Saturday, January 24, 2009

संस्कृति और इतिहास-बोध- 3

परंपरा को ताबीज़ बना कर रखने की जरूरत नहीं...


किसी देश या जाति के इतिहास में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य- इसका सम्यक फैसला हमारी इतिहास-दृष्टि करती है। संस्कृति के अंदर सब कुछ बचा लेने लायक नहीं होता। बहुत कुछ समय की मार खाकर बेजान हो जाता है, इसलिए ग्राह्य-अग्राह्य का प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो उठता है। परंपरा का वह हिस्सा जो वर्तमान के लिए अनुपयोगी और बेजान हो गया हो, त्याज्य है। जो हमारे काम आ सकता है- स्वीकार्य है, सराहनीय है।
परंपरा को ताबीज बना कर रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि न तो वह संपूर्ण सुंदर है, न नितांत असुंदर। उसमें सक्रियता भी है, प्रमाद भी। स्वार्थ भी है, परमार्थ भी। संकीर्णता भी है, उदारता भी। इसलिए कालिदास का यह उदगार कि पुराणमियत्येव न साधु सर्व- जो समय के बोध से सना है, हमेशा याद रखने लायक है। परंपरावादियों के लिए तो और भी, क्योंकि अतीत का उनका यह कथन हमारी परंपरा का अभिन्न हिस्सा हो चुका है। और जो वर्तमान समय में भी शायद उतना ही सटीक है।
लेकिन कहना होगा कि अपनी ही किस्मत से कालिदास ने कोई खास नसीहत नहीं ली। उन्होंने उन्हीं वर्णाश्रम अर्थों की कीर्ति बखानी जो भारतीयता पर कालिमा का टीका सिद्ध हो चुके थे। अलबत्ता कहीं-कहीं रोष अवश्य प्रकट किया है। उनकी शंकुतला पुरुष के अधिकारों पर व्यंग्य करती है, उनकी सीता वाच्यं त्वया मदवचनात्स राजा कह कर राम को संदेश भेजती है। लेकिन वास्तव में यह विद्रोह नहीं, विद्रोह की विडंबना है। शूद्र तपस्वी शंबूक के राम द्वारा रघुवंश में मारे जाने पर महाकवि की लेखनी में बल तक नहीं पड़ता, वह खुद उस तपस्वी को उसके अनाचार पर धिक्कारता है। कालिदास का इतिहास-बोध विरोध कई बार आत्म-प्रताड़ना तक को जन्म देता दिखता है

धूत करो अवधूत करो जैसी पंक्ति वही लिख सकता है, जिसने अपने नथूनों में वर्ण-व्यवस्था की सड़ांध महसूस की हो।
अज्ञेय ने शंबूक-वध का एक नया पाठ तैयार किया- मैंने शंबूक की कथा पढ़ी है। मैं उसे कभी उस अर्थ में ग्रहण नहीं कर पाया, जिस अर्थ में मुझे समझाया जाता रहा था। वर्णांतर कर्म का यह छोटा-सा अपराध (?) कदापि उस दंड का भागी नहीं था जो उसे मिला। इतना ही क्यों, यह प्रश्न कोई क्यों नहीं पूछता कि शूद्र की तपस्या में इतना बल था कि ब्राह्मण का बेटा मर जाए, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व का बल कहां चला गया था? क्या उसकी सीमा यही थी कि राजा के सामने जाकर रिरिया ले? क्यों नहीं राम ने भी उस ब्राह्मण से यह पूछा कि वह क्यों इतना हीनतेज हुआ? अज्ञेय के लिए राम की तुलना में शंबूक ज्यादा ग्राह्य है, क्योंकि शंबूक स्थिति को, स्थितिशीलता को, परिवेश को बदलना चाहता है और राम उसे बनाए रखना चाहते हैं।

संस्कृति की यह गतिशील व्याख्या इतिहास-बोध और काल की मर्यादा से प्रेरित है। या कह सकते हैं कि तात्कालिकता का दबाव है।

Saturday, January 17, 2009

संस्कृति और इतिहास-बोध- 2

संस्कृति प्रवहमान होती है...

संस्कृत के क्षेत्र में इस तरह के अलगाव की प्रक्रिया तब शुरू होती है, जब विकास की एक खास यात्रा हम तय कर चुके होते हैं। उससे पहले शायद ऐसा करना संभव भी नहीं होता। हम इतिहास के अनुभवों के आधार पर देखें तो साफ होगा कि जिस आर्य या वैदिक संस्कृति पर हम गर्व करते हैं, वह अपने प्रारंभिक दिनों में ऐसी कुछ भी नहीं थी। बल्कि कहना होगा कि आर्यों का भारत आगमन इसीलिए एक पिछड़ा कदम था। इसलिए अपने शुरुआती दिनों में आर्यों को जहां कहीं कुछ बेहतर मिलता, अनुकरणीय लगता। उसे वे अपनाने में तनिक संकोच नहीं करते। यहां तक कि दूसरों की पत्नियों और देवता तक को अपना डालते थे। आर्यों को भारतीय प्रदेशों में औरतों की कमी महसूस हुई होगी, क्योंकि लंबी यात्रा में कुछ मृत्यु को प्राप्त हुई होंगी। नतीजतन आर्यों के कई देवता तक बगैर पत्नी के जीवन गुजारने का अभिशप्त हैं। गोरे आर्यों की काली संतानें पैदा हो रही हैं। काले ऋषियों की उस दौर में बाढ़ है।
इन्हीं बातों को लिखने के लिए मुक्तिबोध की पुस्तक "भारतः इतिहास और संस्कृति" की प्रतियां जला दी गईं। आर्य-रक्त की शुद्धता का दावा करने वाले लोगों को भारतीय संस्कृति का यह विमर्श अच्छा नहीं लगता। इससे श्रेष्ठता और शिष्टता वाला भाव जाता रहता है. वे संस्कृति को एक अत्यंत गोलमटोल अर्थ में लेना चाहते हैं। जबकि संस्कृति की अनंत परतें हैं। एक साथ कई रूपों और कई धाराओं में संस्कृति प्रवहमान होती है। इन धाराओं की आपसी टकराहट और सम्मिलन की प्रक्रिया में ही संस्कृति जीवंत बनती और संवर्धित होती चलती है। जिस संस्कृति और कौम में टक्कर और आत्मसातीकरण की प्रक्रिया नहीं चल रही होती या ठप पड़ जाती है, उसका नष्ट होना तय होता है। इतिहास-बोध से संपन्न व्यक्ति को मालूम होता है कि मानव जाति द्वारा निर्मित ऐसी कितनी ही संस्कृतियां काल के गर्भ में विलीन हो गईं, क्योंकि समय की धारा को अपने अंदर समाहित नहीं कर सकीं।
संस्कृति अपने को कई रूपों में व्यक्त करती है। परंपरा और रीति-रिवाज इनमें प्रमुख हैं। जिस तरह एक बहुलतावादी समाज में संस्कृतियों की बहुलता होती है, उसी तरह परंपरा की भी बहुलता होती है। कई परंपराएं एक ही काल में जीवित होती हैं। इनकी आपसी टकराहट से ही नवीनता का उन्मेष होता है। संस्कृति को एक निश्चित ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने का मतलब एक स्वस्थ और समग्र दृष्टिकोण पैदा करना होता है।
यानी किसी देश या जाति की संस्कृति की अध्ययन या उसकी आलोचना प्रस्तुत करते हुए हमें मुख्य रूप से दो बातों- निरंतरता और परिवर्तन को चिन्हित करने का प्रयास करना होता है। निरंतरता और परिवर्तन की इस प्रकिया में परंपरा संस्कृति की स्मृति होती है। जिस तरह प्रत्येक राष्ट्र और जाति की अपनी स्मृति है, ठीक उसी तरह संस्कृति अपनी परंपराओं में बसती है। मनुष्य की स्मृति में सब कुछ कैद नहीं होता। बहुत कुछ छोड़ते जाते हैं और नया ग्रहण करते जाते हैं। संस्कृति भी परंपरा का त्याग करती जाती है और नवीनता का अंगीकार।
यहां इतिहास-बोध यह निर्णय देता है कि परंपरा हमेशा न तो त्याज्य है और न ही नवीनता हमेशा ग्राह्य। कालिदास जब "मालविकाग्निमित्र" में कहते हैं कि जो पुराना है वह सभी सुंदर नहीं है और न नया मात्र नया होने से ही निंद्य है, तो इसी बात को वे भिन्न तरीके से कह रहे होते हैं। यह कालिदास का इतिहासजनित विवेक ही है, जो परंपरा और नवीनता के बीच फर्क की पहचान करता है।

Saturday, January 10, 2009

संस्कृति और इतिहास-बोध- 1

संस्कृत यानी वर्चस्व की संस्कृति


संस्कृति पर विमर्श प्रकारांतर से मानव जाति पर विमर्श है, क्योंकि इसके केंद्र में वही है। अपने व्यापकतम अर्थ में संस्कृति वह सब है, जिसका निर्माण मानव जाति ने किया है और कर रही है- श्रम के औजारों से लेकर घर-गृहस्थी की वस्तुओं तक, रीति-रिवाजों और रहन-सहन के ढंग से लेकर विज्ञान और कला, धर्म और अनीश्वरवाद, नैतिकता और दर्शन तक, केवल इतना ही कहें तो संस्कृति की हमारी अवधारणा या परिभाषा एकांगी, और साथ ही साथ भ्रामक भी होगी। इसलिए इतना भर याद रखना जरूरी है कि मानव संस्कृति का रचयिता है और साथ ही उसकी रचना भी। ऐसा करते या मानते हुए हम अपना इतिहास-बोध जाग्रत कर रहे होते हैं। यानी यह इतिहास का विवेक है जो हमें बताता है कि मानव जाति संस्कृति का केवल रचयिता ही नहीं है, बल्कि खुद उसी की निर्मिति भी। और हमारा इतिहास-बोध भी ठीक-ठीक इसी रूप में संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।


अगर संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो यह संस्कृत के बहुत पास मिलेगा। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है शिष्ट और सभ्य। जो शिष्ट या सभ्य नहीं है, प्राकृत है, जंगली है। बर्बरता संस्कृति की परिधि से बाहर की चीज है। जंगल-युग हमारी संस्कृति का पोषक नहीं, क्योंकि इस लिहाज से यह विकास की एक खास अवस्था को पार कर शुरू और निर्मित होती है। संस्कृत शब्द में संस्कार, संशोधन या परिष्कार का भाव जुड़ा हुआ है। एक दूसरे तरीके से कहें तो अलगाव का भाव जन्म ले रहा है। संस्कृत को प्राकृत से अलग करने की मुहिम शुरू हो चुकी है। भाषा के क्षेत्र में भी इसके गणित बिठाए जा रहे हैं। संस्कृत सिर्फ शिष्ट और सभ्य लोगों की भाषा बनी।


लोग अक्सर कहते पाए जाते हैं कि संस्कृत नाटकों में शूद्र और स्त्री प्राकृत भाषा का व्यवहार करते हैं। संस्कृत केवल संभ्रांत वर्ग के लोग ही बोल पाते थे। वे इसका हवाला भर देकर शात हो लेते हैं। वे कभी नहीं कहते कि निम्न वर्ण और स्त्रियों के लिए संस्कृत भाषा का व्यवहार सिद्धांत रूप में भी वर्जित था। नाट्यशास्त्र का लेखक भरत मुनि इसका प्रमुख सिद्धांतकार है। भारत के इतिहास में यह वह काल है जब वर्चस्व की संस्कृति पैदा हो रही थी।


यहां हम यह भी कह सकते हैं कि संस्कृत में वर्चस्व का भाव रहा है। वरना जिस देश में कुत्ता, सियार और हाथियों तक के लिए संस्कृत संबोधन है, वहां मनुष्य जाति के एक बड़े वर्ग को संस्कृत बोलने से क्यों कर रोका जा रहा है? आज भी महावत हाथी के साथ गच्छ, तिष्ठ जैसे संस्कृत शब्दों के ही सहारे संवाद कायम करता है। आज भी हमारे कुत्तों के नाम भले अंग्रेजी ढर्रे पर रखे जाने लगे हों, उनके संबोधन में उच्चारित शब्द अत्तु संस्कृत का ही है। संस्कृत भाषा के जानकार जानते हैं कि यह आदरार्थ प्रयुक्त है। यानी आदर (सम्मान) में कहा गया शब्द, जिसका भाषिक अर्थ है- "आइए खाइए।"