Wednesday, November 4, 2009

कौन कहेगा ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं...’

राजू रंजन प्रसाद


कुछ साल पहले अस्पताल से लेकर कॉलेज तक की दीवारों पर लिखा होता था, ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं।’ जनवादी और प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ सांप्रदायिकता को बल प्रदान करने वाले एक से बढ़ कर एक लेखों के ढेर लगाए जा रहे थे। विकृत मानसिकता को तरजीह दी जा रही थी और बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों तक में सांप्रदायिक रंग भरे जा रहे थे। यह मानवीय मूल्यों और चेतना का संकट है। यह विचारों की स्वच्छता, आत्मा की पवित्रता और इन सबसे एक कदम आगे बढ़ कर एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के अस्तित्व का सवाल है। ऐसे में गांधीजी को याद करने का मतलब होगा सांप्रदायिकता विरोधी अभियान चलाना, हर ऐन मौके पर फिरकापरस्त ताकतों को शिकस्त देना, मात देना।

हालांकि कुछ लोग गांधीजी के सांप्रदायिकता संबंधी दृष्टिकोण के बारे में दूसरे ही तरह का खयाल रखते हैं। रजनी पाम दत्त जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों का मानना है कि ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अपील करते हुए भी गांधीजी एक ऐसे राष्ट्रीय नेता के रूप में नहीं बोलते थे जो दोनों संप्रदायों में एक होने की भावना पैदा करता है। वह हिंदू नेता के रूप में बोलते थे, जो हिंदुओं को ‘‘हमलोग’’ कहता था, और मुसलमानों को ‘‘वे लोग’’।’

गांधीजी एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति थे। उनका धर्म लोगों से प्यार करने को कहता था, उनका धर्म उन्हें मानवता की पूजा करना बताता था। उनका धर्म कभी नहीं कहता था कि एक धर्म की रक्षा दूसरे धर्मावलंबी की हिंसा/हत्या के बाद ही हो सकती है। अहिंसा, सदाचार और अपने दुश्मनों तक को प्यार करने की नीति उनके धर्म के आदर्श थे। इस मायने में अगर कहा जाए तो वे एक सच्चे धार्मिक थे, एक संत थे, जिसकी मिसाल भारत क्या, इस पूरे संसार में भी बहुत कम ही है। अक्सर सांप्रदायिक दंगों के लिए धर्म को गुनहगार ठहराया जाता रहा है। लेकिन जब कभी सांप्रदायिक दंगों के मूल कारणों की खोज की दिशा में पहल होती है तो एक व्यापक संदर्भ में सामाजिक-आर्थिक कारण ही हाथ लगते हैं।

धर्म तो मात्र एक बहाना है, जिसकी आड़ में स्वार्थी तत्त्व अपने हितों की पटरी बैठाते हैं। दंगे की जड़ में अगर धर्म होता तो गांधी निस्संदेह दुनिया के सबसे बड़े दंगाई या फिरकापरस्त होते। लेकिन यह क्या है कि भारत के किसी भी क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगा भड़क जाने पर यह विचार किए बगैर कि इलाका हिंदू का है या मुसलमान का, अमन कायम करने पहुंच जाते थे? कभी-कभी तो महीनों तक अन्न तक का त्याग कर देते।

सांप्रदायिक दंगों की जड़ में धर्म नहीं है, इसे स्पष्ट करते हुए गांधीजी ने एक बार ‘हरिजन’ में लिखा था- ‘मुझे लगता है कि सांप्रदायिक दंगे का कारण हिंदू-मुसलमान का आपसी विद्वेष नहीं है, बल्कि इसके कारण अंग्रेजी राज द्वारा जनता का शोषण, करों का भारी बोझ और इसी तरह के अन्य असंतोष हैं।

कुछ लोग गोकशी/गोहत्या को भी सांप्रदायिक दंगों का एक प्रमुख कारण मानते हैं। डॉ अखिलेश कुमार ने अपनी पुस्तक ‘कम्युनल रॉयट्स इन मॉडर्न इंडिया’ (दरअसल, यह काम बिहार के दंगों पर है, लेकिन प्रकाशक ने व्यावसायिक कारणों से ‘मॉडर्न बिहार’ की जगह ‘मॉडर्न इंडिया’ प्रकाशित कर दिया। यहां यह जोड़ देना मुनासिब है कि बिहार के दंगों पर यह संभवतः पहली और अकेली पुस्तक है।) में सप्रमाण दिखाया है कि गोकशी/गोहत्या कहीं से भी हिंदू-मुस्लिम विद्वेष का असली कारण नहीं है। अगर सवाल सिर्फ गोहत्या का होता तो हिंदू अंग्रेजों का भी विरोध करते क्योंकि गोमांस उनके भोजन में प्रमुखता से शामिल था। डॉ कुमार ने जोर देकर लिखा है कि गोकशी को लेकर हिंदुओं ने अंग्रेजों का कभी विरोध नहीं किया। यह सांप्रदायिक तनाव सिर्फ हिंदू-मुसलमान के बीच देखा जाता था। गांधीजी ने तो लिखा भी है- ‘मैं यह समझने में सदा असमर्थ रहा कि अंग्रेजों द्वारा की जा रही गोकशी का हम विरोध क्यों नहीं करते? हमारे गुस्से में इजाफा तब होता है, जब गोहत्या कोई मुसलमान करता है।’

यह सही है कि सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगा के मामले में गांधीजी की दृष्टि बहुत साफ नहीं थी और हमें बहुत दूर ले भी नहीं जाती। इसका कारण शायद यह हो कि वे आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को एक सही संदर्भ में विश्लेशित कर पाने में असमर्थ थे। लेकिन इतना तो फिर भी मानना पड़ेगा कि धर्म को इसका कारण मानने के लिए वे तैयार न थे।

हिंदू-मुसलमान दोनों ही संप्रदायों के उच्च वर्ग के लिए गोकशी/गोहत्या कोई समस्या नहीं रही। इसको स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद ने ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ शीर्षक लेख में लिखा था- ‘शायद ऐसे बहुत कम राजे-महाराजे या विदेश में शिक्षा प्राप्त करने वाले हिंदू निकलेंगे जो गोमांस न खा चुके हों। और उनमें से कितने ही आज हमारे नेता हैं, और हम उनके नामों का जयघोष करते हैं।’ कहना होगा कि पंडित मोतीलाल नेहरू भी कई मौकों पर गोमांस का स्वाद चख चुके थे। खुद गांधीजी ने स्वीकार किया है कि यूरोप प्रवास के दिनों में गोमांस खाते-खाते बचे। ऐतिहासिक तथ्य है कि ‘गौरक्षिणी समिति’ की स्थापना से पहले गोकशी समाप्त करने पर उत्तर प्रदेश के एक स्कूल शिक्षक ने काफी जोर दिया है।

हिंदू-मुस्लिम दंगों की जड़ सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में निहित थी। प्रथम विश्व युद्ध के आसपास हिंदू-मुस्लिम दंगों का मुख्य कारण गोकशी/गोहत्या है। इस तरह के दंगों का केंद्र पशु मेला हुआ करता था। बिहार के ऐसे पशु मेलों में सोनपुर, बराहपुर और ऐनखांव के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हिंदू संप्रदाय के निम्न मध्य-वर्ग के लोगों के बीच ही सांप्रदायिक तनाव की स्थिति थी। संभवतः इन लोगों के बीच यह भ्रांत धारणा बैठा दी गई थी कि गोकशी/गोहत्या के कारण पशुओं की कीमत में वृद्धि हो जा रही है।

मुसलमानों के बीच निम्न मध्य-वर्ग के लोग चमड़े के व्यापार में लगे थे। गोहत्या पर पाबंदी से उनके व्यापार-व्यवसाय को धक्का पहुंचने का डर व्याप्त था। इसलिए गोकशी का संबंध धर्म से कम आर्थिक हितों से ज्यादा था।

इस नजरिए से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो धर्म कहीं से भी सांप्रदायिक दंगों या वैमनस्य का कारण नहीं है। हालांकि दंगा शुरू हो जाने के बाद अक्सर इसे ही मूल कारण का जामा पहना कर पेश किया जाता रहा है। यह हमारे सांप्रदायिक लीडरानों की करतूत है और अप्रत्यक्ष उनकी भी जो ‘धर्मनिरपेक्षता’ की ‘दुकान’ को जिंदा रखने में विश्वास रखते हैं। गांधीजी ने एक बार कहा था- ‘अगर हमारे नेतागण आपस में भाईचारा कायम कर लें तो शायद सांप्रदायिक तनाव खत्म हो सकता है।’ गांधीजी के इस वक्तव्य के दो अर्थ निकलते हैं। पहले अर्थ के बारे में कहा जा सकता है कि गांधीजी का यह अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण था, जो सांप्रदायिकता की समस्या का हल राजनीतिज्ञों के हेल-मेल में ढूंढ़ता था। दूसरा अर्थ कहीं ज्यादा दुखद और अनर्थकारी है जो ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेताओं की पोल खोल देता है।

धर्म सांप्रदायिक दंगों का कारण नहीं है, लेकिन जनता की सदियों पुरानी एकता को भी तोड़ डालने का सबसे कारगर अस्त्र अवश्य है। बिहार राज्य अभिलेखागार के पॉलिटिकल स्पेशल फाइल नंबर 112/1918 में एक अत्यंत ही मजेदार घटना का हवाला दर्ज है। उसमें लिखा है कि दंगा करने वाले लोग ‘अंग्रेजी राज उठ गया’ और ‘जर्मन की जय’ के नारे लगा रहे थे। इस तरह की साम्राज्य-विरोधी चेतना को तोड़ने के लिए सरकार ने अनेक स्थलों पर प्रायोजित तरीके से मंदिरों-मस्जिदों को तुड़वाया। तब सीआईडी की रिपोर्ट आई कि जर्मनी और इंग्लैंड की समस्या से विरत हो लोग सांप्रदायिक दंगों में मशगूल हो चुके हैं। यह प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों की बात है।

बिहार के जहानाबाद जिले के अंतर्गत मथुरा सिंह नाम के एक विख्यात ‘हिंदू नेता’ थे। उनके बड़े लड़के ने ‘साक्षात्कार’ के क्रम में इस बात पर जोर दिया कि उनके पिता को मुसलमानों से कोई ऐतराज नहीं था, जबकि वे उस क्षेत्र के लगभग सारे दंगों में शामिल थे। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि ‘उनके पिताजी कभी मुसलमानों का कत्ल करते तो कभी उसकी रक्षा भी करते, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य कत्ल करना ही नहीं होता।’ दंगों के दौरान मंदिर-मस्जिद अगर आक्रमण का केंद्र बनते हैं तो इसका कारण शायद यही है कि वे धन-दौलत के साथ-साथ हथियार के भी केंद्र होते हैं। ‘गोल्डेन टेंपल’ इसका हाल का उदाहरण है।

गांधी और सांप्रदायिकता पर बात करते इतना तो कहा ही जा सकता है कि उनके स्वभाव और आचरण के कुछ खास ऐसे नियम थे जिसके फलस्वरूप जनसाधारण मुसलमान के अंदर असुरक्षा का डर पैदा होता था। स्वराज्य की चर्चा करते गांधीजी ‘रामराज्य’ पर विशेष बल देते। ऐसा वे अपने ‘विशुद्ध धार्मिक’ संस्कारों की वजह से करते। लेकिन मुसलमान भाइयों को लगता कि वे आजाद भारत में ‘हिंदू राज’ की स्थापना की बात कर रहे हैं। मुसलमानों के एक अत्यंत ‘आधुनिक’ (धर्मनिरपेक्ष नहीं) नेता जिन्ना ने इस डर को व्यक्त करते हुए कहा था- ‘गांधीजी का लक्ष्य मुसलमानों की सभ्यता और संस्कृति को समाप्त कर भारत में हिंदू राज स्थापित करना है।’ आगे और भी कहते हैं- ‘उनकी मनसा ये नहीं है कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ दिया जाए, बल्कि वे अंग्रेजों की देखरेख में मुसलमानों पर शासन करने की छूट पा लेने की कोशिश मात्र में हैं।’ यह कहना क्षम्य है कि गांधीजी के आचार-विचार के नियमों से सांप्रदायिक तनाव में वृद्धि हो जाया करती थी। लेकिन ‘गांधीजी की ऐसी मनसा थी,’ ऐसा कहना मनगढ़ंत, अनैतिहासिक और अनर्थकारी होगा।

जब-जब व्यवस्था-विरोधी संघर्ष तेज हुआ है, तब-तब भूख के मूल मसले को परे धकेल कर धर्म के मसले को सामने कर दिया जाता रहा है। कोई रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद लेकर आता है तो कोई इसके बंद ताले को ‘सरकारी कुंजी’ से खोलने की कोशिश करता है। मंदिर हो या मस्जिद- सभी मनुष्य के जीवन में मनुष्य के बाद ही स्थान पाने के हकदार हैं। लेकिन कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि गाय-सुअर, मंदिर-मस्जिद सभी बने रहेंगे, केवल इसके नाम पर अपनी जान देने वाले भोले-भाले हिंदू-मुसलमान न बचेंगे। और तब ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ के उदघोष के लिए कोई ‘हिंदू’ भी बचा न रह सकेगा।

5 comments:

अनुनाद सिंह said...

अरे राजू भैया, यही सब 'जनवाद', 'प्रगतिशीलता', 'डायलेक्टिक मैटेरिआलिज्म', 'वर्ग संघर्ष', 'सर्प्लस पूंजी' आदि की घुट्टी पिलाते हुए सोवियत संघ दुनिया के नक्षे से गायब हो गया। उसकी चिन्ता करिये कहीं भारत की सभ्यता और संस्कृति के ये परम्परागत द्वेषी और चीन-पाकिस्तान के परम्परागत सनेही कहीं भारत से भी वुलुप्त न हो जाँय। 'हिन्दुत्व' ने तो बड़ी-बड़ी' आँधियों को भी झेलकर आज दुनिया के सामने खड़ा है । इसलिये गर्व से अपने को हिन्दू कहने वाले कभी भी रहेंगे। यह सनातन समाज है; इसके नियमों में मार्क्सवाद जैसा 'डोग्मा' नहीं है - इनमें गजब का लचीलापन है।

Pramendra Pratap Singh said...

अभी आपको पढ़ नही पाया हूँ, आपको फालो कर लिया हूँ, समय निकल कर आपको जरूर पढूँगा/

दिनेशराय द्विवेदी said...

सही है!

राजू रंजन प्रसाद said...

anunaad babu, aapke jitna computer firendly nahi na, isliye waqt par aapka aadesh nahi maan saka. aapke doosre comment ko publish nahi kar raha hoon. apke pahle comment se logon ko khud hi vichar karna chahiye ki aapne is comment ke samay par publish nahi hone par doosre comment me kya ultiyan ki hongi...
dhanyawad...

vivek said...

Muche Garv hai ki main hindu hoon.
Tumhai tarah ka chadam darmnirpeksh nahi