Wednesday, November 17, 2010

शोध के बहाने कुछ ‘मौलिक‘ बातें

नवीन तथ्यों की खोज, जो कि अक्सर संभव नहीं है, को बाद कर दें तो शोध मूलतः कट-पेस्ट ही है. किसे कट कर देना है और किसे कहाँ पेस्ट- इसका विवेक ही हमें ‘मौलिक’ और ‘विशिष्ट’ बनाता है. इसी विवेक से हमें यह भी पता चलता है कि कहाँ कट करना है और कहाँ पेस्ट. अबतक के सारे शोध कमोबेश यही बताते हैं. हाँ, उनमें इसी विवेक तत्त्व का अंतर देखा जाता है. चीजों को किस क्रम में आप सजाते हैं यहीं आपकी रूचि और आपके दृष्टिकोण का पता चलता है. यह क्रम ही है जो आपके विचारों को एक शक्ल और अभिव्यक्ति देता है. कई बार महज इस क्रम को बदल देने से, तथ्यों में हेरा –फेरी किये बिना, दूसरे ही अर्थ उद्भाषित होने लगते हैं. इस क्रम से तथ्यों/कारणों में एक तारतम्यता बनती है. यह तारतम्यता महत्वपूर्ण है. इसे एक उदहारण के द्वारा हम शायद और आसानी से समझ सकते हैं. मान लीजिए, किसी घटना के आप पांच कारण बता रहे हैं. इन पांचों का आपने क्रम का ध्यान दिए बगैर महज उल्लेख कर दिया है. एक दूसरा शोधार्थी उन्हीं पांच कारणों को एक नए क्रम में सजा सकता है जिससे वह यह भी दिखा सकता हो कि कौन एक मूल कारण अन्य कारणों को जन्म दे रहा है. क्योंकि मूल कारण एक ही होता है, बाकी उसी कारण का परिणाम होते हैं. कारणों के इस क्रम को दिखाना ही एक शोधार्थी की अपनी विशिष्टता और मौलिकता है. ध्यान रहे कि यह मौलिक शोधार्थी भी उन्हीं पांच कारणों को कट–पेस्ट कर रहा है. इससे ज्यादा मौलिकता का अक्सर मुझे इतिहास, साहित्य के बड़े नामवर शोधार्थियों में भी अभाव दिखता है. इतिहास में मैं कोसंबी, रोमिला थापर के बाद रामशरण शर्मा को एक बड़े शोधार्थी-इतिहासकार के रूप में देखता था. उनकी किताब-‘मटेरिअल कल्चर एंड सोशल फोर्मेशंस’ को बड़े चाव, विश्वास और आदर के साथ पढ़ता था. सोचता था कि प्राचीन भारतीय इतिहास का इससे बढ़िया मार्क्सवादी लेखन फ़िलहाल संभव नहीं. मैं आपको बताऊँ कि मोरिस विन्तेर्नित्ज़ की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर ' पढ़ने के बाद शर्मा जी की किताब के बारे में मेरी धारणा बदल गई. मजेदार है कि विन्तेर्नित्ज़ को पढ़ते हुए हमेशा ही लगा कि मैं प्रोफ़ेसर आर. एस. शर्मा को पढ़ रहा हूँ. इतने आधुनिक/समकालीन हैं विन्तेर्नित्ज़. इसी बात को दूसरे शब्दों में कहें कि दोनों लेखकों में फासला बहुत ही कम का है.

इस कटपेस्ट वाले लेखन से बाहर की दुनिया में भी हमारी मौलिकता की मांग एकदममौलिकनहीं हो सकती. इसका जरूरत से ज्यादा आग्रह निरंतरता का नकार हो शायद. डार्विन का महान विकासवादी सिद्धांत को भी इसी निरंतरता में देखा जाना चाहिए. यह खोज एक अकेले डार्विन की उपलब्धि नहीं है, बल्कि उन्हीं के परिवार के कई लोग इस विषय पर काम करते हुए इनसे पहले अपना योगदान दे चुके थे. मार्क्स, जो बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े और सबसे क्रांतिकारी विचारक हुए, वे भी अपने को एकदम मौलिक नहीं मानते. उन्होंने भी केवल इतना ही किया कि अबतक जो चीजें सिर के बल खड़ी थीं उसे पैर के बल खड़ा किया. परंपरा और परिवर्तन के बीच इतना ही मौलिक हुआ जा सकता है. इससे ज्यादा मौलिकता की मांग विशुद्ध कल्पना होगी जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होगा. इससे ज्यादा मौलिक वही हो सकता है जिसे अपने जीवनकाल में कुछ लिखना हो. इससे ज्यादा मौलिकता तो शायद स्वयं प्रकृति में भी संभव नहीं है. यहाँ भी एक क्रम है. हम बंदरों के बगैर मनुष्य की कल्पना नहीं कर सकते. हम इतने ही मौलिक हैं कि आज भी किसी को बचकानी हरकत करते देख झट उसकी तुलना बन्दर से कर देते हैं. हमारी कई हरकतें आज भी हमेंबन्दरहोने का अहसास करा जाती हैं. रजनीश (उन्हें भगवान माननेवाले मुझसे नाराज होने का सुख उठा सकते हैं) होते तो कहते, हमसे कहीं ज्यादा मौलिक तो बन्दर थे जिसने आदमी पैदा किया और आदमी है कि अपनी कार्बन कॉपी देकर ही मौलिक होने– करने का ढोंग रच रहा है. यहढोंगही मौलिक हो शायद !

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