Wednesday, May 23, 2018

बिहार में शिक्षा की दुरवस्था के बहाने

शिक्षा की बिगड़ती स्थिति पर चर्चा सामाजिक पतन के संदर्भ में ही हो सकती है। तीस-चालीस साल पहले हम शिक्षा को अगर बेहतर स्थिति में पाते हैं तो उसके कारण भी हैं। वह दौर नेशनलाइजेशन और सरकारी संस्थानों के प्रति श्रद्धा और कमिटमेंट का है। मूल्यों के प्रति कमिटमेंट है। इस दौर में सरकार और जनता के समन्वित प्रयास से संस्थान खुले। सिर्फ स्कूल नहीं। हर गांव का अपना एक सार्वजनिक पुस्तकालय था। आज वे सारे सार्वजनिक पुस्तकालय निजी हो गए हैं। पटने की सिन्हा लाइब्रेरी की हालत क्या हुई? किताबों के पन्ने ब्लेड से काटे हुए हैं। ब्रिटिश लाइब्रेरी बन्द हो गई। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद गया तो पता चला कि पुस्तकालय की किताबें घरों की अलमारियों की शोभा बढ़ा रही हैं। एक वाक्य में कहें कि सामाजिक संस्थानों के प्रति जो हमारा भाव था, आज नहीं है। आज सरकार से लेकर समाज और व्यक्ति तक में निजी संस्थानों के प्रति आकर्षण बढ़ा है। हम अपने परिवार के किसी सदस्य का इलाज सरकारी अस्पताल में कराने का साहस नहीं रखते। गाँव-घर ही नहीं परिवार के सदस्य भी मान बैठते हैं कि कंजूसी कर गया। सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों को हमने 'प्रतिष्ठा' का प्रतीक बना दिया है। जिनके पास थोड़ी भी 'प्रतिष्ठा' है, उनके बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते। सरकारी स्कूल में पढनेवाले बच्चे पहले मजदूर हैं, विद्यार्थी बाद में। उनके लिए पढ़ाई पार्ट टाइम जॉब है। सरकारी स्कूलों की जो प्रतिष्ठा घटी है उसके लिए सरकार की नीतियां भी जिम्मेवार हैं। सरकार ने कॉलेजों से इंटर की पढ़ाई खत्म कर दी बगैर किसी वैकल्पिक व्यवस्था के। यह सरकार की सोची-समझी चाल थी। पहले दसवीं तक की शिक्षा को निजी हाथों में दिया। फिर बारहवीं तक को। और अब निजी विश्वविद्यालय को खुला न्यौता है। इस खेल को समझना होगा। सरकारी स्कूलों में अगर शिक्षक नहीं हैं तो इसके कारण हैं। कारण निजी विद्यालयों को प्रोत्साहित करना है। प्रोत्साहन से आगे बढ़कर सरकार निजी विद्यालय को अब सरकार 25 प्रतिशत सीट के लिए पैसे देती है। सरकारी स्कूल के शिक्षकों के लिए सरकार के पास पैसे नहीं है। गरीब बच्चों के नाम पर निजी विद्यालयों को धन देने के लिए संसाधन की कमी नहीं होती। सरकारी स्कूल के शिक्षक जब सम्मानजनक वेतन की मांग करते हैं तो सारे पत्रकार अर्थशास्त्री हो जाते हैं। आज तक किसी अर्थशास्त्री पत्रकार ने लिखा कि निजी स्कूलों को इस तरह पैसा बांटना गलत है। रही बात शिक्षकों की तो वे अभाव और असंतोष के बीच खड़े हैं। एक तो शिक्षकों को वेतन बहुत कम मिलता है। वह भी पांच-छह माह से पहले मयस्सर नहीं होता। नतीजतन उसे जीवित रहने के लिए दूसरे धंधे करने पड़ते हैं। किसी को आइसक्रीम बेचना पड़ता है तो किसी को पीएच डी लिखने का धंधा। जो लोग शिक्षा को लेकर चिंतित हैं उन्हें इस बात की भी चिंता करनी होगी कि शिक्षक को आइसक्रीम न बेचना पड़े। समाज ने शिक्षक को अयोग्य कहते-कहते मर्यादाहीन बना दिया है। शुरू में (2007) जब मैं स्कूल गया था तो अभिभावक मजाक करते थे। अभिभावक की बात बच्चों तक पहुंच गई। बच्चे ने कहा था, आप इतना पढ़े तो पांच हजार की नौकरी मिली तो आपके पढ़ाये विद्यार्थी को कितने की मिलेगी? जाहिर है, आज शिक्षक समाज का सबसे उपेक्षित तबका है। समाज का भला करना है अगर तो शिक्षक ही क्यों हर पढ़े-लिखे आदमी को हीरो बनाना सीखना होगा। पढ़े-लिखे लोगों को उपेक्षित करके शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की बात बेमानी है।
अखबारी हैं ये आंकड़े

बिहार के मुख्यमंत्री ने कहा कि 'राज्य में प्राथमिक विद्यालय तक पढ़ाई करने के बाद काफी कम लड़कियां मध्य विद्यालय तक पहुँच पाती थीं। इसके लिए हमने मध्य विद्यालय में कपड़े दिये, नौवीं कक्षा में साइकिल दी। यह इसलिए किया कि लड़कियां कम से कम मैट्रिक तक पढ़ें। इसके पूर्व पूर्णिया, कटिहार, पटना में साइकिल से लड़कियां पढ़ने स्कूल नहीं जाती थीं। उस समय 1.70 लाख लड़कियां मैट्रिक तक पढ़ती थीं। साइकिल योजना की शुरुआत करने के बाद यह आंकड़ा 8.15 लाख तक पहुँच गया है।' (प्रभात खबर, पटना, 11/12/2016, पृष्ठ 1)

संभव है, यह आंकड़ा सही हो। लेकिन यह 'अखबारी' है। सच है कि मिड डे मील, साइकिल और पोशाक की योजनाओं ने बच्चों को विद्यालय की ओर आकर्षित किया है। बल्कि यह कहना ज्यादा यथातथ्य होगा कि बच्चों के अभिभावक विद्यालय की ओर खिंचे हैं। कारण है इन इन योजनाओं के माध्यम से बँटनेवाली राशि। विद्यालय में अगर लड़कियों का नामांकन बढ़ा है तो उसकी वजह भी राशि ही है। पिछले सालों में देखा गया कि एक एक बच्चे का चार चार विद्यालयों में नामांकन होता था। बच्चे चारों विद्यालयों से योजना की राशि उठाते थे। तब नामांकन की प्रक्रिया सरल थी और 8वीं कक्षा की टी सी आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थी। कहने की जरूरत नहीं कि गलत नामांकन के इस खेल में अभिभावक के साथ शिक्षक और प्रधानाध्यापक तक संलिप्त थे। कई स्कूलों की हुई जाँच से इस तथ्य की संपुष्टि हो चुकी है। इतना ही नहीं, कई पदाधिकारी तक इसमें शामिल पाये गए हैं। छात्रवृत्ति घोटाले का स्मरण ही यह बताने के लिए काफी होगा कि स्कूलों में केवल नकली छात्र/छात्रा ही नहीं बढ़े अपितु नकली विद्यालय भी उठ खड़े हुए। इन सब कारणों से विद्यालय आनेवाले छात्रों की संख्या बढ़ी हो तो क्या आश्चर्य! ऐसे में सुशासनी मुख्यमंत्री द्वारा अपनी पीठ थपथपाना निरर्थक है।

नामांकन के इस खेल ने लड़कियों को अगर आंकड़ों ने मान बढ़ाया तो इसका कारण आर्थिक व्यापार है। कोई भी 'निवेशकर्ता' लड़कों का नामांकन कराना नहीं चाहता। लड़के के नामांकन से किसी को घाटे का सामना करना पड़ सकता है। गणित है कि नौवीं कक्षा के छात्र को 2500 रुपये साइकिल के तथा 1800 रुपये छात्रवृत्ति के मिलेंगे। वहीँ नौवीं की छात्रा को 2500 रुपये साइकिल के, 1800 रुपये छात्रवृत्ति के, 1000 रुपये पोशाक के और 150 रुपये नैपकिन के मिलेंगे।

पूर्व मंत्री की बेटी के यौन शोषण मामले में जाँच के दौरान पीड़िता द्वारा पटना के नोट्रेडेम पब्लिक स्कूल, मुजफ्फरपुर के पारा माउंट एकेडेमी सहित सहरसा जिले के सिमरी बख्तियारपुर अंतर्गत सोनपुरा कन्या मध्य विद्यालय में पढ़ाई की बात सामने आई है। (प्रभात खबर, पटना, 22/4/2017) बिहार की स्कूली दुनिया के लिए यह कोई चौंकानेवाली खबर नहीं बल्कि एक कटु यथार्थ है। बिहार सरकार सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे छात्रों/छात्राओं की संख्या में जो वृद्धि दिखा रही है उसकी सच्चाई यही है कि एक बच्चे का नाम चार-चार सरकारी विद्यालयों में है। इसकी एकमात्र वजह छात्रों/छात्राओं को साईकिल, पोशाक, नैपकिन व छात्रवृत्ति की राशि है। सरकार यह पैसा सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई को प्रोत्साहन के नाम पर दे रही है, जबकि व्यवहार में ठीक इसका उल्टा हो रहा है। छात्र और अभिभावक का यह धंधा हो चुका है कि वे चार स्कूलों में नाम लिखाते हैं और एक मोटी रकम सरकार से ऐंठते हैं। सरकारी पैसे से वे पब्लिक स्कूलों और प्राइवेट कोचिंग की फीस भरते हैं। आपको सुनकर थोड़ी हैरानी होगी कि अभिभावक अब सरकारी विद्यालय बच्चे की पढ़ाई से सम्बंधित जानकारी के लिए नहीं बल्कि यह पूछने आते हैं कि किस बोर्ड का सर्टिफिकेट वे काम में लाएं। इसलिए बिहार सरकार को अगर सरकारी स्कूलों में शैक्षणिक माहौल लौटाना है तो पैसे की लूट बंद करनी होगी।


आज लगभग हर पिता का सूत्रवाक्य है 'बेटा वही जो किसी तरह से पैसे कमा ले'. पैसे न कमानेवाला बेटा अपने ही घर में प्रताड़ित है. और यह भी सत्य है कि गलत हुए बगैर पैसा नहीं होता तथा पैसा हो जाने पर गलत हुए बगैर नहीं रहा जा सकता. यह नियम है, अपवाद की चर्चा न करें तो बेहतर. एक अकेला शिक्षक और शिक्षा का दोष नहीं. हर घर का मूल्य बदलना होगा. ऐसे में एक शिक्षक से उम्मीद की जाती है कि वह बच्चे का व्यक्तित्व गढ़े और इस तरह समाज का निर्माण करे. इसके लिए जरूरी है कि बच्चों के साथ-साथ समाज उसे हीरो/मॉडल समझे. आज की तारीख में शिक्षक समाज का सबसे नकारा जीव मान लिया गया है. सरकार ने उसकी दुर्गति कुछ इस तरह कर रखी है कि समाज में शिक्षक का नामकरण 'पेटपोसवा मास्टर' है. विडंबना यह है कि वह बेचारा अपने नाम के अनुरूप पेट भी कहाँ पोस पा रहा है ? छात्र सीधे शब्दों में शिक्षक से कहता है कि 'सर, इतना पढ़ने पर आपको छह से बारह ('एकमुश्त' वेतन-वृद्धि के बाद) हजार की नौकरी मिली. आपके पढ़ाये को कितने की नौकरी मिलेगी ?' इसे शब्दजाल न समझें. यह चेतावनी है कि अगर समाज को बदलना है, तो शिक्षक को समाज और बच्चे का हीरो/मॉडल बनाना होगा. इसमें जितना विलम्ब होगा, समाज उतना पीछे जायेगा. प्रेमचंद ने कभी लिखा था कि विद्या पढ़ने से नहीं, गुरु के आशीर्वाद से आती है. बिहार के नियोजित शिक्षक अपनी ही पीड़ा में कुछ इस कदर कराह रहे हैं कि वे आशीर्वाद क्या खाक देंगे !
सरकार किताब नहीं कूड़ा तैयार कराती है

बिहार सरकार 'गुणवत्तापूर्ण शिक्षा' की बात करती है. शिक्षा की बदहाली जानने के लिए तरह -तरह के गैर सरकारी संगठनों से सर्वे कराती है और सरकारी पैसा पानी की तरह बहाती है.लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता. ठोस नतीजा निकलता है ठोस काम करने से. बिहार सरकार के श्रम मंत्री दुलालचंद्र गोस्वामी तक ने स्वीकार किया है कि 'सरकारी स्कूलों की अपेक्षा निजी स्कूलों में पढ़ाई बेहतर होती है।' (प्रभात खबर, पटना, 10 अगस्त 2014, पृष्ठ 8) अगर स्थिति ऐसी है तो इसके कई कारण हैं।

सरकारी पुस्तकों का हाल देखकर लगता है कि जिन्हें एक वाक्य लिखने नहीं आता उनसे पाठ्य-पुस्तकें लिखवाई जाती हैं. नतीजा आपके सामने है. राज्य के कुल बीस विद्वानों ने मिलकर दसवीं कक्षा (सामाजिक विज्ञान) की पुस्तक 'इतिहास की दुनिया' तैयार की है. कहना अनावश्यक है कि 'प्रस्तुत पाठ्यपुस्तक की पांडुलिपि तैयार करने के पूर्व राज्य शिक्षा शोध व प्रशिक्षण परिषद, पटना द्वारा विभागीय पदाधिकारियों, विषय विशेषज्ञों, भाषा विशेषज्ञों और प्रारंभिक स्तर के शिक्षकों की कार्यशाला आयोजित की गई। काफी गहन चर्चा के बाद पुस्तक की पांडुलिपि का निर्माण किया गया। हालांकि हसन वारिस (तत्कालीन निदेशक प्रभारी) 'गहन चर्चा' की बात को खुद ही खारिज कर कहते हैं : 'अल्प समय में निर्मित पुस्तक के लिये समालोचनाओं व सुझावों का परिषद स्वागत करेगी।' 'अल्प समय' में 'गहन चर्चा' के बाद जो पुस्तक तैयार हो सकती है, उसका कुछ नमूना आप देख सकते हैं।

उसका 'आमुख' पढ़ रहा था. महज एक शुद्ध वाक्य देख पाने के लिए मैं तरस गया. किस साहस के साथ अपने बच्चों को कहूँ कि इस कूड़े से बचो. बच्चे तो किताब को प्रमाण मानते हैं. और विद्वानों द्वारा लिखित-परिवर्धित इस किताब को कूड़ा कौन कह रहा है ? एक नियोजित शिक्षक जिसपर न छात्र को भरोसा है, न सरकार को, न समाज को! कुछ नमूना आप भी देखें-(1) 'पाठ्य-पुस्तक के सभी अध्याय रोचकपूर्ण है।' (2) 'पाठ्य-पुस्तक में दिए गए विषय वस्तु विद्यार्थियों के दैनिक अनुभव पर आधारित हो, ऐसा प्रयास किया गया है।' (3) 'कहीं-कहीं ऐसे संदर्भित प्रश्न हैं, जिसे बच्चे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करते हुए सत्य के निकट जाने हेतु कौतुहलता व जिज्ञासा रहेगी।' (4) 'पुस्तक की अधिकांश क्रियाकलाप बिना किसी सामग्री या कम लागत की सामग्री के साथ करवाई जा सकती है।' (5) 'पाठ्यक्रम के उद्देश्य और प्रकरण यथा भोजन, पदार्थ, सजीवों का संसार, गतिमान वस्तुएं, लोग एवं उनके विचार, वस्तुएं कैसे कार्य करती हैं, प्राकृतिक परिघटनाएं तथा प्राकृतिक संसाधन की मुख्य अवधारणाओं में दिये गये विषय-वस्तु पाठ्यपुस्तक के अध्यायों में परिलक्षित एवं समाविष्ट किया गया है।'

कहना होगा कि उक्त पुस्तक के दो पृष्ठ के 'आमुख' में शायद ही कोई ऐसा वाक्य हो जिसमें भाषिक और व्याकरणिक अशुद्धि 'समाविष्ट' न हो और वह 'परिलक्षित' न हो। शर्मनाक बात तो यह है कि 'आमुख' के लेखक को यह भी पता नहीं है कि पुस्तक 'सामाजिक विज्ञान' की है, अथवा 'विज्ञान' की। वे लिखते हैं, 'आशा है विज्ञान की यह पाठ्यपुस्तक बच्चों के लिए लाभदायक, आनंददायी और रुचिकर सिद्ध होगी।' सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में 'विज्ञान के रहस्यों को खोलने करने का प्रयास' होगा तो पुस्तक रुचिकर होगी ही!

बिहार राज्य शोध एवं प्रशिक्षण परिषद् , बिहार द्वारा विकसित व बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड से प्रकाशित 6ठी कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक 'किसलय' (भाग-1) देखने को मिली। इस पुस्तक में पृष्ठ संख्या 3 पर एक विज्ञापन है जिसमें 'आनेवाली' (आने वाली) 'ध्यानपूर्वक' (ध्यान पूर्वक), 'मानवरहित' (मानव रहित), 'लापरवाहीपूर्वक' (लापरवाही पूर्वक), 'अन्तर्गत' आदि शब्द लिखने में लापरवाही बरती गई है। 'याद रहे आपकी जिन्दगी अमूल्य है' को 'याद रहे, आपकी जिन्दगी अमूल्य है।' यद्यपि यह एक पूर्ण वाक्य है, पुस्तक में पूर्ण विराम का प्रयोग नहीं किया गया है। पृष्ठ 4 पर 'असली चित्र' शीर्षक से एक कहानी संकलित है, जिसका पात्र 'तेनालीराम' है। दरअसल इसका सही नाम तेनालीरामन है। पृष्ठ 12 पर प्रश्न संख्या 2 में लिखा है, "ऊँची डाली, काली चिड़िया'। इन वाक्यों में ऊँची डाली की तथा काली चिड़िया की विशेषता बताता है।" अव्वल तो 'ऊँची डाली, काली चिड़िया' वाक्य नहीं है, इसलिए यहां पूर्ण विराम का अनावश्यक और निरर्थक प्रयोग है। दूसरे, ऊँची डाली की तथा काली चिड़िया की विशेषता 'बताती' है, न कि बताता है। पृष्ठ 98 पर केदारनाथ अग्रवाल की कविता 'वसंती हवा' है। दरअसल यह अपने मूल रूप में 'बसंती हवा' है। कविता में आगे लिखा है, 'हरे खेत, पोखर,/झुलती चली मैं/झुमती चली मैं।' मूल में यह 'झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं' है। इस तरह की 'अगंभीरता' से कविता में अर्थ का अनर्थ हुआ है। फिर आगे लिखा है, "उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू', उतरकर भागी मैं"। कहने की जरूरत नहीं कि मूल कविता में 'उतरकर "भगी" मैं' है न कि 'भागी'। भागी से कविता की लय भी बाधित होती है। और आगे, 'खड़ी देख अलसी, लिए शीश कलसी, मुझे खूब सूझी-हिलाया-पिलाया, गिरी पर न कलसी'। ध्यान रहे कि मूल कविता में हिलाया-पिलाया' की बजाय 'हिलाया-झुलाया' लिखा है।

बीस विद्वानों की देखरेख में बच्चों के लिए तैयार की गई इस पाठ्यपुस्तक में इस कदर की अगंभीरता और लापरवाही अक्षम्य है। खासकर जब डॉक्टर एस. ए. मुईन (विभागाध्यक्ष, एस सी ई आर टी, पटना) और डॉक्टर ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी जैसे 'आत्ममुग्ध' शिक्षाविद भी इसमें शामिल हों।

‘बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड’ द्वारा कक्षा ग्यारह के लिए इतिहास की पाठ्यपुस्तक ‘विश्व इतिहास के कुछ विषय’ (प्रथम संस्करण : 2007, पुनर्मुद्रण : 2008) तैयार करवाई गई है. ‘पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति’ के सदस्यों के ‘नाम-पदनाम’ छापने में पूरा एक पृष्ठ जाया हुआ है. नीलाद्रि भट्टाचार्य उक्त समिति के मुख्य सलाहकार हैं. ‘विश्व इतिहास का अध्ययन’ शीर्षक से दो पृष्ठ की उनकी भूमिका भी है. उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखें : (1) ‘‘नए इतिहासकार को अब कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिन्हें पहले अनदेखा कर दिया गया था. वे इन प्रमाणों की व्याख्या करती हैं, नए अंतर्संबंध कायम करती है और इस तरह से एक नयी किताब लिख डालती हैं.’’ (2) ‘‘अक्सर किन्हीं विशेष घटनाओं का इतिहास पश्चिम की विजयी यात्रा की बड़ी कहानी का ही हिस्सा था.’’ (3) ‘‘इस यात्रा में विश्व इतिहास के कुछ विषय आपकी मदद करेगी’’. (4) ‘‘सबसे पहले यह पुस्तक विकास और प्रगति की महान कहानियों के पीछे छुपे ज्यादा ‘अँधेरे’ इतिहासों से आपका परिचय कराएगी’’.

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