Monday, March 15, 2010

ऐसी खुशफहमी भी ठीक नहीं है, जोशी जी...!



जनसत्ता (6 दिसंबर, 2009) में प्रकाशित मेरे लेख ‘कला-आलोचना की भाषा’ (http://matmatantar.blogspot.com/2010/01/blog-post_08.html) पर दो बिल्कुल ही भिन्न तरह की प्रतिक्रिया दो भिन्न रूपों में आईं। पहली अलिखित, लेकिन दूसरी लिखित।

मैं अपना छपा लेख देख-पढ़ भी न पाया था (पटने में अखबार शाम में उपलब्ध हो पाता है) कि रामसुजान अमर जी (दिल्ली) का फोन आया कि ‘आपके लेख से जनसत्ता पढ़ना शुरू कर रहा हूं। लेख अच्छा है। आपकी चिंता में मेरी चिंता भी शामिल है।’(स्थानीय मित्र डॉ अशोक कुमार की भी ठीक यही प्रतिक्रिया थी)। रामसुजान जी ने फोन ही पर लगभग आध घंटे से भी ज्यादा समय तक एक तरह से चित्रकला आलोचना के इतिहास के बारे में बताया। इस विषय पर उनकी हालांकि तात्कालिक प्रतिक्रिया ही थी, लेकिन जानकारी इतनी समृद्ध कि लेख लिख कर भी मैं अपने को बौना महसूस कर रहा था।

दूसरी प्रतिक्रिया ज्योतिष जोशी जी की जनसत्ता (10 जनवरी, 2010) ही में प्रकाशित लेख की शक्ल में है। इस प्रतिक्रिया को पढ़ने पर मुझे लगा कि जोशी जी को कला आलोचना की ‘भाषा’ गढ़ने की चिंता कम, दूसरी चीजों की ज्यादा है। उन्हें अगर मेरा विश्लेषण ‘सतही’ लगा है, तो इसके ‘वाजिब’ कारण हैं। पहला तो यही कि मैंने ‘एक-दो’ समीक्षकों का ही नामोल्लेख किया है, वह भी ‘कोप के बहाने।’

यह सच है कि जोशी जी को मैं एक कला-समीक्षक के बतौर पढ़ता रहा हूं। अलबत्ता नामोल्लेख में मुझसे ‘भूल’ हो गई। हालांकि जोशी जी को ‘राहत’ की सांस लेनी चाहिए थी, क्योंकि वे मेरे ‘कोप’ का ‘शिकार’ होने से बच गए। ‘अखबार में नाम’ ही महत्त्वपूर्ण है, मुझे अगर पहले से इसकी थोड़ी भी ‘समझदारी’ या ‘दुनियादारी’ होती तो, सच कहता हूं, आपका ‘कोपभाजन’ बनना मैं कभी स्वीकार नहीं करता।

जोशी जी को लगा कि मैंने ‘पुष्ट परंपरा/विराट परंपरा’ की चर्चा नहीं की। चर्चा तो स्वयं जोशी जी भी नहीं कर पाए। मुझे अपनी ‘अक्षमता’ का अहसास पहले से था, जोशी जी को अब जाकर होगा। श्रीमान जोशी की राय में, ‘कलाओं में चित्रकला के सृजन की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी कला चिंतन की परंपरा। यह परंपरा संस्कृत से प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में गई...।’ और यह परंपरा निःसृत होती है ‘वेद’ से। हालांकि जोशी जी की यह कोई मौलिक स्थापना नहीं है। बुद्धिजीवियों का बाजाब्ता एक ‘गिरोह’ ही है जो कला तो क्या ‘सापेक्षतावाद’ एवं ‘विकासवाद’ तक को वेद ही में ढूंढ़ लेता है। (देखें, मीरा नंदा, ‘पोस्ट मॉडर्निज्म, हिन्दू नेशनलिज्म एंड वेदिक सायंस’, फ्रंटलाइन, 15 जनवरी, 2004, पृष्ठ-78।) कहूं कि जोशी जी ‘विराट परंपरा’ की बात तो करते हैं, लेकिन चीजों पर विचार करते समय उनकी ‘विराटता’ के दर्शन नहीं होते। वेद की ‘लक्ष्मण-रेखा’ पार नहीं कर पाते। इसमें बहुत हद तक उनका दोष नहीं है, दोष उस विचार-धारा का है, जिसके अनुयायी परंपरा जैसी गंभीर चीजों पर इतने ‘एकांगी’ और ‘पारंपरिक’ ढंग से विचार करते हैं कि ‘परंपरावादी’ होने की बू आने लगती है।

मेरे लिए तो चित्रकला की ‘विराट परंपरा’ प्रागैतिहासिक काल से शुरू होती है। आदिमानव के अस्तित्त्व के साथ चित्रकला भी जुड़ी हुई है। बल्कि आदिमानव को ‘मानव’ बनाने में कहीं न कहीं इस कला की सार्थक भूमिका की मैं तलाश करता हूं। ये और बात है कि आदिमानव का जो ‘कला-विमर्श’ रहा होगा, उसके प्रतिमान, ‘सौंदर्यशास्त्रीय’ की अपेक्षा ‘उपयोगितावादी’ मूल्यों से अधिक प्रेरित/प्रभावित रहे होंगे।

जोशी जी परंपरा की धार में बहते अतिशयोक्तिपूर्ण वक्तव्य देते चलते हैं। उन्हें इस बात का इलहाम है कि ‘साहित्यकारों द्वारा कला-आलोचना के क्षेत्र में काम करने की परंपरा हिंदी ही नहीं, दुनिया की हर भाषा में मिलती है।’ लेकिन ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी से लेकर अशोक वाजपेयी’ तक के ‘अनेक कलाविद’ के जो नाम गिनाए गए हैं, वे ‘किसी भी एक भाषा को आसानी से मयस्सर नहीं होते, जो हिंदी को हुए।’ कोई पाठक जोशी जी से पूछ ले सकता है कि ‘अभिव्यंजनावाद से लेकर प्रभाववाद’ तक जो कला-आंदोलन हुए हैं, वे भी आखिर किसी न किसी भाषा ही में हुए हैं, तो उनके अपने महावीर प्रसाद द्विवेदी या अशोक वाजपेयी नहीं रहे होंगे क्या? जोशी जी को यह स्पष्ट तरीके से मालूम है कि ‘ये आंदोलन वायवीय नहीं थे।’ वैसे, मेरे जानते कोई भी आंदोलन वायवीय नहीं होता।

जोशी जी अपने ही ‘यक्ष-प्रश्न’ से परेशान हैं कि ‘जब भाषा साहित्यकार को ही आती है (जोर हमारा) तो आलोचना लिखेगा कौन?’ इस कथन के पूर्वार्ध पर अगर विश्वास कर लिया जाए तो क्या चित्रकला या नाटक की भाषा के लिए कोई भी संभावना बची रहती है? शायद नहीं, क्योंकि श्रीमान जोशी शब्द-रूप के बगैर भाषा की कल्पना ही नहीं कर पाते। वे धन्य हैं जो प्रकृति की ‘मौन की भाषा’ भी समझ लेते हैं। बल्कि मैं तो बचपन से पढ़ता आ रहा हूं कि भाषा मनुष्य मात्र की पहचान या उपलब्धि है। जो सचमुच में साहित्यकार हैं, वे भाषा तांगे वाले या हल चलाने वाले से भी सीखते हैं। एक बच्चे से भी सीखनी होती है भाषा।

जाहिर है, जोशी जी अगर ‘साहित्यकार’ हैं तो भाषा पर उनका ‘एकाधिकार’ है। हालांकि उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर में ऐसी खुशफहमी कुछ ठीक नहीं है,जोशी जी!

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