Thursday, December 8, 2011

औपनिवेशिक बिहार में शिक्षा : पाठशाला में दंड के कुछ संदर्भ

‘पाठशाला में दंड के मुख्य रूप तीन होते: मोगली, घोड़न और खजूर की छड़ी। हाथ-पैर रस्सी से बांध, उसमें गर्दन फंसाकर ओधरा दिया-यह मोगली कसना था। आम की टहनियों में लाल चीटियों के बने खोतों को लाकर नंगे बदन पर झाड़ देना घोड़न लगाना था और खजूर की छड़ी तो खजूर की छड़ी ही होती है। ये तीनों सजायें स्वतंत्र होतीं, अलग-अलग दी जातीं, पर अक्सर दो मिलाकर एक ही साथ दी जाती: मोगली और घोड़न: मोगली और छड़ी। हम दोनों का प्रबंध पहले से तैयार रखते। गुरुजी के कहने पर नहीं अपने ‘उत्साह’ से। छड़ी मैं पहले से ही बना-सोनाकर रखता और लंबी-लंबी छड़ियां ताकि गुरुजी को अपनी जगह से उठने का कष्ट नहीं करना पड़े। ...गुरुजी यदि किसी हमारे विद्यार्थी साथी पर रंज हुए तो मैंने छड़ी हाजिर की। गुरुजी के मुह से निकलना था: ‘झाड़ दो इसके बदन पर घोड़न के खोते’ और मैं कह उठता ‘गुरुजी रखले हतीं।’’ (किशोरी प्रसन्न सिंह, राह की खोज में, अन्वेषा प्रकाशन, पटना, प्रथम संस्करण, फरवरी 2002, पृष्ठ 52)

...‘और उसके बाद जो होता वह हमारी उम्र के बहुत लोगों को मालूम होगा जिनकी पढ़ाई बचपन में किसी देहात के गुरुजी के यहां हुई है। विद्यार्थी छटपटा रहे हैं ‘बाबू हो जान गेल, गुरुजी अब न’। पर यहां कौन मानता है घोड़न झाड़े चले जा रहे हैं।’ (वही)

...‘गुरुजी क्यों इन साधनों का इस्तेमाल करते हैं और मैं क्यों ऐसा करता, यह उस समय थोड़े कभी पूछा था, सोचा, विचारा। लगभग 15-16 वर्षों बाद एक बार गुरुजी से पूछा: वह ऐसा क्यों करते थे। पता चला, अररा गांव जहां गुरुजी का घर था, (तीन-चार मील ही पड़ता है) वहां के श्यामनन्दन सहाय जमींदार हैं, बहुत बड़े जमींदार, पढ़े-लिखे भी बहुत और आधुनिक दुनिया के जमींदार। इनकी ‘कचहरी’ में ये सारी चीजें बड़े पैमाने पर व्यवहार की जाती थीं। गुरुजी ने देखा था ये साधन, कितने कारगर होते थे, तगड़े किसान भी आसानी से मान लेते थे और दुरुस्त हो जाते थे। वहीं से गुरुजी ने यह दवा सीखी थी।’ (वही)

...‘यह तो हुई गुरुजी की बात। मैं क्यों घोड़न और छड़ी तैयार रखता ? इसका पता और भी देर से लगा। संस्कार का बहुत बड़ा असर होता है। पर यह संस्कार ऐसा नहीं होता जो जनमने के पहले से ही होता हो। यदि कुछ ऐसा होता भी होगा तो वह हम नहीं जानते। जिस संस्कार को हमने देखा है उसको कह सकता हूं।’ (वही, पृष्ठ 53)

...‘एक बार गुरुजी से हमारी भी हुई, पर वह मोगली, घोड़न और छड़ी-तीनों में कोई नहीं, एक अलग चीज हुई खेदा-खेदी। गुरुजी ने कहा-तुम दोनों (हम और चन्द्रदेव) चतुर्भुज को बुला लाओ। हम दोनों चले। चतुर्भुज का घर वहां से चार सौ गज से अधिक ही होगा। यह सबेरे की ही बात थी। बाहर आ रहा था। नून नदी छिछली नदी है। बाढ़ आयी तो कई घंटों में ही सारा इलाका जलमग्न हो जाता है। चतुर्भुज के दरवाजे पर अभी-अभी छिप-छाप पहुचा था, हमदोनों कई दूसरों के साथ, जिसमें चतुर्भुज भी था, चेंगा और गरचुन्नी पकड़ने में लग गये। मछली पकड़ने के सूर में जब भूख-प्यास ही भूल गया तो गुरुजी की आज्ञा का क्या पूछना। दोपहर को किसी से गुरुजी को पता चला कि हमलोग मछली मार रहे हैं।' (वही)

'गुरुजी और नायब गुरुजी, दोनों अपना-अपना सोंटा लिये दीख पड़े। हमलोगों ने समझ लिया कि आत्मसमर्पण का क्या अर्थ होगा। बस उत्तर की ओर भागे। पानी आ गया था, डगर (गांव की सड़क) एक जगह नीची पड़ती थी, वहां पानी भर कमर हो गया था। हमलोगों के तो गर्दन से भी अधिक था। उसे पार करने में गुरुजी और नायब गुरुजी की धोती भी भींग गयी, इसलिए चाहे जहां कहीं भी हो पकड़ने का ही निश्चय किया। बाहा (नून नदी का छाड़ना) के किनारे-किनारे हमलोग भागे जा रहे थे और गुरुजी रगेदे जा रहे थे। चन्द्रदेव तैरने में हमसे सेसर था। वह बाहा में कूद गया और उस पार। गुरुजी कुछ देर धमसाये कि क्या किया जाये, अब किसका पीछा किया जाय। इस अनिश्चितता में उनकी चाल कुछ धीमी हो गयी और हमारी उनकी दूरी लम्बी हो गयी। इतने में ही मैं भी उस पार चला गया। मकई के खेते-खेते घर पर जाकर किल्ली ठोक ली, और तबतक नहीं निकला, जबतक घर की औरतों ने किरिया खा-खाकर यह विश्वास नहीं दिलाया कि वे हमें गुरुजी से बचायेंगी। और उनलोगों ने ईमानदारी के साथ अपना किरिया निभाया। उस दिन हम दोनों अपने बल पर चम्पत हो गये। हमलोगों ने अपने साथियों से कहा: ‘गुरुजी के हरा देली।’ (वही, पृष्ठ 54)

‘मेंरे हेडमास्टर हरेक विद्यार्थी के चाल-चलन पर हमेशा कड़ी निगाह रखते थे। खराब चाल-चलन के कारण कभी-कभी करीब-करीब हर हफ्ते दो-चार बार बेंतबाजी होती थी। हेडमास्टर खुद बेंत मारते थे। बेंतों की कोई गिनती नहीं हो सकती थी। देह पर नीली साटें उखड़ आती थी। सयाने लड़कों की तो दुर्गति हो जाती थी। बदचलन लड़कों के लिए हेडमास्टर यमराज से कम न थे। उनकी कड़ाई और पढ़ाई सारे शहर में मशहूर थी। बहुत अच्छा पढ़ाते और बड़ी बेदर्दी से मारते-पीटते थे। उनका नाम श्री विश्वनाथ गुप्त था। वे बंगाली थे। हिन्दी में प्रसिद्ध लेखक पंडित ईश्वरी प्रसाद शर्मा के बड़े भाई पंडित गुरुदेव प्रसाद शर्मा भी मेरे ही स्कूल में मास्टर थे। वे भी बदमाशों के काल कहे जाते थे। उनसे भी लड़के थर्राते थे। बेंतबाजी में वे भी बड़ी सख्ती करते थे। हेडमास्टर की तरह हीं वे भी एक आदर्श शिक्षक माने जाते थे। इन दोनों के पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि विद्यार्थी इनके भक्त बने रहते थे। ये दोनों ही बहुत सुन्दर अक्षर लिखते थे। खराब अक्षर लिखने वाले लड़के इनसे जरूर दंड पाते थे।’ (शिवपूजन सहाय, संस्मरण)

...'शारीरिक दंड की कठोरता से आतंक छाया रहता था। मास्टरों से गुस्ताखी करने की हिम्मत लड़कों में नहीं थी। किन्तु पढ़ाकू लड़कों को प्यार और पुरस्कार भी मिलता था। सुशील और परिश्रमी लड़कों की पहुंच हेडमास्टर तक बेधड़क होती थी। बड़े-बड़े बिगड़ैल भी स्कूल में भीगी बिल्ली बने रहते थे।’ (वही)

...'गुरु में चेलों की श्रद्धा हृदय से थी, केवल डर से नहीं। कारण, आदर्श चरित्र शिक्षकों की संख्या ही अधिक थी।’ (वही)

‘शिक्षा के बारे में एक छोटा सा वाकया कह देता हूं क्योंकि आमतौर से लोग समझते हैं पहले शिक्षक अच्छे थे, शिक्षा अच्छी थी, मेरा यह अनुभव नहीं है। किसी भी क्षेत्र में मेरे जीवनकाल में समाज आज से अच्छा नहीं था। इससे बदतर था। आबादी बढ़ गई है, बड़े पैमाने पर। जब मैं दूसरे दर्जे में था, 6 आने में एक पुस्तक होती थी ‘आमोद-पाठ’ और उस समय 6 आने बहुत कठिन था, रुपए मन धान बिकता था। मेरी मां एक रुपए में डेढ़ सेर घी बेचकर पढ़ने के लिए पैसा देती थी। आप अंदाज कर लीजिए। मेरे पिता और चाचा में पारिवारिक बंटवारा हुआ था, 6 आने की किताब नहीं खरीदी जा सकी। मेरे शिक्षक मेरे ही गांव के थे, वो कुछ किताबें लाए थे बोले-6-6 आने में ले लो। क्लास में सुना कि फर्स्ट कर गया, शिक्षक अड़ गये कि आगे क्लास में नहीं जाने देंगे, क्योंकि किताब नहीं खरीदी है। मेरे चाचा गए, पंचायती हुई और सभी पंचों ने फैसला किया कि मुझको नहीं जाना चाहिए अगले क्लास में, हमलोग बेवकूफ हैं क्या? हमने 6-6 आने पैसे खर्च किए और वह बिना पैसे दिए फर्स्ट कर गया। पैसे की दिक्कत तो सब दिन रही ही लेकिन एक जिद में आ गया कि बिना किताब के ही पढ़ूंगा, जो होगा सो होगा। दूसरे लड़के मदद लेने आते थे, इसी बहाने उनकी किताब से पढ़कर काम चलाता था।’ (भोगेन्द्र झा, क्रांति-योग, मातृभाषा प्रकाशन, दरभंगा, 2002, पृष्ठ 15).