
प्रेमचंद का साहित्य एक लम्बा सफर है जो आदर्शवाद से शुरू होकर यथार्थवाद से होते हुए मार्क्सवाद को विश्राम लेता है। प्रेमचंद का आदर्शवाद प्राचीन साहित्य का आदर्शवाद न था बल्कि इसमें उनकी अपनी सच्ची अनुभूति थी। आदर्शवाद के माध्यम से प्रेमचंद पात्रों के चरित्र में सुधार चाहते थे। यह सुधार मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों के आधार पर हुआ करता था। अपने प्रारंभ के दिनों में प्रेमचंद महज सुधार की बात करते थे जिसका एकमात्र कारण इन पर गांधीजी के जादुई व्यक्तित्व का प्रभाव था। लेकिन समय की गति तथा वक्त की जरूरतों के मुताबिक जल्द ही प्रेमचंद का आदर्शवाद यथार्थवाद में परिणत हो गया।
प्रेमचंद की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह हमें उन्हीं बातों पर गंभीरता से विचार करने के लिए विवश कर देती हैं जिन्हें हम दैनिक जीवन में भुगत रहे होते हैं। प्रेमचंद की रचनाओं में गांवों तथा कस्बों की मनहूस झोंपड़ियों में रहनेवाली अस्सी प्रतिशत जनता की आवाज है। इनकी रचनाओं में उन्हीं लोगों की वाणी मुखरित हुई है जिनसे जुड़कर चलने में प्रेमचंद भी अपनी शान समझते थे। प्रेमचंद के पहले कोई सोच भी नहीं पाता होगा कि गांव में रहनेवाला गोबर, धनिया तथा घीसू, माधव जैसे लोग हिन्दी साहित्य के पात्र बनेंगे। यह बात यह साबित करने के लिए काफी है कि गोबर जैसे लोगों के साथ इनकी आत्मीयता जुड़ी थी। यह कहना तनिक भी अनुचित न होगा कि यह न सिर्फ गोबर की बल्कि लाखों-करोड़ों शोषितों एवं पीड़ितों की स्थिति थी। इस प्रकार प्रेमचंद शोषितों के एक वर्ग की ताकत में विश्वास रखते थे। जाहिर है, हिन्दी साहित्य में वर्ग संघर्ष की सूझ सर्वप्रथम इन्हें ही मिली थी।
इन सबों से परे यह कि लाखों शाषितों एवं पीड़ितों की आवाज को प्रेमचंद न कहीं से चुराने की कोशिश नहीं की बल्कि ये उनके अपने तीखे अनुभव थे। राजेन्द्र यादव ने सच ही कहा है कि ‘व्यक्तिगत रूप से अगर देखा जाए तो ‘सेवासदन’ से ‘गोदान’ या ‘कफन’ तक की यात्रा एक बहुत कड़वे यथार्थ को स्वीकार करते चले जाने की यात्रा है।’ सचमुच प्रेमचंद की रचनाओं की जमीन यथार्थ की जमीन थी। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में सामंती युग में गिर रहे मानव मूल्यों की नग्न तस्वीर पेश करते हैं। प्रेमचंद ने यह चित्रित करने की कोशिश की है कि किसानों की स्थिति जूठों पर पलनेवाले जानवरों से भी खराब हो गई थी। ‘पूस की रात’ कहानी का हलकू इसी तरह की मिसाल हमारे सामने पेश करती है। हलकू को अपनी सामाजिक हैसियत का काफी ज्ञान था। यही कारण है कि ठंड से कांपते समय जबरे कुत्ते से अपनी तुलना करते पाया जाता है। इस सामंतवाद को तोड़ डालना प्रेमचंद का लक्ष्य था जो आदमी को जानवर की जिंदगी जीने को विवश कर रहा था।
प्रेमचंद के साहित्य और राजनीति में अलगाव के बदले गहरा सामंजस्य हमें देखने को मिलता है। जहां तक राजनीति का सवाल है प्रेमचंद का गांधीवाद से मोहभंग हो गया था। प्रेमचंद को मार्क्सवाद की धुन सवार थी फलस्वरूप वे समाधान की गांधीवादी शैली में अपनी आस्था खो चुके थे। प्रसिद्ध उपन्यास ‘कर्मभूमि’ के अन्त में सेठ जी के स्वर में प्रेमचंद बोलते हैं-‘जन आंदोलन को चलाकर और समझौतों को बिना सोचे समझे करके ...गलती हुई और बहुत बड़ी गलती हुई। सैकड़ों घर बर्बाद हो जाने के सिवा और कोई नतीजा नहीं निकलता है।’ (पृष्ठ 520) ...‘इस प्रकार के आंदोलन में मेरा विश्वास नहीं है। इनमें प्रेम की जगह द्वेष बढ़ता है। जब तक रोग का निदान न होगा उसकी ठीक औषधि न होगी केवल बाहरी टीम-टाम से रोग का नाश न होगा।’ (पृष्ठ 519) इसी उपन्यास के अंत में अमर से सलीम का यह बयान कि ‘नतीजा यह होगा कि यहीं पड़े रहेंगे और रिआया तबाह होती रहेगी। तुम्हें तो कोई खास तकलीफ नहीं है लेकिन गरीबों पर क्या बीत रही है यह सोचो।’ जाहिर है, यह प्रेमचंद का गांधीवाद से मोहभंग था।
प्रेमचंद के साहित्य के मार्क्सवादी चरित्र की जांच के लिए हम ‘कफन’ जैसी कहानियों को उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं। इस कहानी में घीसू कामचोर ( ?) है। आखिर इसका कारण क्या है ? इसका जवाब प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में मार्क्सवादी लहजे में दिया है। उनका मानना है कि यह गुण जन्मजात नहीं होता है बल्कि यह परिस्थितियों की ऊपज है। उचित मजदूरी के अभाव में श्रम से विरक्ति पैदा होने लगती है। निश्चित रूप से यह मार्क्स की ‘एलिएनेशन थिएरी’ है जिसको प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में चित्रित करने की कोशिश की है। इस प्रकार प्रेमचंद ने मार्क्सवाद का पक्ष लेना ज्यादा जायज समझा।
एक सफल साहित्यकार होने के नाते प्रेमचंद ने हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता की बात करना भी जायज समझा। प्रेमचंद ने शुद्धि आंदोलन की काफी निंदा की। प्रेमचंद का अपना निजी ख्याल था कि किसी भी व्यक्ति का धर्म परिवर्तन बाहरी ताकतों द्वारा नहीं कराया जा सकता। प्रेमचंद ने शुद्धि आंदोलन की बजाय गरीबों को गले लगाने की बात कही थी। उन्होंने कहा था-‘ हम शुद्धि के हिमायतियों से पूछते हैं, क्या हिन्दुओं को शक्तिशाली बनाने का यही एक तरीका है ? उनको क्यों नहीं अपनाते जिनको अपनाने से हिन्दू कौम को असली ताकत होगी ? करोड़ों अछूत इसाइयों के दामन में पनाह लेने चले जाते हैं,उन्हें क्यों नहीं गले से लगाते ? अगर आप कौम के सच्चे शुभचिंतक हैं तो आप उन अछूतों को उठाएं, उन दलितों के जख्म पर मरहम रखें, इन्हें शिक्षा और सभ्यता की रोशनी पहुंचाएं, छोटे और बड़े का भेद मिटाएं, छूआछूत के अर्थहीन और बेहूदे भेदभाव से जाति को छुटकारा दिलाएं। क्या हमारे पुराणपंथी धार्मिक लोग डोमरों और चमारों से भाईपना और समानता कायम करने के लिए तैयार है ? अगर नही तो उनका जाति के बिखराव को रोकने का दावा झूठा है।’ ऊपर की ये पंक्तियां ‘मलकाना राजपूत मुसलमानों की शुद्धि’ नामक लेख में देखी जा सकती हैं।
प्रेमचंद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने न सिर्फ दोनों सम्प्रदायों की आलोचना की बल्कि सांस्कृतिक एकता की भी बात कही। प्रेमचंद का मानना था कि दोनों की संस्कृति एक है। दोनों की सामाजिक समस्याएं भी एक ही सी हैं। दोनों के बीच गरीबी एवं अशिक्षा बिना किसी भेदभाव के मौजूद है। दोनों के सामने रोटी की समस्या सामान्य रूप से पाई जाती है। जाहिर है गरीबों की मात्र एक संस्कृति होती है और वह है रोटी की संस्कृति। स्पष्ट है, प्रेमचंद ने तमाम समस्याओं का समाधान मार्क्सवाद में खोजने की कोशिश की है कि जो इनकी रचनाओं की सबसे बड़ी सफलता है। प्रेमचंद का प्रगतिशील साहित्य मार्क्सवाद की जमीन पर लिखा गया साहित्य है। प्रकाशन: आत्मकथा, पटना, 15 नवंबर, 1987।