चन्द्रमोहन प्रधान से राजू रंजन प्रसाद की लगभग बीस साल पहले की लिखित बातचीत की पहली किस्त
प्रश्न: समकालीन कहानी के प्रति आलोचना का क्या रुख है ?
च. प्र.: समकालीन कहानी के प्रति आलोचना का रुख आलोचकों की मर्जी पर निर्भर रहता है और वह मर्जी स्वयंस्फूरित न होकर दूसरों के कथन के अनुकरण पर अधिक आधारित है। इनमें सबसे बड़ी तोप हैं डा. नामवर सिंह खुद, अकादमिक आलोचना के दिग्गज। आपकी नजर में कहानी का महत्त्व तभी है जब वह सीधे कविता से निःसृत हो। इस कथन का गूढ़ार्थ जहां कथा-साहित्य को अपूर्व समृद्धि देने की प्रेरणा रखनेवाला सिद्ध हो सकता है, वहीं इसका चलताऊ अर्थ लगाकर यही साबित किया जा सकता है कि अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती को छोड़कर और कोई कथाकार है ही नहीं। हां, मैं भूला-एक निर्मल वर्मा भी हैं। बस। थोड़े-बहुत काशीनाथ सिंह भी माने जा सकते हैं।
जो भी आलोचक हैं, उन में दो-तीन में ही वस्तुगत तटस्थ मूल्यांकन की दृष्टि है। अधिकतर लोग किसी न किसी खेमे में फंसे हुए होकर उसके सिद्धांतों के व्याख्याकार भर हैं और अपने लोगों को फ्लैश करने के पावन कर्त्तव्य का लक्ष्य रखकर चलते हैं। विस्तार का अवकाश न होने से यहां इतना भर कहना पर्याप्त है कि हिन्दी कहानी की आलोचना वाम-दक्षिण पंथों में बंट गई है। आलोचक रचना पढ़ने का कष्ट शायद ही उठाते हों, पढ़ते हैं भी तो अपने मित्रों व ‘अपनों’ की। नाम देखकर लिख देना, उन्हीं दस-पांच कहानियों के घिसे-पिटे नामों का हर आलेख में, गोष्ठी में दुहराना-तिहराना बड़ा उबाऊ लगता है। लगता है, जैसे सभी आलोचकों को अपने पर, अपने मंतव्य पर विश्वास न हो, डर रहे हों। अतः महाजनो येन गतः स पंथाः को पकड़ना सहज नुस्खा रहता है। सुरक्षित, श्रमकारी, लाभदायक।
एक बार श्री चतुरसेन शास्त्री ने भी कटुता सहित कहा था, ‘मैंने बहुत कहानियां लिखी हैं, पर जब भी कोई संकलन में मेरी रचना लेता है, अथवा कोई समीक्षक कुछ लिखता है, यही एक कहानी ‘दुखवा मैं कासे कहूं मोर सजनी’ ही को कोट करता है। वही संग्रहीत होती है जैसे उस के बाद मैं ने कुछ लिखा ही नहीं! वही भेड़ चाल आत्मविश्वासहीन आलोचकों में है। वही दूसरों की देखा-देखी नाम जपने की आदत! पता नहीं, सही आलोचना हिन्दी कहानी को कब मिलेगी!
प्रश्न: क्या आप इस बात से सहमत हैं कि समकालीन कहानी की आलोचना पर कहीं न कहीं से कविता के प्रतिमानों का असर है ?
च.प्र.: है। इसका कारण बहुत कुछ उभर आया है। कविता का संसार मेरे विचार से कहानी के संसार से पर्याप्त भिन्नता रखता है। कथ्य भले ही एक हों पर दोनों भिन्न विधाएं हैं, भिन्न आलोचना-पद्धतियों की मांग करते हैं। किंतु आलोचक समुदाय में संभवतः यह कुंठा घर कर गई है कि कविता की आलोचना अधिक श्रेष्ठ कार्य है, और कहानी की आलोचना भी वे कविता की आलोचना के औजारों से करना चाहते हैं। कथा की ऐसी मरम्मत करना इसके साथ अन्याय है।
प्रश्नः समकालीन आलोचना में सृजनात्मकता के अभाव के क्या कारण हैं?
च.प्र.: मैं तो मूलतः कथाकार हूं, और आलोचना के विषय में कुछ अधिक कहना अनधिकार चेष्टा मानता हूं। खास कर उन मुद्दों के मामलों में, जिन का कथा से सीधा मतलब न हो। तथापि, आलोचना में सृजनात्मकता के अभाव का कारण एक आलोचक मित्र की बातों के आधार पर मैं ने यह लगाया कि आलोचक अपने पेशे को रचनाधर्मी अथवा सृजनधर्मी नहीं मानते। इस का कारण यही हो सकता है। तथापि, मेरे अपने विचारों से आलोचना भी रचनात्मक कार्य है, एक सीमा तक सही।
प्रश्नः समाजवादी दुनिया में आए परिवर्तन एवं विचारधारा के संकट का हमारे साहित्य पर क्या असर हो सकता है?
च.प्र.: समाजवादी संसार के परिवर्तनों का प्रभाव सभी पर नहीं पड़ेगा। जो किसी वाद अथवा शुद्ध राजनीतिक दृष्टि वाला लेखन नहीं करते वे खुद को दिशाभ्रमित या आधारहीन महसूस नहीं करेंगे। लेखक में यदि प्रतिभा है तो वह खुद को दिशा दे लेगा। उस का उत्स कोई राजनीतिक विचारधारा न होकर समाज और मनुष्य होगा।
प्रश्न: कुछ लोगों का मानना है कि आपकी कहानियों में ‘आवेग’ का अभाव है, इसे आप कैसे लेंगे?
च.प्र.: मेरी कहानियों में आवेग का अभाव की बात बहुत पुरानी हो चुकी है। अब भी ऐसा कहनेवालों ने मेरी इधर की रचनाएं नहीं देखी होंगी। मैं कहानी किसी एक ही मनःस्थिति में अथवा किसी एक ही विषयवस्तु या कथ्य और परिवेश से बंध कर लिखा नहीं करता। प्रयोग के रूप में विभिन्न समुदाय-वाद-धर्म-संस्कार-मनःस्थिति, विचारधारा आदि पर लिखा करता हूं। मूल कथावस्तु है मनुष्य, और मनुष्य कहीं भी एक-सा नहीं है।
तथापि, कहानी में सहजता और स्वाभाविकता का मेरा मूल आग्रह है जिसके कारण कहानी प्रायः सहज-मध्यम बनी रहती है। जीवन से हटकर कहानी नहीं हो सकती, ऐसा मैं मानता हूं। मैं खुद अतिवादी नहीं। मेरे पात्र भी आसपास से लिए सहज लोग अधिक हैं।
किंतु रचनाकार युग के साथ चलता है। युग की मांग के अनुरूप मेरी इधर की कहानियों में पूर्व से पर्याप्त भिन्नता है। निवेदन है कि मेरी इधर की कहानियां भी पढ़ी जाएं जैसे ‘आदिम राग’ (कतार), ‘रिश्ते’ (धर्मयुग), ‘प्यास’ (आवर्त), ‘भोंदू’ (धर्मयुग), ‘राष्ट्र का निर्माण चालू है’ (हंस), ‘मल्टीकलर’ (कहानियां), ‘तिलचट्टा’ (कहानियां), ‘दो कौड़ी का आदमी’ (कथाबिम्ब) आदि। ‘आवेग’ के संदर्भ में इधर की ये कुछ कहानियां देखी जा सकती हैं।
बेजरूरत आवेग घुसाना कहानी की कला के साथ बलात्कार है। मैं कहानी को चित्रकला व कविता की भांति ही एक ललित कला मानता हूं। चित्रकार हर जगह शोख रंग ही नहीं पोत देता कि लोगों का ध्यान खिंचे। आधुनिक अति यथार्थवादी कला में भी शोख रंगों के साथ खिलवाड़ कर प्रभाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। कहानी में कला और शिल्प का भी एक स्थान रहना चाहिए। ‘फारमूला’ कहानी में आवेग बहुत मिलेगा, पर अधिकतर नकली, ओढ़ा हुआ। सोड़ावाटरी जोश घातक हो सकता है।
प्रश्न: क्या आप इस बात से सहमत हैं कि कहानी आज लेखन के केन्द्र में नहीं है ?
च.प्र.: मेरे ख्याल से कहानी सदैव लेखन का केन्द्र रही है। पहले का साहित्य जो पद्य आधारित था उसमें भी कविता भिन्न चीज थी और वृत्तात्मक पद्य रचना भिन्न है। महाभारत, रामायण, मानस, मेघदूत में है क्या-मूलतः कथाएं। इनमें काव्य ने सौष्ठव, कला, शैली आदि दी जिनके कारण उन्हें श्रेष्ठ काव्य कहा गया। आज भी कहानी ही वह चीज है जो कई पृष्ठों की होती है पर पाठकों द्वारा वही अधिक पढ़ी जाती है। कहानी के कारण ही पत्रिकाएं बिकती हैं, सिर्फ कविता आधारित होकर नहीं। कवियों में यह स्नॉबरी घर कर गयी है कि वे कविता के रूप में कथा की अपेक्षा श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहे हैं। कविता की वापसी का नारा लगानेवाले कुछ लोग हैं जो इसके अलंबरदार हैं। उन्हीं का उछाला यह शिगूफा है कि कहानी लेखन के केन्द्र में नहीं है। प्रकाशन: लोक
दायरा, अंक-3, मार्च 2002।
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