धर्म प्रगतिशील हो ही नहीं सकता...
भारत में मार्क्सवादियों को गुमान रहा है कि धर्मनिरपेक्षता की ध्वजा के असली वाहक वे ही हैं। इनके यहां धर्मनिरपेक्षता की "सर्वधर्म समभाव" की अवधारणा के विपरीत अवधारणा है, जिसमें "धर्म जनता के लिए अफीम है।" धर्म को "अछूत" मान कर मार्क्सवादियों ने अपने को सेक्युलर साबित करने की भयंकर कोशिश की। उनके लिए धर्म सेक्युलरिज्म के रास्ते में बाधा थी। धर्म के विरोध के नाम पर उन्होंने जनता का ही विरोध करना शुरू कर दिया। नतीजतन, जनता का इनसे संवाद खत्म हो गया।
सोवियत संघ में आए संकट के बाद "बुद्धिवादी" मार्क्सवादियों के बीच धर्म की भूमिका को लेकर एक गंभीर बहस छिड़ी। अब उनका जोर धर्म के दूसरे पहलू पर है- यानी धर्म की प्रगतिशील भूमिका अब इनके लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है। दुर्भाग्य की बात है कि इस बार भी मार्क्सवादियों ने धर्म के सिर्फ आधे-अधूरे यथार्थ को ही पकड़ा।
धर्म की प्रगतिशील भूमिका से किसी को भला को क्यों एतराज हो सकता है। हमें भी नहीं है। लेकिन रोना तो सिर्फ इस बात का है कि प्रगतिशीलता के नशे में चूर होकर उन अंतर्विरोधों की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता जो सीधे तौर पर धर्म के अपने निजी अंतर्विरोध के कुफल हैं। धर्मनिरपेक्षता की बात करते वक्त हमें धर्म की आंतरिक संरचना पर एक बार गंभीरता के साथ ध्यान देना होगा, वरना एक बार फिर हम सारे मार्क्सवादी अपनी राय को अत्यंत सरलीकृत ढंग से पेश करने के लिए दोषी माने जाएंगे।
वामपंथियों की धर्म के बारे में जो राय थी, यानी "धर्म अफीम है", निष्कर्ष के तौर पर काफी सही थी। दोष सिर्फ विश्लेषण की पद्धति का था, जिससे हम आज भी बच नहीं पाए हैं। वही निष्कर्ष आज भी सही है। इसलिए धर्म के सिर्फ प्रगतिशील पक्ष पर ध्यान केंद्रित करना आसन्न खतरे को और नजदीक ले आना होगा, क्योंकि धर्म को आधार बना कर धर्म निरपेक्षता की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।
धर्मनिरपेक्षता के लिए हमें धर्म के खिलाफ लड़ना ही होगा। इस खतरे के साथ कि संभव है, जनता से हमारा संवाद बंद हो जाए। संवाद को निरंतर कायम रखने के लिए उनके पास धर्म के अलावे और भी कई दुखती रगें हैं, जिन पर उंगलियां रखी जा सकती हैं। धर्म को राजनीति के साथ जोड़ने का स्वाद हम देश के विभाजन के रूप में चख चुके हैं। अब और इसे लंबा ले जाने की ताकत हममें नहीं रही।
No comments:
Post a Comment