Saturday, July 31, 2010

प्रेमचंद और उनका प्रगतिशील साहित्य

‘मैं मजदूर हूं, जिस दिन न लिखूं, उस दिन मुझे रोटी का अधिकार नहीं है।’ प्रेमचंद की यह सजीव पंक्ति हमें उनकी कर्मठता तथा रचनाशीलता पर विचार करने के लिए बाध्य कर देती है। सचमुच अगर किसी लेखक को कर्मठता तथा व्यक्तित्व की सीख लेनी हो तो वह प्रेमचंद से ही संभव हो सकता है। जहां तक रचनाधर्मिता का सवाल है वहां प्रेमचंद के साहित्य में सारा युग बोलता है। प्रेमचंद एक व्यक्ति नहीं बल्कि दर्शन का नाम है जो उनकी तमाम रचनाओं में परिलक्षित हुआ है। प्रेमचंद का साहित्य अपने आप में एक नया प्रयोग है।
प्रेमचंद का साहित्य एक लम्बा सफर है जो आदर्शवाद से शुरू होकर यथार्थवाद से होते हुए मार्क्सवाद को विश्राम लेता है। प्रेमचंद का आदर्शवाद प्राचीन साहित्य का आदर्शवाद न था बल्कि इसमें उनकी अपनी सच्ची अनुभूति थी। आदर्शवाद के माध्यम से प्रेमचंद पात्रों के चरित्र में सुधार चाहते थे। यह सुधार मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों के आधार पर हुआ करता था। अपने प्रारंभ के दिनों में प्रेमचंद महज सुधार की बात करते थे जिसका एकमात्र कारण इन पर गांधीजी के जादुई व्यक्तित्व का प्रभाव था। लेकिन समय की गति तथा वक्त की जरूरतों के मुताबिक जल्द ही प्रेमचंद का आदर्शवाद यथार्थवाद में परिणत हो गया।

प्रेमचंद की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह हमें उन्हीं बातों पर गंभीरता से विचार करने के लिए विवश कर देती हैं जिन्हें हम दैनिक जीवन में भुगत रहे होते हैं। प्रेमचंद की रचनाओं में गांवों तथा कस्बों की मनहूस झोंपड़ियों में रहनेवाली अस्सी प्रतिशत जनता की आवाज है। इनकी रचनाओं में उन्हीं लोगों की वाणी मुखरित हुई है जिनसे जुड़कर चलने में प्रेमचंद भी अपनी शान समझते थे। प्रेमचंद के पहले कोई सोच भी नहीं पाता होगा कि गांव में रहनेवाला गोबर, धनिया तथा घीसू, माधव जैसे लोग हिन्दी साहित्य के पात्र बनेंगे। यह बात यह साबित करने के लिए काफी है कि गोबर जैसे लोगों के साथ इनकी आत्मीयता जुड़ी थी। यह कहना तनिक भी अनुचित न होगा कि यह न सिर्फ गोबर की बल्कि लाखों-करोड़ों शोषितों एवं पीड़ितों की स्थिति थी। इस प्रकार प्रेमचंद शोषितों के एक वर्ग की ताकत में विश्वास रखते थे। जाहिर है, हिन्दी साहित्य में वर्ग संघर्ष की सूझ सर्वप्रथम इन्हें ही मिली थी।

इन सबों से परे यह कि लाखों शाषितों एवं पीड़ितों की आवाज को प्रेमचंद न कहीं से चुराने की कोशिश नहीं की बल्कि ये उनके अपने तीखे अनुभव थे। राजेन्द्र यादव ने सच ही कहा है कि ‘व्यक्तिगत रूप से अगर देखा जाए तो ‘सेवासदन’ से ‘गोदान’ या ‘कफन’ तक की यात्रा एक बहुत कड़वे यथार्थ को स्वीकार करते चले जाने की यात्रा है।’ सचमुच प्रेमचंद की रचनाओं की जमीन यथार्थ की जमीन थी। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में सामंती युग में गिर रहे मानव मूल्यों की नग्न तस्वीर पेश करते हैं। प्रेमचंद ने यह चित्रित करने की कोशिश की है कि किसानों की स्थिति जूठों पर पलनेवाले जानवरों से भी खराब हो गई थी। ‘पूस की रात’ कहानी का हलकू इसी तरह की मिसाल हमारे सामने पेश करती है। हलकू को अपनी सामाजिक हैसियत का काफी ज्ञान था। यही कारण है कि ठंड से कांपते समय जबरे कुत्ते से अपनी तुलना करते पाया जाता है। इस सामंतवाद को तोड़ डालना प्रेमचंद का लक्ष्य था जो आदमी को जानवर की जिंदगी जीने को विवश कर रहा था।

प्रेमचंद के साहित्य और राजनीति में अलगाव के बदले गहरा सामंजस्य हमें देखने को मिलता है। जहां तक राजनीति का सवाल है प्रेमचंद का गांधीवाद से मोहभंग हो गया था। प्रेमचंद को मार्क्सवाद की धुन सवार थी फलस्वरूप वे समाधान की गांधीवादी शैली में अपनी आस्था खो चुके थे। प्रसिद्ध उपन्यास ‘कर्मभूमि’ के अन्त में सेठ जी के स्वर में प्रेमचंद बोलते हैं-‘जन आंदोलन को चलाकर और समझौतों को बिना सोचे समझे करके ...गलती हुई और बहुत बड़ी गलती हुई। सैकड़ों घर बर्बाद हो जाने के सिवा और कोई नतीजा नहीं निकलता है।’ (पृष्ठ 520) ...‘इस प्रकार के आंदोलन में मेरा विश्वास नहीं है। इनमें प्रेम की जगह द्वेष बढ़ता है। जब तक रोग का निदान न होगा उसकी ठीक औषधि न होगी केवल बाहरी टीम-टाम से रोग का नाश न होगा।’ (पृष्ठ 519) इसी उपन्यास के अंत में अमर से सलीम का यह बयान कि ‘नतीजा यह होगा कि यहीं पड़े रहेंगे और रिआया तबाह होती रहेगी। तुम्हें तो कोई खास तकलीफ नहीं है लेकिन गरीबों पर क्या बीत रही है यह सोचो।’ जाहिर है, यह प्रेमचंद का गांधीवाद से मोहभंग था।

प्रेमचंद के साहित्य के मार्क्सवादी चरित्र की जांच के लिए हम ‘कफन’ जैसी कहानियों को उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं। इस कहानी में घीसू कामचोर ( ?) है। आखिर इसका कारण क्या है ? इसका जवाब प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में मार्क्सवादी लहजे में दिया है। उनका मानना है कि यह गुण जन्मजात नहीं होता है बल्कि यह परिस्थितियों की ऊपज है। उचित मजदूरी के अभाव में श्रम से विरक्ति पैदा होने लगती है। निश्चित रूप से यह मार्क्स की ‘एलिएनेशन थिएरी’ है जिसको प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में चित्रित करने की कोशिश की है। इस प्रकार प्रेमचंद ने मार्क्सवाद का पक्ष लेना ज्यादा जायज समझा।

एक सफल साहित्यकार होने के नाते प्रेमचंद ने हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता की बात करना भी जायज समझा। प्रेमचंद ने शुद्धि आंदोलन की काफी निंदा की। प्रेमचंद का अपना निजी ख्याल था कि किसी भी व्यक्ति का धर्म परिवर्तन बाहरी ताकतों द्वारा नहीं कराया जा सकता। प्रेमचंद ने शुद्धि आंदोलन की बजाय गरीबों को गले लगाने की बात कही थी। उन्होंने कहा था-‘ हम शुद्धि के हिमायतियों से पूछते हैं, क्या हिन्दुओं को शक्तिशाली बनाने का यही एक तरीका है ? उनको क्यों नहीं अपनाते जिनको अपनाने से हिन्दू कौम को असली ताकत होगी ? करोड़ों अछूत इसाइयों के दामन में पनाह लेने चले जाते हैं,उन्हें क्यों नहीं गले से लगाते ? अगर आप कौम के सच्चे शुभचिंतक हैं तो आप उन अछूतों को उठाएं, उन दलितों के जख्म पर मरहम रखें, इन्हें शिक्षा और सभ्यता की रोशनी पहुंचाएं, छोटे और बड़े का भेद मिटाएं, छूआछूत के अर्थहीन और बेहूदे भेदभाव से जाति को छुटकारा दिलाएं। क्या हमारे पुराणपंथी धार्मिक लोग डोमरों और चमारों से भाईपना और समानता कायम करने के लिए तैयार है ? अगर नही तो उनका जाति के बिखराव को रोकने का दावा झूठा है।’ ऊपर की ये पंक्तियां ‘मलकाना राजपूत मुसलमानों की शुद्धि’ नामक लेख में देखी जा सकती हैं।

प्रेमचंद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने न सिर्फ दोनों सम्प्रदायों की आलोचना की बल्कि सांस्कृतिक एकता की भी बात कही। प्रेमचंद का मानना था कि दोनों की संस्कृति एक है। दोनों की सामाजिक समस्याएं भी एक ही सी हैं। दोनों के बीच गरीबी एवं अशिक्षा बिना किसी भेदभाव के मौजूद है। दोनों के सामने रोटी की समस्या सामान्य रूप से पाई जाती है। जाहिर है गरीबों की मात्र एक संस्कृति होती है और वह है रोटी की संस्कृति। स्पष्ट है, प्रेमचंद ने तमाम समस्याओं का समाधान मार्क्सवाद में खोजने की कोशिश की है कि जो इनकी रचनाओं की सबसे बड़ी सफलता है। प्रेमचंद का प्रगतिशील साहित्य मार्क्सवाद की जमीन पर लिखा गया साहित्य है।                                                                                                                                          प्रकाशन: आत्मकथा, पटना, 15 नवंबर, 1987।

Tuesday, July 27, 2010

कविता संस्कृति का एक हिस्सा है

कविता संस्कृति का एक हिस्सा है और निरंतर कविता संस्कृति को बढ़ाने का भी काम करती है जिसका मनुष्य एक अहम हिस्सा है। इसलिए कह ले सकते हैं कि कविता सबसे पहले रचनाकार को बदलती है। कविता लिखने के बाद या लिखते हुए कवि एक सामान्य आदमी से ऊपर उठा होता है। अगर कविता यह करने में असफल हो तो रचनाकार की भी असफलता मानी जा सकती है। समाज भी व्यक्तियों से बना है। इस हिसाब से कविता समाज को बदलने का काम करती है लेकिन यह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। इतनी लंबी कि कभी-कभी हम बदलने या बदले जाने की आशा खो बैठते हैं। कविता और समाज परस्पर एक-दूसरे को बदलने की चेष्टा करते हैं, ऐसा नहीं कि सिर्फ कविताएं ही समाज को बदलती हैं। बल्कि समाज भी कविता पर अपना असर छोड़ते चलता है तभी तो कोई कविता किसी समय में ज्यादा मूल्यवान होती है और कभी अपना अस्तित्व खो बैठती है। यह सभ्यता और संस्कृति का विराट संघर्ष है। कविता समाज को बदलने में उस तरह का औजार कभी नहीं होती, जिस तरह से समाज को उत्पादन के औजार और तकनीकी विकास बदलते हैं।
 
समय भी कविता को प्रभावित करते चलता है। कविता ही नहीं, हमारी फिल्मों में जो वाक्य संरचना है, वह छोटी होती जा रही है। संस्कृत से प्रभावित वाक्य लंबे हुआ करते थे। यह आधुनिकता की एक पहचान भी हो सकती है। हमारे पास आज वैसे नायक नहीं हैं जैसे सामंती युगों में हुआ करते थे। इसलिए महाकाव्य भी नहीं रहे। लंबी कविता के संदर्भ में देखें, तो निराला, मुक्तिबोध के बाद आलोक धन्वा ही लंबी कविता को साध पाते हैं। वजह यह भी हो सकती है कि निराला और मुक्तिबोध की कविताओं में जो एक व्यापक, विश्वजनीन (वैश्विक) दृष्टि है वह हिन्दी के कई कवियों के पास अनुपलब्ध है। तकनीकी विकास ने हमारे समय और समाज को संक्रमणशील बना दिया है। हमारे मूल्य स्थायी भाव लेकर नहीं आते। रोजमर्रा के सामान अब लिखो-फेंको की शैली में आते हैं। यानी हमारी जीवन दृष्टि बदल गई है। हिन्दी कविता इन कारणों की व्यापक जड़ की तलाश में कई अलग-अलग कहानियां गढ़ती है। इन कहानियों को एकसूत्र किये बगैर लंबी कविता लगभग असंभव है।
इन दिनों कविता के सामने नयी चुनौतियां आयी हैं। हमारा वर्तमान समय तकनीकी परिवर्तन का समय है। यह समय आउटडेटेड होने का भी है। कविता हमारी समस्याओं का बहुत ठोस रूप में समाधान नहीं कर सकती। कविता न रोटी पैदा कर सकती है न गरीबी की आग ही बुझा सकती है। यह हमारे अंदर सौंदर्य बोध पैदा कर सकती है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से हम मनुष्य विरोधी होने से बच सकते हैं। इसी संदर्भ में कविता की भूमिका जांची जा सकती है। हमारे समय की कविता अपना काम बखूबी कर रही है।
 
मुझे लगता है कि आज लेखक आम आदमी हो गया है। लेखक की सामाजिक हैसियत आम आदमी से अलग नहीं है। तब तो आम आदमी का विस्तार आप कह सकते हैं जिसमें एक बहुत बड़ी फौज वैसी है जिसका शब्दों की दुनिया से कोई बना-बनाया रिश्ता नहीं है। आम आदमी की कविता कहते हुए अक्सर हम भ्रम के शिकार होते हैं। निराला की कविता अपने ही समानधर्मा को समझ में नहीं आ रही थी। मुक्तिबोध भी कम कठिन कवि नहीं हैं। दुनिया को बदलने का मार्क्स ने जो घोषणा पत्र तैयार किया वह अर्थशास्त्र के पंडितों को भी समझ में नहीं आता। लेकिन एक समय आता है जब एक अपढ़ व्यक्ति भी मार्क्सवाद के पक्ष में खड़ा दिखता है। आम जन की कविताएं और लोकप्रिय कविताएं दो अलग चीज हैं। साहित्य में लोकप्रियतावाद सबसे घटिया चीज है जिसके शिकार लेखक बनते रहे हैं। एक समय में कोई कविता लोगों की जुबान पर होती है, जैसे होली में कीचड। फिर साल भर हम उससे अलग रहते हैं। दिनकर और बच्चन लोकप्रिय रहे हैं, किन्तु हिन्दी साहित्य या संकीर्णता में कहें तो आम जन के साहित्य में इनकी बहुत थोड़ी भूमिका रही है।
 
आलोचक नंदकिशोर नवल ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि एक असफल कवि आलोचक हो जाता है। नवल जी शायद अपनी बात कर रहे हैं, यद्यपि उनका मानना है कि वे तो आलोचक भी नहीं हो सके। यह एक बुझौअल की तरह है कि असफल कवि आलोचक हो जाता है। एक असफल मनुष्य भेड़-बकरी नहीं होता। इस तरह के कथन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। बचपन में पढ़ते हुए ऐसा लगा था कि प्रेमचंद गणित में फेल करते थे, इसलिए उपन्यासकार हो गए। कविता लिखने और आलोचना करने को मैं अलग करके नहीं देखता। कविता भी संस्कृति की आलोचना ही है। अलबत्ता दोनों के फॉर्म में फर्क है। इधर प्रेमकुमार मणि ने एक अखबार (शिखर भारतेन्दु) में कहा कि कविता सामंती समाज की विधा है। ऐसा कहते हुए कई तरह के अर्थ संप्रषित किये जा सकते हैं, अर्थात् कविता सामंती समाज की उपज है अथवा कविता अपने चरित्र में सामंती है। दोनों ही अर्थ सही नहीं लगते। हमारे यहां कविता ऋग्वेद से शुरू होती है जहां समाज कबीलाई है। बराबरी का हक और दावा है। समाज में अभी चौधरी नहीं बने हैं। यहां से हटकर सामंती समाज में भी कविता विद्रोह की कविता है। कल्पना करें तुलसीदास के समाज की जिसमें पिता की आज्ञा अकाट्य है, वहां भी लक्ष्मण के बेहोश होने पर राम पिता की आज्ञा के विरुद्ध जाते वक्तव्य देते हैं। बगीचे में राम और सीता के बीच प्रेम का पैदा होना सामंती मूल्यों के विरुद्ध ही जाता है। तुलसीदास का यह कहना कि धूत कहो अवधूत कहो, रजपूत या जोलहा जो चाहो, कह लो, क्या सामंती और मनुवादी मिजाज की कविता है ? पाठक कई बार पूर्वाग्रहों का शिकार होता है। एक अच्छा पाठक और लेखक इससे बचने की कोशिश करता है। जो जितना बच पायेगा वह उतना ही बड़ा व्यक्ति, लेखक और पाठक होगा। सत्ता पर बैठा हुआ व्यक्ति भी जब कविता की सोचता है तो सत्ता-विरोधी हो जाता है। तभी तो अशोक वाजपेयी जैसा कवि कई बार क्रांतिकारी लगने लगता    है।                                                                                                                                                    
स्रोत: शिखर भारतेन्दु, शिमला, 7 जून, 2003।  

Thursday, July 22, 2010

खाने को लेकर कुछ दिलचस्प किस्से


बचपन से लेकर आज तक खाने को लेकर मेरे मन में कभी पसंद-नापसंद का द्वंद्व नहीं रहा। इसका एक बड़ा कारण तो यह रहा कि छुटपन में ही मेरी राय बन चुकी थी कि खाने को लेकर पसंद-नापसंद बुर्जुआ मानसिकता की अभिव्यक्ति है। बाद में मैंने जब सर्वेश्वर की कविता पढ़ी तो अपना पक्ष और मजबूत पाया। लेकिन भात हमेशा ही मेरी कमजोरी रहा। बचपन में तो मैं भात के बगैर भोजन की कल्पना ही नहीं कर सकता था। कभी-कभी ऐसा अवसर आता तो मैं कुछ भी खाये बगैर सो जाता। ऐसा प्रायः रात में ही होता। जैसे ही मैं रात को दरवाजे पर से पढ़कर लौटता, मां से मेरा पहला सवाल होताखाना का बनैले हेंअर्थात् भोज में क्या बनायी हो। रो रात को मां से मेरा यही सवाल होता। जैसे ही उत्तर मिलता किरोटी बनी हैमैं झट मां को खटिया बिछाने कह देता।

इस बचपन की एक कहानी है। मेरे गांव में मधेसर सिंह नाम के एक सज्जन हैं। एक शाम को मैंने उनको गांव में पूआ बांटते देखा। पढ़ाई खत्म कर खाने को जब मैं घर आया तो वही पूर्वनिर्धारित रात्रिकालीन सवाल मां से किया। मनपसंद उत्तर मिलने पर मैंने आनन-फानन में खटिया बिछाने की आज्ञा जारी कर दी। भूख तो थी ही सो विमर्श में लग गया। अचानक ध्यान आया कि मधेसर सिंह वाला पूआ तो होगा ही। पूछने पर पता चला कि उसे तो पहले ही छोटे चचेरे भाइयों में से किसी एक ने चट कर रखा है। अंतिम सहारे का भी जब भरोसा रहा तो मैं सो गया। बस उस दिन से बड़े भाई अमरेन्द्र कुमार को मुझे चिढ़ाने हेतु उपयुक्त वाक्यांश हाथ लग गया-‘मधेसर वाला पूआ।मैं भात की अनुपस्थिति में जैसे ही खटिया बिछाने को कहता कि वे मां सेमधेसर का पूआदे डालने की सिफारिश कर जाते। इससे मेरा गुस्सा और भी बढ़ जाता।

दरअसल उन दिनों और आज भी मेरे गांव में दुर्गापूजा के अवसर पर चार-पांच दिनों तक पूरे गांव के लोगों एवं आसपास के गांव के ब्राह्मणों को पूआ-दूध खिलाने की परंपरा है। इस आयोजन से जुड़ी कई कहानियां हैं, एक मुझे अबतक याद है। बगल के किसी गांव के आधमनी जी (आध मन अर्थात् बीस किलो खाने के कारण उनका लोकप्रचलित नाम यही था) थे। उन्होंने जमकर खाया। कुछ इतना कि बेचारे का ठीक नाभि के पास पेट फट गया और दूध के फव्वारे निकल पड़े। घटना-स्थल पर ही मौत हो गई। मेरे यहां तो नहीं लेकिन दरभंगा-समस्तीपुर जिलों में खिला-खिलाकर मार डालने की कुलीन प्रथा रही है। वहां के लोग, जैसाकि बताते रहे हैं, भोजन के ऐसे खास आयोजनों पर पेट-भर खा लेने के बाद पैसे का लालच तक देते हैं। यानी एक लड्डू खाने पर पांच रुपये। कुछ देर तक यही क्रम चलता रहा, फिर एक लड्डू पर दस रुपये की छूट हो गई। इस तरह गरीबीजनित पैसे के लालच में कितने ही बेचारों की जान तक चली जाती रही है। कभी-कभी मेरे जेहन में आता है, इसका एक समाजशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करूं।

बड़े भाई (अमरेन्द्र कुमार) ने मेरे भात-प्रेम को लेकर कई किस्से बना रखे थे जिसे वे जब-तब घर के लोगों को सुनाया करते। उनलोगों के लिए यह एक तरह से मनोरंजन का जरिया था। भात को लेकर यह आसक्ति तभी कमी जब मैं अपने सबसे बड़े भाई (अखिलेश कुमार) के साथ पटना में रहने लगा। उन्हें मेरी यह आदत पसंद नहीं थी, शायद इसलिए कि भोजन में भात की अधिकता गंवई संस्कार की द्योतक मानी जाती थी। अतएव उन्होंने मेरा प्रेम निष्कंटक नहीं रहने दिया।

मैं भोजन की मात्रा भी सामान्य से थोड़ा ज्यादा लेता था। छात्रावास-जीवन के दिनों में खाना बनकर जब तैयार होता तो बड़े भाई के लिए अलग थाली या प्लेट में निकाल मैं उसी बर्तन को लेकर बैठ जाता जिसमें भोजन बनता। इसके दो कारण थे-पहला तो यह कि थाली या प्लेट की कमी होती और दूसरे, बर्तन में उतना ही शेष होता जितना मैं आसानी से चट कर सकता था। मेरी इस हरकत पर भाई साहब कहते कि उनका बनाया खाना तो कभी ज्यादा होता है और कभी कम। हालांकि इसका श्रेय वे मुझे प्रदान करने में किसी तरह की कृपणता या अनुदारता का प्रदर्शन नहीं करते।

एम. . की परीक्षा के दौरान कुछ दिनों के लिए मैंने अपने मित्र अशोक कुमार के साथ रहना प्रारंभ किया था। वैसे भी लालबाग स्थित उनके डेरे पर जाता तो बगैर खाये शायद ही कभी लौटता। एक दिन की बात है कि मैं अशोक जी के यहां खाने पर बैठा था तभी मकान-मालिक डा. सुनील कुमार पी. एम. सी. एच. से अपनी ड्यूटी पूरी कर लौटे थे। वे रात्रिकालीन ब्रश कर रहे थे। टहलते-टहलते वे हमलोगों के दस्तरखान वाले कमरे में दाखिल हो लिए। उन्होंने मुझसे पूछा-‘क्या नेताजी कुछ और चलेगा क्या ?’ मैंने भी आखिर पूछ ही लिख, ‘कुछ है क्या ?’ इस पर वे बोले किमेरे यहां तो अभी तक कोई खाया नहीं है, इसलिए सब धरा पड़ा ही है।मैंने कहा-‘तो ले आइए।उन्होंने अपने नौकर सोहराई को आवाज दी। वह भात से भरी तसली ले आया। मैंने डा. साहब से आग्रह किया किआपलोग जितना खाएंगे उतना निकालकर अलग रख लें।डा. साहब ने कहा किहमलोग फिर बना लेंगे, इसलिए आप निःसंकोच पूरा भात भी ले सकते हैं।मैंने उनसे दो-तीन बार आग्रह किया लेकिन हर बार वे अपनी इसी बात को दुहराकर मुझे निरुत्तर कर देते। अन्त में मुझे ही निर्णय लेना पड़ा। मैंने कहा, ‘तो फिर तसली को थाली में उलट दीजिए। सोहराई ने भी ऐसा ही किया। कुछ ही मिनटों में मेरी थाली का भात गायब हो गया। अलबत्त डा. साहब को नये सिरे से भोजन बनने के इंतजार में ब्रश करने की प्रक्रिया को थोड़ा लंबा करना पड़ा। इस अप्रत्याशित सदमे से बाहर आने पर डा़ साहब ने कहा, ‘नेताजी, आप बुरा माने तो एक बात कहूं। आपको एक दिन भोजन पर आमंत्रित करनेवाला था, लेकिन अब हिम्मत नहीं होती।मैंने उनके दुख को कम करने की कोशिश करते कहा किनिराश हों, आपही का तो खा रहा हूं।सोचता हूं, अब वे मिलें तो कहूं कि पहले जितना नहीं खाता मैं।

उन दिनों मेरी मित्र-मंडली में कुछ नये नाम जुड़े जिनमें एक विनय कुमार थे। उनकी उदार मेहमान नवाजी की वजह से यदा-कदा वहां भी जूठन गिरा आता। वे छात्र-जीवन में थे। अल्पाहारी भी थे; इसलिए उनके लिए भोजन की मेरी मात्रा उनमें अतिरिक्त जिज्ञासा पैदा कर देती थी। खासतौर पर वे मेरे द्वारा मुर्गे की हड्डी तक छोड़े जाने के कारण आतंकित थे। बाद में उनकी शादी हुई और एक पत्नी तथा एक नौकरी के साथ कलकत्ते में रहने लगे। शादी के बाद उन्होंने अपनी पत्नी को मेरा परिचय भी शायद इसी रूप में दे रखा था। लेक्चरशिप के साक्षात्कार हेतु मुझे और अशोक जी को वहां जाना था। विनय जी को पहले से इस बात की सूचना दी जा चुकी थी। और विनय जी ने भीसंकटका सामना करने के लिए पत्नी को तैयार कर रखा था। अतएव व्यवस्था काफी हो चुकी थी। शायद उतनी जिसका मैं वाकई हकदार नहीं था। जैसा मैं कह चुका हूं, सामान्य से थोड़ा ज्यादा खाता था। दिक्कत यह भी थी कि विनय जी सामान्य से थोड़ा कम खाते थे। अतएव जिस हिसाब से उन्होंने तैयारी कर रखी थी, मुझे विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़ लेने पड़े। वैसे मैं खाने-पीने के मामले में विनम्रता ओढ़ने की जहमत मोल नहीं लेता।
मेरे बड़े भाई ने कभी एक कहानी सुनायी थी। वे किसी होटेल में खाना खा रहे थे। वहां बी.एन. कॉलेज के कोई प्रोफेसर थे वे भी खाना खा रहे थे। भोजनोपरांत जिस कटोरी में दाल मिली थी उसमें पानी डालकर वे उसे पी गये। इस कहानी के बाद मैंने भी अपना आचरण कुछ-कुछ वैसा ही बनाया। इससे एक कदम आगे बढ़कर मैंने छिलका आदि भी फेंकना गैर-मुनासिब समझने लगा। कहना होगा कि आम, मूंगफली, केला आदि मैं छिलका के साथ ही खाने लगा। मुझे लगा, इस तरह खाने से मात्रात्मक एवं आर्थिक-दोनों ही तरह के लाभ प्राप्त होते हैं। विज्ञान की किताबों में रेसेदार भोजन के महत्व के बारे में भी पढ़ रखा था। कालक्रम से यह मेरी आदत हो गई। अब तो हालत यह हो गई है कि मैं किसी को छिलके उतारकर खाते या मुर्गे की हड्डी फेंकते देखता हूं तो मुश्किल से बर्दाश्त होती है। कुछ अच्छा नहीं लगता। गरीब देश में एक तरह की फिजूलखर्ची लगती है मुझे।

मेरी इन आदतों से लोगों को कभी-कभी परेशानी हो जाती है। तीन-चार साल पहले की बात है जब मैं मणि जी के यहां गया हुआ था। फलों का राजा आम का मौसम था, सो उन्होंने आम कटवाकर खाने को दिया। गूदा और छिलका में किसी तरह का भेदभाव किये बगैर मैं समूल खा गया। फिर हमलोग बातचीत में लग गये। अचानक मणि जी का ध्यान प्लेट की तरफ गया जो कहीं से भी जूठा होने का प्रमाण पेश नहीं कर रहा था। अंदर ही अंदर मणि जी चिंतित हो गये। मैंने उनकीदमित व्यथाउनके चेहरे पर पढ़ ली। हालांकि आश्वस्त होने खातिर उन्होंने पूछा भी। अतएव अविलब कहा, हां, हां, मैं आम खा चुका हूं। दरअसल मैं आम छिलके के साथ ही खाना पसंद करता हूं।इतना सुनने के बाद ही मणि जी का आत्मीय मन संतोष पा सका।

मेरे परिवार में मांसाहार का चलन कुछ पहले से ही रहा है। मेरे दादाजी (भुवनेश्वर सिंह) को खस्सी (बकरा) एवं मछली का पूरा चाव रहता। वे मानते थे कि खस्सी का मांस आंख की रोशनी बढ़ाने में मददगार होता है। वृद्धावस्था में, जब उनके मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ था, अक्सर कहा करते-‘एक खस्सी अगर खा लें तो बिजौरा (एक पड़ोसी गांव) तक का खपड़ा वे आसानी से गिनकर बता सकते हैं।हालांकि इस बात में वैज्ञानिक सच्चाई नहीं, मांसाहार की अतृप्त लालसा ही कुछ अधिक थी। मांस खाकर तृप्त होते उन्हें कभी नहीं पाया। मेरे सबसे छोटे चाचा (कृष्णंदन शर्मा जिनकी दिल की बीमारी से असामयिक मृत्यु हो गई) मांस बनाने एवं बांटने के एकमात्र इंचार्ज होते। मांसप्रेम में वे दादाजी पर भी बीस पड़ते थे। बनाते-बनाते उन्हें खाने की आदत थी। वितरण भी वे कुछ न्यायोचित तरीके से नहीं कर पाते थे। उनके नेतृत्व में दादाजी की तनिक आस्था नहीं थी। विश्वास तो हमलोगों का भी नहीं था, लेकिन विकल्पहीन। इसलिए किसी दिन घर में मांस बनता और खाकर हमलोग दालान पर सोने जाते तो एक अनौपचारिक मीटिंग का दृश्य बनता। दादाजी बड़ी बारीकी से एक-एक कर हम सब भाइयों से पूछते और पता करते कि कौन कितना खाया है। हमलोग तृप्त होने का अहसास कराना चाहते तो वे सहज ही अविश्वास की हंसी हंसते और बोलते, ‘हमारी थाली में तो जब गिराया तो मांस टन्न-से बोलाऔर फिर सभा भंग हो जाती।
मुर्गे का मांस खाकर वे अपने हिंदुत्व की रक्षा नहीं कर सकते थे। मुर्गे का मांस खाना मुसलमान होना था जो उन्हें तनिक पसंद था। उनके कथनों से मुसलमानों के प्रति घृणा झलकती। वे अक्सर कहते, ‘हिंदू बढ़े नेम से, मुसलमान बढ़े कुनेम से।इस कुनेम में मुर्गा खाना विशेष रूप से शामिल था। मछली के बारे में वे एक लोक प्रचलित कहावत पढ़ते-‘जे नर मछली खात है मुड़ी-पूंछ समेत। ते नर बैकुंठ जात है नाती-पोत समेत।।इसका वे जीवनपर्यंत अक्षरशः पालन करते रहे। वे मछली खाते-खाते मरे। उनकी आत्मा अब भी भटक रही होगी क्योंकि कुछ हिस्सा उनकी हथेली पर धरा रह गया था।
मांसाहार संबंधी कई वर्जनाएं मेरे बड़े भाई अखिलेश कुमार ने तोड़ी। गोमांस अथवा सूअर के मांस से उन्हें कोई परहेज नहीं रह गया था। उनकी शागिर्दी में मेरे लिए भी ये बातें विशेष महत्व या खास तवज्जो की नहीं होतीं। मसलन मैंने भी गोमांस के व्यंजन चाव से खाये। सन् 85 के आसपास हम दोनों भाई दरियापुर स्थित पटना ट्रेनिंग कॉलेज के हॉस्टल में चुके थे। वहां अब्दुल खालिक बदर नाम के एक आत्मीय सज्जन थे जो सब्जीबाग के दिलनवाज होटेल से हमलोगों के वास्ते टिकिया वगैरह ले आते। बड़े भाई तो उनके साथ बकरीद की दावत तक उड़ा आते। बदर साहब के मेजबान साथ में एक हिन्दू को पाकर जब कभी परेशान होते तो बदर साहब बेसाख्ता बोलते, अरे मियां, डरने की कोई बात नहीं। ये भी दस्तरखानी हैं और बड़े-छोटे का फर्क नहीं करते। टिकिया-कबाब तो हमलोगजकियाकी तरह लगभग रोजाना ही खाते, अलबत्त यीस्टू कभी-कभार। और उसे हमलोग बदर साहब की सिफारिश से इस्लामिया होटेल से खरीदते। जाड़े में कभी-कभार नेहारी का आनंद लूटते।

एम. . की मित्र-मंडली में शाह अहसानुद्दीन भी था। अशोक जी के लालबाग स्थित डेरे पर जाता तो उससे भी मिलना होता। उसके कमरे में साजिद नाम के दो लड़के और रहते। एक लंबे कद का तो दूसरा नाटे कद का। दूसरे को मैं छोटा साजिद कहता। वह मेरे गोमांस-प्रेम को हवा देता। मसलन शाम में नाश्ते के लिए जाता और ऐन मौके पर मैं मिल जाता तो साथ चलने का आग्रह करता। खिलाने में रुचि और उदारता दिखाता। तभी अहसान ने खलल पैदा कर दी। एक दिन उसने छोटे साजिद से आखिर कह ही दिया, ‘मियां, किस आदमी के चक्कर में तुम पड़े हो। ये गाय-बैल ही नहीं, सूअर से भी आगे जा चुके हैं।इतना सुनने के बाद उसके उत्साह की हवा निकल गई। इसके बाद उसने अपने को घोंधे की तरह अंदर को समेट लिया। और इस तरह मेराभोजनालयबंद हो गया।

कुछ साल पहले की बात है। बड़े भाई पटेल नगर का आवास छोड़कर मेरे पड़ोस में बसे थे। एक दिन जमकर बारिश हुई और कैंपस में पीले मेढ़क उछल-कूद मचाने लगे।मछुआरेके हाथ से मछली बच निकले-ऐसा कैसे संभव था। अविलंब अमरेन्द्र भैया कोशिकारजिंदा या मुर्दा पकड़ने का आदेश मिल गया। वे फौरन पानी में कूद पड़े। फिर क्या था। सारे मेढ़क पानी की बजाय किचेन में दिखने लगे-‘उभयचरहोने को चरितार्थ करते हुए। शिकार को मुट्ठी में कर बड़े भाई ने मुझे फोन से सूचित किया। वहां पहुंचा तो पाया कि घोर मांसाहारी परिवार में भी खाने की केवल दो ही थाली सजायी जा रही है। मैंने चावपूर्वक खाया। भाई साहब ने पूछाशिकार कैसा बना ?’ ‘देहाती मुर्गे और कबूतर के बीच की चीज है’, मैंने कहा। सचमुच बहुत ही स्वादिष्ट था। आज भी उसकी याद आती है तो स्वाद मुंह में घुलने लगता है। लेकिन शहरों के बारे में वे क्या जाने जिन्होंने लाहौर ही नहीं देखा।

Saturday, July 17, 2010

बिहार में सुशासन की हवा-मिठाई

यह अजीब-सी बात है कि बिहार में आये बदलाव को प्रदेश के बाहर के लोगों ने कुछ पहले जाना-समझा। इस बदलाव की धमक अमेरिका पहले पहुची, बाद को वहीं से रिडायरेक्ट होकर दुनिया के भिन्न-भिन्न कोनों में फैली। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बदलाव हुए हैं। बिहारवासी 'जंगल-राज' से चलकर सुशासन 'में दाखिल हो रहे हैं। ये दोनों ही 'फर्जी' नाम पत्रकारों-बुद्धिजीवियों की एक खास 'प्रजाति' के द्वारा गढ़े गये हैं। आश्चर्य होता है कि सुशासन की डुगडुगी बजाने में वही बुद्धिजीवी-पत्रकार शामिल हैं, जो 'जंगल-राज' के दिनों में 'लालू-राबड़ी ' की जीवनी तैयार करने हेतु लेखक ढूंढ रहे थे।

जंगल-राज और सुशासन में एक तात्विक अंतर है, जिसे मैं एक तटस्थ बिहारवासी होने के नाते महसूस कर सकता हूं। जंगल-राज के दिनों में सरकार उदारीकरण एवं बाजारवाद जैसी चीजों पर सखतीपूर्ण रवैया अपनाती थी। धनिकों का विरोध एवं गरीबों की भलाई स्थायी घोषणा थी उसकी। ये और बात है कि शब्द और कर्म में कभी मेल नहीं बिठाया जा सका। सुशासनी सरकार ने शब्द और कर्म की एकता दर्शायी है। यह सरकार वैश्विक पूंजी की गोद में बैठकर न केवल बातें करती है बल्कि उसके अनुपालन के लिए हर संभव प्रयास भी करती है। सूत्र रूप में कहें कि वर्तमान सरकार पूंजीपति वर्ग द्वारा तैयार उपभोक्ता माल की बिक्री की गारंटी देती है।

यह सब करने के लिए व्यापक प्रचार-प्रसार की जरूरत पड ती है। अखबार इस जरूरत को आसानी से पूरा कर सकता है। इसलिए 'सरकारी' पत्रकारों की एक फौज जमा की गई। ऐसे पत्रकार अब सामयिक ज्वलंत मुद्‌दों पर न लिखकर 'कानों-कान' सुनते हैं और 'भूले-बिसरे' मुद्‌दों पर लिखते हैं। सामयिक घटनाओं पर लिखने के अपने 'खतरे' हैं। सामयिक चिंतन का 'मूड' तभी बनता है जब सरकार के नेता से असंतुष्ट विधायकों/लोगों को 'अपने पुराने घर' में वापिस लाने का इन्हें 'सरकारी फरमान' प्राप्त होता है। अखबार के मालिकों के लिए अलग से पैकेज की व्यवस्था की गई है। उनको सरकार की तरफ से मिलनेवाले विज्ञापनों में तीन-चार गुने की अप्रत्याशित वृद्वि की जा चुकी है। नतीजतन, अखबार के मालिक से लेकर नौकर-चाकर तक-सभी जनता को सुशासन की 'हवा मिठाई' बांट रहे हैं। बालिका सायकिल योजना के पक्ष में भी अखबारों/पत्रकारों ने सकारात्मक माहौल बनाने का जी-तोड़ प्रयास किया था। हमें बार-बार बताया गया कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक क्रांतिकारी प्रयास है। इसमें कई लोगों को कई तरह से कमाई का अवसर मिला। सरकार से लेकर विद्यालय के प्रधानाध्यापक तक को। सायकिल निर्माता कंपनियों को जब सिर्फ लडकियों को ही सायकिल बेचकर संतोष न हुआ तो सरकार को अपनी योजना में संशोधन लाना पड़ा जाहिर है, अब बालकों को भी सायकिल दी जा रही है। महिला सशक्तिकरण की बात कहां रही तब।

सायकिल का ही गोतिया मोटरसायकिल है। मोटरसायकिल बेचने का जरिया बेचारी पुलिस को बनना पडा। ध्यान रहे कि यह कोई आम या किफायती मोटरसायकिल नहीं है, बल्कि अपाचे टीवीएस १६० है। निश्चित रूप से इसकी खपत खुले बाजार में संभव नहीं क्योंकि इसकी कीमत अन्य आम मोटरसायकिल की तुलना में डेढ गुनी अधिक है। वर्तमान में इसकी कीमत ६१,००० रुपये है। यह सब जनता की 'सुरक्षा' और 'सुव्यवस्था' बहाल करने हेतु किया गया। हां, इससे इतना तो अवश्य हुआ कि पटना की सडकों पर पुलिस अब नजर आने लगी है! लोकतंत्र में पुलिस की 'सक्रियता' बढ जाए तो सुव्यवस्था का अंदाजा आप लगा ही सकते हैं। विधायकों को बड़ी गाडी दी गई। जनता के लिए रात-दिन एक वही तो करते हैं

शिक्षा का क्षेत्र अभी सबसे बड़ा बाजार है। इस क्षेत्र में विदेशी बड़ी कंपनियों को अवसर प्रदान करने के लिए केन्द्र सरकार भी कई गलत-सही तरीके से प्रयत्नशील है। इसलिए हमारी राज्य सरकार के पास एक 'नैतिक आधार' (वैसे अब इसकी फिक्र ही किसे है ) भी है। लगभग प्रत्येक उच्च माध्यमिक विद्यालय को पचास लाख रुपये की राशि प्रदान की गई है। इसमें कसरत-व्यायाम (जिम) के सामान से लेकर पुस्तकालय के लिए किताबों की खरीद तक शामिल है। जिम के सामान पर प्रत्येक विद्यालय को लगभग चार लाख की राशि खर्च करनी है। 'कुपोषण ' के शिकार नव नियोजित शिक्षक (उनका नियत वेतन मात्र छः हजार रुपये है। अगर सरकार की वर्तमान घोषणा को आधार बनाया जाये तो यह आठ हजार ठहरता है।) एवं अनीमिया से ग्रस्त बच्चे-बच्चियां जिमखाने से लाभ उठा सकेंगे-इसकी कल्पना मात्र क्या हास्यास्पद नहीं है ? सरकार ने यह आदेश भी पारित किया है कि प्लस टू के बच्चों को पढ़ाने के लिए पास-पड़ोस के एम. ए. पास युवकों को धरा-पकड़ा जाये और डेढ सौ रुपये की दैनिक मजदूरी देकर उन्हें उपकृत किया जाये। बिहार में लगता है, मानव संसाधन के उपयोग एवं विकास का यह 'सुशासनी नुस्खा' अपने आप मे एकदम ही 'मौलिक' विचार है। जहां तक पुस्तकालय के लिए किताबों की खरीद की बात है, वहां भी व्यापक गड़बड़ी देखी गई। एक तो सरकारी निर्देश के आलोक में टेक्स्ट बुक्स ही खरीदी गईं, और ठीक दूसरे वर्ष कक्षा नौ का पाठ्‌यक्रम बदल दिया गया। एकबारगी पुस्तकालय कूड़ाघर में तब्दील हो गया। ऐसी खरीद का आप क्या मतलब निकाल सकते हैं। दूसरी तरफ प्राथमिक विद्यालयों में सात पेजी चित्र-पुस्तकें ४०-५० रुपये में खरीदी गईं। यह सब सुशासनी सरकार के सखत निर्देशन में हुआ। यहां तक कि खरीद के लिए दुकान भी तय थी।इतना ही नहीं, प्रत्येक विद्यालय को कंप्यूटर देने की हमारी सरकार की अत्यंत 'महत्वाकांक्षी' योजना है। इस योजना को जमीन पर उतारने की दिशा में कुछ आवश्यक पहल भी हुई है। आप समझ सकते हैं कि जहां विद्यालयों में तक की सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहां कंप्यूटर देने के पीछे ''सुशासन की क्या हो सकती है। गौरतलब यह भी है कि प्रत्येक बच्चे को लैपटॉप से युक्त बनाने की अद्यतन योजना पर विमर्श जारी है। क्या मजाक है कि शिक्षक वर्ग में बगैर जूते (उनकी तनखवाह एक जोड़ी जूते के बराबर है) उपस्थित हों और बच्चे लैपटॉप पर चैटिंग करते। यह सब सुशासन ही में संभव है।

इसलिए, सुशासन के पैरोकार बुद्धिजीवियों से मेरी गुजारिश है कि वे मेरी इन बातों की तथ्यात्मक भूलों/गलतियों को बताएं, केवल सुशासन की हवा-मिठाई ही न बेचें।

Sunday, July 11, 2010

केवल एयरसेल चोर नहीं है

दूरसंचार के क्षेत्र में निजी कंपनियों की बाढ़, गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा एवं सरकारी नियंत्रण व हस्तक्षेप की कमी की वजह से आम जन का जीवन काफी मुश्किल हो गया है। भोले ग्राहकों को लुभाने के लिए ये अपनी कॉल-दरें तो कम कर देते हैं लेकिन अन्य तरीकों से कई गुना अधिक कीमत वसूल ले जाते हैं। मेरे पास इसके कुछ स्पष्ट उदाहरण हैं। एयरसेल का एक नंबर है मेरे पास-8083076273। पिछले तीन माह से यह डायलर ट्यून के नाम पर मासिक 30 रुपये की दर से काट रहा है। गत तीसरे माह किसी महिला कर्मचारी का फोन आया कि ‘आपको हमारी कंपनी ने एक बेहतर उपभोक्ता के रूप में चुना है, अतएव डायलर ट्यून की सुविधा मुहैया करायी जा रही है।’ मैं कुछ कहता इससे पहले धन्यवाद के साथ उसने फोन डिसकनेक्ट कर दिया। दो दिन बाद पता चला कि उसके एवज में तीस रुपये काट लिये गये हैं। कंपनी को मैंने अपना विरोध दर्ज जताया तो कहा कि ‘अच्छी चीज है, चलने दीजिए।’ मैंने इस सुविधा को तत्काल प्रभाव से बंद करने की हिदायत दी लेकिन वह रट लगाता रहा कि ‘यह सुविधा आपकी मांग पर आपको प्रदान की जा रही है।’ जब मैंने ‘अपनी मांग’ की ‘प्रामाणिकता’ (सबूत) की मांग की तो ऐसा कुछ भी उपलब्ध कराने से इनकार कर गया। आज तीसरा माह है जब फिर से उसने अपनी ‘लीला’ दुहरा दी। 8. 21 बजे सुबह एक मेसेज आया कि ‘डियर सब्स्क्राइबर, यू हैव बीन चार्ज्ड रूपीज थर्टी फॉर थर्टी डेज ऑफ सब्सक्रिप्शन फॉर डायलर ट्यून्स। एनी टाइम कॉल 53000 फॉर लेटेस्ट डायलर ट्यून्स।’ और मैंने पाया कि पुनः मेरे खाते से गाढ़ी कमाई के 30 रुपये कंपनी की जेब में चले गये। ग्राहकों को लूटने का इससे नायाब तरीका और क्या हो सकता है। बाजारवाद की यही नंगई है। ये और बात है कि एयरसेल अकेला चोर नहीं है। इसकी कथा से दूसरे का भी हाल जानें।

Saturday, July 10, 2010

...जैसे मुझे ही सम्मान मिला हो



आज ‘प्रभात खबर’ (पटना संस्करण) के मुख पृष्ठ पर हिन्दी के, और अव्वल तो बिहार के एक सुपरिचित-सुपठित कथाकार सुलभ जी की तस्वीर छपी है। तस्वीर यूके कथा सम्मान के अवसर की है। तस्वीर के नीचे लिखा है-‘खबर पृष्ठ आठ पर।’ पृष्ठ आठ को मैंने तीन बार देखा, बेटे से भी दिखवाया, लेकिन खबर नहीं थी। पत्रकारिता के वर्तमान दौर में खबर का न होना भी किसी अखबार के लिए ‘खबर’ हो सकती है। फिर इसका तो नाम ही है ‘प्रभात खबर’। गलती मेरी भी हो सकती है कि मैं सुबह के आठ बजे यह सब खोज रहा था!
कुछ दिन पहले सुलभ जी को उक्त सम्मान दिये जाने की खबर मैंने इसी अखबार में पढ़ी थी। खबर पढ़ते हुए लगा कि अरे, यह नाम अबतक छुटा हुआ था। वैसे यह नाम इतने दिनों तक छोड़ दिये जाने के लिए नहीं था। चलिए, आयोजकों ने अपनी गलती दुरुस्त कर ली। उन्हें ‘देर आए, दुरुस्त आए’ में विश्वास रहा हो शायद।
सुलभ जी एक कथाकार हैं, उससे पहले वे नाटककार हैं। मेरा मन बार-बार उन्हें एक नाटककार के रूप में देखने को करता है। उनकी कहानियों में मुझे नाटक के तत्वों का भरपूर उपयोग मिलता है। नाटकीयता के बगैर व्यंग्य की कल्पना नहीं की जा सकती। चाहे वह व्यक्ति पर व्यंग्य हो या व्यवस्था पर। विद्रूप को केवल व्यंग्य के सहारे ही बगैर अश्लील हुए प्रदर्शित किया जा सकता है। विधा के स्तर पर भी व्यंग्य और नाट्य बिल्कुल पास-पास के लगते हैं। व्यंग्य में शब्द कम हैं तो नाट्य में इससे भी कम। लेकिन असर शायद सर्वाधिक। सुलभ जी की कहानियों में जैसी नाटकीयता है, कविता में केवल आलोक धन्वा और मुक्तिबोध, शमशेर जैसे चंद नाम ही साध पाते हैं। निराला शायद स्रोत ही साबित हों।
और इन सब से ऊपर वे एक ‘मनुष्य’ हैं। एक पाठक के रूप में रचना की मेरी अपनी कसौटी है कि रचना में किसी लेखक का ‘व्यक्तित्व’ कितना बड़ा होकर आता है। रचना और रचनाकार-दोनों मुझे साथ-साथ प्रभावित करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि रचना से प्रभावित होकर भी रचनाकार से अप्रभावित ही रहा। सुलभ जी ने दोनों ही स्तरों पर मुझे प्रभावित किया है। शायद इतना कि जब उन्हें सम्मान दिये जाने की बात पढ़ी तो लगा जैसे मुझे ही सम्मान मिला हो।

Wednesday, July 7, 2010

संस्कृति और इतिहास बोध

संस्कृति पर विमर्श प्रकारांतर से मानवजाति पर विमर्श है, क्योंकि इसके केन्द्र में वही है। अपने व्यापकतम अर्थ में संस्कृति वह सब कुछ है, जिसका निर्माण मानवजाति ने किया है और कर रही है-श्रम के औजारों से लेकर घर-गृहस्थी की वस्तुओं तक, रीति-रिवाजों और रहन-सहन के ढंग, तौर-तरीकों से लेकर विज्ञान और कला, धर्म और अनीश्वरवाद, नैतिकता और दर्शन तक। किंतु केवल इतना ही कहें तो संस्कृति की हमारी अवधारणा अथवा परिभाषा एकांगी और साथ ही भ्रामक भी होगी। इसलिए इतना भर याद रखना जरूरी है कि मानव संस्कृति का रचयिता है और साथ ही उसकी रचना भी। ऐसा कहते अथवा मानते हुए हम अपना इतिहास बोध जाग्रत कर रहे होते हैं। अर्थात् यह इतिहास का विवेक है जो हमें बताता है कि मानवजाति संस्कृति का केवल रचयिता ही नहीं है बल्कि वह खुद भी उसी की निर्मिति है। और कह लें कि हमारा इतिहास बोध भी ठीक-ठीक इसी रूप में संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।

अगर संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो यह संस्कृत के बहुत पास का निकलेगा। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है शिष्ट और सभ्य। जो शिष्ट अथवा सभ्य नहीं है, प्राकृत है, जंगली है। बर्बरता संस्कृति की परिधि से बाहर की चीज है। जांगल युग हमारी संस्कति का पोषक नहीं, क्योंकि संस्कृति इस युग को अथवा बर्बरता की एक खास अवस्था को पारकर ही सृजित होती है। संस्कृत शब्द में संस्कार, संशोधन अथवा परिष्कार का भाव जुड़ा हुआ है। एक दूसरे तरीके से कहें तो अलगाव का भाव लिए हुए है। संस्कृत को प्राकृत से अलग करने की मुहिम शुरू हो चुकी है। भाषा के क्षेत्र में भी इसके गणित बिठाये जा रहे हैं। संस्कृत सिर्फ सभ्य और शिष्ट लोगों की भाषा बनी।

लोग अक्सर कहते पाये जाते हैं कि संस्कृत नाटकों में शूद्र और स्त्री समान रूप् से प्राकृत भाषा का प्रयोग करते पाये जाते हैं। संस्कृत केवल संभ्रांत वर्ग के लोग ही बोल पाते थे। वे इस तथ्य का हवाला भर देकर शांत हो लेते हैं। वे कभी नहीं कहते (अज्ञानतावश या भयवश ?) कि निम्न वर्ण (शूद्र) तथा स्त्रियों के संस्कृत भाषा का व्यवहार सिद्धांत रूप में भी वर्जित था। (इस विषय पर विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ेंप्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था और भाषा’, जन विकल्प,) नाट्यशास्त्र का लेखक भरतमुनि इसका प्रमुख सिद्धांतकार है। (संभव है, पंचम् वेद कहे जाने का यह भी एक आधार बनता हो।) प्राचीन भारत के इतिहास में यह वह काल है जब वर्चस्व की संस्कृति अपनी जड़ें जमा रही थीं। यहां हम अपनी सुविधा के लिए यह भी कह ले सकते हैं कि संस्कृत (संस्कृति एवं भाषा दोनों ही अर्थों में) वर्चस्व का भाव रहा है। वरना जिस देश में कुत्ता, सियार एवं हाथी तक के लिए संस्कृत संबोधन हैं वहां मनुष्य जाति के संभवतः सबसे बड़े वर्ग को संस्कृत बोलने से क्योंकर रोका जा रहा है ? आज भी महावत हाथी के साथ गच्छ, तिष्ठ जैसे संस्कृत क्रिया-रूपों के ही सहारे संवाद कायम कर पाता है। आज हमारे कुत्तों के नाम भले ही अंग्रेजी भाषा के हों लेकिन उनके संबोधन में उच्चरित शब्द अत्तु संस्कृत ही का है। संस्कृत भाषा के जानकार को पता है कि यह आदरार्थ प्रयुक्त है। अर्थात् आदर (सम्मान) में कहा गया शब्द जिसका भाषिक अर्थ है-‘आइए खाइए।

संस्कृति के क्षेत्र में इस तरह के अलगाव की प्रक्रिया तब शुरू होती है जब विकास की एक खास अवस्था हम तय कर चुके होते हैं। उससे पहले ऐसा करना शायद संभव भी नहीं होता। हम अपने इतिहास के अनुभवों के आधार पर देखें तो साफ होगा कि जिस आर्य अथवा वैदिक संस्कृति पर हम गर्व करते हैं (इतिहास पर गर्व करने का हमें पूरा हक है), वह अपने प्रारंभिक दिनों में ऐसी कुछ भी नहीं थी। बल्कि कहना होगा कि आर्यों का भारत आगमन यहां के मूल निवासियों की संस्कृति की तुलना में एक पिछड़ा कदम था। इसलिए अपने आरंभिक दिनों में आर्यों को जहां-कहीं भी (भाषा तक में) बेहतर और अनुकरणीय हाथ लगता, उसे वे अपनाने में तनिक संकोच करते। यहां तक कि दूसरों की पत्नियों और देवता तक को हड़प् ले जाने में कोई कोताही बरतते। निस्संदेह आर्यों को भारतीय प्रदेशों में औरतों की कमी महसूस हुई होगी। नतीजतन आर्यों के कई देवता तक को बगैर पत्नी के जीवन गुजारने को अभिशप्त होना पड़ा। संभवतः इसी कारण गोरे आर्यों की काली संतानें पैदा हो रही हैं। काले वर्ण के ऋषियों की उस दौर में बाढ़ है। इन्हीं सब बातों को लिखने के लिए मुक्तिबोध की पुस्तक भारत: इतिहास और संस्कृतिकी प्रतियां जला दी गई थीं। आर्य-रक्त की शुद्धता का दावा करनेवाले लोगों को भारतीय संस्कृति का यह विमर्श अच्छा नहीं लगता। इससे श्रेष्ठता और शिष्टता वाला भाव जाता रहता है। वे संस्कृति को एक अत्यंत गोल-मटोल अर्थ में लेना चाहते हैं, जबकि इसकी अनंत परतें हैं। एक साथ कई रूपों और धाराओं में संस्कृति प्रवहमान रहती है। इन धाराओं की आपसी टकराहट और सम्मिलन की प्रक्रिया में ही संस्कृति जीवंत बनती और सवंर्धित होती चलती है। जिस संस्कृति और कौम में टक्कर और आत्मसातीकरण की द्वैत प्रक्रिया नहीं चल रही होती अथवा ठप पड़ जाती है, उसका नष्ट होना तय है। इतिहास बोध से संपन्न व्यक्ति को मालूम है कि मानवजाति द्वारा निर्मित ऐसी कितनी ही संस्कृतियां काल के गर्भ में विलीन हो गईं, क्योकि समय की धारा को अपने अंदर समाहित नहीं कर सकीं।

संस्कृति अपने को कई रूपों में व्यक्त करती है। परंपरा और रीति-रिवाज इनमें प्रमुख हैं। जिस तरह एक बहुलतावादी समाज में संस्कृतियों की बहुलता होती है, उसी तरह परंपरा की भी बहुलता होती है। कई परंपराएं एक ही कालखं डमें साथ-साथ जीवित होती हैं। इनकी आपसी टकराहट से ही नवीनता का उन्मेष होता है। संस्कृति को एक एंतिहासिक संदर्भ में, एक निश्चित ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने का मतलब एक स्वस्थ और समग्र दृष्टिकोण पैदा करना होता है। यानी किसी देश अथवा जाति की संस्कृति का अध्ययन अथवा उसकी आलोचना प्रस्तुत करते हुए हमें मुख्य रूप से दो बातें-निरंतरता और परिवर्तन को रेखांकित करने का प्रयास करना होता है। निरंतरता और परिवर्तन की इस विछिन्न/अविछिन्न प्रक्रिया में परंपरा संस्कृति की स्मृति होती है। जिस तरह प्रत्येक राष्ट्र और जाति की अपनी स्मृति है, ठीक उसी तरह संस्कृति अपनी परंपराओं में बसती है। मनुष्य की स्मृति में सब कुछ कैद नहीं होता। बहुत कुछ छोड़ते जाते हैं और नया ग्रहण करते जाते हैं। ठीक जैसे आदमी पुराना भूलता और नया सीखता चलता है। लेकिन सब कुछ नहीं भूलता, जबकि भूलना भी काफी अर्थवान है। मनुष्य भूलने की क्षमता खो दे तो शायद सबसे बड़ा अनर्थ हो। संस्कृति भी परंपरा का त्याग करती चलती है और नवीनता का अंगीकार। यहां इतिहास बोध यह निर्णय देता है कि परंपरा हमेशा तो त्याज्य है और ही नवीनता हमेशा ग्राह्य। कालिदास जब मालविकाग्निमित्र में कहते हैं कि जो पुराना है वह सभी सुंदर नहीं है और नया मात्र नया होने से ही निन्द्य है, तो इसी बात को वे भिन्न तरीके से कह रहे होते हैं। यह कालिदास का इतिहास जनित विवेक ही है जो परंपरा और नवीनता के बीच फर्क की पहचान करता है। किसी देश अथवा जाति के इतिहास में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य-इसका सम्यक फैसला हमारी इतिहास दृष्टि करती है। संस्कृति के अंदर सब कुछ बचा लेने लायक नहीं होता। बहुत कुछ समय की मार खाकर बेजान हो जाता है, इसलिए ग्राह्य-अग्राह्य का प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठता है। परंपरा का वह हिस्सा जो जो वर्तमान के लिए अनुपयोगी और बेजान हो गया हो, त्याज्य है। परंपरा की ताबीज बनाकर रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तो संपूर्ण सुंदर है, नितांत असुंदर ही। उसमें सक्रियता भी है, प्रमाद भी, स्वार्थ भी है परमार्थ भी, संकीर्णता भी है, उदारता भी। इसलिए कालिदास का यह उद्गार कि पुराणमित्येव साधु सर्व-जो समय के बोध में सना है, हमेशा याद रखने लायक है। परंपरावादियों के लिए तो और भी, क्योंकि अतीत का उनका यह कथन हमारी परंपरा का अभिन्न हिस्सा हो चुका है, और जो वर्तमान समय में भी उतना ही सटीक है।

किंतु कहना होगा कि अपनी ही उक्ति से कालिदास ने कोई खास नसीहत नहीं ली। उन्होंने उन्हीं वर्णाश्रम अर्थों की कीर्ति बखानी जो भारतीय संस्कृति पर कालिमा का टीका सिद्ध हो चुके थे। अलबत्ता कहीं-कहीं रोष अवश्य प्रकट किया है। उनकी शकुंतला पुरुष के अधिकारों पर व्यंग्य करती है, उनकी सीता वाच्यं त्वया मदवचनात्स राजा कहकर राम को संदेश भेजती है। परंतु वास्तव में यह विद्रोह नहीं, विद्रोह की विडंबना है। शूद्र तपस्वी शम्बूक के राम द्वारा रघुवंश में मारे जाने पर महाकवि की लेखनी में बल तक नहीं पड़ता, वह स्वयं उस तपस्वी को उसके अनाचार पर धिक्कारता है। कालिदास का इतिहास-बोध-विरोध कई बार आत्म-प्रताड़ना तक को जन्म देता प्रतीत होता है। धूत कहो अवधूत कहो जैसी पंक्ति वही लिख सकता है जिसने अपने नथूनों में वर्ण व्यवस्था की संड़ांध महसूस की हो।

अज्ञेय ने शम्बूक -वध का एक नया पाठ तैयार किया-‘मैंने शम्बूक की कथा पढ़ी है। मैं उसे कभी उस अर्थ में ग्रहण नहीं कर पाया, जिस अर्थ में मुझे समझायी जाती रही है। शम्बूक वेदाध्ययन करने जा रहा था कि यज्ञ करने जा रहा था, वर्णांतर कर्म का यह छोटा-सा अपराध (छोटा ही सही, अपराध तो है ?) कदापि उस दंड का भागी नहीं था जो उसे मिला। इतना ही क्यों, यह प्रश्न कोई क्यों नहीं पूछता कि शूद्र की तपस्या में इतना बल था कि ब्राह्मण का बेटा मर जाये, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व का बल कहां चल गया था? क्या उसकी सीमा यही थी कि राजा के सामने जाकर रिरिया ले? क्यों नहीं राम ने भी उस ब्राह्मण से यह पूछा कि वह क्यों इतना हीनतेज हुआ? ’ अज्ञेय के लिए राम की तुलना में शम्बूक ज्यादा ग्राह्य है, क्योंकि शम्बूक स्थिति को, स्थितिशीलता को, परिवेश को बदलना चाहता है और राम उसे बनाये रखना चाहते हैं। संस्कृति की यह गतिशील व्याख्या इतिहास बोध और काल की मर्यादा से प्रेरित है। अत्यंत सपाट शब्दों में कह सकते हैं कि तात्कालिकता का दबाव है यह।