Monday, December 22, 2008

धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध- 3

हिंदुत्व, शंबूक और पिघला हुआ शीशा...

परंपरा के नाम पर गंदगी जमा करने वाले लोग यह समझते है कि उनके अलावे और किसी के पास ऐसी स्वस्थ परंपरा हो ही नहीं सकती। हिंदुओं का खयाल है कि उनकी परंपरा प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ही रही है। बात अगर वेद के जमाने से शुरू की जाए तो कहना पड़ेगा कि इसने सबसे पहले शूद्रों को वेदपाठ करने से रोक दिया। पढ़ना तो दूर अगर भूल कर भी शूद्र वेद सुन लें तो उसके कानों शीशा पिघला कर डाल देने का सख्त से सख्त प्रावधान था। ऐसा था हमारा प्रगतिशील हिंदू धर्म, जिसमें अपने ही धर्मावलंबियों को अपना धर्मशास्त्र पढ़ने का अधिकार नही था। शूद्रों के लिए धर्म के सारे रास्ते बंद थे।

बेचारा शंबूक मर्यादा पुरुषोत्तम राम के हाथों सिर्फ इसलिए मारा गया कि उसने भगवान को याद किया था। ब्राह्मणों की तो बात निराली थी। वे तो धर्म का निर्माण करने वाले थे। जरूरत पड़ने पर वे धर्म को ठेंगा भी दिखा सकते थे, उसमें आवश्यक संशोधन करने में समर्थ थे। मनुस्मृति में लिखा है- "आपत्तिकाल में ब्राह्मण गर्हित जनों को, जिन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं हैं, उन्हें पढ़ाएं, उनसे यज्ञ कराएं और दान लें तो उन्हें (ब्राह्मणों को) दोष नहीं है क्योंकि वे जल और अग्नि के समान पवित्र हैं।"
धर्म विरुद्ध ये सारे काम करने पर भी पेट न भरे और उनके प्राणों पर आ बने तो अगर ब्राह्मण जहां भी जो अन्न मिले उसे खा लें, उसे पाप न होगा। हिंदू धर्मनिरपेक्षता का यह सबसे जबर्दस्त अंतर्विरोध है, जिसे अनदेखा कर हम सिर्फ प्रगतिशील परंपरा के नाम पर धर्मनिरपेक्षता के मूल्य का खून करना चाहते हैं। इन तथ्यों को क्या आप धर्मनिरपेक्षता के खांचों में सही-सही बिठा सकते है?

हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता का मतलब "सर्वधर्म समभाव" है। इसमें धर्म के प्रति तटस्थता का भाव न होकर सत्ता द्वारा सारे धर्म को समान रूप से प्रोत्साहन देने का सेवाभाव है। सत्ता की मजबूरी यह है कि धर्म को प्रोत्साहन देते हुए वह तटस्थता का निर्वाह नहीं कर सकती। यह उसका चरित्रगत दोष है। भारतीय जनतंत्र को उदाहरण के बतौर लें तो कहना पड़ेगा कि शासक वर्ग ने हमेशा परिस्थिति-विशेष में धर्म विशेष को सुरक्षा और संरक्षण पहुंचाने की भद्दी कोशिश की है। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति किसी भारतीय से छिपी नहीं है। विवादास्पद मंदिर-मस्जिद का ताला खोल कर हिंदू वोट को सुरक्षित कर लेने में भी कांग्रेस ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।

इससे मेरी इस बात को बल मिलता है कि जब तक हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता का मतलब "सर्वधर्म समभाव" होगा, तीव्र गति से बढ़ रही सांप्रदायिकता को रोक पाने में कोई भी सरकार सफल नहीं हो सकेगी। यह धर्म का अपना अंतर्विरोध है। भीतर की संरचना की कमजोरी है कि राजसत्ता उसे बार-बार अपने हित में इस्तेमाल कर ले जाती है।

हमारे आपके लाख सिर पटकने के बाद भी सत्ता धर्मनिरपेक्ष (धर्म के प्रति उदासीन) नहीं हो सकती। शायद कहीं सही लिखा गया है कि "राजसत्ता को धर्मनिरपेक्ष नहीं, सांप्रदायिक होना चाहिए।"

3 comments:

निशाचर said...

"धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोध" नामक इस श्रृंखला को आरंभ करके आप एक अच्छी बहस की शुरुआत कर सकते थे परन्तु ये श्रृंखला तो आपके स्वयं के अंतर्विरोध के रूप में परिवर्तित हो गयी है. आपने राष्ट्रवाद से प्रारंभ कर पहले तो राष्ट्रवाद की धारणा को ही सांप्रदायिक करार दे दिया. अगर राष्ट्रवाद न हो तो फिर राष्ट्रों की सीमायें भी न रहें फिर इस पासपोर्ट- वीसा के झंझट से तो सचमुच ही छुटकारा मिल जायेगा. कितना आनंद आएगा जब स्वच्छंद यायावर बन अपने राम बेरोक टोक सारी दुनिया की सैर करते. वाह ! बढ़िया कल्पना है. लेकिन जनाब क्या आज आप किसी भी देश में बिना किसी कागजपत्र के प्रवेश करने की गुस्ताखी कर सकेंगे. शायद नहीं, क्योकि आपको पता है कि ऐसा करते ही आप हवालात में होंगे. जब दुनिया के सभी समाज अपने भौगोलिक सीमाओं की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं तो फिर भारत क्या कोई धरमशाला है कि जिस किसी का मन आये चले आये मुंह उठाये. आप की क्या मंशा है कि राष्ट्रवाद को तिलांजलि देकर हमारा देश फिर गुलामी की बेडियाँ पहन ले?
दूसरी बात अगर इसलाम में बहस की गुंजाईश है तो फिर पैगम्बर और अल्लाह का नाम लेते ही इसलाम खतरे में क्यों पड़ जाता है और मुलसमानों को जेहादी नारे याद आने लगते हैं. जनाब आपको भारत और हिंदुत्व में साम्प्रदायिकता दिखाई देती है लेकिन इसाई मिशनरियों का लालच , जोर जबरदस्ती के दम पर किया जाने वाला धर्मान्तरण जायज लगता है. पाकिस्तान, बांग्लादेश और पूरे अरब का इस्लामिक राष्ट्रों के रूप में पहचाना जाना सांप्रदायिक नहीं है परन्तु हिन्दुओं की अपनी धरती पर उनका हिन्दू के रूप में पहचान बनाये रखना सांप्रदायिक है. ऐसा पूर्वाग्रह क्यों?
भाई साहब, साम्यवादी दर्शन महान जरूर है परन्तु राष्ट्रों की सीमायें तब तक नहीं मिट सकती जब तक दुनिया धर्मों में बँटी हुई है. धर्म के दर्शन को नहीं उसकी कट्टरता को मिटाना जरूरी है और इसका आरंभ होना चाहिए इसलाम से, क्योंकि आज की दुनिया में सबसे ज्यादा कट्टरता और कठमुल्लापन इसलाम में ही है जो सहिष्णुता जानता ही नहीं. आज के विश्व को सबसे बड़ा खतरा तथाकथित इस्लामी जेहादियों से ही है.
जहाँ तक बात वेदों की है तो मैं आपकी जानकारी दुरुस्त कर देना चाहता हूँ की वेद धर्म और जाति को उस रूप में परिभाषित नहीं करता जिस रूप में आज हम उसे जानते हैं. वैदिक धर्मं में कर्मकांडों, ढकोसलों और जन्मगत वर्ण व्यवस्था का समावेश पुराणों के माध्यम से हुआ जो की वास्तव में धार्मिक ग्रन्थ हैं ही नहीं. ब्राह्मण -काल में , ब्राह्मण जाति को सर्वश्रेष्ठ साबित करने और अन्य वर्गों का शोषण करने हेतु एक वर्ग द्वारा तमाम कहानियां गढ़ी गयी जिन्हें पुराणों के रूप में संकलित किया गया. ये ब्राह्मण ही थे जिन्होंने वैदिक धर्मं को पतन के गर्त में धकेला. जाति व्यवस्था ने हिन्दू धर्मं का जो अहित किया है वह अकथनीय है परन्तु इसके लिए पूरे हिन्दू समाज को गरियाने का अधिकार न आप को है ना किसी और को. यह हिन्दू समाज के रक्त और मज्जा में सदियों से घोली गयी सहिष्णुता ही है की हिंदुत्व और उसके प्रतीकों का अपमान कर भी लोग इस देश में जीवित बच जाते हैं वरना येही प्रयास किसी अन्य धर्मं के साथ उसके अपने देश में कर के देखियेगा....... आप की आँखे खुल जाएँगी.

Arvind Mishra said...

वही पुरानी घिसी पिटी बातों की अनावश्यक पुनरावृत्ति है कुछ भी मौलिक नही मिला पढ़ने को -निराश ही किया आपने !

drdhabhai said...

निशाचर भाई ने कुछ प्रश्न रखे हैं ...कि आप हिंदु है और क्यों कि हिंदुत्व की सहिष्णुता आपको आलोचना की अनुमति देती है....पर रआप कल्पना करें कि आप इस्लाम के बारे मैं कुछ भी कहने की हिम्मत कर पाते ....पर नहीं तब आप की मुंडी किसी चौराहे पर लटकी पाई जाती या फिर आप को जमीन मैं गाङ कर पत्थरों से मार मार कर आपकी पूजा की जाती .....