Saturday, January 10, 2009

संस्कृति और इतिहास-बोध- 1

संस्कृत यानी वर्चस्व की संस्कृति


संस्कृति पर विमर्श प्रकारांतर से मानव जाति पर विमर्श है, क्योंकि इसके केंद्र में वही है। अपने व्यापकतम अर्थ में संस्कृति वह सब है, जिसका निर्माण मानव जाति ने किया है और कर रही है- श्रम के औजारों से लेकर घर-गृहस्थी की वस्तुओं तक, रीति-रिवाजों और रहन-सहन के ढंग से लेकर विज्ञान और कला, धर्म और अनीश्वरवाद, नैतिकता और दर्शन तक, केवल इतना ही कहें तो संस्कृति की हमारी अवधारणा या परिभाषा एकांगी, और साथ ही साथ भ्रामक भी होगी। इसलिए इतना भर याद रखना जरूरी है कि मानव संस्कृति का रचयिता है और साथ ही उसकी रचना भी। ऐसा करते या मानते हुए हम अपना इतिहास-बोध जाग्रत कर रहे होते हैं। यानी यह इतिहास का विवेक है जो हमें बताता है कि मानव जाति संस्कृति का केवल रचयिता ही नहीं है, बल्कि खुद उसी की निर्मिति भी। और हमारा इतिहास-बोध भी ठीक-ठीक इसी रूप में संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।


अगर संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति पर गौर करें तो यह संस्कृत के बहुत पास मिलेगा। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है शिष्ट और सभ्य। जो शिष्ट या सभ्य नहीं है, प्राकृत है, जंगली है। बर्बरता संस्कृति की परिधि से बाहर की चीज है। जंगल-युग हमारी संस्कृति का पोषक नहीं, क्योंकि इस लिहाज से यह विकास की एक खास अवस्था को पार कर शुरू और निर्मित होती है। संस्कृत शब्द में संस्कार, संशोधन या परिष्कार का भाव जुड़ा हुआ है। एक दूसरे तरीके से कहें तो अलगाव का भाव जन्म ले रहा है। संस्कृत को प्राकृत से अलग करने की मुहिम शुरू हो चुकी है। भाषा के क्षेत्र में भी इसके गणित बिठाए जा रहे हैं। संस्कृत सिर्फ शिष्ट और सभ्य लोगों की भाषा बनी।


लोग अक्सर कहते पाए जाते हैं कि संस्कृत नाटकों में शूद्र और स्त्री प्राकृत भाषा का व्यवहार करते हैं। संस्कृत केवल संभ्रांत वर्ग के लोग ही बोल पाते थे। वे इसका हवाला भर देकर शात हो लेते हैं। वे कभी नहीं कहते कि निम्न वर्ण और स्त्रियों के लिए संस्कृत भाषा का व्यवहार सिद्धांत रूप में भी वर्जित था। नाट्यशास्त्र का लेखक भरत मुनि इसका प्रमुख सिद्धांतकार है। भारत के इतिहास में यह वह काल है जब वर्चस्व की संस्कृति पैदा हो रही थी।


यहां हम यह भी कह सकते हैं कि संस्कृत में वर्चस्व का भाव रहा है। वरना जिस देश में कुत्ता, सियार और हाथियों तक के लिए संस्कृत संबोधन है, वहां मनुष्य जाति के एक बड़े वर्ग को संस्कृत बोलने से क्यों कर रोका जा रहा है? आज भी महावत हाथी के साथ गच्छ, तिष्ठ जैसे संस्कृत शब्दों के ही सहारे संवाद कायम करता है। आज भी हमारे कुत्तों के नाम भले अंग्रेजी ढर्रे पर रखे जाने लगे हों, उनके संबोधन में उच्चारित शब्द अत्तु संस्कृत का ही है। संस्कृत भाषा के जानकार जानते हैं कि यह आदरार्थ प्रयुक्त है। यानी आदर (सम्मान) में कहा गया शब्द, जिसका भाषिक अर्थ है- "आइए खाइए।"

2 comments:

ghughutibasuti said...

रोचक जानकारियाँ हैं। गच्छ व तिष्ठ महावत उपयोग करते हैं यह पता नहीं था।
घुघूती बासूती

Kaushal Kishore , Kharbhaia , Patna : कौशल किशोर ; खरभैया , तोप , पटना said...

रंजनजी
उस समय जो भूमिका संस्कृत की थी और जो लोग संस्कृत से बहिष्कृत , हाथी ,सियार ,कुत्तों से भी गए गुजरे ,आज कल उस भूमिका में कौन है ?
जो लोग उस दौर में बहिष्कृत थे वो आज कहाँ हैं ?
ज्ञान की भाषा और साहित्य पर एकाधिकार जिन वर्गों का था उसमें आज कितनी तबदीली आयी है.नए लोगों और समुदायों का कितना समावेश हो पाया है ?
संचार के नए माध्यमों पर भी तो कोई संस्कृत भाषा नहीं छाई हुई है ?
तत्कालीन बहिष्कृत लोग कहीं आज तक पत्रकारिता , टी वी चैनलों की दुनिया से बहिष्कृत तो नहीं हैं ?
बहिष्कृत समाज की इन निर्णायक जगहों से अनुपस्थिति , समाज के इन नए दर्पणों में उनकी राग रंग, हास परिहास की विकृत या अधूरी तस्वीर तो नहीं देता ?
इन सवालों पर गौर करें तो संबाद की सार्थकता बढेगी.
तर्कपूर्ण और सारगर्भित लेख के लिए बधाई
सादर