Tuesday, January 11, 2011

विवेकानन्द और भारतीय नवजागरण

स्वामी विवेकानन्द उन्नीसवीं शती के महान विभूतियों में से एक थे। इनका नाम इनके गुणों के कारण इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर रहेगा। सच्चे अर्थों में स्वामी जी संपूर्ण एवं अखंड राष्ट्रीयता के समर्थक थे। वे राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति थे। सत्य तो यह है कि उनका उदय आध्यात्मिक भूख के साथ हुआ, लेकिन इन्होंने जल्द ही अपने आपको राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ लिया। प्रायः ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो मुख्यधारा से जुड़ पाते हैं। स्वामी जी ने अपनी मर्यादा का पालन बखूबी किया।

स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म के समर्थक थे। हिन्दू धर्म अपनी रूढ़ियों के कारण पतन की ओर अग्रसर था। इस धर्म के क्रमशः ह्रास का कारण कट्टर वेदवाद का प्रचार था। उन्नीसवीं शती में ईसाई धर्म के व्यापक प्रचार एवं प्रसार के कारण हिन्दू धर्म बिखरता सा प्रतीत होने लगा। ऐसे में स्वामी जी ने धर्म समाज में व्याप्त रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का विरोध करना ज्यादा जायज समझा। यही वजह थी कि स्वामी जी केवल वेद ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म की सभी श्रेष्ठ परंपराओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। इसी दौर में इन्होंने इस बात की स्थापना की कि वेदांत केवल हिन्दुओं का धर्म नहीं है अपितु यह सभी मनुष्यों का धर्म है। इस प्रकार विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को जाति तथा साम्प्रदायिक भावना से अलग करने की कोशिश की। स्वामी जी ने अपनी धार्मिक भावना का इजहार करते हुए कहा था-‘‘हमारे धर्म को रसोईघर में चले जाने का खतरा है। हमलोग न तो वेदांती हैं न पुरानी और न तांत्रिक ही, हमलोग महज छुआछूतवादी हैं। मेरा ईश्वर भोजन बनाने के बर्तन में है और मेरा धर्म है मुझे मत छुओ मैं पवित्र हूं। अगर अगली शताब्दी तक यही होता रहा तो हममें से प्रत्येक पागलखाने में होगा।’’ इस प्रकार विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों तथा संकीर्णताओं का विरोध करके इसे ज्यादा से ज्यादा उदार बनाने की कोशिश की। स्वामी ने स्वच्छ तथा आडंबर रहित जीवन को सच्चा सुख माना है। विवेकानन्द मानवतावादी थे।

स्वामी जी न सिर्फ धार्मिक बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी महान थे। भारत में राजनीतिक चेतना को जगाने का काम भी इन्होंने काफी दिलचस्पी तथा लगन के साथ किया। उन्होंने देशवासियों को जगाने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया। इनका यह मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर सेल्फ कांफिडेंस जैसी भावना का विकास होना जरूरी है। इसी क्रम में इन्होंने कहा, ‘‘अगर दुनिया में पाप है तो वह दुर्बलता है। हर तरह की दुर्बलता से बचो। दुर्बलता पाप है, दुर्बलता मृत्यु है। जो भी चीज तुम्हें शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक रूप में दुर्बल बनाती है उसे जहर की तरह तिरस्कृत करो। उसमें कोई जीवन नहीं है। वह सत्य नहीं हो सकती।’’

विवेकानन्द ने अतीत के मोह का भी काफी जमकर विरोध किया। इस प्रकार विवेकानन्द भारतीय राजनीति में पहला व्यक्तित्व था जिसने अतीत की महिमा के दिवास्वप्न को भ्रम कहा और देशवासियों को इससे अलग रखा। देश के नवयुवकों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए इन्होंने कहा था, ’’हे परमेश्वर! वह समय कब आयगा जब हमारे देश के लोग निरंतर अतीत में जीने की प्रवृत्ति से मुक्त होंगे।’’ इस प्रकार खासकर युवा वर्ग को इन्होंने अलग रखने को कहा।

गौर फरमाने की चीज है कि एक तरफ विवेकानन्द ने अतीत के मोह का विरोध किया, तो दूसरी तरफ इन्होंने पश्चिमी संस्कृति की अंधाधुंध नकल पर भी आपत्ति व्यक्त की। विवेकानन्द ने सीधे तौर पर अंग्रेजी राज का विरोध किया। देश की गुलामी उनके जीवन का सबसे बड़ा कष्ट थी। यूरोपीय संस्कृति की तुलना में भारत की मूल संस्कृति की आत्मा को ज्यादा श्रेष्ठ बताया। ध्यान देने की बात है कि विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ साबित करके भारत में राष्ट्रीयता जगाने की कोशिश की है। विवेकानन्द पहले व्यक्ति थे जिनमें हमें इस प्रकार की देशभक्ति देखने को मिलती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में ऐलान किया, ‘‘भारत में ....मेरा प्राण है भारत के देवता मेरा भरण-पोषण करते हैं। भारत मेरे बचपन का हिंडोला मेरे यौवन का आनंदलोक और मेरे बुढ़ापे का बैकुण्ठ है।’’ विवेकानन्द ने भारत के प्रति अपनी असीम भक्ति दिखाते हुए कहा था कि ‘तुम्हारी भक्ति और मुक्ति की परवाह किसे है और कौन इसकी परवाह करता है कि तुम्हारे धर्मग्रंथ क्या कहते हैं। मैं बड़ी खुशी से एक हजार बार नरक जाने को तैयार हूं अगर उसमें देशवासियों को ऊंचा उठा सकूं।’

विवेकानन्द सच्चे अर्थों में संत थे। इन्होंने भारत की मूल संस्कृति तथा परंपरा को हमेशा जीवित रखने की कोशिश की। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आध्यात्मिक सूत्रों से दैनिक जीवन की समस्याओं को हल करने की कोशिश की। इस प्रकार यह कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि विवेकानन्द को दैनिक जीवन के अध्यात्म में विशेष आस्था थी।
प्रकाशन: आर्यावर्त , पटना , 10 जनवरी, 1988।

1 comment:

Dr Om Prakash Pandey said...

sachmuch vivekanand mahaan they .