Wednesday, March 31, 2010

मध्यवर्गीय है दलित की अवधारणा

मैंने पाया है कि गांव में भिन्न जाति के लोगों के लिए बोली-बाजी के मुहावरे और शब्दावलियां अलग-अलग हैं। अगर हलवाहे मुसहर जाति से होते और उनको बैल दिक (परेशान) करते तो सहज ही कहते चमरे हीं दे अएबउ अर्थात् चमार को दे आएंगे। यहां यह भाव होता कि सामाजिक स्तरीकरण में मुसहर अपने को चमार जाति से श्रेष्ठ समझ रहा है। हलवाहा अगर चमार होता, तो कहता कसइबे हीं दे अएबउ। कसाई यानी इस्लाम। यहां यह गौरतलब है कि हिन्दू धर्म में चमार को अपने से हीन कोई न दिखता. जाहिर है, इसमें इस्लाम के प्रति घृणा भी समाविष्ट होती। और बात है कि अलग-अलग जातियों के लोगों को संबोधित करने के लिए अलग-अलग तरह की शब्दावली व्यवहृत होती है। गांव की पाठशाला, जहां पर ब्राह्मण शिक्षक-‘पंडितजी’, ठाकुर शिक्षक ‘बाबू साहब’ और अन्य जातियों के शिक्षक ‘मुंशीजी’ कहकर संबोधित होते हैं तथा उनके लिए अभिवादन भी अलग-अलग हैं। जैसे पंडित जी के लिए-‘‘पंडत जी पांय लागी’’, बाबू साहब के लिए-‘‘बाबू साहब जयशंकर’’ तथा मुंशी जी के लिए-‘‘मुंशी जी नमस्ते’’। (मनोज कमार मार्तंड, अस्तित्व, हंस , अगस्त, 2004, पृष्ठ, 23)।

‘श्राद्ध का भोज’ कविता में पंकज कुमार चौधरी ने गांव के श्राद्ध-भोज की एक सच्ची तस्वीर खींची है। गांवों में, जैसाकि ऐसे मौकों पर हमेशा ही होता है, सवर्णों एवं अवर्णों की अलग-अलग पांत बैठती है। गांव के सवर्ण अरबिन्द के लिए ‘अरबिन्द बाबू’ और ‘राजा भाई जी’ जैसे संबोधनों का प्रयोग है। अवर्ण पात्रों के नाम अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा आदि हैं। जाति एवं सामाजिक व्यवस्था से हमारी भाषा कैसे प्रभावित होती है, कवि ने इसका खास ध्यान रखा है। कैसे एक ही व्यक्ति, जो खाद्य-सामग्री परोसनेवाला है, अरबिन्द बाबू से पूछते हुए ‘सब्जी’ शब्द का प्रयोग करता है जबकि अकलूआ, चट्टूआ, बिसेसरा से पूछते हुए ‘तरकारी’ शब्द से ही काम चलाता है। जो व्यक्ति भाषा की गहरी समझ और संवेदना रखता है, वह इन चीजों पर गौर करेगा। प्रसंगवश, मुझे निराला की कृति बिल्लेसुर बकरिहा ' की याद आ रही है। बिल्लेसुर, जैसाकि आप सब जानते हैं, विल्लेश्वर है, लेकिन बकरी चरानेवाला (बकरिहा) होने की वजह से लोगों की जुबान पर यह नाम चढ़ नहीं पाता। उपर्युक्त बातों के सहारे मैं अपनी इस बात को प्रस्थापित करने की कोशिश कर रहा हूं कि गांवों में ‘दलित समुदाय’ जैसी किसी चीज की अवधारणा का सर्वथा अभाव देखा जाता रहा है। वहां जातियां ही प्रधान हैं। और बड़ा विभाजन अगर करना चाहें तो वह सवर्ण और अवर्ण (बैकवर्ड एवं फॉरवर्ड) का है।

कई साल हुए सावित्री बाई के स्कूल की 13 साल की लड़की मुक्ताबाई ने जो निबंध लिखा था उसकी भी मुख्य अंतर्वस्तु जाति-व्यवस्था का अंतर्विरोध है। वह लड़की स्वयं मांग जाति से थी। उसका मानना है कि मुख्य अंतर्विरोध जाति व्यवस्थ का है। दलितों के अंदर भी महार और मांग में फर्क है। मांग जाति को महार की तुलना में निम्न सामाजिक हैसियत प्राप्त है। उस निबंध में दलितों के भीतर ब्राह्मणवादी सोच के अस्तित्व को दिखाते हुए लिखा कि महार भी अपने से नीचेवाले को दबाते हैं और निष्कर्षतः कहा कि इस व्यवस्था (जाति की) में सभी एक दूसरे को दबा रहे हैं। इसलिए इस बात को मान लेने का कोई आधार नहीं बनता कि दलित अपने आप में सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से शोषितों की एक मुकम्मल इकाई है।

ग्रामीण समाज के उलट शहरों-महानगरों में जातियों का एक तरह से लोप हुआ है। यहां समुदाय की अवधारणा जोर पकड़ रही है। पिछड़ी जातियां, दलित आदि। कहना होगा कि ये जातियों के नहीं समुदाय के नाम हैं। ‘दलित टर्म’ तो एक ‘अम्ब्रेला टर्म’ है। (सुधीश पचौरी, ‘अमरीका में ब्लैक्स को आरक्षण है’, हंस , अगस्त, 2004)। समुदाय इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति के मुकाबले एक बड़ी राजनीतिक ताकत है। दलित समुदाय का जो मध्यवर्ग है, वह शहरों-महानगरों में केन्द्रित है। मध्यवर्ग को अपने दैनिक जीवन में रोज ही अपनी संगठित शक्ति का परिचय देकर अपना प्रभुत्व साबित करना होता है। इस प्रभुत्व के जरिए वे एक तरह का शक्ति-संतुलन स्थापित करते हैं। इस आधार पर वे अपनी सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक हितों की रक्षा करते हैं। आप कह ले सकते हैं कि पिछड़ी जाति एवं दलित का जो मध्यवर्ग है, वह अपने समुदाय की एकता को दिखाने की ‘राजनीति’ करते हैं। ‘दलित लेखन की राजनीति के इस चरण की सोची-समझी राजनीति जान पड़ती है। यह राजनीति एक नवोदित मध्यवर्ग द्वारा सामाजिक प्रतिष्ठा में अपने हिस्से की मांग और आभिजात्य के अर्जन से जुड़ी है...।’ (डा. अर्चना वर्मा, 'दलित लेखन सिर्फ एक वर्गीकरण है', हंस , अगस्त, 2004)। यह वर्ग अपने समुदाय के लोगों के बीच यह ‘मिथ्या चेतना’ पैदा करने, अथवा गढ़ने की कोशिश करता है कि उस जातीय समुदाय के सारे लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक स्वार्थ एक-से हैं। आर्थिक हितों की शायद ही यह दलित मध्यवर्ग चर्चा करता है क्योंकि ऐसा करने पर उनकी आपसी ‘नैसर्गिक एकता’ की कलई खुल सकती है!

दलितों के बीच मध्यवर्ग के निर्माण की प्रक्रिया अम्बेदकर के जमाने में ही शुरू हो चुकी थी. लेकिन कहना होगा कि एक राजनीतिक ताकत के रूप में उसका बहुत ही सीमित उपयोग संभव था। इसी बात को दलित चिंतक चन्द्रभान प्रसाद दूसरे शब्दों में कुछ इस तरह कहते हैं-‘दलितों में आज मध्यवर्ग का उदय हो रहा है, अपने शैशव अवस्था में है। आज का यही दलित शिशु यदि डॉ. अम्बेडकर के समय में उदित हो चुका होता, तो तस्वीर निर्णायक रूप से भिन्न हो चुकी होती, अपने जीवन काल में ही वे वह लड़ाई जीत चुके होते, जिसे हम उनका सपना मानते हैं।’ ('बौद्धिकता के अंकुर अभिजात वर्ग से', हंस , अगस्त, 2004)। उस जमाने में मध्यवर्ग हिदुओं एवं मुसलमानों के बीच ही उभर सका था। हिन्दू-मुस्लिम मध्यवर्ग का अंतर्विरोध ही प्रमुख था। शायद इसीलिए अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने इन्हीं दोनों के बीच के अंतर्विरोध एवं आपसी तनाव को गहरा करने की कोशिश की। हालांकि वे इस बात से नावाकिफ नहीं थे कि भारतीय समाज की एकता को तोड़ने के लिए दलित मध्यवर्ग का इस्तेमाल भी संभव है। बल्कि यहां यह जोड़ देना मुनासिब लगता है कि साम्राज्यवादी ताकतें इस दिशा में पहल ले चुकी थीं। ‘पहली आम जनगणना 1881 में जातियों और प्रजातियों की सूची बनी। 1891 में उच्च और निम्न जाति के रूप में वर्गीकरण हुए। 1901 में उच्च जाति हिन्दुओं ने जाति उल्लेख का तीव्र विरोध किया। 1911 की जनगणना में उन जातियों और उन कबीलों की अलग-अलग गणना की, जो ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और, वेदों की सत्ता को नहीं मानते, बड़े-बड़े हिंदू देवी-देवताओं और गाय की पूजा नहीं करते, जो गोमांस खाते हैं।’(श्यौराजसिंह बेचैन, 'सत्ता-विमर्श और दलित', हंस , अगस्त, 2004)। इसके साथ ही वे सामाजिक व्यवस्था में छोटी-बड़ी जातियों का अपने हिसाब से श्रेणीक्रम निर्धारित करने की ‘राजनीति’ भी करते। कहते चलें कि इस साजिश में उनकी न्याय-व्यवस्था भी शामिल थी। और तो और वे ठीक मुसलमानों की तरह दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की भी व्यवस्था कर चुकनेवाले थे। ये सब करने के पीछे उनकी एक सोची-समझी राजनीति थी-‘फूट डालो और शासन करो।’ क्या यह तथ्य भी मतलब से खाली है कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के दिनों में सबसे अधिक संख्या में किताबें भारत की जाति व्यवस्था पर ही लिखी गईं ?

आज के दलित चिंतक यह कहते हुए कि अंग्रेज देर से आए और जल्दी चले गए’, कोई नई बात नहीं कर रहे होते। यह कोई चौंकानेवाली बात भी नहीं है। दरअसल भारत का जो उच्च मध्यवर्ग रहा है, चाहे वह हिदू, मुस्लिम या दलित ही क्यों न रहा हो, अंग्रेजी राज के बने रहने में ही अपना उद्धार देखा है। हिन्दू मध्यवर्ग 1857 की क्रांति से अपने को अगर विलग रखता है तो शायद इसीलिए कि अंग्रेजी राज में ही अपना भविष्य तलाश रहा था . यह और कोई नहीं अंग्रेजी पढ़ा उच्च मध्यवर्ग था। (पवन के वर्मा, बिकमिंग इंडियन ,) उनका स्पष्ट मानना था कि भारत का आधुनिकीकरण अंग्रेजों के बगैर संभव नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, वे आधुनिकता के इस जोश में पश्चिम की हर अच्छी-बुरी चीज को अपना रहे थे और उसी प्रक्रिया में भारत की हर अच्छी-बुरी चीज का विरोध भी कर रहे थे। कुछ लोग तिलक के यहां जो स्वदेशी और भारतीयता पर कभी-कभी ‘अनावश्यक’ जोर देखते हैं, उसकी वजह शायद यही है कि वे भारतीय राजनीति में निम्न मध्यवर्ग के प्रतिनिधि नेता थे जो कहीं न कहीं उच्च मध्यवर्ग की जो पश्चिमपरस्ती (या कि राजभक्ति ?) थी, उसकी एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी थी। मुस्लिम मध्यवर्ग इस भूमिका में बाद में आए क्योंकि उनके बीच मध्यवर्ग का निर्माण हिन्दुओं की तुलना में अपेक्षाकृत विलंब से हुआ। वहां भी जिन्ना और अबुल कलाम आजाद की धारा है। जिन्ना शायद इतने आधुनिक या कि पश्चिमपरस्त हैं कि लगभगअभारतीयहैं गांधी ने नेहरु और जिन्ना में फर्क बताते हुए कहा था कि दोनों ही बड़े राजनेता हैं लेकिन नेहरु साथ ही एक बड़े देशभक्त भी हैं। दलित मध्यवर्ग और भी देर से पैदा हुआ। बल्कि कहना चाहिए कि दलितों के बीच मध्यवर्ग का व्यापक उभार केवल अभी ही देखने में आया है।

मुस्लिम मध्यवर्ग की ताकत का उपयोग भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की एकता को कमजोर करने हेतु अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने किया तो दलित मध्यवर्ग के वर्तमान उभार को अमरीकी नव उपनिवेशवाद ने वर्ग संघर्ष की अवधारणा को कमजोर करने के लिए किया। आज विमर्श की जो आंधी चली है-यथा दलित विमर्श, नारी विमर्श, पर्यावरण विमर्श या फिर उत्तर आधुनिकता का विमर्श ही क्यों न हो-सभी वर्गीय चेतना को कमजोर बनाने के वैश्विक हथकंडों को अमरीकी फंडिंग जारी है। अकारण नहीं है कि दलित बुद्धिजीवियों को चुन-चुनकर फोर्ड फाउंडेशन के फेलोशिप प्रदान किये जा रहे हैं। इन सबमें कहीं न कहीं एक अंतःसूत्रता है जिसकी गहरे में जाकर खोज की जानी चाहिए।

Monday, March 15, 2010

ऐसी खुशफहमी भी ठीक नहीं है, जोशी जी...!



जनसत्ता (6 दिसंबर, 2009) में प्रकाशित मेरे लेख ‘कला-आलोचना की भाषा’ (http://matmatantar.blogspot.com/2010/01/blog-post_08.html) पर दो बिल्कुल ही भिन्न तरह की प्रतिक्रिया दो भिन्न रूपों में आईं। पहली अलिखित, लेकिन दूसरी लिखित।

मैं अपना छपा लेख देख-पढ़ भी न पाया था (पटने में अखबार शाम में उपलब्ध हो पाता है) कि रामसुजान अमर जी (दिल्ली) का फोन आया कि ‘आपके लेख से जनसत्ता पढ़ना शुरू कर रहा हूं। लेख अच्छा है। आपकी चिंता में मेरी चिंता भी शामिल है।’(स्थानीय मित्र डॉ अशोक कुमार की भी ठीक यही प्रतिक्रिया थी)। रामसुजान जी ने फोन ही पर लगभग आध घंटे से भी ज्यादा समय तक एक तरह से चित्रकला आलोचना के इतिहास के बारे में बताया। इस विषय पर उनकी हालांकि तात्कालिक प्रतिक्रिया ही थी, लेकिन जानकारी इतनी समृद्ध कि लेख लिख कर भी मैं अपने को बौना महसूस कर रहा था।

दूसरी प्रतिक्रिया ज्योतिष जोशी जी की जनसत्ता (10 जनवरी, 2010) ही में प्रकाशित लेख की शक्ल में है। इस प्रतिक्रिया को पढ़ने पर मुझे लगा कि जोशी जी को कला आलोचना की ‘भाषा’ गढ़ने की चिंता कम, दूसरी चीजों की ज्यादा है। उन्हें अगर मेरा विश्लेषण ‘सतही’ लगा है, तो इसके ‘वाजिब’ कारण हैं। पहला तो यही कि मैंने ‘एक-दो’ समीक्षकों का ही नामोल्लेख किया है, वह भी ‘कोप के बहाने।’

यह सच है कि जोशी जी को मैं एक कला-समीक्षक के बतौर पढ़ता रहा हूं। अलबत्ता नामोल्लेख में मुझसे ‘भूल’ हो गई। हालांकि जोशी जी को ‘राहत’ की सांस लेनी चाहिए थी, क्योंकि वे मेरे ‘कोप’ का ‘शिकार’ होने से बच गए। ‘अखबार में नाम’ ही महत्त्वपूर्ण है, मुझे अगर पहले से इसकी थोड़ी भी ‘समझदारी’ या ‘दुनियादारी’ होती तो, सच कहता हूं, आपका ‘कोपभाजन’ बनना मैं कभी स्वीकार नहीं करता।

जोशी जी को लगा कि मैंने ‘पुष्ट परंपरा/विराट परंपरा’ की चर्चा नहीं की। चर्चा तो स्वयं जोशी जी भी नहीं कर पाए। मुझे अपनी ‘अक्षमता’ का अहसास पहले से था, जोशी जी को अब जाकर होगा। श्रीमान जोशी की राय में, ‘कलाओं में चित्रकला के सृजन की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी कला चिंतन की परंपरा। यह परंपरा संस्कृत से प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में गई...।’ और यह परंपरा निःसृत होती है ‘वेद’ से। हालांकि जोशी जी की यह कोई मौलिक स्थापना नहीं है। बुद्धिजीवियों का बाजाब्ता एक ‘गिरोह’ ही है जो कला तो क्या ‘सापेक्षतावाद’ एवं ‘विकासवाद’ तक को वेद ही में ढूंढ़ लेता है। (देखें, मीरा नंदा, ‘पोस्ट मॉडर्निज्म, हिन्दू नेशनलिज्म एंड वेदिक सायंस’, फ्रंटलाइन, 15 जनवरी, 2004, पृष्ठ-78।) कहूं कि जोशी जी ‘विराट परंपरा’ की बात तो करते हैं, लेकिन चीजों पर विचार करते समय उनकी ‘विराटता’ के दर्शन नहीं होते। वेद की ‘लक्ष्मण-रेखा’ पार नहीं कर पाते। इसमें बहुत हद तक उनका दोष नहीं है, दोष उस विचार-धारा का है, जिसके अनुयायी परंपरा जैसी गंभीर चीजों पर इतने ‘एकांगी’ और ‘पारंपरिक’ ढंग से विचार करते हैं कि ‘परंपरावादी’ होने की बू आने लगती है।

मेरे लिए तो चित्रकला की ‘विराट परंपरा’ प्रागैतिहासिक काल से शुरू होती है। आदिमानव के अस्तित्त्व के साथ चित्रकला भी जुड़ी हुई है। बल्कि आदिमानव को ‘मानव’ बनाने में कहीं न कहीं इस कला की सार्थक भूमिका की मैं तलाश करता हूं। ये और बात है कि आदिमानव का जो ‘कला-विमर्श’ रहा होगा, उसके प्रतिमान, ‘सौंदर्यशास्त्रीय’ की अपेक्षा ‘उपयोगितावादी’ मूल्यों से अधिक प्रेरित/प्रभावित रहे होंगे।

जोशी जी परंपरा की धार में बहते अतिशयोक्तिपूर्ण वक्तव्य देते चलते हैं। उन्हें इस बात का इलहाम है कि ‘साहित्यकारों द्वारा कला-आलोचना के क्षेत्र में काम करने की परंपरा हिंदी ही नहीं, दुनिया की हर भाषा में मिलती है।’ लेकिन ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी से लेकर अशोक वाजपेयी’ तक के ‘अनेक कलाविद’ के जो नाम गिनाए गए हैं, वे ‘किसी भी एक भाषा को आसानी से मयस्सर नहीं होते, जो हिंदी को हुए।’ कोई पाठक जोशी जी से पूछ ले सकता है कि ‘अभिव्यंजनावाद से लेकर प्रभाववाद’ तक जो कला-आंदोलन हुए हैं, वे भी आखिर किसी न किसी भाषा ही में हुए हैं, तो उनके अपने महावीर प्रसाद द्विवेदी या अशोक वाजपेयी नहीं रहे होंगे क्या? जोशी जी को यह स्पष्ट तरीके से मालूम है कि ‘ये आंदोलन वायवीय नहीं थे।’ वैसे, मेरे जानते कोई भी आंदोलन वायवीय नहीं होता।

जोशी जी अपने ही ‘यक्ष-प्रश्न’ से परेशान हैं कि ‘जब भाषा साहित्यकार को ही आती है (जोर हमारा) तो आलोचना लिखेगा कौन?’ इस कथन के पूर्वार्ध पर अगर विश्वास कर लिया जाए तो क्या चित्रकला या नाटक की भाषा के लिए कोई भी संभावना बची रहती है? शायद नहीं, क्योंकि श्रीमान जोशी शब्द-रूप के बगैर भाषा की कल्पना ही नहीं कर पाते। वे धन्य हैं जो प्रकृति की ‘मौन की भाषा’ भी समझ लेते हैं। बल्कि मैं तो बचपन से पढ़ता आ रहा हूं कि भाषा मनुष्य मात्र की पहचान या उपलब्धि है। जो सचमुच में साहित्यकार हैं, वे भाषा तांगे वाले या हल चलाने वाले से भी सीखते हैं। एक बच्चे से भी सीखनी होती है भाषा।

जाहिर है, जोशी जी अगर ‘साहित्यकार’ हैं तो भाषा पर उनका ‘एकाधिकार’ है। हालांकि उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर में ऐसी खुशफहमी कुछ ठीक नहीं है,जोशी जी!