हिंदी प्रदेश में न तो फुले, अंबेदकर, पेरियार जैसे दलित चिंतक हुए न राजाराम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर एवं दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारक। इनकी भूमिका निबाही भारतेन्दु, निराला और प्रेमचंद
जैसे लेखकों ने। लेकिन इतिहास की विडंबना कहिए कि ये लेखक अपने समय में
यथास्थितिवादियों से प्रताड़ित हुए तो आज ‘दलितवादी’ और ‘नारीवादी’
विमर्शकारों से। कुछ विरोधी तो इतने आक्रामक हैं कि किताबें तक जला रहे
हैं। फिलहाल इनकी बात छोड़ें, क्योंकि इनका उद्देश्य विरासत और परंपरा का
मूल्यांकन नहीं है। उनकी भाषा विमर्श की नहीं, फासीवाद की है।
कुछ दूसरे इसलिए नाराज हैं कि ‘अंबेदकर और गांधी के राजनीतिक विवाद में प्रेमचंद गांधी के साथ थे। वे अंबेदकर के कहीं भी प्रशंसक नहीं हैं। वे दलित समस्या को गांधी की ही दृष्टि से देखते हैं। और जब डा. अंबेदकर और गांधी के बीच पूना-समझौता होता है, तो वे गांधी के साथ खड़े होते हैं, अंबेदकर के साथ नहीं।’ (कंवल भारती, ‘प्रेमचंद और आज की दलित चेतना’, साक्ष्य, मार्च 2007, पृष्ठ 194-202)
दलित लेखिका डा. कुसुम मेघवाल की बात मानें तो, ‘प्रेमचंद अछूत समस्या को आर्थिक शोषण से संबद्ध करके देखते हैं।’ कंवल भारती की यात्रा इससे आगे की है। वे लिखते हैं, ‘प्रेमचंद अछूतों की समस्या को आर्थिक मानकर जाति के सामाजिक यथार्थ की उपेक्षा करते हैं, जो भारतीय समाज की मूल समस्या है।’ प्रेमचंद ने उसी भारतीय समाज के दैनिक जीवन में देखा था कि बात जब अर्थ की आती है तब जाति दबे पांव भागती होती है। सूदखोरी पर विचार करते प्रेमचंद लिखते हैं, ‘हमारी समझ में नहीं आता। हम किस मुंह से दावा कर सकते हैं कि हम पवित्र और अमुक अपवित्र है। किसी ब्राह्मण महाजन के पास उसी का भाई ब्राह्मण आसामी कर्ज मांगने जाता है, ब्राह्मण महाजन एक पाई भी नहीं देता, उस पर उसका विश्वास नहीं है। वह जानता है, इसे रुपये देकर वसूल करना मुश्किल हो जाएगा। उसी ब्राह्मण महाजन के पास एक अछूत आसामी जाता है और बिना किसी लिखा-पढ़ी के रुपये ले आता है। ब्राह्मण को उस पर विश्वास है। वह जानता है, वह बेईमानी नहीं करेगा।’ कंवल भारती, प्रेमचंद की इस दृष्टि को भी ‘गांधी की दृष्टि’ कहेंगे!
कंवल भारती हमें गांधी और अंबेदकर का भेद बताते हैं। ‘डा. अंबेदकर वर्णव्यवस्था के समूल नाश पर जोर देते थे, जबकि गांधीजी केवल छुआछूत-निवारण के पक्ष में थे।’ यह सही है कि अम्बेदकर ने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था। इस क्रम में उन्होंने कुछ अत्यंत ‘मौलिक’ बातें भी ढूंढ़ निकालीं। उनका मानना है कि ‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धांत से मूल रूप में भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर विरोधी है। पहला सिद्धांत गुण पर आधारित है। यह सारी गड़बड़ी जाति व्यवस्था की है वर्ण व्यवस्था की नहीं।’ शायद इसीलिए अम्बेदकर ‘आदर्श वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करने की बात करते हैं। ‘उसके उद्येश्य से वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा।’ (अम्बेदकर वाङ्मय, खंड 1, पृष्ठ 81)। यहां इस बात का भी उल्लेख करते चलें कि ‘वर्णव्यवस्था का समूल विनाश’ करनेवाले अंबेदकर अपनी पुस्तक ‘शूद्र कौन थे’ में शूद्र को क्षत्रिय साबित करते नहीं थकते। प्रेमचंद अगर इस अंबेदकर के साथ खड़े नहीं हैं तो चौंकानेवाली बात नहीं है।
और इन सब के पीछे आधारभूत तर्क यह है कि प्रेमचंद का लेखन स्वानुभूति का नहीं, अपितु सहानुभूति का है, अतः उनका लेखन दलितों के बारे में ‘प्रामाणिक’ लेखन नहीं हो सकता। और प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों से ढूंढ़-ढूंढ़कर उदाहरण के बतौर पेश किये जा रहे हैं। हालांकि स्वानुभूति का तर्क भी एक मिथ ही गढ़ता है। भोगा हुआ यथार्थ के नाम पर हम कई बार यथार्थ ही बदल डालते हैं, विकृत कर पेश करते हैं। संभव है कि इसकी कोई राजनीति हो। यह भी संभव है कि कोई राजनीति न हो। बिल्कुल हाल के एक सर्वेक्षण से यह बात उभरकर आई है कि ‘पत्नियां अपने पति द्वारा पीटे जाने को तनिक बुरा नहीं मानती हैं।’ क्या नारीवादी विमर्शकार इस यथार्थ को स्वीकारेंगे ? अगर यह उन पत्नियों का ‘स्वानुभूति’ या ‘भोगा हुआ यथार्थ’ है तो भी मेरी सदिच्छा है कि वह ‘प्रामाणिक’ न हो!
रत्नकुमार सांभरिया कहते हैं कि ‘इसकी (स्वानुभूति की) लैंगिक सीमाएं भी होती हैं। एक ही जाति के स्त्री-पुरुष की स्वानुभूतियां समान नहीं होती हैं। दलित स्त्री के प्रसव के समय की लेबर रूम की स्वानुभूति दलित पुरुष की स्वानुभूति कतई नहीं हो सकती। उस महिला की वह स्वानुभूति किसी भी धर्म, जाति या वर्ग की उस महिला की स्वानुभूति के अनुरूप होगी, जो लेबर रूम से गुजरती है।’ (‘मैं दलित साहित्य का विरोधी हूं’, हंस, अगस्त 2004)
किंतु राजेंद्र यादव कहेंगे, ...‘एक दलित जब बोलता है, तब उसका पूरा समाज बोल रहा होता है। ...उसकी पीड़ा, उसके जीवन की व्यथा-कथा उसके पूरे समाज की पीड़ा और व्यथा-कथा हुआ करती है।’ स्वामी अछूतानंद ने 1920 के आसपास लिखा था, ‘तुम अपनी खातिर स्वतंत्रता को, समझ रहे हो अवश्य लाजिम; मगर करोड़ो ही आदि हिंदू गुलामी में क्योंकर जड़े रहेंगे।’ 1914 के आसपास हीरा डोम की ‘सरस्वती’ में एक कविता छपी थी। हीरा डोम की स्वानुभूति है-‘हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,/बेधरम हो के कैसे मुंहवा देखइबि।’ और एक स्वानुभूति अंबेदकर की है जो ‘धर्मांतरण की धमकी’ दे रही है! प्रेमचंद से विमर्शकार नाराज हो सकते हैं क्योंकि संभव है, वे हीरा डोम और अंबेदकर की 'स्वानुभूति' के बीच फर्क में ‘वर्गीय भूमिका’ की तलाश करें।
कुछ दूसरे इसलिए नाराज हैं कि ‘अंबेदकर और गांधी के राजनीतिक विवाद में प्रेमचंद गांधी के साथ थे। वे अंबेदकर के कहीं भी प्रशंसक नहीं हैं। वे दलित समस्या को गांधी की ही दृष्टि से देखते हैं। और जब डा. अंबेदकर और गांधी के बीच पूना-समझौता होता है, तो वे गांधी के साथ खड़े होते हैं, अंबेदकर के साथ नहीं।’ (कंवल भारती, ‘प्रेमचंद और आज की दलित चेतना’, साक्ष्य, मार्च 2007, पृष्ठ 194-202)
दलित लेखिका डा. कुसुम मेघवाल की बात मानें तो, ‘प्रेमचंद अछूत समस्या को आर्थिक शोषण से संबद्ध करके देखते हैं।’ कंवल भारती की यात्रा इससे आगे की है। वे लिखते हैं, ‘प्रेमचंद अछूतों की समस्या को आर्थिक मानकर जाति के सामाजिक यथार्थ की उपेक्षा करते हैं, जो भारतीय समाज की मूल समस्या है।’ प्रेमचंद ने उसी भारतीय समाज के दैनिक जीवन में देखा था कि बात जब अर्थ की आती है तब जाति दबे पांव भागती होती है। सूदखोरी पर विचार करते प्रेमचंद लिखते हैं, ‘हमारी समझ में नहीं आता। हम किस मुंह से दावा कर सकते हैं कि हम पवित्र और अमुक अपवित्र है। किसी ब्राह्मण महाजन के पास उसी का भाई ब्राह्मण आसामी कर्ज मांगने जाता है, ब्राह्मण महाजन एक पाई भी नहीं देता, उस पर उसका विश्वास नहीं है। वह जानता है, इसे रुपये देकर वसूल करना मुश्किल हो जाएगा। उसी ब्राह्मण महाजन के पास एक अछूत आसामी जाता है और बिना किसी लिखा-पढ़ी के रुपये ले आता है। ब्राह्मण को उस पर विश्वास है। वह जानता है, वह बेईमानी नहीं करेगा।’ कंवल भारती, प्रेमचंद की इस दृष्टि को भी ‘गांधी की दृष्टि’ कहेंगे!
कंवल भारती हमें गांधी और अंबेदकर का भेद बताते हैं। ‘डा. अंबेदकर वर्णव्यवस्था के समूल नाश पर जोर देते थे, जबकि गांधीजी केवल छुआछूत-निवारण के पक्ष में थे।’ यह सही है कि अम्बेदकर ने जिस चीज को समझने के लिए अधिक श्रम और समय दिया है, वह है भारत की जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था। इस क्रम में उन्होंने कुछ अत्यंत ‘मौलिक’ बातें भी ढूंढ़ निकालीं। उनका मानना है कि ‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धांत से मूल रूप में भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर विरोधी है। पहला सिद्धांत गुण पर आधारित है। यह सारी गड़बड़ी जाति व्यवस्था की है वर्ण व्यवस्था की नहीं।’ शायद इसीलिए अम्बेदकर ‘आदर्श वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करने की बात करते हैं। ‘उसके उद्येश्य से वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा।’ (अम्बेदकर वाङ्मय, खंड 1, पृष्ठ 81)। यहां इस बात का भी उल्लेख करते चलें कि ‘वर्णव्यवस्था का समूल विनाश’ करनेवाले अंबेदकर अपनी पुस्तक ‘शूद्र कौन थे’ में शूद्र को क्षत्रिय साबित करते नहीं थकते। प्रेमचंद अगर इस अंबेदकर के साथ खड़े नहीं हैं तो चौंकानेवाली बात नहीं है।
और इन सब के पीछे आधारभूत तर्क यह है कि प्रेमचंद का लेखन स्वानुभूति का नहीं, अपितु सहानुभूति का है, अतः उनका लेखन दलितों के बारे में ‘प्रामाणिक’ लेखन नहीं हो सकता। और प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों से ढूंढ़-ढूंढ़कर उदाहरण के बतौर पेश किये जा रहे हैं। हालांकि स्वानुभूति का तर्क भी एक मिथ ही गढ़ता है। भोगा हुआ यथार्थ के नाम पर हम कई बार यथार्थ ही बदल डालते हैं, विकृत कर पेश करते हैं। संभव है कि इसकी कोई राजनीति हो। यह भी संभव है कि कोई राजनीति न हो। बिल्कुल हाल के एक सर्वेक्षण से यह बात उभरकर आई है कि ‘पत्नियां अपने पति द्वारा पीटे जाने को तनिक बुरा नहीं मानती हैं।’ क्या नारीवादी विमर्शकार इस यथार्थ को स्वीकारेंगे ? अगर यह उन पत्नियों का ‘स्वानुभूति’ या ‘भोगा हुआ यथार्थ’ है तो भी मेरी सदिच्छा है कि वह ‘प्रामाणिक’ न हो!
रत्नकुमार सांभरिया कहते हैं कि ‘इसकी (स्वानुभूति की) लैंगिक सीमाएं भी होती हैं। एक ही जाति के स्त्री-पुरुष की स्वानुभूतियां समान नहीं होती हैं। दलित स्त्री के प्रसव के समय की लेबर रूम की स्वानुभूति दलित पुरुष की स्वानुभूति कतई नहीं हो सकती। उस महिला की वह स्वानुभूति किसी भी धर्म, जाति या वर्ग की उस महिला की स्वानुभूति के अनुरूप होगी, जो लेबर रूम से गुजरती है।’ (‘मैं दलित साहित्य का विरोधी हूं’, हंस, अगस्त 2004)
किंतु राजेंद्र यादव कहेंगे, ...‘एक दलित जब बोलता है, तब उसका पूरा समाज बोल रहा होता है। ...उसकी पीड़ा, उसके जीवन की व्यथा-कथा उसके पूरे समाज की पीड़ा और व्यथा-कथा हुआ करती है।’ स्वामी अछूतानंद ने 1920 के आसपास लिखा था, ‘तुम अपनी खातिर स्वतंत्रता को, समझ रहे हो अवश्य लाजिम; मगर करोड़ो ही आदि हिंदू गुलामी में क्योंकर जड़े रहेंगे।’ 1914 के आसपास हीरा डोम की ‘सरस्वती’ में एक कविता छपी थी। हीरा डोम की स्वानुभूति है-‘हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,/बेधरम हो के कैसे मुंहवा देखइबि।’ और एक स्वानुभूति अंबेदकर की है जो ‘धर्मांतरण की धमकी’ दे रही है! प्रेमचंद से विमर्शकार नाराज हो सकते हैं क्योंकि संभव है, वे हीरा डोम और अंबेदकर की 'स्वानुभूति' के बीच फर्क में ‘वर्गीय भूमिका’ की तलाश करें।
No comments:
Post a Comment