भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कम्युनिस्ट आंदोलन का भी एक लम्बा दौर चला था जिसकी महत्ता स्वीकार किए बिना कोई भी भारतीय नहीं रह सकता। कम्युनिस्ट पार्टी की उन दिनों अच्छी धाक थी। राजनीति पर उसका कब्जा-सा था। कांग्रेसी जितने ही सुधारवादी थे कम्युनिस्ट उतने ही ‘रैडिकल’। कम्युनिस्ट सचमुच व्यवस्था के विकल्प के रूप में खड़ा हुए थे। इन्हीं कम्युनिस्टों में से अधिकतर ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने आपको कुर्बान कर दिया था। इन्हीं शहीदों में एक भगत सिंह भी थे जो अपने देश की आजादी के लिए फांसी के फन्दे में हंसते-हंसते झूले थे ।
भगत सिंह देश की मर्यादा तथा मातृभूमि की बेड़ियों को काट डालने के लिए पैदा हुए थे। लेकिन यह सच है कि अब तक इस पर पर्दा डालकर रखा गया है। कुछ कांग्रेसियों की राय में भगत सिंह आतंकवादी थे तथा इनका अपना कोई दर्शन नहीं था। यूं ही ये सारे ‘फैशन’ में किए जा रहे थे। अगर इनकी नजर से भी राष्ट्रीय आन्दोलन को एक बार देखा जाए तो हमें मिलेगा कि जो कांग्रेसी भगत सिंह को दिशाहीन मान रहे थे खुद उन्हें ही सच्चा मार्गदर्शन नहीं हो पाया था। भगत सिंह पहले भारतीय थे जिनकी क्रांति की जड़ें समाजवाद तथा मार्क्सवाद से सिंचित थीं। भगत सिंह को खास दर्शन से ‘गाईड’ होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जनता में उनका भरपूर विश्वास था। उनका यह मानना था कि क्रांति को सफल बनाने के लिए हमें किसानों तथा मजदूरों के बीच जाना होगा। यह था भगत सिंह का वैज्ञानिक मार्क्सवाद का दर्शन जो भगत सिंह को क्रांति के लिए दृष्टि दे रहा था।
भगत सिंह देश की मर्यादा तथा मातृभूमि की बेड़ियों को काट डालने के लिए पैदा हुए थे। लेकिन यह सच है कि अब तक इस पर पर्दा डालकर रखा गया है। कुछ कांग्रेसियों की राय में भगत सिंह आतंकवादी थे तथा इनका अपना कोई दर्शन नहीं था। यूं ही ये सारे ‘फैशन’ में किए जा रहे थे। अगर इनकी नजर से भी राष्ट्रीय आन्दोलन को एक बार देखा जाए तो हमें मिलेगा कि जो कांग्रेसी भगत सिंह को दिशाहीन मान रहे थे खुद उन्हें ही सच्चा मार्गदर्शन नहीं हो पाया था। भगत सिंह पहले भारतीय थे जिनकी क्रांति की जड़ें समाजवाद तथा मार्क्सवाद से सिंचित थीं। भगत सिंह को खास दर्शन से ‘गाईड’ होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जनता में उनका भरपूर विश्वास था। उनका यह मानना था कि क्रांति को सफल बनाने के लिए हमें किसानों तथा मजदूरों के बीच जाना होगा। यह था भगत सिंह का वैज्ञानिक मार्क्सवाद का दर्शन जो भगत सिंह को क्रांति के लिए दृष्टि दे रहा था।
भगत सिंह को भाषणबाजी में तनिक भी विश्वास नहीं था। इस संदर्भ में उनका मानना था कि ‘‘कोई व्यक्ति जनसाधारण की विचारधारा को केवल मंचों से दर्शन और उपदेश देकर नहीं समझ सकता। वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अपने विचार जनता के सामने रखे।’’ भगत सिंह को अपने दर्शन पर विश्वास था तथा इन्हें यह भी मालूम था कि जनसमर्थन इनके साथ है। गांधीजी की लफ्फाजी के बारे में इन्होंने ‘कौम के नाम संदेश’ में लिखा था-‘‘क्या गांधीजी ने किसी संध्या को किसी गांव की किसी चौपाल के अलाव के पास बैठकर किसी किसान के विचार जानने का प्रयत्न किया ? क्या किसी कारखाने के मजदूर के साथ एक भी शाम गुजारकर उनके विचार जानने की कोशिश की ? पर हमने किया है और इसीलिए हम दावा करते हैं कि हम आम जनता को जानते हैं। हम गांधीजी को विश्वास दिलाते हैं कि साधारण भारतीय साधारण मानव के समान ही अहिंसा तथा अपने शत्रु से प्रेम करने की आध्यात्मिक भावना को बहुत कम समझता है।’’
भगत सिंह गांधीजी की अहिंसा की बजाय क्रांति में विश्वास रखते थे। भगत सिंह को वर्ग-संघर्ष की अच्छी समझ थी। इसीलिए उन्होंने कहा था कि शोषक वर्ग की प्रवृत्ति शोषण करने की होती है और वह जीते जी इसे नहीं छोड़ सकता। कांग्रेस इस वर्ग संघर्ष को समझने में असमर्थ रही। कांग्रेसी आन्दोलन को भगत सिंह ने ‘भिखमंगी’ कहा था। भगत सिंह क्रांति की अनिवार्यता को भली-भांति समझते थे। क्रांति की महत्ता स्वीकारते हुए इन्होंने ‘कौम के नाम संदेश’ में लिखा था-‘‘क्रांति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। इस उद्येश्य के लिए हम पहले सरकार की ताकत को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। इस समय शासन की मशीन धनिकों के हाथ में है। कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों के अनुसार हम सरकार की मशीन को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। हम इसी उद्येश्य के लिए लड़ रहे हैं।’’ भगत सिंह की इन पंक्तियों के आधार पर कहा जा सकता है कि उन्हें वर्ग संघर्ष की अच्छी समझ थी जो अन्य कांग्रेसी लोगों से बेहतर स्थिति में थी।
भगत सिंह को न सिर्फ स्वतंत्रता की चाह थी बल्कि उनका आदर्श पूंजीवाद के विकल्प में एक नयी तथा बेहतर व्यवस्था की स्थापना था। भगत सिंह समाजवाद की रूपरेखा भली-भांति समझते थे। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने ‘द फिलॉसफी ऑफ बम’ नामक पुस्तक में सर्वहारा के अधिनायकवाद की चर्चा की है। उनका यह मानना था कि समाजवादी आंदोलन सर्वहारा के डिक्टेटरशिप की स्थापना करेगा। मुकदमें की सुनवाई के दौरान अदालत में उन्होंने इस बात का हरसंभव प्रचार किया कि उनकी क्रांति सर्वहारा के भविष्य पर निर्भर करती है। 13 जून 1931 को भगत सिंह ने अदालत में ही ‘क्रांति अमर रहे’ तथा ‘सर्वहारा अमर रहे’ का नारा लगाया था। यह भगत सिंह की समाजवादी समझ को बताने के लिए पर्याप्त होगा। उनके नारों में ‘साम्राज्यवाद का पतन हो’ भी प्रमुख था। दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज यह है कि भगत सिंह तथा इनके अनुयायी रूसी क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित थे। इसलिए सोवियत समाजवाद इनका एकमात्र आदर्श था।
भगत सिंह की समझ इस बात से भी स्पष्ट होती है कि उसने अपनी पार्टी के लोगों को समाजवाद की शिक्षा की उचित सलाह दी थी। शिक्षा तथा प्रशिक्षण की यह व्यवस्था कांग्रेसियों के अंदर नहीं थी। भगत सिंह की तरफ से पार्टी के लोगों को हिदायत थी कि वे मार्क्सवाद की पढ़ाई करें तथा अन्य क्रांतिकारी दर्शनों पर विचार-विमर्श करें। क्रांतिकारी भगवानदास माहूर ने इसकी चर्चा करते हुए लिखा है कि भगत सिंह ने उन्हें मार्क्स के ‘कैपिटल’ तथा अन्य रचनाओं को पढ़ने की सलाह दी थी। यशपाल, भगत सिंह के आदेशानुसार ही रजनी पाम दत्त की कृति ‘आधुनिक भारत’ का हिन्दी अनुवाद किए थे।
भगत सिंह की समझ इस बात से भी स्पष्ट होती है कि उसने अपनी पार्टी के लोगों को समाजवाद की शिक्षा की उचित सलाह दी थी। शिक्षा तथा प्रशिक्षण की यह व्यवस्था कांग्रेसियों के अंदर नहीं थी। भगत सिंह की तरफ से पार्टी के लोगों को हिदायत थी कि वे मार्क्सवाद की पढ़ाई करें तथा अन्य क्रांतिकारी दर्शनों पर विचार-विमर्श करें। क्रांतिकारी भगवानदास माहूर ने इसकी चर्चा करते हुए लिखा है कि भगत सिंह ने उन्हें मार्क्स के ‘कैपिटल’ तथा अन्य रचनाओं को पढ़ने की सलाह दी थी। यशपाल, भगत सिंह के आदेशानुसार ही रजनी पाम दत्त की कृति ‘आधुनिक भारत’ का हिन्दी अनुवाद किए थे।
ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने अपने को इसका उत्पाद माना था। फांसी के वक्त रिमार्क करते हुए कहा था कि अगर मैं नहीं होता तो क्रांति नहीं होती यह सोचना गलत है क्योंकि मैंने सिर्फ सहयोग दिया है। इसके लिए परिस्थितियां प्रमुख होती हैं। मार्क्स महत्त्वपूर्ण नहीं थे, महत्त्वपूर्ण थीं औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न परिस्थितियां।
देखा जा सकता है कि भगत सिंह की ऐतिहासिक दृष्टि कितनी साफ है। सचमुच आज समय को भगत सिंह की मांग है। हमें देखना यह है कि कौन भगत सिंह की जगह लेकर उनके समाजवाद के सपनों को साकार करता है। इसके लिए युवा वर्ग को आगे आना होगा। वक्त आ गया है। जरूरत इस बात की है कि इस मौके का उपयोग कैसे किया जाए। भगत सिंह की आत्मा हमें संदेश दे रही है कि पूंजीपति वर्ग की चिता पर ही नयी तथा बेहतर व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है। यह संघर्ष तब तक चलता रहेगा जब तक समाज में वर्ग-विभेद रहेगा। मजदूरों की जीत ही इसकी अंतिम परिणति होगी। हां, तो देखें जनता किसे अपना नेता चुनती है।
प्रकाशन: जनशक्ति, 15 अगस्त 1988।
अरविन्द शेष जी,
टिप्पणियों से गुजरते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आपको असहमति मेरी बातों से न होकर मेरे नाम से है। अर्चना की आत्महत्या मेरे लिए ‘आलोचनात्मक विवेक’ की अनुपस्थिति का नतीजा थी। आप भी तो यही कहते हैं कि अर्चना ‘भावुक होकर जान दे दी।’ मेरी और आपकी बातों में अंतर कहां है, शेष जी ? हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जहां मैं भावुकता की तिलांजलि देकर विवेक विकसित करने की वकालत करता हूं वहां आप भावुकता का महिमा-मंडन करना प्रारंभ कर देते हैं। खासकर जब आपको मालूम हो कि भावुकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। ‘दलित’ लड़के के साथ शादी का फैसला इसी ‘भावुकता’ का फैसला था न कि आपके द्वारा आरोपित ‘विवेक’ का। आप जैसे ‘अतिशय भावुकता’ के वकीलों के रहते उसमें विवेक पैदा होने की संभावना ही कहां बच गई थी। आप महान हैं शेष जी जो ‘भावुकता’ के वशीभूत हो महान ‘मानववादी सपने’ देखते रहे हैं। हमें तो लगता है कि उस नन्हीं जान अर्चना को भी आपका यह सूत्र हाथ लग गया था कि ‘बिना इस भावुकता के किसी भी मानववाद की (के) सपने देखना एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है।’ असल अर्चना ने अपने गिर्द अविकसित लोगों की एक फौज खड़ी कर रखी थी वरना उसे मुक्तिबोध की भनक जरूर मिलती जो उसके कानों में अवश्य ही कह जाता कि भावनाएं बच्चा हैं, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर दो। शेष जी, मैंने तो सुना है कि ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ जैसी भी कोई चीज होती है। इस बारे में क्या चिंतन है आपका ? मेरा कहा मानें तो भावुकता पल-दो-पल के लिए अच्छी चीज है, लेकिन जब वह आपके जीवन का स्थायी मूल्य बनने लगे तो मैं भीतर से कांप उठता हूं। मुझे दुख है कि भावुकता के वशीभूत हो आप अपना अंत देख पा सकने में अक्षम हो रहे हैं। दोष आपका भी नहीं है। दिनकर ने पहले ही कह रखा है-‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवके मर जाता है।’ विवेक का मरना आदमी के मरने का पूर्वानुमान है। एक तरह से पूर्व शर्त भी।
मैंने केवल इतना कहा था कि दलित एक मिथ्या धारणा है जबकि जाति एक वास्तविकता है। इसके अंतर्य को आप नहीं समझ पाये इसलिए मैं इसे थोड़ा खोलकर कहता हूं।(वैसे विशेष ज्ञानार्थ मेरा लेख मध्यवर्गीय है दलित की अवधारणा देखें) कई साल हुए सावित्री बाई के स्कूल की 13 साल की लड़की मुक्ताबाई ने जो निबंध लिखा था उसकी भी मुख्य अंतर्वस्तु जाति-व्यवस्था का अंतर्विरोध है। वह लड़की स्वयं मांग जाति से थी। उसका मानना है कि मुख्य अंतर्विरोध जाति व्यवस्था का है। दलितों के अंदर भी महार और मांग में फर्क है। मांग जाति को महार की तुलना में निम्न सामाजिक हैसियत प्राप्त है। उस निबंध में दलितों के भीतर ब्राह्मणवादी सोच के अस्तित्व को दिखाते हुए लिखा कि महार भी अपने से नीचेवाले को दबाते हैं और निष्कर्षतः कहा कि इस व्यवस्था (जाति की) में सभी एक दूसरे को दबा रहे हैं। इसलिए इस बात को मान लेने का कोई आधार नहीं बनता कि दलित अपने आप में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से शोषितों की एक मुकम्मल इकाई है। पता नहीं शेष जी ने समाजशास्त्र की किस किताब में पढ़ लिया कि ‘जाति सवर्णों के लिए कोई समस्या है ही नहीं।’ जिस तरह तथाकथित ‘दलित’ समुदाय की जातियों में एक हायरार्की है, ठीक उसी तरह की हायरार्की जाति विशेष के अंदर भी है शेष जी। इस समस्या से कोई नहीं बचा-न सवर्ण न अवर्ण। इसलिए मेरा निवेदन है कि सामाजिक यथार्थ को जातीय आग्रह की वजह से नकारने की गलती न करें।
शेष जी, मेरा कहना था कि राजनीतिक चेतना के अभाव में एक स्त्री आसानी से स्त्री विरोधी हो जा सकती है, ठीक जैसे एक मजदूर अपने ही वर्ग का। ऐसा जान-बूझकर भी हो सकता है और अनजाने में भी। दुनिया की अधिसंख्य माताओं की तरह मेरी मां भी, अनजाने ही सही, पितृसत्ता के मूल्यों को पोषित कर रही थी। मजदूर वर्ग की चेतना से लैस होने के लिए मजदूर के घर में जन्म लेना जरूरी नहीं। एंगेल्स किसी मजदूर के घर पैदा न हुए थे किंतु वर्ग चेतना मजदूर की थी। आपको यह सब बेमानी लगेगा क्योंकि आपका ‘नारीवादी विमर्श’ स्त्री को पुरुष के विरुद्ध और पुरुष को स्त्री के विरुद्ध खड़ा करता है। ऐसा करना आसान भी है और फायदाकारक भी।
एक बात पूछता हूं शेष जी कि जिस तर्क से आप पुरुष योनि में जन्म लेकर भी स्त्री-मुक्ति की वकालत कर लेते हैं, उसी तर्क से मेरी मां पितृसत्ता की पक्षधर क्यों नहीं हो सकती?
अंत में केवल इतना ही कि भावुकता को परे झटककर विवके का दामन पकडें । भावुकता का अंत बड़ा ही कारुणिक और त्रासद है।