राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता दोनों जुड़वा भाई हैं...
इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में धर्म और राजनीति के अंतर्संबंध को लेकर काफी कुछ लिखा गया है। परंपरावादी चिंतन यह है कि गांधीजी ने धर्म को राजनीति से जोड़ कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक महत्त्वपूर्ण आधार दिया। धर्म का व्यापक इस्तेमाल करने के बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन का चरित्र "सेक्युलर" या धर्मनिरपेक्ष ही रहा। भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण में धर्म की भूमिका को कम करके नहीं देखा जा सकता। लेकिन सवाल है कि इन तथ्यों ने आपस में मिल कर जिस राष्ट्रवाद का निर्माण किया, उसकी वस्तुस्थिति क्या रही।
यों राष्ट्रवाद अपने आप में अत्यंत सुंदर और धर्मनिरपेक्ष मूल्य जैसा लगता है। लेकिन यहां हम साफ तौर पर कहना चाहेंगे कि अपने राष्ट्रवाद को बहुत हद तक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष कहना एक चुनौतीपूर्ण काम है। भारत में राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता दोनों जुड़वा भाई हैं। समान गुण वाले। समानधर्मा। इसलिए भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता पर बात करते वक्त एक बार अपने राष्ट्रवाद को चुनौती देना आवश्यक-सा लगता है। लगता है कि सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद की एक अपरिपक्व धारा है और राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही एक "ब्यूटीफायड" नाम है।
राष्ट्रीय आंदोलन के पूरे इतिहास को अगर देखने की बात हो तो कहना पड़ेगा कि उसका चरित्र "सेक्युलर" कभी नहीं रहा। आजादी की लड़ाई के साथ-साथ बढ़ता हुआ अलगाववाद उसी गांधीयुगीन राजनीति की देन था, जिसमें हिंदू धर्म को आंदोलन की जान माना जाता था। जो लोग धर्म की केवल प्रगतिशील भूमिका देखने के आदी हैं, वे इतिहास में दरअसल, अत्यंत सरलीकृत भाव प्रस्तुत करेंगे। उन्हें उनकी ओर भी ध्यान देना चाहिए जो सीधे तौर पर धर्म के अपने निजी अंतर्विरोध के कुफल थे।
हमारी धर्मनिरपेक्षता की असली कमजोरी है कि इन मूल्यों की तलाश हम सिर्फ हिंदू धर्म तक ही कर पाते हैं। अपनी परंपरा का गुणगान करते हैं, वहीं दूसरे धर्म की अच्छी और प्रगतिशील तत्त्वों की अनदेखी कर देते हैं और बिल्कुल ही सहजतापूर्वक यह मान लेते हैं कि उसके अंदर बहस के सारे रास्ते बंद हो गए हैं या कि वे कठमुल्लावाद के शिकार हैं।
कुछ बुद्धिजीवियों की एक शाश्वत चिंता रही है कि -इस्लाम के अंदर बहस नहीं होती, हमें छेड़नी चाहिए। धर्मनिरपेक्षता की यह नई कौन-सी परिभाषा हो गई कि खुलेपन के नाम पर दूसरे धर्मावलंबियों के छेड़ें? ऐसे बुद्धिजीवियों को मालूम होना चाहिए कि इस्लाम के अंदर भी बहस हुई है। बल्कि कई बार तो
दमदार बहस हुई है। बगैर किसी बहस के इस्लाम के अंदर इतनी सारी दर्शन पद्धतियां क्यों कर विकसित होती? उस दार्शनिक चिंतन को हम बहस नहीं मानते, क्योंकि हमारी बहस के मूल में तो उसे राष्ट्रद्रोही साबित करना है। उन्हीं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों की भाषा में कहें, तो क्या "हिंदू धर्मनिरपेक्षता" और "हिंदू धर्म का जनतंत्र" इस्लाम को छोड़ने की इजाजत उसे देता है?
1 comment:
सही कहा।
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