Monday, June 29, 2009

यादों में बसे लोग- 5


यथार्थ तो परछाई की तरह है...

कवि ‘अव्यावहारिक’ जीव होता है...

व्यथित जी जब कभी पटना आते और हमलोग मिल बैठते तो आलोक धन्वा की चर्चा अवश्य होती। आलोक जी की कविताओं से वे बेहद प्रभावित थे। वे जब बात करने लगते तो निर्दोष बच्चों-सी ललक दिख पड़ती उनमें। मैं कभी कहता कि ‘आपने आलोक धन्वा की सिर्फ कविताएं पड़ी हैं, जीवन नहीं देखा है’ तो हल्के-से प्रतिवाद से साथ बच निकलने की कोशिश करते। मुझे लगता वे अपना विश्वास नहीं तोड़ना चाहते और मैं चुप लगा जाता। लेकिन यथार्थ तो परछाईं की तरह है। उससे बहुत दिनों तक बचा तो नहीं जा सकता।

एक दिन की बात है कि अशोक जी को साथ लेकर व्यथित जी आलोक धन्वा से मिलने चले गए। वहां से लौटे तो बहुत उदास और अशांत थे। पूछने पर बताया कि ‘क्रांति के साथ निभ नहीं रही है। वे गुस्से में लगातार चीख के साथ बर्तनें तोड़े जा रही थीं।’ में यह सब सुन कर बहुत उदास और दुखी नहीं हुआ। ऐसी स्थित की आशंका मुझे पहले ही से थी। एकांत के क्षणों में आलोक धन्वा कहने लगे थे- ‘राजू भाई, मैंने दरवाजा खुला छोड़ रखा है। क्रांति जिस दरवाजे से होकर आई है, जा भी सकती है।’ मैं सोचता, लोग ठीक ही कहते हैं कि कवि ‘अव्यावहारिक’ जीव होता है। व्यथित जी इस घटना के बाद खासे डरे लग रहे थे। वे भी अपनी शादी लेकर गंभीर हो रहे थे, वह भी दूसरी के लिए।

साहित्य के जनतंत्र में...

इधर कुछ दिनों से आलोक धन्वा मुझसे नाराज थे। व्यथित जी की पुस्तिका ‘कविता का तीसरा संसार’ की समीक्षा को लेकर। यह जबलपुर से निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिका ‘विकल्प’ में छपी थी। दरअसल, मैंने जो लिखा था, उसका सार यह था कि आलोक धन्वा के यहां मुक्तिबोध के उलट कविता और जीवन दो अलग-अलग चीजें हैं। समीक्षा को पढ़ कर या सुन कर आलोक धन्वा ने कुमार मुकुल से कहा था- ‘राजू बदतमीज और चूतिया है...।’ मुझे सहज ही विश्वास हो गया, क्योंकि कुमार मुकुल के बारे में मुझसे ठीक-ठीक यही वाक्य कहा था उन्होंने और यह भी कि ‘उसने मेरे घर में कागज-कलम पकड़ना सीखा है।’

आलोक धन्वा को ‘साहित्य के जनतंत्र’ में ‘असहमति’ मुश्किल से बर्दाश्त होती थी।

समीक्षा की आग मंद भी न पड़ी थी कि व्यथित जी पटना आ धमके। उन्हें उसी ‘विकल्प’ पत्रिका का नक्सलबाड़ी अंक संपादित करने का दाय्त्व दिया गया था। वे चाहते थे कि आलोक धन्वा का एक लंबा (ऐतिहासिक) इंटरव्यू हो पत्रिका के लिए। इस उद्देश्य से वे अपने नायक कवि के पास पहुंचे ही थे कि आलोक धन्वा बमक उठे। कहने लगे- ‘शर्मा जी, मुझे समझ में नहीं आता कि राजू जैसा पाजी लड़का आपका मित्र कैसे हो गया।’ शर्मा जी के ज्ञान पर चोट थी यह। इसलिए प्रतिवाद करने से अपने को रोक न पाए- ‘क्या मुझमें यह विवेक भी नहीं कि अपने मित्र का चुनाव मैं स्वतंत्र होकर कर सकूं?’ आलोक धन्वा को अपना दांव बेअसर होता लगा तो कहने लगे- ‘जहां से पहल जैसी पत्रका निकल रही हो वहां से विकल्प निकालने की क्या जरूरत है?’ महाकवि का इंटरव्यू करने की शर्मा जी की ख्वाहिश पूरी न हो सकी।

व्यथित जी अब भी पटना आते हैं, लेकिन आलोक धन्वा का नाम उन्हें उत्तेजित नहीं कर पाता।

‘क्रांति ड्रामा करने गई है...’

एक दिन मैं स्वरूप विद्या निकेतन स्कूल में अपनी कक्षा से ज्योंहि निकला तो पाया कि आलोक धन्वा निदेशक जनार्दन सिंह से बातचीत में उलझे हुए हैं। बहस का विषय था कि बच्चों को पीटा जाए या नहीं। जनार्दन सिंह जहां बच्चों को पीटने के लाभ बता रहे थे, वहीं आलोक उसे ‘सामंती समाज की देन’ बता रहे थे। दरअसल वे अपनी वकील भाई के बेटे को छात्रावास में दाखिला दिलाना चाहते थे। जनार्दन सिंह यानी बच्चों के स्वघोषित ‘चाचाजी’ को आलोक धन्वा सामंतों का लठैत घोषत कर चल निकले। मुझे भी साथ ले लिया।

रास्ते में नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहा- ‘चलिए राजू भाई, आज पैसों की दिक्कत नहीं है।’ बेली रोड स्थित बेलट्रॉन भवन में कोई कार्यशाला चली थी, उसके पैसे थे उनके पास। मैं ‘न’ कह पाया और चल दिया। डाकबंगला के पास पहुंच कर एक साफ-सुथरी (महंगी भी) दुकान से ब्रेड और नाश्ते का अन्य सामान लिया। अपने घर के पास हरा चना भी खरीदा। हम दोनों घर में दाखिल हुए। मुझे ड्राइंग रूप में बिठा कर खुद एप्रन में बंधे किचेन में जा घुसे। हमलोगों ने साथ-साथ नाश्ता लिया। उन्होंने अपनी मशहूर काली चाय भी पिलाई।

थोड़ा निश्चिंत होने पर मैंने पूछा ‘घर में कहीं ‘क्रांति’ नहीं दिख रही है?’

थोड़ी देर मौन साध कर वे बोले- ‘क्रांति ड्रामा करने गई है।’

2 comments:

Rangnath Singh said...

pahli bar aap ka blog dekha... bahut achha h..

Dr Om Prakash Pandey said...

That day ,you ,Alokdhanwa and I left Swaroop Vidya Niketan together. I came home and you two went somewhere together . He was a bit agitated and said that one of his brothers was a wrestlers . Why did he need to say this ? However, is it necessary that a poet and the man in him both should be the same ?