Wednesday, May 23, 2018

बिहार में शिक्षा की दुरवस्था के बहाने

शिक्षा की बिगड़ती स्थिति पर चर्चा सामाजिक पतन के संदर्भ में ही हो सकती है। तीस-चालीस साल पहले हम शिक्षा को अगर बेहतर स्थिति में पाते हैं तो उसके कारण भी हैं। वह दौर नेशनलाइजेशन और सरकारी संस्थानों के प्रति श्रद्धा और कमिटमेंट का है। मूल्यों के प्रति कमिटमेंट है। इस दौर में सरकार और जनता के समन्वित प्रयास से संस्थान खुले। सिर्फ स्कूल नहीं। हर गांव का अपना एक सार्वजनिक पुस्तकालय था। आज वे सारे सार्वजनिक पुस्तकालय निजी हो गए हैं। पटने की सिन्हा लाइब्रेरी की हालत क्या हुई? किताबों के पन्ने ब्लेड से काटे हुए हैं। ब्रिटिश लाइब्रेरी बन्द हो गई। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद गया तो पता चला कि पुस्तकालय की किताबें घरों की अलमारियों की शोभा बढ़ा रही हैं। एक वाक्य में कहें कि सामाजिक संस्थानों के प्रति जो हमारा भाव था, आज नहीं है। आज सरकार से लेकर समाज और व्यक्ति तक में निजी संस्थानों के प्रति आकर्षण बढ़ा है। हम अपने परिवार के किसी सदस्य का इलाज सरकारी अस्पताल में कराने का साहस नहीं रखते। गाँव-घर ही नहीं परिवार के सदस्य भी मान बैठते हैं कि कंजूसी कर गया। सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों को हमने 'प्रतिष्ठा' का प्रतीक बना दिया है। जिनके पास थोड़ी भी 'प्रतिष्ठा' है, उनके बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते। सरकारी स्कूल में पढनेवाले बच्चे पहले मजदूर हैं, विद्यार्थी बाद में। उनके लिए पढ़ाई पार्ट टाइम जॉब है। सरकारी स्कूलों की जो प्रतिष्ठा घटी है उसके लिए सरकार की नीतियां भी जिम्मेवार हैं। सरकार ने कॉलेजों से इंटर की पढ़ाई खत्म कर दी बगैर किसी वैकल्पिक व्यवस्था के। यह सरकार की सोची-समझी चाल थी। पहले दसवीं तक की शिक्षा को निजी हाथों में दिया। फिर बारहवीं तक को। और अब निजी विश्वविद्यालय को खुला न्यौता है। इस खेल को समझना होगा। सरकारी स्कूलों में अगर शिक्षक नहीं हैं तो इसके कारण हैं। कारण निजी विद्यालयों को प्रोत्साहित करना है। प्रोत्साहन से आगे बढ़कर सरकार निजी विद्यालय को अब सरकार 25 प्रतिशत सीट के लिए पैसे देती है। सरकारी स्कूल के शिक्षकों के लिए सरकार के पास पैसे नहीं है। गरीब बच्चों के नाम पर निजी विद्यालयों को धन देने के लिए संसाधन की कमी नहीं होती। सरकारी स्कूल के शिक्षक जब सम्मानजनक वेतन की मांग करते हैं तो सारे पत्रकार अर्थशास्त्री हो जाते हैं। आज तक किसी अर्थशास्त्री पत्रकार ने लिखा कि निजी स्कूलों को इस तरह पैसा बांटना गलत है। रही बात शिक्षकों की तो वे अभाव और असंतोष के बीच खड़े हैं। एक तो शिक्षकों को वेतन बहुत कम मिलता है। वह भी पांच-छह माह से पहले मयस्सर नहीं होता। नतीजतन उसे जीवित रहने के लिए दूसरे धंधे करने पड़ते हैं। किसी को आइसक्रीम बेचना पड़ता है तो किसी को पीएच डी लिखने का धंधा। जो लोग शिक्षा को लेकर चिंतित हैं उन्हें इस बात की भी चिंता करनी होगी कि शिक्षक को आइसक्रीम न बेचना पड़े। समाज ने शिक्षक को अयोग्य कहते-कहते मर्यादाहीन बना दिया है। शुरू में (2007) जब मैं स्कूल गया था तो अभिभावक मजाक करते थे। अभिभावक की बात बच्चों तक पहुंच गई। बच्चे ने कहा था, आप इतना पढ़े तो पांच हजार की नौकरी मिली तो आपके पढ़ाये विद्यार्थी को कितने की मिलेगी? जाहिर है, आज शिक्षक समाज का सबसे उपेक्षित तबका है। समाज का भला करना है अगर तो शिक्षक ही क्यों हर पढ़े-लिखे आदमी को हीरो बनाना सीखना होगा। पढ़े-लिखे लोगों को उपेक्षित करके शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की बात बेमानी है।
अखबारी हैं ये आंकड़े

बिहार के मुख्यमंत्री ने कहा कि 'राज्य में प्राथमिक विद्यालय तक पढ़ाई करने के बाद काफी कम लड़कियां मध्य विद्यालय तक पहुँच पाती थीं। इसके लिए हमने मध्य विद्यालय में कपड़े दिये, नौवीं कक्षा में साइकिल दी। यह इसलिए किया कि लड़कियां कम से कम मैट्रिक तक पढ़ें। इसके पूर्व पूर्णिया, कटिहार, पटना में साइकिल से लड़कियां पढ़ने स्कूल नहीं जाती थीं। उस समय 1.70 लाख लड़कियां मैट्रिक तक पढ़ती थीं। साइकिल योजना की शुरुआत करने के बाद यह आंकड़ा 8.15 लाख तक पहुँच गया है।' (प्रभात खबर, पटना, 11/12/2016, पृष्ठ 1)

संभव है, यह आंकड़ा सही हो। लेकिन यह 'अखबारी' है। सच है कि मिड डे मील, साइकिल और पोशाक की योजनाओं ने बच्चों को विद्यालय की ओर आकर्षित किया है। बल्कि यह कहना ज्यादा यथातथ्य होगा कि बच्चों के अभिभावक विद्यालय की ओर खिंचे हैं। कारण है इन इन योजनाओं के माध्यम से बँटनेवाली राशि। विद्यालय में अगर लड़कियों का नामांकन बढ़ा है तो उसकी वजह भी राशि ही है। पिछले सालों में देखा गया कि एक एक बच्चे का चार चार विद्यालयों में नामांकन होता था। बच्चे चारों विद्यालयों से योजना की राशि उठाते थे। तब नामांकन की प्रक्रिया सरल थी और 8वीं कक्षा की टी सी आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थी। कहने की जरूरत नहीं कि गलत नामांकन के इस खेल में अभिभावक के साथ शिक्षक और प्रधानाध्यापक तक संलिप्त थे। कई स्कूलों की हुई जाँच से इस तथ्य की संपुष्टि हो चुकी है। इतना ही नहीं, कई पदाधिकारी तक इसमें शामिल पाये गए हैं। छात्रवृत्ति घोटाले का स्मरण ही यह बताने के लिए काफी होगा कि स्कूलों में केवल नकली छात्र/छात्रा ही नहीं बढ़े अपितु नकली विद्यालय भी उठ खड़े हुए। इन सब कारणों से विद्यालय आनेवाले छात्रों की संख्या बढ़ी हो तो क्या आश्चर्य! ऐसे में सुशासनी मुख्यमंत्री द्वारा अपनी पीठ थपथपाना निरर्थक है।

नामांकन के इस खेल ने लड़कियों को अगर आंकड़ों ने मान बढ़ाया तो इसका कारण आर्थिक व्यापार है। कोई भी 'निवेशकर्ता' लड़कों का नामांकन कराना नहीं चाहता। लड़के के नामांकन से किसी को घाटे का सामना करना पड़ सकता है। गणित है कि नौवीं कक्षा के छात्र को 2500 रुपये साइकिल के तथा 1800 रुपये छात्रवृत्ति के मिलेंगे। वहीँ नौवीं की छात्रा को 2500 रुपये साइकिल के, 1800 रुपये छात्रवृत्ति के, 1000 रुपये पोशाक के और 150 रुपये नैपकिन के मिलेंगे।

पूर्व मंत्री की बेटी के यौन शोषण मामले में जाँच के दौरान पीड़िता द्वारा पटना के नोट्रेडेम पब्लिक स्कूल, मुजफ्फरपुर के पारा माउंट एकेडेमी सहित सहरसा जिले के सिमरी बख्तियारपुर अंतर्गत सोनपुरा कन्या मध्य विद्यालय में पढ़ाई की बात सामने आई है। (प्रभात खबर, पटना, 22/4/2017) बिहार की स्कूली दुनिया के लिए यह कोई चौंकानेवाली खबर नहीं बल्कि एक कटु यथार्थ है। बिहार सरकार सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे छात्रों/छात्राओं की संख्या में जो वृद्धि दिखा रही है उसकी सच्चाई यही है कि एक बच्चे का नाम चार-चार सरकारी विद्यालयों में है। इसकी एकमात्र वजह छात्रों/छात्राओं को साईकिल, पोशाक, नैपकिन व छात्रवृत्ति की राशि है। सरकार यह पैसा सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई को प्रोत्साहन के नाम पर दे रही है, जबकि व्यवहार में ठीक इसका उल्टा हो रहा है। छात्र और अभिभावक का यह धंधा हो चुका है कि वे चार स्कूलों में नाम लिखाते हैं और एक मोटी रकम सरकार से ऐंठते हैं। सरकारी पैसे से वे पब्लिक स्कूलों और प्राइवेट कोचिंग की फीस भरते हैं। आपको सुनकर थोड़ी हैरानी होगी कि अभिभावक अब सरकारी विद्यालय बच्चे की पढ़ाई से सम्बंधित जानकारी के लिए नहीं बल्कि यह पूछने आते हैं कि किस बोर्ड का सर्टिफिकेट वे काम में लाएं। इसलिए बिहार सरकार को अगर सरकारी स्कूलों में शैक्षणिक माहौल लौटाना है तो पैसे की लूट बंद करनी होगी।


आज लगभग हर पिता का सूत्रवाक्य है 'बेटा वही जो किसी तरह से पैसे कमा ले'. पैसे न कमानेवाला बेटा अपने ही घर में प्रताड़ित है. और यह भी सत्य है कि गलत हुए बगैर पैसा नहीं होता तथा पैसा हो जाने पर गलत हुए बगैर नहीं रहा जा सकता. यह नियम है, अपवाद की चर्चा न करें तो बेहतर. एक अकेला शिक्षक और शिक्षा का दोष नहीं. हर घर का मूल्य बदलना होगा. ऐसे में एक शिक्षक से उम्मीद की जाती है कि वह बच्चे का व्यक्तित्व गढ़े और इस तरह समाज का निर्माण करे. इसके लिए जरूरी है कि बच्चों के साथ-साथ समाज उसे हीरो/मॉडल समझे. आज की तारीख में शिक्षक समाज का सबसे नकारा जीव मान लिया गया है. सरकार ने उसकी दुर्गति कुछ इस तरह कर रखी है कि समाज में शिक्षक का नामकरण 'पेटपोसवा मास्टर' है. विडंबना यह है कि वह बेचारा अपने नाम के अनुरूप पेट भी कहाँ पोस पा रहा है ? छात्र सीधे शब्दों में शिक्षक से कहता है कि 'सर, इतना पढ़ने पर आपको छह से बारह ('एकमुश्त' वेतन-वृद्धि के बाद) हजार की नौकरी मिली. आपके पढ़ाये को कितने की नौकरी मिलेगी ?' इसे शब्दजाल न समझें. यह चेतावनी है कि अगर समाज को बदलना है, तो शिक्षक को समाज और बच्चे का हीरो/मॉडल बनाना होगा. इसमें जितना विलम्ब होगा, समाज उतना पीछे जायेगा. प्रेमचंद ने कभी लिखा था कि विद्या पढ़ने से नहीं, गुरु के आशीर्वाद से आती है. बिहार के नियोजित शिक्षक अपनी ही पीड़ा में कुछ इस कदर कराह रहे हैं कि वे आशीर्वाद क्या खाक देंगे !
सरकार किताब नहीं कूड़ा तैयार कराती है

बिहार सरकार 'गुणवत्तापूर्ण शिक्षा' की बात करती है. शिक्षा की बदहाली जानने के लिए तरह -तरह के गैर सरकारी संगठनों से सर्वे कराती है और सरकारी पैसा पानी की तरह बहाती है.लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता. ठोस नतीजा निकलता है ठोस काम करने से. बिहार सरकार के श्रम मंत्री दुलालचंद्र गोस्वामी तक ने स्वीकार किया है कि 'सरकारी स्कूलों की अपेक्षा निजी स्कूलों में पढ़ाई बेहतर होती है।' (प्रभात खबर, पटना, 10 अगस्त 2014, पृष्ठ 8) अगर स्थिति ऐसी है तो इसके कई कारण हैं।

सरकारी पुस्तकों का हाल देखकर लगता है कि जिन्हें एक वाक्य लिखने नहीं आता उनसे पाठ्य-पुस्तकें लिखवाई जाती हैं. नतीजा आपके सामने है. राज्य के कुल बीस विद्वानों ने मिलकर दसवीं कक्षा (सामाजिक विज्ञान) की पुस्तक 'इतिहास की दुनिया' तैयार की है. कहना अनावश्यक है कि 'प्रस्तुत पाठ्यपुस्तक की पांडुलिपि तैयार करने के पूर्व राज्य शिक्षा शोध व प्रशिक्षण परिषद, पटना द्वारा विभागीय पदाधिकारियों, विषय विशेषज्ञों, भाषा विशेषज्ञों और प्रारंभिक स्तर के शिक्षकों की कार्यशाला आयोजित की गई। काफी गहन चर्चा के बाद पुस्तक की पांडुलिपि का निर्माण किया गया। हालांकि हसन वारिस (तत्कालीन निदेशक प्रभारी) 'गहन चर्चा' की बात को खुद ही खारिज कर कहते हैं : 'अल्प समय में निर्मित पुस्तक के लिये समालोचनाओं व सुझावों का परिषद स्वागत करेगी।' 'अल्प समय' में 'गहन चर्चा' के बाद जो पुस्तक तैयार हो सकती है, उसका कुछ नमूना आप देख सकते हैं।

उसका 'आमुख' पढ़ रहा था. महज एक शुद्ध वाक्य देख पाने के लिए मैं तरस गया. किस साहस के साथ अपने बच्चों को कहूँ कि इस कूड़े से बचो. बच्चे तो किताब को प्रमाण मानते हैं. और विद्वानों द्वारा लिखित-परिवर्धित इस किताब को कूड़ा कौन कह रहा है ? एक नियोजित शिक्षक जिसपर न छात्र को भरोसा है, न सरकार को, न समाज को! कुछ नमूना आप भी देखें-(1) 'पाठ्य-पुस्तक के सभी अध्याय रोचकपूर्ण है।' (2) 'पाठ्य-पुस्तक में दिए गए विषय वस्तु विद्यार्थियों के दैनिक अनुभव पर आधारित हो, ऐसा प्रयास किया गया है।' (3) 'कहीं-कहीं ऐसे संदर्भित प्रश्न हैं, जिसे बच्चे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करते हुए सत्य के निकट जाने हेतु कौतुहलता व जिज्ञासा रहेगी।' (4) 'पुस्तक की अधिकांश क्रियाकलाप बिना किसी सामग्री या कम लागत की सामग्री के साथ करवाई जा सकती है।' (5) 'पाठ्यक्रम के उद्देश्य और प्रकरण यथा भोजन, पदार्थ, सजीवों का संसार, गतिमान वस्तुएं, लोग एवं उनके विचार, वस्तुएं कैसे कार्य करती हैं, प्राकृतिक परिघटनाएं तथा प्राकृतिक संसाधन की मुख्य अवधारणाओं में दिये गये विषय-वस्तु पाठ्यपुस्तक के अध्यायों में परिलक्षित एवं समाविष्ट किया गया है।'

कहना होगा कि उक्त पुस्तक के दो पृष्ठ के 'आमुख' में शायद ही कोई ऐसा वाक्य हो जिसमें भाषिक और व्याकरणिक अशुद्धि 'समाविष्ट' न हो और वह 'परिलक्षित' न हो। शर्मनाक बात तो यह है कि 'आमुख' के लेखक को यह भी पता नहीं है कि पुस्तक 'सामाजिक विज्ञान' की है, अथवा 'विज्ञान' की। वे लिखते हैं, 'आशा है विज्ञान की यह पाठ्यपुस्तक बच्चों के लिए लाभदायक, आनंददायी और रुचिकर सिद्ध होगी।' सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में 'विज्ञान के रहस्यों को खोलने करने का प्रयास' होगा तो पुस्तक रुचिकर होगी ही!

बिहार राज्य शोध एवं प्रशिक्षण परिषद् , बिहार द्वारा विकसित व बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड से प्रकाशित 6ठी कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक 'किसलय' (भाग-1) देखने को मिली। इस पुस्तक में पृष्ठ संख्या 3 पर एक विज्ञापन है जिसमें 'आनेवाली' (आने वाली) 'ध्यानपूर्वक' (ध्यान पूर्वक), 'मानवरहित' (मानव रहित), 'लापरवाहीपूर्वक' (लापरवाही पूर्वक), 'अन्तर्गत' आदि शब्द लिखने में लापरवाही बरती गई है। 'याद रहे आपकी जिन्दगी अमूल्य है' को 'याद रहे, आपकी जिन्दगी अमूल्य है।' यद्यपि यह एक पूर्ण वाक्य है, पुस्तक में पूर्ण विराम का प्रयोग नहीं किया गया है। पृष्ठ 4 पर 'असली चित्र' शीर्षक से एक कहानी संकलित है, जिसका पात्र 'तेनालीराम' है। दरअसल इसका सही नाम तेनालीरामन है। पृष्ठ 12 पर प्रश्न संख्या 2 में लिखा है, "ऊँची डाली, काली चिड़िया'। इन वाक्यों में ऊँची डाली की तथा काली चिड़िया की विशेषता बताता है।" अव्वल तो 'ऊँची डाली, काली चिड़िया' वाक्य नहीं है, इसलिए यहां पूर्ण विराम का अनावश्यक और निरर्थक प्रयोग है। दूसरे, ऊँची डाली की तथा काली चिड़िया की विशेषता 'बताती' है, न कि बताता है। पृष्ठ 98 पर केदारनाथ अग्रवाल की कविता 'वसंती हवा' है। दरअसल यह अपने मूल रूप में 'बसंती हवा' है। कविता में आगे लिखा है, 'हरे खेत, पोखर,/झुलती चली मैं/झुमती चली मैं।' मूल में यह 'झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं' है। इस तरह की 'अगंभीरता' से कविता में अर्थ का अनर्थ हुआ है। फिर आगे लिखा है, "उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू', उतरकर भागी मैं"। कहने की जरूरत नहीं कि मूल कविता में 'उतरकर "भगी" मैं' है न कि 'भागी'। भागी से कविता की लय भी बाधित होती है। और आगे, 'खड़ी देख अलसी, लिए शीश कलसी, मुझे खूब सूझी-हिलाया-पिलाया, गिरी पर न कलसी'। ध्यान रहे कि मूल कविता में हिलाया-पिलाया' की बजाय 'हिलाया-झुलाया' लिखा है।

बीस विद्वानों की देखरेख में बच्चों के लिए तैयार की गई इस पाठ्यपुस्तक में इस कदर की अगंभीरता और लापरवाही अक्षम्य है। खासकर जब डॉक्टर एस. ए. मुईन (विभागाध्यक्ष, एस सी ई आर टी, पटना) और डॉक्टर ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी जैसे 'आत्ममुग्ध' शिक्षाविद भी इसमें शामिल हों।

‘बिहार स्टेट टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड’ द्वारा कक्षा ग्यारह के लिए इतिहास की पाठ्यपुस्तक ‘विश्व इतिहास के कुछ विषय’ (प्रथम संस्करण : 2007, पुनर्मुद्रण : 2008) तैयार करवाई गई है. ‘पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति’ के सदस्यों के ‘नाम-पदनाम’ छापने में पूरा एक पृष्ठ जाया हुआ है. नीलाद्रि भट्टाचार्य उक्त समिति के मुख्य सलाहकार हैं. ‘विश्व इतिहास का अध्ययन’ शीर्षक से दो पृष्ठ की उनकी भूमिका भी है. उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखें : (1) ‘‘नए इतिहासकार को अब कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिन्हें पहले अनदेखा कर दिया गया था. वे इन प्रमाणों की व्याख्या करती हैं, नए अंतर्संबंध कायम करती है और इस तरह से एक नयी किताब लिख डालती हैं.’’ (2) ‘‘अक्सर किन्हीं विशेष घटनाओं का इतिहास पश्चिम की विजयी यात्रा की बड़ी कहानी का ही हिस्सा था.’’ (3) ‘‘इस यात्रा में विश्व इतिहास के कुछ विषय आपकी मदद करेगी’’. (4) ‘‘सबसे पहले यह पुस्तक विकास और प्रगति की महान कहानियों के पीछे छुपे ज्यादा ‘अँधेरे’ इतिहासों से आपका परिचय कराएगी’’.

Tuesday, May 22, 2018

भारतीय संस्कृति और 'स्वच्छता अभियान'


देश अभी 'स्वच्छता अभियान' के दौर से गुजर रहा है। लगभग सभी सरकारी और गैर सरकारी संगठन 'स्वच्छ भारत' बनाने के अभियान में जुटे हैं। शौचालय-निर्माण से लेकर स्वच्छता पर सेमिनार तक इस अभियान के हिस्सा हैं। डाउन टू अर्थ  पत्रिका, जो पिछले कई वर्षों से प्रकाशित हो रही है, स्वच्छता की समस्या से अटूट रिश्ता रखती है। आज पटना में उक्त पत्रिका की ओर से एक कार्यक्रम आयोजित था जिसमें थोड़े क्षणों के लिए मुझे भी शरीक होने का अवसर प्राप्त हुआ।

स्वच्छता अभियान में 'खुले में शौच' को विशेष 'फोकस' किया जा रहा है। माना जा रहा है खुले में शौच करना 'असभ्यता' और अस्वास्थ्यकर है। बताया जा रहा है कि हम जो खुले में शौच करते हैं वह हमारे वातावरण को तो दूषित करता ही है, साथ ही साथ और अंततः पेय जल में मिल जाता है। गोष्ठी में एक वक्ता ने कहा कि सूअर भी अपना मल नहीं खाता लेकिन खुले में शौच के परिणामस्वरूप हम मनुष्य पेय जल के रूप में मलपान करने को विवश हैं। मैं खुले में शौच करने की वकालत का साहस तो नहीं कर सकता लेकिन हमारा ग्रामीण जीवनानुभव इस तरह के तर्क को मानने से इनकार अवश्य ही करेगा। जिन्होंने गांव देखा है उनको मालूम है कि मल सूअर का पसंदीदा पारंपरिक आहार है। वे मल को अविलंब खा डालते हैं। अगर सूअर न भी हो तो ऐसे-ऐसे कीड़े होते हैं जो दो दिन में मल को मिट्टी बना डालते हैं। इसलिए पेयजल के रूप में मलपान करने की बात वही कर सकता है जिसने गांव सिर्फ किताबों में देखा, पढ़ा है।

हमारी भारतीय संस्कृति में मल इतना 'त्याज्य' और 'घृणित' कभी नहीं रहा है जितना इसे आज साबित करने की कोशिशें हो रही हैं। कहीं यह 'घृणा की राजनीति' का अनिवार्य फल तो नहीं? मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि 'सुखल गुह ब्राह्मण के लिट्टी', अर्थात सूखा हुआ मल तो ब्राह्मण की तरह दोषमुक्त है! भारतीय संस्कृति में अपना मल-मूत्र खाने की प्राचीन परंपरा रही है। पेशाब को शिवाम्बु भी कहा जाता रहा है और अघोरी जैसे पंथों के लोग तो आज भी मल-मूत्रपान को सिद्धि का अनिवार्य सोपान मानते हैं। और तो और मैंने अपने बचपन में मल को रामबाण औषधि की तरह व्यवहृत होते देखा है। एक समय की बात है जब मेरे पड़ोस की एक महिला ने आत्महत्या के निमित्त जहर खा लिया था। कई तरह के घरेलू उपचार किये गये लेकिन सब निष्फल गया। अंत में किसी की बुद्धि खुली और उसने मल घोलकर पिलाने की बात की। सलाह मान ली गई और मल पीते ही अगले क्षण मरीज ने सारा जहर बाहर उँड़ेल दिया। गनीमत कहिए कि उसकी अंतड़ियां अंदर ही रहीं।

बौद्ध ग्रंथ की एक कहानी में वर्णित है कि सक्क रोगी बुद्ध के शौचालय को स्वयं अकेले साफ करने पर जोर देता है और कहा गया है कि बुद्ध के मलमूत्र को अपने सिर पर उठाकर ले जाने में उसने बड़े आनंद का अनुभव किया। (देवराज चानना, प्राचीन भारत में दासता, पृष्ठ 196) बुद्ध के शौचालय का वर्णन प्रस्तुत है : 'उस शौचालय का दरवाजा था। वह सुगंधों से भरा हुआ था और पुष्प मालाओं से सजा हुआ था। उसमें और कोई नहीं जा सकता था और वह सेतिय की तरह दिखाई देता था। (समंतपासादिका, पृष्ठ 745; चानना, पूर्वोद्धृत, 199, पाद टिप्पणी संख्या 71)

धर्मानंद कोसंबी ने इस तरह की एक रोचक कहानी का हवाला दिया है-'काशी में तेलंग स्वामी नामक एक प्रसिद्ध संन्यासी थे। वे नंगे रहते थे। काशी में उनके समान नंगे घूमने वाले दूसरे भी बहुत-से परमहंस थे। उस समय वहाँ गॉडविन नामक बड़ा लोकप्रिय कलक्टर था (जिसे काशी के लोग गोविंद साहब कहते थे)। हिन्दू लोगों के रीति-रिवाजों की जानकारी उसने सहानुभूतिपूर्वक प्राप्त कर ली और ये नंगे बाबा लंगोटी लगाकर घूमा करें इसके लिए निम्नलिखित युक्ति निकाली। रास्ते में घूमने वाला नंगा बाबा जब भी पुलिस वालों को मिलता तो वे उसे साहब के पास ले जाते। तब साहब उससे पूछता, "क्या तुम परमहंस हो?" जब वह "हाँ" कहता तो साहब उसे अपना अन्न खाने को कहता। भला नंगा बाबा साहब का अन्न कैसे खाता? तब गोविंद साहब कहता, "शास्त्र में कहा गया है कि परमहंस तो किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं मानता और तुम्हारे मन में तो भेद-भाव मौजूद है। अतः तुम्हें नंगा नहीं घूमना चाहिए।" इस प्रकार बहुत-से नागा बाबाओं को उसने लंगोटी पहनने को बाध्य किया। एक बार ऐसा ही प्रसंग तेलंग स्वामी पर आ गया। जब यह बात फैल गई कि स्वामी जी को लेकर पुलिस वाले कलक्टर साहब के बंगले पर गये हैं तो उनके शिष्य एवं चाहने वाले बड़े-बड़े पंडित तथा अन्य प्रभावशाली व्यक्ति साहब के बंगले पर गये। साहब ने सबको बिठा लिया और तेलंग स्वामी से पूछा, "क्या आप परमहंस हैं?" स्वामी जी ने जब "हाँ" कहा तो साहब ने दूसरा प्रश्न पूछा, "क्या आप यहाँ का अन्न खाएंगे?"इस पर स्वामी जी ने पूछा, "क्या आप मेरा अन्न खाएंगे?" साहब ने जवाब दिया, "यद्यपि मैं परमहंस नहीं हूँ, फिर भी किसी का भी अन्न मैं खा लेता हूँ।" स्वामी जी ने वहीं अपने हाथ पर मलत्याग किया और हाथ आगे बढ़ाकर वे गोविंद साहब से बोले, "लीजिये, यह है मेरा अन्न। आप इसे खाकर दिखाइये!" साहब को बड़ी घृणा हुई और वह गुस्से से बोला, क्या यह आदमी के खाने योग्य अन्न है?" तब स्वामी जी ने वह विष्ठा खा डाली और हाथ झाड़-पोंछकर साफ कर लिया। यह देखकर साहब ने स्वामी को छोड़ दिया और फिर कभी उनकी बात भी नहीं पूछी।' (धर्मानंद कोसंबी, भगवान बुद्ध : जीवन और दर्शन, लोकभारती प्रकाशन, 1987, पृष्ठ 75-76)। जब धर्मानंद कोसंबी 1902 ईस्वी में काशी में थे तो वहां के पंडितों ने यह कहानी उन्हें बड़े "आदर" से सुनाई थी और उससे पहले उसी "आदर-बुद्धि" के साथ काशी-यात्रा नामक पुस्तक में यह प्रकाशित भी हुई थी। (धर्मानंद कोसंबी, पूर्वोद्धृत)

कहने की जरुरत नहीं कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा में शौच का संबंध स्वच्छता से कम, शुचिता अर्थात पवित्रता से ज्यादा है। संस्कृत के 'शौचम्' का अर्थ 'मलत्याग के कारण दूषित व्यक्तित्व का शुद्धिकरण' है। (वामन शिवराम आप्टे, संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश, पृष्ठ 1111) शायद इसीलिए हमारे यहां स्वच्छता का शुचिता से अलग शायद ही कभी अस्तित्व रहा हो। भारतीय ग्रामीण जनमानस में सदियों से चली आ रही बात कि 'खाना और पैखाना एक साथ नहीं रहना चाहिए', कमोबेश आज भी अमल में है। अर्थात जिस मकान में रसोईघर हो वहां शौचालय की बात सोची भी नहीं जा सकती। यह अवधारणा खुले में शौच का एक प्रमुख कारण रही है। इसीलिए कुछ सालों पहले तक गांव-देहात के लोग शहर में बसनेवाले लोगों को विधर्मी मानते रहे थे कि उनके घरों में रसोईघर और शौचालय साथ-साथ होता है। एक समय था जब ग्रामीण हिन्दू घरों में औरत को स्नान करने के उपरांत ही रसोईघर में प्रवेश की अनुमति होती थी। हाल-हाल तक यह बात कल्पना से परे थी कि कोई स्त्री रसोईघर में चप्पल पहनकर चली जाए। आज भी ग्रामीण परिवेश और मानसिकता की अधिकतर औरतें शौचालय से लौटने के बाद स्नान करना धर्म मानती हैं। कुछ औरतें 'फ्रेंच बाथ' से काम चलाती हैं तो कुछ औरतें अपनी देह पर पानी की बूंदें छिड़ककर 'पवित्र' होती रही हैं। कुछ घरों में अब भी आपको वैसी स्त्रियां मिल जाएंगी जिनके पास शौच जाने के लिए अलग वस्त्र होते हैं, ठीक जैसे अस्पतालों में मरीज से मिलने जाने के पहले वस्त्र बदलने होते हैं। यह है भारतीय समाज की परंपरा और आधुनिकता। दोनों में वस्त्र बदलने की क्रिया समान है लेकिन उसके पीछे की चेतना में फर्क है। एक में प्रेरक शक्ति शुचिता है तो दूसरे में स्वच्छता। दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि 21वीं शताब्दी में भी एक आम भारतीय की स्वच्छता की अवधारणा शुचिता से खाद-पानी लेती है।

Sunday, May 20, 2018

शौच और सूअर की कथा

भारत के दूसरे गांवों की तरह मेरे गांव में भी खुले में शौच के लिए जाने का दस्तूर था। शौच के लिए मेरे गांव में पुरुषों के बीच जो शब्द प्रचलित था वह 'दिसा-मैदान' अथवा 'डोल-डाल' था। कुछ लोग इसे 'फारिग' होना भी बोलते। प्रायः इन शब्दों से खुलापन और गति की ध्वनि निकलती है।

गांव में लोग सुबह-सुबह शौच जाते। कुछ लोगों को शाम को भी शौच की दरकार होती। अमल/नशा करनेवाले लोगों के बीच सुबह-शाम दो बार शौच जाने का रिवाज था। शाम में कुछ लोग भांग खाते और शौच के लिए जाते। मेरे गांव में एक कहावत भी प्रचलित थी-'भांग के गोला पेट में/लोटा लेकर खेत में।' लेकिन गांजा पीनेवाले इससे भिन्न नियम का पालन करते। वे पहले शौच जाते फिर चिलम में मुंह लगाते। गांजा पहले पीने से मल सूख जाता है। पैखाना को मल कहा जाता। हमारे गांव के भुकु बाबा हमेशा इसी नियम का पालन करते। पहले डोलडाल तब चिलम।

पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्रियों की नागरिकता दोयम दर्जे की है; इसलिए तमाम तरह की बंदिशें हैं। सबसे बड़ी बंदिश तो यही है कि औरत, औरत की तरह दिखे नहीं। उसका खाना, नहाना, हगना आदि सब 'गोपनीय' कर्म हैं। उसके अधिकतर रोग 'गुप्त रोग' हैं। एक औरत खा सकती है, नहा सकती है और हग भी सकती है, लेकिन यह सब करती हुई 'दिखना' अनैतिक कर्म है। लोक में एक प्रचलित कहावत है-'औरत के नेहनई (स्नान) और खनई (भोजन) कोई देखे कोई न देखे।' विशेष रूप से मर्द न देखे। 'हगनई' तो शायद ही कोई देखे! इसीलिए गांव की स्त्रियां 'हगनई' को 'पर्दा जाना' कहती हैं लेकिन गांव के मनचले मर्द 'पर्दा' कहां मानते हैं! मुर्दहिया की किसुनी भौजी अपने पति को चिट्ठी में लिखती है : 'संभगिया क रहरिया में गंउवा क मेहरिया सब मैदान जाली, त ऊ (बन्सुवा) चोरबत्ती बारै ला।' (अनिता भारती, मुर्दहिया के स्त्री पात्र, मंतव्य 8 में उद्धृत)

'ढोड़ायचरितमानस' की महतो-पत्नी लोटा लेकर मैदान जा रही रमिया से सवाल करती है-''अरी ओ रमिया! कहाँ चली?' मुँह भरी हँसी लेकर रमिया जवाब देती है-'मैदान'।
कहती है क्या छोकरो! मैदान जा रही है लोटा लेकर?'
'क्यों, उससे क्या होता है?' 'फिर पूछती क्यों है? तू क्या मर्द है जो लोटा लेकर मैदान जायेगी?" (ढोड़ायचरितमानस, पृष्ठ 128) 'भांग के गोला पेट में, लोटा लेकर खेत में' कहावत का उत्तरांश अर्थात 'लोटा लेकर खेत में' जानेवाली बात महिलाओं पर लागू नहीं होती है। लोटा हाथ में लेने से मर्द समझ जाते हैं कि 'वह' दिसा-मैदान के लिए जा रही है। 'ढोड़ायचरितमानस' की रमिया लोटा लेकर 'मैदान' जाती है। उस गांव के लिए यह एक नई प्रथा की शुरुआत थी। यह बात मर्द क्या गांव की स्त्रियों को भी नहीं पचती है। उन औरतों की टिप्पणी है, 'कहती हूँ, क्या लाज-शर्म उतारकर रख दिया है? लोटा लेकर मैदान जा रही हो, मर्द लोग देखेंगे? लोटा हाथ में लिए झोटाहा देखते ही तो मर्द लोग समझ जायेंगे कि तू कहाँ जा रही है? यह सीधी बात भी क्या लोटे में घोलकर पिला देना होगा तारापुर की राजकन्या को? यह सब किरिस्तानी चाल-चलन हमारे मुहल्ले में चलाने आई है? यह क्या नट्टिन लोगों का गांव है?' (ढोड़ायचरितमानस, पृष्ठ 128)

मैं जब बहुत छोटा था तो शौच के लिए घर के आगे की परती जमीन में जाया करता। गांव के अंदर की परती जमीन को 'खंढ़ी' कहा जाता। खंढ़ी अथवा कोली (दो मकान के बीच की गली कोली कहलाती) शौच के लिए उपयुक्त जगह मानी जाती। जो बच्चे अधिक शौच करते उनकी माता अथवा दादी उन्हें चिढ़ातीं-'गोड़-हाथ सिरकी/पेट नदकोला/कने जा ह$ ... बाबू?/ हगे जा ही कोला।' मैं शौच के लिए जिस खंढ़ी का इस्तेमाल करता वहां दरअसल एक कच्चा कुआं था। उस कुआं में अब पानी नहीं था। इसलिए अब उसमें घर का कूड़ा फेंका जाता। साथ ही, उसके मुंह को ढंककर इस लायक बना दिया गया था कि शौच के लिए बच्चे बैठ सकें। घर के छोटे बच्चे उसी का प्रयोग करते। हमारे समय में चापाकल/हाथकल का प्रयोग शुरू हो चुका था इसलिए बेकार और अप्रासंगिक हो गये कुओं की इससे ज्यादा उपयोगिता नहीं रह गई थी।

थोड़ा बड़ा हुआ तो स्कूल में दाखिला हुआ। वहां भी शौचालय की व्यवस्था नहीं थी। स्कूल के बगल में एक सार्वजनिक पोखर था जहां बच्चे शौच करते। किसी लड़के को अगर शौच जाना होता तो अपने शिक्षक से 'पोखर' जाने की अनुमति प्राप्त करता। यह पोखर हमारा सार्वजनिक शौचालय होता। लड़कियों के लिए 'पोखर' की सुविधा नहीं थी। मुझे भी स्कूल अवधि में असमय शौच जाने की आदत नहीं थी। इसलिए तीन साल के स्कूली जीवन में मैं एक-दो बार ही 'पोखर' का लाभ ले सके। यहां बच्चे सार्वजनिक रूप से शौच करते। लगता जैसे एक स्कूल यहां भी चल रहा हो। अंग्रेज जमाने में तो कभी-कभी इस तरह सामूहिक शौच का आनंद लेना जीवन से हाथ धोना था। 1942 की क्रांति के समय आरा के पास जमीरा में पाखाना फिर रहे कुछ लोगों को गोली मार दी गई थी। (मन्मथनाथ गुप्त, भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, आत्माराम एंड संस, 2009, पृष्ठ 374)

गांव में भी अब पोखर ही मेरा शौचालय होता। मेरे दरवाजे के ठीक नीचे एक बड़ा और गहरा पोखर था। यहां शौच करना निर्विघ्न नहीं होता। अगल-बगल के भुक्खड़ कुत्ते हमारे मल पर अपनी दावेदारी ठोकते और हमें दिक करते। कुत्तों की तुलना में कुतिया में मल खाने के लिए उतावलापन कुछ ज्यादा ही होता। कुत्ते किसी न किसी के पालतू होते। कुतिया लावारिस होती। अखाद्य ही उनका खाद्य होता। इसलिए मलत्याग करते बच्चे उनके निशाने पर होते। इसलिए मलत्याग के समय हमें चौकन्ना रहना होता और उन कुतियों को ढेला मार-मारकर भगाना होता।

जब थोड़ा और बड़े हुए तो दूर के और बड़े पोखर में जाने लगे। हम सुबह-सुबह शौच के लिए जाते तो पाते कि वहां पहले ही से पालतू सुअर स्वतंत्र विचरण कर रहे हैं। मेरे गांव में मुसहर जाति के लोगों का एक बड़ा टोला था। आज भी है। वे बड़े पैमाने पर सुअर पाला करते। आदमी का मल उसका प्रिय भोजन होता। लोक में एक कहावत प्रसिद्ध है, 'गाँड़ में गुह न सौ सुअर के न्यौता'। इससे पता चलता है कि मनुष्य का मल सुअर का प्रिय पारंपरिक आहार रहा है। हम मलत्याग कर रहे होते और वे आ धमकते। एक-दो सूअर का सामना करना मुश्किल नहीं होता किंतु जब उनका संख्या बल अधिक होता तो आक्रामक हो उठते। सूअर अपनी जिद और आक्रामकता के लिए मशहूर हैं।

 सामान्यतया वे हमारे उठने का इंतजार करते। लेकिन कभी-कभी उठने में देर कर देते तो उनके सब्र का बांध टूट जाता और पीछे से धक्का दे देते। कई बार हम वहीं लुढ़क जाते। हमारे गांव के एक बुजुर्ग के साथ कभी ठीक ऐसी ही घटना घटी थी। इससे मुक्ति के लिए उन्होंने एक तरकीब निकाली। जब तक वे शौच कर रहे होते, अपने चारों ओर लाठी घुमाया करते। तभी हमलोग बचपन में गुनगुनाया करते, लाठी में गुण बहुत है/सदा राखिए संग/झपटी कुत्ता को मारे.....। आप कुत्ता की जगह सुअर पढ़ सकते हैं।

जब हम बड़े हुए और पटना रहने लगे तो यदा-कदा घर जाते और घर में बने कच्चे शौचालय का इस्तेमाल करते। अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत करनेवाले किसान परिवार में घर के अंदर शौच करनेवाले को तनिक हिकारत की दृष्टि से देखा जाता। घर के बड़े-बूढ़ों की व्यंगोक्ति का मैं निशाना बनता। वे कहते, 'पटना जाकर यह लड़का इतना अहदी (आलसी) हो गया है कि दिसा-मैदान के लिए भी घर से बाहर नहीं निकलता। पता नहीं इसके जीवन का बाकी रोजगार कैसे चलेगा?' अब हम राह चलते पैखाने का समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी करने लगे थे। मसलन कौन-सा पैखाना खाते-पीते घर के लोगों का है और कौन गरीबों का। इस संदर्भ में मां एक कहानी कहती थी जिसका सार था, 'बाकी के गुह कचर-मचर, राजा के गुह गुहसंकरी।' कौन स्वस्थ आदमी का पैखाना है और कौन अस्वस्थ आदमी का-यह भी हम नोट करते। बचपन में हमलोग एक कहानी सुनते थे। मेरे गांव के लखनलाल के अगुआ आये थे। शादी-व्याह के निमित्त जो लोग आते हैं उनको अगुआ कहा जाता है। पहले जब अगुआ आता था तो उसमें एकाध प्रश्नादि पूछनेवाला भी होता। उसने लड़के से सवाल किया कि 'दिशा कितने तरह की होती है?' लड़का पढ़ा-लिखा नहीं था। तनिक मंदबुद्धि भी था। कहा, 'दिसा का कोई हिसाब नहीं है। जैसा खाना, वैसा पैखाना। रोटी-भात खाने पर कठिल (कड़ा) पैखाना होगा। खेसारी की दाल खाने पर पतला और खेसारी-चना के साग खाने पर काला।' अगुआ को इतने गहन ज्ञान वाला लड़का नहीं चाहिए था। उठकर जो गये सो फिर लौटकर नहीं आये।

Friday, April 27, 2018

भाषा पर असंबद्ध फेसबुकी टिप्पणियाँ


1. फेसबुक-विवाद के बहाने
इन दिनों फेसबुक पर शब्द और शब्दार्थ को लेकर काफी बहस चल रही है। लोग शब्दों के सामान्य प्रयोग की स्थिति में भी उनके विशिष्ट अथवा लाक्षणिक अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। मैं कोई भाषा-मर्मज्ञ तो नहीं हूँ कि फतवे जारी कर सकूँ और न ही चेले-चपाटी हैं कि वे मेरे फरमान को लेकर उड़ चलें। किंतु भाषा के अप्रतिम जानकारों की ही तरह मेरे जीवन में भी भाषा का दखल रहा है। इस सरोकार के आधार पर ही मैं भाषा (शब्द और शब्दार्थ) के बारे में कुछ मोटी बातें कह सकने की स्थिति में हूँ।

भाषाविज्ञान की मोटी बात है कि अर्थ शब्द के नहीं, पद के होते हैं। शब्द वाक्य में प्रयुक्त होकर पद बनते हैं। अर्थात वाक्य में प्रयुक्त होने की स्थिति में ही शब्द अर्थ ग्रहण कर अपने को अभिव्यक्त करते हैं। सम्प्रेषण की इस पूरी प्रक्रिया में वक्ता और श्रोता दोनों ही की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वक्ता और श्रोता की नीयत ही शब्दार्थ तय करती है। एक ही साथ भाषा दो काम करती है। अर्थात भाषा अगर कुछ व्यक्त करती है तो ठीक उसी समय कुछ अव्यक्त भी छोड़ जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही सोद्देश्य हैं।

हम अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक स्थिति के हिसाब से शब्द का अर्थ ग्रहण करते हैं। याद है कि जब मैं 9वीं कक्षा में था तो मेरे एक ग्रामीण ने मुझे 'हिन्दू' कहकर गाली देने की कोशिश की थी। कौन नहीं जानता कि मौलवी एक सम्मानसूचक शब्द है। किंतु हिन्दू परिवारों में मौलवी शब्द का प्रयोग उपहास के अर्थ भी प्रयुक्त होता है। जब किसी का मजाक उड़ाना हो अथवा अपमानित करना हो तो हम सहज ही कह बैठते हैं कि 'ज्यादा मौलवी मत बनिए'। मेरा ग्रामीण पढ़ा-लिखा नागरिक था और संभव है कि अगल-बगल कोई मुसलमान रहा हो जो अब मुझे याद नहीं। वह अगर मुझे मौलवी कहता तो निस्संदेह अपने सेकुलर चरित्र को बट्टा लगाता। मैं हिन्दू था और वह खुद भी हिन्दू था, इसलिए मेरे लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग सेकुलर राजनीति के लिहाज से सेफ था। मैं हिन्दू था, बावजूद इसके, उसके द्वारा हिन्दू कहा जाना मुझे खला था। लगा जैसे किसी ने गाली दी हो। आज मैं कहीं अधिक सचेत रूप से इसे गाली मानता हूं। मौलवी की जगह आप पंडित या कवि जैसे शब्द को भी रख सकते हैं। मेरे बड़े भाई साहब को मौलिक रचनाकारों अर्थात कवि-कहानीकारों से थोड़ी दूरी थी। दूरी इस धारणा की वजह से थी कि इनका काम कम पढ़कर या बगैर पढ़े भी चल जाता है। इसलिए मैं जब शहर की कवि-गोष्ठियों से लौटकर आता तो वे तंज कसते। कहते, 'कवि जी आ गये कविता करके' और मेरे पास झेंपने के अलावा कोई चारा न होता।

इण्टर के जमाने अर्थात 84-85 की बात है। मैं पटना-गया लाइन की रेलगाड़ी में सफर कर रहा था। एक भलेमानुस को सीट की दरकार थी। उन्होंने आग्रह किया, 'जनाब, थोड़ी जगह देंगे क्या?' इतना सुनना था कि उसका पारा सातवें आसमान पर। बोला, 'क्या मैं मुसलमान हूँ कि जनाब कहोगे?' मारपीट तक की नौबत आ गई। किसी तरह समझा-बुझाकर मामला शांत कराया गया। 85 की बात है। मैं पटना ट्रेनिंग कॉलेज के हॉस्टल में रहा करता था। एक शाम मैं अपने एक मुसलमान मित्र के साथ हॉस्टल लौट रहा था। कमरे का अंदरूनी हिस्सा दूर ही से नजर आता था। अंदर एक महिला बैठी थी। मित्र ने पूछा-'कौन छोकरी बैठी है?' मैं इस शब्द का आदती नहीं था। जाहिर है, मेरे कान लाल हो उठे।

2. विदेशी विद्वान और संस्कृत
आज हम जिस संस्कृत भाषा और साहित्य की प्राचीनता पर गर्व करते हैं, उसकी खोज विदेशियों ने ही की- चाहे वे इंग्लैण्ड के हों या जर्मनी के। दि सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट श्रृंखला की किताबों को सम्पादित करने का काम जर्मनी के मैक्स मूलर ही ने तो किया। विदेशी के नाम पर अगर हम उनका चश्मा पहनने से इनकार कर दें तो अंधता के अभिशाप से हमें कौन बचा सकता है? तुलनात्मक भाषाशास्त्र (कंपैरेटिव फिलोलॉजी) पर काम करते हुए विदेशी विद्वानों ने ही साबित किया कि संस्कृत दुनिया की प्राचीनतम भाषाओँ में से एक है। विदेशी के नाम पर अगर उनके इस योगदान को स्वीकार करने से बचें तो हमारे पास गर्व करने लायक बचेगा क्या? संस्कृत भाषा और साहित्य की दुनिया में काम करनेवाले कोलब्रुक, ग्रिफिथ, मार्शल, स्मिथ, डिलन, मैक्स मूलर, मौरिस विन्तर्निज तथा आर पिशेल जैसे सैंकड़ों यूरोपीय विद्वानों को अगर भिन्न भौगोलिक सीमा के नाम पर छोड़ दें, स्वदेशी विद्वान हम लाएंगे कहाँ से? कोई हो तब तो? कुछ भारतीय विद्वान हुए भी हैं, तो वे इन्ही विदेशी विद्वानों के काम को आगे बढ़ाते रहे हैं। ये भारतीय विद्वान अपने पूर्ववर्ती विदेशी विद्वान के काम के आगे सिर झुकाकर ही आगे बढ़ते हैं। लेकिन जिन्हें संस्कृत और संस्कृति के नाम पर केवल वोट की राजनीति करनी है उन्हें इन विद्वानों के सम्मुख नतशिर होने की क्या जरुरत?

संस्कृत ही क्यों प्राकृत भाषा और साहित्य पर किसने काम किया? आर पिशेल ने जो प्राकृत भाषाओँ का व्याकरण लिखा, उसकी तुलना में किस भारतीय भाषा वैज्ञानिक का नाम हम ले सकते हैं?
संकट है कि अभी तक बाजार में विदेशी चश्मा ही उपलब्ध है। अगर विदेशी न पहनने की अविवेकी जिद हम पाले बैठे हों तो हमें अँधा होने से कोई नहीं बचा सकता। एक सप्ताह पूर्व मैं आंख के डॉक्टर सुभाष प्रसाद के यहाँ गया था। डॉक्टर ने मोतियाबिंद के मरीज से पूछा, 'कौन सा लेंस लगा दूँ-देशी या विदेशी?' मरीज का जवाब था, 'विदेशी, डॉक्टर साहब। मुझे अपनी आंखों की ज्यादा चिंता है।'

 3. परंपरा नहीं परंपराएं कहिए
इतिहास और साहित्य के विद्यार्थी इस बात से वाकिफ हैं कि किसी ने परंपरा का मूल्यांकन किया तो किसी ने दूसरी ही परंपरा की खोज कर डाली। और हम विवाद में उलझे-फंसे रहे कि यह परंपरा कि वह परंपरा। इन बहसों से जो बात छनकर आ रही थी कि अतीत में कोई एक परंपरा नहीं होती बल्कि परंपराएं होती हैं, उसको हमलोगों ने यथोचित ग्रहण नहीं किया। यह हमारी सांस्कृतिक अनुदारता है। फ़िराक गोरखपुरी अक्सर कहा करते थे कि पाणिनि के समय में संस्कृत के नब्बे तरह के रूप लोक में प्रचलित थे। इसीलिए, आपको जानकर बात थोड़ी अटपटी लग सकती है कि फ़िराक इस संस्कृत को 'संस्कृत' न कह 'संस्कृतियां' कहते थे। पाणिनि ने इन नब्बे रूपों के बीच से संस्कृत का एक मानक रूप गढ़ा और कहा कि यही संस्कृत है। उनके चेलों समेत कई और परवर्ती विद्वानों ने मान लिया कि जो पाणिनि कहे वही मान्य है। इस तरह से पाणिनि के नाम पर संस्कृत भाषा के साथ ज्यादती हुई उससे हम सभी परिचित हैं। इसके दुष्परिणामों से और भी ज्यादा परिचित हैं। एक समय पाणिनीय होना प्रमाण माना जाता था और अपाणिनीय गलत का पर्याय। मेरी जानकारी में पाणिनि के नाम का जो आतंक है उसका जोड़ दुनिया के शायद ही किसी भाषा और साहित्य में हो।

आज जरुरत इस बात की है कि हम सांस्कृतिक उदारता का परिचय देते हुए संस्कृति की जगह संस्कृतियां और परंपरा की जगह परंपराएं मानकर बहस करें और भिन्न परंपरा और संस्कृति के लिए स्पेस छोड़ते हुए जो समय की मांग है उस अनुरूप उससे ग्रहण करें। इस कार्य में परंपरा, संस्कृति और इतिहास का विवेक हमारी मदद करेगा।

4. वर्चस्व की भाषा/भाषा में वर्चस्व
शब्द महज अभिव्यक्ति के माध्यम नहीं हैं। वे अपने में इतिहास छिपाये रहते हैं। एक भाषविद के लिए वे पुरातत्व के समान हैं। इनकी खुदाई से हम हजारों वर्षों का इतिहास किसी क्रमभंग के बगैर जान सकते हैं। आइए देखें कि संस्कृत के ये शब्द क्या हाल बयान करते हैं।
संस्कृत 'अबल' का अर्थ दुर्बल, बलहीन तथा अरक्षित है। इसी से बना अबला (नास्ति बलम् यस्या) शब्द है जो स्त्री, औरत को 'अपेक्षाकृत बलहीन होने के कारण' कहा गया। 'नूनं हि ते कविवरा विपरीतबोधा ये नित्यमाहुर-बला इति कामिनीनाम्, याभिर्विलोलतरतारक-दृष्टिपातै: शक्रादयो$पि विजितास्त्वबला: कथंता: (भर्तृहरिशतकत्रयम्, 1/11; आप्टे, संस्कृत हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ 81) स्त्री को असूर्यम्पश्या भी कहा गया। असूर्यम्पश्य का मतलब है सूर्य को भी न देखनेवाला (सूर्यमपि न पश्यति)। (आप्टे, पृष्ठ 151) प्राचीन काल की अंतःपुर की नारियों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें सूर्य देखना भी दुर्लभ था 'असूर्यमपश्या राजद्वारा:'। (वही, पृष्ठ 151 में उद्धृत) असूर्यम्पश्या का अर्थ हुआ पतिव्रता स्त्री अर्थात सती। सूर्य देखने मात्र से स्त्री का सतीत्व नष्ट हो सकता था। संभव है, सूर्य और कुंती की कहानी का असर हो।

संभवतः ऐसा माना जाता था कि कुल की मर्यादा का भार स्त्रियों के ऊपर है, इसलिए स्त्रियों के लिए बने कई शब्द कुल से निर्मित हैं। 'आदरणीय तथा उच्च वंश की स्त्री' 'कुल अँगना' कहलाती है, और उच्च कुल में उत्पन्न लड़की 'कुलकन्या'। उच्चकुलोद्भव सती साध्वी स्त्री कुलनारी है जबकि कुलटा और व्यभिचारिणी स्त्री जो अपने कुल को कलंक लगावे, कुलपांसुका है। उच्चकुलोद्भूत सती स्त्री कुलपालि:, कुलपालिका तथा कुलपाली है। सती साध्वी पत्नी कुलभार्या और अच्छे कुल की सदाचारिणी स्त्री कुलयोषित्, कुलवधू। उच्च कुल की स्त्री कुलस्त्री तथा व्यभिचारिणी स्त्री कुलटा। (आप्टे, वही, पृष्ठ 331-332)

 संस्कृत साहित्य में ग्राम्य को अश्लील कहा गया है। अश्लील अर्थ की अभिव्यक्ति करनेवाले कई शब्द इसी ग्राम्य से बने हैं। स्त्रीसंभोग अथवा मैथुन को 'ग्राम्यधर्म' कहा गया है, और वेश्या तथा रंडी को 'ग्राम्यवल्लभा'। (आप्टे, वही, पृष्ठ 399)
 
 आश्चर्य की बात है कि स्त्री की दुरवस्था के बावजूद माता का स्थान सम्मान का है। मां को अम्बा भी कहा जाता है। अम्बा का अर्थ है भद्र महिला या भद्र माता। स्नेह अथवा आदरपूर्ण संबोधन में भी इसका प्रयोग होता है। वैदिक संबोधन अंबे है, बाद की संस्कृत में अम्ब। 'किमम्बाभि: प्रेषित:, अम्बानां कार्यं निर्वर्तय' (शकुंतला, 2) कृतांजलिस्तत्र यदम्ब सत्यात् (रघुवंश, 14/16; आप्टे, पृष्ठ 101) स्त्री की इस दुरवस्था के कई कारण हैं। एक कारण शिक्षा से उनकी दूरी भी है। स्त्री के लिए अमंत्रक शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है, जिसका अर्थ है, 'जो वेदपाठ से अनभिज्ञ हो' या 'जिसे वेद पढ़ने का अधिकार न हो', जैसे शूद्र या स्त्री। (आप्टे, पृष्ठ 97)

 5. भाषा की सत्ता /सत्ता की भाषा
कहा जाता है कि भाषा के दो प्रयोजन हैं। पहला अभिव्यक्त करना और दूसरा छिपाना। लेकिन इस दूसरे प्रयोजन में किसी भी भाषा को शायद ही सफलता मिली हो। प्रसंग यह है कि पाचीन भारत में सामान्यतया एक पति-पत्नी की प्रथा थी। बहुपति प्रथा के उदाहरण हमें इतिहास से नहीं प्राप्त होते हैं। लेकिन एक से अधिक पत्नियां रखने का रिवाज रहा होगा। वैसी स्त्रियों के लिए संस्कृत में हमें कई शब्द उपलब्ध होते हैं जिनके पति ने पत्नी के रहते दूसरा विवाह कर लिया। उदाहरण के तौर पर आप नीचे लिखे शब्दों को देख सकते हैं: अधिविन्ना (स्त्रीलिंग) = पति परित्यक्ता स्त्री, वह स्त्री जिसके रहते हुए पति दूसरा विवाह कर ले। अधिवेत्तृ (पुंलिंग) = एक स्त्री के रहते हुए दूसरा विवाह करनेवाला। अधिवेद: (पुं.), अधिवेदनम् (नपुं.) = एक स्त्री के रहते अतिरिक्त स्त्री से विवाह करना। (आप्टे, संस्कृत-हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ 36) अध्यूढा (स्त्री.) = वह स्त्री जिसके पति ने उसके रहते हुए दूसरा विवाह कर लिया हो। (आप्टे, पृष्ठ 38) इन उदाहरणों को देखकर किसी के भी दिमाग में एक सहज और स्वाभाविक सवाल उठ सकता है कि शादी पुरुष कर रहा है तो शब्द स्त्री के लिए क्यों बन रहे हैं? कायदे से शब्द तो पुरुष के लिए बनने चाहिए थे? यहाँ भाषा का सर्जक अपना अभिप्राय प्रकट करने से संभवतः बच रहा है। भाषा की यही मर्यादा है कि पढ़नेवालों से ज्यादा समय तक अपने प्रयोजन छिपाकर नहीं रख सकती!

कहने की जरुरत नहीं कि संस्कृत भाषा पर पुरुष वर्चस्व की छाया रही है। इसे शब्द-निर्माण-प्रक्रिया के सहारे बेहतर समझा जा सकता है। संस्कृत 'स्वैर' शब्द का अर्थ है मनमाना आचरण करनेवाला, स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी, अनियंत्रित तथा निरंकुश। 'बद्धमिव स्वैरगतिर्जनमिह सुखसंगि नमवैमि' (शकुंतला, 5/11), 'अव्याहतै: स्वैरगतै: स तस्या:' (रघुवंश, 2/5)। स्वतंत्र, असंकोच और विश्वस्त के अर्थ में, जैसाकि' स्वैरालाप' (मुद्राराक्षस, 4/83)। किंतु जैसे ही स्त्री का सन्दर्भ आता है, उसका अर्थ नकारात्मक हो उठता है। इसलिए 'स्वैरिणी' का अर्थ असती, कुलटा, व्यभिचारिणी हो जाता है (याज्ञवल्क्य स्मृति, 1/67)। इसी तरह किसी पुरुष का मन अगर उसके वश में न हो तो वह 'अनियतआत्मन' है, जबकि इसी दोष से ग्रस्त स्त्री 'अनियतपुंस्का' अर्थात व्यभिचारिणी हो जाती है। (आप्टे, संस्कृत हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ 44) कई बार तो एक ही शब्द के अर्थ स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न हो जाते हैं। जैसे, अनुदार शब्द का अर्थ है 'उपयुक्त और योग्य पत्नी वाला'। (आप्टे, पृष्ठ 48) क्या ही मजेदार है कि 'जो अपनी पत्नी के अनुकूल चलनेवाला हो' वह भी 'अनुदार' और 'जिसकी पत्नी पति के अनुकूल चलने वाली हो वह भी 'अनुदार'। (वही)

भाषा में एक से बढ़कर एक मनोरंजक चीज भरी पड़ी है। संस्कृत 'अनुधावनम्' का सामान्य अर्थ है पीछे जाना या भागना, पीछा करना, पीछे दौड़ना, अनुसरण करना आदि। इस शब्द का अन्य अर्थ 'किसी स्त्री को पाने का असफल प्रयत्न करना' भी है। (आप्टे, संस्कृत हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ 48) क्या यह मान लिया जाए कि किसी ज़माने में 'पीछे भागने' की क्रिया का सम्बन्ध स्त्री जाति से जुड़ा रहा होगा?

6. मातृभाषा के बहाने
सबसे पहले मैं फेसबुक का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मातृभाषा दिवस की याद दिलायी। फिर फेसबुक पर मातृभाषा को लेकर तरह-तरह के सवाल और तमाम तरह की उलझनें। सवाल कि मातृभाषा आखिर किसे कहें? फिर तरह-तरह के उत्तर। कोई कहता माँ से सीखी भाषा तो कोई कहता जिस भाषा में माँ बात करती है। मैं अब तक मानता रहा था कि मेरी मातृभाषा मगही है। यह मेरा सौभाग्य अथवा संयोग है कि अपनी मातृभाषा को लेकर न पहले कोई भ्रम था न कल को होनेवाला है। लेकिन मेरे जैसा सौभाग्य कितने लोगों को प्राप्त है? खुद मेरे बेटे को भी नहीं। मेरी माँ का जन्म मगही के इलाके में हुआ था, शादी भी उसी इलाके में हुई। इसलिए वे अपनी मातृभाषा निर्विघ्न बोलती रहीं। और आज हम भाई-बहन निर्द्वन्द्व हो कह सकते हैं कि हमारी मातृभाषा मगही है। लेकिन इसी निर्द्वन्द्व भाव से मेरा बेटा अपनी मातृभाषा मगही बताने का 'गर्व' हासिल नहीं कर सकता। उसकी माँ भागलपुर की अंगिका भाषी रही है। उन्होंने अपनी माँ से मातृभाषा के रूप में अंगिका हासिल की थी जबकि उन्हें अपने बेटे से मगही में बात करनी पड़ी। अर्थात पति की मातृभाषा में। मातृभाषा की इस ट्रेजडी को क्या कहेंगे आप? बोली जा रही है पिता की भाषा और नाम है मातृभाषा!

आज जब मैं मातृभाषा पर सोचने लगा तो मुझे नामवर सिंह याद आये। साल 87 के आसपास का समय होगा जब वे प्रगतिशील लेखक संघ पटना की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में बोलने आये थे। विषय जयशंकर प्रसाद से सम्बंधित कुछ था। उक्त गोष्ठी में नामवर सिंह ने एक अत्यंत मार्मिक बात कही थी। प्रसंग वर्ण और जाति की शुद्धता का था। नामवर जी ने कहा कि इतिहासकार और समाजशास्त्री वर्ण और जाति की जितनी बात कर लें, चाहे जितनी थीसिस लिख डालें, सच्चाई केवल हमारी माताएं जानती हैं। आज मातृभाषा के प्रसंग में मुझे नामवर सिंह की वही बात दुहराने की विवशता है कि हम मर्द लोग निज मातृभाषा को लेकर जो फतवे दे डालें, मातृभाषा की ट्रेजडी सिर्फ और सिर्फ माताएं ही बखान सकती हैं।

7. शिवबिहारी राय की हिंदी
जिन लोगों का हिंदी से ठीक ठाक परिचय नहीं होता वे शुद्ध हिंदी बोलने के चक्कर में केवल स्त्रीलिंग बोलते हैं। ऐसे ही बोलक्कड़ों को देखकर लोगों ने हिंदी को 'जनानी विषय' कहा होगा। ऐसे ही एक बोलक्कड़ बी डी पब्लिक स्कूल के मालिक/डायरेक्टर शिवबिहारी राय थे। मैं कभी वहां इतिहास पढ़ाया करता था। एक दिन मैं अपनी कक्षा में जैसे ही दाखिल हुआ कि बच्चों ने एकस्वर से पूछना शुरू किया कि सर, बताइये कि विद्यालय स्त्रीलिंग है अथवा पुल्लिंग? मैं बताने ही वाला था कि ध्यान आया कि अरे यहाँ से तो अभी राय जी निकले हैं! अतः मैंने बच्चों को बहलाने की कोशिश की। कहा, मैं हिंदी का शिक्षक नहीं हूँ। यह सवाल हिंदी शिक्षक से करना। मैंने अपने ज्ञान की सीमा बताई। लेकिन वे कहाँ मानने वाले। छात्र तो पहली ही मुलाकात में शिक्षक की स्कैनिंग कर लेते है। अंततः मुझे बताना ही पड़ा कि विद्यालय पुल्लिंग है। छात्रों ने कहा, सर, डायरेक्टर सर तो बोले कि विद्यालय सोमवार को खुलेगी।' मैंने कहा, 'डायरेक्टर ऐसा कह सकते हैं। शिक्षकों को स्त्रीलिंग बोलने की आजादी नहीं है।'

8. शुद्ध हिंदी की चिंता
प्रभात रंजन जी की टिप्पणियाँ प्रभात खबर, पटना में छपती रही हैं और मैं उन्हें पढ़ता रहा हूँ। 1 दिसंबर को उनकी टिप्पणी 'अशुद्ध हिंदी की शिक्षा' छपी है।
 
 उन्होंने शुरुआत बेटी की 'अशुद्ध हिंदी' और शिक्षक की शिकायत से की है। मेरे लिए यह ख़ुशी की बात है कि शिक्षक अब भी शिकायत की हैसियत रखते हैं।
 
 'शुद्ध हिंदी' एक व्यापक पद है। प्रभात जी की 'शुद्ध हिंदी' से लगता है, वे 'वर्तनी की शुद्धता' की बात कर रहे हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी शिक्षक हैं। उनके छात्र महानगर के और महाविद्यालय स्तर के हैं। मैं गाँव के हाई स्कूल का शिक्षक हूँ। मेरे बच्चे 'शुद्ध हिंदी' का मतलब 'संस्कृतनिष्ठ हिंदी' समझते हैं। वे अक्सर पूछते हैं, 'सर, स्टेशन, सिगरेट, प्लेटफॉर्म आदि को हिंदी में क्या कहते हैं?' मैं उन्हें बताता हूँ कि अब ये हिंदी के शब्द हैं, लेकिन वे मेरे उत्तर से असंतुष्ट रहते हैं।
 
दूसरी तरफ, कुछ लोगों को 'शुद्ध हिंदी' एक अतिरिक्त मांग लगती है। अतः वे शुद्ध हिंदी के आग्रही को 'शुद्धतावादी' कहते है। यह 'शुद्धतावाद' शीघ्र ही 'ब्राह्मणवाद' में तब्दील होकर भाषा से इतर एक नये विमर्श की शुरुआत करता है।
 
 मैं कभी हिंदी का विद्यार्थी नहीं रहा। मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा और हिंदी मेरी पढ़ाई-लिखाई का माध्यम रही। इसलिए हिंदी-भाषा-व्याकरण की बारीकियों में कभी गया नहीं। मेरी कभी इतनी औकात भी नहीं हुई। इसका एक फायदा यह हुआ कि भाषा को मैंने बोध के स्तर पर ग्रहण किया। एक 'कुजात' की तरह, हिंदी के विद्यार्थी की तरह नहीं। मुझे लगता है कि हिंदी का विद्यार्थी व्याकरण पहले जान लेता है, भाषा उसके बाद जानना शुरू करता है। इस प्रक्रिया में भाषा उससे बिदक जाती है। वह भाषा बोध विकसित नहीं कर पाता। इस सन्दर्भ में एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। 97-98 में मैं पटने के 'स्वरूप विद्या निकेतन' विद्यालय में हिंदी पढ़ाया करता था। वहाँ हिंदी व्याकरण के एक शिक्षक थे जिनका नाम सत्येंद्र कुमार पाठक था। पढ़ाने के दौरान मेरे मुंह से निकले एक वाक्य को उन्होंने आपत्तिजनक पाया। वाक्य था: 'नेहरु भारत के प्रथम प्रधानमंत्री हैं।' उनका कहना था कि यह वाक्य गलत है। 'हैं' की जगह 'थे' व्याकरणसम्मत है। उनके साथ जो मेरी बहस हुई तो लगा कि ये महाशय न व्याकरण पढ़ सके न भाषा की तमीज़ हासिल कर सके।

मैं प्रभात जी की इस बात से सहमत नहीं हूँ कि हम हिंदी की तुलना में विदेशी भाषा ज्यादा सही बोलते-लिखते है। मैंने अंग्रेजी के शिक्षकों को अक्सर ही 'एक लेडीज' बोलते सुना है। कई लोगों को टोकना पड़ा कि भाई जब एक है तो लेडी कहिए न! मुझे छात्रों की अशुद्ध हिंदी की तुलना में हिंदी लेखकों की हिंदी ज्यादा चिंतित करती है। जब 'महारथी' लिखा जाता था तो बच्चों को समझाना आसान था कि महारथी वे हैं जिनके पास एक से अधिक रथ हैं। किन्तु अब के लेखकों को 'महारती' लिखने में 'महारत' हासिल है! इसी तरह पहले 'कठघरा' समझाना आसान था कि भइया यह काठ का बना घर है। अब बताइए कि छोटे बच्चों को मैं 'कटघरा' कैसे बताऊँ? हिंदी में ऐसे कई शब्द हैं जो हमारी बेवकूफियों की वजह से पैदा हुए हैं और जिनका कोई तर्कशास्त्र नहीं है।

 हमारी भाषा अगर अशुद्ध है तो इसका कारण है कि हमलोग भाषा के प्रति सचेत नहीं हैं। प्रभात रंजन जी सचेत होते तो एक ही वाक्य में 'इसलिए' और 'क्योंकि' का प्रयोग शायद ही करते!
 
9. खराब हिंदी का मर्म
किसी शाम मैं एक पब्लिक स्कूल के मालिक के साथ बैठा था। वहाँ एक छात्र के अभिभावक पधारे। उन्होंने अपने बच्चे से संबधित एक शिकायत की, 'सर, आजकल इसकी हिंदी कमजोर हो चली है।' स्कूल डायरेक्टर ने कहा, 'महाराज, यह तो ख़ुशी की बात है। जाइए और मिठाई लेकर आइए। अभिभावक भारी मन से मिठाई खरीद लाया। डाइरेक्टर ने उपस्थित लोगों के बीच मिठाई बांटी। कहा, 'हिंदी कमजोर होने का मतलब है कि उसकी अंग्रेजी मजबूत हो रही है।' अभिभावक फूले न समा रहा था।
 
10. युद्ध या कि जुद्ध
किसी दिन एक बाप को सूझी कि वह बेटे की भाषिक क्षमता की जाँच कर ले। इस ख्याल से पिता ने श्रुतिलेख लिखाने की ठानी। बेटे का दुर्भाग्य कहिये कि पिता का उच्चारण गड़बड़ था। पिता युद्ध का उच्चारण जुद्ध करता और बेटे से आशा करता कि वह युद्ध लिखे। लगभग आध घंटे तक पुत्र-पिता की आशा पर पानी फेरता रहा। अंत में पिता ने पुत्र की जमकर पिटाई कर दी। यह कोई मजाक अथवा चुटकुला नहीं, एक सचमुच के बच्चे के साथ घटी त्रासदी है।
 
11. भाषा और समाज
एक वर्ग-विभाजित समाज में भाषाओं की भी सामाजिक हैसियत होती है। भारत में अंग्रेजी सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ की भाषा है। भाषा हमें एक पहचान देती है। शासक वर्ग हमेशा आम जन की भाषा से भिन्न भाषा का प्रयोग करता है। यह भाषा-नीति उसे विशिष्टता और सुरक्षा प्रदान करता है। उनके बुद्धिजीवी भी उसी भाषा में बात करते हैं। बुद्धिजीवी अगर आम जन की भाषा बोलने लगें तो उनकी विशिष्टता बहुत हद तक स्वतः समाप्त मानी जायेगी। इसकी जड़ें औपनिवेशिक दासता से उत्पन्न मानसिकता में भी है। कई राजनीतिक पार्टियां भी, जो आम जन की मुक्ति की बात करती रही हैं, भाषा के सवाल पर अंग्रेजी से चिपकी हैं। कारण शायद यह हो कि उनका नेतृत्व भी उच्च मध्य वर्ग के हाथों में है। आंदोलनों और पार्टियों के नेता जब किसानों-मजदूरों के बीच जाएंगे तभी शायद यह सवाल हल हो। अकादमिक जगत में भी हमें वैसे बुद्धिजीवियों की फौज के आगमन का इंतजार है जो कह सके कि मेरे दादा हलवाहे थे। देश के स्तर पर एक तरह के स्कूल और पाठ्यक्रम की गारण्टी भी इस समस्या को हल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है।

 सरकार ही क्यों वामपंथी पार्टियां तक सारा कम अंग्रेजी में करती हैं। यह सब सुविधा और सहूलियत के नाम पर चलाया जाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि एक वर्ग-विभाजित समाज में भाषा भी अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक हैसियत के आधार पर वर्गीकृत है। हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी एलीट है तो भोजपुरी -मगही के मुकाबले हिंदी। किसी मगही-भाषी के समक्ष आप अगर खड़ी बोली हिंदी बोलते हैं तो झट कह देगा-'जादे अँगरेजी मत झाड़$'।

सच तो यह है कि भाषाओँ में आपस में विरोध नहीं होता। हमारा यह मानना कि हिंदी के विकास से बोलियां कमजोर अथवा नष्टप्राय हो रही हैं, वैज्ञानिक या तर्कसम्मत नहीं है.किसी भी भाषा का 'स्वतंत्र विकास' किसी भी दूसरी भाषा के नैसर्गिक विकास में बाधक नहीं है। यहाँ तक कि अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओँ से हिंदी समृद्ध हुई है। मुझे लगता है, हम भाषा पर बात करते विचार को अलग छोड़ देते हैं। अंग्रेजी ने विचार के स्तर पर हिंदी एवं अन्य भाषाओँ को जो योगदान दिया है उसे भुलाया नहीं जा सकता। सारी गडबड़ी भाषा के 'प्रायोजित विकास' की है।

12. जननी नहीं है संस्कृत
संस्कृत को हिंदी की 'जननी' कहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता। नानी, दादी-चाहे जो कह लें आप, चलेगा। जननी वही जो सीधे तौर पर जन्म दे। हिंदी सीधे-सीधे संस्कृत की कोख से नहीं निकली है। संस्कृत से ज्यादा श्रेय तो अपभ्रंश और तत्कालीन दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को दिया जा सकता है जो सीधे तौर पर हिंदी से जुड़ी हैं। खड़ी बोली हिंदी बोलियों का परिष्कृत रूप है। संस्कृत को जननी कह देने से दूसरी तमाम भाषाओं के योगदान को नकार देने की ध्वनि निकलती है। इससे भाषा-विकास का इतिहास भी गड्डमड्ड होगा।

13. समझौता है भाषा
भाषा में ऐसे कई प्रयोग मान्य हैं. अत्युत्तम ही को लें. उत्तम की अति है यहाँ. परंपरा में 'अति' की सर्वत्र वर्जना भी है. पन्त ने 'सत्य' शब्द का हमेशा स्त्रीलिंग में प्रयोग किया है क्योंकि उन्हें यही पसंद था. इस तर्क से कि फूलने की क्रिया पहले होती है फलने की बाद में,  निराला 'फूलना-फलना' लिखते रहे लेकिन हिंदी के लोग आज तक 'फल-फूल' रहे हैं. भाषा विज्ञान-सम्मत नहीं होती.

14. मानक हिंदी
कुछ लोग 'मानक हिंदी' की दुश्चिंता से दुबले हुए जा रहे हैं. उन्हें कौन समझाए कि पहले हम एक 'मानक समाज' तो गढ़ लें ! एक तरफ हम सामाजिक बहुलता की बात करके गर्व महसूस करें और भाषा के मामले में उस विविधता को नष्ट करने की सोचें. समाज में जब कई वर्ग, जाति और संप्रदाय के लोग होंगे तो भाषा का एक मानक रूप कैसे हो सकेगा ? भाषा को देखने का हमारा तरीका लोकतान्त्रिक होना चाहिए. वह अगर साहित्य की भाषा है तो अभिव्यक्ति का एक औजार भी. किसी की भाषा को भ्रष्ट कहकर उसकी अभिव्यक्ति के औजार को कुंद किया जाता है. एक तरह की हीन भावना पैदा की जाती है. हम भूलते हैं कि मानक भाषा हमेशा एक आदर्श है.

15. धर्म और भाषा
धर्म और धर्म-प्रचारकों ने सिर्फ उन्माद ही नहीं फैलाया, दुनिया की कई भाषाओं का 'पहला व्याकरण' लिखने का गौरव भी हासिल किया। (डैविड क्रिस्टल, लिंग्विस्टिक्स, पेंगुइन, रिप्रिंट : 1980, पृष्ठ 45) अगर प्राचीन भारत का इतिहास देखें तो आधी से अधिक आबादी, अर्थात स्त्री और शूद्र को शिक्षा से दूर रखा गया। कहा गया कि इन्हें वेदपाठ आदि करने का कोई अधिकार नहीं है, ये शब्दों को बिगाड़कर कहते हैं। भाषा के बारे में एक आम धारणा थी कि इसे जनसाधारण भ्रष्ट करते हैं जबकि अभिजन इसे बिगड़ने से बचाते हैं। (वही, पृष्ठ 53) कहने की जरूरत नहीं कि तब हम लेखनकला से परिचित नहीं थे, साहित्य केवल मौखिक परंपरा में जीवित रह सकता था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक साहित्य/ज्ञान अपने अपरिवर्तित रूप में जाये, इसके लिए भाषा में शुद्धता, उच्चारण आदि पर एक हद तक 'अनावश्यक जोर' की आवश्यकता थी। ज्ञान की मौलिकता की रक्षा का दायित्व ब्राह्मणों के पास था। उसने लोगों में डर पैदा किया कि मंत्रों के गलत उच्चारण के कुप्रभाव से यजमान को अनिष्ट भोगना पड़ सकता है। (वही, पृष्ठ 44) इस डर का भी एक सीमा तक ही प्रभाव रहा होगा क्योंकि पाणिनि कई तरह के उच्चारण की बात करता है। उच्चारण की इतनी गड़बड़ी थी कि कई शब्दों के स्रोत, अर्थ और निर्माण/विकास प्रक्रिया उन्हें भी अज्ञात थे। इस समस्या को दूर करने के उद्देश्य से उन्होंने एक 'व्याकरण' तैयार किया। इस व्याकरण से इधर-उधर होने का मतलब 'अपाणिनिय' अर्थात गलत होना था।
आधुनिक भारत की बात करें तो मलाबार क्षेत्र में सत्रहवीं सदी के अंतिम चरण से लेकर अठारहवीं सदी के चौथे दशक तक क्रियाशील रहनेवाले जेस्विट पादरी फादर हैंक्सलेडेन ने संस्कृत का एक व्याकरण लिखा जो किसी भी यूरोपीय भाषा में संस्कृत पर लिखा गया पहला व्याकरण है। (द्विजेन्द्र नारायण झा, प्राचीन भारत : सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की पड़ताल, ग्रंथ शिल्पी, प्रथम संस्करण : 2000, पृष्ठ 13) 1767 में सबसे पहले फादर कुर्डो ने संस्कृत और यूरोपीय भाषाओं के बीच के घनिष्ठ संबंध को पहचाना। (वही)

16. भाषा बहता नीर
ऋग्वेद (5/76/2) में संस्कृत शब्द धर्म (बरतन) के लिए प्रयुक्त हुआ है। (धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 176) वैदिक साहित्य में 'अनुलोम' एवं 'प्रतिलोम' शब्द विवाह के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हुए हैं। बृहदारण्यकोपनिषद (2/1/15) एवं कौषीतकि ब्राह्मनोपनिषद (4/18) में ऐसा आया है कि यदि एक ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान के लिए किसी क्षत्रिय के पास जाय तो वह 'प्रतिलोम' गति कही जायगी। संभवतः इसी अर्थ को कालांतर में विवाह के लिए भी प्रयुक्त कर दिया गया। (पी वी काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 118)

आपस्तम्बगृह्यसूत्र (5/12-13), हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (1/9/1), याज्ञवल्क्य (1/51), पारस्करगृह्यसूत्र (2/6-7) ने स्नान शब्द को दोनों अर्थात छात्र-जीवन के उपरांत स्नान तथा गुरु-गृह से लौटने की क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त किया है। (धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ 179) ज्ञान-जल से नहाये हुए को स्नातक कहा गया। सम्भवतः बाद में जब ज्ञान की नदी सूख चली तो पानी से नहाने को ही स्नान कहा जाने लगा। 'उपेक्षितव्या:' का मूल/पुराना अर्थ है 'समीप जाकर देखना चाहिए'। बाद में इसका अर्थ तिरस्कार हो गया। निरुक्त में यह पुराने अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'आंखों के अत्यंत निकट रहने से अनादर होता ही है', इस प्रकार यह अर्थ आया। (सत्यव्रत, सेमैंटिक्स इन संस्कृत, पूना ओरिएंटलिस्ट, जनवरी, 1959)

Tuesday, April 24, 2018

इतिहास के बारे में कुछ असहमत टिप्पणियां

1. अफवाह और इतिहास

हमारे महापुरुष जितना इतिहास की किताबों में हैं, अफवाहों में उससे तनिक कम नहीं हैं। सबसे ज्यादा अफवाह गांधी बाबा को लेकर है। मेरी मां बताया करती थीं कि गांधी को उनकी इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी सरकार भी जेल में बंद नहीं रख सकती थी। गांधी में 'चमत्कारी' शक्ति थी और वे इस शक्ति की बदौलत जब चाहते थे, जेल का फाटक खुल जाता था और वे बाहर निकल जाते थे। गांधी जब चंपारण आए तो चमत्कारी शक्तियां भी उनके साथ आयीं। बेतिया के आसपास के इलाकों में पेड़-पौधों से लेकर छप्पर के कद्दू तक पर गांधी की आकृति उभरने लगी। इस सब की जड़ में लोगों का यह विश्वास था कि गांधी कोई साधारण आदमी नहीं बल्कि 'अवतारी पुरुष' हैं। गांधी को आदमी से अवतारी पुरुष बनाने में इन अफवाहों की खासी भूमिका रही है।
नेहरु भी इन अफवाहों से अप्रभावित नहीं हैं। जब मैं छोटा था तो अक्सर लोगों के मुख से सुनता था कि नेहरु के कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे। तब मेरा बालसुलभ ज्ञान इसका काट नहीं जानता था बल्कि एक स्थापित तथ्य की तरह इसे मानकर चलता था। नतीजतन मेरी किशोरावस्था नेहरु की आलोचना, बल्कि कहिए कि लानत-मलामत के साथ जवान हुई। कॉलेज में जब नेहरु के बारे में पढ़ा तो सही जानकारी मिली। नेहरु को स्वयं इस अफवाह की जड़ काटनी पड़ी। इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अफवाह की जड़ कितनी गहरी पैस चुकी थी। हालांकि आज भी इसकी हरियाली कुछ कम नहीं हुई है।

सन 2000 के आसपास की बात है जब मैं एकलव्य एड्यूकेशनल कॉम्प्लेक्स (पब्लिक स्कूल जो इसी माह बंद हुआ) में पढ़ाया करता था। पंकज कुमार वहां अंग्रेजी विषय के शिक्षक हुआ करते थे। उनसे हमारी कई चीजों पर बात होती। हम भारतीयों की एक विचित्र गड़बड़ी है कि बात चाहे किसी भी विषय पर शुरू हुई हो, समाप्ति गांधी-नेहरु से ही होगी। मैं अक्सर नेहरु के पक्ष में बोलता और वे विपक्ष में बल्कि कई बार तो स्थिति भयानक हो जाती जब वे नेहरु के कई स्त्रियों के साथ यौन संबंध स्थापित करते हुए चरित्रहनन तक शुरू कर देते। मेरी असहमति से वे गुस्से में आ जाते और कहते, 'मैं तो नेहरु की धज्जी उड़ा दूंगा।' वे इस पूरी बातचीत में क्लेमा कैथरीन का एडविना और नेहरु उपन्यास को प्रमाण के बतौर प्रस्तुत करते। तब तक वह किताब अपठित थी। डरते-डरते मैंने वह किताब उनसे पढ़ने को ली। पढ़ा तो पाया कि एडविना और नेहरु जैसा प्रेम तो उस किताब के लगभग सारे पात्र कर रहे हैं, चाहे वे गांधी, जिन्ना, सरोजिनी नायडू हों या और कोई।

नेहरु से जुड़ी एक और घटना है। इसे मैं अपने गांव में बचपन में सुना करता था। देश-विभाजन के दिनों की बात है। भड़क उठे दंगों को रोकने के लिए नेहरु दौरा कर रहे। उन्हें हमारे गांव के निकटतम रेलवे स्टेशन नादौल भी आना था। हमारे गांव से कई लोग नेहरु को देखने गये थे। कुछ लोग नेहरु की नीतियों से खिन्न भी थे। उन्हीं में से कमता सिंह नामक एक व्यक्ति, जो तनिक जादू-टोना भी किया करते थे, गांव से ही एक ढेला लेकर गये थे। ग्रामवासियों से उन्होंने कह रखा था कि इसी ढेले से वे दूर से ही नेहरु पर प्रहार करेंगे किंतु ऐन मौके पर उस जादूगर का ढेला हाथ से छूटकर नीचे गिर गया और नेहरु को मारने की मुराद पूरी न हो सकी। जैसा कि किस्सा है, 'नेहरु ने उन महाशय का हाथ बांध दिया था।'

2. इतिहास और तात्कालिकता

जवाहरलाल नेहरु ने पिता के पत्र पुत्री के नाम लिखे एक पत्र में अपनी दसवर्षीया पुत्री को जॉन ऑफ आर्क के हवाले से बताया है कि असामान्य परिस्थिति में अत्यंत सामान्य बात भी असाधारण महत्व की हो जाती है। इसे हम अपने गांवों में प्रचलित एक छोटी बात से समझ सकते हैं। बिहार के गांवों में कार्तिक मास में भूरा (उजला गोल कद्दू) दान करने तथा उसकी बलि देने की धार्मिक प्रथा रही है। 1910 के आसपास उत्तर प्रदेश में वार्षिक काली पूजा के अवसर पर सफेद कुम्हड़ा या पेठा की बलि दी जाती थी। यों तो इसका कोई खास अर्थ नहीं था, किंतु लोगों ने इसका अर्थ यह लगाया कि सफेद कुम्हड़ा माने सफेद चमड़ी वाला अंग्रेज।

कुछ दिनों पहले तक राजधानी की सड़कों के किनारे खुले में यत्र-तत्र मूत्रत्याग कर लेने को लोग महज अशिष्टता मान संतोष कर लेते थे। एस पी, डी एम की कोठी के सामने भी ऐसा करने में शायद ही कोई खतरा मानते थे। आज स्वच्छता अभियान के जमाने में ऐसा कहना-करना जोखिम भरा हो सकता है। किंतु आधुनिक भारत के हमारे किसी इतिहासकार मित्र को स्वतंत्रता संग्राम के जमाने की फाइल में कोई भारतीय एस पी, डी एम की कोठी के आगे मूत्रत्याग करता मिल जाए तो उसे स्वतंत्रता सेनानी से कम मानने के लिए शायद ही तैयार होंगे! दरभंगा में 1940 में एक तांगेवाला गिरफ्तार हो गया था। उसने घोड़े को चाबुक मारते हुए केवल इतना कहा था, 'चल रे बेटा हिटलर जैसा'। बस, वह इसी बात पर गिरफ्तार हो गया। (भोगेन्द्र झा, क्रांतियोग, मातृभाषा प्रकाशन, 2002, पृष्ठ 29) 1942 की क्रांति के समय आरा के पास जमीरा में पाखाना फिर रहे कुछ लोगों को गोली मार दी गई थी। (मन्मथनाथ गुप्त, भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास, आत्माराम एंड संस, 2009, पृष्ठ 374) कहने की जरूरत नहीं कि आधुनिक भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में वे शहीद हैं।

इसी तरह, अंग्रेजी राज में हमें जो बहुत सारी राजनीतिक डकैतियों के उदाहरण प्राप्त होते हैं उनमें से अधिकतर तो डकैती थी ही नहीं। बंगाल के प्रसिद्ध शिवपुर डकैती के आरोपी अमर बाबू (अमरेंद्रनाथ चटर्जी) ने जैसाकि सीताराम सेक्सरिया को बताया था, 'क्रांतिकारी ने जमींदार से सहायता मांगी तो उस ने कहा, सहायता देना तो दिक्कत की बात है मैं तुम्हें अपना खजाना बता देता हूँ तुम लोग डाका डालकर उसे ले जाओ इस से अच्छी सहायता मिल जायेगी।' (सीताराम सेक्सरिया, एक कार्यकर्ता की डायरी, भाग 1, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण : 1972, पृष्ठ 83) इस प्रकार, राजभक्त दिखने वाले लोगों में से कई गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की सहायता करते थे।

3. इतिहास में संयोग की भूमिका

ऐसा तो बिल्कुल ही नहीं है कि 'संयोग की दुहाई केवल कर्महीन नर देते हैं'। बचपन में पढ़ी 'झाँसी की रानी' कविता इस प्रसंग में याद आ रही है। कविता-पंक्ति थी, 'घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार।' घोड़ा नया न होता तो शायद अड़ता नहीं। फिर सवार आने से पहले लक्ष्मीबाई वहां से कूच कर गई होती और इस तरह मारे जाने से बच सकती थी। इतिहास इस तरह के असंख्य उदाहरणों से भरा पड़ा है। इस तरह कोई व्यक्ति इतिहास में संयोग की भूमिका को नकार नहीं सकता। वे अवश्य नकारने की भूल करेंगे जो संयोग बोलने पर भाग्य सुन-समझ बैठते हैं।

4.अतीत का गौरव

सिर्फ इतना कहना कि 'अपने भूत के प्रति गौरव और अनुराग हमारे लिए बड़ी ख़तरनाक चीज़ है', काफी नहीं है। हमारा आरंभिक राष्ट्रवाद इसी 'गौरव' और 'अनुराग' पर खड़ा मिलता है। जब हमारा वर्तमान नैराश्यपूर्ण हो तो अतीत का अनुराग और गौरव हमें अवसादग्रस्त होने से बचा सकता है। हाँ, अतीत का गौरव और अनुराग अगर हमारे बेहतर वर्तमान और भविष्य के सपने से न जुड़ा हो तो खतरनाक है।

5. इतिहास में स्त्री

हम वर्षों से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि अब तक का सारा इतिहास पुरुषों का पुरुषों द्वारा लिखा गया इतिहास है, अर्थात पुरुष अपराधी और जज दोनों की भूमिका निभाता रहा है और मनोनुकूल फैसले लेता रहा है। इतिहास के इन फैसलों को बदलने के लिए जरूरी है कि प्रतिपक्ष को भी सुना जाये। इतिहास की इस पहल से उन नये साक्ष्यों की खोज शुरू हुई है जिन्हें पुरुष प्रभावित कर पाने में लगभग असमर्थ रहे हैं। स्त्री-गीत इतिहास के ऐसे ही साक्ष्य हैं जिनके बारे में लगभग विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वे मूलतया स्त्रियों द्वारा रचित एवं संरक्षित हैं। इसलिए स्त्रियों का कोई भी वास्तविक और प्रामाणिक इतिहास स्त्री-गीतों से गुजरे बगैर नहीं लिखा जा सकता।

अभिलेख-बिहार (अंक 6) में शारदा शरण का एक लेख प्रकाशित है जिसका शीर्षक है, 'स्वतंत्रता संग्राम के दौरान की वीर गाथाएं : बक्सर जिला के सन्दर्भ में'। कहने की जरूरत नहीं कि इस लेख में आजादी के दौरान बिहार में प्रचलित गीतों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इन गीतों में लगभग सभी स्थलों पर पुरुषों को संबोधित किया गया है। 'मर्द हो मर्दानगी के साथ, मरना सीख लो', 'चल भइया', 'शाहाबाद के वीर सपूतों' तथा 'अब चले झुण्ड मर्दानों का' आदि संबोधनों का प्रयोग करते हुए पुरुषों का आह्वान किया गया है। एक भी गीत में आश्चर्यजनक रूप से स्त्रियों का आह्वान नहीं है। एक गीत में चर्चा है भी तो आंदोलन के बाधा के रूप में। एक गीत में कहा गया है, 'हम मातृभूमि के सैनिक हैं/अब प्राणों का है मोह कहाँ/केसरिया बाना पहन लिया/नारी बच्चों का छोह कहाँ।' इन गीतों के आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में बिहार की स्त्रियों की अपेक्षित भागीदारी नहीं थी? अथवा यह कि स्त्रियों के अपने गीतकार नहीं थे? अगर नहीं थे तो क्यों?

6. इतिहास और रामकथा

रामकथा की एक समृद्ध परंपरा है भारतीय भाषा साहित्य में। फादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण और मूल्यवान शोधकार्य किया है। संस्कृत और प्राकृत दोनों ही में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ रामकथा मिलती है। तुलसीदास ने इस सम्पूर्ण रामकथा साहित्य का गहन अध्ययन किया था लेकिन उन्होंने  अपनी रामकथा का आधार वाल्मीकि की रामायण को बनाया। वाल्मीकि की रामायण के पहले भी रामकथा की एक सुदीर्घ मौखिक परंपरा थी। कुशीलव नामक जाति के लोग इस रामकथा का लोक में और राजा के दरबार में वाचन किया करते थे। इसी मौखिक परंपरा को आधार बनाकर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। राम कोई ऐतिहासिक पात्र न होकर काल्पनिक कथा के पात्र हैं। वाल्मीकि, बिमलसूरि, कबीर तथा तुलसीदास-सबके अपने अपने और बहुत कुछ मिलते जुलते राम हैं, लेकिन हैं सब के सब काल्पनिक ही । तुलसी के राम बहुत हद तक वाल्मीकि के राम हैं, तो दोनों एक ऐतिहासिक काल में कैसे संभव हैं? कवि से हम इतिहास की मांग ही क्यों करें? साहित्य को साहित्य की तरह पढ़ें। हाँ, हम इतिहास का विवेक जरूर इस्तेमाल करें। इतिहास के सन्दर्भ में मुझे लाला हरदयाल की कही बात हमेशा याद रहती है कि वह हजाम के उस्तरे की तरह है। अगर हजाम सही हुआ तो दाढ़ी बनने के बाद आप सुन्दर लगेंगे, अन्यथा उस्तरा आपको घायल कर सकता है। इतिहास एक सही हजाम की मांग करता है।

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में साहित्यिक साक्ष्यों के अध्ययन की समीक्षा दिलचस्प हो सकती है. इतिहासकार अपने व्यक्तिगत आग्रहों/पूर्वाग्रहों के कारण साहित्यिक साक्ष्यों के साथ मनमानी करते रहे हैं. इस खेल में आर.एस.शर्मा जैसे प्रख्यात इतिहासकार तक शामिल हैं. एक उदारण देखें-'राम के वन चले जाने पर वाल्मीकि ने अयोध्या का जो वर्णन किया है उससे उजड़े नगर का स्पष्ट संकेत मिलता है. वहां व्यस्त जीवन का कोलाहल नहीं पाया जाता. इसके अलावा गालियों में गाडियां और रथ नहीं चलते, यज्ञ नहीं होते और ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए पण्य-वस्तुएं फूलों और मालाओं से नहीं सजाई जातीं. दुकानें सौदागरों से खाली हैं: सौदागर अपने व्यापार के अंत से चिंतित हैं.' (आर.एस. शर्मा, भारत के प्राचीन नगरों का पतन, राजकमल प्रकाशन, 1995, पृष्ठ 152) शर्मा जी इससे निष्कर्ष निकालते हैं कि देखिये शहरों का पतन हो रहा है. अब उनको कोई कैसे कहे कि यह वर्णन राम के वन-गमन के बाद हाट-समाज में पसरे दुःख का भी तो हो सकता है ! रामायण की कथा का ऐसे सीधे-सीधे इतिहास के तथ्य के रूप में स्वीकार कर लेना क्या उचित है ?

7. इतिहास के तथ्य और इतिहास बोध

कभी फेसबुक पर कृष्ण कुमार मण्डल जी से 'इतिहास के तथ्य' बनाम 'इतिहास बोध' विषय पर बातचीत हुई, जिसमें कुछ बिंदु पर वे सहमत और कुछ बिंदु पर अंत तक असहमत रहे। असहमति का कारण यह भी हो सकता है कि अपनी बातें मैंने सूत्र रूप में रखी थीं। मेरी टिप्पणी थी कि 'हम इतिहास को इतिहास के तथ्य से जोड़कर देखते हैं, इतिहास बोध से नहीं।' मित्र को लगा कि मैं इतिहास के तथ्य की उपेक्षा कर रहा हूँ और महज इतिहास बोध के आधार पर इतिहास लेखन की वकालत कर रहा हूँ । मण्डल जी ने यह कहते हुए कि 'मैं तथ्य से बाहर जाने का साहस नहीं कर सकता हूँ', इतिहास बोध की उपेक्षा करते रहे क्योंकि वे मानते हैं कि 'इतिहास बोध मिथकों का भी हो सकता है'।

मण्डल जी जाने अनजाने तथ्य को पवित्र और अंतिम मान लेने की भूल करते हैं। इतिहास हमें बताता है कि तथ्य न तो पवित्र होते हैं और न अंतिम। ई. एच. कार ने इस संदर्भ में एक बड़ी रोचक बात कही थी जिसकी तरफ हमारे इतिहासकार बहुत कम ध्यान देते आये हैं। कार ने तथ्य निर्माण की प्रक्रिया की बात कही थी। हिंदी कविता के क्षेत्र में मुक्तिबोध ने कविता की रचना प्रक्रिया का सवाल उठाया था । जिस तरह कविता की रचना प्रक्रिया को समझे बगैर कविता का मर्म नहीं समझा जा सकता है उसी तरह इतिहास में तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को समझे बगैर इतिहास के तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो सकती। कविता को समझने में कवि को भी समझना होता है । उसका परिवेश, उसकी शब्दावली एवं अन्य कवियों का प्रभाव तक देखना होता है। अब तो लिंग, जाति, धर्म आदि तमाम बातें देखी जाती हैं। इसी के आधार पर हम तय कर पाते हैं कि सहानुभूति का साहित्य है अथवा स्वानुभूति का। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बगैर हम अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं। ठीक इसी तरह एक विवेकवान इतिहासकार के लिये तथ्य संदेह से परे न हो सकते हैं न होने चाहिए। एक इतिहासकार का दायित्व न केवल तथ्य के आलोक में वैज्ञानिक और प्रामाणिक इतिहास लिखना है बल्कि स्वयं तथ्य की वैज्ञानिकता एवं प्रामाणिकता की जाँच करना भी है।

इतिहास के तथ्य महज तथ्य नहीं होते, कई दफा वे अपने आप में मुकम्मल इतिहास होते हैं। इंदिरा जब 9-10 साल की बच्ची थी तभी जवाहर लाल नेहरु ने पत्रों के माध्यम से उसे समझाया था, बताया था कि कैसे नदी किनारे बिखरे गोल लाल-काले पत्थर पहाड़ का अभिन्न हिस्सा हैं अथवा स्वयं पहाड़ हैं। पहाड़ के टूटने, नदी के जलप्रवाह तथा अपरदन के अन्य अनेक कारणों को जाने समझे बगैर नदी किनारे मिले गोल पत्थर को पूरी तरह से समझने का दावा नहीं किया जा सकता। वैसे ये पत्थर अपनी विकासयात्रा की पूरी कहानी अपने साथ लिए चलते हैं, लेकिन जिसे इस कहानी में रुचि नहीं है या जिसमें अव्यक्त को पकड़ने की क्षमता नहीं है, नदी किनारे पड़े उस निठल्ले और बेजान पत्थर को उसके समूचे इतिहास से काटकर देखेगा। ठीक उसी तरह इतिहास दृष्टि से हीन व्यक्ति इतिहास के तथ्य को समग्रता में समझने का दावा नहीं कर सकता। ये तथ्य कई बार सूत्र रूप में होते हैं। उसकी व्याख्या उसके अतीत में होती है। उस व्याख्या को समझना ही दरअसल तथ्य को सही सन्दर्भ में समझने की शर्त है। साल दो साल से अधिक समय नहीं गुजरा है जब एक अखबार में चौंकानेवाला तथ्य देखने को मिला था। खबर थी कि अधिकतर भारतीय पत्नियां पति द्वारा की गई पिटाई को बुरा नहीं मानतीं। यह एक तथ्य है, ग्रामीण भारतीय समाज का सच है। भारतीय पत्नियों की कंडीशनिंग और पितृसत्ता के मकड़जाल को समझे बगैर इस तथ्य की शल्य चिकित्सा नहीं हो सकती । एक दृष्टि सम्पन्न इतिहासकार ऐसे तथ्यों का न सिर्फ वैज्ञानिक विश्लेषण करेगा बल्कि तथ्य के इर्द-गिर्द फैली व्याख्या को भी ध्यान में रखेगा।

इतिहास बोध और इतिहास के तथ्य के संदर्भ में मदन कश्यप की कविता की याद आ रही है जिसमें वे कहते हैं कि स्त्रियों ने चूल्हे की आग को राख की परतों में जिन्दा रखा है। चूल्हे में आग अथवा राख का होना अगर इतिहास का तथ्य है तो आग को बचाए रखने की जद्दोजहद सम्पूर्ण स्त्री जाति का इतिहास है, साथ ही आग और राख का इतिहास भी। इसलिए एक जेनुइन इतिहासकार निश्चय ही इतिहास के तथ्य को महज एक तथ्य मानने की भूल कदापि न करेगा ।

जो इतिहासकार ज्ञात तथ्यों को एकत्र कर अंतिम विश्लेषण में जुट जाते हैं वे दरअसल एक ऐतिहासिक भूल करते हैं। कई दफा हम जिसे तथ्य समझ रहे होते हैं दरअसल वह तथ्य होता ही नहीं है, तथ्य उससे परे होता है. जिसे हम वास्तविक तथ्य समझते हैं वह तो तथ्य का आभास भर होता है। वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने में आठ मिनट का समय लगता है, अर्थात सूर्य को हम आठ मिनट विलम्ब से देखते हैं। सूर्यास्त के साथ भी यही सच्चाई है। सूर्य से चली अंतिम किरणों को हम आठ मिनट बाद ही देख पाते हैं जबकि हम पृथ्वीवासियों के लिए आठ मिनट पहले ही सूर्य 'विदा' बोल चुका होता है। ठीक उसी तरह काल गणना में या तो भूत हो सकता है अथवा भविष्य, वर्तमान महज एक विभाजक रेखा है। या तो आप भूतकाल में होते हैं या तो भविष्य में। वर्तमान में होना दरअसल नहीं होना है लेकिन हम हैं कि वर्तमान को मुट्ठी में कस लेना चाहते हैं।

इतिहासकारों द्वारा हमें बार-बार लगभग चेतावनी की भाषा में बताया जाता रहा है कि इतिहास में अगर-मगर अथवा संयोग की कोई भूमिका नहीं होती है। मसलन, इतिहास में ऐसे प्रश्नों के लिए कि 'अमुक घटना नहीं होती तो इतिहास का स्वरूप क्या होता' अथवा 'गाँधी नहीं होते तो देश आजाद होता अथवा देश विभाजन होता या नहीं', जैसे प्रश्न इतिहास के विद्यार्थी के लिये बेमानी हैं। आप कह ले सकते हैं कि इस तरह इतिहास खुद 'ऐतिहासिक नियतिवाद' का शिकार है। किंतु तथ्य निर्माण की प्रक्रिया के अनुभव इतिहास में संयोग की भूमिका से इनकार नहीं करते। तथ्य का बनना न बनना महज संयोग भी हो सकता है। इस संदर्भ में बचपन में पढ़ी कविता, जिसका संबंध रानी लक्ष्मीबाई की जीवन घटनाओं से है, अत्यंत मूल्यवान अर्थ दे सकती है। कविता की पंक्ति है, 'घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार'। इसके बाद जो हुआ वह हमारे आपके लिए इतिहास का तथ्य है। इस प्रसंग में आलोकधन्वा की कविता 'भागी हुई लड़कियां' भी कुछ बात जोड़ती है। कवि हमें सावधान करता है कि सिर्फ एक लड़की के भागने की बात स्वीकार मत कर लेना क्योंकि और भी लड़कियां हैं जो अपनी डायरी, अपने रतजगे और अपने सपने में भागी हैं। उनकी आबादी कई गुना ज्यादा है लेकिन जो अख़बार के किसी कोने में दर्ज नहीं है। ये लड़कियां भी इतिहास के समय को उतना ही ज्यादा प्रभावित करती हैं जितना एक 'सचमुच की भागी हुई लड़की', लेकिन एक इतिहासकार तो वही पढ़ेगा जो दीमक लगे दस्तावेज में दर्ज है ।

तथ्य निर्माण की प्रक्रिया सरल, सहज व एकरेखीय नहीं होती। परंपरा, लोक रीति, आचार- विचार व नैतिक मूल्य- ये सभी तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को गहरे प्रभावित करते हैं। अक्सर अख़बारों में खबर छपा करती है कि आज दो सौ यात्री बिना टिकट यात्रा करते पकड़े गए। निस्संदेह इसमें कुछ वैसे यात्री भी होते हैं जो टिकट जाँचकर्ता को पैसे दे दिलाकर 'खबर का हिस्सा' बनने से बच जाते हैं। क्या कभी अख़बार में यह खबर छपी कि कुछ बिना टिकट यात्रा करते यात्री महज इसलिए बच गये कि जांचकर्ता ने उससे घूस की रकम खायी थी। ऐसी घटनाएं रोज ही घटती हैं पर दर्ज होने से हमेशा रह जाती हैं। कुछ साल हुए जब मुझे एक अप्रिय खबर हाथ लगी थी। घटना थी कि मेरा कभी का छात्र रह चुका बच्चा किसी की बाइक लेकर गायब हो गया। यह खबर पहले पुलिस तक गई और फिर इंजीनियर दादाजी के पास। दादाजी अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित नागरिक थे। अपनी 'प्रतिष्ठा की रक्षा' में वे थाने पहुंचे और थानेदार देवता की पूजा कर मामले को रफा दफा किया- कराया। लोगबाग चर्चा कर रहे थे कि 'देखिए एक प्रतिष्ठित दादा का पोता कैसा भारी चोर निकल गया!' दूसरी ओर, वे इस बात पर राहत व्यक्त कर रहे थे कि ये तो थानेदार 'बेचारा भला आदमी' निकला जिसने ले-लिवाकर दादा के चेहरे पर 'कालिख पुतने' से बचाया। यह कैसा सामाजिक मूल्य है कि लड़कपन में जिसने गाड़ी उठा ली वह भारी चोर हो गया और जिसने घूसखोरी जैसा घोषित अपराध किया वह 'बेचारा भला आदमी' बना। क्या आप अब भी इस बात से सहमत नहीं होंगे कि इतिहास के तथ्य न तो 'पवित्र' होते हैं और न तो हो सकते हैं। कभी कभी तो दूरदर्शन के चैनलों पर घटना की लाइव प्रस्तुति दिखाई जाती है। कई बार प्रस्तुति के क्रम में दुर्घटना तक घट जाती है। दूसरे दिन अख़बार में निकलता है कि गहरे तालाब में डूबकर बच्चे की मौत हो गयी। सवाल है कि बच्चा डूबा या कि डूबने दिया गया या कहें कि डूबा दिया गया। खबर तो यह होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसी खबर आपने देखी-पढ़ी है क्या?

8. संदेह से परे नहीं हैं तथ्य

राम बख्श जी, आपकी टिप्पणी पहली नजर में किसी को निर्दोष लग सकती है, लेकिन ऐसी है नहीं। आपकी कुछ बातों को मैं यहाँ फिर से रखने की अनुमति चाहूँगा। आप ऊपर की पंक्ति में लिखते हैं कि 'तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। वे वस्तुगत होते हैं।' किन्तु नीचे की पंक्ति में आपकी धारणा बदल जाती है और आप यह कहे बिना नहीं रह पाते कि 'आज प्रत्येक तथ्य संदिग्ध है'। कहने की जरूरत नहीं कि आप संदेह का कारण भी जानते हैं। आप इस बात से अवगत हैं कि समय में परिवर्तन के साथ सिर्फ इतिहास ही नहीं बदल रहा बल्कि इतिहास के तथ्य भी बदल रहे हैं। हाँ, इस तथ्य में परिवर्तन के कारणों को आप नहीं समझ पा रहे क्योंकि आप मानकर चल रहे हैं कि तथ्य तो यथार्थ और वस्तुगत हैं जबकि इतिहास कहानी। नहीं, इतिहास के तथ्य भी उतने पवित्र और निर्दोष नहीं होते जितना आप मानते हैं। दूसरी बात यह कि जिस 'गुण' के कारण इतिहास आपके लिए कहानी है वही उसकी ताकत है। अगर ऐसा नहीं होता तो बहुत पहले 'अंतिम इतिहास' लिख दिया गया होता और हम 'इतिहास के अंत' या 'अंतिम इतिहास' की घोषणा पर छाती नहीं कूट रहे होते!

9. इतिहास और परंपरा

एक इतिहासकार के लिए स्थानीय संस्कृति और परिवेश का ज्ञान आवश्यक है। कई साल पहले एक इतिहासकार वीर कुंवर सिंह पर शोध के सिलसिले में भारत आये थे। उन्होंने एक फाइल में burhi शब्द देखा जिस पर कुंवर साहब ने कभी एक लाख रुपये खर्च किये थे। उक्त इतिहासकार ने लिखा क़ि वीर कुंवर सिंह की एक बूढी हो चली रखैल थी जिस पर उन्होंने रुपये खर्च किये थे। एक जमींदार के बारे में ऐसा निष्कर्ष निकालना तनिक सुविधाजनक भी था। कुछ दिनों बाद उसी फाइल को एक बिहारी इतिहासकार ने देखा और burhi को बरही पढ़ा। लिखा क़ि कुंवर सिंह ने पोते की बरही पर लाख रुपये खर्च किये थे। यद्यपि यह किस्सा है, लेकिन है सारगर्भित।

Thursday, April 19, 2018

लोक चेतना में गांधी


हमारे महापुरुष जितना इतिहास की किताबों में हैं, अफवाहों में उससे तनिक कम नहीं हैं। यह जानना दिलचस्प है कि 'मैला आँचल' उपन्यास ऐसी ही एक अफवाह के साथ शुरू होता है- 'यद्यपि 1942 के जन-आंदोलन के समय इस गांव में न तो फौजियों का कोई उत्पात हुआ था और न आंदोलन की लहर ही गांव तक पहुंच पाई थी, किंतु जिले भर की घटनाओं की खबर अफवाहों के रूप में यहां तक जरूर पहुंची थी।' (फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, पुनर्मुद्रण : 1996, पृष्ठ 9) और अफवाह थी कि 'मोगलाही टीशन पर गोरा सिपाही एक मोदी की बेटी को उठाकर ले गए। इसी को लेकर सिख और गोरे सिपाहियों में लड़ाई हो गई, गोली चल गई। ढोलबाजा में पूरे गांव को घेरकर आग लगा दी गई, एक बच्चा भी बचकर नहीं निकल सका। मुसहरू के ससुर ने अपनी आंखों से देखा था-ठीक आग में भूनी गई मछलियों की तरह लोगों की लाशें महीनों पड़ी रहीं, कौआ भी नहीं खा सकता था; मलेटरी का पहरा था। मुसहरू के ससुर का भतीजा फारबिस साहब का खानसामा है; वह झूठ बोलेगा?' (मैला आँचल, पृष्ठ 9) इन अफवाहों का अगर आप समाजशास्त्रीय अध्ययन करें, तो पता चलेगा कि इसके स्रोत निम्नवर्गीय, निम्नजातीय, निरक्षर लोग हैं। (डा. अवनिंद्र कुमार झा, 'लिटरेचर एंड रियलिटी : गाँधीयन मुवमेंट एंड मार्जिनल कम्युनिटीज इन नॉर्थ बिहार', अभिलेख बिहार, अंक-6, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2015, पृष्ठ 286; हसन इमाम, 'महात्मा गांधी इन पॉपुलर परसेप्शन : डिबेटिंग गांधी इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेन्चुरी', अभिलेख-बिहार, अंक 6, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2015, पृष्ठ 186)

नेहरु ने इसका कुछ हाल बयान किया है, 'मुझे पता लगा कि मेरे पिताजी और मेरे बारे में एक बहुत प्रचलित दंतकथा यह है कि हम हर हफ्ते अपने कपड़े पैरिस की किसी लॉन्ड्री में धुलने को भेजते थे। हमने कई बार इसका खण्डन किया है, फिर भी यह बात प्रचलित है ही। इससे ज्यादा अजीब बाहियात बात की कल्पना भी मैं नहीं कर सकता।' (जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295) 'इसी तरह से एक दूसरी दंतकथा, जोकि इन्कार करने पर भी प्रचलित है यह है कि मैं प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ स्कूल में पढ़ता था। सच बात तो यह है कि न तो स्कूल में ही उनके साथ पढ़ा हूँ और न मुझे उनसे मिलने या बात करने का ही मौका हुआ है।' (जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295-96) नौजवान स्त्री-पुरुषों का तो, एक प्रकार से, मैं नायक बन गया था। और उनकी निगाह में मेरे आसपास कुछ वीरता की आभा दिखाई पड़ती थी, मेरे बारे में गाने तैयार हो गये थे और ऐसी-ऐसी अनहोनी कहानियाँ गढ़ ली गई थीं, जिन्हें सुनकर हंसी आती थी। (जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 294)
कहने की जरूरत नहीं कि इस लोक चेतना में सबसे ज्यादा किस्से गांधी बाबा को लेकर हैं। मजेदार है कि गांधी, नेहरु की तरह इन किस्सों का कभी खण्डन नहीं करते। शाहिद अमीन ने गांधी की चमत्कारी शक्तियों से संबंधित कुछ रोचक बातों का उल्लेख करते हुए कहा है कि ये चमत्कारी शक्तियाँ ही गांधी को महात्मा बनाती हैं। (शाहिद अमीन, 'गांधी ऐज महात्मा : गोरखपुर डिस्ट्रिक्ट, ईस्टर्न यू पी, 1921-22', रंजीत गुहा (संपादक), सबाल्टर्न स्टडीज lll, राइटिंग ऑन साउथ एशियन हिस्ट्री एंड सोसायटी, ओ यू पी, दिल्ली, 1984, पृष्ठ 1-61) इसी परंपरा में हसन इमाम ने अपने आलेख को आगे बढ़ाया है। (हसन इमाम, 'फ्रॉम महात्मा टू गॉड : अंडरस्टैंडिंग गांधी इन कल्चरल परस्पेक्टिव्स ऑफ द इंडियन नेशनल मुवमेंट', प्रोसीडिंग्स ऑफ द फर्स्ट एनुअल इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन कंटेम्पोररी कल्चरल स्टडीज, ग्लोबल सायंस एंड टेक्नोलॉजी फोरम, सिंगापुर, दिसंबर 9-10, 2013, पृष्ठ 11-17) कहने की जरूरत नहीं कि इमाम साहब ने अपने काम को और आगे बढ़ाया है। (हसन इमाम, महात्मा गांधी इन पॉपुलर परसेप्शन : डिबेटिंग गांधी इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी, अभिलेख बिहार, अंक-6, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2015, पृष्ठ 184-198) मेरी मां बताया करती थीं कि गांधी को उनकी इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी सरकार भी जेल में बंद नहीं रख सकती थी, कि गांधी में 'चमत्कारी' शक्ति थी और वे इस शक्ति की बदौलत जब चाहते थे जेल का फाटक खुल जाता था और वे बाहर निकल जाते थे। इसी आशय का एक हरियाणवी लोकगीत है-'एक जलेबी तेल में।/गांधी भेज्या जेल में।।/जेल का फाटक गिया टूट।/गांधी आया फोरन छूट।।' (kavitakosh.org) 'ढोडायचरितमानस' भी इस धारणा का उल्लेख करता है, "सहसा खबर आती है कि गान्ही बाबा जिरानिया आ रहे हैं 'साभा' करने। उन्हें थोड़े ही कोई जेल में भर्ती कर रख सकता है! एक ही मन्तर से वे ताला और दीवाल तोड़कर बाहर चले आते हैं।" (सतीनाथ भादुड़ी, ढोडायचरित मानस, पृष्ठ 85) 'मैला आँचल' उपन्यास में मठ के महंथ सेवादास को 'सतगुरु साहेब' सपने में दर्शन देते हैं और गांधीजी की पैरवी करते हैं। कहते हैं, 'तुम्हारे गाँव में परमारथ का कारज हो रहा है और तुमको मालूम नहीं? गाँधी तो मेरा ही भगत है। गाँधी इस गाँव में इसपिताल खोलकर परमारथ का कारज कर रहा है। तुम सारे गाँव को एक भंडारा दे दो।' (फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, आठवाँ संस्करण : 1992, पृष्ठ 24)

आमजन के बीच गांधीजी की छवि करुणा के अवतार की थी। वे 'इतने बड़े संत हैं कि आँगन के कोने का सरसों का पौधा अगर झाड़ू से दब जाय, तो उनका दिल रो उठता है।' (ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 228) 'मैला आँचल' की लक्ष्मी कोठारिन बालदेव जी को समझाती है, 'महतमा जी के पंथ को मत छोड़िए, बालदेव जी! महतमा जी अवतारी पुरुख हैं। ...जिस नैन से महतमा जी का दरसन किया है उसमें पाप को मत पैसने दीजिए। जिस कान से महतमा जी के उपदेस को सरबन किया है, उसमें माया की मीठी बोली को मत जाने दीजिए। महतमा जी सतगुरु के भगत हैं।' (मैला आँचल, पृष्ठ 207) और बालदेव जी गांधी के भक्त हैं। इतने बड़े कि उन पर 'कभी-कभी महतमा जी का भर (देवी-देवता का सवार होना) होता है। चुन्नी गोसाईं को तो रोज भोर को होता है।' (मैला आँचल, पृष्ठ 209) गांधीजी की मृत्यु पर कमली की मां कहती है, 'वे तो नर-रूप धारन कर आए थे...लीला दिखाकर चले गए।' (मैला आँचल, पृष्ठ 288) 'ढोडायचरितमानस' का बाबू लाल सबको समझा रहा है, 'गान्ही बाबा बड़ा गुणी आदमी हैं। ...गान्ही बाबा मांस-मछली, नशा-भाँग से परहेज रखते हैं। शादी-ब्याह नहीं किया है, नंगे रहते हैं।' (सतीनाथ भादुड़ी, ढोडायचरितमानस (अनुवाद : मधुकर गंगाधर), लोकभारती प्रकाशन, 1981, पृष्ठ 45) ये क्या! 'रबिया पागल की तरह चिल्लाता दौड़ा आ रहा है-कोंहड़े के ऊपर गान्ही बाबा! ...कोंहड़े के छिलके पर गान्ही बाबा की मूरत अंकित हो गई है।' (ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 46) और अब तो 'रेबन गुनी कोंहड़े को प्रणाम करता है। फिर चिल्लाकर कह उठता है-"लोहा मान लिया, लोहा मान लिया मैंने गान्ही बाबा का।" (पृष्ठ 48) 'कलियुग के रघुनाथ हैं महात्माजी।' (ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 227)
महात्मा गांधी जनता के बीच इतने लोकप्रिय थे कि किसी भी काम का श्रीगणेश लोग इनकी 'जयकार' से करते थे। मैला आँचल में लक्ष्मी के संबोधन के बाद जब बालदेव का भाषण 'पियारे भाइयो!' से शुरू होनेवाला हुआ तो यादव टोली के नौजवानों ने 'गंधी महतमा की जै' से जयजयकार किया। (पृष्ठ 29) पुनः जब सिंह जी और तहसीलदार साहब का मिलन हुआ तो 'गन्ही महतमा की जै' ही बोला गया। (पृष्ठ 32) बालदेव तो कई बार सपने ही में 'गन्ही महतमा की जै' बोल जाया करते थे। (मैला आँचल, पृष्ठ 36) मेरीगंज के खम्हार खुलने की घोषणा भी 'गन्ही महतमा की जै' से होती है। (मैला आँचल, पृष्ठ 75) और इस जनता को गांधी के बारे में कोई जानकारी नहीं है-'कहाँ रहते हैं महात्माजी!...पक्की जहां खत्म हुई है, उससे भी काफी दूर, मुंगेर तारापुर, अयोध्या जी से भी दूर।' (ढोडायचरितमानस, पृष्ठ 228)

लोक चेतना में गांधी के इतने रूप हैं कि जनता हिंसक-अहिंसक हर काम में उन्हें घसीट लेती है। मैला आँचल में हमला करने निकली गुअरटोली की 'यादव सेना' 'महाबीरजी की जै' के साथ 'गन्ही महतमा की जै' के भी नारे लगाती है। (मैला आँचल, पृष्ठ 20) मेरीगंज से पुरैनिया जुलूस में जा रहे लोगों को पता है कि 'जिसके हाथ में गन्ही महतमा का झंडा रहता है, उससे गाटबाबू, चिकिहरबाबू, टिकस नहीं माँगता है।' (मैला आँचल, पृष्ठ 86-87) 1921 में फैजाबाद जिले में कुछ किसानों ने एक ताल्लुकेदार का माल असबाब लूट लिया। इन गरीब किसानों से कहा गया था कि महात्मा गांधी चाहते हैं कि वे लूट लें; और उन्होंने 'महात्मा गांधी की जय!' का नारा लगाते हुए इस आदेश का पालन किया। (जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 97)

स्पष्ट है कि 1917 में गांधी जब चंपारण आए तो 'चमत्कारी शक्तियां' भी उनके साथ आयीं। चंपारण पहुंचने पर लोगों ने गांधी का 'नया मालिक' के रूप में स्वागत किया। राजकुमार शुक्ल ने प्रचारित किया कि वे 'ईश्वर का अवतार' हैं तथा गोरे अंग्रेजों से भारतमाता की मुक्ति के लिए भेजे गये हैं। ये किसान मानकर चल रहे थे कि किसी 'भगवान' ही को 'बड़का बड़का वकील लोग' का समर्थन प्राप्त हो सकता है जिनके पास अबतक अपना दुखड़ा रोने के लिए भी उन्हें फीस की मोटी रकम देनी पड़ रही थी। (बी बी मिश्र, सेलेक्ट डॉक्युमेंट्स ऑन महात्मा गाँधीज मुवमेंट इन चंपारण, 1917-1919, गवर्नमेंट ऑफ बिहार, पटना, 1963; विंध्याचल प्रसाद गुप्त, नील के धब्बे, बेतिया, 1986, 118; पापिया घोष, पीजेन्ट्स, प्लांटर्स एंड गांधी : चंपारण इन 1917, पीजेंट स्ट्रगल्स इन बिहार, 1831-1992, जानकी प्रकाशन, पटना, 1994, पृष्ठ 98-108।) डी जी तेंदुलकर बिहार के गांव की एक मजेदार कहानी का जिक्र करते हैं। एक बुढ़िया गांधीजी के समीप आई और बोली-'महाराज, मेरी उम्र 104 वर्ष की है और आंखों की नजर धुंधली हो चुकी है। मैंने बहुत सारे तीर्थस्थानों का भ्रमण किया है। मेरे खुद के घर में दो मंदिर स्थापित हैं। मेरे जानते राम और कृष्ण-दो ही अवतार थे। मैंने सुना है कि अब गांधी भी एक अवतार हैं। जबतक मैं उन्हें देख नहीं लेती हूं, मेरे प्राण अंटके रहेंगे।' (हसन इमाम, 'महात्मा गांधी इन पॉपुलर परसेप्शन : डिबेटिंग गांधी इन द ट्वेंटीफर्स्ट सेंचुरी', अभिलेख बिहार, अंक-6, बिहार राज्य अभिलेखागार निदेशालय, पटना, 2015, पृष्ठ 188 में उद्धृत) चंपारण पहुंचकर गांधी ने खुद स्वीकार किया कि ' शायद ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया।' (अरविंद मोहन, चंपारण डायरी, प्रभात खबर, पटना, 9.4.2017, पृष्ठ 17) बेतिया के आसपास के इलाकों में पेड़-पौधों से लेकर छप्पर के कोंहड़ा-कद्दू तक पर गांधी की आकृति उभरने लगी। (देखें, सतीनाथ भादुड़ी, ढोडायचरितमानस) इस सब की जड़ में लोगों का यह विश्वास था कि गांधी कोई साधारण आदमी नहीं बल्कि 'अवतारी पुरुष' हैं। गांधी को आदमी से अवतारी पुरुष बनाने में लोक चेतना की खासी भूमिका रही है- 'गांधी कहै, गांधी कहै, मन चित्त लाइको।/गंगा सरजू चाहे कूपा पर नहाइ के।/लिहले अवतार एही देशवा में आइ के।' (डॉक्टर राजेश्वरी शांडिल्य, 'भोजपुरी लोकगीतों में गांधी-दर्शन', www.hindi.mkgandhi.org) महात्मा गांधी को अवतार मानकर उनकी तुलना राम और कृष्ण से की गई है। राम के साथ वानर सेना और लक्ष्मण थे। श्रीकृष्ण के ग्वाल-बाल तथा बलराम थे। गांधी के साथ जनता है और जवाहर हैं। रावण और कंसरूपी अन्यायी राज्य को हटाने ही गांधी आए हैं-'अवतार महात्मा गांधी कै,/भारत के भार उतारै काँ,/सिरी राम मारे रावण काँ,/गांधी जी जग माँ परगट भये,/अन्यायी राज्य हटावै काँ,/अवतार महात्मा गांधी कै,/भारत कै भार उतारै काँ' (विद्याभूषण सिंह, अवधी लोकगीत विरासत, पृष्ठ 331) ब्रज के एक लोकगीत में भी गांधी को अवतार बताया गया है-'अवतार महात्मा गांधी हैं भारत को भार उतारन को/सिरीराम ने रावण मारा था, कान्हा ने कंस पछाड़ा था/अब गांधी ने अवतार लिया इन अंगरेजन के मारन को/सिरी राम के हाथ में धनुष बाण, कान्हा के हाथ सुदर्शन था/गांधी के हाथ में चरखा है, भारतवासिन के तारन को।' (विश्वामित्र उपाध्याय, लोकगीतों में क्रांतिकारी चेतना, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, 1999, पृष्ठ 26) नामक सत्याग्रह के दिनों में इस गीत के बोल में थोड़ा परिवर्तन हुआ-'वे चक्र सुदर्शन धारी थे,/तुम चरखाधारी कहलाते हो।/वे माखनचोर कहलाते थे,/तुम नमकचोर कहलाते हो।' (देवेंद्र स्वरूप, गांधीजी हिन्द स्वराज से नेहरु तक, 'अपनी बात')

भारत गांवों में बसता है-'भारतमाता ग्रामवासिनी'। और गांव की जनता ग्रामगीतों में। इन ग्रामगीतों को रवींद्रनाथ टैगोर ने 'जनता के अर्ध चेतन मन की स्वच्छंद रचना' कहा है। (मॉडर्न रिव्यु, सितंबर 1934) गांधीजी के लिए भी ये लोकगीत 'जनता की भाषा हैं, उनके साहित्य हैं।' (मो. क. गांधी, श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की पुस्तक 'गुजरात ऐण्ड इट्स लिटरेचर' (1935) की प्रस्तावना से) इसलिए 'भाषा की दरिद्रता जनता की दरिद्रता की प्रतीक है।' (वही) इससे आगे वे लोकगीत को समूची संस्कृति के पहरेदार मानते थे। (मो. क. गांधी, 28 जनवरी, 1948, देवेंद्र सत्यार्थी से बात करते हुए; देखें आमुख, 'धरती गाती है', प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली, 1994,

1936 के फैजपुर कांग्रेस में देवेंद्र सत्यार्थी की भेंट गांधीजी से हुई। सत्यार्थी जी ने उन्हें एक पंजाबी लोकगीत सुनाया-'रब्ब मोया, देवता भज्ज गए/राज फिरंगिया दा।' अर्थात भगवान मर गया और देवता भाग गए। गांधीजी को यह गीत काफी पसंद आया था। उन्होंने कहा, 'मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण एक पलड़े में और अकेला यह गीत भारी है, क्योंकि इसमें जनता बोल उठी है।' (विष्णु प्रभाकर, 'लोक-साहित्य के यायावर', धरती गाती है, परिशिष्ट:तीन, पृष्ठ 209) गांधीजी लोकगीत की ताकत जानते थे। इसीलिए उन्होंने हिंदुस्तान में लोकगीत के सबसे बड़े अध्येता देवेंद्र सत्यार्थी की पुस्तक 'धरती गाती है' की भूमिका लिखनी स्वीकार की थी। गांधीजी ने लेखक से तनिक विनोद करते हुए कहा था, 'भूमिका लिखने की बात तो ऐसे ही है जैसे कोई मीठे दूध में एक मुट्ठी चीनी डालने को कहे। इससे हमेशा स्वाद बिगड़ने का डर रहता है।' (देवेंद्र सत्यार्थी, 'आमुख', धरती गाती है) स्वाद बिगड़ने का पहला कारण खुद लोकगीत की अपनी ताकत थी। दूसरे कारण के बारे में गांधीजी ने बताया है, 'गुरुदेव को भी तुम्हारा लोकगीत संबंधी कार्य प्रिय था। आज वे होते तो मैं तुमसे कहता उन्हीं के पास जाओ। पर अब यह जिम्मेदारी मुझपर आ पड़ी है। सचमुच मेरे हाथ में यह पतवार ठीक नहीं चलेगी, ठीक सजेगी भी नहीं।' (28 जनवरी 1948 को गांधी लेखक से बात करते हुए। देखें, 'आमुख' धरती गाती है) पांडुलिपि बहुत दिनों तक उनके पास पड़ी रही। 29 जनवरी 1948 के दिन संध्या-प्रार्थना के बाद जब बापू अपनी कुटिया की ओर लौट रहे थे तब सत्यार्थी जी उनके पास पहुंचे। कुछ क्षण चुपचाप साथ-साथ चलते रहे। फिर सत्यार्थी जी ने थोड़ा पास आकर उन्हें याद दिलाया कि 'अभी तक वे उनकी पुस्तक की भूमिका नहीं लिख सके हैं। और सुना है कि अब वे वर्धा जा रहे हैं।' गांधीजी ने अपनी टिपिकल शैली में उत्तर दिया, 'मुझे तो पता नहीं कौन सा गांधी वर्धा जा रहा है और जा भी रहा है तो वहां मर थोड़े ही जाएगा। यहीं लौटकर आएगा। प्यारे लाल से कह देना में लिखवा दूंगा।' (विष्णु प्रभाकर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 214) लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अगले दिन गांधी की हत्या हो गई और उन्हें अपनी प्रिय पुस्तक की भूमिका लिखे बगैर शहीद होना पड़ा। आप कह सकते हैं कि यह गांधी की नहीं, अपितु भारत की लोक चेतना की शहादत थी।

भारतीय राजनीति में गांधी का आगमन क्षितिज पर पौ फटने जैसा था। आशा की नई किरण से नहाया यह पंजाबी लोकगीत कहता है-'हमारे आँगन में सूर्य उदय हुआ है, सूर्य उदय हुआ है।/सूर्य देखने के लिए आओ, हे गांधी, आओ हे गांधी!/तुम भी तो एक सूर्य हो, एक सूर्य हो।/सूर्य देखने के लिए आओ, हे गांधी, आओ, हे गांधी!' (साडे बेहड़े सूरज चढ़िया, सूरज चढ़िया/सूरज वेखण आओ गांधी, आओ गांधी/तूं वी ते इक्क सूरज एँ, इक्क सूरज एँ/सूरज वेखण आओ गांधी, आओ गांधी।' (बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 360-361) इस गीत में गांधी की सूर्य से तुलना करने की शैली काफी प्रभावोत्पादक है। एक विद्वान का तो कहना है कि 'इस गीत की उठान तो एकदम वैदिक ऋचाओं का स्मरण करा रही है।' जॉर्जिया प्रान्त के 'दो सूर्य' शीर्षक एक रूसी गीत में लेनिन के लिए भी सूर्य की उपमा दी गई है-'सूर्य, आओ, प्रकट हो,/हम बहुत आँसू बहा चुके/दुख को हल्का करो/लेनिन तुम्हारे ही समान था/अपनी ज्योति उसे भेंट करो/मैं बताये देता हूँ/तुम लेनिन की बराबरी नहीं कर सकते/दिन का अवसान होते ही तुम्हारी आभा क्षीण हो जाती है/पर लेनिन के प्रकाश का लोप नहीं होता।' (बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 363)

लोकगीत आजादी की लड़ाई से विरक्त नहीं रहा है, और आजादी की इस लड़ाई के हीरो गांधी हैं। गांधी अंग्रेजी शिक्षा लेकर आए थे लेकिन उनकी भारतीयता जनता की नजरों में असंदिग्ध थी। संथाल लोकगीत में गांधी मुक्तिदाता के रूप में याद किये जाते हैं-'है माँ, पश्चिम दिशा से गांधी बाबा आये हैं।/उनके हाथ में कानून की पोथी है।/उनके माथे पर खद्दर की टोपी है।/उनके कंधे पर मोटा गमछा है।/हे बंधुगण, सुनो।/वे हम लोगों को बचाने के लिए आये हैं।' ('चेतान दिसम् खुन गांधी बाबाये दराए कान/तीरे तापे नायोगो कानुन पुथी/बहक् रेताए खद्दर टोपरी/तारिन रेताए नाया गो मोटा गमछा/माहो दिसम् रेन मानवाँ वंचाव/तबोन लगतिए है अकाना।', बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 355) अंग्रेजी साम्राज्यवाद से भारतीय जन की मुक्ति गांधी से ही संभव थी। जनता ने उनके नेतृत्व में अटूट विश्वास व्यक्त किया-'इस बड़ी धरती के ऊपर,/अंग्रेजों ने गहरे गर्त्त की जो सृष्टि रच रखी है,/उसमें हम गिर गये हैं।/हे (गांधी) बाबा, आप इस गहरे गर्त से हमारा उद्धार कीजिए।' (नुमिन मारांग धरती रे गाडा/इंगराज को बेनाब आकात्/गाडा रे दो बाबाञ ञराकना/ गाडा खोन दो बाबा राकाप कङ में/मनिवा होड़ बाबाञ बाञचाब कोआ।', बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 355)

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नारी एक गीत में अपने प्रियतम से कहती है-'मैं भी तेरे साथ चलूंगी, गांधी के जलसे में/यू खरा रुपइया चाँदी का/यू राज महात्मा गांधी का/खद्दर की पहनी तेहल, सुनहले गहने!' (विष्णु प्रभाकर, 'लोक- साहित्य के यायावर', धरती गाती है, परिशिष्ट:तीन, पृष्ठ 209) एक अवधी बिरहा में लोक-कवि ने यह साबित करने का यत्न किया है कि गाँधीजी ने जीन जैसा मोटा कपड़ा अथवा खद्दर पहनने की बुद्धि अँग्रेजों ही से सीखी थी-'अक्किल अँग्रेजन से लीन/कपड़ा पहरो मोटिया जीन/नहीं तो हो जै हो बेदीन।' (बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 359) कांग्रेस में चरखा की ट्रेनिंग देनेवाली औरतें गाती हैं, 'चरखा हमार भतार-पूत, चरखा हमार नाती; चरखा के बदौलत मोरा दुआर झूले हाथी।' (मैला आँचल, पृष्ठ 118) आजादी की लड़ाई के दिनों में बापू के नाम पर यह गीत भी मशहूर था, 'जो पहने सो काते,/जो काते सो पहने।' (मैला आँचल, पृष्ठ 118) गांवों में होली के अवसर पर 'बटगमनी' फगुआ (रास्ते में गाया जानेवाला) के बोल कुछ इस तरह के होते थे-'आई रे होरिया आई फिर से!/आई रे/गावत गाँधी राग मनोहर/चरखा चलाबे बाबू राजेंदर/गूँजल भारत अमहाई रे! होरिया आई फिर से!/वीर जमाहिर शान हमारो,/बल्लभ है अभिमान हमारो,/जयप्रकाश जैसो भाई रे!/होरिया आई फिर से!' (मैला आँचल, पृष्ठ 126) सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के द्वारा होली के अवसर पर कांग्रेस, खद्दर और सुराज से संबंधित जोगीरा तनिक व्यंग्य के साथ गाया जाता था-'बरसा में गड्ढे जब जाते हैं भर/बेंग हजारों उसमें करते हैं टर्र/वैसे ही राज आज कांग्रेस का है/लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़ ...जोगी जी सर...र र...!/जोगी जी, ताल न टूटे/जोगी जी, तीन-ताल पर ढोलक बाजे/जोगी जी, ताक धिना धिन!/चर्खा कातो, खद्धड़ पहनो, रहे हाथ में झोली/दिन दहाड़े करो डकैती बोल सुराजी बोली.../जोगी जी सर ...र र....।' (मैला आँचल, पृष्ठ 125)

गांधी का प्रभाव युवकों पर कितना पड़ा था, यह सर्वविदित है। लोकगीतों का 'दुलहा' भी तिरंगा हाथ में लिए चल रहा है-'बन्ना हमारो गांधी के बस माँ, तिरंगा हाथ में उठा रहा है।' कुलवधू का स्वप्न है कि मेरा प्रिय गांधी के रामराज्य-स्वप्न को पूरा करेगा। भोजन, वस्त्र का उपभोग मिल-बांटकर करेगा-'गांधी तेरो सुराज सपनवाँ हरि मोरा पूरा करिहैं ना।' लोक में गांधी के सुराज का कोई एक रूप नहीं था। अगर झारखंड के आदिवासियों की बात करें तो, आजादी का संघर्ष उनकी स्मृति में परंपरा अनुरूप मानकी-पाहन व्यवस्था की पुनःस्थापना के लिए था। गांधी इसी को लाने जयपाल सिंह के साथ गांधीजी जर्मनी गए थे। किंतु नाथूराम नहीं चाहता था कि पुनः मानकी-पाहन राज हो, इसलिए उसने गांधी को गोली मार दी। (रणेन्द्र/अजय कुमार तिर्की, 'झारखंडी संस्कृति : लोक का आलोक', झारखंड एन्साइक्लोपीडिया, खंड-4, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 2008, पृष्ठ 159-60) जनता इस सुराज का मतलब गांधी-राज भी समझती थी। एक गोंड गीत में-'बादल गरजता है।/मालगुजार गरजता है।/फिरंगी के राज का सिपाही भी गरजता है, हे राम!/हो हो हो...गांधी का राज होनेवाला है।' (अद्दल गरजे बद्दल गरजे/गरजे माल गुजारा हो/फिरंगी राज के हो गरजे सिपाइरा रामा/गांधी क राज होनेवाला हाय रे।', बेला फूले आधी रात, पृष्ठ 356) सुराज के जन्म पर जगह-जगह सोहर भी गाया गया-'जनमा सुराज सपूत त आज सुभ घरिया माँ।/सखिया! जगर मगर भै बिहान, त दुनिया अनन्द भै।/आजु सुफल भई कोखिया, त भारतमाता मगन भई,/घर-घर बाजी बधइया उठन लागे सोहर।/लहर लहर लहराइ, त फहरै तिरंगवा,/गांधी जी पूरिन चौक त मुँ से असीसैं।/आजु जवाहिर लाल, कलस भई थापिन,/सुभ घरी मिला बा सुराज इ जुग जुग जीयै।/बाढ़ै बँसवा कि नाईं त दुबि असि फइलई,/सखिया! देसवा बनै खुसहाल त सब सुख पावइँ।' (विद्याभूषण सिंह, अवध लोकगीत विरासत, पृष्ठ 333) 'मैला आँचल' का बालदेव सुराजी कीर्तन गाता है। लहसन का बेटा सुनरा भी बालदेव का सिखाया कीर्तन 'धन-धन गांधी जी महराज, ऐसा चरखा चलानेवाले' खूब डूबकर गाता है। (मैला आँचल, पृष्ठ 25) चंपारण सत्याग्रह के समय यह गीत भी खासा लोकप्रिय रहा-"चरखा का टूटे न तार,/चरखा चालू रहे।/गांधी बाबा चलले दुल्हा बनके,/दुलहीन बने सरकार चरखा चालू रहे।" (रमेश चंद्र झा, स्वाधीनता समर में सुगौली, पृष्ठ 21; बिनोद कुमार वर्मा, जानकी प्रकाशन, पटना, 1992, पृष्ठ 43।) सुराज और चरखा का संबंध अटूट है-'जब तक फल सुराज नहीं पावें, गाँधी जी चरखा चलावें, मोहन हो? गाँधी जी चरखा चलावें।' (मैला आँचल, पृष्ठ 218) आजादी के बाद का सुराजी कीर्तन देखें, 'कथि जे चढ़िये आयेल/भारथ माता/कथि जे चढ़ल सुराज/चलु सखी देखन को!/कथि जे चढ़िये आयेल/बीर जमाहिर/कथि पर गंधी महराज। चलु सखी.../हाथी चढ़ल आवे भारथमाता/डोली में बैठल सुराज! चलु सखी देखन को/घोड़ा चढ़िये आये बीर जमाहिर/पैदल गंधी महराज। चलु सखी देखन को।' (मैला आँचल, पृष्ठ 224)

गांधी की जय-जयकार लोकगीतों में गूंज उठी थी-'एक छोटी चवन्नी चाँदी की, जय बोल महात्मा गांधी की।' (विद्याभूषण सिंह, अवधी लोकगीत विरासत, पृष्ठ 330) बिहार में बाईजी (नाचवालियाँ) के गीत भी महात्मा गांधी, खादी और चर्खा से अप्रभावित नहीं रह सके-'खादी के चुनरिया रँग दे छापेदार रे रँगरेजवा/बहुत दिनन से लागल बा मन हमार रे रँगरेजवा!/...कहीं पे छापो गंधी महतमा/चर्खा मस्त चलाते हैं,/कहीं पे छापो वीर जमाहिर/जेल के भीतर जाते हैं।/अँचरा पे छापो झंडा तेरंगा/बाँका लहरदार रे रँगरेजवा!' (मैला आँचल, पृष्ठ 228) कभी-कभी जनता की पस्ती और गांधी की अशक्तता भी इन गीतों में व्यक्त होती-'का करें गांधी जी अकेले, तिलक परलोक बसे,/कवन सरोजनी के आस अबहिं परदेस रही।' (मैला आँचल, पृष्ठ 129)
आजादी के बाद गांधी की छवि बदलती है। आप देखें :
'ब्योधा जाल पसारा रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।
झूठ सुराज के फंद रचावल, लंबी-लंबी बतिया के चारा।
मुंह में गाँधीजी के नाम विराजे, बगल में रखलवा दुधारा।
रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।
अरे मोटिया धोती, टोपी पहिन के फिरतवा रँगल सियारा।
जनता के लोहू पीके डकारे, ऐसन सुराज हमारा।।
रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।
महँगी में रोवे जनता, किसनवाँ, मौज करे जमींदारा।
गांधीजी को बेचत चोर बजार में, लीडर, सेठ, साहुकारा।
रे हिरणा, ब्योधा जाल पसारा।' (रेणु रचनावली, भाग 4, पृष्ठ 39; डॉ. रामदेव प्रसाद, 'रेणु की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना', परिषद-पत्रिका (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद), वर्ष 47, अंक 1-4, पृष्ठ 81)