वर्ष २०११ की जनगणना के आरंभिक आंकड़ों से मिले-जुले निष्कर्ष निकले जा रहे हैं. साक्षरता में वृद्धि,जनसँख्या की वृद्धि दर में कमी आदि के बहाने कहा जा रहा है कि २१ वीं सदी का भारत अपने भविष्य के बारे में सचेत हो रहा है. लेकिन जिस जनगणना रिपोर्ट के आधार पर ऐसे निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं उसे ही अगर कागजी आंकड़ेबाजी का पुलिंदा कहें तो गलत न होगा। जनगणना प्रभारी और चार्ज अधिकारियों की रिपोर्ट में कार्य पूरा हो चुका है, जबकि असंख्य नागरिक ऐसे हैं, जो जनगणना से अब भी वंचित हैं। जिन तथ्यों पर स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर रचनात्मक कार्य होने हैं, वोटरकार्ड की तरह सरकारी अमलों ने उन्हीं आंकड़ों को ड्रामा बना दिया है। जनगणना के दूसरे चरण में गंभीरता और सक्रियता बरतने की हिदायतों के बावजूद अफसरानों ने बेहद हल्कापन दिखाया।
जाहिर है कि हर दस वर्ष पूरे होने पर देश में भारत सरकार द्वारा जनगणना कराई जाती है ताकि देश के विभिन्न राज्यों में रहनेवाले नागरिकों की संख्या के आंकड़े मिले सके। इसके आधार पर भविष्य में आवासीय, खाद्यान्य और मूलभूत सुविधाओं की विकास योजनाओं का खाका तैयार किया जाता है, जिसमें जनगणना की संख्या के आधार पर गरीब योजनाओं में गरीबों को लाभ मिलने की बात होती है. लेकिन जनगणना कर्मियों द्वारा जिस प्रकार से जनगणना को कागजों में निपटाया गया है, ऐसे में भविष्य की योजनाओं में देशवासियों को योजनाओं का वो लाभ नहीं मिल सकेगा, जिसके वे हकदार हैं।
कहना न होगा कि गणना उन्हीं लोगों की करनी थी जो ९ से २८ फरवरी के बीच जनगणना स्थल पर पाये गये हों. लेकिन ऐसा शायद ही हो सका. उन तमाम लोगों की गणना कर ली गई जो उक्त अवधि के बीच वहां नहीं रहे. इसके साथ ही एक-एक आदमी की गणना टिन या उससे अधिक जगहों पर हुई. जैसे अगर कोई व्यक्ति या परिवार जो भागलपुर के किसी गांव का निवासी है और कुछ दिनों/सालों तक पटना में रहने के बाद दिल्ली आदि महानगरों में रहने लगा तो उसकी गिनती इन तीनों ही जगहों पर हुई. गांव में भी उसकी गणना हुई फिर पटना और दिल्ली में भी. ऐसे लोगों की आबादी बहुत अधिक है जो एक से अधिक जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे.
दूसरे, जनगणना के दूसरे चरण के अंतिम दिन अर्थात 28 फरवरी 2011 को सभी बेघरों को भी गणना होनी थी. देश के तमाम प्रगणकों को 28 फरवरी की अर्धरात्रि में अपने गणना ब्लाक में घूम घूमकर बेघर लोगों की गणना करनी थी। इसके अंतर्गत भिखारियों, घुम्मकड़ों, फेरीवालों, सामान बेचने वाले तथा सड़कों के किनारे, रेल पटरियों व प्लेट फार्मो, बस अड्डों, पार्को, पुलों व पूजा स्थलों के बाहर खूलें में सोने वाले व्यक्तियों की गणना की जानी थी. रात्रि को बेघर परिवारों की गणना के लिए विशेष प्रबंध भी किये जाने थे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका. जनगणना कर्मियों की लापरवाही से इनमें से अधिकांश की गणना नहीं हो सकी। अधिकतर जनगणना कर्मचारी रात्रि में घूमकर बेघरों की गणना करने की बजाय घरों पर सोते रहे।
अव्वल तो यह कि २८ फरवरी की अर्धरात्रि की बेघर परिवार के लोगों की गणना शहरी क्षेत्र के लिए नहीं तो कम से कम ग्रामीण क्षेत्र के लिए एकदम ही अव्यावहारिक थी. हिंदुस्तान और खासकर बिहार के कई गांव आज भी ऐसे हैं जो दिन में दुर्गम्य हैं. उन गावों में रात में पहुंचकर लोगों की गणना करना कल्पना मात्र है. प्रगणक अगर उसी गांव के होते तो इस बारे में कुछ आशा भी बंधती लेकिन ऐसा नहीं था. प्रगणक दूसरे गांव के और गणना दूसरे गांव की करनी थी उसमें भी अर्धरात्रि को. बिहार जैसे अनेक प्रान्तों में जहां के अधिकतर क्षेत्र अति संवेदनशील हों और प्रशासन तक जाने में भय खाता हो, प्रगणक से यह उम्मीद करना कि मध्यरात्रि को पहुंचकर वे गणना करेंगे, भारी भूल थी या फिर ऐसे नतीजों को वे पहले ही से नियति मानकर इत्मीनान थे. शायद इसीलिए अर्धरात्रि की गणना के लिए कोई प्रबंध नहीं किया जा सका था. नतीजतन बेघर परिवारों की गणना नहीं हो सकी. अगर कही-कहीं ये आंकड़े आए भी तो नकली. इसे घर में बैठे-बिठाये ही भर लिया गया.
५ मार्च तक पुनरीक्षण का कार्य करना था. इस बीच प्रगणक को अपने गणना ब्लौक जाकर जन्म और मृत्यु की अद्यतन जानकारी हासिल करनी थी तथा नवजात शिशु का नाम दर्ज करना था और मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति का नाम सूची से काटना था. इस तरह प्रगणक एवं पर्यवेक्षक को जनगणना की अंतिम रिपोर्ट ५ मार्च के बाद प्रस्तुत करनी थी लेकिन अपने को तनाव-मुक्त रखने के लिए चार्ज अधिकारियों ने २८ के तुरंत बाद ही जमा करा लिया. इस तरह ५ मार्च तक जो पुनरीक्षण का कार्य होना था वह नहीं हो सका. तात्पर्य यह कि अंतिम रिपोर्ट जो ५ मार्च तक की जानकारी के आधार पर तैयार करनी थी उसे २८ को ही भर लिया गया. ऐसे में जनगणना रिपोर्ट कितनी विश्वसनीय हो सकी है, सहज ही सोचा जा सकता है.
सूचनादाता से २९ सवालों की जानकारी हासिल करनी थी लेकिन कई जगहों पर ऐसा भी हुआ कि प्रगणक अपने गणना ब्लौक न जाकर घर में ही बैठे-बिठाये सारे खाने भर डाले. उम्र आदि में अंतर का भी ध्यान नहीं रखा गया. नतीजतन एक गांव के सारे लोग या तो २२ साल के दिखाए गये या ३२ साल के. इसका नतीजा यह हुआ कि वृद्ध या बच्चों के सही आंकड़े नहीं आ सके.
इसका एक हास्यास्पद पहलू यह भी रहा कि जिन कर्मियों को जनगणना कार्य के लिए नियोजित किया गया था उनमें से बहुत कम ही लोग ऐसे थे जो कार्य की महत्ता एवं गंभीरता को समझते हुए अंजाम दे सके. अधिकतर लोगों ने अपना काम दूसरे लोगों से कराया. लोग बाग के बीच यह मजाक काफी लोकप्रिय रहा कि ‘जनगणना की शुरुआत क्या हुई, नौकरी की बरसात हुई,’ बिहार में आंगनवाडी सेविकाओं/महिलाओं को इस ‘महत्वपूर्ण’ कार्य में व्यापक तौर से लगाया गया. अधिकतर सेविकाएं जो अपना हस्ताक्षर तक करना नहीं जानती, ने जनगणना फॉर्म कैसे भरा होगा आसानी से समझा जा सकता है. कुछ के पति-बेटे तो कुछ के ‘सहयोगी’ की भूमिका महत्वपूर्ण रही. कई सेविकाएं ऐसी भी हैं जिन्होंने अपना हस्ताक्षर तक नहीं किया. यह काम भी उसके पति-बेटे या सहयोगी करते रहे.