Wednesday, June 10, 2009

यादों में बसे लोग- 4

‘छत की लड़की’ से परिचय…

एक दिन अखबार से मालूम हुआ कि ‘छत की लड़की’ उनके आंगन में दाखिल हो चुकी है, यानी उन्होंने शादी कर ली है। हम लोगों के लिए यह खबर बहुत रोमांचक थी। मैं तब अशोक जी के साथ सुनील जी के मकान में रहा करता था। मैं, अशोक जी और सैदपुर छात्रावास के दिनों के पुराने परिचित सियाराम शर्मा व्यथित साथ-साथ आलोक धन्वा को बधाई देने पहुंचे। आलोक जी ने तीनों का बारी-बारी से पत्नी से परिचय कराया। अशोक जी के परिचय में उन्होंने ठीक-ठीक कौन-सा वाक्य कहा था, फिलहाल मुझे याद नहीं है। मेरा परिचय देते उन्होंने बताया- ‘आप राजू भाई हैं, मेरे पुराने प्रेमी और प्रशंसक।’ यह भी जोड़ा कि ‘ये मेरे एकांत के दिनों के साथी रहे हैं और समाजशास्त्र के विद्वान हैं।’ फिर व्यथित जी का परिचय दिया- ‘आप हिंदी के विद्वान और साहित्य के गंभीर आलोचक हैं।’ तब तक सियाराम जी की आलोचना पुस्तिका ‘कविता का तीसरा संसार’ पहल पत्रिका से प्रकाशित होकर आ चुकी थी। इसमें आलोक धन्वा वीरेन डंगवाल और कुमार विकल की कविताओं की समीक्षा थी। हालांकि अपने साथ गोरख पांडेय को पाकर आलोक धन्वा सियाराम जी से थोड़ा नाराज भी थे। कवियों की जमात में ‘गीतकार’ का शामिल करना शायद आलोक को अच्छा न लगा था।

खैर, तो अब आलोक अपनी पत्नी का परिचय देने वाले थे। उन्होंने अभिनय की मुद्रा बनाते हुए कहा- ‘आप हैं क्रांति भट्ट। बैट (बिहार आर्ट थियेटर) की प्रख्यात अदाकारा। और फिलहाल ये कंप्यूटर से खेल रही हैं।’ हमलोगों को काफी देर की मगजमारी के बाद मुश्किल से मालूम हुआ कि स्थानीय ‘आज’ अखबार के कंप्यूटर विभाग में नौकरी करती हैं।

"क्रांति तो मेरी बेटी के समान है..."

शादी के बाद जब कभी आलोक धन्वा से मिलने जाता तो वे काफई व्यस्त हो जाते। खिड़कियों और कमरों के परदे दुरुस्त करते और कहते जाते- ‘राजू भाई, अब मैं पारिवारिक हो गया हूं न!’ मेरे मन को थोड़ा विनोद सूझता और मन ही मन बोलता- आलोक धन्वा ने ‘पारिवारिक’ होने में इतना समय लिया है, पता नहीं ‘सामाजिक’ बन भी पाएंगे या नहीं। साथ बैठे होने पर पत्नी को अक्सर ‘बच्ची’ संबोधित करते। बातचीत के क्रम में सहज ही कह जाते ‘क्रांति तो मेरी बेटी के समान है, बच्ची है।’ पत्नी को बेटी बनना पसंद न था और आलोक धन्वा थे कि उसे बेटी बना कर पिता का असीमित अधिकार हासिल कर लेना चाहते थे।

‘कुलीनता की हिंसा’…

वे क्रांति की सामान्य दिनचर्या की छोटी-से-छोटी चीज में दखल देते और अपनी बात पास करवाना चाहते। मसलन, उसे कब दही खाना चाहिए और कब नहीं, इस तक का भी वे ‘खयाल’ रखते। क्रांति का नाटकों के लिए घर से बाहर निकलना अब उन्हें अखरता था। एक दिन वे मुझसे कहने लगे- ‘राजू भाई, क्रांति रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जा रही है। आप तो जानते हैं कि रघुवीर सहाय की कविताओं में अद्भुत नाटकीयता है। उसका निर्वाह क्रांति से संभव न हो सकेगा। इसलिए मैंने तो कह रखा है कि रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जाओंगी, तो मेरे सीने से गुजर कर जाना पड़ेगा। मैं हिंदी कविता का अपमान सहन करने के लिए जीवित नहीं रह सकता।’ एकबारगी मेरी आंखों के सामने ‘कुलीनता की हिंसा’ का बिंब जीवित हो उठा। क्रांति तो गईं, लेकिन आलोक जीवित रह गए।

1 comment:

बसंत आर्य said...

बहुत बढिया लगा. लगे रहिए इसी तरह