Saturday, November 20, 2010

आखिर किसे कहोगे क्रूरता ?

जब भी मुझसे कोई क्रूरता की शिनाख्त करने को कहता है तो मैं अपने को बेहद उलझा हुआ महसूस करता हूं। विचार थिर होने का नाम ही नहीं लेते। समझ में नहीं आता कि किसे क्रूरता की श्रेणी में रखूं और किसे बख्श दूं। दिमाग में ऐसा गड्डमड्ड होता है कि आखिर को मैं फिर से सवाल पर लौट आता हूं कि आखिर किसे कहोगे क्रूरता ? लेकिन इस दौरान जो कुछ चित्र बनते हैं, दृश्य उपस्थित होते हैं, वे अर्थकर लगते हैं।

बचपन की वो धुंधली यादें हैं जिनमें मेरे दरवाजे पर कोई अपरिचित पहुंचता तो दादाजी पहले और अंतिम सवाल की तरह पूछते ‘आपका आश्रय (मूल में यह शब्द वर्णाश्रम या फिर आश्रम रहा होगा) कौन-सा है ?’ यद्यपि उन दिनों यह बात कुछ बुरी नहीं लगती थी क्योंकि मुझे सवाल ही समझ में न आते थे। लेकिन इतना अवश्य समझता था कि अलग-अलग लोगों को अलग-अलग स्थानों पर बैठाते एवं उनके साथ पेश आने के उनके तरीके भी अलग-अलग होते थे। कुछ खास लोग ही होते जिनकी पहुंच खाट या चौंकी तक हो पाती वरना अधिकतर तो मिट्टी ही की फर्श पर बैठकर अपने को धन्य समझते। प्राचीन इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते जब मैंने प्राचीन समाज-व्यवस्था में इसी तरह की बंदिशें शूद्रों और महिलाओं के संदर्भ में देखीं और उसे अमानवीय पाया तो अपने दादाजी के ‘सदाचार’ का अर्थ समझ में आया। बहुत ही सरल, सहज और अल्पज्ञात दादाजी अक्सर कहते ‘हिंदू बढ़े नेम से मुसलमान बढ़े कुनेम से।’ इसका भी ध्वन्यार्थ अब ही जाकर समझ में आया है।

फिर मैंने पिता को देखा। अत्यंत छोटे किसान। एक बड़े संयुक्त परिवार में अपने हिस्से की उतनी ही जमीन जितनी पिता खेत में काम करनेवाले एक हलवाहे को देते थे। मैंने अक्सर पाया कि मजदूर अगर काम से लौटकर अपनी मजदूरी की मांग करता तो पिता खुदरा पैसे (रेजगारी) न होने की बात कह मजदूर को अगले दिन के लिए टाल देने की भरसक कोशिश करते। मुझे अपने पिता की यह बात बहुत बुरी लगती। इधर कई सालों तक लगातार मैंने पब्लिक स्कूलों में पढ़ाया और कई तरह के अनुभवों से अपने को समृद्ध होता पाया। पटने के पब्लिक स्कूलों में मालिक हमेशा शिक्षकों को वेतन देने में टाल-मटोल करते हैं। शायद कोई मौद्रिक लाभ होता है इससे। और तो और यह भी परंपरा है कि शिक्षकों को चेक के द्वारा मालिक से वेतन-भुगतान होता है और एक नियत राशि अपने पास रखकर शेष राशि शिक्षक पुनः मालिक को लौटा देता है। पब्लिक स्कूलों की बात रहने दें। सरकारी शिक्षकों एवं अन्य सरकारी कर्मचारियों की बात करें। क्या उनके हिस्से के पैसे रोककर नहीं रखे जाते ? आज कितने लोगों को यह बात क्रूरता या क्रूरता-सी लगती या लग सकती है ?

इधर हाल तक एक गीत की कुछ पंक्तियां मुझे सुनायी पड़ती रही हैं। मैं कभी गाने का कोई शौकीन नहीं रहा इसलिए उसका गद्यार्थ ही आपको कह सकता हूं। भावार्थ है कि मुझसे प्रेम न करो कोई बात नहीं लेकिन किसी और को चाहने पर मुश्किल होगी। मैं गीत के इस टुकड़े पर बार-बार रूकता रहा हूं और सोचता हूं कि क्या यह वही या कुछ-कुछ उसी के जैसा है जिसे आप क्रूरता कहते हैं ? हाल ही की बात है कि मैं एक महिला मरीज को लेकर आंख के डाक्टर के पास गया हुआ था। उस मरीज को निकट-दृष्टि-दोष था। डाक्टर ने आंखों की जांच के उपरांत बताया कि यह बीमारी दूर की चीजों को न देखने के अभ्यास की वजह से पैदा हुई है। पहली दफा में तो मैं इस बात का मतलब ही नहीं समझ पाया। कई दिनों के निरंतर प्रयास के बाद जाकर इसका मर्म समझ में आया। क्या आपको लगता है कि पुरुष प्रधान समाज की यह भी कोई क्रूरता है जहां एक औरत को महज देखने तक का भी अधिकार नहीं है। क्या गांधारी की आंखों की पट्टी सिर्फ गांधारी के लिए थी या प्रतीक रूप में संपूर्ण महिला वर्ग के ऊपर लगी बंदिश को प्रतिबिंबित करती है ? एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में कुल नेत्रहीनों तथा मोतियाबिंद के शिकार लोगों में से दो तिहाई महिलाएं हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ रोग विशेषज्ञ डा. लीवी एस मूर्ति ने कहा कि विश्व भर में नेत्र रोगों तथा नेत्रहीनता के शिकार लोगों में से महिलाओं की संख्या सर्वाधिक होने का एक प्रमुख कारण यह है कि महिलाओं और लड़कियों के उपचार में भेदभाव बरता जाता है जिसे बंद किया जाना चाहिए। आनेवाले समय में लड़कियां अगर आंखों की रोशनी के बगैर पैदा हों तो क्या आश्चर्य!

बल्कि हमने तो प्रबंध कर रखा है कि लड़कियां पैदा ही न हों। एक समय था कि लड़की के पैदा होते ही उसे मार डालने के उपक्रम पर विचार होने लगता था। आज हम ‘मध्ययुगीन बर्बरता’ कहते हुए उसकी भर्त्सना करते हैं। भला क्यों नहीं! आधुनिक/उत्तर आधुनिक समय में हमारी क्रूरता भी आधुनिक/उत्तर आधुनिक होनी चाहिए! नये जमाने के नये औजार। आज हम उसकी हत्या जन्म लेने से पहले करते हैं। बिल्कुल थोड़ी-सी सावधानी जीवन भर आसानी वाली शैली में। इसलिए भी कि जन्म लेने के बाद हत्या करने पर न चाहने पर भी थोड़ी-बहुत चिल्ल-पों हो ही जाया करती है। आपको याद ही होगा कि रूपकुंवर सती-कांड के दौरान और बाद में भी इस ‘भद्रजनीय’ समाज ने कितना गला फाड़ा था। इसलिए ज्यादा बखेड़ा खड़ा करने की परेशानी से बचने के लिए ही लोगों ने कन्या-भ्रूण-हत्या जैसी चीज की ईजाद की। इस खोज ने मीडियाकर्मियों को भी चपत लगाई है। बेचारे सतीकांड का लाइव टेलीकास्ट दिखाने से वंचित रह जायेंगे।

इस क्रूरता को आधुनिक कहने का एक बाजिव तर्क यह भी है कि आधुनिकता का पाठ पढ़े लोगों के बीच यह पद्धति कुछ ज्यादा ही प्रचलित है। आंकड़े बताते हैं कि कन्या-भ्रूण-हत्या की दर गांवों से ज्यादा नगरों की एवं नगरों से ज्यादा महानगरों की है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ वाले देश की संसद जिस नगरी में लगती है, इसकी दर सबसे ज्यादा है। इससे भी ज्यादा पुष्ट प्रमाण यह है कि दिल्ली के उन इलाकों में कन्या-भ्रूण-हत्या ज्यादा है जहां के लोग ज्यादा शिक्षित/आधुनिक हैं। जिनकी शिक्षा जितनी अधिक व आधुनिक है वे उतने ही अधिक इस तरकीब का प्रयोग करते हैं। कुछ दिनों पहले जब मैंने एक दिल्लीवासी से कहा कि दिल्ली के विश्वविद्यालयों तक में यौन-शोषण/यौन-उत्पीड़न होता है तो कहने लगे ‘दरअसल बिहार में यह सब ज्यादा होता है लेकिन दबा-दबा रहता है। दिल्ली में चूंकि राजनीतिक चेतना ज्यादा है इसलिए प्रकट हो जाता है।’ उस देश में जहां पालतू जानवरों तक को जोड़ा में रखने का विधान है; यानी अगर आप केवल नर या केवल मादा पालते हैं तो कानून की नजर में आप अपराधी हैं। संवेदना की ऐसी पराकाष्ठा! और दूसरी तरफ कन्या-भ्रूण-हत्या। इसे क्या कहेंगे आप ?

कुछ साल पहले तक मेरे एक मित्र हुआ करते थे। नाम था शैलेन्द्र कुमारकुमार साहब ने एक दिन आंख के डाक्टर के पास साथ चलने को कहा। मैं गया भी। डाक्टर ने उन्हें चश्मे का प्रयोग करने की सलाह दी। चश्मा बनवाया गया। अब उसे पहनने की बारी थी इसलिए पिता को पहले ही से तैयार करना जरूरी था। उन्होंने पिता को चश्मा दिखाया। पिता ने चश्मा अपने कब्जे में कर लिया और रोजाना एक किलो पालक साग खरीदकर लाने का आदेश दे डाला। मेरे मित्र बेचारे चश्मा नहीं पहन पाये। बाद में उनकी आंखों का क्या हुआ मुझे नहीं मालूम क्योंकि फिर हम अलग रहने लगे। मैंने पब्लिक स्कूल में भी एक मुस्लिम छात्र को पिता के भय से चश्मा न पहनने की बात देखी थी। खुद मैं जब पहली बार ऐनक के साथ घर गया और अंधेरे में पड़ी बाल्टी से टकरा गया तो एक आदमी ने टिप्पणी की थी ‘रातो में चश्मा पहने के कउन सौख है।’ यह सुनकर जो मुझे गुस्सा आया था उसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। पत्नी को चश्मा पहनवाने में भी मुझे मशक्कत करनी पड़ी। गांव में जरूरतमंद लड़कियां केवल इस डर से चश्मा नहीं लगातीं कि शादी तय होने में यह बात परेशानी पैदा कर सकती है। ऐसे में उन लड़कियों की आंखों का क्या होता होगा शायद आप भी समझते होंगे। गांव में मेरे पड़ोस में एक लड़की है जिसकी चश्मा न लगाने की वजह से आंख ही बैठ गई। हमें अपने बचपन की वो बात याद है जब चश्मा पहनने वाले किसी भी आदमी को ‘चश्मा-चश्मल्लू’ कह चिढ़ाते। उन दिनों बच्चों का यह एक प्रिय खेल की तरह होता। क्या इसे भी आप क्रूरता ही कहेंगे ?

मैंने श्रीकांत वर्मा की पत्नी का कभी किसी पत्रिका में संस्मरण पढ़ा था। उसमें श्रीकांत वर्मा की बीमारी (अंतिम दिनों की) और मृत्यु का हाल छपा था। कवि श्रीकांत वर्मा बीमार थे और सरकारी खर्चे से शायद इंगलैंड में इलाज चल रहा था। बीमारी कुछ ऐसी थी कि डाक्टर ने बचने की किसी भी संभावना से इनकार कर रखा था। साथ ही उन्हें असह्य पीड़ा भी थी। पत्नी को भी उनकी पीड़ा असह्य लगी और डाक्टर एवं दवा की सहायता से कवि को उस पीड़ा से हमेशा के लिए मुक्त कर दिया गया। इस बात को पढ़ते हुए मुझे एक मानसिक आघात-सा लगा था लेकिन जल्द ही संभल गया। पत्नी द्वारा लिया गया निर्णय मुझे बौद्धिक एवं साहसपूर्ण लगा था। भारतीय कानून एवं मानस के लिहाज से यह एक जघन्य अपराध था। यहां आज भी इच्छा-मृत्यु का अधिकार नागरिकों को प्राप्त नहीं है। इसकी बात तो दूर ही रखें। गरीबी, भुखमरी, कुपोशण आदि तक को आप किसी व्याधि का नाम जीवित रहते नहीं दे सकते। शायद उसके लिए आपको पहले मृत्यु-प्रमाण-पत्र हासिल करना होगा। नागार्जुन की कविता ‘प्रेत का बयान ’ का शायद यही निहितार्थ है। आप भूख से मरें किंतु भुखमरी का नाम न लें। अगर ऐसा करते हैं तो आप दंडनीय अपराध करते हैं। इसके लिए भारतीय दंड संहिता का विधान है। आपके बच्चे अगर विकलांग पैदा होनेवाले हैं, और आप पालने में असमर्थ हैं तो सामूहिक आत्महत्या करें। दूसरा कोई विकल्प नहीं। भारतीय कानून आपको ‘क्रूर’ होने का अधिकार प्रदान नहीं कर सकता !

कुछ साल हुए जब कुंभकोणम में सैकड़ों स्कूली बच्चे जलकर बुरी तरह से मरे थे। बच्चों के बीच खासे ‘लोकप्रिय’ तत्कालीन वैज्ञानिक राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद की उन्हीं दिनों अंग्रेजी अखबार ( संभवतः ‘दि हिन्दू’ ) में एक कविता आई थी जिसमें ईश्वर से प्रार्थना थी कि उन बच्चों के अभिभावकों को वे दुख बर्दाश्त करने की ताकत दें। इस कविता को पढ़कर मेरा सिर भन्ना गया था कि एक राष्ट्रपति, जिसे मालूम है कि दुख के कारण क्या हैं और जिन्हें वह चाहे तो पल भर में दूर कर सकता है, वह हिंदी कवियों (अपवाद यहां भी हैं ) की तरह कविता लिखने बैठा है ! मुझे नहीं मालूम कि आप क्या सोचते हैं। इस क्रूरता की शिनाख्त आपने की अथवा नहीं?

सन् 1997 के इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी में अशोक वाजपेयी का प्रकाशित संस्मरण ‘तुम भी, मैं भी आदमी’ पढ़कर मन कड़वाहट से भर गया था। वाजपेयी जी, मुक्तिबोध के साथ रेल-यात्रा पर हैं। उन्होंने लिखा है, ‘बीच में जब मानिकपुर स्टेशन आया तो जाड़े की रात और ठंडी हो चुकी थी। वहां जंक्शन होने के कारण गाड़ी काफी देर ठहरी। हमलोग इलाहाबाद से रात के खाने का कोई इंतजाम कर के नहीं चले थे। मुक्तिबोध ने कहा, ‘‘पार्टनर, आपने स्टेशन पर मिलने वाली पूरी-सब्जी कभी खाई है। बड़ी स्वादिष्ट होती है, चलिए लाते हैं।’’ हम दो दोनों में आलू की सब्जी और पूरियां ले आए। आलू की सब्जी रसेदार थी और उसमें रसाधिक्य इतना था कि तलहट में कहीं कुछ आलू होने का संदेह जरूर होता था पर वह वहां भी था नहीं। पूरियां किसी कदर ठंडी, चीमड़ और खासी सख्त थीं, मैंने देखा मुक्तिबोध बहुत स्वाद लेकर उन्हें रसे में भिगोकर खा रहे थे। मुझसे इतनी सख्त पूरियां चबाई ही नहीं जा रही थीं। पर उस बारे में कुछ कहना बल्कि उन्हें पसंद न कर पाना मुक्तिबोध के आगे मुझे कुछ अश्लील-सा लगा। मैंने थोड़ा-बहुत खाकर उनकी नजर बचाकर बाकी चलती ट्रेन की खिड़की के बाहर फेंक दी। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने यह लक्ष्य किया कि मेरे हाथ खाली हैं तो बोले कि ‘‘आप जल्दी खा गए-स्वादिष्ट इतनी है कि क्या कहा जाए।’’ तब यह पढ़कर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा था। आज की बात आप जाने।

महादेवी वर्मा ने देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के घर का हाल लिखा है। उनके घर का रिवाज था कि कोई अतिथि घर आते तो उनकी पत्नी पैर छूकर प्रणाम करतीं। उनकी इस अतिरिक्त की शिष्टता से रीढ़ की हड्डी ने सीधा रहने से इनकार कर दिया था। संभव है कि यह भी आपको सदाचार का एक अति सामान्य और शिष्ट नियम लगे लेकिन मुझे ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से क्रूरता की गंध आती है। मजेदार बात यह है कि इन बातों का हमें इस कदर आदती बना दिया जाता है कि इसमें कोई बुराई नजर ही नहीं आती। स्वयं भोक्ता को भी नहीं। आपको यह जानकर कितनी तसल्ली होगी कि बिल्कुल हाल के एक सर्वेक्षण से यह बात उभर कर आई है कि पत्नियां अपने पति द्वारा पीटे जाने को तनिक बुरा नहीं मानती हैं। मैं तो कहूंगा कि यह क्रूरता की पराकाष्ठा है इस खतरे को भांपते हुए कि आप मुझे मनोरोग का ‘केस’ न समझ लें। अगर नहीं, तो आखिर किसे कहोगे क्रूरता?

प्रकाशन: मनोवेद डाइजेस्ट , अक्तूबर-दिसंबर, २००९.

Wednesday, November 17, 2010

शोध के बहाने कुछ ‘मौलिक‘ बातें

नवीन तथ्यों की खोज, जो कि अक्सर संभव नहीं है, को बाद कर दें तो शोध मूलतः कट-पेस्ट ही है. किसे कट कर देना है और किसे कहाँ पेस्ट- इसका विवेक ही हमें ‘मौलिक’ और ‘विशिष्ट’ बनाता है. इसी विवेक से हमें यह भी पता चलता है कि कहाँ कट करना है और कहाँ पेस्ट. अबतक के सारे शोध कमोबेश यही बताते हैं. हाँ, उनमें इसी विवेक तत्त्व का अंतर देखा जाता है. चीजों को किस क्रम में आप सजाते हैं यहीं आपकी रूचि और आपके दृष्टिकोण का पता चलता है. यह क्रम ही है जो आपके विचारों को एक शक्ल और अभिव्यक्ति देता है. कई बार महज इस क्रम को बदल देने से, तथ्यों में हेरा –फेरी किये बिना, दूसरे ही अर्थ उद्भाषित होने लगते हैं. इस क्रम से तथ्यों/कारणों में एक तारतम्यता बनती है. यह तारतम्यता महत्वपूर्ण है. इसे एक उदहारण के द्वारा हम शायद और आसानी से समझ सकते हैं. मान लीजिए, किसी घटना के आप पांच कारण बता रहे हैं. इन पांचों का आपने क्रम का ध्यान दिए बगैर महज उल्लेख कर दिया है. एक दूसरा शोधार्थी उन्हीं पांच कारणों को एक नए क्रम में सजा सकता है जिससे वह यह भी दिखा सकता हो कि कौन एक मूल कारण अन्य कारणों को जन्म दे रहा है. क्योंकि मूल कारण एक ही होता है, बाकी उसी कारण का परिणाम होते हैं. कारणों के इस क्रम को दिखाना ही एक शोधार्थी की अपनी विशिष्टता और मौलिकता है. ध्यान रहे कि यह मौलिक शोधार्थी भी उन्हीं पांच कारणों को कट–पेस्ट कर रहा है. इससे ज्यादा मौलिकता का अक्सर मुझे इतिहास, साहित्य के बड़े नामवर शोधार्थियों में भी अभाव दिखता है. इतिहास में मैं कोसंबी, रोमिला थापर के बाद रामशरण शर्मा को एक बड़े शोधार्थी-इतिहासकार के रूप में देखता था. उनकी किताब-‘मटेरिअल कल्चर एंड सोशल फोर्मेशंस’ को बड़े चाव, विश्वास और आदर के साथ पढ़ता था. सोचता था कि प्राचीन भारतीय इतिहास का इससे बढ़िया मार्क्सवादी लेखन फ़िलहाल संभव नहीं. मैं आपको बताऊँ कि मोरिस विन्तेर्नित्ज़ की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर ' पढ़ने के बाद शर्मा जी की किताब के बारे में मेरी धारणा बदल गई. मजेदार है कि विन्तेर्नित्ज़ को पढ़ते हुए हमेशा ही लगा कि मैं प्रोफ़ेसर आर. एस. शर्मा को पढ़ रहा हूँ. इतने आधुनिक/समकालीन हैं विन्तेर्नित्ज़. इसी बात को दूसरे शब्दों में कहें कि दोनों लेखकों में फासला बहुत ही कम का है.

इस कटपेस्ट वाले लेखन से बाहर की दुनिया में भी हमारी मौलिकता की मांग एकदममौलिकनहीं हो सकती. इसका जरूरत से ज्यादा आग्रह निरंतरता का नकार हो शायद. डार्विन का महान विकासवादी सिद्धांत को भी इसी निरंतरता में देखा जाना चाहिए. यह खोज एक अकेले डार्विन की उपलब्धि नहीं है, बल्कि उन्हीं के परिवार के कई लोग इस विषय पर काम करते हुए इनसे पहले अपना योगदान दे चुके थे. मार्क्स, जो बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े और सबसे क्रांतिकारी विचारक हुए, वे भी अपने को एकदम मौलिक नहीं मानते. उन्होंने भी केवल इतना ही किया कि अबतक जो चीजें सिर के बल खड़ी थीं उसे पैर के बल खड़ा किया. परंपरा और परिवर्तन के बीच इतना ही मौलिक हुआ जा सकता है. इससे ज्यादा मौलिकता की मांग विशुद्ध कल्पना होगी जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होगा. इससे ज्यादा मौलिक वही हो सकता है जिसे अपने जीवनकाल में कुछ लिखना हो. इससे ज्यादा मौलिकता तो शायद स्वयं प्रकृति में भी संभव नहीं है. यहाँ भी एक क्रम है. हम बंदरों के बगैर मनुष्य की कल्पना नहीं कर सकते. हम इतने ही मौलिक हैं कि आज भी किसी को बचकानी हरकत करते देख झट उसकी तुलना बन्दर से कर देते हैं. हमारी कई हरकतें आज भी हमेंबन्दरहोने का अहसास करा जाती हैं. रजनीश (उन्हें भगवान माननेवाले मुझसे नाराज होने का सुख उठा सकते हैं) होते तो कहते, हमसे कहीं ज्यादा मौलिक तो बन्दर थे जिसने आदमी पैदा किया और आदमी है कि अपनी कार्बन कॉपी देकर ही मौलिक होने– करने का ढोंग रच रहा है. यहढोंगही मौलिक हो शायद !

Sunday, November 14, 2010

नेहरु और भारतीय भाषा-साहित्य


किसी को यह बताने की जरूरत नहीं कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जितने बड़े राजनेता थे, उतने ही बड़े रचनाकार भी। एक ओर उन्होंने जहां अपने राजनीतिक चिंतन से समाज को सुंदर बनाने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर मेरी कहानी, हिन्दुस्तान की कहानी तथा विश्व इतिहास की झलक जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियों से अपनी रचनात्मक प्रतिभा की भी धाक जमायी।

हिन्दुस्तान की कहानी विश्व साहित्य की अत्यंत ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय पुस्तकों में से एक है। यह किताब नेहरु जी ने अहमदनगर किले के जेलखानों में अप्रैल से सितंबर 1944 के पांच महीनों में लिखी थी। जेल की तंग दीवारों के बीच कैद होने पर भी पंडित जी इस पुस्तक मेंभारत की खोजकी अनंत और दुर्धर्ष यात्रा पर निकल पड़ते हैं। इतिहास के विविध दौरों से परिचय कराते हुए वह इसे आधुनिक काल और उसकी बहुमुखी समस्याओं तक ले जाते हैं और फिर भविष्य की झांकी दिखाकर हमें खुद सोचने-समझने को प्रेरित करते हैं। नेहरु जी की दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक मेरी कहानी (सस्ता साहित्य मंडल ने हिंदी में आत्मकथा इसी नाम से प्रकाशित की है) भी जून 1934 से फरवरी 1934 के बीच जेल ही में लिखी गई और विश्व इतिहास की झलक जेल से लिखे पत्रों का एक शानदार संकलन है। जेल ही से लिखे पत्रों का एक छोटा किंतु अतुलनीय महत्त्व का संकलन पिता के पत्र पुत्री के नाम (इसका अनुवाद प्रेमचंद ने किया है ) भी है। इस संकलन के पत्र नेहरु, इंदिरा को तब लिखे थे जब वह मात्र नौ-दस वर्ष की बालिका थी। इन पत्रों के माध्यम से नेहरु जो विषय/प्रश्न उठाते हैं वे बड़े ही गंभीर हैं। अपनी इतिहास-दृष्टि विकसित करने नेहरु की इतिहास-दृष्टि को समझने के लिए यह पुस्तक अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। यूरोपीय इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में जिस तरह एच। जी। वेल्स, कालिंगवुड और क्रोसे हैं, भारत में नेहरु का भी वही स्थान रहेगा।

इन तथ्यों से दो बात खुलकर सामने आती हैं-पहली यह कि एक राजनेता के अंदर बहुत बड़ा और एक अत्यंत ही सौम्य लेखक छिपा था, जो अवकाश पाते ही अभिव्यक्ति के लिए बेचैन हो उठता था, और दूसरी, कि अपने राजनैतिक जीवन में वे इतने अधिक सक्रिय थे कि लेखक बेचारा टुकुर-टुकुर मुंह ताकता रह जाता था। कहना होगा कि नेहरु की लगभग तमाम रचनाएं जेल के कठिन जीवन के बीच की हैं, लेकिन मजे की बात तो यह है कि जेल के वातावरण की उदासी उनकी रचनाओं को छू तक नहीं सकी। अलबत्ता उन्हें जेल की तंग दीवारों और कठोर अनुशासन वाले माहौल में भी पहाड़ और चांद की याद बराबर सताती है। यह बात नेहरु का एक असाधारण लेखक होना साबित करती है। फिर उनकी रचना की भाषा भी अत्यंत काव्यमयी है। उनका गद्य कविता-सा आनंद लेते हुए पढ़ा जा सकता है। ऐसी रचनाशीलता और लयात्मकता विश्व-गद्य-साहित्य में भी दुर्लभ ही है।

नेहरु का साहित्यिक अंतर्मन आजीवन बड़ी बेचैनी से अंधेरे के खिलाफ रोशनी की तलाश करता है। फलतः स्वतंत्र भारत में, 1954 . में संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी और ललित कला अकादमी के रूप में नेहरु की तीन मानस-पुत्रियों का जन्म हुआ। इन अकादमियों की स्थापना के पीछे नेहरु के दो विचार (सदिच्छा) महत्त्वपूर्ण ढंग से काम कर रहे थे। प्रथम कोटि के विचार स्वयं नेहरु के शब्दों में, ‘भारतीय साहित्य के विकास के लिए कार्य करनेवाली एक राष्ट्रीय संस्था जिसका उद्येश्य होगा ऊँचे साहित्यिक मूल्य कायम करना, सभी भारतीय भाषाओं में जो साहित्यिक कार्य हो रहे हैं, उन्हें आगे बढ़ाना और उसमें मेल पैदा करना और इस प्रकार से देश की एकता को सुदृढ़ करना।दूसरा विचार मानवीय मूल्यों से ज्यादा प्रेरित लगता है। उन्हें भारतीय लेखक की आर्थिक विपन्नता और उससे उत्पन्न मानसिक दासता की पूरी कल्पना थी। इसी कारण से उन्होंने संसद में कई लेखकों को नामित भी किया था। कांग्रेस पार्टी का सदस्य होते हुए भी कई दार्शनिकों, बौद्धिकों और अर्थशास्त्रियों को अपने मंत्रिमंडल और राष्ट्र-रचना के दूसरे प्रमुख कार्यों में स्थान दिया।

इतना ही नहीं, जवाहरलाल नेहरु अपने निजी फंड से आर्थिक दृष्टि से कमजोर या बीमार और साधनहीन कलाकारों-साहित्यकारों को नियमित मासिक सहायता-राशि भेजते थे। डा. प्रभाकर माचवे ने ऐसे लेखकों की एक विस्तृत सूची बनायी है, जिनमें काजी नजरूल इसलाम और एम. एन. राय तक शामिल हैं।

कला अकादमियों की स्थापना नेहरु की लेखकीय प्रतिबद्धता को भी प्रमाणित करती है। जिस समय भारत में नया संविधान लागू होकर सन् 1952 में सार्वजनिक चुनाव होनेवाला था उन्हीं दिनों कांगेस की ओर से तैयार किये गये घोषणा-पत्र के प्रारूप में साहित्य, कला, संगीत तथा नाटक आदि सभी ललित विषयों का उन्नयन एवं विकास करने की चर्चा अत्यंत महत्त्वपूर्ण शब्दावली में की थी। चुनाव-घोषणा-पत्र का यह प्रारूप गहन विचार-विमर्श के बाद स्वीकृत हुआ और कांग्रेस इसी आधार पर चुनाव भी लड़ी। आज का कोई प्रधानमंत्री या राजनीतिक दल ऐसे सवाल को आधार बनाकर चुनाव के मैदान में आयेगा, सोचा तक नहीं जा सकता। नेहरु जैसा कोई सच्चा और प्रतिबद्ध लेखक ही ऐसा कर सकने की हिम्मत प्रदर्शित कर सकता है।

जिस समय अकादमी की ओर से दस भारतीय भाषाओं की चुनी हुई दस-दस कविताओं का देवनागरी लिप्यांतर और उनका हिंदी अनुवाद भारतीय कविता 1953 नाम से प्रकाशित किया जा रहा था, नेहरु जी उसकी भूमिका तैयार करने में जी-जान से लगे हुए थे। अज्ञेय की प्रिजन डेज एंड अदर पोएम्स, बच्चन की हाउस ऑफ वाईन तथा दिनकर की चर्चित एवं बृहदाकार पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका भी उन्हीं दिनों, और नेहरु ही ने तैयार की थी। इतना ही नहीं, बांगला साहित्य का इतिहास भी नेहरु द्वारा ही लिखित विचारोत्तेजक भूमिका के साथ प्रकाशित हुई थी। नेहरु के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने इतनी पुस्तकों की भूमिका लिखी हो, मुझे नहीं मालूम। साहित्य अकादमी का लक्ष्य सभी भारतीय भाषाओं को विकसित करना और उनमें पारस्परिक सहयोग की भावना को प्रोत्साहित करना था। नेहरु की बहुत ही स्पष्ट राय थी कि हम जितना ही अधिक दूसरी भाषाओं को जानेंगे और समझेंगे, उतना ही अधिक अपनी भाषा का भी मर्म समझ सकेंगे। आज हमें मालूम है कि किसी भी भाषा का विकास दूसरी किसी भी भाषा के सहयोग से ही संभव है। एक भाषा के बढ़ने से दूसरी को भी फायदा पहुंचेगा। उनका आपसी संबंध मुकाबले का नहीं बल्कि सहयोग का होना चाहिए। दूसरे की तरक्की से खुश होना चाहिए, क्योंकि उसका नतीजा अन्ततः अपनी तरक्की होगा। नेहरु ने हमें विस्तृत हवाला देकर बताया कि यूरोप में जब नये साहित्य (अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन) बढ़े, तब साथ-साथ बढ़े, एक-दूसरे को दबाकर या मुकाबला करके नहीं। वे जोर देकर कहते थे कि भारत का जो भी व्यक्ति शिक्षित है या होने का दावा करता है, उसे अपनी भाषा के अलावा दूसरी भाषाओं का भी कुछ ज्ञान होना चाहिए। विभिन्न भाषाओं में लिखे गये श्रेष्ठ और सुप्रसिद्ध रचनाओं का ज्ञान तो होना ही चाहिए।

नेहरु की भाषा-विकास की समझ बिल्कुल स्पष्ट थी। इसीलिए वे हिंदी के विकास को लेकर चिंतित तो होते थे, किंतु किसी दूसरी किसी भाषा की शर्त पर नहीं। यहां तक कि क्षेत्रीय अथवा प्रांतीय भाषाओं तक के स्वतंत्र अस्तित्त्व को वे राजी-खुशी स्वीकार करते थे। उनका यह मानना कितना वैज्ञानिक और व्यावहारिक था कि हर प्रांत के लिए वहां की बोली जानेवाली भाषा ही प्रथम प्राथमिकता है। हिंदी या हिंदुस्तानी राष्ट्रभाषा अवश्य है और होनी भी चाहिए, लेकिन वह प्रांतीय भाषा के पीछे ही सकती है। जहां तक बच्चों की शिक्षा का सवाल है, वे ठीक-ठीक गांधीजी की तरह, मातृभाषा में ही दिये जाने के पक्षधर थे। दूसरे प्रांतों में निवास करनेवाले बच्चों को भी वे उनकी मातृभाषा ही में शिक्षा प्रदान किये जाने के हिमायती थे। मसलन, अगर कलकत्ते में तमिल बोलनेवाले काफी लोग रहते हैं तो उनको यह अधिकार होना चाहिए कि स्कूलों में तमिल द्वारा ही पढ़ाई हो।

संसद में नेहरु जी द्वारा भाषण किये जाने की परिपाटी यह थी कि वे जिस विषय पर बोलनेवाले होते, उस विषय पर अंतिम वक्ता जिस भाषा में बोलता, उसी भाषा में वे जवाब देते। कहना होगा कि पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विदेश नीति पर कभी संसद में चर्चा की थी, तो उनके तर्कों का जवाब एवं खंडन नेहरु जी ने हिंदी ही में प्रस्तुत किया था। राज्यसभा में संभवतः हिंदू कोड बिल पर तारकेश्वर पांडे के तर्कों का जवाब देने के लिए भी नेहरु ने हिंदी भाषा को ही हथियार/माध्यम बनाया था। हिंदी के उत्थान की बात करनेवाली राजनीतिक पार्टियों (इसमें भारत की वामपंथी पार्टियां तक शामिल हैं) की भाषा-नीति की वर्तमान दशा से तुलना करने पर नेहरु की भूमिका एवं उनका हिंदी-प्रेम ज्यादा आसानी से समझ में सकता है।

भारतीय राष्ट्रवाद के दौर में एक समय आया जब हिंदी एवं उर्दू शब्दों के प्रयोग में फर्क महसूस किया जाने लगा। नेहरु की दृष्टि में यह फर्क उस राष्ट्रीय जागृति का प्रतिबिंब था जो हिंदुओं एवं मुसलमानों में पैदा हो रही थी। हिंदुओं ने परिष्कृत/संस्कृतनिष्ठ हिंदी और देवनागरी लिपि पर जोर दिया और मुसलमानों ने उर्दू के बहाने अरबी-फारसी पर। आरंभ में हिंदुओं की राष्ट्रीयता का स्वरूप हिंदू राष्ट्रीयता ही था। इसलिए प्रारंभिक काल में ऐसा कुछ घटना नेहरु के लिएपरिस्थितिजन्यथा। कुछ दिनों बाद मुसलमानों में भी धीरे-धीरे जागृति पैदा हुई। उनकी भी आरंभिक राष्ट्रीयता का स्वरूप मुस्लिम राष्ट्रीयता ही रहा। दुर्भाग्यवश, हिंदी हिंदुओं की एवं उर्दू मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई। नेहरु के लिए हिंदी-उर्दू का यह भेद भाषागत होकर महज राजनीतिक है। उनके लिए दोनों का आधार एक है, व्याकरण भी एक है। वास्तव में दोनों का उद्गम भी एक ही है। उर्दू की लिपि को छोड़कर यदि हम केवल भाषा के लिहाज से विचार करें तो मालूम होगा कि उर्दू हिंदुस्तान के बाहर कहीं भी बोली नहीं जाती है। हां, उत्तरी भारत के बहुत-से हिंदुओं के घरों में वह अवश्य बोली जाती है।

हिंदी-उर्दू के आपसी सहयोग को नेहरु जी विकास के लिए आवश्यक समझते थे। हिंदी या उर्दू में किसी भी एक की शब्द-संपदा को नष्ट करके कभी भी हम अपनी भाषा को समृद्ध नहीं कर पायेंगे। नेहरु के लिए, ‘यदि हिंदी का विकास होता है तो उर्दू का भी होता है और यदि उर्दू का होता है तो निस्संदेह हिंदी का भी।वे तो यहां तक चाहते थे कि हिंदी और उर्दू अपने में विदेशी भाषाओं तक के शब्दों एवं विचारों को शामिल कर ले और उन्हें अपना बना ले। ऐसे शब्दों के लिए जो आमतौर पर अंग्रेजी, फ्रेंच और अन्य विदेशी भाषाओं में बोले जाने लगे हैं, संस्कृत या फारसी के शब्द गढ़ना ठीक नहीं है। लेकिन आज नेहरु की सदिच्छाओं एवं स्वयं भाषा की प्रकृति के ठीक विपरीत हो रहा है। हम विदेशी शब्दों को तो धड़ल्ले से अपनाते चले जा रहे हैं, लेकिन हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं के बोलनेवाले लोग एक-दूसरे के शब्दों से परहेज बरत रहे हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन तक से प्रसारित होनेवाले समाचार-बुलेटिनों में इसका प्रभाव लक्षित होता है।

नेहरु अक्सर यात्रा रेलगाड़ी में ही करते। यात्रा के दौरान जरूरी सामानों में किताबों से भरा एक भारी-भरकम बक्सा अवश्य होता। रेलगाड़ी की यात्रा के पीछे मूल भावना यह थी कि हिंदुस्तान में एक छोर से दूसरे छोर तक जाने में चार-पांच दिनों का जो एकांत और अवकाश मिलेगा, उसमें कम-से-कम किताबों को उलट-पलट सकेंगे। आज के लेखकों (इसमें जनवादी संगठनों केनामवरलेखक तक शामिल हैं) को, जो किसी जलसे में जाने से पहले हवाई जहाज का टिकट और एक बड़ी राशि का चेक अपने नाम करवा लेते हैं, सबक लेनी चाहिए।

प्रकाशन: प्रभात खबर, दिल्ली, रविवार, 12 सितंबर, 2004; पुनर्प्रकाशन: अमर उजाला कॉम्पैक्ट, इलाहाबाद, शनिवार, 14 नवंबर 2009

Friday, November 12, 2010

विज्ञान और हिंदुत्व -एक पाठक के नोट से

भारत में इस बात पर व्यापक तौर पर विश्वास किया जाता रहा है कि धर्म और विज्ञान के बीच, जो संघर्ष यूरोप में मध्यकाल के बाद आरंभ हुआ, वह हमारे देश में नहीं हुआ। सच तो यह है कि हमारे यहां यह बात मानी जाती है कि हमारी वैज्ञानिक खोजें, हमारे रहस्यद्रष्टाओं ने अपनी रहस्यसाधना से की थीं। आज भी कुछ लोग इस विचार को बड़े आत्मविश्वास के साथ प्रतिपादित करते हैं। जैसे ही कोई नया वैज्ञानिक अनुसंधान सामने आता है, वैसे ही वेदांत के अनुयायी यह प्रमाणित करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं कि यह खोज तो हमारे सर्वज्ञ ऋषि ने हजारों वर्ष पहले ही कर ली थी। वैदिक विद्या के एक पुरोधा ने यह प्रमाणित किया था कि आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत उपनिषदों ने बहुत पहले ही खोज लिया था। ‘कुछ तो यह भी दावा करते हैं कि भौतिकी के आज के शोध (उदाहरणार्थ, आइंस्टाइन का ‘आपेक्षिकता का सिद्धांत’) हजारों साल पहले योगसाधना से यहां के ऋषि-मुनियों ने लगाये थे।’ (देखें, एस. जी. सरदेसाई, भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पी. पी. एच, नई दिल्ली, अनुवादक: गुणाकर मुले, हिन्दी प्रथम संस्करण, अगस्त 1979, पृष्ठ 98)।

बल्कि सच्चाई यह है कि हमारे देश में यांत्रिकी और भौतिकी की प्रगति नहीं के बराबर हुई। ऐसा संभवतः श्रम के प्रति घृणा की वजह से हुआ। आस्तीन चढ़ाकर, हाथ काले करके, पसीना बहाये बिना जिस विज्ञान की रत्ती भर भी प्रगति नहीं हो सकती, वह है यांत्रिकी और भौतिकी। और जिन विज्ञानों की प्रगति के लिए सबसे कम शारीरिक श्रम करने पढ़ते हैं वह हैं गणित और ज्योतिष। निरीक्षण और तात्विक चिंतन-ये दो गुण यदि भरपूर हों तो गणित और ज्योतिष की प्रगति हो सकती है। और इस बात में संदेह नहीं कि ये गुण ‘हमारे’ ब्राह्मणों में भरपूर थे (दरअसल, तात्विक विचारशक्ति के गुण से हम इतने अभिभूत थे कि ऐन्द्रिय निरीक्षण से सामने दिखनेवाले जग को साफ मिथ्या ‘सिद्ध’ करने के लिए शंकराचार्य ने जितने तर्क प्रस्तुत किये, उतने संसार के किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं खोजे)। यहां यह कहा जा सकता है कि चिकित्सा, वैद्यक और रसायन की प्रगति के लिए भी आस्तीन चढ़ाकर प्रयोग करने होते हैं। यांत्रिकी के प्रयोगों से भी अधिक हाथ गंदे करने होते हैं। यह एक सच्चाई है।

चिकित्सा और आरंभिक अवस्था के रसायन की कितनी भी जीवन के लिए कितनी भी जरूरत क्यों न हो, तो भी हमारे शुचिर्भूत ब्राह्मणों (धर्मरक्षकों) के लिए ये चीजें अशौच ही थीं क्योंकि दस्त लगे आदमी का उपचार करने का अर्थ है (चिकित्सक चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो) भंगी का भी काम करना। शव-विच्छेदन भी हीन जाति का काम; और चमड़ा कमाने की रासायनिक प्रक्रिया का अध्ययन करने का अर्थ है चमार का काम। चरक और सुश्रुत को वेदान्तवादी ब्राह्मणों का रोष सहना पड़ा तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है। (देखें एस. जी. सरदेसाई, भारतीय दर्शन: वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पी. पी. एच., नई दिल्ली, हिन्दी: प्रथम संस्करण: अगस्त 1979, पृष्ठ 109-10)।

विज्ञान की खोजों की आदिभूमि भारत को मानने की अविवेकी प्रवृत्ति को अंग्रेजी राज के दिनों में और अधिक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अठारहवीं शती में ब्रह्म समाज के अनुयायियों तथा जनता के अन्य प्रगतिशील वर्गों ने पश्चिमी सभ्यता की सभी अच्छाइयों को आत्मसात् करके पाश्चात्य संस्कृति को चुनौती दी तो अधिक कट्टर लोगों ने हिन्दू समाज में पाई जाने वाली हर चीज का औचित्य सिद्ध किया, और यह बताने का प्रयत्न किया कि पश्चिम की सभी खोजें और आविष्कार भारत के प्राचीन ऋषियों को ज्ञात थे। (देखें, शिशिर कुमार बोस, नेताजी संपूर्ण वाड्.मय , खंड-1, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, जनवरी 1982, पृष्ठ 15)। दयानंद सरस्वती भी मानते थे कि ऋग्वेद में सब कुछ है, यहां तक कि तार विद्या, नौविमान विद्या जैसी आधुनिक टेक्नोलॉजी तो है ही, न्यूटन का आकर्षण, अनुकर्षण जैसा भौतिकी का सिद्धांत भी। (देखें, नामवर सिंह, ‘इतिहास की शव-साधना, आलोचना , अप्रैल-जून 2001, पृष्ठ 243)। ‘ऋग्वेद भाष्य’ में दयानंद सरस्वती ने ‘अश्विन’ का अर्थ किया है भाप-चालित जहाज-जो पानी, जमीन और आसमान, सबमें समान रूप से चलता है। स्वामी जी के अनुसार ‘अश्विन’ कोई देवता नहीं है। (वही) इस भाव की अभिव्यक्ति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता में भी देखी जा सकती है;
‘योग्य जन जीता है।
पश्चिम की उक्ति नहीं-
गीता है, गीता है-
स्मरण करो बार-बार-
जागो फिर एक बार !’
(देखें, ‘जागो फिर एक बार’: 2, राग-विराग , रामविलास शर्मा , संपादक, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1942, पृष्ठ-59; और देखें, मीरा नंदा , ‘पोस्ट मॉडर्निज्म, हिन्दू नेशनलिज्म एंड वेदिक सायंस’, फ्रंटलाइन , 15 जनवरी, 2004, पृष्ठ-78)। ठीक इसी प्रसंग में जयंत विष्णु नार्लीकर लिखते हैं, ‘मैंने एक ऐसे आधुनिक ग्रंथ को देखा है जिसमें लेखक ने वैदिक ऋचाओं का विवेचन करके यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि दीर्घतमा ऋषि सूर्य की आंतरिक रचना से परिचित थे। आधुनिक खगोल शास्त्र हमें यह बतलाता है कि सूर्य के केन्द्र-प्रदेश में अत्यधिक तापमान तथा दबाव के फलस्वरूप परमाणु प्रक्रियाएं होती हैं जिनमें हाइड्रोजन का हीलियम में रूपांतर होता है। इन प्रक्रियाओं के कारण ऊर्जा उत्पन्न होती है जो सूर्य प्रकाश के रूप में सूर्य से बाहर निकलती है। उपर्युक्त ग्रंथ में लेखक ने वैदिक ऋचाओं का भावार्थ सपष्ट करते हुए यह सिद्ध किया है कि सूर्यान्तर्गत परमाणु प्रक्रियाओं का अस्तित्व वेदकालीन ऋषियों को मालूम था। इसके लिए लेखक को ऋचाओं के अक्षरों, शब्दों को सांकेतिक मानकर उनके अर्थों को सपष्ट करने के लिए एक कुंजी का प्रयोग करना पड़ा है।’ (देखें, ‘भारतीय संस्कृति में विज्ञान की परंपरा’, समयांतर , हिन्दी मासिक पत्रिका, संपादक: पंकज बिष्ट, फरवरी, 2004, पृष्ठ 43)।

कहना होगा कि पुराणों की कथाओं का बयान तथा इनमें विज्ञान ढ़ूंढ़ने की मानसिकता से विकट स्थिति बन रही है। वर्ष 2002 में एक सरकारी अनुसंधान संस्थान ने बाकायदा पुराण-विज्ञान विशेषांक निकाला था। इसमें प्राचीन ग्रंथों की पौराणिक कथाओं को आधार बनाते हुए उनमें जबर्दस्ती विज्ञान खोजने की कोशिश की गई थी। रामायण और महाभारत के उद्धरण उसमें बढ़-चढ़कर थे। उसमें सृष्टि की रचना से लेकर समुद्र-मंथन तक सब कुछ समाहित था। (कृष्ण कुमार मिश्र , ‘वैज्ञानिक चेतना और हमारा समाज’, समयांतर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 76)।

इस पूरे प्रसंग को समझने के लिए अलबरूनी का उद्धरण प्रस्तुत करना वाकई दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण होगा। भारतीय वैज्ञानिकों के बारे में वे लिखते हैं, ‘वे बहुत भ्रामक स्थिति में हैं, किसी भी तर्क व्यवस्था को नहीं मानते और अंततः तथ्यों के साथ भीड़ के मूर्खतापूर्ण वक्तव्यों को मिलाते हैं। मैं अनेक गणितीय और ज्योतिषीय ज्ञान की तुलना मोतियों और खट्टे खजूरों के मिश्रण या मोतियों के साथ गोबर या अत्यंत मूल्यवान स्फटिक के साथ सामान्य पत्थर की बटिया के साथ मिश्रण से कर सकता हूं। उनकी नजर में ये दोनों चीजें समान हैं, इस वजह से वे स्वयं को कठोर वैज्ञानिक पद्धतियों से जोड़ नहीं पाते।’ यहां यह उल्लेखनीय है कि अलबरूनी ने जिन परिस्थितियों का वर्णन किया है वे ईसा की पांचवीं या छठी शताब्दी के बाद धीरे-धीरे पैदा हुई थीं, उस समय तक हिन्दू समाज जड़ीभूत स्थिति में आ गया था। (देखें, एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि , पी. पी. एच. जयपुर, अगस्त 1988, पृष्ठ 102, पाद टिप्पणी संख्या-1)।

Thursday, November 11, 2010

चुनाव से लौटकर


बिहार विधान सभा के लिए होनेवाले चुनाव (९.११.२०१०) में मुझे भी ड्यूटी पर तैनात किया गया. मेरा निर्वाचन- क्षेत्र १८८, फुलवारी था. यह पटना से महज १२ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है. मैं मन ही मन खुश हुआ कि चलिए पटना से बहुत दूर नहीं है-एक तरह से शहर में बने रहने का संतोष. खुशी का एक कारण यह भी था कि मेरा मतदान केन्द्र एक प्राथमिक विद्यालय को बनाया गया था. उम्मीद थी कि सोने आदि में किसी तरह की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ेगा. लेकिन रास्ते में ही मेरी खुशी हवा हो गयी. रास्ता इतना बीहड़ कि टेम्पू की सवारी छोड़ पैदल चलने की इच्छा हुई. हालाँकि सरकारी निर्देश (मार्ग – प्रदर्शिका) के अनुसार मार्ग को पक्की सड़क होना चाहिए था. लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही थी. रास्ते भर मुझे भारतेंदु की बैलगाड़ी की यात्रा याद आई. हिलत डुलत तन डोलत. किसी तरह हमलोग बचते–बचाते अपने मतदान-केन्द्र प्राथमिक विद्यालय मौलाना बुद्धुचक पहुंचे. वहां विद्यालय की तरफ से दो लोग मौजूद थे. उन्होंने कमरे का ताला खोल दिया. विद्यालय के नाम पर दो कमरे थे. एक कमरे में चावल की तीन बोरियां रखी थीं, एक टेबल और पांच प्लास्टिक की पुरानी कुर्सियां. हाँ, एक कुर्सी काठ की भी थी. एक कोने में बच्चों का टूटा झूला रखा था. बताया गया कि इसी पर हमलोग एवीएम मशीन रख लेंगे कि पिछले मतदान के दौरान ऐसा ही किया गया था. तत्पश्चात हमलोगों ने बगल का दूसरा कमरा देखा. यह मूलतः रसोइघर था जिसमें एक चापाकल भी गडा था. चापाकल कुछ ऐसा कि हैंडल को नीचे की ओर दबाते तो पुनः ऊपर उठाने के लिए दूसरे आदमी की सहायता लेनी होती. एक अकेले आदमी के लिए असंभव था कि वह पानी निकाल ले. प्रबंधक महोदय ने बताया कि ऐसा नया वाशर की वजह से हो रहा है. एक दिन पहले ही बदला गया है. खैर हमलोगों ने भी मान लिया कि चलिए न से हाँ भला. मजा तो तब आया जब सुबह ऐन शौच के वक्त चापाकल खराब हो गया. पानी का संकट स्थायी भाव बनकर मुखमंडल पर चिपक गया. मैंने अपने मित्रों से मजाक किया कि चलिए अच्छा है हमलोग पश्चिमी तरीके से शौच करने का आनंद लें. याद आया कि कभी महाकवि निराला को भी ऐसे ही संकट–काल में शौच के पश्चिमी चलन का लाभ लेना पड़ा था. लेकिन मन ने पश्चिम की इस देन को अपनाने से इंकार कर दिया और हमलोग पानी की तलाश में निकल पड़े. अंततः एक चापाकल दिखा. पानी निकालकर देख लिया तो संतोष हुआ. लगा तबतक शौच की इच्छा भी परम संतोषी हो चुकी है. विद्यालय का हाल देखकर कहना पड़ रहा है कि लालू प्रसाद यादव ने ‘चरवाहा विद्यालय’ का सपना देखा था, नीतीश कुमार ने विद्यालयों को ‘चरागाह’ में तब्दील कर रखा है.