Monday, September 27, 2010

भगत सिंह को याद करने की जरूरत है

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कम्युनिस्ट आंदोलन का भी एक लम्बा दौर चला था जिसकी महत्ता स्वीकार किए बिना कोई भी भारतीय नहीं रह सकता। कम्युनिस्ट पार्टी की उन दिनों अच्छी धाक थी। राजनीति पर उसका कब्जा-सा था। कांग्रेसी जितने ही सुधारवादी थे कम्युनिस्ट उतने हीरैडिकल कम्युनिस्ट सचमुच व्यवस्था के विकल्प के रूप में खड़ा हुए थे। इन्हीं कम्युनिस्टों में से अधिकतर ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने आपको कुर्बान कर दिया था। इन्हीं शहीदों में एक भगत सिंह भी थे जो अपने देश की आजादी के लिए फांसी के फन्दे में हंसते-हंसते झूले थे

भगत सिंह देश की मर्यादा तथा मातृभूमि की बेड़ियों को काट डालने के लिए पैदा हुए थे। लेकिन यह सच है कि अब तक इस पर पर्दा डालकर रखा गया है। कुछ कांग्रेसियों की राय में भगत सिंह आतंकवादी थे तथा इनका अपना कोई दर्शन नहीं था। यूं ही ये सारेफैशनमें किए जा रहे थे। अगर इनकी नजर से भी राष्ट्रीय आन्दोलन को एक बार देखा जाए तो हमें मिलेगा कि जो कांग्रेसी भगत सिंह को दिशाहीन मान रहे थे खुद उन्हें ही सच्चा मार्गदर्शन नहीं हो पाया था। भगत सिंह पहले भारतीय थे जिनकी क्रांति की जड़ें समाजवाद तथा मार्क्सवाद से सिंचित थीं। भगत सिंह को खास दर्शन सेगाईडहोने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जनता में उनका भरपूर विश्वास था। उनका यह मानना था कि क्रांति को सफल बनाने के लिए हमें किसानों तथा मजदूरों के बीच जाना होगा। यह था भगत सिंह का वैज्ञानिक मार्क्सवाद का दर्शन जो भगत सिंह को क्रांति के लिए दृष्टि दे रहा था।

भगत सिंह को भाषणबाजी में तनिक भी विश्वास नहीं था। इस संदर्भ में उनका मानना था कि ‘‘कोई व्यक्ति जनसाधारण की विचारधारा को केवल मंचों से दर्शन और उपदेश देकर नहीं समझ सकता। वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अपने विचार जनता के सामने रखे।’’ भगत सिंह को अपने दर्शन पर विश्वास था तथा इन्हें यह भी मालूम था कि जनसमर्थन इनके साथ है। गांधीजी की लफ्फाजी के बारे में इन्होंने ‘कौम के नाम संदेश’ में लिखा था-‘‘क्या गांधीजी ने किसी संध्या को किसी गांव की किसी चौपाल के अलाव के पास बैठकर किसी किसान के विचार जानने का प्रयत्न किया ? क्या किसी कारखाने के मजदूर के साथ एक भी शाम गुजारकर उनके विचार जानने की कोशिश की ? पर हमने किया है और इसीलिए हम दावा करते हैं कि हम आम जनता को जानते हैं। हम गांधीजी को विश्वास दिलाते हैं कि साधारण भारतीय साधारण मानव के समान ही अहिंसा तथा अपने शत्रु से प्रेम करने की आध्यात्मिक भावना को बहुत कम समझता है।’’

भगत सिंह गांधीजी की अहिंसा की बजाय क्रांति में विश्वास रखते थे। भगत सिंह को वर्ग-संघर्ष की अच्छी समझ थी। इसीलिए उन्होंने कहा था कि शोषक वर्ग की प्रवृत्ति शोषण करने की होती है और वह जीते जी इसे नहीं छोड़ सकता। कांग्रेस इस वर्ग संघर्ष को समझने में असमर्थ रही। कांग्रेसी आन्दोलन को भगत सिंह ने ‘भिखमंगी’ कहा था। भगत सिंह क्रांति की अनिवार्यता को भली-भांति समझते थे। क्रांति की महत्ता स्वीकारते हुए इन्होंने ‘कौम के नाम संदेश’ में लिखा था-‘‘क्रांति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। इस उद्येश्य के लिए हम पहले सरकार की ताकत को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। इस समय शासन की मशीन धनिकों के हाथ में है। कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों के अनुसार हम सरकार की मशीन को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। हम इसी उद्येश्य के लिए लड़ रहे हैं।’’ भगत सिंह की इन पंक्तियों के आधार पर कहा जा सकता है कि उन्हें वर्ग संघर्ष की अच्छी समझ थी जो अन्य कांग्रेसी लोगों से बेहतर स्थिति में थी।

भगत सिंह को सिर्फ स्वतंत्रता की चाह थी बल्कि उनका आदर्श पूंजीवाद के विकल्प में एक नयी तथा बेहतर व्यवस्था की स्थापना था। भगत सिंह समाजवाद की रूपरेखा भली-भांति समझते थे। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने ‘द फिलॉसफी ऑफ बम’ नामक पुस्तक में सर्वहारा के अधिनायकवाद की चर्चा की है। उनका यह मानना था कि समाजवादी आंदोलन सर्वहारा के डिक्टेटरशिप की स्थापना करेगा। मुकदमें की सुनवाई के दौरान अदालत में उन्होंने इस बात का हरसंभव प्रचार किया कि उनकी क्रांति सर्वहारा के भविष्य पर निर्भर करती है। 13 जून 1931 को भगत सिंह ने अदालत में ही ‘क्रांति अमर रहे’ तथा ‘सर्वहारा अमर रहे’ का नारा लगाया था। यह भगत सिंह की समाजवादी समझ को बताने के लिए पर्याप्त होगा। उनके नारों में ‘साम्राज्यवाद का पतन हो’ भी प्रमुख था। दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज यह है कि भगत सिंह तथा इनके अनुयायी रूसी क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित थे। इसलिए सोवियत समाजवाद इनका एकमात्र आदर्श था।

भगत सिंह की समझ इस बात से भी स्पष्ट होती है कि उसने अपनी पार्टी के लोगों को समाजवाद की शिक्षा की उचित सलाह दी थी। शिक्षा तथा प्रशिक्षण की यह व्यवस्था कांग्रेसियों के अंदर नहीं थी। भगत सिंह की तरफ से पार्टी के लोगों को हिदायत थी कि वे मार्क्सवाद की पढ़ाई करें तथा अन्य क्रांतिकारी दर्शनों पर विचार-विमर्श करें। क्रांतिकारी भगवानदास माहूर ने इसकी चर्चा करते हुए लिखा है कि भगत सिंह ने उन्हें मार्क्स के ‘कैपिटल’ तथा अन्य रचनाओं को पढ़ने की सलाह दी थी। यशपाल, भगत सिंह के आदेशानुसार ही रजनी पाम दत्त की कृतिआधुनिक भारतका हिन्दी अनुवाद किए थे।

ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने अपने को इसका उत्पाद माना था। फांसी के वक्त रिमार्क करते हुए कहा था कि अगर मैं नहीं होता तो क्रांति नहीं होती यह सोचना गलत है क्योंकि मैंने सिर्फ सहयोग दिया है। इसके लिए परिस्थितियां प्रमुख होती हैं। मार्क्स महत्त्वपूर्ण नहीं थे, महत्त्वपूर्ण थीं औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न परिस्थितियां।

देखा जा सकता है कि भगत सिंह की ऐतिहासिक दृष्टि कितनी साफ है। सचमुच आज समय को भगत सिंह की मांग है। हमें देखना यह है कि कौन भगत सिंह की जगह लेकर उनके समाजवाद के सपनों को साकार करता है। इसके लिए युवा वर्ग को आगे आना होगा। वक्त गया है। जरूरत इस बात की है कि इस मौके का उपयोग कैसे किया जाए। भगत सिंह की आत्मा हमें संदेश दे रही है कि पूंजीपति वर्ग की चिता पर ही नयी तथा बेहतर व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है। यह संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक समाज में वर्ग-विभेद रहेगा। मजदूरों की जीत ही इसकी अंतिम परिणति होगी। हां, तो देखें जनता किसे अपना नेता चुनती है।

प्रकाशन: जनशक्ति, 15 अगस्त 1988

Monday, September 20, 2010

समकालीनता एक छली शब्द है

चंद्रमोहन प्रधान से राजू रंजन प्रसाद की लिखित बातचीत की दूसरी और अंतिम किस्त

प्रश्न: नई कहानी से साठोत्तरी कहानी का मूल विचारधारात्मक विरोध क्या था ?

च. प्र.: यह विरोध वस्तुतः व्यक्ति और समष्टि के स्तर पर मूलतः आधारित रहा। नई कहानी की कथाधारा मूलतः व्यक्तिवादी रही, और यूरोप के उस निराशावादी दर्शन का भी उस पर प्रभाव पड़ा था जा कि द्वितीय महायुद्ध की त्रासदियों से उपजा। जैसे अकहानी को कामू-काफ्का के प्रभाव ने प्रेरित किया, वैसे ही अस्तित्त्ववादी दर्शन ने नई कहानी को। ईश्वरवादी अस्तित्त्ववादी दार्शनिक कीर्केगार्द का भारतीय लेखकों पर बहुत प्रभाव पड़ा था। भारतीय पाठकों के लिए नई कहानी के पात्र प्रायः दिग्भ्रमित, कुंठित, अपने मध्यवर्गीय शहरी परिवेश के त्रास में अधिक चित्रित था। किंतु नई कहानी के रचनाकारों में जो स्वस्थ दृष्टिवाले थे, उन की प्रवृत्ति व्यक्ति में समष्टि खोजने की भी थी। इस दौर में स्त्री-पुरुष के शाश्वत संबंधों का विभिन्न प्रकार से विश्लेषण अधिक हुआ, जिस की प्रतिक्रिया स्वरूप साठोत्तरी कहानी आगे आई। इसका मूल स्वर प्रयोगवादी यथार्थ है, मध्यवर्गीय रुमानी यथार्थवाद इसे नहीं सहता। साठोत्तरी यथार्थ अपने को भूमि से अधिक जुड़ा और शाश्वत चिंतक मानता है।

प्रश्न: आपकी कहानियों पर लोगों ने कुछ कम चर्चा की है। इसकी जड़ में साहित्यिक राजनीति के प्रति आप की उदासीनता तो नहीं है ?

च. प्र.: यह भी कारण है। अपनी अच्छी से अच्छी, समकालीन यथार्थ को चित्रित करने वाली कहानी की भी मैं ने प्रबुद्ध समीक्षकों को नोटिस लेते नहीं देखा। वहीं अपेक्षाकृत अधिक कमजोर, फारमूला कथाओं को चर्चा में आते देखा है।

तथापि, समीक्षकों का अधिक दोष मैं इसमें नहीं मान सकता, क्योंकि मेरी कहानियां किसी एक उद्येश्य अथवा आदर्श से अनुप्रेरित होकर नहीं लिखी गई हैं। उनके वैभिन्य को देख समीक्षक भ्रमित हो जाते हैं। मेरी रचनादृष्टि पर उन्हें संदेह भी होने लगता है। समीक्षा के प्रतिमानों पर वे मुझे आंक नहीं पाते। मेरे प्रति वे विभिन्न भ्रमों में हैं। अतः मुझ से बचना ही सहज लगता होगा, कारण कि समीक्षा आज तटस्थ, निर्गुट भी नहीं है। बंधी लीकों पर लिखने वाले लोगों का मूल्यांकन अधिक सहज लगता है।

मैं यह मान कर ही चलता हूं कि रचना अच्छी है तो समय उसका मूल्यांकन करेगा। जब ये गुटीय विवाद न होंगे, रचना रहेगी। पाठक याद रखेगा। आज भी मुझे अपने पाठकों से ही बल मिलता है, प्रेरणा मिलती है। सामयिक चर्चा का साहित्य में दूरगामी महत्व नहीं है। मेरे लिए यह बड़े संतोष की बात है कि पाठक मेरी रचनाओं को पढ़ना चाहते हैं। समीक्षकों का इधर ध्यान नहीं है तो इस में मेरा दोष तो नहीं। स्वभाव से ही रचनाधर्मी होने के नाते मुझे सृजन का अपना सुख है।

प्रश्न: समकालीन कहानी का सच क्या है ?

च. प्र.: समकालीन कहानी का सच अभी उद्घाटित होना बाकी है। इस समय तो इस की ऐसी स्थिति है मानों एक रथ पर सवार कई लोग घोड़ों को कई दिशाओं में हांक ले जाना चाहते हों। समकालीनता एक छली शब्द है। सापेक्षिक भी। वर्तमान सदैव मनुष्य के आगे उपस्थित रहा करता है। और मनुष्य जो भी कहता-करता है वह लगातार पीछे चलता जाता है। नई अवधारणाएं आती रहती हैं। इस सापेक्षिक दर्शन को यदि न भी मानें, तो कुछ विचारक समकालीनता को दस वर्ष की अवधि के अंतर्गत रखा करते हैं। पर यह निर्विवाद नहीं। अपने जीवनकाल में लेखक किसी रचना में आधुनिक रहा तो इसे समकालीन मान लेते हैं। बहरहाल, वर्तमान कथा का उत्स यदि समकालीनता है तो यहां प्रश्न उस के निर्वाह का है। यही पर लेखकीय प्रतिभा की अपेक्षा होती है। जैसे हम संजीव की कहानी ‘अपराध’, अखिलेश की ‘चिट्ठी’ रखें, तो विष्णु प्रभाकर की ‘धरती अब भी घूम रही है’ को भी उतना ही समकालीन मानना चाहिए। यह भी है कि ओढ़ी हुई छद्म आधुनिकता और क्रांतिकारिता अधिक दूर नहीं चल सकती। सृंजय, स्वयंप्रकाश, चन्द्रकिशोर जायसवाल, प्रेमकुमार मणि, नारायण सिंह, रतन वर्मा, राजेन्द्र सिन्हा, शैवाल आदि वर्तमान कथाकार समकालीनता का मेरे विचार से अच्छा निर्वाह कर रहे हैं।

प्रश्न: इधर हाल के कहानीकारों में आप को अच्छी संभावनाएं दिखती हैं ?

च. प्र.: इधर के सर्वथा नये लोगों की अधिक रचनाएं मैंने नहीं पढ़ीं। जो पढ़ी भी होंगी, याद नहीं आ रही हैं। अतः इस विषय पर कुछ कहना मैं उचित नहीं मानता। तथापि, एक सही किस्म का आभास मुझे है कि नये लोग उत्साही तथा बहुत ईमानदार भी हैं। कथालेखकों की कभी कमी तो नहीं पड़ेगी ऐसा मुझे विश्वास है।
प्रकाशन: लोक दायरा, अंक-3, मार्च 2002।

Saturday, September 11, 2010

वे चुप क्यों हैं जिनको आती है भाषा ?


मृणाल वल्लरी का लेख लाल क्रांति के सपने की कालिमा मैंने दो बार पढ़ा-पहले मोहल्ला  पर और पुनः इसे जनसत्ता में। कहना होगा कि इस लेख में मुझे ऐसा कुछ लगा जिससे कह सकता हूं कि दो बार पढ़ने में लगा मेरा श्रम बेकार नहीं गया। किन्हीं को अगर ‘नवोदित’ पत्रकार की ‘बाल-सुलभ’ टिप्पणी लगी हो, तो मात्र इस कारण से मैं इस लेख को ‘खारिज’ नहीं कर सकता। इस लेख में मुझे लगा कि पत्रकार (संयोग कहिए कि वह महिला पत्रकार हैं, यद्यपि मैं इस तरह के विभाजन में दिलचस्पी नहीं रखता।) की एक पीढ़ी तैयार हो रही है जो किसी भी मुद्दे को एक ‘संवेदनात्मक जुड़ाव’ के साथ, जिसे आप प्रतिबद्धता कह ले सकते हैं, उठाने के खतरे झेलने को तैयार है। कुछ लोग इसे ‘नाम कमाने की भूख’ और ‘नारीवादी उच्छ्वास’ से भी जोड़कर देख सकते हैं। जिनके अंदर प्रतिबद्धता और ईमानदारी की आग नहीं होती वे ऐसी बातें बड़ी ही सहजता से कह सकते हैं। बगैर किसी दुविधा और अपराध-बोध के। यहां तो लोग महात्मा गांधी तक की ईमानदारी और वचनबद्धता को ‘मजबूरी का नाम गांधी’ साबित कर डालते हैं। मृणाल तो फिर भी ‘नवोदित’ हैं।

इस लेख से अगर माओवाद विरोधी अथवा कुछ अवांछित कहे जा सकनेवाले संदेश गये हैं तो इसके कुछ कारण भी हैं। कुछ कारणों को लेख में अंतर्निहित माना जा सकता है तो कुछ को मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर महोदय द्वारा सृजित साजिश के रूप में। साजिश का यह खेल खेला गया लेख की प्रस्तुति के स्तर पर। याद करें कि अखबार में इस लेख का शीर्षकलाल क्रांति के सपने की कालिमा’ था। मॉडरेटर महोदय ने इसका शीर्षक लगाया ‘क्या माओवादी दरअसल बलात्कारी होते हैं ?’ एक नक्सल मिजाज का आदमी ऐसे शीर्षक से भरसक बचेगा। यह लेखिका का पहले से दिया हुआ शीर्षक नहीं था बल्कि  मॉडरेटर के द्वारा गढ़ा सनसनी फैलाने के लिए गढ़ा गया। तिसपर मॉडरेटर की माओवाद की पक्षधरता! मुझे यह आसानी से हजम होनवाली बात नहीं लगती। अफसोस की बात तो यह है कि कुछ क्रांतिवीर ऐसी गलतियों की तरफ ध्यान न दिलाकर उल्टे लोगों को अविनाश जी का ‘पॉलिटिकल स्टैण्ड’ बताने लगते हैं। ‘स्त्री -अस्मिता’ की लड़ाई लड़नेवाले अरविन्द शेष को बताना चाहिए था कि खुद मॉडरेटर महोदय स्त्रियों के यौन-शोषण के आरोपी रहे हैं। ईमानदार पाठकों/पत्रकारों से हमारी अपेक्षा है कि ऐसे दोहरे चरित्रवाले टिप्पणीकारों की हरकत पर वे नजर रखेंगे।

मृणाल की इस बात से कि माओवादी शिविरों में महिलाओं का यौन शोषण होता है, मुझे इनकार नहीं है। शायद किसी को न होगा। अलबत्ता इसे ‘आम बात’ कहने पर असहमति बनती है। लेखिका को यह ‘आम बात’ बाहर की दुनिया में नजर आनी चाहिए थी। कहना चाहिए कि हमारे समाज में महिलाओं का यौन शोषण ‘आम बात’ है, ऐसी कुछ घटनाएं माओवादी शिविरों तक में देखी जा सकती हैं। वल्लरी का मानना सही है कि माओवादी शिविरों में भर्ती किये जानेवाले कामरेडों को मार्क्सवाद की कड़ी शिक्षा से गुजरना पड़ा होगा। यह भी कि उनके पास एक आदर्श समाज स्थापित करने का सपना है। और सारा त्याग, सारी कुर्बानी भी उसी के लिए है तो कम-से-कम वहां तो एक उच्च नैतिकता का मॉडल प्रस्तुत किया जाना था। बेशक ऐसी मांग की जानी चाहिए। लेकिन हमें मानना पड़ेगा कि इसमें सिर्फ माओवादी ही विफल नहीं रहे हैं। भारत की अन्य जो दूसरी मार्क्सवादी पार्टियां हैं उनकी पॉलित ब्यूरो में कम्युनिस्ट समाज की नैतिकता वाला मानदंड स्थापित हो सका है? शायद नहीं। आज भी इन मार्क्सवादी पार्टी कार्यालयों में चाय बनाने और झाड़ू लगानेवाले क्या उससे ऊपर उठ सके हैं? जाहिर है, उत्तर नकारात्मक होगा। हम-आप सब जानते हैं कि इन वामपंथी पार्टियों में भी खून देनेवालों की अलग श्रेणी है तो फोटो खिंचानेवालों की अलग ही प्रजाति है। हम यह भी जानते हैं कि महिलाओं का यौन शोषण करनेवाले मार्क्सवादी इन शिविरों के बाहर भी हैं। अफसोस की बात है कि यह शर्मनाक स्थिति दिल्ली के विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठित मार्क्सवादी शिक्षकों तक पसरी हुई है। इन ‘विभूतियों’ के खिलाफ वे चुप क्यों हैं जिनको आती है भाषा ?

वल्लरी पूछती हैं कि ‘क्या मुकम्मल राजनीतिक शिक्षण के बिना पार्टी में कॉमरेडों की भर्ती हो जाती है ?’ जिसके अंदर मार्क्सवाद के लिए थोड़ी भी सदास्था बची है, ऐसे सवाल उठेंगे। कुछ दिनों पहले केरल के पूर्व सीपीएम सांसद कुरिसिंकल एस मनोज को व्यक्तिगत जीवन में धार्मिक आस्था प्रकट/अभिव्यक्त करने के लिए पार्टी की सदस्यता से जब हाथ धोना पड़ा था तो मैंने भी अपने लेख( ) में यही सवाल उठाया था कि ऐसे लोगों को, जिनकी दृष्टि प्रगति-विरोधी एवं अवैज्ञानिक समझ पर आधारित हो, क्या कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनाया जाना चाहिए ? क्या कारण है कि लगभग पचास वर्षों तक सीपीएम (बिहार) के नेता रह चुके चुनाव की घोषणा होने से ठीक पहले जदयू का दामन थाम लेते हैं। हमें इन तमाम सवालों को (यौन शोषण समेत) सिर्फ माओवाद के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि एक व्यापक संदर्भ में उठाना चाहिए।       

Wednesday, September 8, 2010

सबसे बड़ी तोप हैं नामवर सिंह


चन्द्रमोहन प्रधान से राजू रंजन प्रसाद की लगभग बीस साल पहले की  लिखित बातचीत की पहली किस्त

प्रश्न:  समकालीन कहानी के प्रति आलोचना का क्या रुख है ?

च. प्र.:  समकालीन कहानी के प्रति आलोचना का रुख आलोचकों की मर्जी पर निर्भर रहता है और वह मर्जी स्वयंस्फूरित न होकर दूसरों के कथन के अनुकरण पर अधिक आधारित है। इनमें सबसे बड़ी तोप हैं डा. नामवर सिंह खुद, अकादमिक आलोचना के दिग्गज। आपकी नजर में कहानी का महत्त्व तभी है जब वह सीधे कविता से निःसृत हो। इस कथन का गूढ़ार्थ जहां कथा-साहित्य को अपूर्व समृद्धि देने की प्रेरणा रखनेवाला सिद्ध हो सकता है, वहीं इसका चलताऊ अर्थ लगाकर यही साबित किया जा सकता है कि अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती को छोड़कर और कोई कथाकार है ही नहीं। हां, मैं भूला-एक निर्मल वर्मा भी हैं। बस। थोड़े-बहुत काशीनाथ सिंह भी माने जा सकते हैं।

जो भी आलोचक हैं, उन में दो-तीन में ही वस्तुगत तटस्थ मूल्यांकन की दृष्टि है। अधिकतर लोग किसी न किसी खेमे में फंसे हुए होकर उसके सिद्धांतों के व्याख्याकार भर हैं और अपने लोगों को फ्लैश करने के पावन कर्त्तव्य का लक्ष्य रखकर चलते हैं। विस्तार का अवकाश न होने से यहां इतना भर कहना पर्याप्त है कि हिन्दी कहानी की आलोचना वाम-दक्षिण पंथों में बंट गई है। आलोचक रचना पढ़ने का कष्ट शायद ही उठाते हों, पढ़ते हैं भी तो अपने मित्रों व ‘अपनों’ की। नाम देखकर लिख देना, उन्हीं दस-पांच कहानियों के घिसे-पिटे नामों का हर आलेख में, गोष्ठी में दुहराना-तिहराना बड़ा उबाऊ लगता है। लगता है, जैसे सभी आलोचकों को अपने पर, अपने मंतव्य पर विश्वास न हो, डर रहे हों। अतः महाजनो येन गतः स पंथाः को पकड़ना सहज नुस्खा रहता है। सुरक्षित, श्रमकारी, लाभदायक।

एक बार श्री चतुरसेन शास्त्री ने भी कटुता सहित कहा था, ‘मैंने बहुत कहानियां लिखी हैं, पर जब भी कोई संकलन में मेरी रचना लेता है, अथवा कोई समीक्षक कुछ लिखता है, यही एक कहानी ‘दुखवा मैं कासे कहूं मोर सजनी’ ही को कोट करता है। वही संग्रहीत होती है जैसे उस के बाद मैं ने कुछ लिखा ही नहीं! वही  भेड़ चाल आत्मविश्वासहीन आलोचकों में है। वही दूसरों की देखा-देखी नाम जपने की आदत! पता नहीं, सही आलोचना हिन्दी कहानी को कब मिलेगी! 

प्रश्न: क्या आप इस बात से सहमत हैं कि समकालीन कहानी की आलोचना पर कहीं न कहीं से कविता के प्रतिमानों का असर है ?

च.प्र.: है। इसका कारण बहुत कुछ उभर आया है। कविता का संसार मेरे विचार से कहानी के संसार से पर्याप्त भिन्नता रखता है। कथ्य भले ही एक हों पर दोनों भिन्न विधाएं हैं, भिन्न आलोचना-पद्धतियों की मांग करते हैं। किंतु आलोचक समुदाय में संभवतः यह कुंठा घर कर गई है कि कविता की आलोचना अधिक श्रेष्ठ कार्य है, और कहानी की आलोचना भी वे कविता की आलोचना के औजारों से करना चाहते हैं। कथा की ऐसी मरम्मत करना इसके साथ अन्याय है।

प्रश्नः समकालीन आलोचना में सृजनात्मकता के अभाव के क्या कारण हैं?

च.प्र.: मैं तो मूलतः कथाकार हूं, और आलोचना के विषय में कुछ अधिक कहना अनधिकार चेष्टा मानता हूं। खास कर उन मुद्दों के मामलों में, जिन का कथा से सीधा मतलब न हो। तथापि, आलोचना में सृजनात्मकता के अभाव का कारण एक आलोचक मित्र की बातों के आधार पर मैं ने यह लगाया कि आलोचक अपने पेशे को रचनाधर्मी अथवा सृजनधर्मी नहीं मानते। इस का कारण यही हो सकता है। तथापि, मेरे अपने विचारों से आलोचना भी रचनात्मक कार्य है, एक सीमा तक सही। 

प्रश्नः समाजवादी दुनिया में आए परिवर्तन एवं विचारधारा के संकट का हमारे साहित्य पर क्या असर हो सकता है?

च.प्र.: समाजवादी संसार के परिवर्तनों का प्रभाव सभी पर नहीं पड़ेगा। जो किसी वाद अथवा शुद्ध राजनीतिक दृष्टि वाला लेखन नहीं करते वे खुद को दिशाभ्रमित या आधारहीन महसूस नहीं करेंगे। लेखक में यदि प्रतिभा है तो वह खुद को दिशा दे लेगा। उस का उत्स कोई राजनीतिक विचारधारा न होकर समाज और मनुष्य होगा।

प्रश्न: कुछ लोगों का मानना है कि आपकी कहानियों  में ‘आवेग’ का अभाव है, इसे आप कैसे लेंगे?

च.प्र.: मेरी कहानियों में आवेग का अभाव की बात बहुत पुरानी हो चुकी है। अब भी ऐसा कहनेवालों ने मेरी इधर की रचनाएं नहीं देखी होंगी। मैं कहानी किसी एक ही मनःस्थिति में अथवा किसी एक ही विषयवस्तु या कथ्य और परिवेश से बंध कर लिखा नहीं करता। प्रयोग के रूप में विभिन्न समुदाय-वाद-धर्म-संस्कार-मनःस्थिति, विचारधारा आदि पर लिखा करता हूं। मूल कथावस्तु है मनुष्य, और मनुष्य कहीं भी एक-सा नहीं है।

तथापि, कहानी में सहजता और स्वाभाविकता का मेरा मूल आग्रह है जिसके कारण कहानी प्रायः सहज-मध्यम बनी रहती है। जीवन से हटकर कहानी नहीं हो सकती, ऐसा मैं मानता हूं। मैं खुद अतिवादी नहीं। मेरे पात्र भी आसपास से लिए सहज लोग अधिक हैं।

किंतु रचनाकार युग के साथ चलता है। युग की मांग के अनुरूप मेरी इधर की कहानियों में पूर्व से पर्याप्त भिन्नता है। निवेदन है कि मेरी इधर की कहानियां भी पढ़ी जाएं जैसे ‘आदिम राग’ (कतार), ‘रिश्ते’ (धर्मयुग), ‘प्यास’ (आवर्त), ‘भोंदू’ (धर्मयुग), ‘राष्ट्र का निर्माण चालू है’ (हंस), ‘मल्टीकलर’ (कहानियां), ‘तिलचट्टा’ (कहानियां), ‘दो कौड़ी का आदमी’ (कथाबिम्ब)  आदि। ‘आवेग’ के संदर्भ में इधर की ये कुछ कहानियां देखी जा सकती हैं।

बेजरूरत आवेग घुसाना कहानी की कला के साथ बलात्कार है। मैं कहानी को चित्रकला व कविता की भांति ही एक ललित कला मानता हूं। चित्रकार हर जगह शोख रंग ही नहीं पोत देता कि लोगों का ध्यान खिंचे। आधुनिक अति यथार्थवादी कला में भी शोख रंगों के साथ खिलवाड़ कर प्रभाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। कहानी में कला और शिल्प का भी एक स्थान रहना चाहिए। ‘फारमूला’ कहानी में आवेग बहुत मिलेगा, पर अधिकतर नकली, ओढ़ा हुआ। सोड़ावाटरी जोश घातक हो सकता है।

प्रश्न: क्या आप इस बात से सहमत हैं कि कहानी आज लेखन के केन्द्र में नहीं है ?

च.प्र.: मेरे ख्याल से कहानी सदैव लेखन का केन्द्र रही है। पहले का साहित्य जो पद्य आधारित था उसमें भी कविता भिन्न चीज थी और वृत्तात्मक पद्य रचना भिन्न है। महाभारत, रामायण, मानस, मेघदूत में है क्या-मूलतः कथाएं। इनमें काव्य ने सौष्ठव, कला, शैली आदि दी जिनके कारण उन्हें श्रेष्ठ काव्य कहा गया। आज भी कहानी ही वह चीज है जो कई पृष्ठों की होती है पर पाठकों द्वारा वही अधिक पढ़ी जाती है। कहानी के कारण ही पत्रिकाएं बिकती हैं, सिर्फ कविता आधारित होकर नहीं। कवियों में यह स्नॉबरी घर कर गयी है कि वे कविता के रूप में कथा की अपेक्षा श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहे हैं। कविता की वापसी का नारा लगानेवाले कुछ लोग हैं जो इसके अलंबरदार हैं। उन्हीं का उछाला यह शिगूफा है कि कहानी लेखन के केन्द्र में नहीं है। प्रकाशन: लोक 

दायरा, अंक-3, मार्च 2002।  

Tuesday, September 7, 2010

भावुकता का अंत त्रासद है शेष जी !

अरविंद शेष said:
राजू जी,
अच्छा यह है कि आपके इस मूल्यवान “सलाह” से बहुत पहले मैं अपना, अपनी समझ का और अपनी (औंधी) खोपड़ी का मूल्यांकन करना शुरू कर चुका था। शायद तभी मुझे अपनी खोपड़ी को औंधा करने की जरूरत महसूस हुई थी। क्योंकि सदियों से सीधी खोपड़ी पर गर्व करने का हश्र मुझे यही दिख रहा है कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी यानी इसरो का मुखिया हर अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण के पहले एक मंदिर में जाकर तीन घंटे का जाप कराता है और अध्ययन या विचार के स्तर पर खुद के संपूर्ण होने का दंभ भरते किसी व्यक्ति को अपनी बहनों के बरक्स ज्यादा बढ़िया खाना खिलाने वाली मां पितृसत्ता का पैरोकार नजर आती है।
बहरहाल, आपके अध्ययन पर मैं (अगर) रीझा हुआ था, तो उस वक्त भी मेरी आंखें मुंदी हुई नहीं थीं। सचमुच उसमें विस्तृत उद्धरणों और व्याख्य़ाओं के सिवा मुझे विचार जैसा कुछ नहीं लगा था। जबकि मेरा मानना है कि वे सारे अध्ययन पाखंड हैं, जो आपके विचारों के खोखलेपन को दूर नहीं करते हैं, आपके भीतर आलोचनात्मक विवेक पैदा नहीं करते हैं। इसलिए आपको साफ कर दूं कि आपका अध्ययन मुझे सचमुच विस्तृत लगा था, सो यह उम्मीद थी कि विचार और विवेक के स्तर पर भी आप अपनी सांस्कृतिक जड़ों से बाहर आ सके होंगे। लेकिन अपनी इस टिप्पणी को पढ़िएगा और कर सकें तो विचार कीजिएगा कि अपनी बातों से सहमत नहीं होने वाले व्यक्ति की खोपड़ी आपको क्यों औंधी लगने लगती है और दिमाग क्यों अविकसित लगने लगता है। विकसित घोषित होने के लिए अगर आपके सामने सिर नवाना है, तो आपको इस परंपरा को निबाहने के लिए “अपनी संस्कृति” के सुपात्र ढ़ूंढ़ने होंगे।

आपने सलाह दी है कि मैं आपके ऊपर न झल्लाऊं, खुद पर झल्लाऊं। आपकी इस प्रतिक्रिया ने सचमुच वैसी ही स्थिति सामने रख दी है। इसलिए आपका आपका आभार..। यह बात अपनी औंधी खोपड़ी में नहीं आने का बुरा क्या मानना। अगर खोपड़ी सीधी होगी, तभी आपके जैसा आलोचनात्मक विवेक पैदा कर पाऊंगा, जो बहुत सारे लोगों को विरासत में मिलती है। वैसे मैंने इस टिप्पणी के शुरू में ही अपनी औंधी खोपड़ी पर संतोष जाहिर कर दिया है।

अर्चना की मौत को याद करते हुए आपको दुख होता है, क्योंकि उसके भीतर भी आपकी परिभाषा वाला आलोचनात्मक विवेक विकसित नहीं हुआ था और उसने भी मेरी तरह केवल रीझना जाना था। और आपके हिसाब से उसके अंत का कारण भी यही था।

आपने बिल्कुल ठीक कहा। पहले उसे अपने विवेक का विकास करना चाहिए था, इसके लिए अपने पूर्वजों से मिले ज्ञान को अपने संस्कारों में उतारना चाहिए था, मनुस्मृति का अध्ययन करना चाहिए था, अपने माता-पिता को अपने लिए योग्य वर ढूंढ़ने का ठेका देना चाहिए था, उसे अपने ब्राह्मण होने की चेतना को बचाए रखते हुए सूरज प्रकाश के दलित होने और दलित समाज की संस्कृति का ध्यान रखना चाहिए था, और वह सब कुछ करना चाहिए था जो परिवार और समाज को बचाए को जरूरी होता है। इससे विकसित विवेक उसे सूरज प्रकाश पर रीझने से पहले ही उसके भीतर के सामंती संस्कारों वाले पुरुष के बैठे होने की “खबर” देता और वह उससे दूर रहती। उससे वह खुद भी सुरक्षित रहती और जिंदा रहती।

आपने सलाह दी है और शुभकामना भेजी है कि “ऐसी उपलब्धियों का अंत तो आप अपनी आंखों से देख चुके न शेष जी? ऐसे में. इतनी दूर बैठा मैं तो आपके दीर्घायु होने की महज शुभकामना भेज सकता हूं।”

तो राजू जी, आप जैसे लोगों की तमाम “सदिच्छाओं” के बावजूद हजारों-लाखों अर्चनाएं आपके द्वारा परिभाषित “विवेक” की जरूरत नहीं समझतीं और अपनी राहों पर आगे जा रही हैं। विवेक किसी ब्रांडेड कंपनी की कमीज नहीं है जिसे किसी शोरूम से खरीद कर पहन लिया जाए तो उसके बाद लिए जाने वाले फैसले पर अफसोस नहीं होगा। समय और अपनी समझ के मुताबिक कोई व्यक्ति फैसला लेता है और उसके लाभ-हानि का सामना भी करता है। अर्चना ने अपने विवेक का सही इस्तेमाल किया था कि उसने सूरज प्रकाश में इंसान होने की संभावना देखी और साथी के रूप में उसे चुना। अर्चना ने कोई अपराध नहीं किया था, बल्कि जड़ समाज को नकार कर उसने मनुष्य समाज (आपके हिसाब से इसकी दरकार है) की ओर कदम बढ़ाया था। अब सूरज प्रकाश एक वहम ओढ़े हुए था, इसका अपराधी सूरज प्रकाश है। हां, खोल उतरने के बाद सूरज प्रकाश से मुक्त होने के बजाय भावुक होकर जान दे दी, अर्चना का कसूर यह है। अर्चना अपने प्रेम को लेकर भावुक थी, अपनी स्त्रीवादी चेतना के साथ अगर वह अपनी अस्मिता को लेकर भी इतनी ही भावुक होती तो शायद यह नौबत नहीं आती। किसी समय विवेक अगर कोई फैसला लेने को कहता है, वह उस वक्त की जरूरत होती है। फैसले के गलत होने पर उसे बदलने में कोई उज्र नहीं होना चाहिए। यहीं भावुकता आड़े आती है। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाए कि बिना इस भावुकता के किसी भी मानववाद की सपने देखना एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है। अब तक हमारे समाज में विवेक को लेकर एक महंथी और आचार्यी परंपरा रही है कि सही केवल महंथ सोच सकते हैं, बच्चों का भला केवल माता-पिता ही सोच सकते हैं। इससे संस्कृति बची रहती है, और इसीलिए यह कुछ लोगों के लिए सुविधाजनक और अंतिम सही सच है। अर्चना के विवेक पर सवाल उठा कर दरअसल आप जैसे लोग इस सामाजिक व्यवस्था या संस्कृति की सुरक्षा की मांग करते हैं।

रही बात मेरे लिए दीर्घायु होने की शुभकामना की, अपनी फिक्र करने के लिए मैं काफी हूं। सीखने की प्रक्रिया में लगातार हूं और आप जैसे लोग और उनके विचार मुझे समझने-सीखने के लिए बहुत कुछ देते रहते हैं। इस समाज में अब तक जी गया तो आगे भी अपने ही भरोसे जीऊंगा। इसके लिए मेरे दीर्घायु होने की शुभकामना भेजने की जरूरत नहीं। और अगर आपका संकेत कुछ “दूसरे प्रसंगों या संदर्भों” की ओर है, तो आपकी त्रासदी पर मैं सहानुभूति भी नहीं जताऊंगा।

मेरे “कुत्सित” दिमाग ने आपकी बात का जो मतलब लगाया, उसका मतलब भी आप समझ सकने में असमर्थ रहे और अपनी सफाई में फिर पहली टिप्पणी के अंतर्विरोध के साथ खड़े हो गए। आप कहते हैं कि दलित एक “मिथ्या” धारणा है, वास्तविकता नहीं। वास्तविकता है जाति-व्यवस्था। पता नहीं, इस जाति व्यवस्था में सिर्फ अपने जन्म के कारण जलालतें झेलने वाली जातियों को किस श्रेणी में रखा जाए और आपका तथाकथित मानववाद इसे किस निगाह से देखता है। आप जैसे लोगों को निश्चय ही यह कोई समस्या नहीं लगेगी। क्योंकि जाति-व्यवस्था की एक कड़वी हकीकत यह है कि जाति सवर्णों के लिए कोई समस्या है ही नहीं। जो इससे पीड़ित रहे हैं, यह उनके लिए समस्या है। अब पीड़ित वर्ग के लिए दलित शब्द का उपयोग न करके, सबल का उपयोग करें तो आप जैसे लोग जरूर संतुष्ट होंगे। लेकिन इस संदर्भ में कोई सूरज प्रकाश के मुकाम तक पहुंचे लोगों को भी पीड़ित-दलित मानने का आग्रह करता है तो यह सहानुभूति लेने की कोशिश ज्यादा कुछ नहीं।
आप कहते हैं कि “जब तक ‘ब्राह्मण लड़की’ की शादी ‘दलित लड़के’ से होती रहेगी, ऐसी घटनाओं की असीम संभावना रहेगी।’ आपका मतलब यह था कि जब तक आपकी पहचान “ब्राह्मण” और “दलित” की रहेगी, ऐसे तनावों को समाप्त नहीं किया जा सकता। आपके इस “आग्रह” का मेरे अविकसित दिमाग ने जो मतलब उसे आपके ही विकसित दिमाग ने कितना पकड़ा, उसका भी नमूने पर गौर कीजिएगा। राजू जी अपने विकसित दिमाग से बताएं कि यह पहचान कैसे खत्म होगी? क्या अर्चनाएं अपने विवेक का इस्तेमाल करके सूरज प्रकाशों से बचेंगी और सामाजिक विवेक के हिसाब से अपने कदम आगे बढ़ाएंगी या नहीं बढ़ाएंगी तब इस “पहचान” की समस्या खत्म होगी? मेरे अविकसित दिमाग ने आपकी बात को शायद फिर गलत पकड़ा होगा। आप इस “ब्राह्मण” और “दलित” पहचान के खत्म होने का रास्ता सुझाएं। बताएं कि बिना जाति को ख़ारिज़ किए और सचेत रूप से उससे बाहर आए एक “ब्राह्मण” और “दलित” पहचान कैसे खत्म होगी? सचेत रूप से बाहर आने का रास्ता कौन-सा होगा?

इस संदर्भ में मैंने कहा था “अब तक पता नहीं कितनी “दलित लड़कियां” “ब्राह्मण लड़कों” के जीवन को तार चुकी हैं। ऐसी घटनाओं के उदाहरण खोजने से भी शायद नहीं मिलें कि किसी “दलित लड़की” के “अत्याचारों” से त्रस्त होकर किसी “ब्राह्मण” लड़के ने आत्महत्या कर ली हो। आखिरकार सवाल यहां भी पुरुष सत्ता का ही है, स्त्रियां सिर्फ भुक्तभोगी हैं।”

लेकिन आप तो अपनी सुविधा के हिसाब से वाक्यांश उठाएंगे। स्त्री चाहे ब्राह्मण हो या दलित, वह अर्चना ही होगी। इसी तरह पुरुष चाहे ब्राह्मण हो या दलित, वह सूरज प्रकाश ही होगा। प्रोसेस का अधूरापन नतीजे भी अधूरा ही देगा और उसके लिए चिंतित होने की बात नहीं। कुछ लोगों के जड़ बने रहने के बावजूद समय हमेशा इसका समाधान करता है। तार देने का मतलब यह कि किसी सवर्ण पुरुष के साथ जीवन शुरू करने के बाद उसे चाहे जिस रूप में, निबाह लेना। (यों सामंती पितसत्ता और पुरुषवाद के सारे अत्याचारों के बावजूद विवाह को बचाए रख कर स्त्रियां सचमुच एक पुरुष को तारती हैं) न कि उद्धार कर देना। और उद्धार कर देना है भी यह ठेका हमेशा ऊपर वालों को क्यों मिले।

और व्यवस्था पर उंगली उठाने वाली भाषा कब व्यवस्था को प्यारी रही है कि अब वह इसे विमर्श की भाषा के रूप में स्वीकार करने लगी। मेरी बातें आपको गाली इसीलिए लगी हैं। और अब शायद ब्राह्मणवादी संस्कारों से लैस होने और मुक्त होने के प्रसंगों की परत भी खुल गई होगी। यों भी, ज्ञान के या किसी भी दंभ से पीड़ित व्यक्ति अपनी उठी उंगली से जब तिलमिलाता है, तो अपने ऊपर पड़ा एक चादर उतार फेकता है।

रही बात मेरे “प्रखर” दलित चिंतक होने की, तो आपके जिस “सूत्र” ने आपको यह जानकारी दी होगी, पहले उसे अपनी जमीन पर खड़ा होना बाकी है। क्योंकि मेरे “चिंतन” पर आपके अध्ययन की निगहबानी इतनी नहीं हुई है कि आप मुझे “प्रखर” दलित चिंतक की उपाधि देने लगें। और अगर आपकी घोषणा के हिसाब से सचमुच मैं एक “प्रखर” दलित चिंतक हुआ होता, तो तमाम धतकर्मों के बावजूद सूरज प्रकाश के निर्दोष होने के पचासों तर्क खड़े कर चुका होता। जब अर्चना झा की आत्महत्या की घटना हुई थी, जब सूरज प्रकाश को जिम्मेदार मानने के खिलाफ उसी “प्रखर” दलित चिंतन का सहारा लिया गया था और सूरज प्रकाश आज अपनी किताबों के विमोचन में मुस्कुराते हुए अपनी तस्वीरें खिंचवा रहा है, हिंदी समाज से सम्मान पा रहा है, और एक “दलित” बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकार्यता पा रहा है।

आपकी सबसे पहली टिप्पणी में जहां पहुंच कर मेरा दिमाग झल्ला गया था कि “पितृसत्ता के पैरोकार सिर्फ बेचारे पुरुष ही नहीं हैं। जाने-अनजाने माताएं एवं बहनें भी हैं। मेरी मां बचपन में मुझे बहनों से बढ़िया खाना खिलाती रही क्योंकि मैं बेटा था। मेरी मां कोई ‘पुरुष’ नहीं थी”, मैंने सोचा कि आप इस बारे में भी मेरे अविकसित दिमाग को विकास का कोई रास्ता दिखाएंगे। इस बारे में आपकी बातों के हिसाब से चला जाए तो हमारी तमाम माताएं और बहनें पितृसत्ता की पैरोकार हैं, हथियार नहीं। पता नहीं, अस्मिता और चेतना के प्रश्नों पर कैसे विचार किया जाता होगा।

लेकिन कोई बात नहीं। आपकी दूसरी टिप्पणी ने आपके कुछ बाकी तारों को भी खोल दिया है। वैसे भी, संपूर्ण होने के दंभ में जीते किसी व्यक्ति के लिए अपनी ओर उठने वाली उंगली को तोड़ देने की कोशिश इसी व्यवस्था की खासियत है। मुझे “ब्राह्मणवादी संस्कारों” से मुक्त होने की “सलाह” के पीछे कौन-सी धमकी है, क्या इसे समझना बहुत मुश्किल है? बहरहाल, पूरी टिप्पणी में मुझे “ब्राह्मणवादी संस्कारों” से लैस होने की “सलाह” देते हुए आपने अपने सामंती संस्कारों पर पड़ा पर्दा कब उतार दिया, आपको भी पता नहीं चला होगा। आपकी इस “सलाह” पर अमल करूं या नहीं, फिलहाल आपसे भय खाते हुए आपके सामने सीस नवा कर मैदान से भाग रहा हूं। नहीं तो पता नहीं, आप कब कोई “बड़ी बात” कह दें, जो हमें पचे नहीं और हमारा दिल बैठ जाए। आप अपनी फतह का परचम लहरा सकते हैं।

संर्दभों से रहित यों ही एक घटना का जिक्र- कुछ साल पहले देश की राजधानी से तटे हाईटेक सिटी में गिने जाने वाले शहर गाजियाबाद में घर की समस्याओं के लिए एक अतिवृद्ध महिला को “ऊपरी शक्ति” का इस्तेमाल करने का जिम्मेदार बताने के बाद एक तांत्रिक की सलाह पर उसके तीन बेटों ने जूते-चप्पलों से पीटते-पीटते मार डाला। उन तीन बेटों में से एक डॉक्टर और दो इंजीनियर था। डॉक्टर और इंजीनियर बनने के लिए विज्ञान विषयों से पढ़ाई करनी होती है।

दूसरे प्रसंग का जिक्र मैंने ऊपर किया है कि इसरो का मुखिया रहे माधवन नायर किसी भी यान के प्रक्षेपण से ठीक पहले एक मंदिर में तीन घंटे की एक प्रार्थना-पूजा के आयोजन में खुद बैठता था, देवताओं से यह मांग करते हुए कि इस यान का प्रक्षेपण सफल हो…

राजू रंजन प्रसाद said: भावुकता का अंत त्रासद है!

अरविन्द शेष जी,

टिप्पणियों से गुजरते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आपको असहमति मेरी बातों से न होकर मेरे नाम से है। अर्चना की आत्महत्या मेरे लिए ‘आलोचनात्मक विवेक’ की अनुपस्थिति का नतीजा थी। आप भी तो यही कहते हैं कि अर्चना ‘भावुक होकर जान दे दी।’ मेरी और आपकी बातों में अंतर कहां है, शेष जी ? हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जहां मैं भावुकता की तिलांजलि देकर विवेक विकसित करने की वकालत करता हूं वहां आप भावुकता का महिमा-मंडन करना प्रारंभ कर देते हैं। खासकर जब आपको मालूम हो कि भावुकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। ‘दलित’ लड़के के साथ शादी का फैसला इसी ‘भावुकता’ का फैसला था न कि आपके द्वारा आरोपित ‘विवेक’ का। आप जैसे ‘अतिशय भावुकता’ के वकीलों के रहते उसमें विवेक पैदा होने की संभावना ही कहां बच गई थी। आप महान हैं शेष जी जो ‘भावुकता’ के वशीभूत हो महान ‘मानववादी सपने’ देखते रहे हैं। हमें तो लगता है कि उस नन्हीं जान अर्चना को भी आपका यह सूत्र हाथ लग गया था कि ‘बिना इस भावुकता के किसी भी मानववाद की (के) सपने देखना एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है।’ असल अर्चना ने अपने गिर्द अविकसित लोगों की एक फौज खड़ी कर रखी थी वरना उसे मुक्तिबोध की भनक जरूर मिलती जो उसके कानों में अवश्य ही कह जाता कि भावनाएं बच्चा हैं, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर दो। शेष जी, मैंने तो सुना है कि ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ जैसी भी कोई चीज होती है। इस बारे में क्या चिंतन है आपका ? मेरा कहा मानें तो भावुकता पल-दो-पल के लिए अच्छी चीज है, लेकिन जब वह आपके जीवन का स्थायी मूल्य बनने लगे तो मैं भीतर से कांप उठता हूं। मुझे दुख है कि भावुकता के वशीभूत हो आप अपना अंत देख पा सकने में अक्षम हो रहे हैं। दोष आपका भी नहीं है। दिनकर ने पहले ही कह रखा है-‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवके मर जाता है।’ विवेक का मरना आदमी के मरने का पूर्वानुमान है। एक तरह से पूर्व शर्त भी।

मैंने केवल इतना कहा था कि दलित एक मिथ्या धारणा है जबकि जाति एक वास्तविकता है। इसके अंतर्य को आप नहीं समझ पाये इसलिए मैं इसे थोड़ा खोलकर कहता हूं।(वैसे विशेष ज्ञानार्थ मेरा लेख मध्यवर्गीय है दलित की अवधारणा देखें) कई साल हुए सावित्री बाई के स्कूल की 13 साल की लड़की मुक्ताबाई ने जो निबंध लिखा था उसकी भी मुख्य अंतर्वस्तु जाति-व्यवस्था का अंतर्विरोध है। वह लड़की स्वयं मांग जाति से थी। उसका मानना है कि मुख्य अंतर्विरोध जाति व्यवस्था का है। दलितों के अंदर भी महार और मांग में फर्क है। मांग जाति को महार की तुलना में निम्न सामाजिक हैसियत प्राप्त है। उस निबंध में दलितों के भीतर ब्राह्मणवादी सोच के अस्तित्व को दिखाते हुए लिखा कि महार भी अपने से नीचेवाले को दबाते हैं और निष्कर्षतः कहा कि इस व्यवस्था (जाति की) में सभी एक दूसरे को दबा रहे हैं। इसलिए इस बात को मान लेने का कोई आधार नहीं बनता कि दलित अपने आप में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से शोषितों की एक मुकम्मल इकाई है। पता नहीं शेष जी ने समाजशास्त्र की किस किताब में पढ़ लिया कि ‘जाति सवर्णों के लिए कोई समस्या है ही नहीं।’ जिस तरह तथाकथित ‘दलित’ समुदाय की जातियों में एक हायरार्की है, ठीक उसी तरह की हायरार्की जाति विशेष के अंदर भी है शेष जी। इस समस्या से कोई नहीं बचा-न सवर्ण न अवर्ण। इसलिए मेरा निवेदन है कि सामाजिक यथार्थ को जातीय आग्रह की वजह से नकारने की गलती न करें।

शेष जी, मेरा कहना था कि राजनीतिक चेतना के अभाव में एक स्त्री आसानी से स्त्री विरोधी हो जा सकती है, ठीक जैसे एक मजदूर अपने ही वर्ग का। ऐसा जान-बूझकर भी हो सकता है और अनजाने में भी। दुनिया की अधिसंख्य माताओं की तरह मेरी मां भी, अनजाने ही सही, पितृसत्ता के मूल्यों को पोषित कर रही थी। मजदूर वर्ग की चेतना से लैस होने के लिए मजदूर के घर में जन्म लेना जरूरी नहीं। एंगेल्स किसी मजदूर के घर पैदा न हुए थे किंतु वर्ग चेतना मजदूर की थी। आपको यह सब बेमानी लगेगा क्योंकि आपका ‘नारीवादी विमर्श’ स्त्री को पुरुष के विरुद्ध और पुरुष को स्त्री के विरुद्ध खड़ा करता है। ऐसा करना आसान भी है और फायदाकारक भी।
एक बात पूछता हूं शेष जी कि जिस तर्क से आप पुरुष योनि में जन्म लेकर भी स्त्री-मुक्ति की वकालत कर लेते हैं, उसी तर्क से मेरी मां पितृसत्ता की पक्षधर क्यों नहीं हो सकती?

अंत में केवल इतना ही कि भावुकता को परे झटककर विवके का दामन पकडें । भावुकता का अंत बड़ा ही कारुणिक और त्रासद है।

Sunday, September 5, 2010

ब्राह्मणी भाषा से बचें शेष जी !

 मेरी टिप्पणी पर दो टिप्पणियाँ  मोहल्ला  लाइव ब्लॉग पर आयीं  जिन्हें मैं हू -ब -हू  प्रस्तुत कर रहा हूँ .इन पर मेरी जवाबी टिप्पणी भी यहाँ प्रस्तुत है .

अरविंद शेष said: अध्ययन के स्तर पर धनी और विचार के स्तर पर भयानक खोखलेपन का एक बेहतरीन उदाहरण है राजू रंजन प्रसाद की प्रतिक्रिया।
राजू रंजन कहते हैं-
“परिवार एक संस्था है, समझौते पर आधारित संस्था। समझौते के लिए जरूरी है कि हम अपनी पहचान को विलोपित करें। पति-पत्नी दोनों के लिए ऐसा करना जरूरी है।”

सवाल है कि किसकी पहचान विलोपित होती है। राजू रंजन का कहना है कि पति-पत्नी दोनों के लिए ऐसा करना जरूरी है। लेकिन पितृसत्ता की बुनियाद पर खड़ी विवाह-व्यवस्था और परिवार नाम की संस्था में आपने अब तक कितने पुरुषों यानी पतियों की पहचान विलोपित होते देखी है? विलोपित तो पत्नी यानी स्त्री की ही पहचान को होना पड़ता है।

आपका कहना है कि “पहचान” से अकादमिक सफलताएं तो हासिल हो सकती हैं, परिवार चलाने में दिक्कत आती है।

बहुत खूब। अब तक खुद से शुरू हुए अपने “परिवार” में अकादमिक सफलताएं तो छोड़ दीजिए, अपने घर तक में पत्नी, बेटे, बेटी पर अपनी पहचान थोपते हुए किस मर्द को परिवार चलाने में दिक्कत आई है। परंपरागत तरीके से तो परिवार बड़े “सुख-सुकून” से चल रहा है? सुना है कि रास्ते “समृद्ध” भी होता है।
आगे राजू रंजन जी कहते हैं-
“अप्रिय किंतु सत्य है कि ‘फेमिनिस्ट’ या ऐसे किसी भी ‘एप्रोच’ के साथ शादी के ‘बंधन’ को निबाह पाना संभव नहीं।”

एक प्रश्न- क्या आप यह मानते हैं कि “फेमिनिस्ट” या ऐसे किसी अप्रोच से मुक्त हमारी समाज व्यवस्था में अब तक शादी का “बंधन” बड़ी कामयाबी से निबाहा जा रहा है? अगर हां, तो “फेमिनिस्ट” या ऐसे किसी अप्रोच से मुक्त वह कौन-सा अप्रोच है, जिसके तहत यह “कामयाबी” जारी है? और अगर इसका जवाब यह है कि वह अप्रोच “पैट्रियार्की” या पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, तो जब “पितृसत्ता” पर आधारित व्यवस्था शादी के “बंधन” को “कामयाब” बनाए रख सकता है, तो उसके मुकाबले “फेमिनिज्म” क्यों नहीं? (आप बड़े अध्ययनशाली हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों या कई जनजातीय समाजों का अध्ययनों का विस्तार होगा आपके पास) क्या सिर्फ इसलिए कि पितृसत्तात्मक अहं के लिए स्त्रीवाद एक समांतर सत्ता है, जो आखिरकार उसकी सत्ता को खा जाएगा? जिस तरह पितृसत्ता ने स्त्री को अब तक गुलाम बनाए रखा है, क्या उसी भावी गुलामी का शिकार हो जाने का डर है? अगर आधा समाज पितृसत्ता की गुलामी भोग ही रहा है, मातृसत्ता में भी तो अनुपात यही रहेगा न! फिर “फेमिनिस्ट” या “ऐसे किसी अप्रोच” से डर कैसा? अब तक हमने पितृसत्तात्मक अप्रोच पर कायम ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था का हश्र तो देख ही लिया है कि कैसे यह समाज की बहुसंख्य आबादी को सिर्फ गुलाम बनाए रखने की कीमत पर टिकी हुई है। फिर दूसरे प्रयोग की उम्मीद और उसके सपने से डर क्यों?

और आप तो इससे बड़े अप्रोच की दरकार बताते हैं- मनुष्यता की। आपने सही कहा है कि दोनों को मनुष्यता के धरातल पर आना होगा। मगर पितृसत्ता की गुलाम मौजूदा परिवार व्यवस्था में तो यह संभव नहीं लगता। एक सिर्फ शासक है, जो आखिरकार सांमत है। और दूसरा शासित है, जो आखिरकार शोषित है- मैजोकिज्म का शिकार…।

यह कह कर आप अपनी पूरी ग्रंथि और कम से कम इस मामले में परिणामों का अंदाजा नहीं पाने की अपनी “गुणवत्ता” को खोल कर रख देते हैं कि “जब तक ‘ब्राह्मण लड़की’ की शादी ‘दलित लड़के’ से होती रहेगी, ऐसी घटनाओं की असीम संभावना रहेगी।

राजू रंजन जी, अब तक पता नहीं कितनी “दलित लड़कियां” “ब्राह्मण लड़कों” के जीवन को तार चुकी हैं। ऐसी घटनाओं के उदाहरण खोजने से भी शायद नहीं मिलें कि किसी “दलित लड़की” के “अत्याचारों” से त्रस्त होकर किसी “ब्राह्मण” लड़के ने आत्महत्या कर ली हो। आखिरकार सवाल यहां भी पुरुष सत्ता का ही है, स्त्रियां सिर्फ भुक्तभोगी हैं।

आपका निजी अनुभव बिल्कुल दुरुस्त होगा कि जाति की सीमा लांघ कर भी जो शादी कर रहे हैं, अपने दैनिक जीवन के अन्य व्यापारों में जातिगत संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाते। ऐसा क्यों है राजू रंजन जी? और यही नियति है तो आपकी बताई यह दरकार कैसे पूरी होगी कि कोई मनुष्य बने, आदमी बने? ऐसी अशुभ अनहोनी के कारण दलित और ब्राह्मण की छवि को ढोने की त्रासदी का खात्मा कैसे होगा?

आपकी टिप्पणी में यहां पहुंच कर तो आपके अध्ययन पर रीझा हुआ मेरा दिमाग झल्ला गया कि “पितृसत्ता के पैरोकार सिर्फ बेचारे पुरुष ही नहीं हैं। जाने-अनजाने माताएं एवं बहनें भी हैं। मेरी मां बचपन में मुझे बहनों से बढ़िया खाना खिलाती रही क्योंकि मैं बेटा था। मेरी मां कोई ‘पुरुष’ नहीं थी।”

अब तक कई ऐसे कूढ़मगज मिल चुके हैं जो दहेज हत्याओं का उदाहरण देते हुए स्त्रियों का सबसे बड़ा दुश्मन स्त्रियों को ही बताते हैं। कहते हैं कि घर में दहेज की मांग स्त्रियां ही तय करती हैं, लिस्ट वही बनाती हैं, मांग नहीं पूरी होने पर या कमी रह जाने पर वह अपने घर आई बहू या ननद को प्रताड़ित करने या किरासन तेल छिड़क कर जला देने का काम वही करती हैं।

आपके हिसाब से तो अपने बेटे को बढ़िया खाना खिलाने वाली, अपनी बेटियों को भूखा रखने वाली, बहुओं-ननदों को जलाने वाली स्त्रियां पितृसत्ता की पैरोकार हैं!

वे पितृसत्ता की हथियार हैं, या औजार हैं- कभी इस पर भी विचार किया है आपने? वे कौन-से कारण हैं जिसके चलते एक स्त्री अपनी अस्मिता के बारे में सोच भी नहीं पाती और पुरुष अस्मिता को पालने-पोसने और उसे मजबूत करने में लगी रहती है? जरा उसी स्थिति के बारे में सोचिएगा कि आपके आसपास आपको बढ़िया खाना खाते देखती आपकी बहनों के भीतर विद्रोह पैदा होने की कितनी गुंजाइशें इस पितृसत्ता ने छोड़ी हैं। इसके उलट अपने भाइयों को बढ़िया खाना खाते देख, अच्छा कपड़ा पहनते देख, अपने मुकाबले सभी मामलों में अच्छी सुविधाएं मिलते देख, अपने घर में दादा-दादी, पिता-मां, चाचा-चाची, सखी-सहेली सबसे पुरुष महिमा सुनती हुई वह पुरुषवाद को ही अपने मनोविज्ञान में उतार लेती है और शरीर को छोड़ कर उसका सब कुछ पुरुष ही रहता है। हां, उस पुरुषवाद को निबाहने के तरीके पुरुषों से अलग होते हैं। लेकिन वह होता है आखिरकार पितृसत्ता का ही निर्वाह, पैरोकारी नहीं।

आपने सिर्फ एक बात सही (मैं अपने बुद्धि विकास के क्रम में जितना समझ पाया हूं) कही है कि लिखने वाले लोग अगर वैसा ही करने लगें, तो समस्या ही नहीं रह जाएगी।
बस यही बात अपने रूप में उतर जाए, फिर देखिए कि आपके सवाल कैसे खुद ही अपना जवाब ढूंढ़ लेते हैं।
Rajeev Kunwar said.. परिवार एक संस्था है, समझौते पर आधारित संस्था – राजू जी के विचार हैं सर्वथा मौलिक और 21 वीं सदी के। इन विचारों में वे मानववादी दिखाई देते हैं। राजनीतिक तौर पर मार्क्सवादी और परिवार के मामले में मानववादी। यह अंतर्विरोध है क्या ? अगर है तो क्यों ? मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो मान रहे हैं कि अर्चना की जिंदगी से सीख लें कि सवर्ण लड़कियों को दलित लड़कों से विवाह करने का यही अंजाम होता है। लेकिन राजनीतिक तौर पर जो मार्क्सवादी हैं वह भी परिवार के मामले में ऐसा ही कहते पाए जाएं कि अगर पहचान बनाए रखना चाहोगे तो अंजाम यही होगा, तो एक बार सोचना होता है। मार्क्सवादी सिद्धांत के आधार पर अगर राजू जी को इस लेख पर टिप्पणी करनी होती तो उन्हें एंगल्स की याद आती, व्यक्तिगत संपत्ति याद आता, परिवार याद आता और वे राज्य के चरित्र पर विचार कर रहे होते। पर वे(मार्क्स और एंगल्स) तो पुराने पर गए हैं। अब तो 21वीं सदी में नए सिद्धांत की जरूरत है। सो राजू जी ने मानववाद का सहारा लिया। यह मानववाद आया ही था मार्क्सवाद के खिलाफ। वह भी 20 वीं सदी के आरंभ में। आज 21 वीं सदी में कुछ अलग आधार लेना चाहिए था। उम्मीद है, अगले लेख में कुछ नया आधार आए 21वीं सदी वाला बिल्कुल नया और अद्भुत।
 
राजू रंजन प्रसाद का स्पष्टीकरण 
शेष जी,
आप इतने दिनों से मेरे ‘अध्ययन’ पर अपनी आंखें मूंदकर जो रीझे हुए थे वह क्या था ? क्या अबतक आपको मेरे विचारों से वास्ता नहीं पड़ा था ? या अपना पक्ष मजबूत करने के लिए मैं मान लूं कि आप मेरे ‘विचारों’ पर ही ‘फिदा’ थे। आप अपना ही मूल्यांकन कीजिए शेष जी। अपनी समझ-अपनी खोपड़ी का। पूछिए अपने आप से कि इतने सालों के कठिन और श्रमसाध्य अध्ययन के उपरांत आपने एक व्यक्ति की जो छवि गढ़ रखी थी वह अचानक एक टिप्पणी की वजह से आपको मेटनी पड़ रही है। बेहतर है कि आप मेरे ऊपर झल्लाने की बजाय अपने ऊपर झल्लाइए कि ये छोटी-सी बात कि ‘मैं वैचारिक रूप से खोखला हूं’, आपकी इस औंधी खोंपड़ी में पहले क्यों नहीं आई! इसलिए, बुरा न मानें तो मेरी एक सलाह है कि चीजों को ‘आलोचनात्मक विवेक’ के साथ देखने की कोशिश कीजिए। वरना जीवन भर आपको झल्लाना पड़ेगा-वह भी दूसरों की गलती के लिए। अर्चना की मौत (उसे याद करते मुझे दुख होता है) शायद इसीलिए हुई कि उसने भी यह विवेक विकसित नहीं किया था, आपही की तरह केवल रीझना जाना था। ऐसी ‘उपलब्धियों’ का अंत तो आप अपनी आंखों से देख चुके न शेष जी ? ऐसे में, इतनी दूर बैठा मैं तो आपके दीर्धायु होने की महज शुभकामना ही भेज सकता हूं।

सारी गलती उसी ‘विवेक’ के न होने की वजह से पैदा हुई है। मेरे ‘ब्राह्मण लड़की’ और दलित लड़का’ का मतलब वह नहीं जो आपके कुत्सित दिमाग ने लगाया। इन वाक्यांशों के सहारे मैं यह कह रहा था कि जबतक आपकी पहचान ‘ब्राह्मण’ और ‘दलित’ (वैसे मैं कहूं कि दलित एक ‘मिथ्या’ धारणा अथवा चेतना है, वास्तविकता नहीं है। वास्तविकता है जाति-व्यवस्था।) रहेगी, ऐसे तनावों को समाप्त नहीं किया जा सकता। लेकिन शेष जी के अविकसित दिमाग ने उसे कैसे पकड़ा, उसका नमूना आप यहां देखें-‘अब तक पता नहीं कितनी ‘‘दलित लड़कियां’’ ‘‘ब्राह्मण लड़कों’’ के जीवन को ‘‘तार’’ (जोर मेरा) चुकी हैं। शेष जी, क्या आप बता सकते हैं कि ये ‘तारने’ और ‘उद्धार’ करनेवाली भाषा किस दलित या स्त्री विमर्श की भाषा है। दूसरों को गाली देने से बेहतर होगा कि पहले आप स्वयं को ‘ब्राह्मणवादी संस्कारों’ से मुक्त कर लें। ऐसी भाषा आप जैसे ‘प्रखर’ दलित चिंतक के मुंह से अच्छी नहीं लगती!

भाई राजीव को लगा कि मेरे द्वारा आदमी बनने की बात कहना मार्क्सवाद का विरोध करना और ‘मानववाद’ से काम चलाना है। उन्हें दुख है कि मैंने बात मार्क्सवादी लहजे में नहीं कही। तो भाई, आपलोगों से इतनी छोटी बातें तो पच ही नहीं पा रही, बड़ी बात क्या कहूं। मेरे द्वारा परिवार को संस्था कहे जाने पर आपत्ति हो गई। मार्क्स को क्या कहेंगे, उनके लिए पूंजीवादी व्यवस्था की शादियां वेश्यावृत्ति हैं। तब परिवार ‘चकलाघर’ होगा न!

Friday, September 3, 2010

ये गर्मी, ये तल्खी बची रहे

मोहल्ला लाइव पर मृणाल वल्लरी का लेख जब लगेगा थक गयी, आराम का रास्ता चुन लूंगी पर एक तात्कालिक टिपण्णी 

मृणाल वल्लरी
मृणाल जी, आपके इस विचारोत्तेजक लेख को मुझे दोबारा पढ़ने का लाभ मिला। कुछ साल पहले मैंने अपनी लघु पत्रिका लोक दायरा  में इसे छापना चाहा था। किंतु मैं इसे छाप नहीं सका। वजय यह नहीं थी कि मैं पितृसत्ता का पैरोकार था, तबतक पत्रिका ही बंद हो गई। इस बात का मुझे सचमुच ही बड़ा अफसोस रहा।

परिवार एक संस्था है, समझौते पर आधारित संस्था। समझौते के लिए जरूरी है कि हम अपनी पहचान को विलोपित करें। पति-पत्नी दोनों के लिए ऐसा करना जरूरी है। ‘पहचान’ से अकादमिक सफलताएं तो हासिल हो सकती हैं, परिवार को चलाने में दिक्कतें आती हैं। अप्रिय किंतु सत्य है कि ‘फेमिनिस्ट’ या ऐसे किसी भी ‘एप्रोच’ के साथ शादी के ‘बंधन’ को निबाह पाना संभव नहीं। इससे बड़े एप्रोच की दरकार है-मनुष्यता की। दोनों को मनुष्यता के धरातल पर आना होगा। एकमात्र यही बंधन है जो शादी के बंधन को बीच में खुलने से बचा सकता है। 

जबतक ‘ब्राह्मण लड़की’ की शादी ‘दलित लड़के’ से होती रहेगी, ऐसी घटनाओं की असीम संभावना रहेगी। निजी अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि जाति की सीमा लांघकर भी जो शादी कर रहे हैं, अपने दैनिक जीवन के अन्य व्यापारों में जातिगत संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाते। जबतक हम आदमी नहीं बनते, दलित और ब्राह्मण की छवि ढोते रहेंगे, ऐसी अशुभ अनहोनी होती रहेगी।

पितृसत्ता के पैरोकार सिर्फ बेचारे पुरुष ही नहीं हैं। जाने-अनजाने माताएं एवं बहनें भी हैं। मेरी मां बचपन में मुझे बहनों से बढ़िया खाना खिलाती रही क्योंकि मैं बेटा था। मेरी मां कोई ‘पुरुष’ नहीं थी। यह लड़ाई पितृसत्ता के खिलाफ है। इसमें पुरुष और महिला दोनों साथ हैं। आपके लेख पर कई टिप्पणियां हैं। इनमें अधिकतर तो बेचारे पुरुष ही हैं-स्त्रियों की आजादी, पहचान आदि की बात करते हुए। फिर ये पौरुषवाले पुरुष कहां से आ जाते हैं। मेरा कहना है कि ऐसे ‘पुरुषों’ के कहे-लिखे का भरोसा नहीं करने का। लिखनेवाले लोग अगर वैसा ही करने लगे तो समस्या रह ही नहीं जायेगी। क्यों ? वैसे इस गर्मी में इसे पढ़कर पसीने छूट गये। ये गर्मी, ये तल्खी बची रहे-यही मेरी कामना है! 

अयोध्या की खुदाई: हारे को हरिनाम


और अंततः आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की अयोध्या के विवादित स्थल से संबंधित सरकारी रिपोर्ट एक नई बहस के साथ हमारे बीच आ चुकी है। पक्ष और विपक्ष के लोग मामले को लेकर अपने-अपने अखाड़ों में दंड पेलने लगे हैं। इतिहास सर्वथा निरीह और लाचार टुकुर-टुकुर मुंह ताक रहा है। विपक्ष के लोग रिपोर्ट में उल्लिखित तथ्यों की अनैतिहासिकता, अवैज्ञानिकता तो प्रमाणित कर ही रहे हैं, जांच एवं खुदाई की पूरी प्रक्रिया को भी संदेहास्पद और प्रामाणिकता से कोसों दूर की बता रहे हैं। इस तरह एक अंतहीन सिलसिले की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में हमें सोचना होगा कि लोगों के आपसी मुद्दों को सुलझाने में इतिहास एवं ऐतिहासिक तथ्यों की भूमिका कितनी कारगर हो सकती है। या फिर एक विषय के रूप में इतिहास इस तरह की अंतहीन बहसों के लिए कोई सुविधा छोड़ता है क्या? इस ‘आम सहमति’ के दौर में इतिहास के तथ्यों पर मतभिन्नता कहीं अपरिहार्य तो नहीं! इतिहास को इस त्रासदी से भला हम कितना बचा सकते हैं!
 
अव्वल तो ऐतिहासिक तथ्य उतने भोले और निर्दोष नहीं होते जितने की अपेक्षा मार्क्सवादी मित्रों ने कर रखी थी। दरअसल इतिहास के तथ्य इतिहासकार के पूर्व निर्धारित फैसलों से निर्देशित होते हैं। यह कथन सुनने में जितना ही अटपटा लगता है, वास्तविकता उतनी ही इसके करीब है। कहा जाता है कि इतिहास के तथ्य खुद बोलते हैं,मगर यह बात सही नहीं है। इतिहास के तथ्य तभी बोलते हैं जब इतिहासकार उनसे बोलवाता है। यह वही (इतिहासकार) तय करता है कि किन तथ्यों को किस क्रम और संदर्भ में मंच पर बुलाएगा। इतना ही नहीं, एक इतिहासकार उन्हीं तथ्यों का चुनाव करता है जो उनके दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं या जिस दृष्टिकोण को वे भविष्य के लिए छोड़ जाना चाहते हैं। इतिहासकार के बगैर तथ्यों की कोई अहमियत नहीं और तथ्यों के बगैर इतिहासकार नामक जीव की भी कल्पना नहीं की जा सकती। इतिहास के इस डायलेक्टिक्स को हमें गंभीरतापूर्वक समझना होगा।
 
इतिहास से आज हम केवल सबक ले सकते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वर्तमान के फैसले अगर निर्धारित होने लगे तो इसके कई गंभीर खतरे सामने आ सकते हैं। अगर प्राप्त ऐतिहासिक तथ्य यह साबित ही कर दें कि बाबरी मस्जिद, मंदिर तोड़कर बनायी गई थी तो क्या वहां इसी आधार पर मंदिर बना लेने की छूट मिल जानी चाहिए? किसे मालूम है कि आज जहां चर्च की दीवारें खड़ी हैं, वहीं कल को क्या थीं? मध्ययुगीन फैसलों से ‘उत्तर-आधुनिक’ समाज को हांकना कहां तक उचित और विवेकसंगत होगा-मेरे लिए एक गंभीर मामला है।
 
अतीत के तथ्य अतीत के फैसले हैं, उनके आधार पर आधुनिक समाज को शासित होने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसे गंभीर मामलों में इतिहास के तथ्यों से ज्यादा इतिहास-बोध हमारी मदद कर सकता है। एक वैसे देश में, जहां इतिहास-बोध की समृद्ध परंपरा रही हो, ऐतिहासिक तथ्यों पर निर्भरता ‘हारे को हरिनाम’ नहीं तो और क्या है!                                  
प्रकाशन: कैंपस संधान, पत्रकारिता विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दक्षिण परिसर, दिल्ली, 16-31 अक्टूबर 2003।