बीसवीं शती पूरी दुनिया के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शती रही है। शायद इसलिए कि इसने मानव-जीवन में कुछ महान कही जा सकने वाली तब्दीलियां पैदा की। लोगों ने भविष्य की घोषणा को इतिहास बनते देखा है। मार्क्स ने समाजवाद का जो सपना (इसमे और भी लोग शामिल थे) देखा था, वह बहुत-कुछ पूरा भी हुआ और टूटा भी। हमारा आधुनिक मन इस पूरी परिघटना से जुड़ा रहा है। इधर सौ-डेढ़ सौ साल के साहित्य पर अगर नजर डाला जाए तो लगता है कि कहीं न कहीं से यह उसके असर मे है।
इस दौर के सृजन का अधिकांश समाजवाद को स्थापित करने और विघटन के दर्द को कम करने की चिंता से ग्रस्त है। सोवियत-संघ के विघटन ने हमारे सपनों पर पानी फेरने का काम किया है। मैं इस विघटन को एक अकेली घटना के बतौर नहीं मानता, बल्कि यह तो एक प्रतीक है जिसकी भाषा में आए युगांतकारी परिवर्तनो को चिह्नित कर व्यक्त किया जा सकता है। यही वह ऐतिहासिक क्षण है जब मार्क्सवादियों और गैर मार्क्सवादियों- दोनों ही ने अपने सुर बदले हैं। विचारधारा का अंत, कविता का अंत और अंततः इतिहास का अंत जैसे नारे इसी अंत (समाजवाद का) की भूमि पर उगे/पनपे हैं।
इन सबकी चर्चा साहित्य के संदर्भ में विशेष महत्त्व रखती है क्योंकि समाजवाद की ही तरह साहित्य भी बेहतर मनुष्य पैदा करने की चिंता से गहरे जुड़ा है। हम कह सकते हैं कि बीसवीं शती ने साहित्य के समक्ष नया यह कहें कि बेहतर मनुष्य रचने की अपनी चुनौती छोड़ रखी है। यों यह साहित्य की, सृजन की शाश्वत चिंता है।
समाजवाद का विघटन और आक्रमण वैश्वीकरण आपस में गहरे जुड़े हैं। एक की पराजय दूसरे का जयघोष है। वैश्वीकरण की इस अंधी दौड़ में आवारा पूंजी की बाढ़ आ गई है। राज्य की लोक-कल्याणकारी भूमिका गौण हो चुकी है। एनजीओ फल-फूल रहे हैं। सरकार राज्य की सबसे बड़ी एनजीओ के रूप में तब्दील हो चुकी है जिसके जिम्मे ‘मॉनिटरिंग’ का ‘पुनीत दायित्व’ सौंप दिया गया है। बाजार की दिनानुदिन बढ़ती पैठ और आक्रमण उपयोगितावाद ने मानव की गरिमा को अपना ग्रास बनाया है। मूल्य बाजार की दुनिया में गुजरे जमाने की बेकार चीज होकर रह गए हैं। ‘लिखो-फेंको’, यूज एंड थ्रो और हायर एंड फायर हमारे जमाने के मूलमंत्र हैं। इसमें मानवीय गरिमा और संवेदना के लिए स्पेस बहुत कम रह गया है। लगभग नही के बराबर। सहानुभूति और संवेदना गुजरे जमाने के बकवास है, अव्यावहारिक व्यक्ति की सनक हैं। किसी प्राकृतिक आपदा में आपके परिजन की अगर मौत हो गई हो तो हम पत्रकार पूछेंगे- अब आपको कैसा लग रहा है? कवि उस पर कविता (मरसिया) लिखने की सोचेगा, कथाकार-उपन्यासकार बड़ा-सा नैरेटिव तैयार करेगा। फिल्मवालों की तो पूछिए मत। अगर कोई लेखक-साहित्यकार है और मरनासन्न है तो पहले से लेख तैयार रखेगे।
हम बाजार का बेपर्दा करने चले थे, उलटे उसी ने हमें नंगा कर दिया। हम गदगद है कि चलो बाजार मे सब नंगे है। हाल यह है कि किसी को चोर कहिए तो गुस्सा नहीं होगा, नाराजगी नहीं प्रकट करेगा, स्थितप्रज्ञ बना रहेगा। कुछ साल पहले स्थानीय पब्लिक स्कूल में मालिक को मैंने बात-बात में कह डाला कि आप चोर है। वह तनिक बिदका नहीं, अहिंसा की मूर्ति बना रहा। कहने लगा कि यह मत देखिए कि मै सबसे छोटा चोर हूं कि नहीं। मैं सुन कर सन्न रह गया था।
इतिहास दर्शन के एक बडे विद्वान ई ए कार ने लिखा है कि प्रत्येक रचना के पीछे से रचनाकार की ध्वनि आती है, मसलन लेखक का व्यक्तित्व उभरता है। आज वह व्यक्तित्व सिरे से गायब है। निराला ने नोटिस ली थी- चलते हैं लोग ज्यों मुह फेर कर (स्मरण के आधार पर)। गनीमत है की उन दिनों आदमी का एक चेहरा था, वरना आज तो हम लोगो को दूसरी चीजों से पहचानते हैं। हम रटते रहे कि कविता भाषा मे आदमी होने की तमीज है लेकिन कवि को आदमी न बना सके। बचाव की मुद्रा में हम कह सकते है कि बाजार ने हमे कैरियरिस्ट बना दिया। इसमें हमारा आपका क्या दोष है। बाजार के आगे किसी की चलती है भला। हम पूरा का पूरा छद्म जीते है और कभी ग्लानि नहीं होती।
चूंकि हम महान कवि हैं, इसलिए हमारी कविता में संवेदना की अजस्र धारा होगी; लेकिन हमारा कोई मित्र (समानधर्मा) अगर बीमार हो गया या किसी संकट में फंस गया तो झट उसे व्यक्तिगत या निजी मामला बता कर छुट्टी पा लेगें। हमारे शहर पटना में ही एक कवि हैं जिनसे बातचीत के लिए मैं गया तो बोले मेरे नाम संपादक की चिट्ठी लाए हैं क्या? कुछ दिनों बाद दिल्ली से एक महिला पत्रकार पटना आई। उसने उक्त कवि को बातचीत के लिए फोन लगाया तो जवाब के बदले प्रश्न था- कहिए, गाड़ी कहां भेज दूं। नाम मैं नहीं लूंगा आप मुझ पर सहज ही (स्वभावतः) अविश्वास करेंगे। कहेंगे महाकवि को बदनाम करता हूं। साहित्य अकादमी वाले भी गुस्सा होंगे कि बिला वजह मै उनके दामन पर कीचड़ उछाल रहा हूं। यों हमें नहीं मालूम कि आज के साहित्य में लोकनिंदा कोई विधा है या नहीं।
रचना और रचनाकार के अलग-थलग पड़ जाने से रचना अपना असर खोती जा रही है। रचनाकार की प्रतिबद्धता, रचना के प्रति लगाव में कमी आई है। उनसे आदमी की बाबत बात कीजिए तो काव्यशास्त्र का गंभीर सिद्धांत आपके समक्ष पटक देगें कि रचना और रचानाकार दो अलग-अलग चीज है। दोनो को एक साथ मिला कर गड्ड-मड्ड नहीं कर सकते। रचनाकार का अपनी रचना के साथ जितना जुड़ाव हो उतना ही विलगाव भी हो; तभी कोई बड़ा रचनाकार बन सकता है।
भला हो ऐसे दर्शन का हमे तो पहले बड़ा आदमी चाहिए; बड़ा रचनाकार बाद में। दोनों साथ मिल जाए तो अति सुदंर। प्रेमचंद, निराला को पढ़ता हूं तो रचनाओं में उनकी मनुष्यता मूर्तिमान हो उठती है। मुक्तिबोध को पढ़ता हूं तो लगता है जैसे बगल मे खड़े होकर पूछ रहे हैं- पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है। आज हमारी ‘पॉलिटिक्स’ क्या है ? आज हमारी पॉलिटिक्स बहुत संकीर्ण हो गई है। आप लाख प्रगतिशील हों, अगर कार्डहोल्डर नही हैं तो प्रगतिशील आंदोलन के ‘इतिहास-पुरूष’ नहीं हो सकते।
ऐसे भयानक सृजन-विरोधी माहौल में कुछ रचनाकार अपवाद के बतौर हैं जिनको पढ़ते-सुनते लगता है जैसे अपनी ही अनभिव्यक्त अभिव्यक्ति हो। वैसे समानधर्मा होने-मिलने का संकट कोई आधुनिक या उत्तर-आधुनिक संकट नहीं है। संभवतः कालिदास को भी अपने समानधर्मा की खोज थी। व्यक्तिगत तौर पर मै अपने ही लिखे शब्दो से घिरा महसूस करता हूं। अगर कभी उनसे आंख बचा कर निकलने की कोशिश करता हूं तो वे डराते हैं। मेरी अपनी ही रचना मेरे लिए चुनौती छोड़ जाती है-
आ सको अगर
तो आओ मेरी कविता में
नंगे पांव चल कर
पारकर तप्त रेतीले मैदान
कि हों फोड़े, पड़े छाले, रिसे बूंद खून की
तो दिखे साफ तुम्हारा
अपना ही चेहरा।
तो आओ मेरी कविता में
नंगे पांव चल कर
पारकर तप्त रेतीले मैदान
कि हों फोड़े, पड़े छाले, रिसे बूंद खून की
तो दिखे साफ तुम्हारा
अपना ही चेहरा।
आप कहेंगे- यह तो प्रलाप या ‘एकालाप’ है। मैं कहूंगा- चुप्पी से फिर भी बेहतर है। मुझे मेरे समानधर्मा की तलाश है...।
(जनसत्ता में 1 मार्च को प्रकाशित)
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