मैं पिछले कई सालों से एक सवाल से अपने को बेहद घिरा महसूस कर रहा हूँ। सवाल वेदों की भाषा से सम्बंधित है। कहना होगा कि इस दौरान मैंने कुछ देशी–विदेशी विद्वानों को भी पढ़ा। मेरी सूची में ए. बी. कीथ, मैक्स मूलर, मौरिस विन्तर्निज और रामविलास शर्मा प्रमुख रूप से शामिल रहे हैं. इनलोगों ने मेरी मदद नहीं की बल्कि समस्या को और जटिल ही बनाया. बल्कि मैं यह कह सकता हूँ कि इन विद्वानों के अध्ययन से अपने सवाल को लेकर मेरा जो एक विश्वास था वह कमजोर ही हुआ है. सब ने एक मत से वेदों की भाषा का बखान किया है-कभी-कभी तो वे मुग्ध भी लगते हैं.
दूसरी तरफ मैं पता हूँ कि वैदिक समाज की भाषा एक वैसे दौर में है जहां अनेक चीजों के लिए एक शब्द प्रयोग में लाया जा रहा है। उदहारण के तौर पर ‘मृग’ शब्द को लिया जा सकता है जिसका मूल अर्थ पशु था जो मलयालम में आज भी सुरक्षित है, लेकिन सामान्य अर्थ से विशेष अर्थ की ओर भाषा की प्रगति के कारण इसका अर्थ एक विशेष पशु हो गया। वास्तव में मृग का मूल अर्थ था–जिसे ढूंढा जाये (मृग्यते इति मृगः). मृगया में शिकार सम्बन्धी अर्थ और मृगेन्द्र, मृगराज (पशुओं का राजा सिंह), शाखामृग (बन्दर),मृगहस्तिन (हाथी) में पशुमात्र का अर्थ अब भी सुरक्षित है. मुझे यह देखकर लगभग आश्चर्य होता है कि संस्कृति के पुरोधा, अर्थात स्वयं मनुष्य के लिए भी कभी–कभी मृग शब्द से ही काम चलाया जा रहा है. ‘गो’ शब्द का भी कुछ ऐसा ही हाल मिलता है. मैंने इस शब्द की गिनती तो कभी की नहीं लेकिन बीस से भी ज्यादा चीजों के लिए प्रयुक्त होते स्पष्ट तौर से देखा है.
इस तरह के जो साक्ष्य हमें प्राप्त हैं वे बताते हैं कि आरंभिक संस्कृत की शब्द-सम्पदा निर्माण के क्रम में है. उनके समक्ष विवशता है कि एक शब्द का व्यवहार अनेक भौतिक वस्तुओं के लिए करें. बावजूद इसके विद्वान वेदों की भाषा पर मुग्ध हैं. मेरा सवाल यही है कि ये दोनों ही स्थितियां एक साथ संभव हैं क्या ? या कि कोई तीसरी ही स्थिति है ?
1 comment:
यह तो बहुत अच्छी जानकारी मिली...
पाखी की दुनिया में भी आपका स्वागत है.
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