Friday, January 8, 2010
कहां है चित्रकला आलोचना की भाषा...?
इन दिनों कला आलोचना की भाषा मेरी चिंता में शामिल रही है। कई बार तो ऐसा लगता है, और जो शायद बिल्कुल सही भी है कि इतने सारे कला आन्दोलनों के बाद भी भारत के चित्रकला समीक्षकों ने आलोचना का अपना कोई निश्चित प्रतिमान नहीं गढ़ा है। यह कला आंदोलनों के इकहरेपन का भी स्पष्ट संकेत है।
चित्रकला आलोचना की अपनी कोई भाषा विकसित न हो सकी इसके बहुत सारे संभव कारण हो सकते हैं, लेकिन जो एक-दो महत्वपूर्ण कारण रहे हैं, उन पर केंद्रित होकर अगर निश्चित और सही परिप्रेक्ष्य में बात शुरू की जाए तो उसकी वाजिब समस्याओं से हम परिचित हो सकते हैं और उसकी चुनौतियों को स्वीकार करने का साहस भी दिखा सकते हैं।
कहना होगा कि हमारे यहां कला के क्षेत्र में सबसे विकसित विधा साहित्य है, इसलिए अन्य कला-माध्यमों विधाओं पर भी इसके अपने प्रभाव हैं। इस प्रभाव को चाहकर भी रोका नहीं जा सकता। भारत में अब तक के अधिकतर चित्रकला समीक्षक प्रथमतः या मूलतः साहित्यकार रहे हैं। साहित्य-साधना उनकी मुख्य चिंता रही है- चाहे वे प्रयाग शुक्ल हों या फिर विनोद भारद्वाज, लगभग सारे ही लोग अपना अधिकांश समय साहित्य ही को देते रहे हैं। निश्चित रूप से चित्रकला माध्यम को इन लोगों के देखने-परखने का ढंग साहित्यिक गतिविधियों, आचरणों और चिंतनधारा से अप्रभावित नहीं होगा।
अब तक चित्रकला आलोचना की मजबूरी रही है कि साहित्य के अंदर जो ‘वाद’, ‘धारा’ या ‘प्रतिमान’ प्रचलन में रहे हैं, यहां भी ठीक उन्हीं जुमलों को दुहरा दिया जाता रहा है। इससे ऐसा लगता है कि चित्रकला समीक्षा मूल रूप में भारतीय हिन्दी साहित्य की नकल या रूपांतरण है। दुर्भाग्य कहिए कि हिन्दी आलोचना जगत के प्रतिमानों के आधार पर ही भारतीय चित्रकला का भाग्य-निर्धारण वर्षों से होता चला आ रहा है।
प्रयाग शुक्ल जब ‘समकालीन कला’ पत्रिका के एक अंक में रामकुमार की चित्रकृतियों का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे थे तो लगा जैसे वे महज साहित्यिक लेखा-जोखा ही दे पा रहे हों। संयोग ही कहिए कि रामकुमार एक अच्छे कहानीकार भी हैं और चित्रकला की दुनिया में भी एक बेहतर पहचान है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं होता कि रामकुमार की कहानियों, उनके उपन्यासों को आधार बनाकर या ठीक उसी के सांचे में उनकी चित्रकला का भी मूल्यांकन किया जाये। हमारा यह मानना कभी नहीं हो सकता कि एक कलाकार के लेखन-कर्म से, उसके दस्तावेजों और संस्मरणों से हम उनकी कला को जानने-समझने में कोई मदद नहीं ले सकते। इससे बचने की कोशिश से उतना ही बड़ा अनर्थ होगा, जितना कि उसके साहित्य में व्याप्त निराशा, ठहराव और पस्तहिम्मती को हू-ब-हू उनकी पेंटिंग में इंगित कर देना। दोनांे ही प्रवृत्तियां घातक हैं। अतः इनसे भरसक बचने की कोशिश होनी चाहिए।
रामकुमार की चित्रकृति का विश्लेषण प्रस्तुत करते प्रयाग शुक्ल इसी प्रवृत्ति के शिकार हुए हैं। हम ऐसा भी नहीं कह सकते कि एक ही आदमी अगर साहित्य और चित्रकला पर साथ-साथ काम कर रहा हो तो दोनों कला-माध्यम एक दूसरे से अप्रभावित रह सकेंगे। और षायद यह भी कि वैसे में एक कला-माध्यम दूसरे कला-माध्यम का महज रूपांतरण अथवा अनुवाद होगा। प्रायः प्रत्येक कला की अपनी एक सीमा-रेखा होती है, जिसके परे सभी एक-दूसरे से संपर्क कायम रखते हुए भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखते हैं।
चित्रकला और साहित्य की प्रकृति में भिन्नता है। साहित्य के साथ सबसे बड़ी सुविधा यह है कि उसके व्यापक प्रकाशन-प्रसार की वजह से प्रत्येक पाठक उसे खरीदकर अपने पास रख सकता है। अपनी इच्छा और सुविधा के मुताबिक उसे पलटकर देख-पढ़ भी सकता है। किसी भी टेक्स्ट के साथ मजेदार बात यह है कि जब भी हम उसे पढ़ते हैं, एक नये सिरे से हमारा उसके साथ संवाद शुरू होता है। प्रायः हर बार हमारे ज्ञान में कुछ न कुछ इजाफा होता ही है, नये-नये आयाम और अर्थ उद्भाषित होते हैं। चित्रकला के साथ यह सुविधा नहीं है। किसी चित्रकृति के बारे में जब भी हम बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं, उसका अर्थ-भेद खोलना चाहते हैं, समस्या ज्यों की त्यों बनी की बनी ही रह जाती है। दर्शक जब कला-प्रदर्शनियों में एक बार आता है तो पहली ही नजर में किसी कलाकृति के बारे में सोच-जान लेता है-ऐसा नहीं है।
यहां एक अदना दर्शक ही की बात नहीं है बल्कि कभी-कभी बड़े कलाकार या कला-समीक्षक भी हतप्रभ रह जा सकते हैं। और ऐसा संभव है। आनन-फानन में कोई निर्णय देना या राय बनाना मुश्किल ही नहीं कई बार असंभव भी हो जाता है। कलाकृति के साथ बार-बार संवाद स्थापित करने की कोशिश ही इस तरह की संवादहीनता और चुप्पी को खत्म कर पाने में समर्थ हो सकती है। कलाकारों के पास इतनी सामथ्र्य नहीं है कि वे व्यक्तिगत खर्च के आधार पर वैसी चित्रकृतियों को व्यापक दर्शक के समक्ष प्रस्तुत कर सके। भारत जैसे मुल्क में तो ऐसी कृतियां हमारे एलीट बुद्धिजीवियों के बेडरूम ही की शोभा बढ़ाती रह जाती हैं-कला-दीर्घा पहुंचने का भला सौभाग्य कहां !
सच्चाई यह भी है कि अब तक हमारे बीच यह रिवाज ही नहीं कायम हो पाया है कि लोग कला-प्रदर्शनियों में ठीक उसी ढंग से आया-जाया करें जैसा वे सिनेमा हॉल और थियेटरों के साथ बरतते हैं। इसका बहुत कुछ संभव कारण यह भी रहा है कला को लोगों ने मुख्यधारा से बिल्कुल ही अलग काटकर रखा है। इसे विशुद्ध रूप से एलीट संस्कुति का सवाल माना जाता रहा है। इस तरह की अवधारणा के बाद आम जनता के पास वैसी कोई ‘सांस्कृतिक गरिमा’ नहीं होती जिससे वह इन विशुद्ध बौद्धिक और भद्रलोकीय कलाकारों की ‘श्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासत’ के ढोंग को मात दे सके। आम लोगांे के बीच कला के बारे में यह धारणा कि ‘कला वही जो समझ से परे’ हो-कलाकारों की ‘अति बौद्धिक’ हो चुकी दुनिया से आम-जन के निष्कासन ही को अभिव्यक्त करती है।
जब भी चित्रकला से संबंधित कोई लेख पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ तो पाया कि उसमें कलाकृतियों का साहित्यिक विश्लेषण ही प्रमुखता पा गया। कृति के शिल्प,उसकी तकनीक पर तो जैसे कोई बात ही नहीं करता। उसकी शैलीगत विशेषताओं पर तो कला-समीक्षकों की नजर तक नहीं जाती। उनका सारा जोर इस बात को साबित करने पर होता है कि वह किसी महत्वपूर्ण भाव अथवा थीम को अभिव्यक्त कर रहा है। क्या महज भावों की अभिव्यक्ति ही किसी चित्रकृति के लिए सब कुछ है?
लगभग सारे कला-समीक्षक अघोषित रूप से इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि चित्रकला में चूंकि शब्द नहीं होते, इसलिए विचार का इसमें अन्य कला-माध्यमों की तुलना में कुछ ज्यादा ही अभाव पाया जाता है। फिर भी कला-आलोचक विचार और विचारधारा की ठूंस-ठांस ही से काम चलाते हैं। यहां भी हम साहित्यिक विधाओं की आलोचना के प्रतिमानों,औजारों ही से काम चलाते हैं। हमारे समक्ष यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है,जिससे हमारी चित्रकला-आलोचना को टकराना ही होगा,उसकी चुनौतियों को स्वीकार करने का साहस प्रदर्शित करना होगा। बगैर इसके,चित्रकला-आलोचना की एक स्वतंत्र भाषा गढ़ने, उसे विकसित करने में सदैव असमर्थ साबित होते रहेंगे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment