परंपरा को ताबीज बना कर रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि न तो वह संपूर्ण सुंदर है, न नितांत असुंदर। उसमें सक्रियता भी है, प्रमाद भी। स्वार्थ भी है, परमार्थ भी। संकीर्णता भी है, उदारता भी। इसलिए कालिदास का यह उदगार कि पुराणमियत्येव न साधु सर्व- जो समय के बोध से सना है, हमेशा याद रखने लायक है। परंपरावादियों के लिए तो और भी, क्योंकि अतीत का उनका यह कथन हमारी परंपरा का अभिन्न हिस्सा हो चुका है। और जो वर्तमान समय में भी शायद उतना ही सटीक है।
लेकिन कहना होगा कि अपनी ही किस्मत से कालिदास ने कोई खास नसीहत नहीं ली। उन्होंने उन्हीं वर्णाश्रम अर्थों की कीर्ति बखानी जो भारतीयता पर कालिमा का टीका सिद्ध हो चुके थे। अलबत्ता कहीं-कहीं रोष अवश्य प्रकट किया है। उनकी शंकुतला पुरुष के अधिकारों पर व्यंग्य करती है, उनकी सीता वाच्यं त्वया मदवचनात्स राजा कह कर राम को संदेश भेजती है। लेकिन वास्तव में यह विद्रोह नहीं, विद्रोह की विडंबना है। शूद्र तपस्वी शंबूक के राम द्वारा रघुवंश में मारे जाने पर महाकवि की लेखनी में बल तक नहीं पड़ता, वह खुद उस तपस्वी को उसके अनाचार पर धिक्कारता है। कालिदास का इतिहास-बोध विरोध कई बार आत्म-प्रताड़ना तक को जन्म देता दिखता है
धूत करो अवधूत करो जैसी पंक्ति वही लिख सकता है, जिसने अपने नथूनों में वर्ण-व्यवस्था की सड़ांध महसूस की हो।
संस्कृति की यह गतिशील व्याख्या इतिहास-बोध और काल की मर्यादा से प्रेरित है। या कह सकते हैं कि तात्कालिकता का दबाव है।