Sunday, May 20, 2018

शौच और सूअर की कथा

भारत के दूसरे गांवों की तरह मेरे गांव में भी खुले में शौच के लिए जाने का दस्तूर था। शौच के लिए मेरे गांव में पुरुषों के बीच जो शब्द प्रचलित था वह 'दिसा-मैदान' अथवा 'डोल-डाल' था। कुछ लोग इसे 'फारिग' होना भी बोलते। प्रायः इन शब्दों से खुलापन और गति की ध्वनि निकलती है।

गांव में लोग सुबह-सुबह शौच जाते। कुछ लोगों को शाम को भी शौच की दरकार होती। अमल/नशा करनेवाले लोगों के बीच सुबह-शाम दो बार शौच जाने का रिवाज था। शाम में कुछ लोग भांग खाते और शौच के लिए जाते। मेरे गांव में एक कहावत भी प्रचलित थी-'भांग के गोला पेट में/लोटा लेकर खेत में।' लेकिन गांजा पीनेवाले इससे भिन्न नियम का पालन करते। वे पहले शौच जाते फिर चिलम में मुंह लगाते। गांजा पहले पीने से मल सूख जाता है। पैखाना को मल कहा जाता। हमारे गांव के भुकु बाबा हमेशा इसी नियम का पालन करते। पहले डोलडाल तब चिलम।

पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्रियों की नागरिकता दोयम दर्जे की है; इसलिए तमाम तरह की बंदिशें हैं। सबसे बड़ी बंदिश तो यही है कि औरत, औरत की तरह दिखे नहीं। उसका खाना, नहाना, हगना आदि सब 'गोपनीय' कर्म हैं। उसके अधिकतर रोग 'गुप्त रोग' हैं। एक औरत खा सकती है, नहा सकती है और हग भी सकती है, लेकिन यह सब करती हुई 'दिखना' अनैतिक कर्म है। लोक में एक प्रचलित कहावत है-'औरत के नेहनई (स्नान) और खनई (भोजन) कोई देखे कोई न देखे।' विशेष रूप से मर्द न देखे। 'हगनई' तो शायद ही कोई देखे! इसीलिए गांव की स्त्रियां 'हगनई' को 'पर्दा जाना' कहती हैं लेकिन गांव के मनचले मर्द 'पर्दा' कहां मानते हैं! मुर्दहिया की किसुनी भौजी अपने पति को चिट्ठी में लिखती है : 'संभगिया क रहरिया में गंउवा क मेहरिया सब मैदान जाली, त ऊ (बन्सुवा) चोरबत्ती बारै ला।' (अनिता भारती, मुर्दहिया के स्त्री पात्र, मंतव्य 8 में उद्धृत)

'ढोड़ायचरितमानस' की महतो-पत्नी लोटा लेकर मैदान जा रही रमिया से सवाल करती है-''अरी ओ रमिया! कहाँ चली?' मुँह भरी हँसी लेकर रमिया जवाब देती है-'मैदान'।
कहती है क्या छोकरो! मैदान जा रही है लोटा लेकर?'
'क्यों, उससे क्या होता है?' 'फिर पूछती क्यों है? तू क्या मर्द है जो लोटा लेकर मैदान जायेगी?" (ढोड़ायचरितमानस, पृष्ठ 128) 'भांग के गोला पेट में, लोटा लेकर खेत में' कहावत का उत्तरांश अर्थात 'लोटा लेकर खेत में' जानेवाली बात महिलाओं पर लागू नहीं होती है। लोटा हाथ में लेने से मर्द समझ जाते हैं कि 'वह' दिसा-मैदान के लिए जा रही है। 'ढोड़ायचरितमानस' की रमिया लोटा लेकर 'मैदान' जाती है। उस गांव के लिए यह एक नई प्रथा की शुरुआत थी। यह बात मर्द क्या गांव की स्त्रियों को भी नहीं पचती है। उन औरतों की टिप्पणी है, 'कहती हूँ, क्या लाज-शर्म उतारकर रख दिया है? लोटा लेकर मैदान जा रही हो, मर्द लोग देखेंगे? लोटा हाथ में लिए झोटाहा देखते ही तो मर्द लोग समझ जायेंगे कि तू कहाँ जा रही है? यह सीधी बात भी क्या लोटे में घोलकर पिला देना होगा तारापुर की राजकन्या को? यह सब किरिस्तानी चाल-चलन हमारे मुहल्ले में चलाने आई है? यह क्या नट्टिन लोगों का गांव है?' (ढोड़ायचरितमानस, पृष्ठ 128)

मैं जब बहुत छोटा था तो शौच के लिए घर के आगे की परती जमीन में जाया करता। गांव के अंदर की परती जमीन को 'खंढ़ी' कहा जाता। खंढ़ी अथवा कोली (दो मकान के बीच की गली कोली कहलाती) शौच के लिए उपयुक्त जगह मानी जाती। जो बच्चे अधिक शौच करते उनकी माता अथवा दादी उन्हें चिढ़ातीं-'गोड़-हाथ सिरकी/पेट नदकोला/कने जा ह$ ... बाबू?/ हगे जा ही कोला।' मैं शौच के लिए जिस खंढ़ी का इस्तेमाल करता वहां दरअसल एक कच्चा कुआं था। उस कुआं में अब पानी नहीं था। इसलिए अब उसमें घर का कूड़ा फेंका जाता। साथ ही, उसके मुंह को ढंककर इस लायक बना दिया गया था कि शौच के लिए बच्चे बैठ सकें। घर के छोटे बच्चे उसी का प्रयोग करते। हमारे समय में चापाकल/हाथकल का प्रयोग शुरू हो चुका था इसलिए बेकार और अप्रासंगिक हो गये कुओं की इससे ज्यादा उपयोगिता नहीं रह गई थी।

थोड़ा बड़ा हुआ तो स्कूल में दाखिला हुआ। वहां भी शौचालय की व्यवस्था नहीं थी। स्कूल के बगल में एक सार्वजनिक पोखर था जहां बच्चे शौच करते। किसी लड़के को अगर शौच जाना होता तो अपने शिक्षक से 'पोखर' जाने की अनुमति प्राप्त करता। यह पोखर हमारा सार्वजनिक शौचालय होता। लड़कियों के लिए 'पोखर' की सुविधा नहीं थी। मुझे भी स्कूल अवधि में असमय शौच जाने की आदत नहीं थी। इसलिए तीन साल के स्कूली जीवन में मैं एक-दो बार ही 'पोखर' का लाभ ले सके। यहां बच्चे सार्वजनिक रूप से शौच करते। लगता जैसे एक स्कूल यहां भी चल रहा हो। अंग्रेज जमाने में तो कभी-कभी इस तरह सामूहिक शौच का आनंद लेना जीवन से हाथ धोना था। 1942 की क्रांति के समय आरा के पास जमीरा में पाखाना फिर रहे कुछ लोगों को गोली मार दी गई थी। (मन्मथनाथ गुप्त, भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, आत्माराम एंड संस, 2009, पृष्ठ 374)

गांव में भी अब पोखर ही मेरा शौचालय होता। मेरे दरवाजे के ठीक नीचे एक बड़ा और गहरा पोखर था। यहां शौच करना निर्विघ्न नहीं होता। अगल-बगल के भुक्खड़ कुत्ते हमारे मल पर अपनी दावेदारी ठोकते और हमें दिक करते। कुत्तों की तुलना में कुतिया में मल खाने के लिए उतावलापन कुछ ज्यादा ही होता। कुत्ते किसी न किसी के पालतू होते। कुतिया लावारिस होती। अखाद्य ही उनका खाद्य होता। इसलिए मलत्याग करते बच्चे उनके निशाने पर होते। इसलिए मलत्याग के समय हमें चौकन्ना रहना होता और उन कुतियों को ढेला मार-मारकर भगाना होता।

जब थोड़ा और बड़े हुए तो दूर के और बड़े पोखर में जाने लगे। हम सुबह-सुबह शौच के लिए जाते तो पाते कि वहां पहले ही से पालतू सुअर स्वतंत्र विचरण कर रहे हैं। मेरे गांव में मुसहर जाति के लोगों का एक बड़ा टोला था। आज भी है। वे बड़े पैमाने पर सुअर पाला करते। आदमी का मल उसका प्रिय भोजन होता। लोक में एक कहावत प्रसिद्ध है, 'गाँड़ में गुह न सौ सुअर के न्यौता'। इससे पता चलता है कि मनुष्य का मल सुअर का प्रिय पारंपरिक आहार रहा है। हम मलत्याग कर रहे होते और वे आ धमकते। एक-दो सूअर का सामना करना मुश्किल नहीं होता किंतु जब उनका संख्या बल अधिक होता तो आक्रामक हो उठते। सूअर अपनी जिद और आक्रामकता के लिए मशहूर हैं।

 सामान्यतया वे हमारे उठने का इंतजार करते। लेकिन कभी-कभी उठने में देर कर देते तो उनके सब्र का बांध टूट जाता और पीछे से धक्का दे देते। कई बार हम वहीं लुढ़क जाते। हमारे गांव के एक बुजुर्ग के साथ कभी ठीक ऐसी ही घटना घटी थी। इससे मुक्ति के लिए उन्होंने एक तरकीब निकाली। जब तक वे शौच कर रहे होते, अपने चारों ओर लाठी घुमाया करते। तभी हमलोग बचपन में गुनगुनाया करते, लाठी में गुण बहुत है/सदा राखिए संग/झपटी कुत्ता को मारे.....। आप कुत्ता की जगह सुअर पढ़ सकते हैं।

जब हम बड़े हुए और पटना रहने लगे तो यदा-कदा घर जाते और घर में बने कच्चे शौचालय का इस्तेमाल करते। अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत करनेवाले किसान परिवार में घर के अंदर शौच करनेवाले को तनिक हिकारत की दृष्टि से देखा जाता। घर के बड़े-बूढ़ों की व्यंगोक्ति का मैं निशाना बनता। वे कहते, 'पटना जाकर यह लड़का इतना अहदी (आलसी) हो गया है कि दिसा-मैदान के लिए भी घर से बाहर नहीं निकलता। पता नहीं इसके जीवन का बाकी रोजगार कैसे चलेगा?' अब हम राह चलते पैखाने का समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी करने लगे थे। मसलन कौन-सा पैखाना खाते-पीते घर के लोगों का है और कौन गरीबों का। इस संदर्भ में मां एक कहानी कहती थी जिसका सार था, 'बाकी के गुह कचर-मचर, राजा के गुह गुहसंकरी।' कौन स्वस्थ आदमी का पैखाना है और कौन अस्वस्थ आदमी का-यह भी हम नोट करते। बचपन में हमलोग एक कहानी सुनते थे। मेरे गांव के लखनलाल के अगुआ आये थे। शादी-व्याह के निमित्त जो लोग आते हैं उनको अगुआ कहा जाता है। पहले जब अगुआ आता था तो उसमें एकाध प्रश्नादि पूछनेवाला भी होता। उसने लड़के से सवाल किया कि 'दिशा कितने तरह की होती है?' लड़का पढ़ा-लिखा नहीं था। तनिक मंदबुद्धि भी था। कहा, 'दिसा का कोई हिसाब नहीं है। जैसा खाना, वैसा पैखाना। रोटी-भात खाने पर कठिल (कड़ा) पैखाना होगा। खेसारी की दाल खाने पर पतला और खेसारी-चना के साग खाने पर काला।' अगुआ को इतने गहन ज्ञान वाला लड़का नहीं चाहिए था। उठकर जो गये सो फिर लौटकर नहीं आये।

1 comment:

Anonymous said...

अगुआ को इतने गहन ज्ञान वाला लड़का नहीं चाहिए था। उठकर जो गये सो फिर लौटकर नहीं आये।
हाहाहा :D शानदार ज्योरदार जबर्दस्त जिंदाबाद !!!!!!!!!