Monday, January 4, 2010

एक गधा जब नेहरू से मिला...

(नेहरु और गधे की ऐतिहासिक बातचीत)



मैंने लोगों से सुन रखा था कि पंडितजी से मुलाकात का समय सुबह साढ़े सात-आठ बजे से पहले का है। उसके बाद जो मुलाकातियों का तांता शुरू होता है तो फिर किसी समय भी एक-आध मिनट के लिए बात करना असंभव होता है। यही सोच कर मैं उस दिन रात-भर जागता रहा और विभिन्न रास्तों से घूम-फिर कर पंडितजी की कोठी तक पहुंचने का प्रयत्न करता रहा। कोई छह बजे के लगभग मैं उनकी कोठी के बाहर था। संतरियों ने मेरी ओर लापरवाही से ताका। शायद मैं उन्हें बिल्कुल मामूली गधा नजर आता होऊंगा। पहले तो मैं दीवार से लग कर धीरे-धीरे घास चरता रहा और धीरे-धीरे दरवाजे की ओर सरकता रहा। जब मैं दरवाजे के बिल्कुल निकट पहुंच गया तो संतरियों ने हाथ उठा कर लापरवाही से मुझे डराया जैसे आम तौर पर गधों को डराया जाता है। मैंने सारी योजना पहले से सोच रखी थी। उनके डराते ही मैंने कुछ यह प्रकट किया कि मैं बिल्कुल डर गया हूं। अतएव मैं तड़प कर उछला और सीधा कोठी के भीतर हो लिया। संतरी मेरे पीछे भागे। वे मेरे पीछे-छे और मैं उनके आगे-आगे। जब मैं बाग तक जा पहुंचा तो संतरियों ने एक गधे का वहां तक पीछा करना व्यर्थ समझ कर माली को आवाज दे दी कि वह मुझ गधे को बाग से बाहर निकाल दे और यह कह कर वे बाहर गेट पर जा खड़े हुए, जहां उनकी ड्यूटी थी।

माली ने मुझे घूर कर देखा। उस समय वह एक खुरपी लिए गुलाब की झाड़ियों के इर्द-गिर्द की घास साफ कर रहा था। उसने जब अपना काम बढ़ते देखा तो उसे बहुत क्रोध आया। चुपके से वह झाड़ियों के पास से उठा और भीतर अपने क्वार्टर से कोई मजबूत-सा डंडा लाने चला गया।

इतने में मैंने देखा कि पंडितजी बाग के बीचोंबीच सड़क पर चलते हुए, बल्कि दौड़ते हुए गुलाब के पौधे की ओर जा रहे हैं। मैंने यह अवसर उचित समझा और हिरन की तरह एक चौकड़ी भरी और पंडितजी के पीछ-पीछे हो लिया।

मैंने धीमे से कहा, ‘‘पंडितजी!’’

पंडितजी आश्चर्य से मेरी ओर मुड़े। जब उन्हें वहां कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दिया तो फिर आगे बढ़ने लगे। मैंने फिर कहा, ‘‘पंडितजी!’’ अबकी पंडितजी ने जरा तीखी चितवन से पीछे देखा और बोले, ‘‘मैं भूतों में विश्वास नहीं रखता।’’

मैंने कहा, ‘‘विश्वास कीजिए, मैं भूत नहीं हूं, एक गधा हूं।’’

जब पंडितजी ने मुझे बोलते देखा तो उनका क्षण-भर पहले का आश्चर्य हर्ष में परिवर्तित हो गया। बोले, ‘‘मैंने इटली के एक घोड़े के बारे में पढ़ा था जो अलजबरा के प्रश्न तक हल कर सकता था। लेकिन बोलने वाला गधा आज ही देखा। मनुष्य का विज्ञान क्या कुछ नहीं कर सकता? बोलो, क्या चाहते हो? मेरे पास अधिक समय नहीं है।’’

मैंने कहा, ‘‘आपसे पंद्रह मिनट के लिए एक इंटरव्यू चाहता हूं। सोचता हूं, कहीं आप इसलिए इनकार न कर दें कि मैं एक गधा हूं।’’

पंडितजी हंस कर बोले, ‘‘मेरे पास इंटरव्यू के लिए एक से एक बड़ा गधा आता है, एक गधा और सही। क्या फर्क पड़ता है? शुरू करो।’’

मैं शुरू करने वाला था कि इतने में माली दूर से डंडा लिए भागता हुआ नजर आया। मैंने माली की ओर देखा, फिर पंडितजी की ओर। पंडितजी समझ गए। उन्होंने हाथ के इशारे से माली को रोक दिया और स्वयं टहलने लगे। मैंने रामू धोबी की दुख भरी कहानी संक्षिप्त शब्दों में सुना दी। पंडितजी बहुत प्रभावित हुए। कहने लगे, ‘‘इस मामले में सरकार कुछ नहीं कर सकती, मगर मैं अपनी जेब से एक सौ रुपया दे सकता हूं।’’

यह कह कर उन्होंने जेब से एक सौ रुपये का नोट निकाला और मेरे लंबे कान के भीतर उड़स दिया।

मैंने कहा, ‘‘पंडितजी! स्वर्गीय किदवई भी इसी प्रकार दान दिया करते थे। इससे सैकड़ों लोगों का भला तो जरूर हो जाता है लेकिन है तो यह दान ही।’’

बोले, ‘‘दान तो है।’’

मैंने कहा, ‘‘दान बंद होना चाहिए। हर भारतवासी का यह अधिकार होना चाहिए कि जब वह मरे तो उसके बाद राज्य उसके बीवी-बच्चों के निर्वाह का प्रबंध करे। इसे स्वतंत्रता के मूल सिद्धांतों में से एक होना चाहिए।’’

‘‘सिद्धांत तो ठीक है।’’ पंडितजी बोले, ‘‘लेकिन सिद्धांतों को व्यवहार में लाने के लिए खून-पसीना एक करने की जरूरत है। इसके लिए बहुत कम लोग तैयार होते हैं। वैसे तुम्हारी तरह लोग क्रांति की बातें बहुत करते हैं, लेकिन रामू धोबी की विधवा को पेंशन देने के लिए राष्ट्र के पास इससे कहीं अधिक राष्ट्रीय धन होना चाहिए, जितना आजकल उसके पास है। इस राष्ट्रीय धन को बढ़ाने के लिए हमने पंचवर्षीय योजना तैयार की है, जिसके आधार पर देश भर में काम हो रहा है, लेकिन लोगों में वह उत्साह नहीं, जिसकी मुझे आशा थी।’’

मैंने कहा, ‘‘लोगों में आपके प्रति असीम आदर है। आपकी बताई हुई योजनाओं से अत्यंत लगाव है। आपका हर आदेश उनके सिर-माथे पर होता है। आप संसार-भर में शांति स्थापित करने के लिए जो प्रयत्न कर रहे हैं, उसमें न केवल भारत के लोग, बल्कि समस्त देशों के लोग आपसे स्नेह करने लगे हैं।’’

पंडितजी मुस्कुराए, बोले, ‘‘गधे होने के बावजूद तुम बातें अच्छी बना लेते हो।’’

मैंने कहा, ‘‘आज मैं संसार के एक महान राजनीतिज्ञ के सामने खड़ा हूं। जाने फिर कभी ऐसा अवसर न मिले। इसलिए क्यों न अपने मन की बात आपसे कह डालूं। पंडितजी, आपकी वैदेशिक-नीति की सफलता सर्वमान्य है। राष्ट्रीय जीवन में भी आपकी स्वदेश-भक्ति जन-मित्रता और राष्ट्रीय सेवा से इनकार नहीं किया जा सकता। जो कोई ऐसा करेगा, मुंह की खाएगा। इस थोड़े-से समय में ही आप भारत को जिस शिखर पर ले गए हैं, उससे आपके कंधों की मजबूती का पता चलता है। लेकिन पंडितजी! क्या यह काफी है? एक राष्ट्र, एक बड़ा राष्ट्र, शूरवीर राष्ट्र, भारत ऐसा सभ्य राष्ट्र कब तक एक व्यक्ति के सहारे चलेगा ? क्या आप विष्वास से कह सकते हैं कि यदि आपने अपने शासन में उचित परिवर्तन न किए तो आपके बाद भारत की वही दशा न होगी जो अषोक और अकबर के बाद हुई थी?’’

‘‘अशोक और अकबर बादशाह थे। आज भारत में जनतंत्र है।’’ पंडितजी ने मुझे याद दिलाया।

‘‘केवल वोट से जनतंत्र नहीं होता। आज भारत में जो राज्य है, मैं उसे अधिक से अधिक नेहरु के आत्म-बलिदान के नाम से पुकार सकता हूं। आत्म-बलिदान सदैव व्यक्तिगत होता है। वह केवल एक व्यक्ति की ओर देखता है और जब वह व्यक्ति...व्यक्ति न रहे तो फिर क्या होगा? पंडितजी! मुझे इससे बहुत भय आता है।’’

‘‘मैं इस प्रश्न का उत्तर पहले ही दे चुका हूं।’’ पंडितजी ने कहा, ‘‘मैं नहीं समझता कि मेरे प्यारे देश की जनता मेरे बाद कोई इतना बड़ा नेता उत्पन्न नहीं कर सकती जो परिस्थितियों को संभाल न सके। मुझे अपनी जनता पर भरोसा है।’’

‘‘आपका भरोसा अनुचित नहीं लेकिन इसे व्यवहार में लाने के लिए भारतीय जनता की रचनात्मक शक्तियों को जगाने के लिए क्या यह जरूरी नहीं है कि इसके लिए अभी से कदम उठाया जाए? क्षमा कीजिएगा पंडितजी! मुझे आपके सरकारी अधिकारियों में कोई रामू धोबी, कोई जम्मन चमार, कोई ढोंढू मिल मजदूर नजर नहीं आता। कार वाले बहुत नजर आते हैं, गधे वाला एक भी नजर नहीं आता। अगर राष्ट्रीय धन को बढ़ाना है, अगर राष्ट्रीय योजनाओं को उत्तरोत्तर सफल बनाना है, अगर आप चाहते हैं कि देश की उन्नति दिन दूनी रात चौगुनी हो, तो इस राज्य-प्रणाली को बदलना होगा-ऊपर से नीचे तक। जनता के समस्त वर्गों को, समस्त स्तर पर, ऊपर से नीचे तक प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा और एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार का निर्माण करना पड़ेगा, जिसमें देश की पूरी जनता-पूंजीपतियों से कांग्रेसियों तक और कांग्रेसियों से साम्यवादियों तक सब शामिल हों। केवल ऐसी सरकार ही देश में उत्साह की लहर दौड़ा सकती है। आज जो काम दस या पन्द्रह वर्ष में, बहुत-सी आर्थिक हानि और बहुत-सी रिश्वतखोरी के साथ होता है, कम से कम हानि और कम से कम रिश्वतखोरी और कम से कम समय में पूरा हो जाएगा। काम की गति बहुत बढ़ जाएगी, क्योंकि जनता हर स्तर पर राज्य-अधिकारियों में मौजूद होगी। इस समय मजदूरों से लेकर राज्य-मंत्रियों तक की एक ऐसी संगठित सरकार की अत्यंत आवश्यकता है।’’

पंडितजी मुस्कराए, बोले, ‘‘मैंने सोचा था तुम मेरा इंटरव्यू लोगे। मालूम होता है, तुम इंटरव्यू लेने नहीं, देने आए हो।’’

मैं घबरा कर चुप हो गया। बात सच कही थी उन्होंने।

मुझे चुप देख कर बोले, ‘‘नहीं-नहीं, कहो-कहो, मैं तो हमेशा से विद्यार्थी रहा हूं। मैं तो एक गधे से भी कुछ न कुछ सीख सकता हूं।’’

मैंने कहा, ‘‘मैं आपको क्या सिखाऊंगा! सूरज के सामने चिराग क्या जलेगा! लेकिन मैं चूंकि एक गरीब आदमी का गधा हूं, जीवन-भर भूख का शिकार रहा हूं, मुझे मालूम है कि जो दर्द आपके दिल में मौजूद है, वह हमारी दशा को, हमारी प्रतिदिन की दशा को देख कर ही आपके दिल में पैदा होता है। इसलिए जो बात आप कहते हैं, वह मानो हमारे दिल से निकलती है। लेकिन मुसीबत यह है कि आपके और हमारे बीच जो बाड़ लगाई गई है, जो मशीनरी खड़ी की गई है, वह अत्यंत प्रतिक्रियावादी, मंद गति से चलने वाली, बल्कि प्रायः आपकी अवज्ञा करने वाली है; इसलिए इस मशीनरी के भीतर जो शक्तियां काम करती हैं, वे हमारे विचारों की विरोधी हैं। अब तक जो काम होता है वह आपके भय से होता है। मुझे भय है कि जब आप हमारे बीच न होंगे, उस समय यह भय भी न रहेगा और वे लोग अपनी मनमानी कर गुजरेंगे- यदि अभी से इसके लिए प्रबंध न किया गया।’’

‘‘तुम्हारा मतलब मेरे साथियों से है ?’’

मैंने कहा, ‘‘जो साथी आपने लिए हैं और जो आपकी ‘सेकंड लाइन ऑफ डिफेंस’ हैं, वे आयु में और नेतृत्व में आपसे भी बूढ़े हैं और शायद आपसे पहले भुगत जाएंगे। मगर मेरा मतलब उन लोगों से नहीं है, मेरा मतलब एक संगठित राष्ट्रीय सरकार की स्थापना से है। केवल ऐसी सरकार ही आगामी बीस-तीस वर्ष में भारत को आगे ले जा सकती है, जिसमें पूरे का पूरा राष्ट्र अपने विभिन्न वर्गों तथा तत्वों के साथ राष्ट्रीय हित तथा उन्नति के लिए सम्मिलित हो।’’

पंडितजी ने कहा, ‘‘मैं नहीं मानता, सरकार की मशीनरी मेरा साथ नहीं देती, कोई उदाहरण दो।’’

मैंने कहा, ‘‘जितने उदाहरण चाहे ले लीजिए। आप अपनी योजना में प्राइवेट सेक्टर को कम पब्लिक सेक्टर को अधिक रखना चाहते हैं, मगर प्राइवेट सेक्टर बढ़ रहा है और प्राइवेट सेक्टर में भी विदेशी धन बढ़ रहा है। जूट, चाय, बैंक-धन के अतिरिक्त अभी-अभी पच्चीस करोड़ रुपए की लागत से दो तेल की रिफाइनरियां खुली हैं।’’

‘‘हम उन पर पूरा कंट्रोल करेंगे।’’ पंडितजी ने क्रोध से कहा।

‘‘अगर एंग्लो-इरान कंपनी की तरह हमारा हाल हुआ तो ? कहीं ऐसा न हो कि उसे कंट्रोल करते-करते हमारा प्रधानमंत्री भी डा. मुसद्दिक की तरह क्षीण हो जाए।’’

‘‘तुम बिल्कुल गधे हो।’’ पंडितजी ने क्रुद्ध होकर कहा, ‘‘तुम पुराने क्लासिकल क्रांतिकारियों की-सी बातें करते हो भारत की विशेष परिस्थितियां नहीं देखते। यहां की जनता की विशेष मनोवृत्ति का अध्ययन नहीं करते। इनकी शांतिप्रियता तथा अहिंसा के प्रति गहरे प्रेम के प्रमाण नहीं देखते। यहां भारत में, काम धीरे-धीरे होगा। धीरे-धीरे समाज का ढांचा बदलेगा। धीरे-धीरे राष्ट्र के प्रति कत्र्तव्यों का रूप बदलेगा। धीरे-धीरे इनमें सामाजिक लचक पैदा होगी, जो एक माॅडर्न समाज की विषेशता है। यह सब काम एक दिन में नहीं हो सकता। भारत में क्रांतिवादी शक्तियां भारत के विशेष राष्ट्रीय स्वभाव में समो कर और रच-बस कर ऊपर उभरेंगी। बाहर का पैबंद नहीं लगेगा। मैं तुमसे साफ-साफ कहे देता हूं, गधे! धीरे-धीरे सब काम होगा।’’

‘‘तब तक रामू की बीवी का क्या होगा? उन बच्चों का क्या होगा, जिन्हें इस देश में नौकरी नहीं मिलती, काम नहीं मिलता, जो विवश होकर इस देश से बाहर चले जाते हैं। फिर इस देश की बढ़ती हुई बेकारी का क्या होगा ? हर प्रदेश के आंकड़े देखिए; अभी थोड़े दिन हुए उत्तर प्रदेश की सरकार ने स्वीकार किया था कि उसके प्रदेश में बेकारी बढ़ रही है।’’

‘‘मेरे पास कोई छू-मंतर नहीं है कि एक दिन में भारत की दशा बदल डालूं। ऐसा आज तक किसी देश में नहीं हुआ है। पच्चीस-तीस साल से पहले देश की दशा इतनी जल्दी नहीं बदल सकती। हर देश का इतिहास यही कहता है। खून-पसीना एक कर देने से राष्ट्रीय धन तथा शक्ति बढ़ती है।’’ फिर मेरी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘‘तूने पंद्रह मिनट से अधिक ले लिए। अब मैं जाता हूं।’’

मैंने कहा, ‘‘पंडितजी! आपसे एक निवेदन है। संभव है इंग्लैंड में आपने गधों की सवारी की हो, लेकिन भारत में तो मैंने नहीं सुना कि आप गधे की पीठ पर सवार हुए हों। मेरा अहोभाग्य होगा अगर आप...’’

पंडितजी ने मुझे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया। उचक कर मेरी पीठ पर बैठ गए और कुछ समय तक मुझे बाग के इर्द-गिर्द ऐसा दौड़ाया, ऐसा दौड़ाया कि मेरा सांस फूल गया। आखिर मैंने हार मान ली, ‘‘भगवान के लिए, पंडितजी, अब तो उतर जाइए।’’ मैंने बार-बार कहा।

वह हंस कर एकदम उतर पड़े, बोले, ‘‘अब बता! मंद गति से चलने वाला कौन है?’’

इसके बाद वह मेरी ओर से मुड़े और मैंने देखा कि बरामदे में कुछ विदेशी दूत और दो-एक फोटोग्राफर टहल रहे थे और पंडितजी की गधे की सवारी करने के फोटो ले रहे थे। दो-एक सेक्रेटरी लोग बड़ी परेशानी से टहल रहे थे। नेहरु जी मेरी पीठ थपकाकर उधर चले गए। जाते-जाते मुझसे कह गए, ‘‘उस धोबिन को वह सौ का नोट जरूर पहुंचा देना।’’

मैं बड़े गौरव से दुलकी चाल चलता हुआ पंडितजी की कोठी से बाहर निकला। क्यों न हो, आखिर भारत के प्रधानमंत्री से मुलाकात करके आया था। बाहर आते ही मुझे प्रेस के नुमाइंदों और फोटोग्राफरों ने घेर लिया।
(कृष्ण चंदर की ‘एक गधे की आत्मकथा’ से।)

2 comments:

Udan Tashtari said...

आभार इस अंश को प्रस्तुत करने का....


’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

-सादर,
समीर लाल ’समीर’

Mishra Pankaj said...

bahut sundar vyang