Friday, December 26, 2008

धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध- 4


धर्म प्रगतिशील हो ही नहीं सकता...




भारत में मार्क्सवादियों को गुमान रहा है कि धर्मनिरपेक्षता की ध्वजा के असली वाहक वे ही हैं। इनके यहां धर्मनिरपेक्षता की "सर्वधर्म समभाव" की अवधारणा के विपरीत अवधारणा है, जिसमें "धर्म जनता के लिए अफीम है।" धर्म को "अछूत" मान कर मार्क्सवादियों ने अपने को सेक्युलर साबित करने की भयंकर कोशिश की। उनके लिए धर्म सेक्युलरिज्म के रास्ते में बाधा थी। धर्म के विरोध के नाम पर उन्होंने जनता का ही विरोध करना शुरू कर दिया। नतीजतन, जनता का इनसे संवाद खत्म हो गया।

सोवियत संघ में आए संकट के बाद "बुद्धिवादी" मार्क्सवादियों के बीच धर्म की भूमिका को लेकर एक गंभीर बहस छिड़ी। अब उनका जोर धर्म के दूसरे पहलू पर है- यानी धर्म की प्रगतिशील भूमिका अब इनके लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है। दुर्भाग्य की बात है कि इस बार भी मार्क्सवादियों ने धर्म के सिर्फ आधे-अधूरे यथार्थ को ही पकड़ा।


धर्म की प्रगतिशील भूमिका से किसी को भला को क्यों एतराज हो सकता है। हमें भी नहीं है। लेकिन रोना तो सिर्फ इस बात का है कि प्रगतिशीलता के नशे में चूर होकर उन अंतर्विरोधों की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता जो सीधे तौर पर धर्म के अपने निजी अंतर्विरोध के कुफल हैं। धर्मनिरपेक्षता की बात करते वक्त हमें धर्म की आंतरिक संरचना पर एक बार गंभीरता के साथ ध्यान देना होगा, वरना एक बार फिर हम सारे मार्क्सवादी अपनी राय को अत्यंत सरलीकृत ढंग से पेश करने के लिए दोषी माने जाएंगे।

वामपंथियों की धर्म के बारे में जो राय थी, यानी "धर्म अफीम है", निष्कर्ष के तौर पर काफी सही थी। दोष सिर्फ विश्लेषण की पद्धति का था, जिससे हम आज भी बच नहीं पाए हैं। वही निष्कर्ष आज भी सही है। इसलिए धर्म के सिर्फ प्रगतिशील पक्ष पर ध्यान केंद्रित करना आसन्न खतरे को और नजदीक ले आना होगा, क्योंकि धर्म को आधार बना कर धर्म निरपेक्षता की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।
धर्मनिरपेक्षता के लिए हमें धर्म के खिलाफ लड़ना ही होगा। इस खतरे के साथ कि संभव है, जनता से हमारा संवाद बंद हो जाए। संवाद को निरंतर कायम रखने के लिए उनके पास धर्म के अलावे और भी कई दुखती रगें हैं, जिन पर उंगलियां रखी जा सकती हैं। धर्म को राजनीति के साथ जोड़ने का स्वाद हम देश के विभाजन के रूप में चख चुके हैं। अब और इसे लंबा ले जाने की ताकत हममें नहीं रही।

Monday, December 22, 2008

धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध- 3

हिंदुत्व, शंबूक और पिघला हुआ शीशा...

परंपरा के नाम पर गंदगी जमा करने वाले लोग यह समझते है कि उनके अलावे और किसी के पास ऐसी स्वस्थ परंपरा हो ही नहीं सकती। हिंदुओं का खयाल है कि उनकी परंपरा प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ही रही है। बात अगर वेद के जमाने से शुरू की जाए तो कहना पड़ेगा कि इसने सबसे पहले शूद्रों को वेदपाठ करने से रोक दिया। पढ़ना तो दूर अगर भूल कर भी शूद्र वेद सुन लें तो उसके कानों शीशा पिघला कर डाल देने का सख्त से सख्त प्रावधान था। ऐसा था हमारा प्रगतिशील हिंदू धर्म, जिसमें अपने ही धर्मावलंबियों को अपना धर्मशास्त्र पढ़ने का अधिकार नही था। शूद्रों के लिए धर्म के सारे रास्ते बंद थे।

बेचारा शंबूक मर्यादा पुरुषोत्तम राम के हाथों सिर्फ इसलिए मारा गया कि उसने भगवान को याद किया था। ब्राह्मणों की तो बात निराली थी। वे तो धर्म का निर्माण करने वाले थे। जरूरत पड़ने पर वे धर्म को ठेंगा भी दिखा सकते थे, उसमें आवश्यक संशोधन करने में समर्थ थे। मनुस्मृति में लिखा है- "आपत्तिकाल में ब्राह्मण गर्हित जनों को, जिन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं हैं, उन्हें पढ़ाएं, उनसे यज्ञ कराएं और दान लें तो उन्हें (ब्राह्मणों को) दोष नहीं है क्योंकि वे जल और अग्नि के समान पवित्र हैं।"
धर्म विरुद्ध ये सारे काम करने पर भी पेट न भरे और उनके प्राणों पर आ बने तो अगर ब्राह्मण जहां भी जो अन्न मिले उसे खा लें, उसे पाप न होगा। हिंदू धर्मनिरपेक्षता का यह सबसे जबर्दस्त अंतर्विरोध है, जिसे अनदेखा कर हम सिर्फ प्रगतिशील परंपरा के नाम पर धर्मनिरपेक्षता के मूल्य का खून करना चाहते हैं। इन तथ्यों को क्या आप धर्मनिरपेक्षता के खांचों में सही-सही बिठा सकते है?

हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता का मतलब "सर्वधर्म समभाव" है। इसमें धर्म के प्रति तटस्थता का भाव न होकर सत्ता द्वारा सारे धर्म को समान रूप से प्रोत्साहन देने का सेवाभाव है। सत्ता की मजबूरी यह है कि धर्म को प्रोत्साहन देते हुए वह तटस्थता का निर्वाह नहीं कर सकती। यह उसका चरित्रगत दोष है। भारतीय जनतंत्र को उदाहरण के बतौर लें तो कहना पड़ेगा कि शासक वर्ग ने हमेशा परिस्थिति-विशेष में धर्म विशेष को सुरक्षा और संरक्षण पहुंचाने की भद्दी कोशिश की है। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति किसी भारतीय से छिपी नहीं है। विवादास्पद मंदिर-मस्जिद का ताला खोल कर हिंदू वोट को सुरक्षित कर लेने में भी कांग्रेस ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।

इससे मेरी इस बात को बल मिलता है कि जब तक हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता का मतलब "सर्वधर्म समभाव" होगा, तीव्र गति से बढ़ रही सांप्रदायिकता को रोक पाने में कोई भी सरकार सफल नहीं हो सकेगी। यह धर्म का अपना अंतर्विरोध है। भीतर की संरचना की कमजोरी है कि राजसत्ता उसे बार-बार अपने हित में इस्तेमाल कर ले जाती है।

हमारे आपके लाख सिर पटकने के बाद भी सत्ता धर्मनिरपेक्ष (धर्म के प्रति उदासीन) नहीं हो सकती। शायद कहीं सही लिखा गया है कि "राजसत्ता को धर्मनिरपेक्ष नहीं, सांप्रदायिक होना चाहिए।"

Wednesday, December 17, 2008

धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध- 2

राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता दोनों जुड़वा भाई हैं...

इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में धर्म और राजनीति के अंतर्संबंध को लेकर काफी कुछ लिखा गया है। परंपरावादी चिंतन यह है कि गांधीजी ने धर्म को राजनीति से जोड़ कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक महत्त्वपूर्ण आधार दिया। धर्म का व्यापक इस्तेमाल करने के बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन का चरित्र "सेक्युलर" या धर्मनिरपेक्ष ही रहा। भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण में धर्म की भूमिका को कम करके नहीं देखा जा सकता। लेकिन सवाल है कि इन तथ्यों ने आपस में मिल कर जिस राष्ट्रवाद का निर्माण किया, उसकी वस्तुस्थिति क्या रही।
यों राष्ट्रवाद अपने आप में अत्यंत सुंदर और धर्मनिरपेक्ष मूल्य जैसा लगता है। लेकिन यहां हम साफ तौर पर कहना चाहेंगे कि अपने राष्ट्रवाद को बहुत हद तक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष कहना एक चुनौतीपूर्ण काम है। भारत में राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता दोनों जुड़वा भाई हैं। समान गुण वाले। समानधर्मा। इसलिए भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता पर बात करते वक्त एक बार अपने राष्ट्रवाद को चुनौती देना आवश्यक-सा लगता है। लगता है कि सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद की एक अपरिपक्व धारा है और राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही एक "ब्यूटीफायड" नाम है।

राष्ट्रीय आंदोलन के पूरे इतिहास को अगर देखने की बात हो तो कहना पड़ेगा कि उसका चरित्र "सेक्युलर" कभी नहीं रहा। आजादी की लड़ाई के साथ-साथ बढ़ता हुआ अलगाववाद उसी गांधीयुगीन राजनीति की देन था, जिसमें हिंदू धर्म को आंदोलन की जान माना जाता था। जो लोग धर्म की केवल प्रगतिशील भूमिका देखने के आदी हैं, वे इतिहास में दरअसल, अत्यंत सरलीकृत भाव प्रस्तुत करेंगे। उन्हें उनकी ओर भी ध्यान देना चाहिए जो सीधे तौर पर धर्म के अपने निजी अंतर्विरोध के कुफल थे।
हमारी धर्मनिरपेक्षता की असली कमजोरी है कि इन मूल्यों की तलाश हम सिर्फ हिंदू धर्म तक ही कर पाते हैं। अपनी परंपरा का गुणगान करते हैं, वहीं दूसरे धर्म की अच्छी और प्रगतिशील तत्त्वों की अनदेखी कर देते हैं और बिल्कुल ही सहजतापूर्वक यह मान लेते हैं कि उसके अंदर बहस के सारे रास्ते बंद हो गए हैं या कि वे कठमुल्लावाद के शिकार हैं।

कुछ बुद्धिजीवियों की एक शाश्वत चिंता रही है कि -इस्लाम के अंदर बहस नहीं होती, हमें छेड़नी चाहिए। धर्मनिरपेक्षता की यह नई कौन-सी परिभाषा हो गई कि खुलेपन के नाम पर दूसरे धर्मावलंबियों के छेड़ें? ऐसे बुद्धिजीवियों को मालूम होना चाहिए कि इस्लाम के अंदर भी बहस हुई है। बल्कि कई बार तो
दमदार बहस हुई है। बगैर किसी बहस के इस्लाम के अंदर इतनी सारी दर्शन पद्धतियां क्यों कर विकसित होती? उस दार्शनिक चिंतन को हम बहस नहीं मानते, क्योंकि हमारी बहस के मूल में तो उसे राष्ट्रद्रोही साबित करना है। उन्हीं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों की भाषा में कहें, तो क्या "हिंदू धर्मनिरपेक्षता" और "हिंदू धर्म का जनतंत्र" इस्लाम को छोड़ने की इजाजत उसे देता है?

Sunday, December 14, 2008

दूज का चाँद था

आसमान को तका
और बर्फ-सी चमचम
सफेद दरांती की तरह
उतर आया
पूरे जिस्म में
जाना
दूज का चाँद था।

साहस

सागर का तट
छोटा पड़ जाता है
जब फैलाता हूं बाहें
लेकिन आ नहीं पाता
बांह की परिधि में
अंदर का साहस।