Friday, May 8, 2009

यादों में बसे लोग- 2

कुल्हाड़ी फेंक के नहीं, थाम के मारो कॉमरेड...

1984 में मैट्रिक की परीक्षा पास कर मैं पटना के सैदपुर छात्रावास में अपने बड़े भाई से साथ रहने लगा। कथाकार हंसकुमार पांडेय भी साथ रहा करते थे। पांडेय जी कहानियों में ही नहीं, सामान्य बातचीत में भी कथा बुनते नजर आते। वे दोनों जब आपस की बातचीत शुरू कर देते तो पटने की साहित्यिक मंडली के नायकों-खलनायकों की जानकारी सहज ही सुलभ होने लगती। कुछ चरित्र तो ऐसे थे जो बाचचीत के क्रम में बार-बार आते। नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, आलोक धन्वा, तरुण कुमार और अपूर्वानंद का नाम मैंने उन्हीं दिनों जान-सुन रखा था। आलोकधन्वा का नाम वे खास अंदाज और संदर्भ में लेते।

पांडेय जी ने एक दिन किसी स्टडी सर्किल की एक कथा सुनाई। आलोक धन्वा अपनी या किसी और की कविता का पाठ कर रहे थे। कविता शायद कुछ इस तरह शुरू होती थी- 'कुल्हाड़ी फेंक के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी फेंक के मारो।' तभी आलोचकीय बुद्धि से लैस एक वकील उठ खड़ा हुआ और कहने लगा- 'कॉमरेड, आपने भारी भूल कर दी। कुल्हाड़ी फेंक के मारो नहीं, कुल्हाड़ी थाम के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी थाम के मारो।' आलोचना का सार यह था कि कुल्हाड़ी फेंक कर मारने पर हथियार वर्गशत्रु के हाथ लग सकता है जो क्रांति के साथ गद्दारी है। मेरी छोटी बुद्धि तब इसे समझ न पाई थी, लेकिन आलोक धन्वा मेरे लिए एक अद्भुत जिज्ञासा की चीज बन चुके थे। उनकी कविताओं से पहली बार मेरा सीधा परिचय 'हंस' के माध्यम से हुआ। उनकी कविताएं मुझे दूर तक आकर्षित करतीं। मिलने की चाह तेज होती गई और अंततः भिखना पहाड़ी स्थित उनके निवास पर पहुंच ही गया। पहली बातचीत कैसे शुरू हुई थी, मुझे आज कुछ भी याद नहीं है- सिर्फ इतना कि लगभग घंटा भर वे बोलते रहे थे। बातचीत के क्रम में उन्होंने घर की दीवार पर सटे पोस्टर 'हैंड्स ऑफ क्यूबा' की भी चर्चा की। आलोक की जब भी याद आती है 'हैंड्स ऑफ क्यूबा' भी मूर्त हो उठता है।

'छोटी-सी जमींदारी...'

धीरे-धीरे आलोक धन्वा मेरी जरूरत बनने लगे। महीने-दो महीने पर उनसे अवश्य मिल लेता। उनसे जब भी मिला, बोलता हुआ ही पाया। हालांकि बीच-बीच में कह डालते कि डॉक्टर ने थोड़ा कम बोलने को कहा है, लेकिन इस हिदायत पर अमल मुझ जैसे श्रोता को ही करना पड़ता था। वे एक अतिसंवेदनशील वक्ता थे। श्रोता के मनोभावों का खास खयाल रखते थे। दूसरों की मौजूदगी में प्रायः ही कहते- 'राजू समाजशास्त्र के विद्वान हैं।' मेरे लिए यह शायद सांत्वना पुरस्कार होता। मेरा भी कद कुछ-कुछ बड़ा हो जाता। अचानक विद्यार्थी से विद्वान हो जाता। इससे ज्यादा किसी को भला क्या चाहिए। बातचीत का विषय काफी विस्तृत और आत्मीय होता। देश-दुनिया बात करते-करते वे अपने बारे, स्वास्थ्य के बारे में और यहां तक कि अपने कमरे के बारे में भी घंटों बोल जाते। यह भी कि उस कमरे को अब छोड़ नहीं सकता, चाहे कितना भी महंगा क्यों न हो। उस फ्लैट का ऐतिहासिक महत्त्व जो हो चला था। फणीश्वरनाथ रेणु और भगवत रावत सरीखे लोगों की यादें जुड़ी थीं उससे। निजी जिंदगी से जुड़ी कहानियों का अक्सर एक लोक रचते और बताते कि मिर्जापुर में कभी उनकी भी एक छोटी-सी जमींदारी हुआ करती थी। इन कहानियों में उनके पिताजी सदैव दोनाली बंदूक रखते, लेकिन कभी किसी की हत्या नहीं की। मिर्जापुर की जमींदारी की चर्चा उनके वकील भाई भी करते।

अब मैं स्वरूप विद्या निकेतन में हिंदी शिक्षक के रूप में काम कर रहा था तो एक दिन मिर्जापुर से एक सज्जन पधारे। पूछने पर पता चला कि वे पेशे से वकील हैं और उनकी एक जमींदारी भी है। अनायास ही मैंने पूछ डाला कि कहीं आप मेरे शहर के चर्चित कवि आलोक धन्वा के भाई तो नहीं। लगभग चौंकते हुए उन्होंने पूछा- 'क्यों? मैंने कहा- 'मिर्जापुर में एक छोटी-सी जमींदारी उनकी भी हुआ करती थी।' जब यह बातचीत चल रही थी, मेरे सहकर्मी श्री ओमप्रकाश पांडेय भी वहां मौजूद थे। वह मुझे आश्चर्य और विस्मय से घूरने लगे।

आप हैंडपंप चला लेते हैं...?

आलोक धन्वा एक स्वास्थ्य-सजग जनवादी कवि थे। घर से बाहर भी वे हमेशा अपना ही पानी पीते। मैंने पानी की इनकी बोतल तब देखी थी, जब पटना की स्वास्थ्य-संस्कृति के लिए यह लगभग हास्य-विनोद की चीज थी। अब तो अधिकतर लोग उनके अनुयायी हो चले हैं। जनवाद बढ़ा-फैला-सा लगता है। पीने के पानी के बारे में वे मुझसे भी पूछते। जब मैं कहता कि चापाकल का पानी पीता हूं तो अचलज भरी निगाहों से देखते और समान प्रश्न को दुहराते- 'आप हैंडपंप चला लेते हैं? मैं 'हां' में जवाब देकर मन ही मन मजदूरिनों पर लिखी उनकी कविताओं पर पुनर्विचार की मुद्रा में आ जाता। बातचीत में कभी-कभी वे अधिक समय लगा देते तो बीच में बाथरूम की दरकार हो आती। पूछने पर रेडीमेड जवाब देते- 'इस्तेमाल के लायक नहीं है।' यह सच भी हो सकता था, लेकिन मुझे लगता कि वे सफाईपसंद आदमी हैं, इसलिए परहेज रखते हैं। वैसे वे सफाई का काफी खयाल रखते थे। जब भी किचेन जाते एप्रन जरूर लटका लेते। वे अपने घर में उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी उपन्यास के नायकों की तरह रहते।

2 comments:

ghughutibasuti said...

रोचक जानकारी।
घुघूती बासूती

Rangnath Singh said...

sachmuch achha sansmaran h...