Monday, August 9, 2010

स्मृतियों के बगैर

मेरे एक स्वनामधन्य मित्र की टिप्पणी है कि मैं अब बूढ़ा हो चला हूं कि मेरी लगभग सभी रचनाओं में कोई न कोई स्मृति अवश्य रहती है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मित्र ने मेरी निंदा की है या तारीफ। वैसे वृद्ध कहे जाने पर मुझे अतिरिक्त खुशी का अहसास होता है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में उनकी एक गरिमापूर्ण स्थिति है। हमारे यहां वृद्ध का मतलब अनुभवी और ज्ञानी व्यक्ति से है। जब कोई बच्चा अनुभव की बात करता है तो हम सहज ही असहज बात कह उठते है, ‘देखो, वह तो वृद्धों की तरह बातें करने लगा है।’ ज्ञान की बात कह दें कि भारत में जब कोई अंग्रेज नया-नया आता था तो अपनी उम्र वास्तविक से ज्यादा बताता था क्योंकि उन लोगों ने जान-सुन रखा था कि भारत के लोग बुजुर्गों को ही महत्व देते हैं। नौकरी में भी पहले उन्हीं को तरक्की दी जाती है, या महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया जाता है जिनकी उम्र बाकियों से ज्यादा होती है। इसलिए मेरे मित्र, कि बुढ़ापे को ज्ञान और अनुभव से जोड़कर देखा जाता रहा है। जो ज्ञानी न हो वह मर भी जाये तो हमारी संस्कृति उसे बूढ़ा मानने के लिए तैयार नहीं है। मरनासन्न बूढ़ों को भी हमने ‘एडल्ट एड्यूकेशन’ की कक्षा में स्लेट और नाक साथ-साथ पोंछते देखा है। महिलाओं को ‘मूर्खता’ का पर्याय इसलिए भी माना-समझा जाता है कि वे अपनी उम्र वास्तविक से अक्सर कम बताती हैं। कुछ दिनों पहले पहले प्रभात खबर, पटना में एक समाचार छपा था, जिसमें लालू यादव ने अपनी पत्नी की उम्र अपनी उम्र से ज्यादा बतायी थी (हालांकि इसका संदर्भ दूसरा था)। इस समाचार को पढ़कर एक बुजुर्ग (जीवक्ष बाबू) ने टिप्पणी की-‘आज लालू की खैर नहीं है।’ इसलिए मित्र, आप अपनी बात और अपने इरादे पर गौर करें। दोनों में तालमेल तो है न ?

अगर यह अपने को जवान साबित करने की ‘चिरयौवनी शगल’ नहीं है, और उसके निहितार्थ निम्नलिखित है तो बोले बगैर नहीं रहा जा सकता। संभव है कि स्मृतियों के बहाने आप मुझे सिर्फ बूढ़ा ही नहीं कह रहे हों बल्कि एक ही झपट्टे में मेरी जवानी, मेरा बचपन-सब कुछ मेट देना चाहते हों। बहरहाल, मैंने तो यही जाना है कि जब बचपन आपकी स्मृतियों में आ जाये तो समझें कि आप युवा हो चले हैं, और बुढ़ापे में जवानी भी स्मृति का हिस्सा हो जाती है। मुझे अपने दादाजी का बुढ़ापा याद आता है। वे किसी को विश्वास दिलाने के लिए मां या बाप की कसम नहीं, बल्कि अपनी ‘जवानी’ (जो अब नहीं थी) की कसम खाते थे-यानी बात-बात में ‘जवानी कसम’। हालांकि इन स्मृतियों का उनके लिए क्या महत्व जिन्होंने सिर्फ बुढ़ापा ही झेला हो, बचपन और जवानी के किस्से सिर्फ किताबों में पढ़े हों। वैसे भी जीवन को समझने में शास्त्रोपार्जित ज्ञान हमारी बहुत मदद नहीं करते।

मित्र, जब कोई स्मृतियों को छोड़ने की सलाह देता है तो मेरे कान खड़े हो जाते हैं। साजिश की बू आने लगती है। हमारी और हमारे पूर्वजों की स्मृतियों को, जिनमें हममें से अनेक की कहीं न कहीं पहचान छिपी होती है, कुलीन और अभिजात वर्ग कुटिलतापूर्वक नष्ट कर डालने की कोशिश करता है। कुछ वर्ष पहले भारत की भगवाधारी सरकार ने इतिहास के पुनर्लेखन की बात की थी और एन. सी. ई. आर. टी. की पुस्तकों से कुछ चुनिंदा अंशों को निकालना शुरू किया था। इन अंशों को निकालते हुए यह तर्क गढ़ा गया कि इन पुस्तकों में कुछ ऐसी स्मृतियां हैं जिनसे विद्यार्थियों में असहिष्णुता की भावना का संचार होता है। देश की एकता व अखंडता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए इतिहास का पुनर्लेखन कर सहिष्णुता से लैस करने की कोशिश की की गई थी। ‘कुलीनता की हिंसा’ हमेशा ही सहिष्णुता के बाने में होती है। लेकिन स्मृतियों को नष्ट करना आसान नहीं होता। स्मृतियां हमारे पैरों की विवाइयों में होती हैं, मां के सपनों में होती हैं। यह विधवाओं की सूनी मांग में और अनाथ बच्चों की बूझी आंखों में होती हैं। इतिहासकार और सरकार तो क्या बड़ा से बड़ा कवि और नाटककार भी इन स्मृतियों के खास-खास कोने ही झांक पाते हैं। इतिहास, या कहिए कि लोक स्मृति के सामने विवश हो प्रेमचंद ने कहा था, ‘इतिहास की अदावतें मिटती हैं, लेकिन मुश्किल से।’

2 comments:

Udan Tashtari said...

स्मृतियाँ तो नींव होती हैं हमारे वर्तमान की. इसके बिना जीना बेकार है. स्मृतियाँ जीवन की हर अवस्था में साथ चलती हैं, बस, कारवां बड़ा होता जाता है. वही संस्कार भी बनती हैं और वही भूल सुधार का माध्यम भी.


वैसे महिलाओं को ‘मूर्खता’ का पर्याय इसलिए भी माना-समझा जाता है कि वे अपनी उम्र वास्तविक से अक्सर कम बताती हैं।

इस तरह के स्टेटमेन्ट के बाद ब्लॉग पुराणों में हेलमेट पहन कर घूमने का संदर्भ दिया गया है. :)

Dr Om Prakash Pandey said...

I need not agree with all that you say but the last few lines are poetic in style . this makes good prose .