Friday, November 28, 2008

धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध- 1

राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का मुखौटा है...

सांप्रदायिकता आज हमारे देश की सबसे गंभीर समस्या बन चुकी है। उसके विशाल और विकृत रूप के सामने धर्मनिरपेक्ष ताकतें शर्म महसूस करती हैं। औपनिवेशिक शासन के बुरे दिनों में हम सांप्रदायिकता का मतलब समझते थे कि यह विदेशी सरकारों की "फूट डालो और शासन करो" की नीति का एक व्यापक प्रतिफल है। हमारी ऐसी उम्मीद थी कि आजादी के बाद भारत में धीरे-धीरे एक बार फिर शांति कायम हो जाएगी। ऐसा लगता था मानो सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगों की सरकारी फाइलें अभिलेखागारों में जाकर शोधार्थियों के लिए बंद कर दी जाएगी। नफरत की जगह फिर वही पुरानी संस्कृति विकसित होगी जिसमें सब कुछ बर्दाश्त कर लेने की अद्भुत क्षमता है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा हमें दूसरे धर्म और संस्कृति के लोगों के साथ मिलजुल कर रहना सिखाती हैं। ये तो बीच में कुछ दिनों के लिए हमारी परंपराओं में दखल देकर अंगरेजों ने हमें दूसरे धर्मावलंबियों से नफरत करना सिखाया।

ऐसा मैं अकारण नहीं कह रहा हूं। अयोध्या में हुए हादसे के बाद लगभग सारी धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने इसी अंदाज में सोचना शुरू कर दिया है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनकी विफलता धर्म को अछूत मान कर उससे अलग हो जाने के कारण हुई है। उनके लिए हिंदुस्तान की अधिकांश आबादी धर्म की चेतना से नियंत्रित होती है, इसीलिए वे अपने मर्यादा पुरुषोत्तम राम, प्रगतिशील राम को सांप्रदायिक ताकतों के कब्जे से वापस ले लेना चाहते हैं। वे यह बुरी तरह महसूस करने लगे हैं कि फिरकापरस्त ताकतों को मात देने के लिए प्रगतिशील और मर्यादा पुरुषोत्तम राम को धारण करना ही होगा। निजी तौर पर मुझे लगता है कि इस चिंतन में कहीं कोई बुनियादी गड़बड़ी है, जो सांप्रदायिक ताकतों को परास्त करने की बजाय हमारी धर्मनिपेक्षता की अनियमित और अदूरदर्शी यात्रा को अंधेरी गली में कुछ लंबी अवधि के लिए गुम कर देगी।

फिलहाल हम प्रगतिशील लोग धर्मनिरपेक्षता का सही और सर्वसम्मत मत खोज पाने में सर्वथा असमर्थ हैं। धर्मनिरपेक्ष संविधान के सुखद अस्तित्व के बाद भी हम यह तय नहीं कर पाए हैं कि धर्मनिरपेक्षता का हमारे मुल्क के लिए क्या मतलब होगा। दुखद स्थिति तो यह है कि जिन ताकतों से धर्मनिरपेक्षता को असली खतरा है, जाने-अनजाने या फिर अपने बौद्धिक दिवालियापन की वजह से उसी के फार्मूले को अपनाने को मजबूर हैं। सांप्रदायिक ताकतें धर्म विशेष के नाम पर उठाई गई आवाज को राष्ट्रीयता का उदघोष कहती है। उसके खिलाफ अपनी रणनीति तब कमजोर पड़ जाती है जब सांप्रदायिकता को हम भी राष्ट्रवाद के रूप में देखना शुरू कर देते हैं। कुछ मार्क्सवादी इतिहासकारों की राय में आज की लड़ाई सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की न होकर "राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रवाद" की है। यह दृष्टिकोण न केवल अप्रीतिकर है, बल्कि अतार्किक भी है।

हमें ऐसा लगता है कि सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद की संज्ञा देकर सांप्रदायिक ताकतों के सामने हम अपना सारा हथियार एक ही बार में डाल देते हैं। सांप्रदायिकता का मुखौटा भले ही राष्ट्रवाद का क्यों न हो, वह एक सीमा के बाद भी घृणा करने लायक है।

हमारी समस्या यह है कि क्या धर्मनिरपेक्षता को हिंदू धर्म की परंपरा में ढूंढ़ा जा सकता है। थोड़े समय के लिए आपको ऐसे सवाल अप्रासंगिक लग सकते हैं। मेरी राय में आज कोई भी बुद्धिजीवी, जो धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करना चाहता है, इस सवाल से टकराए बगैर नहीं रह सकता। इसलिए यह सवाल भी महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान सांप्रदायिकता, जिसकी जड़ में धर्मोन्माद है, के खिलाफ हिंदू धर्म की प्रगतिशील भूमिका हमें किस हद तक मदद कर सकती है या कि वह सर्वथा अप्रासंगिक हो गई है।
लगभग सारे बुद्धिजीवी-कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्ट हाल के दिनों में धर्म की प्रगतिशील भूमिका पर बल देने लगे हैं। यह सांस्कृतिक संकट से उत्पन्न एक तरह का "बौद्धिक दिवालियापन" ही है, जिसके कमोबेश हम सारे लोग शिकार हैं।

Wednesday, November 26, 2008

विचार जड़ता के खिलाफ ज़ंग है- 3

विचार से हीन सूचना हमें भ्रष्ट बनाती है...


आतंकवाद कोई नया शब्द नहीं है। आज जिसे हम स्वाधीनता आंदोलन के योद्धा के रूप में याद करते हैं, अंग्रेजी सरकार उन्हें आतंकवादी कहती थी। आजादी से पहले के किसान आंदोलनों को अंग्रेज अफसरों की भाषा में डकैती की संज्ञा दी गई है। उस क्षण के आतंक को क्या हमने महसूस किया है जब किसी महान कलाकार को पाकिस्तानी पुरस्कार केवल इसलिए लौटा देने को कहा जाता है कि वह मुसलमान है। यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि भारतीय क्रांतिकारियों को आतंकवादी का दर्जा देने वाली सरकार के नुमाइंदे अपने देश की संसद के सामने क्या सफाई पेश करते थे।

वायरन शेली और अर्नेस्ट जोंस के लिए भी क्या भारतीय स्वतंत्रता सेनानी आतंकवादी ही थे? और फिर जोंस को ही जेल की भयानक सजा क्योंकर मिली थी? आने वाली पीढ़ियां इन बातों का बेहतर जवाब देंगी।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बदले हुए जमाने में साहित्य की चुनौतियां भी बदली हैं। फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो सार्वदेशिक और सार्वकालिक होता है। आज इस ग्लोबल दौर में उदारीकरण अगर हुआ है तो नव-औपनिवेशिक लूट का। साम्राज्यवाद के दिनों में औपनिवेशिक देशों को इसी "उदार हृदय" के साथ लूटा जाता था। सभी को मालूम है कि चीन के बाजार का कैसा बंदरबांट हुआ था। वहां "खुले द्वार" या "मुझे भी" की "उदार नीति" अपना कर साम्राज्यवादी देशों ने "उदार हृदय" का नमूना पेश किया था।

लूट का उदारीकरण आज भी जारी है, लेकिन दूसरी शक्ल में। इस "ग्लोबल विलेज" वाले दौर में अमेरिका की दादागिरी कायम है और कश्मीर की समस्या आज भी हमारा घरेलू मामला है। सूचनाओं का विस्फोट है और एक हद तक उसका ग्लोबलाइजेशन भी हुआ है। लेकिन दूसरी तरफ विचार पर अंकुश लगाने की पैशाचिक मुद्रा में तनिक नरमी नहीं आई है।

पूरी दुनिया में इतिहास के अंत की घोषणा हो चुकी है। भारत के बजरंगी जब सत्ता में आए थे, इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को बदल कर "उदारीकरण" की प्रक्रिया को आसान बनाने की पूरी कोशिश की गई। (मौजूदा सरकार इससे बहुत अलग नहीं कर रही)। सूचनाओं के साथ-साथ अफवाहों का भी वैश्विक बाजार बना है। डायनों की हत्या अब महज गांव की खबर नहीं रही। उसकी तस्वीर सीधे इंटरनेट से ली जा सकती है। आज जो शिक्षा नीति सरकार बरत रही है, उसमें मूल "इथिक्स" ही गायब है। शिक्षा सूचना बन कर रह गई है। और कहना न होगा कि विचार से हीन सूचना हमें भ्रष्ट बनाती है।

ग्लोबलाइजेशन से एक देश की अर्थव्यवस्था दूसरे किसी भी देश की जनता को तबाह करने की सामर्थ्य हासिल कर चुकी है। इसलिए उसका प्रतिरोध भी वैश्विक होगा।

Friday, November 21, 2008

विचार जड़ता के खिलाफ जंग है- 2

विचार जितने छिपे हों, लेखक के लिए उतना अच्छा...

इन्हीं दिनों एंगेल्स की पंक्ति- "विचार जितने छिपे हों, लेखक के लिए उतना ही अच्छा है"- ने मेरे विवेक को जागृत कर दिया। आज मैं कह सकने की स्थिति में हूं कि विचारधारा और सामाजिक यथार्थ का बेहतर समन्वय ही किसी रचना को बेहतर बना सकता है। विचारधारा की ठूंस-ठांस से कोई कालजयी कृति तैयार नहीं की जा सकती। शायद इसलिए मुझे गोर्की की "मां" की तुलना में जो दोनों आत्मकथात्मक उपन्यास हैं, कहीं अधिक भारी और मूल्यवान लगते हैं। तोलस्तोय का "पुनरुत्थान" मुझे महान रचना लगती है, क्योंकि उसमें "युद्ध और शांति" वाली दार्शनिक मुद्रा का अभाव पाता हूं। हावर्ड फास्ट का हिंदी में "आदि विद्रोही" नाम से अनूदित उपन्यास आज भी मेरे लिए एक चमत्कार की तरह है।

शायद कुछ मार्क्सवादी मित्र नेहरू की "डिस्कवरी ऑफ इंडिया" के प्रशंसक होने पर उंगली उठा दें। ये सभी विश्व साहित्य की "दुर्लभ" कृतियां हैं, क्योंकि विचारधारा की अपेक्षा "विजन" का फलक यहां ज्यादा बड़ा है। कलाकार बनने के लिए जीवन दर्शन से अधिक मार्मिक, सहानुभूति आवश्यक है। दृष्टिकोण से अधिक वह दृष्टि आवश्यक है, जो जीवन के हर पहलू को देख सके। राहुल सांकृत्यायन की यह पंक्ति, जो शायद अपने मूल में बुद्ध की है, "बेड़े की तरह पार करने के लिए मैंने विचारों को स्वीकार किया, न कि उन्हें सिर पर उठाए फिरने के लिए"- आज कहीं ज्यादा आश्वस्त करती है।

हालांकि दुनिया भर में वैसे लेखकों की भी एक परंपरा रही है जो विचारों को पास भी फटकने नहीं देना चाहते। उनका सारा श्रम इसी "कसरत" में लग जाता है और रचना निस्तेज हो जाती है। ये वही लोग हैं जो खुलेपन के नाम पर विचारहीनता की फसल काटना चाहते हैं। निस्संकोच कह सकता हूं कि मैं खाली दिमाग का नहीं, खुले दिमाग का कायल हूं।

कला की सभी विधाओं में विचारधारा का महत्त्व समान रूप से नहीं होता। भाषा के बिना विचारों की व्यंजना नहीं होती। इसलिए जिन ललित कलाओं में भाषा का प्रयोग नहीं होता, उनमें विचारों का अभाव होना भी अनिवार्य है। इसीलिए चित्रकला की तुलना में संगीत और रंगमंच साहित्य से ज्यादा गहरे जुड़े हैं। संगीत की शक्ति उसके विचारों, संकल्पनाओं और सामान्यीकरण में है। उसकी शक्ति सबसे उतकट रूप में जीवन के आंतरिक आत्मिक सारतत्त्व के उद्घाटन में प्रकट होती है।

संगीत का यह गुण उसे साहित्य के निकट ले आता है। इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मुझे कहना चाहिए कि रंगमंच का विकसित स्टेज साहित्य है। वैसे भी देखें तो रंगमंच में आंशिक अभिव्यक्ति की ही प्रमुखता है जो शायद मानव अभिव्यक्ति की पहली प्रविधि रही है। अभिव्यक्ति का आदिम रूप होने की वजह से ही कलाकार मंच पर तटस्थ तो रह सकता है, निष्क्रिय नहीं। रूसी कलाकार शोस्ताकोविच ने ठीक ही कहा था कि "आज का रंगमंच दार्शनिक चिंतन के बिना, विश्व दृष्टिकोण के बिना नहीं रह सकता। स्वांग किया जा सकता है, गुदगुदी पैदा की जा सकती है, लेकिन वह निरर्थक ही होगा।"

खासतौर से सांप्रदायिकता और आतंकवाद औपनिवेशिक भारत की देन हैं। धर्मनिरपेक्षता भारत की मूल संस्कृति रही है। अशोक के अभिलेख में- जो भारतीय इतिहास के सबसे पुराने लिखित रूप में है- धार्मिक सहिष्णुता पर जोर दिया गया है। और हमें कहना चाहिए कि वह अकेला शासक नहीं है। यह और बात है कि धर्मनिरपेक्षता, जो हिंदी में सेक्युलरिज्म शब्द का तर्जुमा है, आधुनिक यूरोप की अवधारणा है और राष्ट्र-राज्यों के अभ्युदय के साथ पैदा हुई है। सांप्रदायिकता के खिलाफ हिंदीसाहित्य में भारतेंदु, प्रेमचंद और यशपाल से लेकर आज तक एक मुकम्मल लड़ाई जारी है।

जारी...

Monday, November 17, 2008

विचार जड़ता के खिलाफ़ ज़ंग है- 1

मेरे वैचारिक गुरू...


लेखन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का परिणाम है। लेखन की शुरुआत कब और कैसे की, का उत्तर देने के लिए बचपन के उन दिनों की याद को ताजा करना होगा, जब एक लेखक मन का जन्म हो रहा था। मोटे तौर पर मैं तेज विद्यार्थी नहीं था, लेकिन मेरे चाचा इसे कब मानने वाले थे। जब कभी कोई मेहमान पर आते, मेरे हाथ में अंग्रेजी की किताब दे दी जाती और मैं निहायत अंग्रेज की तरह मुंह बना कर पढ़ना शुरू कर देता। हालांकि कॉलेज के दिनों में अंग्रेजी में छपी किताब या पत्रिका का साथ पकड़े जाने पर उन्हीं चाचा की जम कर डांट सुननी पड़ती। कारण शायद यह था कि मेरे सबसे बड़े भाई की अंग्रेजी अच्छी थी, इसलिए लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं की तैयारी न करके "दार्शनिक" बन चुके थे। यह कहते हुए अब कोई डर नहीं है कि चौथी कक्षा के बाद से गणित की पढ़ाई मैंने विधिवत छोड़ दी। लेकिन जब कभी बाबू जी गणित का प्राप्तांक पूछते मैं एक ही सांस में हिंदी, इतिहास, संस्कृत आदि विषयों में सबसे ज्यादा अंक होने की घोषणा कर बैठता। नतीजतन, भंग पीसने वाले डंडे (भंगघोंटनी) की जबर्दस्त मार खानी पड़ती।
आठवीं कक्षा तक आते-आते मैं मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित हो चुका था। परिचित कितना था- नहीं जानता। उन दिनों "जनशक्ति" दैनिक में, जो अन्य अखबारों के साथ मेरे विद्यालय में आता था, मार्क्सवादी पुस्तकों का विज्ञापन छपा होता था। चार पुस्तकों के नाम मैंने नोट किए- कम्युनिस्ट घोषणा पत्र, साम्राज्यवादः पूंजीवाद की चरम अवस्था, कम्युनिस्ट समाज में नैतिकता आदि, और अपने पड़ोसी से मंगा लिए। मेरी लापरवाही से किताबें चाचा के हाथ पड़ गईं और कुछ दिनों के लिए पेटी में बंद हो गईं। थोड़े ही दिनों के प्रयास से मैंने उसे हासिल भी कर लिया और आद्योपांत पढ़ डाला।
अब क्या था। मैं मार्क्सवाद का स्वघोषित प्रवक्ता बन गया। इस निर्माण में हाई स्कूल के हिंदी शिक्षक, जो आज भी मेरे लिए आदर्श हैं, की भी बराबर की भूमिका रही। लेखकीय संस्कार बनने के शायद वे ही क्षण थे। सन 84 से बड़े भाई अखिलेश कुमार के साथ पीजी हॉस्टर में रहने लगा। इतिहास की आलोचनात्मक दृष्टि उन्हीं से हासिल की। आज भी जब एकांत में होता हूं, वे मुझे बड़े भाई से अधिक वैचारिक गुरू के रूप में ही याद आते हैं।
सन 87 से मैंने "जनशक्ति" में लगभग नियिमत लिखना शुरू कर दिया। भाषा बनाने में इसकी बड़ी भूमिका रही। भोले और सहज दीखने वाले इंद्रकांत मिश्र असमय ही छोड़ कर इस संसार से चल बसे। फिर क्या था- गोष्ठियों में अपनी भागीदारी दर्ज कराता और लोगों से बहसें करता। इन्हीं दिनों डॉ नंदकिशोर नवल, डॉ विजय कुमार ठाकुर और रामसुजान अमर से परिचय हुआ जिनके माध्यम से एक नई दुनिया के दर्शन हुए। यहां तक आते-आते विचारधारा की समझ स्पष्ट हो चुकी थी और मैं लेखन में स्पष्ट विचारधारा का हिमायती भी हो चला था। इन्हीं दिनों मैंने एक लेख भी लिखा- साहित्य और उसका चरित्र, जो इसी शीर्षक से एक स्थानीय दैनिक में प्रकाशित भी हुआ।
तब मैं अक्सर सोचा करता था कि वही लेखक बड़ा है जो मार्क्सवादी विचारधारा की वकालत करता हो या कम से कम उसी दृष्टि से चीजों को देखने की कोशिश करता हो। इससे इतना तो अवश्य हुआ कि एमए तक मार्क्सवादी साहित्य से लगभग परिचित हो गया।

...जारी