Monday, May 21, 2012

मनोविज्ञान  एवं मानसिक स्वास्थ्य  की पत्रिका 'मनोवेद' के लिए कुमार मुकुल ने मेरे सामने कुछ सवाल रखे थे. उन्हीं सवालों पर आधारित यह लिखित बातचीत है---
क्या आप ईश्वर को मानते हैं ? धर्म को लेकर आपका नजरिया क्या है?

जब से मैंने होश संभाला है, धर्म और ईश्वर के प्रति घृणा और हिकारत का ही भाव रहा है। अपने मामले में अनास्था शब्द को अनुपयुक्त मानता हूं मैं। हालांकि तब इसके लिए मेरे पास कोई तर्क नहीं था। इसकी कोई जरूरत भी नहीं थी शायद। मेरी पैदाइशी गड़बड़ी रही हो या फिर कुछ ऐसा जो मेरे लिए आजतक अज्ञात और अपरिभाषित है। सात-आठ साल का होऊंगा जब अपने गांव के मन्दिर के प्रांगण में स्थापित महादेव को बड़े भाई (अमरेन्द्र कुमार) व उनके एक ग्रामीण दोस्त (बिपिन कुमार) के साथ मिलकर पहले तो जमकर पिटाई की, फिर पानी से भरे आहर में फेंक दिया। उन्हीं दिनों की एक दूसरी घटना भी है जिसे मैं यहां याद करना चाहता हूं। विजय ठाकुर नामक विज्ञान के एक शिक्षक थे जिनके पास मैं अपने छोटे चचेरे भाई (कृष्णकांत) के साथ पढ़ने जाता। वहां से लौटते समय मेरे मित्र पूजा करने के ख्याल से कुछ फूल भी साथ ले लेते। फूल तो मैं भी लाता लेकिन घर पहुंचने से पहले एक खूंटे पर उसे रखता और पेशाब कर डालता। यह क्रम जारी रहा जबतक भाई की शिकायत पर मास्टर साहब ने मेरी खासी मरम्मत नहीं कर दी। आज धर्म और ईश्वर मेरे लिए जनता के शोषण का प्रभावी जरिया हैं। न कम न ज्यादा। इनका अस्तित्व हममें वैज्ञानिक चेतना का अभाव होना सिद्ध करता है।  विज्ञान की पढ़ाई करना और वैज्ञानिक चेतना से लैस होना-दो अलग-अलग चीज है।

किस व्यक्ति, घटना, पुस्तक, विचार, परिस्थिति आदि ने आपके युवा मानस को निर्मित करने में अपनी क्या भूमिका अदा की, इस बाबत बतलाएं। अपने मानस की निर्माण-प्रक्रिया के बारे में बतलाएं।
मनुष्यता मैंने मां से सीखी। मेरे घर कोई भी आता-साघु, भिखारी आदि तो मां कुछ-न-कुछ उन्हें अवश्य देती। साधुओं को देख कभी-कभार हम भाई लोग बिदक जाते तो मां समझाती कि भांट-फकीर के मुह लगना अच्छी बात नहीं है। धर्म और ईश्वर में मेरी मां की भरपूर आस्था थी लेकिन धार्मिक कट्टरता या मूर्खता तनिक नहीं थी। ऐसा प्रायः होता कि हमलोग घर में अंडा, मुर्गी आदि लाते तो चुपके से मां उसी चूल्हे पर बना लेने को कहती जिसपर बाकी लोगों का निरामिष खाना बन चुका होता। उनका सामान्य-सा तर्क होता कि आग तो खुद एक पवित्र चीज है। आग में तपकर अशुद्ध चीज भी शुद्ध हो जाती है। अलबत्ता मुर्गा-अंडा बन जाने के बाद चूल्हे को मिट्टी से अवश्य लीपती। सादगी, त्याग और ईमानदारी जैसे ‘दुर्लभ’ और ‘खतरनाक’ गुण मां और चाचा (दिवंगत शिवनारायण शर्मा) से संयुक्त रूप से सीखने को मिले। कभी-कभी मां की भूमिका अगर कमतर लगी तो इसके कारण हैं। यह भी हो सकता है कि मां की दुनिया सीमित थी इसलिए चचाजान थोड़े फायदे में जा रहे हैं। चाचा, जिन्होंने हम सब को पढ़ाया, मेरे आदर्श बने। सरकारी नौकरी में होने के बावजूद परिवार की वजह से वे हमेशा अभाव में रहे। खादी की एक धोती, एक कुरता और एक चप्पल (जाड़े में जूता)। इससे ज्यादा मैंने नहीं देखा। लेकिन बड़े-बड़ों के सामने सीधा तनकर खड़े होने का माद्दा था। यह दृढ़ता शायद उन्हीं से मैंने हासिल की है।

व्यक्तित्व-निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को भी निर्णयकारी मानता हूं। आरंभिक स्कूली जीवन के ग्रामीण शिक्षक जगदीश शर्मा मेरे लिए आदर्श रहे। उर्दू मिश्रित उनकी हिंदी मुझमें भाषा के प्रति झुकाव पैदा कर गई। हाईस्कूल के हिन्दी शिक्षक श्री रामविनय शर्मा, जो आज भी मेरे लिए आदर्श हैं, की भी बराबर की भूमिका रही। सन् 84 से बड़े भाई अखिलेश कुमार के साथ सैदपुर पी. जी. हॉस्टल (3, कमरा 11 एस) में रहने लगा। इतिहास की आलेचनात्मक दृष्टि उन्हीं से हासिल की। आज भी जब एकांत में होता हूं वे मुझे बड़े भाई से अधिक वैचारिक गुरु के रूप में ही याद आते हैं। और इन सबके साथ निराला मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। अंदर कहीं कुछ भरने में निराला के व्यक्तित्व का भी असर कबूल करता हूं।

बचपन के मेरे विद्रोही तेवर को हवा मिली पुस्तकों से। यों बचपन तो किताबों के बगैर ही गुजरा लेकिन आठवीं कक्षा तक आते-आते मैं मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित हो चुका था, परिचित कितना था नहीं जानता। उन दिनों कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र, साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की चरम अवस्था, कम्युनिस्ट समाज में नैतिकता आदि कुछ किताबें मैंने मनोयोग से पढ़ीं। इसने मेरे व्यक्तित्व को एक आकार प्रदान करना प्रारंभ किया। इनके अलावे जिन किताबों ने मेरी मदद कीं उनमें गोर्की की मां, मेरा बचपन और जीवन की राहों पर  उल्लेखनीय हैं। हावर्ड फास्ट का हिन्दी में अनूदित आदि विद्रोही, अज्ञेय की शेखर: एक जीवनी (प्रथम खण्ड)। रजनी पाम दत्त की किताब इंडिया टुडे (संक्षिप्त संस्करण जिसे पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने ‘भारत: वर्तमान और भावी’ शीर्षक से प्रकाशित किया है) मैंने कई दफा पढी। कहिए कि यह किताब इंटर के दिनों में मेरे लिए ‘मनोहर पोथी’ थी। इस किताब का मुझ पर काफी असर हुआ। आज भी अपने को कभी-कभी उसकी पकड़ के अंदर महसूस करता हूं। और इन सबसे आगे तक साथ गये डा. रामविलास शर्माशेखर: एक जीवनी  की बात कि ‘विद्रोही बनते नहीं, पैदा होते हैं’, पढ़ता तो लगता जैसे यह मेरे लिए ही लिखी गई हो। शेखर का स्कूल से भागना और घर आये पिता के कई दोस्तों को ‘नामहीन जंतु’ से संबोधित करना मुझे काफी आह्लादित करता। कहूं कि एकाधिक बार घर से भागने की कोशिश मैं भी कर चुका हूं लेकिन अपने इस निर्णय पर उस दिन की शाम तक ही टिका रह सका। कक्षा नौ में अपने एक ग्रामीण सहपाठी (सतीश कुमार) को किताबें दे दी कि मेरे घर पहुंचा देना और मां को कहना कि वह गरीबों की सेवा करने गया है।

प्रेम... यह शब्द किस तरह से आपके जीवन में आया या नहीं आया... इसे आपने किस तरह से लिया... इसने आपके मानस को कितना और कैसे प्रभावित किया... यह बदलाव सकारात्मक था या नकारात्मक ... प्रेम के वरक्स सेक्स ने आपके युवा मन को किस तरह प्रभावित किया... क्या दोनो पूरक रहे या और कुछ....
प्रेम शायद हर के जीवन में आता है। मेरे जीवन में भी आया। प्रेम में होना अलौकिक (इसके वजन का शब्द न होने की वजह से इसका इस्तेमाल किया है) सुख का साथ होना है। केवल तभी मनुष्य अपनी पूरी मानवीयता के साथ होता है। इस प्रेम ने मेरे जैसे नीरस गद्यकार को भी कवि बना दिया। जब मैंने प्रेम करना शुरू किया था, पहली कविता लिखी थी- सपने से जागकर। तब नींद कम आती थी और सपने अधिक। जब तक जागता होता, बेचैन होता। कविता आने के साथ ही मेरे अंदर एक विचार ने जन्म लिया, कि कविताएं गहन प्रेम और सपनों के बीच ही संभव हो सकती हैं।

मैं प्रेम और सेक्स को अलग-अलग नहीं देख पाता। मुझे तो हमेशा ही लगा कि सेक्स, प्रेम का मुखौटा लगाकर आता है। मुखौटा के हटते ही वह अश्लील लगने लगता है। सभ्य समाज या साहित्य को वह अश्लीलता पसंद नहीं। सबकी एक मर्यादा है। मर्यादा का यह आवरण इतना झीना और पारदर्शी है कि एक की ‘हद’ से दूसरे की ‘बेहद’ को जाना जा सकता है।

इसे संयोग कहें या परिस्थिति कि मेरे जीवन में सबसे पहले मार्क्स आये। स्वदेशी होने के बावजूद गांधी और नेहरु से परिचय बाद में हुआ। परिचय भी ऐसा कि कट्टर आलोचक रहा दोनों का। मेरा पूरा स्कूली जीवन गांधी और नेहरु को गालियां बकने में बीता। इसे मैं मार्क्सवादी होने का फर्ज समझता रहा। कोई अगर गांधी-नेहरु का प्रशंसक मिल जाता तो लानत भेजता उनपर। लेकिन जैसे-जैसे मेरा अध्ययन विस्तृत होता गया, आलोचना की उग्रता कमती रही। नेहरु को पढ़ने के बाद उनका प्रशंसक होने से मैं अपने को नहीं रोक पाया। नेहरु को पहली बार और सीधे तौर पर ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ से जाना। फिर मैंने ‘हिंदुस्तान की कहानी’ पढ़ी। अपनी इतिहास-दृष्टि विकसित करने व नेहरु की इतिहास-दृष्टि को समझने के लिए यह पुस्तक अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। इस किताब को मैंने कई दफा पढ़ा बल्कि कहिए कि बार-बार पढ़ा। मेरी कोशिश होती है कि चार-छह माह के भीतर एक बार अवश्य ही पढ़ लूं। मेरा मानना है कि इस छोटी काया वाली पुस्तक को बी.ए. स्तर तक के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य कर दिया जाये, अगर कुछ भी हम अनिवार्यतया पढ़ाते हों।

पता नहीं मैं इसे नेहरु-प्रेम कहूं या और कुछ कि कई दफा दूसरों के बारे में पढ़ते हुए नेहरु का कद बड़ा होने लगता है। मार्क्सवादी मोहित सेन की आत्मकथा पढ़ते हुए भी ऐसा ही महसूस किया अपने अंदर। ऐसा क्यों के जवाब में कोई उत्तर नहीं आता। गांधी मुझे एक लेखक के रूप में प्रभावित नहीं करते। कभी-कभी तो वे बेहद अतार्किक और बच्चों की-सी बातें करते लगते हैं। कुछ साल पहले जब मेरा बेटा दसवीं में था तो हिंद स्वराज  के बारे में पूछा था। मैंने यही कहा था कि उनकी बहुत सारी बातें बकवास हैं। विचारों की उनके यहां कोई सीधी लाइन नहीं है। वे एक अत्यंत ही व्यावहारिक राजनीतिज्ञ हैं, दार्शनिक अथवा विचारक नहीं। इसलिए उनकी बातों में मुझे कोई तार्किक संगति नहीं दिखती। अपनी पिछली कही बातों का खंडन वे जितनी आसानी से कर जाते हैं कि कभी-कभी कोफ्त होती है। अलबत्ता निजी जीवन में जो उनके आचरण के नियम हैं वे मुझे बेमिसाल लगे हैं। मैं अपने लिए दृष्टि मार्क्स से लेता हूं और जीने का तरीका गांधी से। इन दोनों के मिश्रण में ही शायद भारत का भविष्य बसता है।

पटेल और सुभाष से सीधे कोई प्रभाव मैं नहीं स्वीकारता। अवचेतन में किसी तरह का हो तो उसकी बात अलग है। यही बात भगत सिंह और विवेकानंद के लिए भी कह सकता हूं। हां, स्त्री जाति को समझना मैंने सीमोन द वोउआर से ही सीखा।

मनोविज्ञान का मतलब आपके लिये क्या  है... आप फ्रायड को जानते हैं ए उनके बाद के किसी मनोवैज्ञानिक को आप जानते हैं
मेरे लिए मनोविज्ञान का मतलब है मनुष्य को जानने-समझने का विज्ञान। यह मनुष्य के व्यवहार का विज्ञान है। और मनुष्य का व्यवहार उसके परिवेश पर निर्भर होता है। हमें बहुत सारी चीजें अदृश्य रूप में विरासत में प्राप्त होती हैं। बहुलांश हम अपने सामाजिक जीवन में सृजित करते हैं। इसलिए मेरे लिए एक सच्चा मनोवैज्ञानिक केवल और केवल वही हो सकता है जो समाजशास्त्री भी है। मनोवैज्ञानिकों में फ्रायड को ही थोड़ा-बहुत पढ़ा है।

आपकी प्रिय फिल्में  कौन सी हैं और क्यों
फिल्मों में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं रही है। हॉल जाकर मैंने अबतक चार ही फिल्म देखी है-‘अर्धसत्य’ अपने बड़े भाई (अखिलेश कुमार) के साथ, ‘प्रतिघात’ साले (मृणाल केसरी) के साथ, ‘खलनायक’ मित्र अशोक कुमार के साथ। एक का अभी स्मरण नहीं। सबसे अच्छी फिल्म मैंने दूरदर्शन पर देखी-‘एक दिन अचानक’। इस फिल्म में संवाद कम ही हैं, परिस्थितियों के चित्रण मात्र से जान आ जाती है। कहिए कि संवाद के बीच कहने के बाद जो कुछ अनकहा रह जाता है और उस अनकहे को व्यक्त करने हेतु जो परिस्थिति निर्मित की जाती है-उसी का मैं कायल हूं। अद्भुत कलात्मक। मैं उस फिल्म को बार-बार देखना चाहता हूं।

आप राजनीति को लेकर किस तरह सोचते हैं
किसी (फिलहाल नाम भूल रहा हूं) ने कहा है कि आधुनिक काल के पहले धर्म राजनीति था जबकि आधुनिक काल का धर्म राजनीति है। मनुष्य न केवल एक सामाजिक प्राणी है बल्कि वह एक राजनीतिक प्राणी भी है। मेरी राजनीति मेरा लेखन है।