गंगा पवित्रता का पर्याय समझी जाती रही है। गंगा को पवित्र मानकर पूजा करने अथवा उसमें स्नान करने की प्रथा की कब शुरुआत हुई, इसका ठीक-ठीक विवरण देना एक मुश्किल काम है। ऋग्वेद में गंगा की सिर्फ एक बार चर्चा है। ऋग्वेद की ‘गंगा’ सरस्वती है। फिर भी हम यह मान सकते हैं कि लगभग उत्तर वैदिक काल में गंगा महत्त्वपूर्ण हो चली थी। पवित्रता की यह पूर्वपीठिका थी। निश्चित रूप से गंगा में स्नान करने की प्रथा को एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में मान्यता इसके बाद ही प्राप्त हुई होगी।
गंगा जीवन का पर्याय है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिखा है कि ‘अकाल के दिनों में लोगों को गंगा की पूजा करनी चाहिए।’ महाभारत में गंगा-जल की महिमा का वर्णन इस तरह किया गया है-‘सभी पवित्र जलों में गंगा जल सबसे पवित्र है, देवताओं के लिए जैसे अमृत है मनुष्यों के लिए गंगा-जल का वही महत्त्व है।’ इतिहासकार डेरियन ने ‘गंगा-मिथक और इतिहास’ में लिखा है कि नील नदी को छोड़कर विश्व में और कोई नदी नहीं है जो गंगा जैसी महत्त्वपूर्ण स्थिति को प्राप्त कर सकी हो। इसकी ख्याति न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी फैल चुकी थी। सिकंदर महान गंगा को ही पृथ्वी का अंत मानता था। गंगा ही के आकर्षण ने उसे हिन्दुस्तान की धरती तक खींचकर लाया।
हमारी संस्कृति में गंगा का इतना महत्त्व है कि इसने भारतीय कला के विविध रूपों को भी प्रभावित किया, क्या साहित्य और क्या मूर्तिशिल्प-सब इससे प्रभावित हुए हैं। बंगाल में ढेर सारी कविताएं गंगा को आधार बनाकर लिखी गई हैं। वहां के जीवन में गंगा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। जीवन से लेकर मृत्यु तक हर पल गंगा उनके काम आती है। बंगाल में बच्चों का जब उपनयन संस्कार किया जाता है तो उसे तीन दिनों तक अपने घर से बाहर नहीं निकलना होता है तथा रोटी एवं गंगा-जल के सहारे ही जीना पड़ता है। आधुनिक काल में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के पर लोग गंगा के किनारे पहुंचकर बाल-दाढ़ी बनवाते हैं, स्नानादि एवं अन्य कर्म करते हैं। ऐसा करना मृतक की मोक्ष-सिद्धि हेतु अत्यावश्यक माना जाता है।
गंगा का ‘मिथक’ एवं ‘इतिहास’ दोनों में बराबर का हिस्सा है। जिन दिनों हिन्दुस्तान की धरती पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही थीं, गंगा ‘मिथक से इतिहास’ और ‘इतिहास से मिथक ' का रूपांतरण झेल रही थी। आंदोलनकारी आंदोलन शुरू करने से पहले गंगा में स्नान करते थे, उससे एक तरह का नैतिक बल एवं आत्मविश्वास अर्जित करते थे।
भारतीय दर्शन-प्रणाली में आस्था एवं भक्ति का एक सबल पक्ष रहा है। हमारी आस्था धर्मग्रंथों में वर्णित ‘पुराण कथाओं’ एवं मिथकों के आधार पर निर्मित होती रही है। यहां सिर्फ हिन्दू धर्मग्रंथों ही की बात नहीं है बल्कि बौद्ध अथवा जैन साहित्य का भी अगर अध्ययन करें तो पायेंगे कि गंगा के प्रति एक अजीब आस्था है लोगों के मन में। हिन्दू धर्म में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की अवधारणा है। हमारा धर्म इन्हीं की बदौलत शासित होता है। मोक्ष की कामना और उसकी प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य का धर्म है, अगर उसकी अप्राप्ति हाथ लगी तो मनुष्य तन में जन्म लेना सर्वथा बेकार गया। गंगा-जल में स्नान करना एवं दान-दक्षिणा देना दुनिया के मायाजाल से ऊपर उठने अथवा कहें कि मोक्ष-प्राप्ति का एक उत्तम साधन है।
इस संसार में जन्म लेकर मनुष्यों को भगवत-स्मरण और स्नान-दानादिक करना, यही मुख्य धर्म है क्योंकि बड़े-बड़े पर्वों में स्नान-पूजा-व्रत दानादिक करने से पाप नष्ट होते हैं और मुक्ति मिलती है। पर्व और व्रत इत्यादि तो अनेक हैं और नित्य ही स्नानादिक का बड़ा फल है परंतु मार्गशीर्ष, कार्तिक, माघ, वैशाख, सब महीनों में उत्तम गिने जाते हैं। इसमें भी कार्तिक स्नान का विशेष महत्त्व है। हिन्दी पुनर्जागरण के कवि भारतेंदु ने इसकी महत्ता का बखान कुछ इस तरह किया है-
‘माधव कातिक माघ की पूनो परम सुनीत।
ता दिन गंगा न्हाइयै करि केशव सों प्रीति।।’
आश्विन शुक्ल एकादशी से आरंभ करके जो कार्तिक में जितेन्द्रिय होकर व्रतादिक कर गंगा में प्रातःस्नान करता है वह मुक्तिभागी होता है और उसको यमराज का भय नहीं होता। दूसरी ओर जो लोग कार्तिक में स्नान व्रतादिक नहीं करते वे मंदबुद्धि हैं, उन्हें किसी पुण्य का फल नहीं मिलता। कार्तिक में गंगा-स्नान के समान न कोई धर्म है, न अर्थ है, न काम है, न मोक्ष है, न दान है। इसीलिए जो लोग दूर से चलकर गंगा-स्नान करने आते हैं उनको कदम-कदम पर ‘अश्वमेध’ एवं ‘वाजपेय’ (वैदिक यज्ञ) का फल मिलता है।
गंगा की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए स्कंद-पुराण में लिखा है कि इसमें तेरह प्रकार के कर्म नहीं करने चाहिए। शौच, कुल्ला, जूठा फेंकना, मल-मूत्र त्याग करना, तेल लगाना, निन्दा, प्रतिग्रह, रति, दूसरे तीर्थ की इच्छा तथा दूसरे तीर्थ की प्रशंसा, वस्त्र धोना, उपद्रव आदि सारे कर्म नहीं करना है। अगहन मास की पूर्णिमा के समान दूसरा कोई पर्व नहीं है। यह बात स्कंद-पुराण के ‘मार्गशीर्ष माहात्म्य ' में लिखी है। अगहन की पूर्णमासी को जो स्नानादि नहीं करते वे साठ हजार बरस तक रौरव वास करते हैं। गहड़वाल नरेश गोविन्द चन्द्र देव के कमौली ताम्र-पत्र में ‘श्रीमद् वाराणस्यां गंगायां स्नात्वा’ वाक्य मिलता है। तात्पर्य यह है कि दान करने से पूर्व गंगा नदी में स्नान करना आवश्यक था। निम्नलिखित उद्धरण इसे और भी स्पष्ट करते हैं-
‘विधिवत् स्नात्वा देव मनुज मुनि भूत पितृ
गणास्तपंयित्वा; वासुदेवस्य पूजां विधाय
कुशलता पूत करतलोदक पूर्वम’ (इंडियन एंटीक्वेरी 15, पृष्ठ 8)
और भी-
‘पुण्य तीर्थोदकेन विधिवत् स्नात्वा देव मनुज
पितृन् संतर्प्य भास्कर पूजा पुर सर-
भवानी पतिमभ्यर्च हुतभुज हुत्वा राहुग्रस्ते
दिवाकरे नाना गोत्रेभ्योः नाना प्रवरेभ्यो नाना
नामेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः कुशलता पूतेन
हस्तोदकेन स्वस्ति वाचन पूर्वम संकल्पित
भूमः सम्बन्धे शासनी कृता प्रदताः ’ (वही, भाग 4, पृष्ठ 158)
भारत में गंगा नदी की भी देवकोटि में गणना कर ली गयी है। विद्यापति ने गंगा को पवित्र, सुन्दर एवं मनोरम माना है। उन्होंने गंगा की स्तुति में कुछ पदों की रचना की है। अकबरी दरबार के प्रमुख कवि गंग ने गंगा की स्तुति की है। रहीम का गंगा- भक्ति संबंधी निम्नलिखित दोहा बहुत ही प्रसिद्ध है-
‘अच्युत चरण तरंगिनी, शिव सिर मालति माल।
हरि न बनायो सूरसरि, कीजौं इन्दव भाल।। '
गोस्वामी तुलसीदास ने मानस के बन्दना प्रकरण में सरस्वती के साथ ही सुरसरिता की भी बन्दना की है-
‘पुनि बन्दौ शारद सुरसरिता, युगल पुनीत मनोहर चरिता।
मज्जन पान पाप हर एका, कहत सुनत हर एक अविवेका।। '
रीति काव्य के प्रमुख कवि पद्माकर ने ‘गंगालहरी ' नामक एक स्वतंत्र काव्य की रचना की थी। इसमें 56 कवित्तों में गंगा की महिमा का गान किया गया है। इसमें ब्रजभाषा के लालित्य और अलंकार सौष्ठव का सुंदर सामंजस्य मिलता है। पद्माकर के बाद कुशल मिश्र, अखैराम, रसिक सुन्दर, लेखराज आदि अनेक कवियों ने गंगा की महिमा का गान किया है, किंतु आधुनिक काल के दो प्रमुख कवियों-भारतेंदु हरिश्चन्द्र और जगन्नाथदास रत्नाकर ने देव नदी के विविध रूपों का जिस रोचक शैली में वर्णन किया है वह निश्चय ही श्लाघ्य है। भारतेंदु ने दास्य भाव से गंगा का स्मरण किया है। उन्होंने सत्य हरिश्चन्द्र नाटक में काशी की गंगा का यथार्थपरक वर्णन किया है।
पद्माकर और भारतेंदु की ही परंपरा में रत्नाकर ने ‘गंगावतरण’ और ‘गंगा लहरी’ नामक काव्यों की रचना की। ‘गंगावतरण’ का कथानक वाल्मीकि रामायण पर आधारित है। ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर गंगा के उद्भव का रोला छन्द में बहुत सरस वर्णन मिलता है। ‘गंगा लहरी’ एक मुक्तक काव्य है जिसमें गंगा की महिमा का उल्लेख किया गया है।
दूसरी ओर कबीर हैं-
‘चली कुलबोरनी गंगा न्हाय।
सतुवा कराइन बहुरी भुंजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।
गठरी बांधिन मोटरी बांधिन, खसम के मूंडे दिहिन धराय।
विछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।
गंगा न्हाइन जमुना न्हाइन, नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।
पांच पच्चीस के धक्का खाइन, घरहूं की पूंजी आइ गंवाय।’
कबीर की रुक्षता भिखारी ठाकुर के यहां मिठास बनकर आती है। गंगा-स्नान का एक दृश्य यहां भी-
‘चलऽ गोरिया करे गंगा असननवाँ।।
सारी चोली पेन्हऽ करऽ सब अभरनबाँ,
तेही पर सोभी सोना चाँदी के गहनवाँ।।
गते गते बोलऽ ना तऽ सुनी मरदनवाँ।।
खाये खातिर बान्धऽ नून सतुआ पिसनवाँ।
बने त बनालऽ तू झटपट पकवनवाँ,
मिठरस चाहीं कछू राह के भोजनवाँ।
सुरसरि जल भरि हरि दरसनवाँ,
करिके भिखारी कहे घुरे के मकनवाँ।। '
समकालीन कविता के एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर ज्ञानेन्द्र पति ने तो अपने संग्रह का नाम ही रखा है- गंगा - तट ।
गंगा सचमुच हिन्दुस्तानी तहजीब का हिस्सा बन चुकी है। इसीलिए नेहरु की ‘अंतिम अभिलाषा ' थी कि उनके अस्थि-भस्म को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाये ताकि वे संपूर्ण भारत का हिस्सा बन सकें। गंगा ने भारत की धरती पर हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच कोई भेद नहीं किया है। गंगा सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल है। गंगा हिंदुस्तान में हिंदुस्तानी तहजीब की खास हिस्सा है जिसको निर्मित करने में सारे धर्मों के लोगों का साझा सहयोग है। ऐसे वक्त में राही मासूम रजा की ‘गंगा और महादेव ' कविता की याद आ रही है जिसमें उन्होंने लिखा है-
‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मंुह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-
महादेव !
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह ज़लील तुर्कों के बदन में गढ़ा गया
लहू बनकर दौड़ रही है। '
गंगा जीवन का पर्याय है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिखा है कि ‘अकाल के दिनों में लोगों को गंगा की पूजा करनी चाहिए।’ महाभारत में गंगा-जल की महिमा का वर्णन इस तरह किया गया है-‘सभी पवित्र जलों में गंगा जल सबसे पवित्र है, देवताओं के लिए जैसे अमृत है मनुष्यों के लिए गंगा-जल का वही महत्त्व है।’ इतिहासकार डेरियन ने ‘गंगा-मिथक और इतिहास’ में लिखा है कि नील नदी को छोड़कर विश्व में और कोई नदी नहीं है जो गंगा जैसी महत्त्वपूर्ण स्थिति को प्राप्त कर सकी हो। इसकी ख्याति न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी फैल चुकी थी। सिकंदर महान गंगा को ही पृथ्वी का अंत मानता था। गंगा ही के आकर्षण ने उसे हिन्दुस्तान की धरती तक खींचकर लाया।
हमारी संस्कृति में गंगा का इतना महत्त्व है कि इसने भारतीय कला के विविध रूपों को भी प्रभावित किया, क्या साहित्य और क्या मूर्तिशिल्प-सब इससे प्रभावित हुए हैं। बंगाल में ढेर सारी कविताएं गंगा को आधार बनाकर लिखी गई हैं। वहां के जीवन में गंगा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। जीवन से लेकर मृत्यु तक हर पल गंगा उनके काम आती है। बंगाल में बच्चों का जब उपनयन संस्कार किया जाता है तो उसे तीन दिनों तक अपने घर से बाहर नहीं निकलना होता है तथा रोटी एवं गंगा-जल के सहारे ही जीना पड़ता है। आधुनिक काल में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के पर लोग गंगा के किनारे पहुंचकर बाल-दाढ़ी बनवाते हैं, स्नानादि एवं अन्य कर्म करते हैं। ऐसा करना मृतक की मोक्ष-सिद्धि हेतु अत्यावश्यक माना जाता है।
गंगा का ‘मिथक’ एवं ‘इतिहास’ दोनों में बराबर का हिस्सा है। जिन दिनों हिन्दुस्तान की धरती पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही थीं, गंगा ‘मिथक से इतिहास’ और ‘इतिहास से मिथक ' का रूपांतरण झेल रही थी। आंदोलनकारी आंदोलन शुरू करने से पहले गंगा में स्नान करते थे, उससे एक तरह का नैतिक बल एवं आत्मविश्वास अर्जित करते थे।
भारतीय दर्शन-प्रणाली में आस्था एवं भक्ति का एक सबल पक्ष रहा है। हमारी आस्था धर्मग्रंथों में वर्णित ‘पुराण कथाओं’ एवं मिथकों के आधार पर निर्मित होती रही है। यहां सिर्फ हिन्दू धर्मग्रंथों ही की बात नहीं है बल्कि बौद्ध अथवा जैन साहित्य का भी अगर अध्ययन करें तो पायेंगे कि गंगा के प्रति एक अजीब आस्था है लोगों के मन में। हिन्दू धर्म में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की अवधारणा है। हमारा धर्म इन्हीं की बदौलत शासित होता है। मोक्ष की कामना और उसकी प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य का धर्म है, अगर उसकी अप्राप्ति हाथ लगी तो मनुष्य तन में जन्म लेना सर्वथा बेकार गया। गंगा-जल में स्नान करना एवं दान-दक्षिणा देना दुनिया के मायाजाल से ऊपर उठने अथवा कहें कि मोक्ष-प्राप्ति का एक उत्तम साधन है।
इस संसार में जन्म लेकर मनुष्यों को भगवत-स्मरण और स्नान-दानादिक करना, यही मुख्य धर्म है क्योंकि बड़े-बड़े पर्वों में स्नान-पूजा-व्रत दानादिक करने से पाप नष्ट होते हैं और मुक्ति मिलती है। पर्व और व्रत इत्यादि तो अनेक हैं और नित्य ही स्नानादिक का बड़ा फल है परंतु मार्गशीर्ष, कार्तिक, माघ, वैशाख, सब महीनों में उत्तम गिने जाते हैं। इसमें भी कार्तिक स्नान का विशेष महत्त्व है। हिन्दी पुनर्जागरण के कवि भारतेंदु ने इसकी महत्ता का बखान कुछ इस तरह किया है-
‘माधव कातिक माघ की पूनो परम सुनीत।
ता दिन गंगा न्हाइयै करि केशव सों प्रीति।।’
आश्विन शुक्ल एकादशी से आरंभ करके जो कार्तिक में जितेन्द्रिय होकर व्रतादिक कर गंगा में प्रातःस्नान करता है वह मुक्तिभागी होता है और उसको यमराज का भय नहीं होता। दूसरी ओर जो लोग कार्तिक में स्नान व्रतादिक नहीं करते वे मंदबुद्धि हैं, उन्हें किसी पुण्य का फल नहीं मिलता। कार्तिक में गंगा-स्नान के समान न कोई धर्म है, न अर्थ है, न काम है, न मोक्ष है, न दान है। इसीलिए जो लोग दूर से चलकर गंगा-स्नान करने आते हैं उनको कदम-कदम पर ‘अश्वमेध’ एवं ‘वाजपेय’ (वैदिक यज्ञ) का फल मिलता है।
गंगा की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए स्कंद-पुराण में लिखा है कि इसमें तेरह प्रकार के कर्म नहीं करने चाहिए। शौच, कुल्ला, जूठा फेंकना, मल-मूत्र त्याग करना, तेल लगाना, निन्दा, प्रतिग्रह, रति, दूसरे तीर्थ की इच्छा तथा दूसरे तीर्थ की प्रशंसा, वस्त्र धोना, उपद्रव आदि सारे कर्म नहीं करना है। अगहन मास की पूर्णिमा के समान दूसरा कोई पर्व नहीं है। यह बात स्कंद-पुराण के ‘मार्गशीर्ष माहात्म्य ' में लिखी है। अगहन की पूर्णमासी को जो स्नानादि नहीं करते वे साठ हजार बरस तक रौरव वास करते हैं। गहड़वाल नरेश गोविन्द चन्द्र देव के कमौली ताम्र-पत्र में ‘श्रीमद् वाराणस्यां गंगायां स्नात्वा’ वाक्य मिलता है। तात्पर्य यह है कि दान करने से पूर्व गंगा नदी में स्नान करना आवश्यक था। निम्नलिखित उद्धरण इसे और भी स्पष्ट करते हैं-
‘विधिवत् स्नात्वा देव मनुज मुनि भूत पितृ
गणास्तपंयित्वा; वासुदेवस्य पूजां विधाय
कुशलता पूत करतलोदक पूर्वम’ (इंडियन एंटीक्वेरी 15, पृष्ठ 8)
और भी-
‘पुण्य तीर्थोदकेन विधिवत् स्नात्वा देव मनुज
पितृन् संतर्प्य भास्कर पूजा पुर सर-
भवानी पतिमभ्यर्च हुतभुज हुत्वा राहुग्रस्ते
दिवाकरे नाना गोत्रेभ्योः नाना प्रवरेभ्यो नाना
नामेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः कुशलता पूतेन
हस्तोदकेन स्वस्ति वाचन पूर्वम संकल्पित
भूमः सम्बन्धे शासनी कृता प्रदताः ’ (वही, भाग 4, पृष्ठ 158)
भारत में गंगा नदी की भी देवकोटि में गणना कर ली गयी है। विद्यापति ने गंगा को पवित्र, सुन्दर एवं मनोरम माना है। उन्होंने गंगा की स्तुति में कुछ पदों की रचना की है। अकबरी दरबार के प्रमुख कवि गंग ने गंगा की स्तुति की है। रहीम का गंगा- भक्ति संबंधी निम्नलिखित दोहा बहुत ही प्रसिद्ध है-
‘अच्युत चरण तरंगिनी, शिव सिर मालति माल।
हरि न बनायो सूरसरि, कीजौं इन्दव भाल।। '
गोस्वामी तुलसीदास ने मानस के बन्दना प्रकरण में सरस्वती के साथ ही सुरसरिता की भी बन्दना की है-
‘पुनि बन्दौ शारद सुरसरिता, युगल पुनीत मनोहर चरिता।
मज्जन पान पाप हर एका, कहत सुनत हर एक अविवेका।। '
रीति काव्य के प्रमुख कवि पद्माकर ने ‘गंगालहरी ' नामक एक स्वतंत्र काव्य की रचना की थी। इसमें 56 कवित्तों में गंगा की महिमा का गान किया गया है। इसमें ब्रजभाषा के लालित्य और अलंकार सौष्ठव का सुंदर सामंजस्य मिलता है। पद्माकर के बाद कुशल मिश्र, अखैराम, रसिक सुन्दर, लेखराज आदि अनेक कवियों ने गंगा की महिमा का गान किया है, किंतु आधुनिक काल के दो प्रमुख कवियों-भारतेंदु हरिश्चन्द्र और जगन्नाथदास रत्नाकर ने देव नदी के विविध रूपों का जिस रोचक शैली में वर्णन किया है वह निश्चय ही श्लाघ्य है। भारतेंदु ने दास्य भाव से गंगा का स्मरण किया है। उन्होंने सत्य हरिश्चन्द्र नाटक में काशी की गंगा का यथार्थपरक वर्णन किया है।
पद्माकर और भारतेंदु की ही परंपरा में रत्नाकर ने ‘गंगावतरण’ और ‘गंगा लहरी’ नामक काव्यों की रचना की। ‘गंगावतरण’ का कथानक वाल्मीकि रामायण पर आधारित है। ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर गंगा के उद्भव का रोला छन्द में बहुत सरस वर्णन मिलता है। ‘गंगा लहरी’ एक मुक्तक काव्य है जिसमें गंगा की महिमा का उल्लेख किया गया है।
दूसरी ओर कबीर हैं-
‘चली कुलबोरनी गंगा न्हाय।
सतुवा कराइन बहुरी भुंजाइन, घूंघट ओटे भसकत जाय।
गठरी बांधिन मोटरी बांधिन, खसम के मूंडे दिहिन धराय।
विछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन धाय।
गंगा न्हाइन जमुना न्हाइन, नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय।
पांच पच्चीस के धक्का खाइन, घरहूं की पूंजी आइ गंवाय।’
कबीर की रुक्षता भिखारी ठाकुर के यहां मिठास बनकर आती है। गंगा-स्नान का एक दृश्य यहां भी-
‘चलऽ गोरिया करे गंगा असननवाँ।।
सारी चोली पेन्हऽ करऽ सब अभरनबाँ,
तेही पर सोभी सोना चाँदी के गहनवाँ।।
गते गते बोलऽ ना तऽ सुनी मरदनवाँ।।
खाये खातिर बान्धऽ नून सतुआ पिसनवाँ।
बने त बनालऽ तू झटपट पकवनवाँ,
मिठरस चाहीं कछू राह के भोजनवाँ।
सुरसरि जल भरि हरि दरसनवाँ,
करिके भिखारी कहे घुरे के मकनवाँ।। '
समकालीन कविता के एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर ज्ञानेन्द्र पति ने तो अपने संग्रह का नाम ही रखा है- गंगा - तट ।
गंगा सचमुच हिन्दुस्तानी तहजीब का हिस्सा बन चुकी है। इसीलिए नेहरु की ‘अंतिम अभिलाषा ' थी कि उनके अस्थि-भस्म को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाये ताकि वे संपूर्ण भारत का हिस्सा बन सकें। गंगा ने भारत की धरती पर हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच कोई भेद नहीं किया है। गंगा सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल है। गंगा हिंदुस्तान में हिंदुस्तानी तहजीब की खास हिस्सा है जिसको निर्मित करने में सारे धर्मों के लोगों का साझा सहयोग है। ऐसे वक्त में राही मासूम रजा की ‘गंगा और महादेव ' कविता की याद आ रही है जिसमें उन्होंने लिखा है-
‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मंुह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-
महादेव !
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह ज़लील तुर्कों के बदन में गढ़ा गया
लहू बनकर दौड़ रही है। '
5 comments:
राजू जी बहुत ही बेहतरीन पोस्ट बन पडी है ..सहेज कर रखने वाली ..बहुत ही खोजपूर्ण और ज्ञानवर्धक पोस्ट ...
गंगा महात्म पर बहुत सुन्दर विश्लेषण लगा आपका.
बहुत सी रोचक जानकारियाँ भी मिली. आभार राजू भाई.
राजू जी, आपकी पोस्ट पढ़ कर चर्चा का मन बनता है, खैर. गंगा पर बीएचयू का एक बढि़या प्रकाशन याद आता है. गोविंदचंद गहड़वाल के अधोध्या शिलालेख को बांचने-जांचने की कोशिश कर रहा हूं. राही मासूम रजा की पुस्तक 'तीन माओं' जिसमें एक गंगा (एक खुद की मां, एक अलीगढ़ विश्वद्यिालय के साथ) है, को समर्पित याद आ रही है. कुबेरनाथ राय की 'गं गं गच्छति गंगा' और भी ढेरों ढेर बातें. मुझे अपनी रुचि के अनुकूल ऐसा पोस्ट कम ही पढ़ने को मिलता है.
How do you travel from the Rigveda to Rahi in just one article ? Yet it is both interesting and informative.
बहुत ही अच्छा आलेख है।
Ganga Ke Kareeb
http://sunitakhatri.blogspot.com
Post a Comment