Wednesday, January 20, 2010

थोड़ी "आस्था" मार्क्सवाद में भी तो हो...!

केरल के पूर्व सीपीएम सांसद कुरिसिंकल एस मनोज को व्यक्तिगत जीवन में धार्मिक आस्था प्रकट/अभिव्यक्त करने के लिए पार्टी की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। पश्चिम बंगाल से निकलने वाले अखबार "दि टेलीग्राफ" (11जनवरी 2010) ने लिखा, ‘मार्क्सिस्ट पुट्स गॉड एवव पार्टी।’ यह भी बताया जा रहा है कि पार्टी के अंदर इस बात को लेकर एक पुरानी बहस चल रही है कि धर्म के बारे में पार्टी सदस्य का क्या रुख हो।

अव्वल तो यह कि केवल मार्क्र्सवाद या मार्क्र्सवादी पार्टियों से इस मसले को जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए, और न ही इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी चीजों से जोड़ा जा सकता है। सवाल यह है कि ऐसे लोगों को, जिनकी दृष्टि प्रगति-विरोधी और अवैज्ञानिक समझ पर आधारित हो, क्या कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनाया जाना चाहिए? कहना होगा कि आज कम्युनिस्ट पार्टियां भी ठीक उसी तरीके से अपना सदस्य बनाती हैं जैसे राजद या राजग। (ये दो नाम तो केवल सुविधा के लिए दिये गए हैं)सिद्धांत में चाहे जो हो, व्यवहार में विचारधारा से ज्यादा दूसरी ही चीजों का ध्यान रखा जाता है।

सदस्य बनने वाले भी सतर्क/जागरूक रहते हैं। पार्टी का बाजार-भाव पता करते रहते हैं। उन्हें मालूम रहता है कि फिलहाल कौन-सी राजनैतिक पार्टी नौकरी प्रदान करने में सक्षम है। हालांकि यह मजाक की तरह लगेगा, लेकिन सच है कि लोग रातोंरात अपनी वैचारिक लाइन बदल लेते हैं। उनकी प्रतिबद्धता नौकरी के प्रति है। जो पार्टी पहले नौकरी दे-दिला देगी, उस पार्टी की सदस्यता वे पहले स्वीकार करेंगे। दिल्ली के मित्र बताते हैं कि विश्वविद्यालय तक की नियुक्तियों में इन पार्टियों का अघोषित कोटा होता है। ऐसे लोग पार्टी की आय का जरिया बनते हैं। जहां महज लेवी और चंदे की वसूली को ध्यान में रख कर सदस्य बनाए जाते हों, वहां ऐसी बहसों के लिए कोई स्पेस है क्या?

नब्बे के दशक में पटना के मार्क्र्सवादी छात्र-संगठनों में तीन चेहरे मुझे अक्सर सड़कों पर नारे लगाते दिखते-अपूर्वानंद, निवेदिता और नीरज। कहना होगा कि तीनों ही काफी सक्रिय और प्रतिबद्ध थे। मेरे छात्र-जीवन के नायक। अपूर्वानंद ने अशोक वाजपेयी का दामन पकड़ा। शायद ही अपूर्वानंद को याद हो कि वे कभी ‘वाजपेयी हटाओ, भारत भवन बचाओ’ की रट लगाया करते थे। उनके साथ काम करने वाले नीरज आज नीतीश के तलुवे चाट रहे हैं कि सहला रहे हैं। निवेदिता फिर भी इन सब से ठीक रही।

नीरज को आरक्षण-विरोध के नाम पर पार्टी से निकाला गया था। हालांकि वे अकेले आरक्षण-विरोधी कामरेड नहीं थे, जिनको पार्टी की सदस्यता गंवानी पड़ी। ऐसे कई नाम हैं। अपूर्वानंद को पार्टी से निकाला नहीं गया, बल्कि एक लंबे समय में पार्टी का उपयोग करते हुए वे पार्टी से ऊपर की चीज हो गए। ये और बात है कि अब भी वे अपने को पार्टी के सदस्य के रूप में यदा कदा प्रचारित करते हैं। यहीं यह भी जोड़ दें कि लालू प्रसाद यादव ने जब अपना दल बनाया और उसकी हवा बही तो बिहार की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के यादव कामरेडों ने उनके साथ अपने को जोड़ लिया। क्या वजह है कि उनका यादव होना उनके वामपंथ पर भारी पड़ गया? क्या नीरज जैसे ‘क्रांतिकारी’ छात्र-नेता का हृदय-परिवर्तन बुद्ध की तरह केवल एक घटना से हुआ?


दरअसल इन बातों पर हम केवल तभी बहस करते हैं जब कोई अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की वजह से पार्टी छोड़ देता है, या फिर जब किसी को पार्टी से निकाला जाता है। बिहार की एक कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने एक महत्वपूर्ण दस्तावेज में जाति के महत्व को सिद्धांत रूप में न सही चुनावी स्ट्रेटेजी के बतौर साफ-साफ शब्दों में स्वीकार किया है। इस स्ट्रेटेजी का मतलब होता है कि मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में पार्टी मुस्लिम प्रत्याशी खड़ी करेगी और और यादव इलाके से यादव प्रत्याशी। अगर ऐसी स्थिति है तो अपने निजी जीवन में स्ट्रेटजी के तहत ही किसी को यादव या कुर्मी बनने या बने रहने की छूट पार्टी क्यों नहीं दे सकती? हालांकि इस बात की तो कोई बहस ही नहीं है क्योंकि अपने निजी जीवन में हम कम्युनिस्टों की पहचान जाति से पहले होती है, विचारधारा तो बाद की, दुकान सजाने/चलाने की चीज है।


मजे की बात है कि कुरिसिंकल एस मनोज महज एक कम्युनिस्ट ही नहीं हैं, उनका ताल्लुक चिकित्सा विज्ञान से भी रहा है। यह तथ्य भारतीय चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों की समझ की भी पोल खोलता है। मेडिकल सायंस की आखिर कौन-सी शिक्षा उन्होंने हासिल की कि "भगवान की लीला" को वे समझने में अब तक असमर्थ रहे।

विज्ञान और मार्क्सवाद दोनों ही की विचार-पद्धति अंधविश्वास-विरोधी है। पचास साल की उम्र तक अगर एक कम्युनिस्ट और चिकित्सा विज्ञान से जुड़े व्यक्ति को धर्म की निस्सारता समझ में न आती हो तो क्या येचुरी केवल यह कहकर कि ‘धर्म निजी आस्था की चीज है’, जिम्मेदारी से बचे रह सकते हैं?

येचुरी साहब, आपके विद्यालय का तो पहला ही पाठ है कि ‘धर्म जनता के लिए अफीम है।’ जो जनता के लिए अफीम समझ कर सर्वथा त्याज्य है, वह एक कम्युनिस्ट के लिए सर्वथा ग्राह्य कैसे हो सकता है? क्या मार्क्सवाद इसकी अनुमति देता है, येचुरी जी? क्या धर्म और भगवान की घुट्टी का ही अब एकमात्र और आसरा बचा रह गया है?

अगर ऐसा ही है तो अपने तमाम काडरों को एक-एक रामनामी चादर भी बंटवा दीजिए और आस्था के महाकुंभ में गोते लगाते रहिए। केवल अपनी व्यक्तिगत आस्था की वजह से अगर कोई डॉक्टर बजरंग बली की पूजा कर ऑपरेशन थियेटर में जाता हो तो क्या हमें उसके दिमाग के बारे में सोचना बंद कर देना चाहिए? शायद मेरी टर्मिनोलॉजी आपको बुरी लगे, थोड़ी ‘आस्था’(वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित विश्वास की अपेक्षा तो आपसे की नहीं जा सकती) मार्क्सवाद में भी तो हो!

Saturday, January 9, 2010

यह कौन-सी नई पॉलिटिकल इकोनॉमी है कॉमरेड...?

विश्वस्त कहे और समझे जा सकने वाले सूत्रों से पता चला कि कुमार मुकुल जसम यानी जन संस्कृति मंच ज्वायन कर चुके हैं। पुष्टि के लिए कुमार मुकुल को फोन लगाया। उन्होंने हामी भरी। इस पर मेरी अत्यंत सहज-स्वाभाविक (जिसे बिना सोचे बोलना कहा जा सकता है) प्रतिक्रिया थी कि ‘चलिए अच्छा है। आखिर में एक ‘अराजकतावादी’ को भी शामिल कर ही लिया।’ कुमार मुकुल ने प्रतिवाद किया, ‘लेकिन मैं सबसे कम अराजक हूं।’ मैं सोचने लगा कि आखिर वे किसकी अराजकता की बात कर रहे थे? कौन हैं वे लोग? थोड़ा आप भी सोचें।

कुमार मुकुल का जसम ज्वायन करना क्या कोई नयी और अप्रत्याशित परिघटना है? कम-से-कम न मेरे लिए, न कुमार मुकुल के लिए। हम सब उससे वैचारिक रूप से एवं संवेदना के स्तर पर हमेशा ही जुड़े रहे हैं। लेकिन पार्टी/संगठन के लिए इस तरह का जुड़ाव अब शायद कोई मायने नहीं रखता। उसे कार्ड-होल्डर लोगों पर ज्यादा भरोसा है। आप कार्ड के बगैर पार्टी या संगठन के ‘पवित्र परिवार’ में शामिल नहीं हो सकते। कार्ड के बगैर कोई ‘रिकॉग्निशन’ नहीं। ‘पहचान’ के बगैर ‘पूछ’ की आशा करना या रखना व्यर्थ है, एक तरह की अज्ञात मूर्खता, जो आपकी ‘सदिच्छा’-जनित है।

जसम से या इसके लोगों से कुमार मुकुल का जुड़ाव कोई नया नहीं है। बल्कि आप कह ले सकते हैं कि इनके सद्प्रयास या कि प्रेरणा से कई नये कहे जा सकने वाले लड़कों ने माले के साथ अपने को जोड़ा और वे लगातार कुमार मुकुल से भी उसी पुराने स्तर पर जुड़े रहे। ट्रेजेडी कि कुमार मुकुल को तब भी ‘आउटसाइडर’ का दर्जा ही नसीब हुआ। ये और बात है कि नये लड़के उनके अब भी प्रभाव में थे। सारे लोगों का साथ-साथ उठना-बैठना और बातें करना। कविता से लेकर राजनीति और फिर निजी मसलों तक पर। ऐसी अंतरंगता जो पार्टी के ‘पवित्र परिवार’ के लिए भी एक आदर्श ही हो।

इतना सब कुछ होने के बावजूद कुमार मुकुल के लिए ‘हाईकमान’ की तरफ से हरी झंडी नहीं मिली थी। नतीजतन उनकी कविताएं देश-विदेश की पत्रिकाओं में भले ही छपती रही हों, पार्टी की तथाकथित पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ में उनकी कविताओं के लिए कभी जगह न बन सकी। कई बार उनसे आग्रह कर कुछ लिखवाया भी गया, कविताएं भी ली गईं लेकिन अंततः प्रकाशित न हो सकीं। शायद ‘पार्टी-लाइन’ के लिहाज से हर बार कुछ कमी-बेशी रह जाती रही हो। वैसे यह पार्टी का अंदरूनी मामला है, इस पर किसी ऐरे-गैरे को बोलने का ‘अधिकार’ नहीं दिया जा सकता।

लेकिन संगठन में कुमार मुकुल का ‘दबाव’ रह-रह काम करते रहा। शायद इसी का नतीजा था कि जसम के लड़कों ने पटना में उनका ‘एकल काव्य-पाठ’ आयोजित कराया था। कई वर्ष पूर्व की घटना है यह। जसम के लगभग सारे लड़के तो उपस्थित थे ही। केवल एक आदमी अनुपस्थित था। उस आदमी की अनुपस्थिति कुमार मुकुल के काव्य-पाठ से ज्यादा ध्यान खींच ले रही थी। आयोजक उनके आने का भरम कार्यक्रम संपन्न होने तक बनाये रखना चाहते थे। अन्ततः वे नहीं आए। कहिए कि अन्ततः उनका नहीं आना तय था। ये जसम के सारे लड़के भी जानते थे। मैं तो इस ‘ऐतिहासिक नियति’ को मानकर ही चल रहा था। कहूं कि कुमार मुकुल को भी उस ‘अदृश्य शक्ति’ के आने को लेकर न कोई मुगालता था न दिलचस्पी। अलबत्ता कुमार मुकुल की कविता की तारीफ में आलोक धन्वा को काफी कुछ सार्वजनिक रूप से बोलते हुए सुना। मुझे भी जसम के मंच से अपनी बात रखने का पहला ही सही, मौका मिला। यह मुकुल के कवि-रूप की मेरे जानते पहली सार्वजनिक स्वीकृति थी, थोड़े-बहुत अगर-मगर के साथ।

मेरे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कुमार मुकुल ने जसम ज्वायन किया कि प्रलेस। मेरी नजरों में तो वे तब भी इन तमाम संगठनों के किसी भी पदाधिकारी से ज्यादा काम कर रहे थे। कई साल पहले जब समकालीन जनमत अपने नये रूप में छपने लगी तो उसकी बिक्री की चिंता कुमार मुकुल की निजी चिंता में शामिल हो गई। वे अपने पास सदस्यता रसीद रखते और घूम-घूमकर लोगों को वार्षिक सदस्य बनाते। मुझे भी प्रथम साल के लिए सदस्य उन्होंने ही बनाया था। अलबत्ता दूसरे साल का वार्षिक सदस्य होने से मैंने इनकार कर दिया था। इसकी दो वजहें थीं। एक तो प्रकाशक से लेकर स्वत्वाधिकारी तक में हर जगह रामजी राय का नाम था। मैंने कहा, ‘मुकुल जी, यह किसी संगठन की नहीं रामजी राय नामक एक व्यक्ति की पत्रिका लगती है। मैं इसका मेंबर होना स्वीकार नहीं कर सकता।’ दूसरी बात यह थी कि इस पत्रिका में प्रकाशित होनेवाले व्यक्ति के लिए यह जरूरी था कि वह कार्ड-होल्डर हो। अगर कार्ड-होल्डर की ही रचना छपनी थी तो मैं क्योंकर उसका ग्राहक बनता ?

जब तक कुमार मुकुल जसम के लिए ‘उत्पाद’ नहीं बन पाये, तब तक उनकी भी कोई रचना समकालीन जनमत का मुह नहीं देख सकी।

अब जाकर समझ में आया कि ‘मुह-देखाई’ की सामंती रस्म अदायगी हमारे एक्सट्रीम लेफ्टी कॉमरेडों को भी काफी पसंद है।

देखा तो नहीं, लेकिन पक्की खबर है कि दिल्ली में आयोजित जलसे के अवसर पर जसम ने जो स्मारिका प्रकाशित की है, उसमें पहली कविता कुमार मुकुल की है। अब मुकुल जसम के विधिवत् सदस्य हो चुके हैं। यह सवाल अब तक मेरे लिए अनुत्तरित है कि एक पार्टी या संगठन का सदस्य बनने न बनने से कोई तात्विक अंतर आता है क्या? क्या मुकुल कुछ-कुछ बदला हुआ महसूस करते होंगे ? उनकी कविता का ऐंगल बदल गया? क्या जसम के लोगों ने मुकुल में कोई वैचारिक कायांतरण देखा?

नहीं, तो आप ही समझाओ कि यह कौन-सी नई ‘पॉलिटिकल इकॉनॉमी’ है कॉमरेड...?

संपादक का अक्षर ज्ञान...!

अशोक कुमार ने प्रभात खबर, पटना (11।10।2009) को आपकी कलम‘ में प्रकाशनार्थ एक पत्र लिखा जिसे 16।10।2009 को प्रकाशित किया गया। लेकिन ‘संपादन-कौशल’ या कि अज्ञान ने उल्टी गंगा बहा दी। आपके समक्ष मूल पत्र एवं प्रकाशित पत्र हू-ब-हू रखे जा रहे हैं, ताकि अखबार की विश्वसनीयता का अंदाजा आपको हो सके-

मूल पत्र

आज के अंक में अनुराग कश्यप का (की) आलेखनुमा परिचर्चा ‘सब मुरदाबाद...जाति जिंदाबाद’ पढ़ कर अफसोस हुआ। आज भी सबसे कम जातिवादी आम जनता ही है। आम आदमी के विवेक में सबसे कम जाति-पाति का बोध है। जो जितना प्रबुद्ध होने का दावा करता है, वह उतना ही जातिवादी है। यहां अखबारों में संपादक और पत्रकार जाति के आधार पर तय होता है जो अपने को लोकतंत्र का चैथा खम्भा कहता है। डाॅक्टर विलायत से पढ़कर आने के बाद अपनी जाति का ही मुंह जोहता है। मुख्यमंत्री हो कि केन्द्रीय मंत्री, सबके सब जातीय गणना पर ही अपनी गोटी फिट करते हैं। जहां जाति ही आपकी-हमारी सफलता की मंजिल तय करते (करती) हैं, वहां आपके जैसे बुद्धिजीवियों (?) से कबीर शैली में जाति की आलोचना उचित नहीं है। अनुराग जी, मेरी बात भी छापिए, आपकी जातिवादी उदघोष का दूसरा पक्ष भी तो सामने आए-अनुराग जी आपकी जाति?, -राजपूत (?) ही होंगे।

प्रकाशित पत्र

आम लोगों पर जातिवाद का कम असर

आज के अंक में अनुराग कश्यप का आलेखनुमा परिचर्चा सब मुरदाबाद, जाति जिंदबाद (जिंदाबाद) पढ़ कर अफसोस हुआ। आज भी सबसे कम जातिवादी आम जनता ही है। आम आदमी के विवेक में सबसे कम जाति-पाति का बोध है। जो जितना प्रबुद्ध होने का दावा करता है, वह उतना ही जातिवादी है। डॉक्टर विलायत से पढ़ कर आने के बाद अपनी जाति का ही मुंह जोहता है। मुख्यमंत्री हो कि केंद्रीय मंत्री, सबके सब जातीय गणना पर ही अपनी गोटी फिट करते हैं। जहां जाति ही आपकी-हमारी सफलता की मंजिल तय करते हैं, वहां जाति की आलोचना उचित नहीं है।

अशोक कुमार, राजेंद्र नगर (पटना)

Friday, January 8, 2010

कहां है चित्रकला आलोचना की भाषा...?



इन दिनों कला आलोचना की भाषा मेरी चिंता में शामिल रही है। कई बार तो ऐसा लगता है, और जो शायद बिल्कुल सही भी है कि इतने सारे कला आन्दोलनों के बाद भी भारत के चित्रकला समीक्षकों ने आलोचना का अपना कोई निश्चित प्रतिमान नहीं गढ़ा है। यह कला आंदोलनों के इकहरेपन का भी स्पष्ट संकेत है।

चित्रकला आलोचना की अपनी कोई भाषा विकसित हो सकी इसके बहुत सारे संभव कारण हो सकते हैं, लेकिन जो एक-दो महत्वपूर्ण कारण रहे हैं, उन पर केंद्रित होकर अगर निश्चित और सही परिप्रेक्ष्य में बात शुरू की जाए तो उसकी वाजिब समस्याओं से हम परिचित हो सकते हैं और उसकी चुनौतियों को स्वीकार करने का साहस भी दिखा सकते हैं।

कहना होगा कि हमारे यहां कला के क्षेत्र में सबसे विकसित विधा साहित्य है, इसलिए अन्य कला-माध्यमों विधाओं पर भी इसके अपने प्रभाव हैं। इस प्रभाव को चाहकर भी रोका नहीं जा सकता। भारत में अब तक के अधिकतर चित्रकला समीक्षक प्रथमतः या मूलतः साहित्यकार रहे हैं। साहित्य-साधना उनकी मुख्य चिंता रही है- चाहे वे प्रयाग शुक्ल हों या फिर विनोद भारद्वाज, लगभग सारे ही लोग अपना अधिकांश समय साहित्य ही को देते रहे हैं। निश्चित रूप से चित्रकला माध्यम को इन लोगों के देखने-परखने का ढंग साहित्यिक गतिविधियों, आचरणों और चिंतनधारा से अप्रभावित नहीं होगा।

अब तक चित्रकला आलोचना की मजबूरी रही है कि साहित्य के अंदर जोवाद’, ‘धारायाप्रतिमानप्रचलन में रहे हैं, यहां भी ठीक उन्हीं जुमलों को दुहरा दिया जाता रहा है। इससे ऐसा लगता है कि चित्रकला समीक्षा मूल रूप में भारतीय हिन्दी साहित्य की नकल या रूपांतरण है। दुर्भाग्य कहिए कि हिन्दी आलोचना जगत के प्रतिमानों के आधार पर ही भारतीय चित्रकला का भाग्य-निर्धारण वर्षों से होता चला रहा है।

प्रयाग शुक्ल जबसमकालीन कलापत्रिका के एक अंक में रामकुमार की चित्रकृतियों का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे थे तो लगा जैसे वे महज साहित्यिक लेखा-जोखा ही दे पा रहे हों। संयोग ही कहिए कि रामकुमार एक अच्छे कहानीकार भी हैं और चित्रकला की दुनिया में भी एक बेहतर पहचान है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं होता कि रामकुमार की कहानियों, उनके उपन्यासों को आधार बनाकर या ठीक उसी के सांचे में उनकी चित्रकला का भी मूल्यांकन किया जाये। हमारा यह मानना कभी नहीं हो सकता कि एक कलाकार के लेखन-कर्म से, उसके दस्तावेजों और संस्मरणों से हम उनकी कला को जानने-समझने में कोई मदद नहीं ले सकते। इससे बचने की कोशिश से उतना ही बड़ा अनर्थ होगा, जितना कि उसके साहित्य में व्याप्त निराशा, ठहराव और पस्तहिम्मती को हू--हू उनकी पेंटिंग में इंगित कर देना। दोनांे ही प्रवृत्तियां घातक हैं। अतः इनसे भरसक बचने की कोशिश होनी चाहिए।

रामकुमार की चित्रकृति का विश्लेषण प्रस्तुत करते प्रयाग शुक्ल इसी प्रवृत्ति के शिकार हुए हैं। हम ऐसा भी नहीं कह सकते कि एक ही आदमी अगर साहित्य और चित्रकला पर साथ-साथ काम कर रहा हो तो दोनों कला-माध्यम एक दूसरे से अप्रभावित रह सकेंगे। और षायद यह भी कि वैसे में एक कला-माध्यम दूसरे कला-माध्यम का महज रूपांतरण अथवा अनुवाद होगा। प्रायः प्रत्येक कला की अपनी एक सीमा-रेखा होती है, जिसके परे सभी एक-दूसरे से संपर्क कायम रखते हुए भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखते हैं।

चित्रकला और साहित्य की प्रकृति में भिन्नता है। साहित्य के साथ सबसे बड़ी सुविधा यह है कि उसके व्यापक प्रकाशन-प्रसार की वजह से प्रत्येक पाठक उसे खरीदकर अपने पास रख सकता है। अपनी इच्छा और सुविधा के मुताबिक उसे पलटकर देख-पढ़ भी सकता है। किसी भी टेक्स्ट के साथ मजेदार बात यह है कि जब भी हम उसे पढ़ते हैं, एक नये सिरे से हमारा उसके साथ संवाद शुरू होता है। प्रायः हर बार हमारे ज्ञान में कुछ कुछ इजाफा होता ही है, नये-नये आयाम और अर्थ उद्भाषित होते हैं। चित्रकला के साथ यह सुविधा नहीं है। किसी चित्रकृति के बारे में जब भी हम बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं, उसका अर्थ-भेद खोलना चाहते हैं, समस्या ज्यों की त्यों बनी की बनी ही रह जाती है। दर्शक जब कला-प्रदर्शनियों में एक बार आता है तो पहली ही नजर में किसी कलाकृति के बारे में सोच-जान लेता है-ऐसा नहीं है।

यहां एक अदना दर्शक ही की बात नहीं है बल्कि कभी-कभी बड़े कलाकार या कला-समीक्षक भी हतप्रभ रह जा सकते हैं। और ऐसा संभव है। आनन-फानन में कोई निर्णय देना या राय बनाना मुश्किल ही नहीं कई बार असंभव भी हो जाता है। कलाकृति के साथ बार-बार संवाद स्थापित करने की कोशिश ही इस तरह की संवादहीनता और चुप्पी को खत्म कर पाने में समर्थ हो सकती है। कलाकारों के पास इतनी सामथ्र्य नहीं है कि वे व्यक्तिगत खर्च के आधार पर वैसी चित्रकृतियों को व्यापक दर्शक के समक्ष प्रस्तुत कर सके। भारत जैसे मुल्क में तो ऐसी कृतियां हमारे एलीट बुद्धिजीवियों के बेडरूम ही की शोभा बढ़ाती रह जाती हैं-कला-दीर्घा पहुंचने का भला सौभाग्य कहां !

सच्चाई यह भी है कि अब तक हमारे बीच यह रिवाज ही नहीं कायम हो पाया है कि लोग कला-प्रदर्शनियों में ठीक उसी ढंग से आया-जाया करें जैसा वे सिनेमा हॉल और थियेटरों के साथ बरतते हैं। इसका बहुत कुछ संभव कारण यह भी रहा है कला को लोगों ने मुख्यधारा से बिल्कुल ही अलग काटकर रखा है। इसे विशुद्ध रूप से एलीट संस्कुति का सवाल माना जाता रहा है। इस तरह की अवधारणा के बाद आम जनता के पास वैसी कोईसांस्कृतिक गरिमानहीं होती जिससे वह इन विशुद्ध बौद्धिक और भद्रलोकीय कलाकारों कीश्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासतके ढोंग को मात दे सके। आम लोगांे के बीच कला के बारे में यह धारणा किकला वही जो समझ से परेहो-कलाकारों कीअति बौद्धिकहो चुकी दुनिया से आम-जन के निष्कासन ही को अभिव्यक्त करती है।

जब भी चित्रकला से संबंधित कोई लेख पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ तो पाया कि उसमें कलाकृतियों का साहित्यिक विश्लेषण ही प्रमुखता पा गया। कृति के शिल्प,उसकी तकनीक पर तो जैसे कोई बात ही नहीं करता। उसकी शैलीगत विशेषताओं पर तो कला-समीक्षकों की नजर तक नहीं जाती। उनका सारा जोर इस बात को साबित करने पर होता है कि वह किसी महत्वपूर्ण भाव अथवा थीम को अभिव्यक्त कर रहा है। क्या महज भावों की अभिव्यक्ति ही किसी चित्रकृति के लिए सब कुछ है?

लगभग सारे कला-समीक्षक अघोषित रूप से इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि चित्रकला में चूंकि शब्द नहीं होते, इसलिए विचार का इसमें अन्य कला-माध्यमों की तुलना में कुछ ज्यादा ही अभाव पाया जाता है। फिर भी कला-आलोचक विचार और विचारधारा की ठूंस-ठांस ही से काम चलाते हैं। यहां भी हम साहित्यिक विधाओं की आलोचना के प्रतिमानों,औजारों ही से काम चलाते हैं। हमारे समक्ष यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है,जिससे हमारी चित्रकला-आलोचना को टकराना ही होगा,उसकी चुनौतियों को स्वीकार करने का साहस प्रदर्शित करना होगा। बगैर इसके,चित्रकला-आलोचना की एक स्वतंत्र भाषा गढ़ने, उसे विकसित करने में सदैव असमर्थ साबित होते रहेंगे।

Monday, January 4, 2010

एक गधा जब नेहरू से मिला...

(नेहरु और गधे की ऐतिहासिक बातचीत)



मैंने लोगों से सुन रखा था कि पंडितजी से मुलाकात का समय सुबह साढ़े सात-आठ बजे से पहले का है। उसके बाद जो मुलाकातियों का तांता शुरू होता है तो फिर किसी समय भी एक-आध मिनट के लिए बात करना असंभव होता है। यही सोच कर मैं उस दिन रात-भर जागता रहा और विभिन्न रास्तों से घूम-फिर कर पंडितजी की कोठी तक पहुंचने का प्रयत्न करता रहा। कोई छह बजे के लगभग मैं उनकी कोठी के बाहर था। संतरियों ने मेरी ओर लापरवाही से ताका। शायद मैं उन्हें बिल्कुल मामूली गधा नजर आता होऊंगा। पहले तो मैं दीवार से लग कर धीरे-धीरे घास चरता रहा और धीरे-धीरे दरवाजे की ओर सरकता रहा। जब मैं दरवाजे के बिल्कुल निकट पहुंच गया तो संतरियों ने हाथ उठा कर लापरवाही से मुझे डराया जैसे आम तौर पर गधों को डराया जाता है। मैंने सारी योजना पहले से सोच रखी थी। उनके डराते ही मैंने कुछ यह प्रकट किया कि मैं बिल्कुल डर गया हूं। अतएव मैं तड़प कर उछला और सीधा कोठी के भीतर हो लिया। संतरी मेरे पीछे भागे। वे मेरे पीछे-छे और मैं उनके आगे-आगे। जब मैं बाग तक जा पहुंचा तो संतरियों ने एक गधे का वहां तक पीछा करना व्यर्थ समझ कर माली को आवाज दे दी कि वह मुझ गधे को बाग से बाहर निकाल दे और यह कह कर वे बाहर गेट पर जा खड़े हुए, जहां उनकी ड्यूटी थी।

माली ने मुझे घूर कर देखा। उस समय वह एक खुरपी लिए गुलाब की झाड़ियों के इर्द-गिर्द की घास साफ कर रहा था। उसने जब अपना काम बढ़ते देखा तो उसे बहुत क्रोध आया। चुपके से वह झाड़ियों के पास से उठा और भीतर अपने क्वार्टर से कोई मजबूत-सा डंडा लाने चला गया।

इतने में मैंने देखा कि पंडितजी बाग के बीचोंबीच सड़क पर चलते हुए, बल्कि दौड़ते हुए गुलाब के पौधे की ओर जा रहे हैं। मैंने यह अवसर उचित समझा और हिरन की तरह एक चौकड़ी भरी और पंडितजी के पीछ-पीछे हो लिया।

मैंने धीमे से कहा, ‘‘पंडितजी!’’

पंडितजी आश्चर्य से मेरी ओर मुड़े। जब उन्हें वहां कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दिया तो फिर आगे बढ़ने लगे। मैंने फिर कहा, ‘‘पंडितजी!’’ अबकी पंडितजी ने जरा तीखी चितवन से पीछे देखा और बोले, ‘‘मैं भूतों में विश्वास नहीं रखता।’’

मैंने कहा, ‘‘विश्वास कीजिए, मैं भूत नहीं हूं, एक गधा हूं।’’

जब पंडितजी ने मुझे बोलते देखा तो उनका क्षण-भर पहले का आश्चर्य हर्ष में परिवर्तित हो गया। बोले, ‘‘मैंने इटली के एक घोड़े के बारे में पढ़ा था जो अलजबरा के प्रश्न तक हल कर सकता था। लेकिन बोलने वाला गधा आज ही देखा। मनुष्य का विज्ञान क्या कुछ नहीं कर सकता? बोलो, क्या चाहते हो? मेरे पास अधिक समय नहीं है।’’

मैंने कहा, ‘‘आपसे पंद्रह मिनट के लिए एक इंटरव्यू चाहता हूं। सोचता हूं, कहीं आप इसलिए इनकार न कर दें कि मैं एक गधा हूं।’’

पंडितजी हंस कर बोले, ‘‘मेरे पास इंटरव्यू के लिए एक से एक बड़ा गधा आता है, एक गधा और सही। क्या फर्क पड़ता है? शुरू करो।’’

मैं शुरू करने वाला था कि इतने में माली दूर से डंडा लिए भागता हुआ नजर आया। मैंने माली की ओर देखा, फिर पंडितजी की ओर। पंडितजी समझ गए। उन्होंने हाथ के इशारे से माली को रोक दिया और स्वयं टहलने लगे। मैंने रामू धोबी की दुख भरी कहानी संक्षिप्त शब्दों में सुना दी। पंडितजी बहुत प्रभावित हुए। कहने लगे, ‘‘इस मामले में सरकार कुछ नहीं कर सकती, मगर मैं अपनी जेब से एक सौ रुपया दे सकता हूं।’’

यह कह कर उन्होंने जेब से एक सौ रुपये का नोट निकाला और मेरे लंबे कान के भीतर उड़स दिया।

मैंने कहा, ‘‘पंडितजी! स्वर्गीय किदवई भी इसी प्रकार दान दिया करते थे। इससे सैकड़ों लोगों का भला तो जरूर हो जाता है लेकिन है तो यह दान ही।’’

बोले, ‘‘दान तो है।’’

मैंने कहा, ‘‘दान बंद होना चाहिए। हर भारतवासी का यह अधिकार होना चाहिए कि जब वह मरे तो उसके बाद राज्य उसके बीवी-बच्चों के निर्वाह का प्रबंध करे। इसे स्वतंत्रता के मूल सिद्धांतों में से एक होना चाहिए।’’

‘‘सिद्धांत तो ठीक है।’’ पंडितजी बोले, ‘‘लेकिन सिद्धांतों को व्यवहार में लाने के लिए खून-पसीना एक करने की जरूरत है। इसके लिए बहुत कम लोग तैयार होते हैं। वैसे तुम्हारी तरह लोग क्रांति की बातें बहुत करते हैं, लेकिन रामू धोबी की विधवा को पेंशन देने के लिए राष्ट्र के पास इससे कहीं अधिक राष्ट्रीय धन होना चाहिए, जितना आजकल उसके पास है। इस राष्ट्रीय धन को बढ़ाने के लिए हमने पंचवर्षीय योजना तैयार की है, जिसके आधार पर देश भर में काम हो रहा है, लेकिन लोगों में वह उत्साह नहीं, जिसकी मुझे आशा थी।’’

मैंने कहा, ‘‘लोगों में आपके प्रति असीम आदर है। आपकी बताई हुई योजनाओं से अत्यंत लगाव है। आपका हर आदेश उनके सिर-माथे पर होता है। आप संसार-भर में शांति स्थापित करने के लिए जो प्रयत्न कर रहे हैं, उसमें न केवल भारत के लोग, बल्कि समस्त देशों के लोग आपसे स्नेह करने लगे हैं।’’

पंडितजी मुस्कुराए, बोले, ‘‘गधे होने के बावजूद तुम बातें अच्छी बना लेते हो।’’

मैंने कहा, ‘‘आज मैं संसार के एक महान राजनीतिज्ञ के सामने खड़ा हूं। जाने फिर कभी ऐसा अवसर न मिले। इसलिए क्यों न अपने मन की बात आपसे कह डालूं। पंडितजी, आपकी वैदेशिक-नीति की सफलता सर्वमान्य है। राष्ट्रीय जीवन में भी आपकी स्वदेश-भक्ति जन-मित्रता और राष्ट्रीय सेवा से इनकार नहीं किया जा सकता। जो कोई ऐसा करेगा, मुंह की खाएगा। इस थोड़े-से समय में ही आप भारत को जिस शिखर पर ले गए हैं, उससे आपके कंधों की मजबूती का पता चलता है। लेकिन पंडितजी! क्या यह काफी है? एक राष्ट्र, एक बड़ा राष्ट्र, शूरवीर राष्ट्र, भारत ऐसा सभ्य राष्ट्र कब तक एक व्यक्ति के सहारे चलेगा ? क्या आप विष्वास से कह सकते हैं कि यदि आपने अपने शासन में उचित परिवर्तन न किए तो आपके बाद भारत की वही दशा न होगी जो अषोक और अकबर के बाद हुई थी?’’

‘‘अशोक और अकबर बादशाह थे। आज भारत में जनतंत्र है।’’ पंडितजी ने मुझे याद दिलाया।

‘‘केवल वोट से जनतंत्र नहीं होता। आज भारत में जो राज्य है, मैं उसे अधिक से अधिक नेहरु के आत्म-बलिदान के नाम से पुकार सकता हूं। आत्म-बलिदान सदैव व्यक्तिगत होता है। वह केवल एक व्यक्ति की ओर देखता है और जब वह व्यक्ति...व्यक्ति न रहे तो फिर क्या होगा? पंडितजी! मुझे इससे बहुत भय आता है।’’

‘‘मैं इस प्रश्न का उत्तर पहले ही दे चुका हूं।’’ पंडितजी ने कहा, ‘‘मैं नहीं समझता कि मेरे प्यारे देश की जनता मेरे बाद कोई इतना बड़ा नेता उत्पन्न नहीं कर सकती जो परिस्थितियों को संभाल न सके। मुझे अपनी जनता पर भरोसा है।’’

‘‘आपका भरोसा अनुचित नहीं लेकिन इसे व्यवहार में लाने के लिए भारतीय जनता की रचनात्मक शक्तियों को जगाने के लिए क्या यह जरूरी नहीं है कि इसके लिए अभी से कदम उठाया जाए? क्षमा कीजिएगा पंडितजी! मुझे आपके सरकारी अधिकारियों में कोई रामू धोबी, कोई जम्मन चमार, कोई ढोंढू मिल मजदूर नजर नहीं आता। कार वाले बहुत नजर आते हैं, गधे वाला एक भी नजर नहीं आता। अगर राष्ट्रीय धन को बढ़ाना है, अगर राष्ट्रीय योजनाओं को उत्तरोत्तर सफल बनाना है, अगर आप चाहते हैं कि देश की उन्नति दिन दूनी रात चौगुनी हो, तो इस राज्य-प्रणाली को बदलना होगा-ऊपर से नीचे तक। जनता के समस्त वर्गों को, समस्त स्तर पर, ऊपर से नीचे तक प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा और एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार का निर्माण करना पड़ेगा, जिसमें देश की पूरी जनता-पूंजीपतियों से कांग्रेसियों तक और कांग्रेसियों से साम्यवादियों तक सब शामिल हों। केवल ऐसी सरकार ही देश में उत्साह की लहर दौड़ा सकती है। आज जो काम दस या पन्द्रह वर्ष में, बहुत-सी आर्थिक हानि और बहुत-सी रिश्वतखोरी के साथ होता है, कम से कम हानि और कम से कम रिश्वतखोरी और कम से कम समय में पूरा हो जाएगा। काम की गति बहुत बढ़ जाएगी, क्योंकि जनता हर स्तर पर राज्य-अधिकारियों में मौजूद होगी। इस समय मजदूरों से लेकर राज्य-मंत्रियों तक की एक ऐसी संगठित सरकार की अत्यंत आवश्यकता है।’’

पंडितजी मुस्कराए, बोले, ‘‘मैंने सोचा था तुम मेरा इंटरव्यू लोगे। मालूम होता है, तुम इंटरव्यू लेने नहीं, देने आए हो।’’

मैं घबरा कर चुप हो गया। बात सच कही थी उन्होंने।

मुझे चुप देख कर बोले, ‘‘नहीं-नहीं, कहो-कहो, मैं तो हमेशा से विद्यार्थी रहा हूं। मैं तो एक गधे से भी कुछ न कुछ सीख सकता हूं।’’

मैंने कहा, ‘‘मैं आपको क्या सिखाऊंगा! सूरज के सामने चिराग क्या जलेगा! लेकिन मैं चूंकि एक गरीब आदमी का गधा हूं, जीवन-भर भूख का शिकार रहा हूं, मुझे मालूम है कि जो दर्द आपके दिल में मौजूद है, वह हमारी दशा को, हमारी प्रतिदिन की दशा को देख कर ही आपके दिल में पैदा होता है। इसलिए जो बात आप कहते हैं, वह मानो हमारे दिल से निकलती है। लेकिन मुसीबत यह है कि आपके और हमारे बीच जो बाड़ लगाई गई है, जो मशीनरी खड़ी की गई है, वह अत्यंत प्रतिक्रियावादी, मंद गति से चलने वाली, बल्कि प्रायः आपकी अवज्ञा करने वाली है; इसलिए इस मशीनरी के भीतर जो शक्तियां काम करती हैं, वे हमारे विचारों की विरोधी हैं। अब तक जो काम होता है वह आपके भय से होता है। मुझे भय है कि जब आप हमारे बीच न होंगे, उस समय यह भय भी न रहेगा और वे लोग अपनी मनमानी कर गुजरेंगे- यदि अभी से इसके लिए प्रबंध न किया गया।’’

‘‘तुम्हारा मतलब मेरे साथियों से है ?’’

मैंने कहा, ‘‘जो साथी आपने लिए हैं और जो आपकी ‘सेकंड लाइन ऑफ डिफेंस’ हैं, वे आयु में और नेतृत्व में आपसे भी बूढ़े हैं और शायद आपसे पहले भुगत जाएंगे। मगर मेरा मतलब उन लोगों से नहीं है, मेरा मतलब एक संगठित राष्ट्रीय सरकार की स्थापना से है। केवल ऐसी सरकार ही आगामी बीस-तीस वर्ष में भारत को आगे ले जा सकती है, जिसमें पूरे का पूरा राष्ट्र अपने विभिन्न वर्गों तथा तत्वों के साथ राष्ट्रीय हित तथा उन्नति के लिए सम्मिलित हो।’’

पंडितजी ने कहा, ‘‘मैं नहीं मानता, सरकार की मशीनरी मेरा साथ नहीं देती, कोई उदाहरण दो।’’

मैंने कहा, ‘‘जितने उदाहरण चाहे ले लीजिए। आप अपनी योजना में प्राइवेट सेक्टर को कम पब्लिक सेक्टर को अधिक रखना चाहते हैं, मगर प्राइवेट सेक्टर बढ़ रहा है और प्राइवेट सेक्टर में भी विदेशी धन बढ़ रहा है। जूट, चाय, बैंक-धन के अतिरिक्त अभी-अभी पच्चीस करोड़ रुपए की लागत से दो तेल की रिफाइनरियां खुली हैं।’’

‘‘हम उन पर पूरा कंट्रोल करेंगे।’’ पंडितजी ने क्रोध से कहा।

‘‘अगर एंग्लो-इरान कंपनी की तरह हमारा हाल हुआ तो ? कहीं ऐसा न हो कि उसे कंट्रोल करते-करते हमारा प्रधानमंत्री भी डा. मुसद्दिक की तरह क्षीण हो जाए।’’

‘‘तुम बिल्कुल गधे हो।’’ पंडितजी ने क्रुद्ध होकर कहा, ‘‘तुम पुराने क्लासिकल क्रांतिकारियों की-सी बातें करते हो भारत की विशेष परिस्थितियां नहीं देखते। यहां की जनता की विशेष मनोवृत्ति का अध्ययन नहीं करते। इनकी शांतिप्रियता तथा अहिंसा के प्रति गहरे प्रेम के प्रमाण नहीं देखते। यहां भारत में, काम धीरे-धीरे होगा। धीरे-धीरे समाज का ढांचा बदलेगा। धीरे-धीरे राष्ट्र के प्रति कत्र्तव्यों का रूप बदलेगा। धीरे-धीरे इनमें सामाजिक लचक पैदा होगी, जो एक माॅडर्न समाज की विषेशता है। यह सब काम एक दिन में नहीं हो सकता। भारत में क्रांतिवादी शक्तियां भारत के विशेष राष्ट्रीय स्वभाव में समो कर और रच-बस कर ऊपर उभरेंगी। बाहर का पैबंद नहीं लगेगा। मैं तुमसे साफ-साफ कहे देता हूं, गधे! धीरे-धीरे सब काम होगा।’’

‘‘तब तक रामू की बीवी का क्या होगा? उन बच्चों का क्या होगा, जिन्हें इस देश में नौकरी नहीं मिलती, काम नहीं मिलता, जो विवश होकर इस देश से बाहर चले जाते हैं। फिर इस देश की बढ़ती हुई बेकारी का क्या होगा ? हर प्रदेश के आंकड़े देखिए; अभी थोड़े दिन हुए उत्तर प्रदेश की सरकार ने स्वीकार किया था कि उसके प्रदेश में बेकारी बढ़ रही है।’’

‘‘मेरे पास कोई छू-मंतर नहीं है कि एक दिन में भारत की दशा बदल डालूं। ऐसा आज तक किसी देश में नहीं हुआ है। पच्चीस-तीस साल से पहले देश की दशा इतनी जल्दी नहीं बदल सकती। हर देश का इतिहास यही कहता है। खून-पसीना एक कर देने से राष्ट्रीय धन तथा शक्ति बढ़ती है।’’ फिर मेरी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘‘तूने पंद्रह मिनट से अधिक ले लिए। अब मैं जाता हूं।’’

मैंने कहा, ‘‘पंडितजी! आपसे एक निवेदन है। संभव है इंग्लैंड में आपने गधों की सवारी की हो, लेकिन भारत में तो मैंने नहीं सुना कि आप गधे की पीठ पर सवार हुए हों। मेरा अहोभाग्य होगा अगर आप...’’

पंडितजी ने मुझे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया। उचक कर मेरी पीठ पर बैठ गए और कुछ समय तक मुझे बाग के इर्द-गिर्द ऐसा दौड़ाया, ऐसा दौड़ाया कि मेरा सांस फूल गया। आखिर मैंने हार मान ली, ‘‘भगवान के लिए, पंडितजी, अब तो उतर जाइए।’’ मैंने बार-बार कहा।

वह हंस कर एकदम उतर पड़े, बोले, ‘‘अब बता! मंद गति से चलने वाला कौन है?’’

इसके बाद वह मेरी ओर से मुड़े और मैंने देखा कि बरामदे में कुछ विदेशी दूत और दो-एक फोटोग्राफर टहल रहे थे और पंडितजी की गधे की सवारी करने के फोटो ले रहे थे। दो-एक सेक्रेटरी लोग बड़ी परेशानी से टहल रहे थे। नेहरु जी मेरी पीठ थपकाकर उधर चले गए। जाते-जाते मुझसे कह गए, ‘‘उस धोबिन को वह सौ का नोट जरूर पहुंचा देना।’’

मैं बड़े गौरव से दुलकी चाल चलता हुआ पंडितजी की कोठी से बाहर निकला। क्यों न हो, आखिर भारत के प्रधानमंत्री से मुलाकात करके आया था। बाहर आते ही मुझे प्रेस के नुमाइंदों और फोटोग्राफरों ने घेर लिया।
(कृष्ण चंदर की ‘एक गधे की आत्मकथा’ से।)