चंद्रमोहन प्रधान से राजू रंजन प्रसाद की लिखित बातचीत की दूसरी और अंतिम किस्त
प्रश्न: नई कहानी से साठोत्तरी कहानी का मूल विचारधारात्मक विरोध क्या था ?
च. प्र.: यह विरोध वस्तुतः व्यक्ति और समष्टि के स्तर पर मूलतः आधारित रहा। नई कहानी की कथाधारा मूलतः व्यक्तिवादी रही, और यूरोप के उस निराशावादी दर्शन का भी उस पर प्रभाव पड़ा था जा कि द्वितीय महायुद्ध की त्रासदियों से उपजा। जैसे अकहानी को कामू-काफ्का के प्रभाव ने प्रेरित किया, वैसे ही अस्तित्त्ववादी दर्शन ने नई कहानी को। ईश्वरवादी अस्तित्त्ववादी दार्शनिक कीर्केगार्द का भारतीय लेखकों पर बहुत प्रभाव पड़ा था। भारतीय पाठकों के लिए नई कहानी के पात्र प्रायः दिग्भ्रमित, कुंठित, अपने मध्यवर्गीय शहरी परिवेश के त्रास में अधिक चित्रित था। किंतु नई कहानी के रचनाकारों में जो स्वस्थ दृष्टिवाले थे, उन की प्रवृत्ति व्यक्ति में समष्टि खोजने की भी थी। इस दौर में स्त्री-पुरुष के शाश्वत संबंधों का विभिन्न प्रकार से विश्लेषण अधिक हुआ, जिस की प्रतिक्रिया स्वरूप साठोत्तरी कहानी आगे आई। इसका मूल स्वर प्रयोगवादी यथार्थ है, मध्यवर्गीय रुमानी यथार्थवाद इसे नहीं सहता। साठोत्तरी यथार्थ अपने को भूमि से अधिक जुड़ा और शाश्वत चिंतक मानता है।
प्रश्न: आपकी कहानियों पर लोगों ने कुछ कम चर्चा की है। इसकी जड़ में साहित्यिक राजनीति के प्रति आप की उदासीनता तो नहीं है ?
च. प्र.: यह भी कारण है। अपनी अच्छी से अच्छी, समकालीन यथार्थ को चित्रित करने वाली कहानी की भी मैं ने प्रबुद्ध समीक्षकों को नोटिस लेते नहीं देखा। वहीं अपेक्षाकृत अधिक कमजोर, फारमूला कथाओं को चर्चा में आते देखा है।
तथापि, समीक्षकों का अधिक दोष मैं इसमें नहीं मान सकता, क्योंकि मेरी कहानियां किसी एक उद्येश्य अथवा आदर्श से अनुप्रेरित होकर नहीं लिखी गई हैं। उनके वैभिन्य को देख समीक्षक भ्रमित हो जाते हैं। मेरी रचनादृष्टि पर उन्हें संदेह भी होने लगता है। समीक्षा के प्रतिमानों पर वे मुझे आंक नहीं पाते। मेरे प्रति वे विभिन्न भ्रमों में हैं। अतः मुझ से बचना ही सहज लगता होगा, कारण कि समीक्षा आज तटस्थ, निर्गुट भी नहीं है। बंधी लीकों पर लिखने वाले लोगों का मूल्यांकन अधिक सहज लगता है।
मैं यह मान कर ही चलता हूं कि रचना अच्छी है तो समय उसका मूल्यांकन करेगा। जब ये गुटीय विवाद न होंगे, रचना रहेगी। पाठक याद रखेगा। आज भी मुझे अपने पाठकों से ही बल मिलता है, प्रेरणा मिलती है। सामयिक चर्चा का साहित्य में दूरगामी महत्व नहीं है। मेरे लिए यह बड़े संतोष की बात है कि पाठक मेरी रचनाओं को पढ़ना चाहते हैं। समीक्षकों का इधर ध्यान नहीं है तो इस में मेरा दोष तो नहीं। स्वभाव से ही रचनाधर्मी होने के नाते मुझे सृजन का अपना सुख है।
प्रश्न: समकालीन कहानी का सच क्या है ?
च. प्र.: समकालीन कहानी का सच अभी उद्घाटित होना बाकी है। इस समय तो इस की ऐसी स्थिति है मानों एक रथ पर सवार कई लोग घोड़ों को कई दिशाओं में हांक ले जाना चाहते हों। समकालीनता एक छली शब्द है। सापेक्षिक भी। वर्तमान सदैव मनुष्य के आगे उपस्थित रहा करता है। और मनुष्य जो भी कहता-करता है वह लगातार पीछे चलता जाता है। नई अवधारणाएं आती रहती हैं। इस सापेक्षिक दर्शन को यदि न भी मानें, तो कुछ विचारक समकालीनता को दस वर्ष की अवधि के अंतर्गत रखा करते हैं। पर यह निर्विवाद नहीं। अपने जीवनकाल में लेखक किसी रचना में आधुनिक रहा तो इसे समकालीन मान लेते हैं। बहरहाल, वर्तमान कथा का उत्स यदि समकालीनता है तो यहां प्रश्न उस के निर्वाह का है। यही पर लेखकीय प्रतिभा की अपेक्षा होती है। जैसे हम संजीव की कहानी ‘अपराध’, अखिलेश की ‘चिट्ठी’ रखें, तो विष्णु प्रभाकर की ‘धरती अब भी घूम रही है’ को भी उतना ही समकालीन मानना चाहिए। यह भी है कि ओढ़ी हुई छद्म आधुनिकता और क्रांतिकारिता अधिक दूर नहीं चल सकती। सृंजय, स्वयंप्रकाश, चन्द्रकिशोर जायसवाल, प्रेमकुमार मणि, नारायण सिंह, रतन वर्मा, राजेन्द्र सिन्हा, शैवाल आदि वर्तमान कथाकार समकालीनता का मेरे विचार से अच्छा निर्वाह कर रहे हैं।
प्रश्न: इधर हाल के कहानीकारों में आप को अच्छी संभावनाएं दिखती हैं ?
च. प्र.: इधर के सर्वथा नये लोगों की अधिक रचनाएं मैंने नहीं पढ़ीं। जो पढ़ी भी होंगी, याद नहीं आ रही हैं। अतः इस विषय पर कुछ कहना मैं उचित नहीं मानता। तथापि, एक सही किस्म का आभास मुझे है कि नये लोग उत्साही तथा बहुत ईमानदार भी हैं। कथालेखकों की कभी कमी तो नहीं पड़ेगी ऐसा मुझे विश्वास है।
प्रकाशन: लोक दायरा, अंक-3, मार्च 2002।
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