Tuesday, December 14, 2010

बुद्ध का स्त्री विमर्श

बुद्ध ने नर्तकी अंबपाली का आतिथ्य स्वीकार किया. कुछ लोग इस तथ्य के आधार पर साबित करना चाहते हैं कि बुद्ध तत्कालीन पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरुद्ध स्त्रियों के पक्षधर थे. बात ऐसी नहीं है. अंबपाली का स्वीकार उसी पितृसत्तात्मक मूल्यों के अधीन वेश्यावृत्ति को मान्यता प्रदान करना था. कहना न होगा कि बुद्ध ने जब संघ स्थापित किया तो शुरू में उन्होंने दासों की तरह महिलाओं को उसमें आने नहीं दिया, उन्हें संघ में आने से बार-बार मना किया, उन्हें उसमें जगह नहीं लेने दी. जहां एक ओर बुद्ध और अन्य दूसरे लोग स्त्रियों का संघ में आने और जीवन का दूसरा रास्ता अपनाने का विरोध कर रहे थे, वहीं आनंद, जो बुद्ध के चचेरे भाई थे, जैसे लोग भी थे जो स्त्रियों के संघ में आने दिए जाने का समर्थन और उसके लिए तर्क कर रहे थे. कहना होगा कि बुद्ध को रास्ता दिखाया आनंद ने. संघ में स्त्रियों के आने के लिए जिसने बार-बार प्रश्न उठाया वह आनंद की मां थीं, प्रजापति गौतमी. जहां-जहां बुद्ध जाते थे, वहां-वहां वे बुद्ध के पीछे-पीछे जाती थीं. आनंद ने बुद्ध से पूछा कि ‘अगर औरतें कोशिश करें तो क्या वे निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं?’ जवाब में बुद्ध ने कहा-‘हां’, इस पर आनंद ने कहा कि ‘तब फिर आप उन्हें संघ में क्यों नहीं आने देते?’ क्योंकि निर्वाण प्राप्त करने के लिए संघ में आना जरूरी था।

सच तो यह है कि आनंद उस संपूर्ण प्रकरण में स्त्रियों का एकमात्र सुभेच्छु था जो इस सिद्धांत में विश्वास रखता था कि स्त्री और पुरुष समान रूप से निर्वाण के हकदार हो सकते हैं. बुद्ध की मृत्यु के बाद अनेक अवसरों पर इस बात के लिए आनंद की निन्दा की गई थी. प्रथमतः, महाप्रजापति गौतमी के मामले में संघ में प्रवेश के सवाल पर और द्वितीयतः रोती हुई माता के बुद्ध के अंतिम दर्शन के अवसर पर (चुल्लवग , पृष्ठ 411). संपूर्ण बौद्ध साहित्य में आनंद के अलावे किसी दूसरे व्यक्ति का उल्लेख तक नहीं मिलता जो स्त्रियों का पक्षधर हो. यह आनंद के व्यक्तित्त्व का मानवीय पहलू हो सकता है, लेकिन इस तरह का कोई उल्लेख शायद ही मिलता है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि बुद्ध या बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार था. यहां अंगुत्तरनिकाय (खंड-२, पृष्ठ ७६) का वह प्रसंग उल्लेखनीय है जब आनंद स्त्रियों के दरबार में नहीं बैठने एवं शील-चर्चा के क्रम में उपस्थित नहीं रहने के प्रश्न पर बुद्ध से चर्चा करता है।

उस समय और उनके कायदे के अनुसार, इस प्रश्नोत्तर के क्रम में बुद्ध ने अंततः उन्हें संघ में आने दिया, लेकिन कायदे ऐसे बनाए कि संघ में भिक्षुणियों को भिक्षुओं के नीचे दबे रहना था। संघ को भिक्षु एवं भिक्षुणि इन दो संघों में बांटकर भिक्षु संघ को ऊपर का दर्जा दिया गया और भिक्षुणि संघ को उसके नीचे का। उन्होंने भिक्षुणियों के लिए दस शर्तें, नियम या कायदे बताए जिनके पालन के पश्चात ही औरतें संघ में आ सकती थीं। उनमें से एक बहुत ही चोट पहुंचानेवाला कायदा था कि चाहे जितनी भी वरिष्ठ भिक्षुणि हो उसके सामने चाहे जितना भी कनिष्ठ भिक्षु आ जाए, उसे उसको सलामी देनी पड़ेगी। भिक्षुणियों पर और भी कई सख्त प्रतिबंध थे। इसके साथ ही समान गलती के लिए भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों को अधिक सख्त दंड का भागी बनना पड़ता था। ऐसा आप कह ले सकते हैं कि यह औरत और मर्द के बीच स्थापित उच्च एवं निम्न के भेद को कायम रखने के लिए किया गया। इसका सीधा सा अर्थ था- औरतों को संघ के अंदर भी पुरुषों के दबाव में रखना।

स्त्रियों के प्रति बुद्ध के विचार को बौद्ध साहित्य में वर्णित गाथाओं के माध्यम से भी समझा जा सकता है। एक गाथा (कोलिय जातक,१३०) इस प्रकार शुरू होती है- ‘वह एक श्रद्धालु उपासक ब्राह्मण की ब्राह्मणी थी; बहुत दुश्चरित्र, पापिन। रात को दुराचार करती थी. ... ब्राह्मण घर आता तो (रोग का) बहाना बनाकर लेट जाती। उसके बाहर जाने पर ‘‘जारों’’ के साथ गुजारती। वह ब्राह्मण बुद्धदेव का भक्त था-‘‘उपासक’’. (गृहस्थ बौद्ध को उपासक कहा जाता है)। वह ब्राह्मण तक्षशिला का स्नातक था और वाराणसी का प्रसिद्ध आचार्य भी था। सौ राजधानियों के क्षत्रिय राजकुमार उनके पास पढ़ा करते थे (देखें, मोहनलाल महतो वियोगी, जातककालीन भारतीय संस्कृति , पृष्ठ १४८).

एक दूसरे ब्राह्मण की स्त्री भी घोर दुश्चरित्रा थी। ब्राह्मण भी अपनी पत्नी के अनाचार को जानता था। जब ब्राह्मण व्यापार के लिए जाने लगा तो अपने दो पालित पुत्रों को सचेत करता गया- ‘यदि माता ब्राह्मणी अनाचार करें, तो रोकना।’ पालित पुत्रों ने जवाब दिया- ‘रोक सकेंगे तो रोकेंगे, नहीं तो चुप रहेंगे।’ जातक कथा में यह वाक्य है- ‘उसके जाने के दिन से ब्राह्मणी ने अनाचार करना आरंभ किया। घर में प्रवेश करनेवालों और निकलनेवालों की गिनती नहीं रही। ब्राह्मण का वह घर क्या था, पूरा वेश्यालय! उसके धर्मपुत्र भी उदासीन रहकर सब कुछ देखते रहे’ (राधजातक , १४५).

राधजातक (१७९) के अनुसार, ‘एक ब्राह्मण ने दो तोते पाले। ब्राह्मणी व्यभिचारिणी थी। ब्राह्मण तोतों को निगाह रखने का आदेश देकर व्यापार के उद्येश्य से कहीं चला गया। मौका मिलते ही ब्राह्मणी ने खुलकर अनाचार करना शुरू कर दिया।’

पुनश्च, ‘किसी ब्राह्मण की पत्नी दुश्चरित्रा थी। एक नट को उसने घर में बुला लिया। ब्राह्मण घर से बाहर गया हुआ था। ब्राह्मणी ने नट को भात-दाल पकाकर खिलाया। वह जैसे ही खाने बैठा कि ब्राह्मण आ गया। नट को ब्राह्मणी ने छिपा दिया। ब्राह्मण ने भोजन मांगा तो नट की जूठी थाली में थोड़ा-सा भात डालकर ब्राह्मण के आगे घर दिया। ब्राह्मण खाने लगा। एक नट भिखमंगा, जो दरवाजे पर बैठा सब कुछ देख रहा था, ने ब्राह्मण से सारी कथा कह दी’ (उच्छिट्ठभत्त जातक , २१२).

एक गाथा ऐसी है जिसमें बतलाया गया है कि एक ब्राह्मणी युवती ने अपने तुरंत के ब्याहे महापराक्रमी पति का खून डकैत सरदार के हाथ में तलवार पकड़ाकर करा दिया। उन्चास तीरों से उन्चास डकैतों को उस पराक्रमी ने ब्राह्मण ने मार गिराया। पचासवां व्यक्ति था डाकू-सरदार। अब ब्राह्मण के पास तीर न था। उसने डाकू सरदार को पटक दिया और अपनी स्त्री से तलवार मांगी। स्त्री उस डाकू-सरदार पर पहले ही मुग्ध हो चुकी थी। उसने तलवार डाकू-सरदार को पकड़ा दी और उस डाकू ने ब्राह्मण पर वार कर दिया। डाकू-सरदार के पूछने पर ब्राह्मणी ने कहा, ‘मैंने तुम पर आसक्त हो अपने कुल-स्वामी को मरवा दिया।’ वह डकैत भी ब्राह्मण ही था; क्योंकि उस ब्राह्मणी ने उसे ‘बाह्मण’ कह पुकारा था-‘सब्बं भण्डं समादाय पारं तिण्णोसि ब्राह्मण।’ (चुल्लधनुग्गह जातक , ३७४).

एक ब्राह्मणी ऐसी थी जिसने अपने पति को भीख मांगकर धन जमा करने के लिए बाहर भेज दिया और खुद अनाचार में लिप्त हो गई। धन कमाकर ब्राह्मण जब लौटा, तब ब्राह्मणी ने उस धन को अपने उपपति को दे दिया (सत्तुभस्त जातक , ४०२).

जातकों में उल्लिखित तथ्य एवं निष्कर्ष से भी स्त्रियों की सामाजिक हैसियत एवं उसके प्रति बुद्ध के विचार पर प्रकाश पड़ता है. बुद्ध, बोधिसत्व के रूप में एक बार भी मादा योनि में जन्म नहीं लेते हैं. पशु या मनुष्य दोनों ही कोटि के जीवों में वे नर रूप ही धारण करते हैं. बुद्ध सदैव स्त्रियों को घृणित, दुर्गंधयुक्त एवं व्यभिचारी बताते पाये जाते हैं. ( डॉक्टर अशोक कुमार, बौद्ध परंपरा में स्त्रियों का स्थान , पोस्ट डॉक्टोरल थीसिस,आई .सी एच .आर .हेतु शोधरत). बुद्ध की स्पष्ट घोषणा है कि वह देश रहने योग्य नहीं है जहां स्त्री शासक है (कंडिन जातक ) . स्त्रियां आम तौर पर असंगत और पापिणी प्रकृति की होती हैं (असात्मंत्र जातक ). स्त्रियों की प्रकृति एवं चरित्र संदिग्ध है (अंडभूत जातक). बोधिसत्व लोक-प्रसिद्ध आचार्य के रूप में अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं कि आमतौर पर स्त्रियां व्यभिचारिणी होती हैं. अतएव बुद्धिमान पुरुष के लिए यही उचित है कि उसकी प्रकृति को समझें, घृणा न करें। स्त्रियां उस धर्म-स्थल की नदी के समान होती हैं जहां साधु और चांडाल दोनों स्नान करते हैं (अनभिरत् जातक )।

जातकों के अलावे भी बौद्ध साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं जो स्त्रियों के प्रति बुद्ध एवं बौद्ध धर्म के नजरिये को स्पष्ट करने में सहायक हो सकते हैं। कहना होगा कि सर्वत्र स्त्रियों को काला नाग, दुर्गंध, व्यभिचारिणी और पुरुषों को फांसनेवाली कहा गया है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-1, पृष्ठ २६३). स्त्रियों को रहस्यमयी कहा गया है. स्त्रियां अपने दुर्गुणों एवं दुराचारी प्रवृत्ति के कारण सामाजिक कर्मों में हिस्सेदार नहीं हो सकती थीं। महत्त्वपूर्ण है कि स्त्रियों के संबंध में ये विचार किसी एक स्त्री को ध्यान में रखकर नहीं व्यक्त किये गये थे, बल्कि स्त्रियों की प्रकृति पर विचार करते हुए सामने आये हैं।

इस तरह, हम पाते हैं कि बौद्ध साहित्य में स्त्रियों के इर्द-गिर्द जिस तरह की घेराबंदी कर दी गई थी, उससे पूर्ववर्ती एवं परवर्ती ब्राह्मण साहित्य की मान्यताओं का अनायास स्मरण हो आता है, जहां स्त्रियां अपने पति और पुत्र की निगरानी में ही सुरक्षित रह सकती थीं। बौद्ध साहित्य भी इस बोध से परे नहीं है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-२, पृष्ठ ७६). स्त्रियों की मूल भूमिका पति की विश्वासी सेविका की थी (वही, खंड-३, पृष्ठ २४४,३६१-६७). स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्त्व एवं स्वतंत्र दायित्त्व के अस्तित्त्व की कल्पना का घोर अभाव उसे घर और पितृसत्तात्मक मूल्यों से ही बंधे रहने को प्रेरित करता था। स्वयं बुद्ध की नजरों में भी यह कल्पना से परे था कि कोई स्त्री तथागत या चक्रवर्ती भी हो सकती है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-१, पृष्ठ २९).

अतएव विचारणीय प्रश्न है कि सामाजिक-धार्मिक जीवन में हिस्सेदारी से स्त्रियों को अलग/वंचित रखकर किस प्रकार बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार हो सकता था ?




Monday, December 13, 2010

सवाल वेदों की भाषा का है

मैं पिछले कई सालों से एक सवाल से अपने को बेहद घिरा महसूस कर रहा हूँ। सवाल वेदों की भाषा से सम्बंधित है। कहना होगा कि इस दौरान मैंने कुछ देशी–विदेशी विद्वानों को भी पढ़ा। मेरी सूची में ए. बी. कीथ, मैक्स मूलर, मौरिस विन्तर्निज और रामविलास शर्मा प्रमुख रूप से शामिल रहे हैं. इनलोगों ने मेरी मदद नहीं की बल्कि समस्या को और जटिल ही बनाया. बल्कि मैं यह कह सकता हूँ कि इन विद्वानों के अध्ययन से अपने सवाल को लेकर मेरा जो एक विश्वास था वह कमजोर ही हुआ है. सब ने एक मत से वेदों की भाषा का बखान किया है-कभी-कभी तो वे मुग्ध भी लगते हैं.

दूसरी तरफ मैं पता हूँ कि वैदिक समाज की भाषा एक वैसे दौर में है जहां अनेक चीजों के लिए एक शब्द प्रयोग में लाया जा रहा है। उदहारण के तौर पर ‘मृग’ शब्द को लिया जा सकता है जिसका मूल अर्थ पशु था जो मलयालम में आज भी सुरक्षित है, लेकिन सामान्य अर्थ से विशेष अर्थ की ओर भाषा की प्रगति के कारण इसका अर्थ एक विशेष पशु हो गया। वास्तव में मृग का मूल अर्थ था–जिसे ढूंढा जाये (मृग्यते इति मृगः). मृगया में शिकार सम्बन्धी अर्थ और मृगेन्द्र, मृगराज (पशुओं का राजा सिंह), शाखामृग (बन्दर),मृगहस्तिन (हाथी) में पशुमात्र का अर्थ अब भी सुरक्षित है. मुझे यह देखकर लगभग आश्चर्य होता है कि संस्कृति के पुरोधा, अर्थात स्वयं मनुष्य के लिए भी कभी–कभी मृग शब्द से ही काम चलाया जा रहा है. ‘गो’ शब्द का भी कुछ ऐसा ही हाल मिलता है. मैंने इस शब्द की गिनती तो कभी की नहीं लेकिन बीस से भी ज्यादा चीजों के लिए प्रयुक्त होते स्पष्ट तौर से देखा है.

इस तरह के जो साक्ष्य हमें प्राप्त हैं वे बताते हैं कि आरंभिक संस्कृत की शब्द-सम्पदा निर्माण के क्रम में है. उनके समक्ष विवशता है कि एक शब्द का व्यवहार अनेक भौतिक वस्तुओं के लिए करें. बावजूद इसके विद्वान वेदों की भाषा पर मुग्ध हैं. मेरा सवाल यही है कि ये दोनों ही स्थितियां एक साथ संभव हैं क्या ? या कि कोई तीसरी ही स्थिति है ?