Sunday, December 14, 2008

दूज का चाँद था

आसमान को तका
और बर्फ-सी चमचम
सफेद दरांती की तरह
उतर आया
पूरे जिस्म में
जाना
दूज का चाँद था।

1 comment:

Rahul Singh said...

अच्‍छा लगा. आपका कवि दूज का चांद देख रहा है. आजकल तो लागों की नजर से पूनों भी ओझल है.