Friday, November 12, 2010

विज्ञान और हिंदुत्व -एक पाठक के नोट से

भारत में इस बात पर व्यापक तौर पर विश्वास किया जाता रहा है कि धर्म और विज्ञान के बीच, जो संघर्ष यूरोप में मध्यकाल के बाद आरंभ हुआ, वह हमारे देश में नहीं हुआ। सच तो यह है कि हमारे यहां यह बात मानी जाती है कि हमारी वैज्ञानिक खोजें, हमारे रहस्यद्रष्टाओं ने अपनी रहस्यसाधना से की थीं। आज भी कुछ लोग इस विचार को बड़े आत्मविश्वास के साथ प्रतिपादित करते हैं। जैसे ही कोई नया वैज्ञानिक अनुसंधान सामने आता है, वैसे ही वेदांत के अनुयायी यह प्रमाणित करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं कि यह खोज तो हमारे सर्वज्ञ ऋषि ने हजारों वर्ष पहले ही कर ली थी। वैदिक विद्या के एक पुरोधा ने यह प्रमाणित किया था कि आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत उपनिषदों ने बहुत पहले ही खोज लिया था। ‘कुछ तो यह भी दावा करते हैं कि भौतिकी के आज के शोध (उदाहरणार्थ, आइंस्टाइन का ‘आपेक्षिकता का सिद्धांत’) हजारों साल पहले योगसाधना से यहां के ऋषि-मुनियों ने लगाये थे।’ (देखें, एस. जी. सरदेसाई, भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पी. पी. एच, नई दिल्ली, अनुवादक: गुणाकर मुले, हिन्दी प्रथम संस्करण, अगस्त 1979, पृष्ठ 98)।

बल्कि सच्चाई यह है कि हमारे देश में यांत्रिकी और भौतिकी की प्रगति नहीं के बराबर हुई। ऐसा संभवतः श्रम के प्रति घृणा की वजह से हुआ। आस्तीन चढ़ाकर, हाथ काले करके, पसीना बहाये बिना जिस विज्ञान की रत्ती भर भी प्रगति नहीं हो सकती, वह है यांत्रिकी और भौतिकी। और जिन विज्ञानों की प्रगति के लिए सबसे कम शारीरिक श्रम करने पढ़ते हैं वह हैं गणित और ज्योतिष। निरीक्षण और तात्विक चिंतन-ये दो गुण यदि भरपूर हों तो गणित और ज्योतिष की प्रगति हो सकती है। और इस बात में संदेह नहीं कि ये गुण ‘हमारे’ ब्राह्मणों में भरपूर थे (दरअसल, तात्विक विचारशक्ति के गुण से हम इतने अभिभूत थे कि ऐन्द्रिय निरीक्षण से सामने दिखनेवाले जग को साफ मिथ्या ‘सिद्ध’ करने के लिए शंकराचार्य ने जितने तर्क प्रस्तुत किये, उतने संसार के किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं खोजे)। यहां यह कहा जा सकता है कि चिकित्सा, वैद्यक और रसायन की प्रगति के लिए भी आस्तीन चढ़ाकर प्रयोग करने होते हैं। यांत्रिकी के प्रयोगों से भी अधिक हाथ गंदे करने होते हैं। यह एक सच्चाई है।

चिकित्सा और आरंभिक अवस्था के रसायन की कितनी भी जीवन के लिए कितनी भी जरूरत क्यों न हो, तो भी हमारे शुचिर्भूत ब्राह्मणों (धर्मरक्षकों) के लिए ये चीजें अशौच ही थीं क्योंकि दस्त लगे आदमी का उपचार करने का अर्थ है (चिकित्सक चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो) भंगी का भी काम करना। शव-विच्छेदन भी हीन जाति का काम; और चमड़ा कमाने की रासायनिक प्रक्रिया का अध्ययन करने का अर्थ है चमार का काम। चरक और सुश्रुत को वेदान्तवादी ब्राह्मणों का रोष सहना पड़ा तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है। (देखें एस. जी. सरदेसाई, भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पी. पी. एच., नई दिल्ली, हिन्दी: प्रथम संस्करण: अगस्त 1979, पृष्ठ 109-10)।

विज्ञान की खोजों की आदिभूमि भारत को मानने की अविवेकी प्रवृत्ति को अंग्रेजी राज के दिनों में और अधिक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अठारहवीं शती में ब्रह्म समाज के अनुयायियों तथा जनता के अन्य प्रगतिशील वर्गों ने पश्चिमी सभ्यता की सभी अच्छाइयों को आत्मसात् करके पाश्चात्य संस्कृति को चुनौती दी तो अधिक कट्टर लोगों ने हिन्दू समाज में पाई जाने वाली हर चीज का औचित्य सिद्ध किया, और यह बताने का प्रयत्न किया कि पश्चिम की सभी खोजें और आविष्कार भारत के प्राचीन ऋषियों को ज्ञात थे। (देखें, शिशिर कुमार बोस, नेताजी संपूर्ण वाड्.मय , खंड-1, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, जनवरी 1982, पृष्ठ 15)। दयानंद सरस्वती भी मानते थे कि ऋग्वेद में सब कुछ है, यहां तक कि तार विद्या, नौविमान विद्या जैसी आधुनिक टेक्नोलॉजी तो है ही, न्यूटन का आकर्षण, अनुकर्षण जैसा भौतिकी का सिद्धांत भी। (देखें, नामवर सिंह, ‘इतिहास की शव-साधना, आलोचना , अप्रैल-जून 2001, पृष्ठ 243)। ‘ऋग्वेद भाष्य’ में दयानंद सरस्वती ने ‘अश्विन’ का अर्थ किया है भाप-चालित जहाज-जो पानी, जमीन और आसमान, सबमें समान रूप से चलता है। स्वामी जी के अनुसार ‘अश्विन’ कोई देवता नहीं है। (वही) इस भाव की अभिव्यक्ति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता में भी देखी जा सकती है;
‘योग्य जन जीता है।
पश्चिम की उक्ति नहीं-
गीता है, गीता है-
स्मरण करो बार-बार-
जागो फिर एक बार !’
(देखें, ‘जागो फिर एक बार’: 2, राग-विराग , रामविलास शर्मा , संपादक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1942, पृष्ठ-59; और देखें, मीरा नंदा , ‘पोस्ट मॉडर्निज्म, हिन्दू नेशनलिज्म एंड वेदिक सायंस’, फ्रंटलाइन , 15 जनवरी, 2004, पृष्ठ-78)। ठीक इसी प्रसंग में जयंत विष्णु नार्लीकर लिखते हैं, ‘मैंने एक ऐसे आधुनिक ग्रंथ को देखा है जिसमें लेखक ने वैदिक ऋचाओं का विवेचन करके यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि दीर्घतमा ऋषि सूर्य की आंतरिक रचना से परिचित थे। आधुनिक खगोल शास्त्र हमें यह बतलाता है कि सूर्य के केन्द्र-प्रदेश में अत्यधिक तापमान तथा दबाव के फलस्वरूप परमाणु प्रक्रियाएं होती हैं जिनमें हाइड्रोजन का हीलियम में रूपांतर होता है। इन प्रक्रियाओं के कारण ऊर्जा उत्पन्न होती है जो सूर्य प्रकाश के रूप में सूर्य से बाहर निकलती है। उपर्युक्त ग्रंथ में लेखक ने वैदिक ऋचाओं का भावार्थ सपष्ट करते हुए यह सिद्ध किया है कि सूर्यान्तर्गत परमाणु प्रक्रियाओं का अस्तित्व वेदकालीन ऋषियों को मालूम था। इसके लिए लेखक को ऋचाओं के अक्षरों, शब्दों को सांकेतिक मानकर उनके अर्थों को सपष्ट करने के लिए एक कुंजी का प्रयोग करना पड़ा है।’ (देखें, ‘भारतीय संस्कृति में विज्ञान की परंपरा’, समयांतर , हिन्दी मासिक पत्रिका, संपादक: पंकज बिष्ट, फरवरी, 2004, पृष्ठ 43)।

कहना होगा कि पुराणों की कथाओं का बयान तथा इनमें विज्ञान ढ़ूंढ़ने की मानसिकता से विकट स्थिति बन रही है। वर्ष 2002 में एक सरकारी अनुसंधान संस्थान ने बाकायदा पुराण-विज्ञान विशेषांक निकाला था। इसमें प्राचीन ग्रंथों की पौराणिक कथाओं को आधार बनाते हुए उनमें जबर्दस्ती विज्ञान खोजने की कोशिश की गई थी। रामायण और महाभारत के उद्धरण उसमें बढ़-चढ़कर थे। उसमें सृष्टि की रचना से लेकर समुद्र-मंथन तक सब कुछ समाहित था। (कृष्ण कुमार मिश्र , ‘वैज्ञानिक चेतना और हमारा समाज’, समयांतर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 76)।

इस पूरे प्रसंग को समझने के लिए अलबरूनी का उद्धरण प्रस्तुत करना वाकई दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण होगा। भारतीय वैज्ञानिकों के बारे में वे लिखते हैं, ‘वे बहुत भ्रामक स्थिति में हैं, किसी भी तर्क व्यवस्था को नहीं मानते और अंततः तथ्यों के साथ भीड़ के मूर्खतापूर्ण वक्तव्यों को मिलाते हैं। मैं अनेक गणितीय और ज्योतिषीय ज्ञान की तुलना मोतियों और खट्टे खजूरों के मिश्रण या मोतियों के साथ गोबर या अत्यंत मूल्यवान स्फटिक के साथ सामान्य पत्थर की बटिया के साथ मिश्रण से कर सकता हूं। उनकी नजर में ये दोनों चीजें समान हैं, इस वजह से वे स्वयं को कठोर वैज्ञानिक पद्धतियों से जोड़ नहीं पाते।’ यहां यह उल्लेखनीय है कि अलबरूनी ने जिन परिस्थितियों का वर्णन किया है वे ईसा की पांचवीं या छठी शताब्दी के बाद धीरे-धीरे पैदा हुई थीं, उस समय तक हिन्दू समाज जड़ीभूत स्थिति में आ गया था। (देखें, एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि , पी. पी. एच. जयपुर, अगस्त 1988, पृष्ठ 102, पाद टिप्पणी संख्या-1)।

2 comments:

miracle5169@gmail.com said...

lekh,uske unvaan ke maddenazar aur vasee'a hona tha .aapki baat, aisa lagata hai ki puri nahi hu'ee.aap ko lage na lage mujhe mensus hu'aa ki isme aap bahut kuch kehna chahte haiN.ya keh sakte haiN.
halaNki behad jaankari bhara aur mazedaar hai.

Rahul Singh said...

विश्‍लेषण और वर्गीकरण में हम कमजोर ही रहे हैं, लेकिन इस दृष्टि से यदि उदाहरण घटाकर खेल में देखें, तो कोई ट्रैक एण्‍ड फील्‍ड, एथलेटिक्‍स में कोई जिम्‍नास्टिक में कोई तो कोई एकाग्रता के खेलों टीटी, बैडमिंटन, निशानेबाजी, बिलियर्ड, शतरंज में आगे हैं.
बौद्धिक प्रक्रिया में हम अवलोकन और फिर सीधे व्‍याख्‍या पर पहुंच जाते हैं और पश्चिम का विवरण और विश्‍लेषण पर अधिक जोर होता है.
अपनी-अपनी खासियत है, मेरा आशय स्‍पष्‍ट हो गया होगा.