Wednesday, October 27, 2010

अम्बेदकर की इतिहास दृष्टि


जो पीढ़ी इतिहास में हस्तक्षेप नहीं करती, इतिहास निश्चय ही उसका अनादर कर बैठता है। इसलिए इतिहास को प्रभावित करनेवाले गांधी, नेहरु और अम्बेदकर -सभी इतिहास की नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते हुए इसकी धारा को मोड़ने की कोशिश करते हैं। वे इतिहास की उन धारणाओं, स्थापनाओं से भी टकराते हैं जो समाज को गति प्रदान करती हैं। ‘इतिहास में व्यक्ति की भूमिका’ सदैव विवाद के केन्द्र में रही है। खासकर मार्क्स द्वारा इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या पेश किये जाने के बाद यह विवाद और भी गहराता नजर आया है। इस सवाल ने अम्बेदकर को भी खासा परेशान किया था। वे लिखते हैं, ‘क्या इतिहास महापुरुषों का जीवन-चरित्र होता है ? यह प्रश्न प्रासंगिक भी है और महत्त्वपूर्ण भी। क्योंकि यदि महापुरुष इतिहास के निर्माता नहीं तो कोई कारण नहीं कि हम सिनेमा के सितारों से अधिक ध्यान उनकी ओर दें।’ (अम्बेदकर वांग्मय , खंड,1, पृष्ठ 225)। आगे अम्बेदकर इस संबंध में अब तक दिए गए विचारों का एक वर्गीकरण तैयार करते हैं-‘कुछ लोग ऐसे हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि एक व्यक्ति कितना भी महान हो, समय ही उसका सृजनहार है, समय ही उसको बनाता है समय ही सब कुछ करता है। वह कुछ नहीं करता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। अम्बेदकर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहते हैं, जिन लोगों का यह विचार व मत है, मेरे विचार से वे इतिहास की गलत व्याख्या करते हैं।’

अम्बेदकर ने इतिहास के सिद्धांतकारों का जो वर्गीकरण किया है उसके अनुसार अगर मानें तो ‘ऐतिहासिक परिवर्तनों के संबंध में तीन अलग-अलग मत रहे हैं। हमारे पास इतिहास के ऑगेस्टेनियन सिद्धांत हैं जिसके अनुसार इतिहास केवल एक दैवी योजना की अभिव्यंजना है। इसके अंतर्गत मानव जाति को युद्ध तथा पीड़ा झेलते हुए उस समय तक निरंतर बने रहना है जब तक वह दैवी योजना कयामत के दिन पूरी न हो सके। बर्कले का मत है कि इतिहास की रचना भूगोल तथा भौतिकी ने की है। कार्ल मार्क्स ने तीसरा मत प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार इतिहास आर्थिक शक्तियों का प्रतिफल है। इन तीनों में से कोई भी यह स्वीकार नहीं करता कि इतिहास महापुरुषों की जीवनी होता है।’ (वही, पृष्ठ 255)। आगे वे और स्पष्ट करते हैं ‘जहां तक बर्कले और मार्क्स का संबंध है, यद्यपि उनके कथन में सत्यता है, परंतु उनके मत पूर्ण सत्य को निरूपित नहीं करते। उनका यह मत बिल्कुल गलत है कि इतिहास के निर्माण में व्यक्ति से इतर शक्तियां ही सब कुछ होती हैं और व्यक्ति का उसे बनाने में कोई हाथ नहीं होता है।’ (वही)। अम्बेदकर अपना फैसला सुनाते कहते हैं, ‘व्यक्ति से इतर शक्तियां एक निर्धारी कारक होती हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु यह बात भी स्वीकारी जानी चाहिए कि व्यक्ति से इतर शक्तियों का प्रभाव व्यक्ति पर निर्भर करता है।’ (वही)।

इतिहास के निर्माण में व्यक्ति की भूमिका को रेखांकित करने के क्रम में अम्बेदकर, कार्लाइल की पंक्ति उद्धृत करना नहीं भूलते। ‘जरूरी नहीं कि कोई युग नष्ट-भ्रष्ट हो ही, यदि वह पर्याप्त महान एवं विद्धान व्यक्ति को प्राप्त कर ले। यदि समय की सही मांग को पहचानने वाले ज्ञान चक्षु हों, उसे सही मार्ग दिखाने का साहस एवं शौर्य हो तो किसी भी युग का उद्धार हो सकता है।’ (वही, पृष्ठ 255) अम्बेदकर के अनुसार, यह उनलोगों के लिए एक बिल्कुल निर्णायक उत्तर प्रतीत होता है, जो इतिहास को बनाने में मनुष्य को कोई स्थान देने से इनकार करते हैं। मनुष्य इतिहास के निर्माण का एक साधन है और पर्यावरण संबंधी शक्तियों के, चाहे दैवी हों या सामाजिक, भले ही सर्वप्रथम हों, पर वे अंतिम चीज नहीं हैं। (वही, पृष्ठ 256)। कोई अल्पज्ञात ही कहेगा कि मार्क्स परिवर्तनकारी शक्तियों में व्यक्ति की भूमिका स्वीकार नहीं करते। अलबत्ता ‘दैवी शक्तियों’ पर तो स्वयं इतिहास का भी कोई वश नहीं होता!

इतिहास की अपनी अवधारणा में नेहरु, अम्बेदकर के उलट मार्क्स के ज्यादा करीब हैं और कार्लाइलहीगेल से कोसों दूर। सन् 1928 में नेहरु ने इतिहास को परिभाषित करते हुए लिखा, ‘इतिहास युद्धों एवं योद्धाओं की कहानी नहीं है। यह हमें कुछ चुनिंदा लोगों के ही बारे में नहीं बताता बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि किसी भी देश में आमजन की स्थिति क्या है। सच्चा इतिहास आमजन का इतिहास होता है जिनके श्रम से किसी देश की महान सभ्यता की नींव पड़ती है। (वी.सी.पी.चौधरी, सेक्यूलरिज्म वर्सस कम्युनलिज्म , पृष्ठ 112)। नेहरु के लिए महापुरुषों के जन्म की घटना भी कोई चमत्कार नहीं है। वे बहुत साफ समझते हैं कि असाधारण समय में अत्यंत साधारण मनुष्य भी कैसे असाधारण हो जाते हैं। नेहरु ने इंदिरा को पत्रों के माध्यम से यह बात तब समझाई थी जब वह महज दस साल की बच्ची थी।

अम्बेदकर ने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति व्यवस्था। जाति व्यवस्था को समझने के लिए उन्हें वर्ण व्यवस्था से भी टकराना पड़ा। फलतः कुछ अत्यंत ‘मौलिक’ बातें ढूंढ़ निकाली। उनका मानना है कि ‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धांत से मूल रूप में भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर विरोधी है। पहला सिद्धांत गुण पर आधारित है। यह सारी गड़बड़ी जाति व्यवस्था की है वर्ण व्यवस्था की नहीं।’ शायद इसीलिए अम्बेदकर ‘आदर्श वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करने की बात करते हैं। ‘उसके उद्येश्य से वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा।’( अम्बेदकर वांग्मय , खंड,1, पृष्ठ 81)। अम्बेदकर के इस पेंच को थोड़ा ढीला करने के लिए हम यहां महज इतना भर जोड़ देना आवश्यक समझते हैं कि ‘चूंकि वर्ण व्यवस्था में, कल्पित श्रम विभाजन में आरंभ से ही उसके वंशानुगत रूप पर जोर दिया गया, इसलिए वर्ण से जाति का भी बोध हो सकता था और इन दोनों शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के स्थान पर भी हो सकता था। बंगाल से प्राप्त दसवीं सदी के एक ताम्रपत्र लेख में उल्लिखित बृहच्छत्रिवण्ण (एक ऐसा गांव जिसमें छत्तीस वर्ण के लोग रहते हैं) नामक गांव से पता चलता है कि आम व्यवहार में इन दोनों शब्दों का प्रयोग बिना किसी भेदभाव के किया जाता था।’ (पुष्पा नियोगी, ब्राह्मणिक सेट्लमेंट्स इन डिफरेंट सब डिवीजन्स ऑफ बंगाल , पृष्ठ 55)। वर्ण और जाति व्यवस्था में सम्मिलित लोगों की दृष्टि में इन दोनों शब्दों के समानार्थी होने से संकेत मिलता है कि वर्ण और जाति दो भिन्न प्रणालियां नहीं बल्कि एक ही प्रणाली थे। और यह तो सर्वविदित ही है कि स्वयं हिन्दू आज भी, जाति प्रथा के वर्ण से लेकर, समाजशास्त्रियों की भाषा में बात करें तो ‘उपजाति’ तक के सभी स्तरों के लिए जाति शब्द का ही प्रयोग करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि वेदोत्तर काल के बौद्ध तथा ब्राह्मण साहित्य में बार-बार उल्लिखित जाति शब्द का मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं निकालना चाहिए कि वर्ण व्यवस्था में समाये मूल्यों और व्यवहारों से भिन्न प्रकार के मूल्यों और व्यवहारों पर आधारित कोई जाति व्यवस्था ई. सन् के आरंभ से कुछ सदी पूर्व काम कर रही थी।

अम्बेदकर यह भी कहते हैं कि ‘गुण के आधार पर चातुर्वर्ण्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अनर्थकारी नामों से रखना -जिनसे जन्म के आधार पर सामाजिक विभाजन का संकेत मिलता है, समाज के लिए फंदे की तरह है।’ ( अम्बेदकर वांग्मय , खंड,1, पृष्ठ 81)। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी फंदे को अपनाकर बौद्ध धर्म क्रांतिकारी हो जाता है, अथवा यों कहें कि वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते हुए भी बौद्ध धर्म की क्रांतिकारी भूमिका कायम रहती है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है और अब किसी से छिपा भी नहीं है कि एक गंभीर बहस (आत्मचिन्तन) के बाद गौतम बुद्ध ने क्षत्रिय वर्ण में जन्म लिया। यह और बात है कि यह बहस कहीं बाहर समाज में नहीं बल्कि बुद्ध के अंतर्मन में चली। जातक कथाओं के अध्ययन से साफ पता चलता है कि बुद्ध ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुल में ही जन्म लेना श्रेयस्कर मानते थे। ब्राह्मण-क्षत्रिय कुल के अनुसार क्षत्रिय कुल लोकमान्य है, इसलिए श्रेष्ठ है। क्षत्रियत्त्व की श्रेष्ठता से अम्बेदकर भी खासे प्रभावित लगते हैं। कहना न होगा कि अपनी पुस्तक में अम्बेदकर शूद्र को क्षत्रिय साबित करने में काफी श्रम और समय लगाते हैं। इस तथ्य से कि बुद्ध ने वर्णक्रम को स्वीकार किया है, अम्बेदकर इस बात से अनजान नहीं हो सकते।

लेकिन कहना पड़ेगा कि अम्बेदकर को इतिहास का अज्ञान (अ-ज्ञान) है। वे कहते हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि चातुर्वर्ण्य के समर्थकों ने यह नहीं सोचा कि उनकी इस वर्ण व्यवस्था में स्त्रियों का क्या होगा ? क्या उन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चार वर्णों में विभाजित किया जाएगा या उन्हें अपने पतियों का दर्जा प्राप्त कर लेने दिया जाएगा ? यदि स्त्री का दर्जा शादी के बाद बदल जाएगा तो चातुर्वर्ण्य का क्या होगा अर्थात क्या किसी व्यक्ति का दर्जा उसके गुण पर आधारित होना चाहिए। इस स्थिति में चातुर्वर्ण्य के समर्थकों को स्वीकार करना होगा कि उनकी वर्ण व्यवस्था स्त्रियों पर लागू नहीं होती।’ (वही, पृष्ठ 83)। अम्बेदकर को यह कैसे मालूम नहीं हो सकता कि संपूर्ण हिन्दू शास्त्र (मनुस्मृति विशेष रूप से) में स्त्रियों की गिनती शूद्रों के साथ होती रही है। क्या यह भी किसी को बताने की जरूरत है कि शूद्र की अयोग्ताएं एक स्त्री की भी अयोग्यताएं हैं। शूद्र और स्त्री भारतीय संस्कृति में वेदपाठ एवं अन्य धार्मिक अधिकारों के मामले में समान रूप से उपेक्षित और वंचित रहे हैं। क्या कोई बता सकता है कि जनेऊ पहनने का अधिकार शूद्र एवं स्त्री में किसे प्राप्त है। संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र क्या समान रूप से ‘हीन’ (अपभ्रंश) भाषा का प्रयोग करते नहीं पाये जाते ? इतिहास के ये तथ्य अम्बेदकर के लिए किसी ‘काम’ के साबित नहीं होते। उन्हें तो कबीर की फटकार भी सुनाई नहीं देती-‘‘मोटी जनेऊ ब्राह्मण पेठो, ब्राह्मणी को नहीं पहनाई। जनम जनम को भई वो सूदा, उने परस्यो तने खाई।।’’ कारण शायद यह रहा हो कि स्वयं बुद्ध ने ही स्त्रियों का घोर विरोध कर डाला था। अम्बेदकर में बुद्ध के खिलाफ जाने की हिम्मत न थी। विरासत का तिरस्कार! बौद्ध धर्म-दर्शन शायद अम्बेदकर के लिए ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसा था।

अम्बेदकर का मानस पूर्वग्रह से ग्रस्त है, इसलिए कई चीजों से जान-बूझकर बचने की कोशिश करता है, पीछा छुड़ाने की शैली में। इसलिए अवैज्ञानिक नतीजे निकाल लेता है। वे कहते हैं, ‘भारतीय इतिहास में केवल एक ऐसा काल है, जिसे स्वतंत्रता, महानता और गौरवपूर्ण युग कहा जाता है। वह युग है मौर्य साम्राज्य। सभी युगों में देश में पराभव और अन्धकार छाया रहा है। लेकिन मौर्य काल में चातुर्वर्ण्य को जड़ मूल से समाप्त कर दिया गया था। मौर्य युग के शूद्र जिनकी संख्या काफी थी, अपने असली रूप में सामने आए और देश के शासक बन गए। इतिहास में पराभव और अंधकार का युग वह था जब चातुर्वर्ण्य देश के अधिकांश भाग में अभिशाप बनकर फैल गया।’ (वही, पृष्ठ 86)। कहना होगा कि मौर्य काल से संबंधित जितने भी देशी-विदेशी विद्वान हैं, चाणक्य से लेकर मेगास्थनीज तक-किसी ने भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के लोप की बात न कही है। मौर्य काल का वैभव और उसकी महानता, देशी शूद्रों और कलिंग-युद्ध में लाखों की संख्या में बंदी बनाये गये दासों से पैदा हुई, जिन्हें कृषि-दासों में परिणत कर बड़े-बड़े राजकीय फार्मों में लगाया गया। अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि मौर्यों के पास सबसे बड़ी सेना, सबसे बड़ी नौकरशाही और साथ ही सबसे बड़ी गुप्तचर व्यवस्था थी। शायद यही कारण है कि प्राचीन भारत के इस ‘महान’ युग में किसानों से टैक्स की अधिकतम दर वसूल की जाती थी। किसान शोषण से तंग आकर गांव तक छोड़ देने को मजबूर थे। तक्षशिला के किसानों ने बिंदुसार एवं अशोक- दोनों ही महान मौर्य शासकों के काल में विद्रोह किया था। चाणक्य राजकोष भरने के लिए सही-गलत कई आश्चर्यजनक तरीके बताता है। वह अर्थशास्त्र में लिखता है कि जरूरत पड़ने पर राजा देवताओं की मूर्त्तियां बनवाकर बाजार में बेचे, जनता की धार्मिक भावना का दोहन करे, अंधविश्वास पैदा करे। फिर भी अम्बेदकर के लिए मौर्य काल महान काल है क्योंकि उनकी दृष्टि व्यक्ति से बनती है, समय और समाज की भौतिक सामाजिक परिस्थितियों से नहीं। और फिर शायद इसलिए भी कि इस युग में चातुर्वर्ण्य समाप्त हो गया था, कि शूद्र अपने ‘असली’ (बतौर शासक) रूप में सामने आए थे।

Sunday, October 17, 2010

प्रेमचंद : साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद


कल इस लेख की दो पंक्ति मैंने फेसबुक पर दी थी। काफी प्रतिक्रिया हुई। मित्रों ने उद्धरणों की मांग की। उनकी यह मांग स्वाभाविक है। यह लेख इस रूप में कई साल पहले लिखा गया था। इसलिए आज इसको जांचने-परखने की भी जरूरत है। इस ख्याल से भी मित्रों के बीच प्रस्तुत करना जरूरी है।

भारत एक राष्ट्र नहीं था। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत 1857 की क्रांति के बाद होती है और राष्ट्रवाद की प्रथम अभिव्यक्ति सन् 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में होती है। इससे पहले हिन्दुस्तान कई छोटे-छोटे प्रदेशों में बंटा हुआ था और सारे लोग आपस में, संघर्ष में उलझे हुए थे, फलतः हमारा देश गुलाम हुआ। लोग इस मनोदशा के शिकार थे कि कोई राजा हो हमें क्या फर्क पड़ता है। पराधीनता की इस बेड़ी को मजबूत और अकाट्य बनाये रखने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों को धर्म, जाति एवं संप्रदाय के नाम पर बांटना शुरू किया। ध्यान रहे कि भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना में दलितों ने मदद पहुंचाई थी। धर्म एवं जाति के नाम पर लोगों को आपस में बांटकर शासन करने की नीति साम्राज्यवादियों की बड़ी पुरानी नीति थी। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि आयरलैंड की जनता को भी उसने धर्म के नाम पर तोड़ा था। (रामविलास शर्मा, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज , पृष्ठ 67)। अंग्रेज शासकों ने उसी पुराने फार्मूले का भारत में भी अमल में लाने की कोशिश की और नारा दिया, ‘फूट डालो और शासन करो।’ इसके उलट अंग्रेजों ने बहुत सारे ऐसे काम किए जिनसे अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया की सुगबुगाहट तेज हुई।

हिन्दुस्तान में जैसे-जैसे राष्ट्रवाद का विकास हुआ, हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष भी उसी हिसाब से बढ़ा। अब शायद यह अतीत की बात हो गई थी कि 1857 की क्रांति में हिन्दू एवं मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था। डा. अखिलेश कुमार ने अपनी पुस्तक कम्युनल रॉयट्स इन मॉडर्न इंडिया ' में सांप्रदायिक दंगों का संबंध कांग्रेस की स्थापना से ठीक ही जोड़ा है। आप कह ले सकते हैं कि भारत में राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिकता के उद्भव एवं विकास की लगभग एक ही प्रक्रिया रही है। ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ जिस नवजागरण का फल है, उस नवजागरण में हिन्दू नवजागरण और मुस्लिम नवजागरण साथ-साथ घटित हुए। (नामवर सिंह, बहुमत -3, पृष्ठ 5)। राष्ट्रवाद और हिन्दू जातीयता और मुस्लिम कौमियत, ये साथ-साथ पैदा हुईं। भारत में राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिकता दोनों जुड़वा भाई हैं। लगता है, सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद की ही एक अपरिपक्व धारा है और राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही एक ब्यूटीफायड (संस्कृत, संस्कारित) नाम है। (राजू रंजन प्रसाद, बहुमत -3, पृष्ठ 40)।

यह एक सामान्य ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद, अंग्रेजी साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ है। इसलिए उसमें इसके अंतर्विरोध भी शामिल है। यह भारतीय राष्ट्रवाद का अपना अंतर्विरोध है, उसके निर्माण की प्रक्रिया का दोष। इस अंतर्विरोध का असर उस जमाने की राजनीति एवं संस्कृति जैसे तमाम मोर्चों पर देखने में आता है। इसलिए हिन्दी साहित्य के लेखकों का इससे बेअसर रहना बिल्कुल ही मुमकिन तथा वैज्ञानिक नहीं था। इसके असर से हम प्रेमचंद जैसे रचनाकार को भी मुक्त नहीं पाते हैं। वे कभी तो बहुत आगे निकले हुए प्रतीत होते हैं और कभी पीछे छूट गए से लगते हैं। तत्कालीन राजनीति में भी ऐसी दिलचस्प घटनाएं घटी हैं। रजनी पाम दत्त ने ठीक ही लिखा है, ‘कभी-कभी हम बहुत आगे निकल जाते थे, लगता था मानो आंदोलन ने अपनी मंजिल को पा लिया है लेकिन दूसरे ही क्षण उसका अंत समझौते की हार में होता था।’

प्रेमचंद इस दौर के अकेले सबसे बड़े साहित्यकार हैं जिन्होंने राष्ट्रीय एकता की समस्या को सबसे ज्यादा गंभीरता के साथ हल करने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्हें सांप्रदायिकता, जाति-व्यवस्था और अंधविश्वास जैसी भयंकर बाधाओं से जमकर लोहा लेना पड़ा है। जब हम यह कह रहे होते हैं कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास लिखा है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि कांगेसी नेतृत्व में चले आंदोलन का उन्होंने तर्जुमा मात्र किया है। उनको पढ़ते हुए हम भारत के किसान आंदोलन, मजदूरों में अपने देश के प्रति सजगता एवं धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ संगठित हो रही ताकतों से भी परिचित होते हैं। निश्चित रूप से ऐसी ताकतें कांग्रेस के बाहर की भी होती हैं।

प्रेमचंद : सांप्रदायिकता और राष्ट्रवादविषय को चुनते हुए हम काफी सतर्क हैं। हमारा प्रयास केवल इतना भर है कि प्रेमचंद पर अब तक जो लिखा गया है, विशेषकर जड़, यांत्रिक एवं कट्टर मार्क्सवादी आलोचना, उसके जाल से निकलकर वस्तुस्थिति की जांच हो, क्योंकि समय आ गया है कि हम अपनी गलतियों पर विमर्श करें और उससे आवश्यक सबक लें।

प्रेमचंद ने जो कुछ भी कहा, प्रगतिशीलता के आग्रह में लोगों ने उसे बेहिचक सही और तर्कसंगत मान लिया। प्रस्तुत आलेख में प्रेमचंद के इन्हीं वैचारिक अंतर्विरोधों की चर्चा है। ‘प्रगतिशील’ आलोचकों को अब तो मान लेना चाहिए कि प्रेमचंद के यहां सब कुछ स्पष्ट और तर्कसंगत नहीं है।

हिन्दू होने का अहसास और फिर हिन्दू धर्म पर गौरव, प्रेमचंद के संस्कार में कहीं किसी कोने में सदा के लिए बैठ गया लगता है। 1909 प्रेमचंद के लेखन का आरंभिक दौर है। सोजे-वतनअभी-अभी प्रकाशित हुआ था। इससे पहले उनके विचारों का एक संग्रह कलम, तलवार और न्यायशीर्षक से प्रकाशित हो चुका था। इन दोनों ही पुस्तकों में राजपूतों की गौरव-गाथाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। हिन्दू होने का उनका यह ‘अहसास’ लगभग अंत तक कायम रहा। बाद के दिनों में भी ‘हिन्दू’ शब्द के साथ उनका वैसा ही रागात्मक संबंध कायम रहा। सन् 1925 के जनवरी के माधुरीमें प्रेमचंद लिखते हैं, हिन्दू जाति यदि अपने पुरुखाओं को किसी धर्म संग्राम में आत्मोत्सर्ग करते हुए देखकर प्रसन्न हो तो सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि इसमें वीर पूजा की भावना भी नहीं रह जो किसी जाति के अधःपतन का अंतिम लक्षण है।आगे वे और लिखते हैं, जब तक हम अर्जुन, प्रताप, शिवाजी आदि वीरों की पूजा और कीर्ति पर गर्व करते हैं तब तक हमारे पुनरुद्धार की कुछ आशा हो सकती है।कहना होगा कि प्रेमचंद के देश के पुनरुद्धार में हिन्दू जाति का पुनरुद्धार आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है।

महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि इतिहास पुरुषों को राष्ट्रीय नायक के रूप में चित्रित करने का मतलब होगा मुसलमानों की संपूर्ण सत्ता को विदेशी करार देना। ऐसी स्थिति में प्रेमचंद साम्राज्यवादी इतिहासकारों के काल-विभाजन यथा हिन्दू काल, मुस्लिम काल एवं आधुनिक काल को ही पुष्ट करते नजर आते हैं। यह भारतीय इतिहास की अत्यंत ही नस्लवादी एवं सांप्रदायिक व्याख्या है।

भारत के संपूर्ण इतिहास को अगर देखने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि यहां दोनों ही तरह की परंपराएं हैं, दोनों ही तरह के आदर्श हैं। एक तरफ अगर औरंगजेब, राणा प्रताप एवं ‘वीर’ शिवाजी हैं तो दूसरी तरफ अकबर एवं अशोक की महान और उदार परंपरा भी है। भारत के इतिहास में अकबर साझी संस्कृति का प्रतीक है, फिर भी अगर प्रेमचंद , शिवाजी की ही कीर्ति पर गर्व करते हैं तो बात सचमुच मतलब से खाली नहीं है। आज सांप्रदायिकता को हवा देनेवाली ताकतें इन्हें ही अपना आदर्श मानती हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक ने भी इन्हीं वीर नायकों को अपना आदर्श बनाया था जिसके फलस्वरूप सांप्रदायिक राजनीति की जड़ें मजबूत हुईं और राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हुआ। कहना न होगा कि आर. एस. एस. तिलक को अपना वैचारिक गुरु मानता है। इसलिए राष्ट्रीय आंदोलन का जो अंतर्विरोध रहा या फिर इसकी जिन मोर्चों पर हार हुई, उसका कारण बहुत हद तक उस विचारधारा को माना जा सकता है जिसे तिलक स्वीकार किये बैठे थे, और जिसे प्रेमचंद भी जोश में याद कर लेते हैं।

प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहासकारों में सबसे ज्यादा और बेहद मजबूती के साथ लिखा है। लेकिन इस समस्या के बारे में ऐसा लगता है, उनकी समझ बहुत स्पष्ट और वैज्ञानिक नहीं थी। प्रेमचंद मानते हैं कि राष्ट्रीयता वर्तमान का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी। मार्क्सवादी आलोचक खगेन्द्र ठाकुर बहुत हाल तक मानते रहे हैं कि सांप्रदायिकता, आधुनिक युग की नहीं मध्यकाल की चीज है। (आलोचना -59)। दरअसल, राष्ट्रीयता एवं सांप्रदायिकता दोनों ही आधुनिक भारत की उपज हैं। इस तरह की गलती का मूल कारण है कि लोग सांप्रदायिकता एवं सांप्रदायिक तनाव दोनों को एक ही चीज मान बैठते हैं। सांप्रदायिकता औपनिवेशिक भारत की देन है जबकि सांप्रदायिक तनाव अथवा संघर्ष मध्य युग में भी था। (डा. अखिलेश कुमार की कृति 'कम्युनल रॉयट्स इन मॉडर्न इंडियाइस विषय की विस्तृत जानकारी के लिए देखें)।

प्रेमचंद यह भी लिखते हैं कि ‘दोनों संप्रदायों में कशमकश और सन्देह और घृणा की जड़ें इतिहास में हैं।’ लेकिन चूंकि इतिहास का समीकरण कुछ इस तरह का है कि वे मान बैठते हैं कि ‘मुसलमान विजेता थे और हिन्दू विजित।’ (प्रेमचंद के विचार , भाग-1, पृष्ठ 353)। तब वे यह भी सोचने को बाध्य होते हैं कि ‘मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं पर अक्सर ज्यादतियां हुईं।’ इसलिए हिन्दुओं की दिन-प्रतिदिन घटती हुई आबादी उनकी चिंता का कारण बनी। (वही)

सामान्यतः, सांप्रदायिकता के होने में इस ‘मिथ्या चेतना’ का प्रमुख हाथ है कि समान धर्म को माननेवाले लोगों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक हित समान होते हैं, तथा एक धर्म विशेष के माननेवालों के हित दूसरे धर्म के अनुयायियों के हितों के सर्वथा विरोधी होते हैं। संप्रदायवादी इस विचारधारा को काफी तूल देते पाये जाते हैं कि हमारा देश छोटी-छोटी धार्मिक इकाइयों में विभाजित है अर्थात् वे विभिन्न धार्मिक समुदायों के स्वतंत्र अस्तित्व को काफी जोर देकर प्रचारित करना चाहते हैं। इस संप्रदायवादी चिंतनधारा के खिलाफ प्रेमचंद के लेखन में जबर्दस्त प्रतिवाद का अभाव खटकता है। एक जगह तो प्रेमचंद हिन्दू-मुसलमान के पृथक अस्तित्व को न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात की घोषणा भी करते हैं कि यह अस्तित्व शाश्वत है। प्रेमचंद बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं, हिन्दू और मुसलमान कभी दूध और चीनी थे, होंगे और होने चाहिए। दोनों की अलग-अलग सूरतें रहनी चाहिए और बनी रहेगी।(वही, पृष्ठ 355)। आधुनिक भारत की राजनीति में इसी ख्याल ने संप्रदायवाद के उद्भव को आधार प्रदान किया है। संप्रदायवादियों का मूलमंत्र है कि हिन्दू एवं मुसलमान दो भिन्न धार्मिक इकाइयां हैं। इसे स्वीकार करने में प्रेमचंद को कोई एतराज नहीं है।

दूसरी तरफ दिसंबर 1933 के जमानामें नेहरु को उद्धृत करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है कि आज भारत में मुस्लिम और हिन्दू जनता में कोई वंशगत या सांस्कृतिक भेद नाम को भी नहीं है। अवध या बुंदेलखंड के किसी मुस्लिम या हिन्दू किसान में ऐसा कोई अंतर मिलेगा, जो एक को दूसरे से अलग कर दे।प्रेमचंद को पढ़ते हुए हमें कई दफा हिन्दुओं एवं मुसलमानों के वंशगत या संस्कारगत भेद का अहसास होता है। हिन्दू उनके लिए उदारता एवं सादगी का प्रतीक है जबकि मुसलमानों के लिए ठीक यही भाव नहीं है। गांव के बड़े-बूढ़ों के बीच अब भी हिन्दू बढ़े नेम से मुसलमान बढ़े कुनेम सेवाली बात प्रचलित है। हिन्दुओं में मांस, मुर्गी, अंडा आदि खाना आदर्श रूप में वर्जित है। मांसाहार करना ही मुसलमान होने के लिए पर्याप्त है। प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से भी यह बात उभरकर सामने आती है।

14 जुलाई 1936 को प्रेमचंद की बच्चों के लिए एक कहानी आई थी-कुत्ते की कहानी । इसमें एक पात्र डफाली है जिसका कुत्ता जकिया है। डफाली चूंकि मांस खाकर अपना गुजारा करता था, इसलिए जकिया को भी लगभग रोज ही मांस मयस्सर हो जाता था। इस भाव को स्पष्ट करने में प्रेमचंद का ‘टिपिकल’ हिन्दू संस्कार अपनी छाप छोड़ जाता है। वे लिखते हैं, मगर भाई जकिया पक्का मुसलमान था रोज मांस खाता।वहीं प्रेमचंद पंडित जी के कुत्ते के लिए लिखते हैं, चूहों को खिला-खिलाकर जान से मार डालता था, पर खाता था। इस तरह प्रेमचंद के यहां हिन्दू-मुस्लिम के वंशगत या संस्कारगत भेद का हमें तीखा अहसास होता है।

जीवनपर्यंत प्रेमचंद गहरे वैचारिक अंतर्विरोध के बीच जीते हैं। वे सांप्रदायिकता की समस्या का हल ढूंढ़ नहीं पाते। हालांकि धर्म के फरेब को वे अच्छी तरह जानते थे। हिन्दू-मुसलमानों की राजनीतिक लीला भी उनसे छिपी न थी। इसलिए सांप्रदायिकता के कारणों में वे धर्म की बजाय जनता के बीच राजनीतिकरण के अभाव को प्रमुख मानते हैं। उन्होंने लिखा था, ‘हमारा दृढ़ संकल्प है कि ज्यों-ज्यों हमारा राजनैतिक विकास होगा, सांप्रदायिकता मिटती जायगी और आर्थिक समस्याएं उसका स्थान लेती जाएंगी।’ एक जगह वे बहुत साफ शब्दों में कहते हैं, ‘कल की लड़ाई आर्थिक होगी।’

साम्प्रदायिकता संबंधी विचारों के मामले में हम प्रेमचंद के यहां चिंतन की एक दूसरी धारा भी देखते हैं, जहां अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण खुलकर सामने आता है। गांधीजी का मानना था कि अगर हमारे नेता आपस के द्वेष को भुला दें तो सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं का अंत संभव हो सकता है। गांधीजी सांप्रदायिकता के मूल कारणों को खोज पाने में असमर्थ हैं, इसलिए उनके समाधान भी बिल्कुल सतही और भ्रमोत्पादक हैं। प्रेमचंद को भी इन नेताओं पर कुछ जरूरत से ज्यादा ही भरोसा है। वे मानते हैं कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए ‘जरूरत सिर्फ इस बात की है कि उनके नेताओं में परस्पर सहिष्णुता और उत्सर्ग की भावना हो।’ ऐसा ख्याल इस मान्यता को प्रमाणित कर देता है कि सचमुच हमारा समाज हिन्दू, मुसलमान एवं सिक्ख जैसी इकाइयों में बंटा है। तब हम जाने-अनजाने संप्रदायवादियों के ही सिद्धांत कि एक समुदाय के सारे लोगों के हित समान होते हैं, को समर्थन दे रहे होते हैं। इस तरह राष्ट्रवादियों और संप्रदायवादियों के बीच का भेद मिटता नजर आता है। प्रेमचंद एवं गांधीजी के विचारों के विपरीत, नेहरु का मानना था कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए जनता के बीच एकता कायम करनी होगी।

हिन्दी में सृजनात्मक साहित्य के माध्यम से सांप्रदायिकता फैलानेवाले लेखकों की भी एक परंपरा रही है। भारतेंदु और प्रताप नारायण मिश्र के जमाने से लेकर प्रेमचंद के जमाने तक इस परंपरा को फलते-फूलते देखा जा सकता है। प्रेमचंद ने इस तरह के लेखन से लोगों को हमेशा सतर्क एवं सावधान रखने की कोशिश की है। धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की स्थापना के लिए उन्होंने संघर्ष का रास्ता अपनाया। यहां इस्लाम का विष-वृक्षकी चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा। इसके लेखक थे श्री चतुरसेन शास्त्री इस पुस्तक में इस्लाम का इतिहास है। साथ ही इसमें सांप्रदायिकता को भड़कानेवाली बातें लिखी हुई थीं। प्रेमचंद भला इसे कब बर्दाश्त करनेवाले थे। उन्होंने शास्त्री जी को लगभग डांटते हुए लिखा, ‘हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि ऐसी जटिल और द्रोहभरी रचनाएं लिखकर अपनी प्रतिभा को और हिन्दी को कलंकित न करें और राष्ट्र में जो द्रोह और द्वेष पहले से ही फैला हुआ है, उस बारूद में आग न लगावें।’ हिन्दी एवं उर्दू का प्रेमचंद के लेखन में कोई विरोध नहीं है। दोनों ही भाषाओं में सांप्रदायिकता का दुष्प्रचार करनेवालों को वे सबक सिखाते हैं। नियाज फतेहपुरी एक ऐसे ही पत्रकार थे जिनमें देशभक्ति के तमाम दावों के बावजूद हद दर्जे की सांप्रदायिक भावनाओं और विचारों को प्रकट करने का साहस भी था, जिसके लिए प्रेमचंद ने इनको काफी भला-बुरा लिखा था। इस तरह प्रेमचंद के लेखन की जो मुख्यधारा है, वह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों एवं राष्ट्रवादी चेतना को प्रोत्साहित करती है।

यह और बात है कि धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्रवाद की बात करते-करते अचानक प्रेमचंद का सोया हिन्दू मन जाग उठता है और यहां तक कि ‘स्वराज’, जिसमें हिन्दू-मुसलमान जैसी चीजों का न होना था, वहां भी हिन्दू रंग एक बार चढ़ जाता है। शासन में मुसलमानों की भागीदारी के नाम पर एक ‘टिपिकल हिन्दू’ के रूप में प्रेमचंद कहते हैं, ‘अव्वल तो अपने दिल से यह ख्याल निकाल देना चाहिए कि हमारे देश-भाई अब भी हम पर हुकूमत का इरादा रखते हैं क्योंकि हिन्दू संख्या में, धन-दौलत में, शक्ति में मुसलमानों में किसी तरह से कम नहीं हैं।’ (प्रेमचंद के विचार , भाग-1, पृष्ठ 414)।

प्रेमचंद के ये अंतर्विरोध भारतीय राष्ट्रवाद के अंतर्विरोध हैं। राष्ट्रवाद एक आधुनिक विचारधारा है। भारत में इसका उद्भव एवं विकास स्वाभाविक रूप से साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा के रूप में हुआ। अंग्रेज शासकों एवं उपनिवेशवादी इतिहासकारों का ख्याल था कि भारत का अपना कोई इतिहास नहीं है। अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का शिकार होकर कभी मार्क्स ने भी स्वीकार किया था कि भारत का कोई इतिहास नहीं है; इतिहास के नाम पर विदेशी आक्रमण की कुछ घटनाएं हैं। फलतः भारत में राष्ट्रीय चेतना का निर्माण औपनिवेशिक धारणाओं और आधारवाक्यों के अस्वीकार एवं आत्मसम्मान के लिए संघर्ष के बीच हुआ। इसलिए यह भी उतना ही स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रवाद के विकास के प्रथम चरण में औपनिवेशिक मान्यताओं का जबर्दस्त खंडन होना था। यहां तक कि लोगों ने प्राचीन भारत में जनतंत्रात्मक शासन प्रणाली के होने की बात पर जोर देना शुरू कर दिया। कभी-कभी तो राष्ट्रवाद इस कदर हावी हो गया कि वे अपने अतीत को वर्तमान से भी अधिक सुंदर देखने लगे। इसके साथ ही पश्चिम की हर अच्छी-बुरी चीज का प्रत्याख्यान हुआ। निराला जब कहते हैं, योग्य जन जीता है। पश्चिम की उक्ति नहीं। गीता है, गीता है। स्मरण करो बार-बार ’, तो यही भाव है। डार्विन के विकासवाद को खुली चुनौती है यह। भारत की राष्ट्रीय चेतना इस चिंतनधारा से प्रभावित रही है। प्रेमचंद भी इस चेतना से अप्रभावित नहीं थे, खासकर अपने आरंभिक दौर में इस रंग में रंगे हुए थे।

राष्ट्रवाद के विकास के प्रथम चरण में शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि क्षेत्रीय नायकों को राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रनायक के रूप में चित्रित किया। आश्चर्य नहीं कि ‘आत्मचेता क्रांतिकारी’ (सेल्फकंशस रिवोल्यूश्नरी) नेहरु के लिए भी गुप्त साम्राज्य का उत्कर्ष राष्ट्रीयता का अभ्युदय था। सिर्फ राष्ट्रवादी चिंतकों की ही ऐसी स्थिति न थी बल्कि बहुत हद तक मार्क्सवादी विचारधारा के लोग भी चीजों को ठीक इसी रूप में देख रहे थे। पहलके इतिहास अंक के लेख ‘मार्क्सवादी इतिहास-विश्लेषण की समस्याएंकी एक पाद-टिप्पणी में इरफान हबीब ने लिखा है, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस शिवाजी को एक ऐसा ही राष्ट्रीय नायक मानता था और उनके सम्मान में उनके राज्याभिषेक के अवसर पर संस्कृत में लिखी गई एक लंबी कविता का संस्करण भी उसने निकाला था, हालांकि उसमें एक दरबारी कवि की अतिशयोक्ति के अलावा ऐतिहासिक मूल्य की दृष्टि से कुछ भी नहीं है।उन्हीं के उद्धरण का सहारा लेकर कहूं कि ‘‘सी. पी. आई के मुखपत्र न्यू एजने एक बार शिवाजी को, वे जो कुछ भी थे, अर्थात् दमनकारी कहने के लिए, मोरारजी के बारे में भला-बुरा भी लिखा था।’

प्रेमचंद का अंतर्विरोध बहुत हद तक किसी तर्कसंगत विचारधारा के अभाव की वजह से है। आपने जो दृष्टि प्राप्त की थी, वह विचारधारा की नहीं ‘ऑब्जर्वेशन’ की दृष्टि थी। लेकिन उसमें तोलस्तोय की गहराई न थी। भारतीय समाज की जटिल संरचना, खासकर सांप्रदायिकता जैसी विचारधारात्मक अवधारणाओं को स्पष्टतः समझने में इनकी दृष्टि फंस जाती है और अपनी दूरदर्शिता खो बैठती है। बहुत संभव है कि अपने अंतिम दिनों तक प्रेमचंद ने मार्क्सवाद का विधिवत अध्ययन न किया हो। कहना होगा कि उनके लेखों में मार्क्सवादी शब्दावली का, जिसका आरंभिक मार्क्सवादी लेखन में बाहुल्य है, अभाव प्रतीत होता है। प्रेमचंद के अंतर्विरोध का यह भी एक संभव कारण हो सकता है। नेहरु इसलिए भी चीजों को साफ देख पा रहे थे-खासकर विचारधारात्मक प्रश्नों को।

इस तरह के अंतर्विरोध की परंपरा साहित्य के साथ-साथ इतिहास एवं राजनीति के क्षेत्रों में भी रही है। यह बात अलग है कि सांस्कृतिक मंच से भारत के पुरातन समाज और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इन रूपों ने राष्ट्रीय चेतना को तीव्र तो किया, पर साथ ही आलोचनात्मक सामाजिक चेतना को कुंठित भी किया। प्रेमचंद को हम इस पृष्ठभूमि से अलग काटकर नहीं देख सकते। किसी भी सामाजिक समस्या या सवाल की सही पहचान के लिए यह आवश्यक है कि उसे निश्चित ऐतिहासिक-सामाजिक सीमाओं के भीतर परखा जाये, जिसमें ये सवाल पैदा होते हैं। औपनिवेशिक काल की सीमाओं के भीतर उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में प्रेमचंद की भूमिका महत्वपूर्ण है। और यह भी उतना ही सत्य है कि अपनी औपनिवेशिक सीमाओं के भीतर, हमारा राष्ट्रवाद एक धर्मनिरपेक्ष मूल्य था।

प्रकाशनः सहमत मुक्तनाद , अंक 35, जून 2006।

Monday, October 11, 2010

गंगा , गंगा-स्नान और भारतीय संस्कृति


गंगा पवित्रता का पर्याय समझी जाती रही है। गंगा को पवित्र मानकर पूजा करने अथवा उसमें स्नान करने की प्रथा की कब शुरुआत हुई, इसका ठीक-ठीक विवरण देना एक मुश्किल काम है। ऋग्वेद में गंगा की सिर्फ एक बार चर्चा है। ऋग्वेद की ‘गंगा’ सरस्वती है। फिर भी हम यह मान सकते हैं कि लगभग उत्तर वैदिक काल में गंगा महत्त्वपूर्ण हो चली थी। पवित्रता की यह पूर्वपीठिका थी। निश्चित रूप से गंगा में स्नान करने की प्रथा को एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में मान्यता इसके बाद ही प्राप्त हुई होगी।

गंगा जीवन का पर्याय है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिखा है किअकाल के दिनों में लोगों को गंगा की पूजा करनी चाहिए।महाभारत में गंगा-जल की महिमा का वर्णन इस तरह किया गया है-‘सभी पवित्र जलों में गंगा जल सबसे पवित्र है, देवताओं के लिए जैसे अमृत है मनुष्यों के लिए गंगा-जल का वही महत्त्व है।इतिहासकार डेरियन ने ‘गंगा-मिथक और इतिहास’ में लिखा है कि नील नदी को छोड़कर विश्व में और कोई नदी नहीं है जो गंगा जैसी महत्त्वपूर्ण स्थिति को प्राप्त कर सकी हो। इसकी ख्याति सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी फैल चुकी थी। सिकंदर महान गंगा को ही पृथ्वी का अंत मानता था। गंगा ही के आकर्षण ने उसे हिन्दुस्तान की धरती तक खींचकर लाया।

हमारी संस्कृति में गंगा का इतना महत्त्व है कि इसने भारतीय कला के विविध रूपों को भी प्रभावित किया, क्या साहित्य और क्या मूर्तिशिल्प-सब इससे प्रभावित हुए हैं। बंगाल में ढेर सारी कविताएं गंगा को आधार बनाकर लिखी गई हैं। वहां के जीवन में गंगा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। जीवन से लेकर मृत्यु तक हर पल गंगा उनके काम आती है। बंगाल में बच्चों का जब उपनयन संस्कार किया जाता है तो उसे तीन दिनों तक अपने घर से बाहर नहीं निकलना होता है तथा रोटी एवं गंगा-जल के सहारे ही जीना पड़ता है। आधुनिक काल में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के पर लोग गंगा के किनारे पहुंचकर बाल-दाढ़ी बनवाते हैं, स्नानादि एवं अन्य कर्म करते हैं। ऐसा करना मृतक की मोक्ष-सिद्धि हेतु अत्यावश्यक माना जाता है।

गंगा कामिथकएवंइतिहासदोनों में बराबर का हिस्सा है। जिन दिनों हिन्दुस्तान की धरती पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही थीं, गंगा ‘मिथक से इतिहास’ और ‘इतिहास से मिथक ' का रूपांतरण झेल रही थी। आंदोलनकारी आंदोलन शुरू करने से पहले गंगा में स्नान करते थे, उससे एक तरह का नैतिक बल एवं आत्मविश्वास अर्जित करते थे।

भारतीय दर्शन-प्रणाली में आस्था एवं भक्ति का एक सबल पक्ष रहा है। हमारी आस्था धर्मग्रंथों में वर्णितपुराण कथाओंएवं मिथकों के आधार पर निर्मित होती रही है। यहां सिर्फ हिन्दू धर्मग्रंथों ही की बात नहीं है बल्कि बौद्ध अथवा जैन साहित्य का भी अगर अध्ययन करें तो पायेंगे कि गंगा के प्रति एक अजीब आस्था है लोगों के मन में। हिन्दू धर्म में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की अवधारणा है। हमारा धर्म इन्हीं की बदौलत शासित होता है। मोक्ष की कामना और उसकी प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य का धर्म है, अगर उसकी अप्राप्ति हाथ लगी तो मनुष्य तन में जन्म लेना सर्वथा बेकार गया। गंगा-जल में स्नान करना एवं दान-दक्षिणा देना दुनिया के मायाजाल से ऊपर उठने अथवा कहें कि मोक्ष-प्राप्ति का एक उत्तम साधन है।

इस संसार में जन्म लेकर मनुष्यों को भगवत-स्मरण और स्नान-दानादिक करना, यही मुख्य धर्म है क्योंकि बड़े-बड़े पर्वों में स्नान-पूजा-व्रत दानादिक करने से पाप नष्ट होते हैं और मुक्ति मिलती है। पर्व और व्रत इत्यादि तो अनेक हैं और नित्य ही स्नानादिक का बड़ा फल है परंतु मार्गशीर्ष, कार्तिक, माघ, वैशाख, सब महीनों में उत्तम गिने जाते हैं। इसमें भी कार्तिक स्नान का विशेष महत्त्व है। हिन्दी पुनर्जागरण के कवि भारतेंदु ने इसकी महत्ता का बखान कुछ इस तरह किया है-

‘माधव कातिक माघ की पूनो परम सुनीत।
ता दिन गंगा न्हाइयै करि केशव सों प्रीति।।’

आश्विन शुक्ल एकादशी से आरंभ करके जो कार्तिक में जितेन्द्रिय होकर व्रतादिक कर गंगा में प्रातःस्नान करता है वह मुक्तिभागी होता है और उसको यमराज का भय नहीं होता। दूसरी ओर जो लोग कार्तिक में स्नान व्रतादिक नहीं करते वे मंदबुद्धि हैं, उन्हें किसी पुण्य का फल नहीं मिलता। कार्तिक में गंगा-स्नान के समान कोई धर्म है, अर्थ है, काम है, मोक्ष है, दान है। इसीलिए जो लोग दूर से चलकर गंगा-स्नान करने आते हैं उनको कदम-कदम परअश्वमेधएवंवाजपेय’ (वैदिक यज्ञ) का फल मिलता है।

गंगा की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए स्कंद-पुराण में लिखा है कि इसमें तेरह प्रकार के कर्म नहीं करने चाहिए। शौच, कुल्ला, जूठा फेंकना, मल-मूत्र त्याग करना, तेल लगाना, निन्दा, प्रतिग्रह, रति, दूसरे तीर्थ की इच्छा तथा दूसरे तीर्थ की प्रशंसा, वस्त्र धोना, उपद्रव आदि सारे कर्म नहीं करना है। अगहन मास की पूर्णिमा के समान दूसरा कोई पर्व नहीं है। यह बात स्कंद-पुराण के ‘मार्गशीर्ष माहात्म्य ' में लिखी है। अगहन की पूर्णमासी को जो स्नानादि नहीं करते वे साठ हजार बरस तक रौरव वास करते हैं। गहड़वाल नरेश गोविन्द चन्द्र देव के कमौली ताम्र-पत्र मेंश्रीमद् वाराणस्यां गंगायां स्नात्वावाक्य मिलता है। तात्पर्य यह है कि दान करने से पूर्व गंगा नदी में स्नान करना आवश्यक था। निम्नलिखित उद्धरण इसे और भी स्पष्ट करते हैं-

‘विधिवत् स्नात्वा देव मनुज मुनि भूत पितृ
गणास्तपंयित्वा; वासुदेवस्य पूजां विधाय
कुशलता पूत करतलोदक पूर्वम’ (इंडियन एंटीक्वेरी 15, पृष्ठ 8)

और भी-

‘पुण्य तीर्थोदकेन विधिवत् स्नात्वा देव मनुज
पितृन् संतर्प्य भास्कर पूजा पुर सर-
भवानी पतिमभ्यर्च हुतभुज हुत्वा राहुग्रस्ते
दिवाकरे नाना गोत्रेभ्योः नाना प्रवरेभ्यो नाना
नामेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः कुशलता पूतेन
हस्तोदकेन स्वस्ति वाचन पूर्वम संकल्पित
भूमः सम्बन्धे शासनी कृता प्रदताः ’ (वही, भाग 4, पृष्ठ 158)

भारत में गंगा नदी की भी देवकोटि में गणना कर ली गयी है। विद्यापति ने गंगा को पवित्र, सुन्दर एवं मनोरम माना है। उन्होंने गंगा की स्तुति में कुछ पदों की रचना की है। अकबरी दरबार के प्रमुख कवि गंग ने गंगा की स्तुति की है। रहीम का गंगा- भक्ति संबंधी निम्नलिखित दोहा बहुत ही प्रसिद्ध है-

अच्युत चरण तरंगिनी, शिव सिर मालति माल।
हरि बनायो सूरसरि, कीजौं इन्दव भाल।। '

गोस्वामी तुलसीदास ने मानस के बन्दना प्रकरण में सरस्वती के साथ ही सुरसरिता की भी बन्दना की है-

पुनि बन्दौ शारद सुरसरिता, युगल पुनीत मनोहर चरिता।
मज्जन पान पाप हर एका, कहत सुनत हर एक अविवेका।। '

रीति काव्य के प्रमुख कवि पद्माकर ने गंगालहरी ' नामक एक स्वतंत्र काव्य की रचना की थी। इसमें 56 कवित्तों में गंगा की महिमा का गान किया गया है। इसमें ब्रजभाषा के लालित्य और अलंकार सौष्ठव का सुंदर सामंजस्य मिलता है। पद्माकर के बाद कुशल मिश्र, अखैराम, रसिक सुन्दर, लेखराज आदि अनेक कवियों ने गंगा की महिमा का गान किया है, किंतु आधुनिक काल के दो प्रमुख कवियों-भारतेंदु हरिश्चन्द्र और जगन्नाथदास रत्नाकर ने देव नदी के विविध रूपों का जिस रोचक शैली में वर्णन किया है वह निश्चय ही श्लाघ्य है। भारतेंदु ने दास्य भाव से गंगा का स्मरण किया है। उन्होंने सत्य हरिश्चन्द्र नाटक में काशी की गंगा का यथार्थपरक वर्णन किया है।

पद्माकर और भारतेंदु की ही परंपरा में रत्नाकर ने गंगावतरणऔर गंगा लहरीनामक काव्यों की रचना की।गंगावतरणका कथानक वाल्मीकि रामायण पर आधारित है। ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर गंगा के उद्भव का रोला छन्द में बहुत सरस वर्णन मिलता है। गंगा लहरीएक मुक्तक काव्य है जिसमें गंगा की महिमा का उल्लेख किया गया है।

दूसरी ओर कबीर हैं-

चली कुलबोरनी गंगा न्हाय।
सतुवा कराइन बहुरी भुंजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।
गठरी बांधिन मोटरी बांधिन, खसम के मूंडे दिहिन धराय।
विछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।
गंगा न्हाइन जमुना न्हाइन, नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।
पांच पच्चीस के धक्का खाइन, घरहूं की पूंजी आइ गंवाय।

कबीर की रुक्षता भिखारी ठाकुर के यहां मिठास बनकर आती है। गंगा-स्नान का एक दृश्य यहां भी-

चलऽ गोरिया करे गंगा असननवाँ।।
सारी चोली पेन्हऽ करऽ सब अभरनबाँ,
तेही पर सोभी सोना चाँदी के गहनवाँ।।
गते गते बोलऽ ना तऽ सुनी मरदनवाँ।।
खाये खातिर बान्धऽ नून सतुआ पिसनवाँ।
बने बनालऽ तू झटपट पकवनवाँ,
मिठरस चाहीं कछू राह के भोजनवाँ।
सुरसरि जल भरि हरि दरसनवाँ,
करिके भिखारी कहे घुरे के मकनवाँ।। '

समकालीन कविता के एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर ज्ञानेन्द्र पति ने तो अपने संग्रह का नाम ही रखा है- गंगा - तट
गंगा सचमुच हिन्दुस्तानी तहजीब का हिस्सा बन चुकी है। इसीलिए नेहरु की अंतिम अभिलाषा ' थी कि उनके अस्थि-भस्म को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाये ताकि वे संपूर्ण भारत का हिस्सा बन सकें। गंगा ने भारत की धरती पर हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच कोई भेद नहीं किया है। गंगा सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल है। गंगा हिंदुस्तान में हिंदुस्तानी तहजीब की खास हिस्सा है जिसको निर्मित करने में सारे धर्मों के लोगों का साझा सहयोग है। ऐसे वक्त में राही मासूम रजा की गंगा और महादेव ' कविता की याद रही है जिसमें उन्होंने लिखा है-

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मंुह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-
महादेव !
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह ज़लील तुर्कों के बदन में गढ़ा गया
लहू बनकर दौड़ रही है। '