Monday, November 17, 2008

विचार जड़ता के खिलाफ़ ज़ंग है- 1

मेरे वैचारिक गुरू...


लेखन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का परिणाम है। लेखन की शुरुआत कब और कैसे की, का उत्तर देने के लिए बचपन के उन दिनों की याद को ताजा करना होगा, जब एक लेखक मन का जन्म हो रहा था। मोटे तौर पर मैं तेज विद्यार्थी नहीं था, लेकिन मेरे चाचा इसे कब मानने वाले थे। जब कभी कोई मेहमान पर आते, मेरे हाथ में अंग्रेजी की किताब दे दी जाती और मैं निहायत अंग्रेज की तरह मुंह बना कर पढ़ना शुरू कर देता। हालांकि कॉलेज के दिनों में अंग्रेजी में छपी किताब या पत्रिका का साथ पकड़े जाने पर उन्हीं चाचा की जम कर डांट सुननी पड़ती। कारण शायद यह था कि मेरे सबसे बड़े भाई की अंग्रेजी अच्छी थी, इसलिए लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं की तैयारी न करके "दार्शनिक" बन चुके थे। यह कहते हुए अब कोई डर नहीं है कि चौथी कक्षा के बाद से गणित की पढ़ाई मैंने विधिवत छोड़ दी। लेकिन जब कभी बाबू जी गणित का प्राप्तांक पूछते मैं एक ही सांस में हिंदी, इतिहास, संस्कृत आदि विषयों में सबसे ज्यादा अंक होने की घोषणा कर बैठता। नतीजतन, भंग पीसने वाले डंडे (भंगघोंटनी) की जबर्दस्त मार खानी पड़ती।
आठवीं कक्षा तक आते-आते मैं मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित हो चुका था। परिचित कितना था- नहीं जानता। उन दिनों "जनशक्ति" दैनिक में, जो अन्य अखबारों के साथ मेरे विद्यालय में आता था, मार्क्सवादी पुस्तकों का विज्ञापन छपा होता था। चार पुस्तकों के नाम मैंने नोट किए- कम्युनिस्ट घोषणा पत्र, साम्राज्यवादः पूंजीवाद की चरम अवस्था, कम्युनिस्ट समाज में नैतिकता आदि, और अपने पड़ोसी से मंगा लिए। मेरी लापरवाही से किताबें चाचा के हाथ पड़ गईं और कुछ दिनों के लिए पेटी में बंद हो गईं। थोड़े ही दिनों के प्रयास से मैंने उसे हासिल भी कर लिया और आद्योपांत पढ़ डाला।
अब क्या था। मैं मार्क्सवाद का स्वघोषित प्रवक्ता बन गया। इस निर्माण में हाई स्कूल के हिंदी शिक्षक, जो आज भी मेरे लिए आदर्श हैं, की भी बराबर की भूमिका रही। लेखकीय संस्कार बनने के शायद वे ही क्षण थे। सन 84 से बड़े भाई अखिलेश कुमार के साथ पीजी हॉस्टर में रहने लगा। इतिहास की आलोचनात्मक दृष्टि उन्हीं से हासिल की। आज भी जब एकांत में होता हूं, वे मुझे बड़े भाई से अधिक वैचारिक गुरू के रूप में ही याद आते हैं।
सन 87 से मैंने "जनशक्ति" में लगभग नियिमत लिखना शुरू कर दिया। भाषा बनाने में इसकी बड़ी भूमिका रही। भोले और सहज दीखने वाले इंद्रकांत मिश्र असमय ही छोड़ कर इस संसार से चल बसे। फिर क्या था- गोष्ठियों में अपनी भागीदारी दर्ज कराता और लोगों से बहसें करता। इन्हीं दिनों डॉ नंदकिशोर नवल, डॉ विजय कुमार ठाकुर और रामसुजान अमर से परिचय हुआ जिनके माध्यम से एक नई दुनिया के दर्शन हुए। यहां तक आते-आते विचारधारा की समझ स्पष्ट हो चुकी थी और मैं लेखन में स्पष्ट विचारधारा का हिमायती भी हो चला था। इन्हीं दिनों मैंने एक लेख भी लिखा- साहित्य और उसका चरित्र, जो इसी शीर्षक से एक स्थानीय दैनिक में प्रकाशित भी हुआ।
तब मैं अक्सर सोचा करता था कि वही लेखक बड़ा है जो मार्क्सवादी विचारधारा की वकालत करता हो या कम से कम उसी दृष्टि से चीजों को देखने की कोशिश करता हो। इससे इतना तो अवश्य हुआ कि एमए तक मार्क्सवादी साहित्य से लगभग परिचित हो गया।

...जारी

1 comment:

शेष said...

blog sansar ki samriddhee ki ummid me swagat...