प्रेम कुमार मणि |
नमक का दारोगा सुप्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद की एक कहानी है, जिससे हिंदी समाज का मामूली पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी परिचित है। जब मैंने साहित्य की दुनिया में आंखें खोलीं,तो यही सुना कि यह एक आदर्शवादी कहानी है, लेकिन अपने पुनर्पाठ में यह कहानी एक भीषण त्रासदी प्रतीत हुई। संक्षेप में, यह कहानी एक ऐसे नौजवान की है जिसकी नियुक्ति आबकारी विभाग में दारोगा के पद पर हुई है। उसका बाप उसे रिश्वतखोर कमाऊ के रूप में देखना चाहता है, लेकिन अपने आदर्शों पर अडिग नौजवान ईमानदारी की मिसाल खड़ा करता है। कालेबाजार की गाड़ियों के मुआयने के क्रम में उसके सरगना अलोपीदीन को वह पकड़ता है और रिश्वत की ऊंची बोली को भी ठुकराकर उसे जेल भिजवा देता है। सरगना अलोपीदीन अपनी पहुंच और ताकत के बल पर दारोगा को बरखास्त करवा देता है और इस तरह नौजवान दारोगा घर बैठ जाता है। यहीं कहानी एक नया मोड़ लेती है। दारोगा एक रोज देखता है कि माफिया सरगना अलोपीदीन उसके घर आया है। वह और उसके बाप डर जाते हैं। दोनों सरगना से उस रोज की बदसलूकी के लिए माफी मांगने लगते हैं। तभी माफिया सरगना दारोगा की प्रशंसा करता है और उसे ऊंचे वेतन पर अपना मैनेजर बनाने का प्रस्ताव करता है। बरखास्त दारोगा, माफिया की मैनेजरी स्वीकार कर लेता है। एक ईमानदार दारोगा बेईमान कालाबाजारी का मैनेजर हो जाता है। अब वह पूरी ईमानदारी से बेईमानी के साम्राज्य की रक्षा करेगा और श्रीवृद्धि भी।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए मुझे नमक का दारोगा का पात्र बहुत उचित जान पड़ता है। मैं उन लोगों में हूं, जिन्हें नीतीश कुमार को नजदीक से देखने का अवसर मिला है। हम मित्र और सहकर्मी रहे हैं।वे उन चंद लोगों में हैं, जिनकी तहे-दिल से मैं इज्जत करता हूं। नीतीश अपनी ही तबीयत के आदमी हैं और यदि वह राजनीति में न होते तो कहीं बड़े इनसान होते। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह विफल राजनेता हैं। लेकिन राजनीति के अपने पेचो-खम होते हैं और उन्हीं सब ने मिल-मिलाकर उन्हें नमक का दारोगा बनाकर रख दिया है। बेईमान व्यवस्था का ईमानदार मैनेजर! अपनी पूरी ईमानदारी से वह बेईमान व्यवस्था के साम्राज्य को पाल-पोस रहे हैं और यह व्यवस्था इतना ईमानदार मैनेजर पाकर गदगद है।
2005 में जब वह मुख्यमंत्री हुए, तब मैंने उनसे कहा था कि बिहार को एक सबाल्टर्न नेहरु की जरूरत है। नीतीश लोहियावादी घराने के समाजवादी हैं और वे नेहरु से नफरत करने वाले लोग हैं। लेकिन उन्होंने मेरी बातों को ध्यान से सुना और गंभीर मुद्रा बनायी। उन्होंने साल भर बहुत अच्छा काम किया। बिहार को विकास की पटरी पर लाने की संभव और ईमानदार कोशिश की।
लेकिन, इसी बीच मैंने देखा कि अलोपीदीन की संतानें इनके इर्द-गिर्द घुमड़ने लगीं और उनकी मायाबी दुनिया में वे खोने लगे। इनमें सबसे ज्यादा वे थे, जिन्होंने पिछले पंद्रह वर्षों से लालू प्रसाद के इर्द-गिर्द अपना घेरा बनाया हुआ था। किसी का नाम लेना बेमतलब होगा, लेकिन पाठक यह तय कर सकते हैं कि लालू प्रसाद के साथ जिस ढंग के लोग थे, उनमें से एक भी नहीं खिसका, खिसके वे चापलूस और बुरे तत्व जिनके कारण लालू प्रसाद बदनाम हुए थे। पिछले सालों में एक-एक कर सब के सब इस डाल पर आ बैठे। हम नीतीश कुमार को नेहरु बनाना चाहते थे, वह बन गये एक ऐसे लालू प्रसाद, जिनके साथ कोई जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, जाबिर हुसैन, अब्दुल बारी सिद्दीकी, शकील अहमद खां या रामचंद्र पूर्वे नहीं था। जिन लोगों ने नीतीश कुमार का दरबार हाल के दिनों में देखा है, वे बता सकते हैं कि वहां कैसे-कैसे लोग जुटते हैं। अलोपीदीन की संतानों ने उन्हें पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया है और वे अपने मिजाज से एक नया नीतीश गढ़ने में लग गये हैं। हमारी जनता को नया बिहार भले नहीं मिला, नया नीतीश जरूर मिल जायेगा।
और इस पड़ाव पर मैं एक बार फिर कह रहा हूं कि नीतीश बेईमान नहीं हो सकते लेकिन मैं उन्हीं से कहना चाहूंगा कि नीतीश जी, ईमानदारी और परिश्रमी जैसे विशेषण निरपेक्ष अर्थ नहीं रखते। महत्वपूर्ण यह है कि आप किसके प्रति ईमानदार और कुशल हैं। एक चोर यदि आलसी है,तो अच्छा है।किसी माफिया का शूटर यदि किसी चंद्रशेखर को मारने में बेईमानी कर देता है, तो अच्छा है। ऐसे ईमानदार शूटर को आप क्या कहेंगे, जो अपने बॉस से कहे कि मैं तीन गोलियों में नहीं,एक गोली में ही किसी गांधी को मार दूंगा।
नीतीश कुमार ने भूमि सुधार या समान स्कूल शिक्षा प्रणाली के लिए अपनी ईमानदारी और परिश्रम का कहां परिचय दिया? सड़कों के लिए उन्होंने खजाना जरूर खोल दिया, इससे जनता को लाभ तो हुआ पर ठेकेदार भी संपन्न हुए। पांच साल पूरे होने को हैं-क्या हुआ उन निवेश प्रस्तावों का, जिनका पिछले वर्षों के रिपोर्ट-कार्डों में बढ़-चढ़कर हवाला दिया गया था। कितने उद्योग लगे इन सालों में! कितना मेगावाट बिजली उत्पादन बढ़ा! कितने गांवों का बिजलीकरण हुआ! बीपीएल सूची में कितनी कमी आयी।
पांच साल कम नहीं होते नीतीश जी! साढे़ चार साल में ही बिहार का एक बहादुर इतिहास का शेरशाह बन गया था। आपसे एक तिहाई कम समय के मुख्यमंत्रित्वकाल में कपूरी ठाकुर जननायक बन गये थे। नीतीश कुमार को पांच साल और चाहिए। किस काम के लिए ? क्या वह बता सकते हैं ? अलोपीदीन की संतानें न उन्हें भूमि सुधार करने देंगी, न समान स्कूल शिक्षा प्रणाली कायम करने देंगीं। मैं इनसे पूछना चाहूंगा-बेईमान व्यवस्था का ईमानदार प्रबंधक बनने के लिए अपनी ऊर्जा क्यों लगाना चाहते हैं ?
स्रोतः प्रभात खबर, 29 जुलाई, 2010
इस प्रार्थना में हम सब शामिल हों -- राजू रंजन प्रसाद की एक असहमत टिप्पणी
प्रेम कुमार मणि ने प्रेमचंद की चर्चित कहानी नमक का दारोगा कहानी का जो ‘पुनर्पाठ’ तैयार किया है, उसकी कई गंभीर सीमाएं हैं। प्रेमचंद की इस कहानी का जो ‘प्वाईंट ऑफ इंफैसिस’ है, मणि जी ने उसे बदल डाला है। कहना होगा कि प्रेमचंद की कहानी का खलनायक (विलेन) अलोपीदीन नहीं हैं, बल्कि पूरी की पूरी समाज व्यवस्था है। अलोपीदीन से पहले महाजनों के कर्ज में डूबे उनके उनके पिता हैं जो नौकरी में जाने से पहले ही भ्रष्टाचार की घुट्टी पिला रहे हैं। परिवार के सारे लोगों की अतृप्त लालसाएं हैं। पत्नी की साड़ी और मां की तीर्थ-योजना है। समाज में कौन है जो अलोपीदीन की इज्जत न करता हो ? जमादार बदलू सिंह की तो बात ही छोड़ दें। इलाके के सारे प्रतिष्ठित लोग अलोपीदीन का मेहमान बनना अपना सौभाग्य मानते क्योंकि अपने इलाके के वे ‘सबसे प्रतिष्ठित जमींदार’ थे। अंग्रेज अफसर तक उनके मेहमान होते। क्या यह महज संयोग था कि अदालत ने अलोपीदीन को ‘बाइज्जत’ बरी कर दिया? ‘पं अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे।’ ‘डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पं. अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो।’
मणि जी को नमक का दारोगा वंशीधर की ईमानदारी पर अटूट विश्वास है। प्रेमचंद का दारोगा ईमानदारी का जो ‘संस्कार’ लेकर नौकरी खोजने निकला है वह मार्के का है। उस संस्कार के जो अनिवार्य उपादान हैं, उसे देखें-‘मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए (जोर मेरा है) रोजगार की खोज में निकले।’ इस तरह के रोमानी विचार वाले दारोगा की ईमानदारी पर कोई भरोसा करके गलत ही साबित तो होगा। सच पूछिए तो कहानी पढ़ते हुए मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिलता (सदास्था के बावजूद) जिसकी बुनियाद पर ‘अटूट विश्वास’ हो सके। बल्कि प्रेमचंद ने तो दारोगा के भ्रष्ट होने-बनने या बना दिये जाने की ही कहानी लिखी है। नौकरी गंवाकर लौटे दारोगा से घर-समाज में कोई बोलने-बतियाने के लिए तैयार नहीं है। क्या दारोगा इसे महसूस करते हुए बदल नहीं रहा? कहानी के प्रारंभ में अलोपीदीन के बारे में दारोगा की जो राय है वह अंत तक काबिज रहती है क्या? क्या वह पूरी की पूरी बदल नहीं गई है? ‘वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा-यों मैं आपका दास हूं। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।’ और आगे-वंशीधर की आंखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और कांपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।’ मणि जी हिन्दी जगत के एक प्रतिष्ठित कथाकार हैं। आश्चर्य है कि एक कथाकार से दारोगा के हृदय में अलोपीदीन के लिए उपजी भक्ति और श्रद्धा अदेखी रह जाती है। दारोगा के ईमानदार बने रहने की मणि जी की यह सदास्था हो सकती है। कामना तो अलोपीदीन की भी यही थी-‘परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी किनारे वाला, बेमुरौवत, उदंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।’ तो आइए, इस ‘प्रार्थना’ में हम सब शामिल हों!
3 comments:
A very beautiful and logical criticism of a grossly misunderstood story of Premachand .
मुक्तिबोध ने कहा था जितना व्यापक आपका अनुभव होगा उतनी ही रचनात्मकता आपके लेखनी में दिखेगी. वाकई राजू रंजनजी आपकी रचनात्मकता और अनुभवशीलता ब्लाग पर देखने को मिल रही है. आगे भी इसी तरह मेल मिलता रहेगा और आपकी रचनाओं से रूबरू होता रहूँगा. आदर सहित.
नमक का दारोगा की विडम्बना है की यह कहानी आज भी उतनी ही सत्य है जितनी प्रेमचंद के समय में थी। दारोगा के पिता के उपदेशों में समाज की वह मानसिकता झलकती है जो भ्रष्टाचार को स्वीकृति देती है। इसकी झलक हमने तब भी देखी थी जब हर्षत मेहता घोटाला हुआ था। हमारी नयी पीढ़ी के आदर्श के रूप में हर्षद मेहता के स्थापित होने की खबरों के हम सब गवाह हैं। आज राजा, आदर्श, कलमाड़ी यदि सामने आ रहे हैं तो यह सब पंडित आलोपीदीन के ही रिश्तेदार नज़र आते है जो धीरे धीरे ऐसे नमक के दरोगाओं की सोच बादल रहे है। और नमक का दारोगा इन आलोपीदीनों के नैतिक स्खलन के पानी से घुलता जा रहा है - अपनी सोच, आदर्श, विचार सब आलोपीडीन की ऊची तंख्वाह के जाल में विलोप हो रहे हैं।
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