राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का मुखौटा है...
सांप्रदायिकता आज हमारे देश की सबसे गंभीर समस्या बन चुकी है। उसके विशाल और विकृत रूप के सामने धर्मनिरपेक्ष ताकतें शर्म महसूस करती हैं। औपनिवेशिक शासन के बुरे दिनों में हम सांप्रदायिकता का मतलब समझते थे कि यह विदेशी सरकारों की "फूट डालो और शासन करो" की नीति का एक व्यापक प्रतिफल है। हमारी ऐसी उम्मीद थी कि आजादी के बाद भारत में धीरे-धीरे एक बार फिर शांति कायम हो जाएगी। ऐसा लगता था मानो सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगों की सरकारी फाइलें अभिलेखागारों में जाकर शोधार्थियों के लिए बंद कर दी जाएगी। नफरत की जगह फिर वही पुरानी संस्कृति विकसित होगी जिसमें सब कुछ बर्दाश्त कर लेने की अद्भुत क्षमता है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा हमें दूसरे धर्म और संस्कृति के लोगों के साथ मिलजुल कर रहना सिखाती हैं। ये तो बीच में कुछ दिनों के लिए हमारी परंपराओं में दखल देकर अंगरेजों ने हमें दूसरे धर्मावलंबियों से नफरत करना सिखाया।
ऐसा मैं अकारण नहीं कह रहा हूं। अयोध्या में हुए हादसे के बाद लगभग सारी धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने इसी अंदाज में सोचना शुरू कर दिया है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनकी विफलता धर्म को अछूत मान कर उससे अलग हो जाने के कारण हुई है। उनके लिए हिंदुस्तान की अधिकांश आबादी धर्म की चेतना से नियंत्रित होती है, इसीलिए वे अपने मर्यादा पुरुषोत्तम राम, प्रगतिशील राम को सांप्रदायिक ताकतों के कब्जे से वापस ले लेना चाहते हैं। वे यह बुरी तरह महसूस करने लगे हैं कि फिरकापरस्त ताकतों को मात देने के लिए प्रगतिशील और मर्यादा पुरुषोत्तम राम को धारण करना ही होगा। निजी तौर पर मुझे लगता है कि इस चिंतन में कहीं कोई बुनियादी गड़बड़ी है, जो सांप्रदायिक ताकतों को परास्त करने की बजाय हमारी धर्मनिपेक्षता की अनियमित और अदूरदर्शी यात्रा को अंधेरी गली में कुछ लंबी अवधि के लिए गुम कर देगी।
फिलहाल हम प्रगतिशील लोग धर्मनिरपेक्षता का सही और सर्वसम्मत मत खोज पाने में सर्वथा असमर्थ हैं। धर्मनिरपेक्ष संविधान के सुखद अस्तित्व के बाद भी हम यह तय नहीं कर पाए हैं कि धर्मनिरपेक्षता का हमारे मुल्क के लिए क्या मतलब होगा। दुखद स्थिति तो यह है कि जिन ताकतों से धर्मनिरपेक्षता को असली खतरा है, जाने-अनजाने या फिर अपने बौद्धिक दिवालियापन की वजह से उसी के फार्मूले को अपनाने को मजबूर हैं। सांप्रदायिक ताकतें धर्म विशेष के नाम पर उठाई गई आवाज को राष्ट्रीयता का उदघोष कहती है। उसके खिलाफ अपनी रणनीति तब कमजोर पड़ जाती है जब सांप्रदायिकता को हम भी राष्ट्रवाद के रूप में देखना शुरू कर देते हैं। कुछ मार्क्सवादी इतिहासकारों की राय में आज की लड़ाई सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की न होकर "राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रवाद" की है। यह दृष्टिकोण न केवल अप्रीतिकर है, बल्कि अतार्किक भी है।
हमें ऐसा लगता है कि सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद की संज्ञा देकर सांप्रदायिक ताकतों के सामने हम अपना सारा हथियार एक ही बार में डाल देते हैं। सांप्रदायिकता का मुखौटा भले ही राष्ट्रवाद का क्यों न हो, वह एक सीमा के बाद भी घृणा करने लायक है।
हमारी समस्या यह है कि क्या धर्मनिरपेक्षता को हिंदू धर्म की परंपरा में ढूंढ़ा जा सकता है। थोड़े समय के लिए आपको ऐसे सवाल अप्रासंगिक लग सकते हैं। मेरी राय में आज कोई भी बुद्धिजीवी, जो धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करना चाहता है, इस सवाल से टकराए बगैर नहीं रह सकता। इसलिए यह सवाल भी महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान सांप्रदायिकता, जिसकी जड़ में धर्मोन्माद है, के खिलाफ हिंदू धर्म की प्रगतिशील भूमिका हमें किस हद तक मदद कर सकती है या कि वह सर्वथा अप्रासंगिक हो गई है।
लगभग सारे बुद्धिजीवी-कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्ट हाल के दिनों में धर्म की प्रगतिशील भूमिका पर बल देने लगे हैं। यह सांस्कृतिक संकट से उत्पन्न एक तरह का "बौद्धिक दिवालियापन" ही है, जिसके कमोबेश हम सारे लोग शिकार हैं।
1 comment:
दुखद स्थिती है ये।
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