिससे हिंदी समाज का मामूली पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी परिचित है। जब मैंने साहित्य की दुनिया में आंखें खोलीं,तो यही सुना कि यह एक आदर्शवादी कहानी है, लेकिन अपने पुनर्पाठ में यह कहानी एक भीषण त्रासदी प्रतीत हुई। संक्षेप में, यह कहानी एक ऐसे नौजवान की है जिसकी नियुक्ति आबकारी विभाग में दारोगा के पद पर हुई है। उसका बाप उसे रिश्वतखोर कमाऊ के रूप में देखना चाहता है, लेकिन अपने आदर्शों पर अडिग नौजवान ईमानदारी की मिसाल खड़ा करता है। कालेबाजार की गाड़ियों के मुआयने के क्रम में उसके सरगना अलोपीदीन को वह पकड़ता है और रिश्वत की ऊंची बोली को भी ठुकराकर उसे जेल भिजवा देता है। सरगना अलोपीदीन अपनी पहुंच और ताकत के बल पर दारोगा को बरखास्त करवा देता है और इस तरह नौजवान दारोगा घर बैठ जाता है। यहीं कहानी एक नया मोड़ लेती है। दारोगा एक रोज देखता है कि माफिया सरगना अलोपीदीन उसके घर आया है। वह और उसके बाप डर जाते हैं। दोनों सरगना से उस रोज की बदसलूकी के लिए माफी मांगने लगते हैं। तभी माफिया सरगना दारोगा की प्रशंसा करता है और उसे ऊंचे वेतन पर अपना मैनेजर बनाने का प्रस्ताव करता है। बरखास्त दारोगा, माफिया की मैनेजरी स्वीकार कर लेता है। एक ईमानदार दारोगा बेईमान कालाबाजारी का मैनेजर हो जाता है। अब वह पूरी ईमानदारी से बेईमानी के साम्राज्य की रक्षा करेगा और श्रीवृद्धि भी।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए मुझे नमक का दारोगा का पात्र बहुत उचित जान पड़ता है। मैं उन लोगों में हूं, जिन्हें नीतीश कुमार को नजदीक से देखने का अवसर मिला है। हम मित्र और सहकर्मी रहे हैं।वे उन चंद लोगों में हैं, जिनकी तहे-दिल से मैं इज्जत करता हूं। नीतीश अपनी ही तबीयत के आदमी हैं और यदि वह राजनीति में न होते तो कहीं बड़े इनसान होते। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह विफल राजनेता हैं। लेकिन राजनीति के अपने पेचो-खम होते हैं और उन्हीं सब ने मिल-मिलाकर उन्हें नमक का दारोगा बनाकर रख दिया है। बेईमान व्यवस्था का ईमानदार मैनेजर! अपनी पूरी ईमानदारी से वह बेईमान व्यवस्था के साम्राज्य को पाल-पोस रहे हैं और यह व्यवस्था इतना ईमानदार मैनेजर पाकर गदगद है।

2005 में जब वह मुख्यमंत्री हुए, तब मैंने उनसे कहा था कि बिहार को एक सबाल्टर्न नेहरु की जरूरत है। नीतीश लोहियावादी घराने के समाजवादी हैं और वे नेहरु से नफरत करने वाले लोग हैं। लेकिन उन्होंने मेरी बातों को ध्यान से सुना और गंभीर मुद्रा बनायी। उन्होंने साल भर बहुत अच्छा काम किया। बिहार को विकास की पटरी पर लाने की संभव और ईमानदार कोशिश की।

लेकिन, इसी बीच मैंने देखा कि अलोपीदीन की संतानें इनके इर्द-गिर्द घुमड़ने लगीं और उनकी मायाबी दुनिया में वे खोने लगे। इनमें सबसे ज्यादा वे थे, जिन्होंने पिछले पंद्रह वर्षों से लालू प्रसाद के इर्द-गिर्द अपना घेरा बनाया हुआ था। किसी का नाम लेना बेमतलब होगा, लेकिन पाठक यह तय कर सकते हैं कि लालू प्रसाद के साथ जिस ढंग के लोग थे, उनमें से एक भी नहीं खिसका, खिसके वे चापलूस और बुरे तत्व जिनके कारण लालू प्रसाद बदनाम हुए थे। पिछले सालों में एक-एक कर सब के सब इस डाल पर आ बैठे। हम नीतीश कुमार को नेहरु बनाना चाहते थे, वह बन गये एक ऐसे लालू प्रसाद, जिनके साथ कोई जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, जाबिर हुसैन, अब्दुल बारी सिद्दीकी, शकील अहमद खां या रामचंद्र पूर्वे नहीं था। जिन लोगों ने नीतीश कुमार का दरबार हाल के दिनों में देखा है, वे बता सकते हैं कि वहां कैसे-कैसे लोग जुटते हैं। अलोपीदीन की संतानों ने उन्हें पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया है और वे अपने मिजाज से एक नया नीतीश गढ़ने में लग गये हैं। हमारी जनता को नया बिहार भले नहीं मिला, नया नीतीश जरूर मिल जायेगा।

और इस पड़ाव पर मैं एक बार फिर कह रहा हूं कि नीतीश बेईमान नहीं हो सकते लेकिन मैं उन्हीं से कहना चाहूंगा कि नीतीश जी, ईमानदारी और परिश्रमी जैसे विशेषण निरपेक्ष अर्थ नहीं रखते। महत्वपूर्ण यह है कि आप किसके प्रति ईमानदार और कुशल हैं। एक चोर यदि आलसी है,तो अच्छा है।किसी माफिया का शूटर यदि किसी चंद्रशेखर को मारने में बेईमानी कर देता है, तो अच्छा है। ऐसे ईमानदार शूटर को आप क्या कहेंगे, जो अपने बॉस से कहे कि मैं तीन गोलियों में नहीं,एक गोली में ही किसी गांधी को मार दूंगा।

नीतीश कुमार ने भूमि सुधार या समान स्कूल शिक्षा प्रणाली के लिए अपनी ईमानदारी और परिश्रम का कहां परिचय दिया? सड़कों के लिए उन्होंने खजाना जरूर खोल दिया, इससे जनता को लाभ तो हुआ पर ठेकेदार भी संपन्न हुए। पांच साल पूरे होने को हैं-क्या हुआ उन निवेश प्रस्तावों का, जिनका पिछले वर्षों के रिपोर्ट-कार्डों में बढ़-चढ़कर हवाला दिया गया था। कितने उद्योग लगे इन सालों में! कितना मेगावाट बिजली उत्पादन बढ़ा! कितने गांवों का बिजलीकरण हुआ! बीपीएल सूची में कितनी कमी आयी।

पांच साल कम नहीं होते नीतीश जी! साढे़ चार साल में ही बिहार का एक बहादुर इतिहास का शेरशाह बन गया था। आपसे एक तिहाई कम समय के मुख्यमंत्रित्वकाल में कपूरी ठाकुर जननायक बन गये थे। नीतीश कुमार को पांच साल और चाहिए। किस काम के लिए ? क्या वह बता सकते हैं ? अलोपीदीन की संतानें न उन्हें भूमि सुधार करने देंगी, न समान स्कूल शिक्षा प्रणाली कायम करने देंगीं। मैं इनसे पूछना चाहूंगा-बेईमान व्यवस्था का ईमानदार प्रबंधक बनने के लिए अपनी ऊर्जा क्यों लगाना चाहते हैं ?
स्रोतः  प्रभात खबर, 29 जुलाई, 2010  


इस प्रार्थना में हम सब शामिल हों  --  राजू रंजन प्रसाद की एक असहमत टिप्पणी

प्रेम कुमार मणि ने प्रेमचंद की चर्चित कहानी नमक का दारोगा कहानी का जो ‘पुनर्पाठ’ तैयार किया है, उसकी कई गंभीर सीमाएं हैं। प्रेमचंद की इस कहानी का जो ‘प्वाईंट ऑफ इंफैसिस’ है, मणि जी ने उसे बदल डाला है। कहना होगा कि प्रेमचंद की कहानी का खलनायक (विलेन) अलोपीदीन नहीं हैं, बल्कि पूरी की पूरी समाज व्यवस्था है। अलोपीदीन से पहले महाजनों के कर्ज में डूबे उनके उनके पिता हैं जो नौकरी में जाने से पहले ही भ्रष्टाचार की घुट्टी पिला रहे हैं। परिवार के सारे लोगों की अतृप्त लालसाएं हैं। पत्नी की साड़ी और मां की तीर्थ-योजना है। समाज में कौन है जो अलोपीदीन की इज्जत न करता हो ? जमादार बदलू सिंह की तो बात ही छोड़ दें। इलाके के सारे प्रतिष्ठित लोग अलोपीदीन का मेहमान बनना अपना सौभाग्य मानते क्योंकि अपने इलाके के वे ‘सबसे प्रतिष्ठित जमींदार’ थे। अंग्रेज अफसर तक उनके मेहमान होते। क्या यह महज संयोग था कि अदालत ने अलोपीदीन को ‘बाइज्जत’ बरी कर दिया? ‘पं अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे।’ ‘डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पं. अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो।’ 

मणि जी को नमक का दारोगा वंशीधर की ईमानदारी पर अटूट विश्वास है। प्रेमचंद का दारोगा ईमानदारी का जो ‘संस्कार’ लेकर नौकरी खोजने निकला है वह मार्के का है। उस संस्कार के जो अनिवार्य उपादान हैं, उसे देखें-‘मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए (जोर मेरा है) रोजगार की खोज में निकले।’ इस तरह के रोमानी विचार वाले दारोगा की ईमानदारी पर कोई भरोसा करके गलत ही साबित तो होगा। सच पूछिए तो कहानी पढ़ते हुए मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिलता (सदास्था के बावजूद) जिसकी बुनियाद पर ‘अटूट विश्वास’ हो सके। बल्कि प्रेमचंद ने तो दारोगा के भ्रष्ट होने-बनने या बना दिये जाने की ही कहानी लिखी है। नौकरी गंवाकर लौटे दारोगा से घर-समाज में कोई बोलने-बतियाने के लिए तैयार नहीं है। क्या दारोगा इसे महसूस करते हुए बदल नहीं रहा? कहानी के प्रारंभ में अलोपीदीन के बारे में दारोगा की जो राय है वह अंत तक काबिज रहती है क्या? क्या वह पूरी की पूरी बदल नहीं गई है? ‘वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा-यों मैं आपका दास हूं। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।’ और आगे-वंशीधर की आंखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और कांपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।’ मणि जी हिन्दी जगत के एक प्रतिष्ठित कथाकार हैं। आश्चर्य है कि एक कथाकार से दारोगा के हृदय में अलोपीदीन के लिए उपजी भक्ति और श्रद्धा अदेखी रह जाती है। दारोगा के ईमानदार बने रहने की मणि जी की यह सदास्था हो सकती है। कामना तो अलोपीदीन की भी यही थी-‘परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी किनारे वाला, बेमुरौवत, उदंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।’ तो आइए, इस ‘प्रार्थनामें हम सब शामिल हों!