"जो जात-पांत की बात करे, उस पर थूक दीजिए..."
1991 में मैं एमए (इतिहास) में दाखिला ले चुका था। विजय कुमार ठाकुर के संरक्षण में अशोक जी ने "इतिहास विचार मंच" की स्थापना की, जिसका मुझे संयोजक बनाया गया। इस संस्था का प्रमुख काम अकादमिक महत्त्व के विषयों में लेक्चर आयोजित करना था। इसी सिलसिले में हमलोग एक दिन आलोक धन्वा से मिले और "प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था" विषय पर अपनी बात रखने के लिए उनसे आग्रह किया। लगभग आधे घंटे तक वे तफसील से बताते रहे कि किन-किन महत्त्वपूर्ण गोष्ठयों की उन्होंने अध्यक्षता की है। इस बात को भी रेखांकित किया कि कैसे आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा ने उनसे एक बार किसी गोष्ठी की अध्यक्षता करवाई थी, जब वे महज इंटर के छात्र थे। लगभग आधे घंटे की अपनी विरुद् गाथा से निवृत्त होकर उन्होनें बदली भंगिमा में कहना शुरू किया- "राजू भाई, अगर कोई जाति-पांति की बात करता हो तो वैसे लोगों पर थूक दीजिए।" मैंने हल्का प्रतिवाद करने की कोशिश की- "आलोक जी, मैं जाति की राजनीति करने की कोई मंशा नहीं रखता। मेरा उद्देश्य तो समस्या का समाजशास्त्रीय अध्ययन भर है।"
वे कहां मानने वाले थे। जब वे अपनी रौ में होते तो सामने वाले की शायद ही सुनते थे। फिर वे अपने मूल कथन को ही दुहराने लगे। मैं तो लिहाजवश चुप ही रहा, लेकिन अशोक जी ने अपना मुखर मौन तोड़ा। कहने लगे- "आलोक जी, सच्चाई यह है कि जाति-पांति का नाम लेने वाले हर आदमी पर अगर इसी तरह थूकते रहे तो आप डिहाइड्रेशन के शिकार हो जाएंगे और देवयोग से अगर बच भी गए तो अपने ही थूक के अंबार में डूबे जीवन की भीख मांगते नजर आएंगे। वैसे इसकी कम ही संभावना है कि ऐसा करने को आप बचे भी रहें।" इसके बाद हम दोनों मन ही मन कुढ़ते हुए अशोक जी के लालबाग स्थित डेरे में लौट आए।
नौकर के खर्च में तो एक बीवी रखी जा सकती है...
आलोक धन्वा एक लंबे समय से एकाकीपन में जीते आ रहे थे। शादी नहीं की थी। इस लायक शायद किसी को समझा नहीं था। या फिर कोई और कारण भी हो सकता है। कभी-कभी वे शारीरिक दुर्बलताओं का भी जिक्र किया करते। लेकिन इन दिनों शादी को लेकर कुछ गंभीर होने लगे थे। "छतों पर लड़कियां" कविता का ठीक यही समय है। एक दिन वे खाने-पीने की दिक्कतों की बात करने लगे। मैंने सलाह दी, "कोई नौकर क्यों नहीं रख लेते?" वे बोल उठे- "नौकर बहुत महंगा हो गया है। खाता भी बहुत है। उतने खर्च में तो एक बीवी भी रखी जा सकती है।"
मैं भी वही हूं...
वे जानते थे कि मेरी शादी हो चुकी है, इसलिए पूछ बैठे- "राजू भाई, आपकी कोई बड़ी साली है?" मैंने मजाक के लहजे में कहा- "सर, मेरी पत्नी बहनों में सबसे बड़ी है। अफसोस!" वे कहने लगे- "कोई बात नहीं, इधर-उधर ही देखिए।"
आगे उन्होंने अंतिम सत्य की तरह जोड़ते हुए कहा- "आप तो मेरी जाति जानते हैं न राजू भाई? आप भूमिहार हैं न! मैं भी वही हूं।"
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