Monday, May 16, 2011

कबीर को पढ़ते हुए--अर्थात कबीर का स्त्री पाठ


भक्तिकाल के सर्वाधिक 'क्रांतिकारी' समझे जानेवाले कवि कबीरदास ने ज्यादा काम नारी–जाति को गलियाने का ही किया. सतवंती या पतिव्रता की उन्होंने जरूर प्रशंसा की, किन्तु ‘नारी नदी अथाह जल, बूड़ि मुआ संसार’, ‘नागिन के तो दोय फन, नारी के फन बीस’, ‘नारी की झाईं परत अंधा होत भुजंग’, ‘नारी बड़ा विकार’ आदि कहकर उन्होंने नारी–जाति की घनघोर निंदा की है और ‘चली कुलबोरनी गंगा नहाय’-जैसी व्यंगोक्ति से उसका उपहास किया है. (श्री भगवान सिंह, पद्मावत : नारी-श्रेष्ठता का प्रथम काव्य, कसौटी, अंक-८, पृष्ठ १२९). इस तरह औरतों के प्रति कबीरदास ने कितना विषवमन किया है–ध्यान, समाधि, उपासना आदि के लिए स्त्री को व्यवधान बताकर उन्होंने उसकी आध्यात्मिक और बौद्धिक शक्ति की घनघोर अवमानना की है (वही, पृष्ठ १३७). ‘ज्ञातव्य है कि कबीर ने विस्तार से स्त्री-विरोधी विचार ही नहीं प्रकट किये हैं, भले भक्त होने के कारण, सती-प्रथा को भी गौरवान्वित किया है, भले प्रतीक रूप में उसका इस्तेमाल करते हुए’ (नंदकिशोर नवल, कबीर की वाणी : एक निजी पाठ, कसौटी-४, पृष्ठ ६).

कबीर के यहाँ गुस्सा एक स्थायी भाव की तरह है. कबीर का यह गुस्सा गंगा–स्नान को जाती स्त्रियों के प्रति देखने लायक है-

‘चली कुलबोरनी गंगा न्हाय।

सतुवा कराइन बहुरी भुंजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।

गठरी बांधिन मोटरी बांधिन, खसम के मूंडे दिहिन धराय।

विछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।

गंगा न्हाइन जमुना न्हाइन, नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।

पांच पच्चीस के धक्का खाइन, घरहूं की पूंजी आइ गंवाय।’

कबीर साहब यह नहीं देख सके कि कम से कम गंगा-स्नान आदि के बहाने औरतों को घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने का मौका मिलता था. इसे समझा जायसी ने. तभी उनकी पद्मावती और उसकी सखियाँ मानसरोबर–स्नान को अपने लिए स्वतंत्र क्रीडाओं का एक अवसर मानती हैं. मानसरोवर स्नान के बहाने ही तो पद्मवती को सात खंड के धवल गृह या अन्तःपुर के एकांत से बाहर निकलने का अवसर मिलता है. वस्तुतः जायसी ने यहाँ लोकजीवन का बड़ा ही सच्चा चित्र प्रस्तुत किया है. गांवों में जवान लड़कियां पर्व–त्यौहार के अवसर पर झुण्ड में आस-पास के तालाब या नदी आदि में स्नान करने जाती हैं–गाती हुई, चहलकदमी करती हुई और उन्मुक्तता की सांसें लेती हुई. ऐसे अवसरों का महत्त्व उनके लिए स्वतंत्रता दिवस जैसा ही होता है. जायसी ने ऐसे स्नानों के महत्त्व को पहचाना, किन्तु ‘बुद्धिवादी’ कबीर को यहाँ भी पाखंड या कर्मकांड ही नजर आया. (देखें, श्री भगवान सिंह, पूर्वोधृत , पृष्ठ १२९-३०).

स्त्री जाति के प्रति कबीर के इस गुस्से को उनकी भक्ति की अवधारणा में ढूंढा जा सकता है. उनकी भक्ति की जो अवधारणा है, वह मध्यकालीन पितृसत्तात्मक मूल्यों से प्रभावित लगती है. संभवतः इसीलिए प्रकृति ‘स्त्री’ मानी जाती है और परमात्मा ‘पुरुष’. कबीर के अनुसार स्त्री प्रकृति में आसक्त जीवात्मा स्त्रीलिंग तथा पुरुष परमात्मा में तल्लीन जीवात्मा पुल्लिंग से संबोधित होने के योग्य है, यथा–

‘समधी के संग नाहीं आई, सहज भई घरबारी.

कहैं कबीर सुनो हो संतो, पुर्ख जनम भौ नारी’ ..

जबतक सुरत प्रकृति में स्थित थी या प्रकृति–मंडल में रहकर उसके द्वारा भक्ति की जा रही थी या जबतक वह पूर्णरूपेण प्रकृति मंडल का त्याग नहीं कर सकी थी, तबतक उसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग हुआ और जब ‘लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल’ की स्थिति हुई, प्रभु में समाकर प्रभु से एकाकार हो गई, तब वह पुरुषत्व प्राप्त कर ली और उसके लिए ‘ताते रहेउ अकेला’ पुल्लिंग शब्द का प्रयोग हुआ. माया में आबद्ध स्त्री है–चाहे वह स्त्री शरीर में हो या पुरुष शरीर में. जब पुरुष परमात्मा को प्राप्त कर लिया जाता है, तब वह पुरुष कहे जाने योग्य है, चाहे वह स्त्री शरीर में ही क्यों न हो। ( देखें, साध्वी ज्ञानानंद जी, अध्यात्म का आश्चर्य, श्री कबीर ज्ञान प्रकाशन केन्द्र, गिरिडीह, प्रथम संस्करण, २०००, पृष्ठ १७-१८).

स्त्री भक्ति-मार्ग में एक स्थायी बाधा (महाविकार) भी है. स्वयं कबीर की आत्मस्वीकारोक्ति देखें-

‘नारी तो हमहुं करी, तब ना किया विचार,

जब जानी तब परिहरी, नारी महाविकर’. (देखें, रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय , लोकभारती प्रकाशन, नवीन संस्करण २००६, पृष्ठ ४९४).

कबीर की अनेक ऐसी कविताएँ हैं जिनको लोक–परलोक, वैवाहिक प्रेम और विवाह सम्बन्धी कुरीतियों (यथा बाल-विवाह, बेमेल विवाह आदि) से सम्बंधित करके व्याख्यायित किया जाता रहा है, जबकि असलियत में उन पदों में कुछ और ही बात है. हमारा पितृपक्ष हमें लगातार भरमाकर इस तथ्य से दूर ले जाता रहा है. प्रसिद्ध पद ‘दुलहिनि मोरी गावहु मंगलाचर’ को ‘मंगलाचार’ शब्द पर जोर देकर सीधे–सीधे विवाह-उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया, लेकिन विवाह में ‘सरोवर के किनारे वेदी’ बनाने का विधान तो है नहीं. और यह भी कि राजस्थान में सती के गीतों को ‘मंगलाचार’ कहते हैं.

‘सरोवर’ पर जोर देते ही अर्थ-विधान ‘दुल्हन’ को ‘सती’ के लिए लाई गई स्त्री में बदल देता है. तत्कालीन दौर के घुमक्कड़ इब्नबतूता ने अपने यात्रा- वृत्तांत में लिखा है, ‘तीन कोस चलने के बाद हम एक ऐसी जगह पहुंचे जहां जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था. वहां चार गुम्बद (मंदिर) बने हुए थे और चारों में एक देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित थी. इन चारों के मध्य एक एक ऐसा सरोवर था जहां वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी. इस कुंड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकाई गई. पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकड़ियों के गट्ठे बांधे हुए थे और दस पुरुष अपने हाथ में बड़े –बड़े कुंदे लिए खड़े थे. नगाड़े, नौबत और शहनाई बजानेवाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे ...इतना कहकर वह प्रणाम कर तुरंत उसमें कूद पड़ी. बस नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी. उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी (देखें, इब्नबतूता की भारतयात्रा , सती वृत्तांत, पृष्ठ २४-२५).

सती होने की घटनाओं का मध्यकाल में आँखों देखा हाल जानना है तो कबीर की कविता सुनाती है:

‘सती जलन कूं नीकसी, पिउ का सुमिर सनेह.

सबद सुनत जिउ नीकल्या भूली गई सब देह.’

घर से सती होने को निकली वह पति के प्रेम की तथाकथित प्रतिज्ञा में भूली हुई थी. ढोल नगाडों की आवाज और सती के जयघोषों की भयावह आवाज से ही दम निकल रहा है. अब देह की सुध भला कैसे आ सकती है. जिउ निकालना कोई साधारण क्रिया नहीं है. पीड़ा का गंभीर संकेन्द्रण यहाँ है. पूरे काव्य व्यापार का बलाघात इसी एक बिंदु पर है. (अनुराधा, सती प्रथा, भक्ति काव्य और हिंदी मानसिकता , हंस, फरवरी २००८, पृष्ठ४०)। कबीर की कविता पर सती प्रकरण को लेकर बात करना इसलिए भी जरूरी है कि अबतक का सोच विचार का पितृपक्षीय दायरा मध्ययुगीन साहित्य में अधिक से अधिक श्रृंगार और मात्र कुछ धार्मिक आडम्बरों के विरोध भर को ही देख पता है. ‘धर्म के वाह्याडम्बर और शास्त्रीय जकडबंदी के प्रति संवेदनशील मन का विद्रोह ही भक्ति है.’ (देखें, मुजीब रिज्बी, मध्यकालीन धर्मसाधना , इन्द्रप्रस्थ भारती, कबीर विशेषांक, पेज१०). उनके लिए भक्ति की शक्ति प्रेम की बराबरी और सघनता तक सिमटी है. वे यह नहीं देख पाते कि आधी आबादी कहाँ गई. कबीर की कविता सती प्रसंगों को सामने लाकर यह दिखाती है कि देखो, आधी आबादी जल रही है या जलाई जा रही है:

‘विरह जलाई हौं जलूं, जलती जलहर जाऊं

मो देख्या जलहर जले, संतो कहां बुझाऊं...’ (अनुराधा, पृष्ठ ४१)

लेकिन कबीर की कविता को सती विरोध की कविता नहीं माना जा सकता. वे भी अन्य कवियों की तरह अनेक बार सती का महिमामंडन पूरे मनोयोग से करते हैं. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यदि सती की व्यथा का कोई अनुभव करता-कराता है तो भक्तिकाल में वे अकेले कवि हैं. यदि इन कविताओं का कालक्रम निर्धारित होता तो सती के प्रति उनके विचार के विकास को रेखांकित किया जा सकता था. बहुत संभव है कि किसी काल में उनके लिए सती एक आदर्श रही हो और किसी अन्य समय में सती- घटनाओं को आँखों से देखने के बाद वे अपने इस आदर्श पर कायम न रह पाए हों. (अनुराधा, पृष्ठ ४१)

मालवा में पान के बीड़े से शुरू होता है सती का मृत्यु-उत्सव. मालवा का एक लोकगीत है, ‘बावड लो नी बीड़ो पान को’. पान का बीड़ा लेने के बाद ‘स्त्री’ के लिए सती का प्रश्न प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है. विवाह के साथ घूँघट धारण करनेवाली स्त्री का घूँघट सती का बीड़ा लेते ही हट जाता है (सिर उघड़ जाता है). कबीर जब कहते हैं, ‘तोको पीव मिलेंगे घूँघट के पट खोल रे...कहैं कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे’ तो सती प्रकरण उनके ध्यान में है. एक पद है ‘मैं अपने साहब संग चली, हाथ में नरियल मुख में बीड़ा, मोतियन मांग भरी. लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी, तापै चढ़ि के भली’. यह सती होने के लिए ले जाई जाती स्त्री का चित्र है. (अनुराधा, ४२ ).