Monday, November 10, 2014

पलासी की नहीं, बक्सर की लड़ाई से आया अंगरेजी राज

पलासी की लड़ाई एवं बक्सर की लड़ाई-अंगे्रज कंपनी और आधुनिक भारत के इतिहास की ये दो राजनीतिक लड़ाइयां काफी निर्णायक रहीं। पलासी युद्ध की तुलना में बक्सर युद्ध के परिणाम कहीं ज्यादा असरदार थे। सच कहें तो पलासी में अंग्रेजों को अपना रण-कौशल दिखाने का मौका भी नहीं मिला। यह बक्सर की लड़ाई ही थी जिसने अंग्रेजी तरीके से प्रशिक्षित सैनिकों की श्रेष्ठता को साबित होने का पहला अवसर प्रदान किया। बक्सर की लड़ाई में भारतीय सैनिक मानसिक रूप से भी पराजित हुए थे और अंग्रेजों की सैन्य-श्रेष्ठता को हकीकत में देखा था।
पलासी युद्ध के बाद अंग्रेज बंगाल में एक कठपुतली नवाब को बनाने में कामयाब हुए थे लेकिन शीघ्र ही उन्हें मीर कासिम की चुनौती का सामना भी करना पड़ा था। किंतु बक्सर युद्ध ने अवध के नवाब एवं मुगल बादशाह को भी अंग्रेजों की शरण में जाने को विवश कर दिया। 1757 की पलासी की लड़ाई से कंपनी का बंगाल में शासन सुनिश्चित हुआ तो 1764 की बक्सर की लड़ाई से अंग्रेजी शासन अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर सका। दिल्ली के कमजोर बादशाह शाह आलम ने सन् 1764 ई. में अंग्रेजों को बक्सर की लड़ाई के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर दीवानी का अधिकार प्रदान किया। इंगलिश ईस्ट इंडिया कंपनी एवं नजमुद्दौला के बीच 20 फरवरी 1765 को हुए एकरारनामे एवं शाह आलम द्वितीय का अगस्त 1765 के दीवानी अधिकार ने अंग्रेजों को बंगाल सुबे का वास्तविक मालिक बना डाला। बर्क ने लिखा है कि ‘भारतीय राजनीति में अंग्रेजों का यह पहला वैधानिक प्रवेश था’। इस तरह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी शासन का इतिहास बिहार से प्रारंभ हुआ।
बक्सर युद्ध के बाद बिहार का शासन मीर जाफर का भाई मिर्जा मुहम्मद काजिम खान राजा रामनारायण के भाई धीरज नारायण की मदद से चला रहा था। किंतु माहौल अव्यवस्थापूर्ण था। अंदर-अंदर शासन की कई धाराएं काम कर रही थीं। पटना में अंग्रेजी फैक्ट्री का प्रधान विलियम बिलियर्स, जो एलीज का उत्तराधिकारी था, स्थिति का गांभीर्य एवं चतुराई के साथ मुकाबला करने में अक्षम साबित हो रहा था जबकि नये राजनीतिक परिवर्तन के बाद उसकी स्थिति पहले की तुलना में काफी बेहतर हो चली थी। एक तरफ शासन की कमजोरियां और दुश्वारियां थीं तो दूसरी तरफ कंपनी के देशी-विदेशी कर्मचारियों का अनियंत्रित लोभ राजनीतिक अस्थिरता को हवा दे रहा था। लार्ड क्लाइब ने तत्कालीन स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘बंगाल में लूट, भ्रष्टाचार, भ्रम आदि की जो स्थिति बनी हुई है, ऐसी स्थिति के बारे में मैंने पहले कभी नहीं सुना।’
सितंबर 1765 में, पटने में अपने पड़ाव के दौरान क्लाइब ने बिहार के शासन में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया। उसने मीर मुहम्मद काजिम को हटाकर महज पेशनयाफ्ता बना दिया एवं उसके स्थान पर धीरज नारायण को बिठा दिया। राजा सिताब राय को दीवान नियुक्त किया गया। 1766 के आरंभ में धीरज नारायण, सिताब राय एवं सैमुअल मिड्लटन की एक समिति गठित कर दी गई। पटना फैक्ट्री के प्रधान बिलियर्स को हटाकर मिड्लटन को नियुक्त किया गया। उसने अपने अधिकारों का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल करते हुए स्थिति को नियंत्रण में लाने की भरसक कोशिश की।
यह पहला अवसर था जब बिहार में राजस्व एवं अन्य बकाया राशि की वसूली के लिए अंग्रेजी सैन्य बल का प्रयोग होने लगा। बेतिया के जमींदार राजा जुगल किशोर को 24 जुलाई 1765 को गवर्नर ने लिखा, ‘मीर कासिम के जमाने में आप शाही खजाने में जमींदारी से प्राप्त आय से छः-सात लाख रुपये जमा करते थे। मुझे सूचना मिली है कि इन दिनों आप केवल कुछ लकड़ी भेजकर ही काम चला रहे हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि अगर आपने अविलंब सारे बकायों की अदायगी नहीं कर दी तो आपसे निपटने के लिए शीघ्र ही अंग्रेजी सेना कूच करेगी।’ राॅबर्ट बार्कर को इस काम को अंजाम देने के लिए 1766 के आरंभ में पटना से बेतिया भेजा गया। कहना न होगा कि राॅबर्ट बार्कर को बेतिया के किले को ध्वस्त करते हुए किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। सुरक्षा के कारणों से जुगल किशोर चुपचाप बेतिया छोड़ बुन्देलखण्ड जा चुके थे। कंपनी सरकार ने जुगल किशोर की अनुपस्थिति में ही बेतिया राज का जिम्मा शिवहर के कृष्ण सिंह व मधुबन के अवधूत सिंह को सौंप दिया। यह प्रबंध संतोषजनक न होने से एवं एडवर्ड गोल्डिंग के सुझाव के बाद 1771 में पुनः जुगल किशोर सिंह को जमींदारी लौटा दी गई। लेकिन अंततः जुगल किशोर पर राजस्व अदायगी में बरती गई अनियमितता का हवाला देते हुए उनकी जमींदारी सीधे कंपनी के अधीन कर ली गई। ‘कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स’ ने ‘कौंसिल’ (कलकत्ता) को 4 मार्च 1767 को लिखा कि ‘बेतिया व्यापार में निवेश के लिए हर संभव आवश्यक साधन मुहैया कराने में मददगार साबित हो सकेगा।’ बार्कर ने भी लिखा कि बेतिया व्यापार के क्षेत्र में कंपनी के लिए असीम संभावनाओं का द्वार खोलनेवाला साबित हो सकता है। इन्हीं प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ‘कौंसिल’ ने ड्रोज नामक कंपनी के एक मुलाजिम को बेतिया में उत्पादित प्रत्येक चीज की जानकारी एकत्र करने की सख्त हिदायत दी।
हथवा राज के जमींदार फतेह सिंह ने कंपनी सरकार को मानने से इनकार कर दिया। वह 1767 में राजस्व की वसूली करने आई कंपनी की सेना के साथ उलझ गया। कंपनी ने हथवा राज को एक साल के लिए अपने अधीन कर लिया और समय-सीमा समाप्त होने पर फतेह सिंह के चचेरे भाई बसंत साही को सौंप दिया।
बिहार में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता से उत्पन्न स्थिति को 1769-70 के भीषण अकाल ने और भी भयावह बना दिया। 1770 के जनवरी में अलेक्जेंडर ने लिखा कि ‘चालीस से साठ लोग प्रतिदिन अन्नाभाव में मौत के शिकार हो रहे हैं।’ अप्रैल माह में स्थिति की भयावता और बढ़ चली। उसने लिखा, ‘जिन्हें प्रत्यक्षदर्शी होने का मौका नहीं मिला है, उनके लिए यह विश्वास कर पाना सहज नहीं होगा।’ केवल पटना में एक दिन में 150 से ज्यादा लोग मरे थे। 9 मई 1770 को बंगाल से ‘कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स’ को भेजे गये पत्र में कहा गया कि ‘लोगों की मौत सारे वर्णन/आंकड़े पार कर चुकी है। पूर्णिया के पर्यवेक्षक डूकारेल ने 28 अप्रैल 1770 को सूचित किया कि ‘वहां से प्रतिदिन 30-40 लोग मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। सच कहिए तो शहर जंगल में तब्दील होकर जंगली जानवरों की शरणस्थली बन चुका है।’ इस आपदा को प्रशासन के नुमाइंदों के लोभ-लालच ने और भयावह बना दिया था। कहना न होगा कि सिताब राय पर भ्रष्टाचार, सरकारी खजाने की लूट एवं अकाल के दौरान बंदइंतजामी के संगीन आरोप लगाये जा चुके थे।
द्वैध शासन से उत्पन्न बुराइयों को दूर करने एवं तत्कालीन व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन के ख्याल से ‘कोर्ट आॅफ डायरेक्टर्स’ ने हेस्टिंग्स को गवर्नर नियुक्त किया। सिताब राय के निधन के बाद उनके सुपुत्र कल्याण सिंह को हेस्टिंग्स के द्वारा सितंबर 1773 में पचास हजार रुपये के सालाना वेतन पर दीवान नियुक्त किया गया। साथ ही, खेयाली राम व साधु राम को कल्याण सिंह के मातहत नाइब दीवान नियुक्त किया गया। लेकिन तब भी बक्सर की लड़ाई से उत्पन्न ‘अस्थिरता’ को दूर नहीं किया जा सका।