किसी देश या जाति के इतिहास में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य- इसका सम्यक फैसला हमारी इतिहास-दृष्टि करती है। संस्कृति के अंदर सब कुछ बचा लेने लायक नहीं होता। बहुत कुछ समय की मार खाकर बेजान हो जाता है, इसलिए ग्राह्य-अग्राह्य का प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो उठता है। परंपरा का वह हिस्सा जो वर्तमान के लिए अनुपयोगी और बेजान हो गया हो, त्याज्य है। जो हमारे काम आ सकता है- स्वीकार्य है, सराहनीय है।
परंपरा को ताबीज बना कर रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि न तो वह संपूर्ण सुंदर है, न नितांत असुंदर। उसमें सक्रियता भी है, प्रमाद भी। स्वार्थ भी है, परमार्थ भी। संकीर्णता भी है, उदारता भी। इसलिए कालिदास का यह उदगार कि पुराणमियत्येव न साधु सर्व- जो समय के बोध से सना है, हमेशा याद रखने लायक है। परंपरावादियों के लिए तो और भी, क्योंकि अतीत का उनका यह कथन हमारी परंपरा का अभिन्न हिस्सा हो चुका है। और जो वर्तमान समय में भी शायद उतना ही सटीक है।
लेकिन कहना होगा कि अपनी ही किस्मत से कालिदास ने कोई खास नसीहत नहीं ली। उन्होंने उन्हीं वर्णाश्रम अर्थों की कीर्ति बखानी जो भारतीयता पर कालिमा का टीका सिद्ध हो चुके थे। अलबत्ता कहीं-कहीं रोष अवश्य प्रकट किया है। उनकी शंकुतला पुरुष के अधिकारों पर व्यंग्य करती है, उनकी सीता वाच्यं त्वया मदवचनात्स राजा कह कर राम को संदेश भेजती है। लेकिन वास्तव में यह विद्रोह नहीं, विद्रोह की विडंबना है। शूद्र तपस्वी शंबूक के राम द्वारा रघुवंश में मारे जाने पर महाकवि की लेखनी में बल तक नहीं पड़ता, वह खुद उस तपस्वी को उसके अनाचार पर धिक्कारता है। कालिदास का इतिहास-बोध विरोध कई बार आत्म-प्रताड़ना तक को जन्म देता दिखता है
परंपरा को ताबीज बना कर रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि न तो वह संपूर्ण सुंदर है, न नितांत असुंदर। उसमें सक्रियता भी है, प्रमाद भी। स्वार्थ भी है, परमार्थ भी। संकीर्णता भी है, उदारता भी। इसलिए कालिदास का यह उदगार कि पुराणमियत्येव न साधु सर्व- जो समय के बोध से सना है, हमेशा याद रखने लायक है। परंपरावादियों के लिए तो और भी, क्योंकि अतीत का उनका यह कथन हमारी परंपरा का अभिन्न हिस्सा हो चुका है। और जो वर्तमान समय में भी शायद उतना ही सटीक है।
लेकिन कहना होगा कि अपनी ही किस्मत से कालिदास ने कोई खास नसीहत नहीं ली। उन्होंने उन्हीं वर्णाश्रम अर्थों की कीर्ति बखानी जो भारतीयता पर कालिमा का टीका सिद्ध हो चुके थे। अलबत्ता कहीं-कहीं रोष अवश्य प्रकट किया है। उनकी शंकुतला पुरुष के अधिकारों पर व्यंग्य करती है, उनकी सीता वाच्यं त्वया मदवचनात्स राजा कह कर राम को संदेश भेजती है। लेकिन वास्तव में यह विद्रोह नहीं, विद्रोह की विडंबना है। शूद्र तपस्वी शंबूक के राम द्वारा रघुवंश में मारे जाने पर महाकवि की लेखनी में बल तक नहीं पड़ता, वह खुद उस तपस्वी को उसके अनाचार पर धिक्कारता है। कालिदास का इतिहास-बोध विरोध कई बार आत्म-प्रताड़ना तक को जन्म देता दिखता है
धूत करो अवधूत करो जैसी पंक्ति वही लिख सकता है, जिसने अपने नथूनों में वर्ण-व्यवस्था की सड़ांध महसूस की हो।
अज्ञेय ने शंबूक-वध का एक नया पाठ तैयार किया- मैंने शंबूक की कथा पढ़ी है। मैं उसे कभी उस अर्थ में ग्रहण नहीं कर पाया, जिस अर्थ में मुझे समझाया जाता रहा था। वर्णांतर कर्म का यह छोटा-सा अपराध (?) कदापि उस दंड का भागी नहीं था जो उसे मिला। इतना ही क्यों, यह प्रश्न कोई क्यों नहीं पूछता कि शूद्र की तपस्या में इतना बल था कि ब्राह्मण का बेटा मर जाए, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व का बल कहां चला गया था? क्या उसकी सीमा यही थी कि राजा के सामने जाकर रिरिया ले? क्यों नहीं राम ने भी उस ब्राह्मण से यह पूछा कि वह क्यों इतना हीनतेज हुआ? अज्ञेय के लिए राम की तुलना में शंबूक ज्यादा ग्राह्य है, क्योंकि शंबूक स्थिति को, स्थितिशीलता को, परिवेश को बदलना चाहता है और राम उसे बनाए रखना चाहते हैं।
संस्कृति की यह गतिशील व्याख्या इतिहास-बोध और काल की मर्यादा से प्रेरित है। या कह सकते हैं कि तात्कालिकता का दबाव है।
1 comment:
संस्कृति की यह गतिशील व्याख्या इतिहास-बोध और काल की मर्यादा से प्रेरित है। या कह सकते हैं कि तात्कालिकता का दबाव है।
-बिल्कुल सही. विचारणीय आलेख.
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